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________________ ४१३ अनेकान्त एयगा और माताका श्रीदेवी था । व कोडिन्य गोत्रके जाना पड़ता था। ब्राह्मण थे । कहीं कहीं इन्हें भग्नभट्ट भी लिखा है। एक जगह पुष्परम्मन लिग्ग भी है कि वे वल्लभभरतकी पत्नीका नाम कुन्दका था जिमकं गर्भस राजके कटककं नायक अर्थात् सेनापति हुए थे। नन्न उत्पन्न हुए थे। इसके सिवाय व गजाकं दानमंत्रीमी थे । इतिहास भरत महामत्य वंशमं ही उत्पन्न हुए थंx में कृष्ण तृतीयकं एक मंत्री नागयणका नाम ना परन्तु सन्तानक्रमस चली आई हुई यह लक्ष्मी मिलना है जो कि बहुत ही विद्वान और राजनीतिज्ञ (महामात्यपद) कुछ ममयस उनके कुलस चली गई थे, परन्तु भरत महामात्यका अब तक किमीको पता थी । जिम उन्होंने बड़ी भार्ग आपत्तिके दिनोंमें नहीं। क्योंकि पुष्पदन्तका साहित्य इतिहामझोंक अपनी तंजस्वितास और प्रभुकी संवास फिर प्राप्त पास तक पहुंचा ही नहीं। कर लिया था। पुष्पदन्तन अपन महापुराणमें भग्तका बहुत भरत जैनधर्म अनुयायी थे । उन्हें अनवरत- कुछ परिचय दिया है। उसके सिवाय उन्होंने उसकी रचिजिननाथभक्ति और जिनवग्समयप्रामादम्तंभ अधिकांश सन्धियोंके प्रारम्भमें कुछ प्रशस्तिपद्य पीछ अर्थात् निरन्तर जिनभगवानकी भक्ति करनेवाले से भी जोड़े हैं जिनकी संख्या ४८ है । उनमंस छह और जैनशासनरूपी महलके स्तंभ लिम्बा है। (५, ६, १६, ३०, ३५, ४८ ) तो शुद्ध प्राकृतके हैं कृष्ण तृतीयक ही समयमें और उन्हींक साम्रा- और शेष संस्कृतकं । इनमस ४२ पद्यामं भरतका जा ज्यमें बने हुए नीतिवाक्यामृतम अमात्य के अधिकार गुणकीर्तन किया गया है, उससे भी उनके जीवनपर बतलाय हैं श्राय, व्यय, स्वामिरक्षा और राजतंत्रकी विस्तृत प्रकाश पड़ना है । उक्त सारा गुणानुवाद कविपुष्टि-"प्रायोव्ययः स्वामिरक्षा तंत्रपोषणं चामात्या- त्वपूर्ण होनेके कारण अतिशयोक्तिमय हो सकता है न.मधिकारः।" साधारणतः रेवेन्यूमिनिस्टरको प्रमा- परन्तु कविकं स्वभावको देखते हुए उसमे सचाई भी त्य कहते थे । परन्तु भरत महामात्य थे । इससे १ सोयं श्रीभरत: कलङ्कराहत: कान्तः सुवृत्तः शुचिः, मालूम हाता है कि वे रेवेन्यूमिनिम्ट के सिवाय गज्य सज्ज्योतिर्मणिगकगे मृत इवानों गुणैर्भासिते । के अन्य विभागोंका भी काम करते होंगे । राष्ट्रकूटकाल वंशो येन पवित्रतामिह महामात्यायः प्राप्तवान् , में मंत्रीके लिए शासन सिवाय शखा भी होना श्रीमल्लभराजशक्तिकटके यश्चाभवन्नायकः। २ ह हो भद्र प्रचण्डावनिपतिभवने त्यागसंख्यानकर्ता, भावश्यक था। जरूरत होनेपर उसे युद्धक्षेत्रमें भी कोयं श्याम: प्रधानः प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । xमहमत्तवंसधयाडु गहीरु ( महामात्यवंशध्वजपट गंभीर) धन्यः प्रालेयपिण्डोपमधवलयशो धौतधात्रीतलान्त:, -म०५० ३४ वी सन्धिका प्रारंभ ख्यातो बन्धुः कवीना भरत इति कथं पान्थ जानासि नो त्वम्। * तीव्रापदिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना, ३ देखो सालौटगीका शिलालेख, ई०ए० जिल्द ४ पृ०६०। सन्तानकमतो गताऽपि हि रमा कृष्णा प्रभोः सेवया । ४ बम्बईकेसरस्वतीभवनमें महापुराणकी जो बहुत ही अशुद्ध यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं. प्रति है उसकी ४२ वीं सन्धिके बाद 'हरति मनसो मोह' सोऽयं श्रीभरनो जयत्यनुपमः काले कलौ साम्पतम् । श्रादि प्रशुद्ध पद्य अधिक दिया हुआ है। जान पड़ता है म. पु. १५ वी सन्धि अन्य प्रतियोमें शायद इस तरह के और भी पद्य हो।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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