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किरण ४ ]
रत्नत्रय-धर्म
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जो कि आज सच्चे देवका अभाव होने पर भी उनके बार भोजन करते हैं। ये भाजन तथा औषधि वगैरह सिद्धान्त समाजके सामने प्रकट कर रहे हैं। शास्त्र की याचना नहीं करते। ये कामविकार के जीननेका की प्रामाणिकता वक्ताकी प्रामाणिकनास होती है। मर्वोच्च आदर्श उपस्थित करते हैं, जिसमे व अनेक जैन शास्त्रोंके मूल वक्ता वीतगग और मर्वज्ञ देव सुन्दर ललनाओंके बीच आसीन होकर भी नम होने माने गये हैं. इसलिये उनके द्वाग उपदिष्ट शास्त्र में लज्जाका अनुभव नहीं करते और न उनकी इन्द्रियों यथार्थ हैं-मत्य हैं । वर्तमानमें जो शास्त्र उपलब्ध में किमी प्रकारका विकार नजर आता है। ये जीवों हैं या जो उपलब्ध हो रहे हैं उनके मातात कर्ता की रक्षाके लिय मयूर्गपच्छकी बनी हुई एक पीछी वीतराग और मर्वज्ञ नहीं है तथापि उनकी आम्नाया. और शारीरिक अशुचिता दूर करनेके लिये एक नुमार रचित होने के कारण प्रामाणिक माने जाते हैं। कमण्डल अपने पास रखते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के जैनियोंका मुख्य उद्देश्य है वीतगगता प्राप्त करना- लिये एक दो शास्त्र भी इनके पास होते हैं। इससे रागद्वेष को दूर करना । यही सिद्धान्न इनके छोटेस लेकर अधिक वस्तुएँ इनके पास नहीं होती। इन गुरुओंके बड़े बड़े शास्त्रों तकमें एक स्वग्म गुम्फित किया गया तीन भेद हैं १ प्राचार्य २ उपाध्याय ३ माधु । जो है। अनकान्त-स्याद्वाद इनका मुख्य म्तम्भ है। जैन नवीन शिष्योंको दीक्षा देते हों और सब पा शामन शास्त्र बारह अङ्गोंमें विभक्त हैं। इनमें हर एक विषय रखते हों एवं तीव्र नपम्वी हों वे प्राचार्य कहलाते हैं। का पूर्ण विवेचन है। कोई भी विषय इनसे अछता जो मुनिसंघमें पठन - पाठनका काम करते हैं उन्हें नहीं रहा, पर कालदापमं या वर्तमान जैनजाति 'उपाध्याय' कहते हैं और जो मामान्य मुनि हात हैं के प्रमादसे भारतका वह महान माहित्य लुप्तप्राय वे 'माधु' कहलाते हैं । ये सब संसारक जंजालसे हो गया है !
छुटकर जंगलके प्रशान्त वायु मण्डलम विचग करते __ यथार्थ गुरु
हैं। ये मुक्ति मार्गक पथिक कहलाते हैं। जो स्पर्शन, जिला, नासिका, नत्र भौर कर्ण इन सम्यग्दर्शनका तीसरा म्वरूप पाँच इन्द्रियोंके विषयोंकी भाशा में रहित हों. मन्त्र ऊपर कहे हुए दो लक्षणों के सिवाय सम्यग्दर्शन प्रकार के परिग्रह-रुपया पैसा वगैरह-का त्याग कर का एक म्वरूप और भी कहा गया है। वह हैचुके हों, यहाँतक कि शरीरको आच्छादित करनेके 'नत्वार्थश्रद्धानं मम्यग्दर्शनम' अर्थात् जीव, भजीव लिये जो एक भी वस्त्र अपने पाम न रखते हों, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जग और मोक्ष इन मात व्यापार प्रारम्भ वगैग्हस रहित हों, हमंशा ज्ञान तत्त्वों-पदार्थोके यथार्थ म्वरूपका श्रद्धान-विश्वास
और ध्यानमें लीन रहते हों वे 'यथार्थ गुरु' कहलाते करना मा सम्यग्दर्शन है। इन मात तत्त्वों का वर्णन हैं। ये मुनि होते हैं और हिंसा. मूळ, चारी, कुशील- करनेमें जैनियों के बड़े बड़े शाम्म्र भरे हुए हैं। उनका व्यभिचार नथा परिग्रह इन पांच पापोंका बिलकुल विशेष स्वरूप लिग्वनमें लेग्वका कलेवर अधिक हो ही त्याग किये रहते हैं । रातमें न तो गमन करते हैं जानेका भय है। उनका संक्षिा ग्वरूप इस प्रकार हैऔर न बोलते हैं । दिनमें श्रावकोंके घर जाकर एक १ जीव-जिसमें चैतन्य-जानन देखनेकी शक्ति हो।