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पर्युषणपर्वके प्रति
(ले०-५० गजकुम र जैन माहित्याचार्य)
पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ?
[१] था ममय विपतम, जब क्रोध-दावानल, धधकते- । विश्वका कल्याण-कर वह सत्य, हमसे उठ चुका है, बाहु-युगमें भर जगत्को मब तरह झुलसा रहा था, । इस कुपथ पर प्राज, जग दो पग अगाड़ी बढ़ चुका है, कुसुम-सम मुकुमार अन्तवृत्तियोका ग्वन करके, : भद्रनैतिकता, न जाने, कौन कोने छिप गई है, रवूनकी दो बिन्दुअोसे ताप निज सहला रहा था, ।। कौनसे गिरि-गहरोकी बन्दिनी वह हो चुकी है, तब, क्षमा - पीयूष - धाराको बहा करके जगत्का एकदा जिसने किया था पून, हम सबको स्फाटक-सा. ताप मेटा था, न, पर, अब वह कहीं माधुर्य-धारा! लुत बिलकुल हो चुकी है, वह मधुर विधम्म-धारा! पुण्य पyषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? ___ पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ?
[२] मान-दारुण-वारुणीम, अाज हम भूले पड़े हैं, । कालसे कवलित निखिल जग, जीर्ण होता जा रहा है, ऐठम निःसार हूँठोसे, अचल अकड़े ग्वड़े हैं, पर, अतल तृष्णा, जरा भी जीर्ण-शीर्ण नहीं दिग्वाती, चाहते-यह निखिल जग रो पड़े, फिर भी न देग्वे, लोभका माम्राज्य, भूतल पर निरकुश छा रहा है, नकर भर करके, हमारा सामना कर कौन सकता? चाहना जन-'विश्व की माया, चरण-चुम्बन करे मम, श्राज, मार्दव-सिद्धिरस वह ताकमें रक्खा पड़ा है, मैं अकेला ही सकल, सम्पत्तिका स्वामी कहाऊँ. रो रहा दुर्भाग्य पर अपने तथा जगके विचाग! जानले दुनिया यहाँ, परका नहीं बिलकुल गुजारा ! पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? पुण्य पyषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हाग ?
[६] मोहनी माया, अनूठे रागरंग दिग्वला रही है, ' श्राज, हम सब इन्द्रियोंके दास पूरे हो चुके हैं, वेष-भूषासे सभी मंमार-को फुमला रही है, वो चुके हैं प्राश-गिर कर भी उठेंगे क्या कभी हम, खूब जोरोंसे गरम, बाझार, छल का, हो रहा है, एक दिन था, जब हमारी इन्द्रियाँ थी पूर्ण शासित, कौड़ियों के मोल, नर, आर्जव अनोग्वा वो रहा है। अाज तो वे कर चुकी जग पूर्णत: निज पाश-पाशित, चन चतुर-चालाक भोलोको भुलाने जा रहे है. प्राणियोंके प्राणका संत्राण भी कुछ उठ चला है, दिख रहा केवल कपट ही कपटका दुर्भग नजारा! बहरही जगमें असंयमकी प्रबल विकराल धारा!
पुण्य पर्युषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ! पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा !