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________________ जैनी नीति [ लेखक–५० पन्नालाल जैन 'वसन्त' साहित्याचार्य ] एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । भन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ एक दिवम अङ्गणमें मेरेगोपी मन्थन करती थी, 'कल-छल कल-छल' मंजुलध्वनिसे अविरल गृहको भरती थी। उज्ज्वल दधिसे भरे भाण्डमेंपड़ा हुआ था मन्थन-दण्ड, श्रायत-मृदुल-मनोहर कढ़नी मे करता था नृत्य अखण्ड । गोपीके दोनों कर-पल्लवक्रमसे कदनी स्त्रींच रहे, चन्द्र-बिम्ब-सम उज्ज्वल गोले मक्खनके थे निकल रहे। मैंने जाकर कहा गोपिके ! दोनों करका है क्या काम ? दक्षिण-करसे कढ़नी म्बींचों, अचल रखो अपना कर बाम । ज्यों ही ऐसा किया गोपिने त्यों ही मन्थन नष्ट हुआ, कढ़नी दक्षिण-करमें श्राई, मथन-दण्ड था दूर हुश्रा । तब मैंने फिर कहा गोपिके ! अब खींचो बाएँ करसे, दक्षिण करको सुस्थिर करके सटा रखो अपने उरसे । बाएँ करसे गोपीने जबथा खींचा कढ़नीका छोर, मथन-दण्ड तब छूट हाथमे दूर पड़ा जाकर उम ओर ! मम चतुराई पर गोपीने मन्द मन्द मुस्कान किया, फिर भी मैंने तत्क्षण उसको एक अन्य अादेश दिया । अब खींचो तुम दोनों करसेएक साथ कढ़नीके छोर, दृष्टि सामने सुस्थिर रक्खो __नहीं घुमायो चारों ओर । गोपीने दोनों हाथासे कढ़नीको खींचा ज्यों ही, मथन-दण्ड भी निश्चल होकर खड़ा रहा तत्क्षण त्यो ही। सारी मन्थन-क्रिया रुकी अरु कल-छलका रख बन्द हुया! अपनी चतुराई पर मुझको तब भारी अफ़सोस हुआ ! गोपीने मन्यन-रहस्य तबहँसकर मुझको बतलाया; __ मेरे मनके गूढ तिमिरको हटा, तत्त्व यह जतलाया । दक्षिण करसे कढ़नीका जबअञ्चल खींचा करती हूँ, बाम हस्तको तब ढीला कर कढ़नी पकड़े रहती हूँ। बाम हरूलसे जब कढ़नीकाछोर खींचने लगती हूँ, दक्षिण करको तब ढीलाकर कढ़नी पकड़े रहती हूँ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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