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________________ भनेकान्त [वर्ष ४ आपने उनको मेरी शाखाको पद-दलित करनेकी प्रज्ञा दी 'सम्य-भवन' में इस घटना पर साधुनों में विवाद छिड थी? साधुने कहा 'हो बहिन!' तब उसने कहा 'मुझसे गया-'कुण्डलकशीने धमका थोड़ा ही ज्ञान प्राप्त किया था प्रश्नोत्तरों में प्रतिद्वंदिता कीजिये।' साधुन कहा 'बहुत अच्छा! फिर भी उसे संघर्म स्थान मिलने में सफलता मिली। इसके मैं ऐसा ही करूंगा।' सिवाय वह एक डाकूक साथ प्राण्ड युद्ध करते हुप और जब संध्याकी वेला बाई, तब वह भिक्षुणी प्रश्न करने उसे पराजित करते हुए यहां आई है।' इतने में प्राचार्य के लिए माधुके प्रावाम स्थल पर पहुंची। मारे नगरमें हल- महाराज प्राये और उन्होंने पूछा "भिघुनो ! यहा चल मच गई। लोग आपसमें कहने लगे 'चलो चलें, इन बैठे बैठे किम विषय पर विवाद कर रहे हो ?" दोनों विद्वानोंका वार्तालाप सुने। लोगोंने साध्वीकं साथ साधुओंने सब हाल कहा। इस पर गुरुदेव बोले साधुआन सब हाल कहा। इस पर नगरम्प प्राचार्य श्री निवास स्थल तक पहुंचकर उन्हें 'भित्तुनो ! हम धर्मका निश्चय नहीं करते, मैंने थोड़ा प्रणाम किया और विनय पूर्वक वे एक ओर बैठ गये। अथवा बहन धर्म सिखाया है 1 अर्थहीन सौ वाक्यों में कोई साध्वीने साधुमं कहा 'पूज्यवर ! मैं आपसे एक प्रश्न विशेषना नहीं है, किन्तु धर्मका एक वाक्य अरहा है। जो पूछना चाहती हूँ ?' साधुने कहा 'पूछिये ।' तब उसने धर्म सब डाकुओं पर विजय प्राप्त करता है वह कुछ भी विजय के सहस्र नियमोंको पूछ। । साधुने ठीक ठीक उत्तर दिया। लाभ नहीं करता, किन्तु जो अपनी प्रारमाका पतन करनेवाले तबमाचार्यने उससे पूछा 'तुमने केवल ये थोडेस प्रश्न पूछे, डाकुओं को पराजित करता है, यथार्थमें उम्मीकी ही विजय है।' क्या कुछ और पूछना है ?' उसने कहा 'पूज्यवर ! बस इतना यहां प्रसंगोचित धर्मका स्वरूप समझाने वाला एक भावपूर्ण पद्य उन्होंने पढ़ा जिसका श्राशय इस प्रकार है - ही पछना है ?' इस पर साबुने कहा 'तुमने तो बहुतमे प्रश्न कोई व्यकि भले ही भावहीन सौ पद्योंके वाक्योंको पहे. अब मैं मुममें केवल एक ही प्रश्न पूछना हूं. क्या आप पहें किन्त धर्मका एक वाक्य भी अच्छा है जिसे सुनकर उत्तर देंगी । भिक्षुणीने कहा 'अपना प्रश्न कहिये।' प्राचार्य मनुष्य शान्ति लाभ करे । यद्यपि कोई व्यक्ति युद्धमे सहस्र ने पूछा 'एक क्या है? तब वह अपने मनमें कहने लगी मनप्योंको हजार बार पराजित करे. किन्तु जो अपनी प्रारमा 'यह प्रश्न है जिसका उत्तर देनेके योग्य मुझे होना चाहिये।' को जीनता है वह सबसे बड़ा विजेता है।' किन्तु उत्तर न जाननेसे उसने माधुसे पूछा 'महाराज वह नीलकेशी, जोकि तामिल भाषाके पंच लघुकायोंमें क्या है ? प्राचार्य ने कहा 'बहिन, यह तो बद्धका प्रश्न एक है, वह स्पष्टतया बौद्ध ग्रन्थ कुण्डलकेशीके उत्तररूपमें तब साध्वीने कहा 'महाराज! मुझे भी उत्तर बताइये। इस है, जैसाकि इसके लेखकने स्वयं सूचित किया है। इसका कथानक पौराणिककथानोंमेंसे नहीं लिया गया है । सम्भवतः पर साधुने कहा 'अगर तुम हमारे संघमें शामिल होगी तो यह कथा ग्रंथकारकी काल्पनिक कृति है। इसका उद्देश्य दार्शनिक मैं तुम्हें उत्तर बताऊंगा।' उसने कहा 'मच्छा, मुझे संघमें विवादके लिये भूमिका निर्माण करना था। यह ग्रन्थ अब शामिल कीजिये।' साधु महाराजने साध्वियोंको सूचना दी तक प्रकाशमें नहीं पाया। वर्तमान लेखक इस अपूर्व ग्रंथका और उसे संघमें भरती किया गया। जब वह संघमें शामिल एक संस्करण प्रकाशमें करने के प्रयत्न में हैं जोकि प्रेसमें है। करली गई तब उसने सब मियोंके पालन करने की प्रतिज्ञा कुछ मासमें जनताके सामने भा जायगा । यह कथा पार्तीकी। उसका नाम 'कुण्डलकेशी' रखा गया और कुछ दिनों यह ग्रन्थ अब प्रकाशित होकर जनताके मामने श्राचुका है, केवल वह दिव्य शत्रियोंसे विभूषित अईन होगई। ऐमा 'भास्करमें निकली समालोचनामे प्रकट है।- मम्पादक
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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