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________________ १२० भनेकान्त [वर्ष ४ जिन जिन ग्रंथोंमें ये प्रशस्तियां पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध खंडन किया है। पूमेयकमलमार्तण्डके छठवें अध्याय तर्कप्रथकार पूभाचंद्रके ही ग्रंथ होने चाहिएँ। में जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासोंका निरूपण २-यापनीयसंघामणी शाकटायनाचार्यने शाक- है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए हैं। स्व. डा० टायन व्याकरण और अमोघवृत्ति के सिवाय केवलि- शतीशचंद्र विद्याभूषण इनका समय ई० ९००के लगमुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं । शाकटायनने भग मानते हैं । अतः प्रभाकंद्रका समय भी ई०९०० अमोघवृत्ति, महाराज अमोघवर्षके राज्यकाल (ई० के बाद ही होना चाहिये । ८१४ से ८७७) में रची थी। प्रा० प्रभाचंद्रने प्रमेय- ५-० देवसेनन अपन दर्शनसार ग्रंथ (रचनाकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचंदमें शाकटायनके समय ९९० वि०, ९३३ ई०) के बाद भावमंग्रह प्रथ इन दोनों प्रकरणों का खंडन प्रानुपूर्वीस किया है। बनाया है । इसकी रचना संभवतः सन् १४० के न्यायकुमुदचंद्रमें स्त्रीमुक्तिप्रकरणसे एक कारका भी प्रासपास हुई होगी। इसकी एक 'नोकम्मकम्महागे' उद्धत की है । अतः प्रभाचंद्रका समय ई० ९०० से गाथा पूर्मयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचंद्रमे उद्धत पहिले नहीं माना जा सकता। है। यदि यह गाथा स्वयं देवसेनकी है तो पभाचंद्रका ३-सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षि- समय सन् ६४० के बाद हाना चाहिए। गणिकी एक घृत्ति उपलब्ध है । हम 'सिद्धर्षि और ६-पा० पभाचंद्रने प्रमेयकमलमा० और न्यायपभाचंद्र' की तुलना में बता पाए हैं कि प्रभाचंद्रने कुमुद० बनानेके बाद शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यायावतारके साथ ही साथ इस वृत्तिको भी देखा जैनेन्द्रन्यास रचा था। यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके है। सिर्षिन ई० ९०६ में अपनी उपमितिभवपपञ्चा- बाद इसी के आधारसे बनाया गया है। मैं 'अभयनन्दि कथा बनाई थी। अतः न्यायावतारवृत्तिके द्रष्टा प्रभा- और प्रभाचंद्र' की तुलना करते हुए लिख आया हूं' चंद्रका समय सन् ११०के पहिले नहीं माना जा कि नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके गुरु अभयनन्दिने ही सकता। यदि महावृत्ति बनाई है तो इसका रचनाकाल ४-भासर्वज्ञका न्यायसार प्रन्थ उपलब्ध है। अनुमानतः ९६० ई० होना चाहिये । अतः प्रभाचंद्रका कहा जाता है कि इसपर भासर्वज्ञकी स्वोपज्ञ न्याय- समय ई० ६६० से पहिले नहीं माना जा सकता। भूषण नामकी वृत्ति थी। इस वृत्तिके नाम मे उत्तर- ७-पुष्पदन्तकृत अपभ्रंशभाषाके महापुराण पर कालमें इनकी भी 'भूषण' रूपमे पसिद्धि हो गई थी। पूभाचन्दने एक टिप्पण रचा है। इसकी पशस्ति रत्नन्यायलीलावतीकारके कथनसे २ ज्ञात होता है कि करण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावना (पृ०६१) में दी भूषण क्रियाको संयोगरूप मानते थे । प्रभाचंद्रने गई है। यह टिप्पण जयसिंहदेवके गल्यकालमें लिखा म्यायकुमुदचंद्र (पृ० २८२ ) में भासर्वज्ञके इस मतका गया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन ९६५ ई० -- में समाप्त किया था। टिप्पणकी प्रशस्तिसे तो यही १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पस्तावना पृ. ३६ । २ देखो; न्यायकुमुदचंद्र पृ० २८२ टि० ५। २ न्याय- _ मालूम होता है कि पमिद्ध पूभाचंद्र ही इस टिप्पणक सार प्रस्तावना पृ०५। १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पुस्तावना पृ० ३३ ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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