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________________ 'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता (लेखक--40 रामप्रसाद शास्त्री) ४ भाष्य [गा किरण मे आगे] भाष्य' का प्रयोग न करनेके सम्बन्धमें इतना ही (ग) इस भाष्य-प्रकरणमें प्रो० जगदीशचन्द्रन कहना है कि अकलंकदेवनं तत्त्वार्थसूत्रपर दो-चारभाष्य गनवार्तिक-भाष्यक “यद्भाध्य बहुकृत्वः षडद्रव्याणि ता बनाय नहीं हैं, जिसमें कि वहां शंकाकार की ओर इत्युक्त" वाक्यका लेकर लिखा था कि-"यदि यहां संभाष्य' के पहले 'अस्मिन्' शब्दके लगानेकी भाष्यपदका वाच्य राजवार्तिकभाष्य होता तो भाष्य' जरूरत पड़ती । जब अकलंक देवका तत्वार्थसूत्रपर एक गजवानिक भाष्य ही मिलता है तब फिर न लिम्वकर अकलंकदेवको 'पूर्वत्र' आदि काई शब्द 'अम्मिन भाय' (इस भाप्यमें) ऐमा वाक्य लिम्बनको लिम्बना चाहिये था ।" इस कथनपर आपत्ति करते कंवल व्यर्थता ही सूचित होती, अतः शंकाकारकी और उसे अनुचित बतलाते हुए मैंने लिखा था कि"सर्वत्र लेग्बककी एकसी ही शैली होनी चाहिय ऐमी पोरस 'भाष्य' पदकं पहले 'अस्मिन' पद न लगाकर जा केवल 'भाध्य' पदका प्रयोग किया गया है वह प्रतिज्ञा कर के लेखक नहीं लिम्वतं, किन्तु पनको जिस लंग्वन-शैली में स्व-परको सुभीता होता है, वही शैली उचित ही है । और यदि वहां अकेला 'पूर्वत्र' शब्द ही अंगीकार कर अपनी कृतिमें लाते हैं, 'पूर्वत्र' शब्द लिग्या नाना तो शंका नदवथ ही रहती कि- 'पूर्वत्र' कहांपर भाष्यमें या वानिय में अनः कहना होगा कि देनसे संदेह हो सकता था कि-वार्तिकम या भाष्य में? वैसी शंका किमीको भी न हो इसलिये स्पट राजवार्तिकमे जा केवल 'भाप्य' पर दिया गया। 'भाष्य' यह पद लिखा है। क्योंकि गजव तिकक वह इस दृष्टिम भी मवथा उचित है। पंचम अध्यायके पहले सूत्रकी पार्षविगंध' इत्यादि इसके बादमें श्रापन गजवार्निक (पृ०२६४) के ३५वीं वार्तिकके भाष्यमें 'षण्णामपि दव्याणां' "ननु पूर्वत्र व्याख्यानमिदं" इत्यादि वाक्यके द्वारा 'आकाशादीनां षण्णां' ये शब्द आये हैं, तथा अन्यत्र जो यह लिखा है कि 'यहाँ 'पृर्वत्र' शब्दस पूर्वगत भी इसी प्रकार राजवार्तिक भाष्यमें शब्द है। व्याख्यानका सूचन किया है मां यहां वार्तिक और गजवानिकभाष्यमें यह षद्रव्यका विषय स्पष्ट रू में भाष्यका मंदेह क्यों नहीं ? इसका जवाब यह है कि होनस पं० जुगलकिशोरजीने यह लिम्ब दिया है कि शंकाकार जब किमी निश्चित थानको लेकर शंका "और वह उन्हीं का अपना गजवार्तिक-माष्य भी हा करता है कि अमुक स्थलमें एमी बात कही है उमक मकता" यह लिम्बना अनुचित नहीं है।" मग इम क्या ममाधान है? तब समाधानकर्मा यदि उमी आपत्तिके उत्तर प्रो०साहबने जो कुछ लिया है. स्थल को लेकर ममाधान करंगा ना केवल 'पूर्वत्र' या उमकी निःसाग्नाको नीचे व्यक्त किया जाना है:- 'उत्तरत्र' शब्दों के माथमें उसका उल्लेख कर मकेगा; सबले पहले आप लिखते हैं कि:-'याध्य बहुकृत्वः' और यदि समाधानका स्थल काई दृमग हागा ता मादि उल्लेख गजवार्तिकका भी नहीं हो सकता। वहां या तो ग्वाम उम म्थलके नामोल्लम्बपूर्वक यदि यहाँ 'भाष्य' पदसे अकलंकको म्बकृत भाष्य समाधान करेगा अथवा उस स्थल के पहले 'पूर्वत्र' इष्ट होता तो उन्हें स्पष्ट 'अम्मिन भाष्य' अथवा या 'उत्तरत्र' शब्द जोड़करके भी समाधान कर 'पूर्वत्र' आदि लिखना चाहिये था।" यहां 'अम्मन सकेगा। गजवातिक तथा अन्यत्र एमी पद्धनिका
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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