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________________ निश्चय और व्यवहार (ले०७० छोटेलाल जैन) पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है, उसका ज्ञान प्रमाण रहिन (वीनगग) कंवल निवृत्तिरूप आत्माका शुद्धोऔर नयोंके द्वाग ही होता है। जो पदार्थक सर्वदेश पयोग परिणाम ही है और वही सर्वथा उपादेय है। को कहे-जनावे उमे 'प्रमाण', और जो पद र्थक प्रश्न-शुभोपयोग आस्रव और बंधस्वरूप, एक देशको कहे-जनावे उसे 'नय' कहते हैं। वे तथा शुद्धोपयोग संवर और निर्जराम्वरूप है, फिर नय दो हैं-एक निश्चय, दूसग व्यवहार । निश्चय नय उनका कारण कार्य कैसा ? वस्नुके किमी असली अंशक ग्रहण करनेवाले ज्ञानको, उत्तर-शुभोपयोग अशुभांपयांगके ममान शुभोतथा व्यवहार नय किसी निमित्तकं वशसे एक पदार्थ पयार पयोगका व धक नहीं, यदि शुभोपयोगी जीव पुरुषार्थ को दूमर पदार्थरूप जानने वाले ज्ञानको कहते हैं। करे तो शुद्धापयोग प्राप्त कर सकता है। तथा वह पदार्थ और वचनका वाच्य वाचक सम्बन्ध होनस शुद्धात्माओंका सांकेतिक भी है। यही कारण है कि वचनको भी उपचारमं नय कहा है। इन दोनों नयों उस उसे शुद्धोपयोगका उपचारसं कारण कहा है। शुद्धोके उपदेशको ग्रहण करने के लिये नाचेकी गाथा बड़ी पयाग प्राप्त करनेका मार्ग शुभांपयोग ही है। श्री मार्मिक है पूज्यपाद स्वामीने समाधितंत्रमं कहा हैजो जिणमयं पविजह, तो मा वबहार-णिकयं मंच । ___ अपुण्यमत्रतैः पुण्यं, तैर्मोक्षम्तयोव्ययः । __ अवतानीव मोक्षार्थी, व्रतान्यपि ततम्त्यजेत् ।। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण तवं च ॥ ___ अर्थात्-अवतोस पाप, और व्रतोंस पुण्य, तथा अर्थात्-यदि तू जिनमतमें प्रवर्तन करता है तो दानोंक प्रभावसे मोक्ष हाता:। अतः मोक्षार्थीको व्यवहार और निश्चयको मत छोड़ा यदि निश्चयका पक्ष पर अवतों की तरह व्रताको भी छोड़ना चाहिये । किन्तु पाती होकर व्यवहारको छोड़ देगा, तो ग्लत्रयस्वरूप उनके छोड़ने का क्रम बताते हुए कहते हैंधर्मतीर्थका अभाव हो जायगा और व्यवहारका पक्ष- अव्रतानि परित्यज्य, व्रतेषु परिनिष्ठितः । पानी होकर निश्चयको छोड़ देगा, तो शुद्ध तत्त्व त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य, परमं पदमात्मनः ।। म्वरूपका अनुभव होना दुस्तर है। इमलिये पहले अर्थात्-पहले अननोंको त्यागकर व्रतोंमें निहित व्यवहार तथा निश्चयको अच्छी तरह जान लेना होना, पश्चात प्रतोंको भी छोड़कर परमात्मपदमें पश्चात यथायोग्य अंगीकार करना। स्थित होजाना चाहिये। __ मुनि - भावकाचार प्रवृत्तिरूप शुभोपयोगको जो अव्रतोंकी तरह व्रत छोड़े नहीं जाते, किन्तु छूट धम कहा है वह वास्तवमें साक्षात धर्म नहीं, धर्मका जाते हैं । शुद्धोपयोग प्राप्त होने पर शुभ विकल्पोंका कारण है। कारणमें कार्यका उपचारकर व्यवहार नय भी प्रभाव होजाता है, यहो : नका छूटना है। से उस धर्म कहा है। निश्चयस शुद्ध धर्म रागादि वचन और कायके व्यापारका विषयोंसे निवृत्त
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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