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________________ किरण १०] सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ५७१ वाक्य दिया है उसम तो यही प्रतीत होता है कि लियं स्पष्ट है कि भाष्यकारक मतम काल द्रव्यरूपसे काल द्रव्यका स्पष्ट निषेध किया गया है । क्योंकि कोई पदार्थ नहीं है। यदि व्यवहाग्नयका अर्थ उप'काय'शब्दसे भाष्यकारने बहुप्रदेशी द्रव्यांका ही प्रहण चारनय किया जाय तो वह भी नहीं बनता; क्योकि किया है, जीवादि द्रव्योंकी पर्यायरूपमें ग्रहण किया उपचार मुख्य का गौणम होता है-म कि घोका गया जो काल है उमे द्रव्य रूपमे स्वीकृत नहीं किया घड़ा। यहां घड़ा भी मुख्य स्वतन्त्र पदार्थ है तथा है। भाष्यके टीकाकार सिद्धमनगणीने भी कालको घा भी म्वतन्त्र पदार्थ है, अतः घड़ेमे घीक रक्खे जान जीव अजीवकी पर्यायरूप ही माना है। वे पांचवें स 'घीका घड़ा' ऐसा उपचार होता है । परन्तु यहां अध्यायम (३४७वें पृष्ठ पर) लिखते हैं कि-"एकीय- जब निश्चयनयका विषय काल काई मुख्य पदार्थ मतेन सकदाचिन धर्मास्तिकायादिद्रव्यपंचकाम्न- ही नही तो उसका उपचार भी जीवादिको पर्यायोम भूतः तत्परिणामत्वात् कदाचित् पदार्थान्ना" और कैसे सम्भावित हो सकता है ? अनः सिद्ध है कि फिर (पृष्ठ ४३२ पर) आगम ग्रंथका प्रमाण देकर लिग्वा श्व० भाग्यकारक मतसं पाँच ही द्रव्य हैं। तब छह है कि-किमिदं भंते ? कालोति पवुञ्चति ? गोयमा १ द्रव्योको उक्त भाष्यकार-सम्मत मानना भ्रममात्र है। जीवा चेव अजीव चिव, इदं हि सूत्रमम्ति, कायपंच- जब भाष्यकारक मनमे काल काई द्रव्य ही नहीं है नो काव्यतिरिक्ततीर्थकृतोपादेशि, जीवाजीवद्रव्यपर्यायः फिर उम भाष्यका गजवानिकम ऐमा बल्लंग्य कैसे काल इनि ।' इस प्रकार आगममृत्र प्रमाणपूर्वक बन सकता है कि उस भाप्यम बहुत बार छह द्रव्यो मिसनगणीकी लिग्बावटम स्पष्ट मिद्ध है कि भाष्य- का विधान पाया है-वहां ना वस्तुनः एक बार भी कारकं मतसं काल नामका कोई भी म्वनन्त्र छठा द्रव्य विधान नहीं है । बम यही प्राशय पं० जुगलकिशोर नहीं है। जीका है। इसमें भिन्न अर्थकी कोई कल्पना करना सिद्धसन गणीकी टीका (पृष्ठ ४२९) में “एक निराधार है। नयवाक्यान्तरप्रधानाः तथा "एकम्य नयम्य भंद- अमलियनम दम्बा जाय ना 'गभाज्य बहकृत्वः लक्षणम्य प्रतिपत्तार." ये वाक्य पाये जाते हैं। इन षड्व्याणि इत्युक्त' वाक्यम प्रयुक्त हुए 'पद्रव्यारिण' से सूचित होना है कि शायद व्यवहाग्नयसे भाष्य- पदके द्वारा भानुपूर्वी रूपमे समाश्रित कथनका कार्ड कारके मतम कालद्रव्यकी स्वीकृत होगी; परन्तु यह प्राशय ही नहीं है। किंतु द्रव्योंकी संख्याबोधक 'षट' बात भी यहाँ नहीं घटनी। क्योंकि भेद-लक्षण-नय शब्दपरक ही प्राशय है, और द्रव्योंकी पटसंख्या. जो व्यवहार है वह संग्रहनय-द्वाग महोत पदार्थोका विषयक यह बात मर्वार्थसिद्धि नथा गजवातिकमें बहुही भेद करता है, जब काल द्रव्य जीवादिकी पर्याय लतासं पाई जाती है, किन्तु श्वेताम्बर भाग्यम नहीं रूपसे ग्रहण किया गया है ना वह द्रव्यों के संग्रह- पाई जाती । अतः स्पष्ट सिद्ध है कि गजवानिक के रक्त विषयी नयमें प्रविष्ट भी कैसे हो सकता है और वाक्यगत 'भाध्य' शब्दका लक्ष्य याता स्वयं गजवाजब वहाँ (संग्रह नयम) वह प्रविष्ट ही नहीं हो मता तिकीय माप्य है या 'मर्वामिद्धि' नामका भाष्य है, ना उसका व्यवहाग्नय भेद भी क्या करंगा ? इम अथवा कोई तीमग ही पुगतन दिगम्बर भाष्य है
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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