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________________ भनेकान्त [वर्ष ४ पेमहि तहिं गउलु क उलु अ जो चाहा था वही मब किया, राउल (गजा और जसहर विवाहु तह जणिय चाज । कोलका प्रमंग), विवाह और भवांतर। फिर जब सयलहं भवभमणभवंतराइं , सामने व्याख्यान किया, सुनाया, तब बीमल साहु मह वंछिउ कह णिरंतगई। सन्तुष्ट हुए । योगिनीपुर (दिल्ली) में साहुके घर अच्छी ता साहुममीहिउ कियउ सव्वु , तरह सुम्थितिपूर्वक रहते हुए विक्रम राजाकं १३६५५ राउलु विवाहु भवभमण भन्छ । मंवन्म पहल वैशाखकं दूमर पक्षकी तीज रविवारका वक्खाणि पुर हवइ जाम, यह कार्य पूरा हुश्रा।" मंतुट्ठउ वीसलु साहु ताम | “पहले कवि (वच्छगय) ने जिस वस्तु छन्दबद्ध जोइणिपुरवार णिवसंतु सुट्ट , किया था, वही मैंने पद्धड़ीबद्ध रचा।" साहुहि घरे सुत्थियणहु धुट्ठ ॥ कन्हड़क पुत्र गन्धवन स्थिर मनसे भवांतरोंको पणपट्टिमयि तेरहसयाई , कहा है। इसमें कोई मुझे दोष न दे। क्योंकि पूर्व में णिवविक्कम संवच्छग्गयाइं । वच्छगयन यह कहा था। उमीक सूत्रको लेकर मैंने बासाहपहिल्लइ पक्वि बीय, कहा है।" रविवारि ममित्थउ मिस्स तीय ।। इमक भागेका पत्ता और प्रशम्ति म्वयं पुष्पदन्त चिरु वत्थुबंध कइकियउ जि, कृत है जिमम उन्होंने अपना परिचय दिया है। पद्धडियबंधि मई रइउ तंजि । पूर्वोक्त पद्याम बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि गंधव्वं कण्हड णंदणेण , गन्धर्व कविन दिल्ली में पानीपत के रहने वाले बीसलअायहं भवाई कियाथरमणण । साहु नामक धनीकी प्रेरणास तीन प्रकरण स्वयं बना महु दासु ण दिज्जइ पुचि कइउ, कर पुष्पदन्तके यशोधर चरितमें पीछेस सं० १३६५ कइवच्छगई तं सुत्त लइउ ॥ में शामिल किये हैं और कहाँ कहाँ शामिल किये हैं, इमका भावार्थ यह है सो भी यथास्थान ईमानदारीसे बतला दिया है। "जिसके उपराध या आग्रहसं कविपनिने यह देखिएपूर्वभवोंका वर्णनकिया(अब मैं) उस भव्यका नाम प्रकट १ पहली मन्धिकं चौथे कड़वककी 'चाएणकण्णु करता हूँ। पहले पट्टण' या पानीपतमें छंगे साहु नाम विहवेण इंदु' आदि पंक्तिकं बाद अाठवें कड़वकक के एक माह थे । उनकं खेला साहु नामक गुणी पुत्र __ अन्त तककी ८१ लाइनें गन्धर्वरचित है जिनमें गजा मारिदत्त और भैरवकलाचार्यका संलाप है। उनके हए । फिर खेला साहु के बीसलसाहु हुए जिनकी अन्नमें कहा हैपत्नीका नाम वीरो था । वं गुणी श्रोता थे । एक दिन गंधव्वु भणइ मई किय र ए र, णिव जाईसहो संजोय भेउ उन्होंने अपने चित्तमें सांचा (और कहा कि हे कराह अग्गइ कइरायपुप्फयंतु सरसहणिलउ । के पुत्र पंडिन ठकुर (गन्धर्व) वल्लभराय (कृष्ण तृतीय) दवियहि सरूउ वरगाइ कइयणकुलतिल ॥ के परम मित्र और उपकारित कवि पुष्पदन्तने सुन्दर न्धर्व कहता है कि यह गजा और और शब्दलक्षणविचित्र जो जसहरचरित बनाया योगीश (कौलाचार्य) का संयोग-भेद मैंने कहा । है उसमें यदि राजा और कौलका प्रसंग, यशोधरका अब आगे मरस्वतीनिलय कविकुलतिलक कविराज आश्चर्यजनक विवाह और सारे भवांतर और प्रविष्ट पुष्पदन्त ( मैं नहीं ) देवीका स्वरूप वर्णन करते हैं। करदो, तो मेरा मन चाहा हो जाय । तब मैंने साहुने । २ पहली ही सन्धिक २४ वें कड़वककी ‘णेढ१ 'पट्टण' पर 'पानीपत' टिप्पण त्तणि पुट्ठि पलट्ठियंगु' आदि लाइनसे लेकर २७ वें
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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