SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ अनेकान्त दिइने सुखी थे कि कभी किसीको किमी दूसरे की वस्तुको चुराने की इच्छा नहीं होती थी जो जिम वस्तुका पाना चाहता था उसे वह वस्तु अनायासस्वयमेव प्राप्त जाती थी । यह वर्णनीय वृत्त साधारण है परन्तु कविके परिसंख्या अलंकार उसकी शोभा को बहुत मोहक बना दिया है। सुगन्धिनः संनिहिता मुखस्य, स्मितद्यु ना विच्छुरिता वधूनाम् । भृङ्गा बभुर्यत्र भृशं प्रसून – संक्रान्तरेणू कर कर्बुरा वा ॥ ४३५॥ स्त्रियोंके मुखोंकी सुगन्धिकं कारण जो भरे उनके पास पहुँच जाते थे वे भौंरे उन स्त्रियोंकी मुसकानकी सफेद कान्तिसे व्याप्त होनेपर ऐसे मालूम होते थे, जैसे मानों फूलांक पराग के समूह कर्बुर - चित्र विचित्र हो गये हो' । यहाँ तद्गुण तथा उत्प्रेक्षाका संकर दर्शनीय है । सुभ्रयुगं चंचलनेत्र वाहं, यस्यां स्फुरत्कुण्डल चारु चक्रम् । श्रारुह्य जातस्त्रिजगद्विजेता, वधूमुखस्यन्दनमङ्ग जन्मा ॥ ५२ ॥ 'जां, उत्तम भह रूप युग-र्जुवारी सहित हैं (पक्ष में उत्तम भौंहों के युगलसे सहित हैं) चञ्चल नेत्र रूप बाहो-घोड़ोंसे युक्त हैं ( पक्ष में चञ्चल नेत्रोंको प्राप्त है) और जो कुण्डल रूपी सुन्दर चक्र - आयुध विशेषसे शोभित हैं ( पक्ष में चमकते हुए कुण्डलों की चारु परिधि सहित हैं) - ऐसे स्त्रीके मुखरूपी रथ पर आरूढ़ होकर कामदेव जिस द्वारावती नगरी में तीनों लोकोंका जीतने वाला बन गया था ।' यहाँ 'युग' 'वाह' और 'चक्र' शब्द के श्लेषसे अनुप्रीणित वधू मुख और स्यन्दन- रथका रूपक विशेष दर्शनीय है । [ बर्ष ४ को भी संभव कर दिखाते हैं । यही बात है कि कविराज भी आगे श्लोक में श्राकाशगत सुवर्ण कमलों का संभव कर दिखाते हैं। देखिये - लोग कहते हैं कि कवियोंके सामने कोई भी वस्तु असंभव नहीं है - वे अपनी कल्पना से असंभव वस्तु यदुपादे, सुरमन्दिरेषु, लुप्तेषु शुद्धस्फटिकेषु मकम् । es स्फुटं हाटककुम्भकोटि-र्नभस्तलाम्भोरुह कोशशङ्काम् ॥ 'द्वारावती नगरी में रात के समय, निर्मल स्फटिकमणियों के बने हुए देवमन्दिर चन्द्रमाकी सफेद किरणों द्वारा लुप्त कर लिये जाते थे - सफेद मंदिर सफेद किरणों में तन्मय होकर छिप जाते थे, सिर्फ उन मन्दिरोंके सुवर्ण-निर्मित पीले पीले कलशे दिग्बलाई पड़ते थे उनसे यह स्पष्ट मालूम होता था कि श्राकाशमं सुवणे - मल फूले हुए हैं। (भावानुवाद) श्लेष और उत्प्रेक्षा संवर-मेलका उदाहरण देखिये यमक वृत्तेर्धन वाहनस्य, प्रचेतसो यत्र धनेश्वरस्य । व्याजेन जाने जयिनो जनस्य, वास्तव्यतां नित्य मगुदिंगीशाः ॥ 'उस द्वारावती के रहने वाले मनुष्य यमैकवृत्ति थे - अहिंसा आदि यमत्रतांको धारण करने वाले थे ( पक्ष में यमराजकी मुख्य वृत्तिको धारण करने वाले थे ) घनवाहन थे - अधिक सवारियोंस युक्त थे ( पक्ष में इन्द्र थे), प्रचेतस थे - प्रकृष्ट-उत्तम हृदयको धारण बरने वाले थे ( पक्ष में वरुण थे ) और धनेश्वर थेधनके ईश्वर थे ( पक्ष में कुबेर थे) इसलिये मैं समझता हूं कि वहांके मनुष्योंके छलसे चारों दिशाओंके दिक्पालोंने उस नगरी को अपना निवासस्थान बनाया था । ' [दक्षिण दिशा के स्वामीका नाम यम, पूर्व दिशा के स्वामीका नाम धनवाहन- इन्द्र, पश्चिम दिशाके स्वामीका नाम धनेश्वर - कुबेर है ] । इस प्रकार कविराजने बहुत ही सुन्दर रीतिसे
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy