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विश्व तत्त्व-प्रकाशक
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वप ४ किरण १५
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* ॐ अर्हम् *
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नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्पम् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वस्तुतत्त्व-संघातक
वीरवामन्दिर (मगन्नभद्राश्रम) सग्भावा जिला महारनपुर आषाढ, वीर निर्वाण सं० २४६७. विक्रम मं० ४६६८
जिनेन्द्रमुख और हृदयशुद्धि
जून १९४१
अताम्रनधनोत्पलं मकलको पवन्हेर्जयात्, कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकतः । विषाद-मद- हानित: प्रहसितायमानं सदा,
मुखं कथयतीव मे हृदय-शुद्धिमात्यन्तिकीम् । — चैत्यभक्ति
हे जिनेन्द्र ! श्रपका मुख, संपूर्ण कोपवन्हि पर विजय प्राप्त होनेसे- श्रनन्तानुबन्ध्यादि-भेदभिन्न समस्त क्रोधरूपी मिका तय हो जाने - श्रताम्रनयनोपल है उसमें स्थित दोनों नयन -कमल-दल सदा श्रताम्र रहते हैं, उनमें कभी क्रोधसूचिका सुख नहीं प्राती; और अविकारता के उद्र े कसे-बीतगगताकी श्राप में परमप्रकर्षको प्राप्ति होनेसे-कटाक्षबाणोंके मोचन व्यापारसे रहित है— कामोद्र कादिके वशीभूत होकर द्दष्ट प्राणिके प्रति तिर्यग्दृष्टिपातरूप कटाक्ष-बाणोको छाड़ने जैसी कोई क्रिया नहीं करता है। साथ ही, विषाद और मदकी सर्वथा हानि हो जानेसे—उनका श्रस्तित्व ही श्रापके श्रात्मामें न रहने से – सदा ही प्रहसितायमान रहता है - प्रहसित प्रफुल्लित की तरह श्राचरण करता हुआ निरन्तर ही प्रसन्न बना रहता । इन तीन विशेषणां विशिष्ट श्रपका मुख श्रापकी श्रात्यन्तिकी - श्रविनाशी – हृदयशुद्धिका द्योतन करता है । भावार्थ – हृदयको श्रशुद्ध करने वाले क्रोध, कामादि, मद और विषाद है, ये जिनके नष्ट हो जाते हैं उनका मुख उक्त तीनों— ताम्रनयनोत्पल, कटाक्ष-शर- मोक्ष-हीन, मदा प्रहसितायमान- विशेषणोंसे विशिष्ट हो जाता है। जिनेन्द्रका मुख चू ंकि इन तीनों विशेषणोंसे विभूषित है इसलिये वह उनके हृदयकी उठ श्रात्यन्तिकी 'शुद्धिको' स्पष्ट घोषित करता है, जो काम, क्रोध, मद और विषादादिका सर्वथा अभाव हो जानेसे सम्पन्न हुई है । हृदयशुद्धिकी इस कसौटी अथवा मापदण्ड मे दूसरोंके हृदयकी शुद्धिका भी कितना ही अन्दाजा और पता लगाया जा सकता है।