Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Author(s): Krushnalal Varma
Publisher: Godiji Jain Temple Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयदेवसुर-संघ ग्रन्थांक १५ त्रिषष्ट्रिशलाका पुरुष चरित्र पर्व-पहला-दूसरा श्री आदिनाथजी और भरतचक्रवर्ती के चरित्र पर्व पहला तथा श्री अजितनाथजी और सगरचक्रवर्ती के चरित्र पर्व दूसरा कलिकालसर्वज्ञश्रीमद् हेमचन्द्राचार्य-रचित्त संस्कृत ग्रंथका हिन्दी अनुवाद अनुवादकचौबीसतीर्थंकर चरित्र, जैनरामायण, आदर्शजीवन, महाजन आदि ग्रंथों के लेखक-साहित्यभूषण श्री० कृष्णलाल वर्मा, - रिटायर्ड हिन्दी ऑर्गनाइजर म्यु० स्कूल्स बम्बई. -:प्रकाशक :. गोडीजी जैनमन्दिर और धार्मिक विभागोंके ट्रस्टी [ मूल्य पाँच रुपये ] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: प्रकाशक :श्री गोडीजी जैन मन्दिर और धार्मिक विभागोंके ट्रस्टियोंकी ओर से मंगलदास ल० घडियाली मानद मन्त्री श्रीज्ञानसमिति, नं० १२, पायधुनी, बम्बई ३. [प्रकाशनके सभी हक प्रकाशकों के अधीन है। - मुद्रक :पं० परमेष्ठीदास जैन, जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर (झांसी) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Vijayadevsur Bangh Beries No. 11 Trishashtishalaka Purush Charitra (Parv-First & Second) Written in Sanskrit by i Kalikal-Sarvajyap SHRIMADA HEMCHANDRACHARYA Translated in Hindi Dy Bahitya Bhooshan KRISHNALAL VARMA Retired Hindi organiser Municipal Upper Primary G. & M. Schools Bombay Published ng TRUSTEES OF GODIJI JAIN TEMPLE & CHARITIES, (Price Rupees Five Only) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisbed by:-. . . . SHRI MANGALDAS L, GHADIALI : Jor The Mapagiog trustees of Shri Vijayadevsur sangh Gnan Bariti The Godiji Jain Temple and Charities, 12, Poynhoni, Bobay 3. . Printed byPandit Parmeshthidas Jain, Jainendra Press, Lalitpur (Jhansi) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wwwwwww.w w.mmunathukinawww www win.wwwmam wwwwwwwwwwwwwwwimmmmmwiwrwwwmnwwwaniiwmwarummies श्री गोडीजी जैन मन्दिर और धार्मिक विभागोंके ट्रस्टी है १. सेठ गोकलदास लल्लूभाई । . २. सेठ पानाचंद रूपचंद झवेरी मैनेजिंग ट्रस्टी ३. सेठ लक्ष्मीचंद दुर्लभजी ४. सेठ भाईचंद नगीनदास झवेरी ५. सेठ फूलचंद नगीनदास है ६. सेठ रतनचंद चुन्नीलाल दालिया ___७. सेठ लक्ष्मीचंद रायचंद सरवैया है. ८. सेठ मोहनलाल ताराचंद जे० पी० ९. सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल जे० पी० १०. सेठ केशवलाल धुलाखीदास . है ११. सेट मूलचंद वाडीलाल १२. सेट रणछोड़दास छोटालाल Wwwwwwwwwww WWW. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ warmwrowerowywyrwywwroomworrororovou he VINI The Trustees of ( Shri Vijayadessor Sangh ) THE GODLJI JAIS TEBIPLE & CHARITIES. mummmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmwmowwnnnnnn 1. Seth Gokoldas Lallabbai. 2. Seth Papachand Papchand Jhareri. 3. Seth Iazkichand Durlabbji. 4. Seth Bhaichand Nagindas Jhaferi. 5. Seth Palchand Kagindas. 6. Seth Patanchand Chundilal Dalia. 7. Seth Laxmichand Paichand Sarsaiya. 8. Seth Mohanlal Tarachand J.P. 9. Seth Baneklal Chunilal J. P. 10. Seth Kecharlal Balakbidas. 11. Seth Mulchand Vadilal. 12. Seth Ranobboddas Chhotalal Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १-प्रकाशकोंका वक्तव्य २–प्रस्तावना .. . पर्व पहला ... पहला सर्ग-चौबीस तीर्थंकरस्तुति (पेज १ से 8 तक) · ऋषभदेवजीका पहला भव 'धनासार्थवाह' का वृत्तांत (पेज १० से ३४) [ग्रीष्म और वर्षाका वर्णन (१६-१७) धर्मघोष आचार्यका उपदेश संक्षेपमें जैनधर्म (२३-३४)] दूसरा भवयुगलियोंका और कल्पवृक्षोंका वर्णन (३४-३६)। तीसरा भवसौधर्म लोकमें उत्पत्ति (३६)। चौथा भव-महाविदेहक्षेत्र में महाबल (३६-५७ ) [ नास्तिक, मायावाद वगैरा मतोंका खंडन-मंडन (४१-५१)] । पाँचवाँ भव-दूसरे देवलोक में ललितांग देव (५८-७५) [ चतुर्गति का वर्णन (६६-७१) ] छटा भव--महाविदेह क्षेत्रमें वनजंघ (७५-८५) । सातवाँ भवउत्तरकुरुमें युगलिया (८५)। आठवाँ भव-सौधर्म देवलोकमें देव (८५).नवाँ भव-जीवानंद वैद्य (८५-६३) । दसवाँ भवअच्युत नामक देवलोकमें देव (१३)। ग्यारहवाँ भव-वजनाभ चक्रवर्ती (६४.-११०) [लब्धियों का वर्णन (१०१--१०५) बीस पद या स्थानक (१०६-१०६)] बारहवाँ भव-अनुत्तर विमानमें देव (११०)। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 [ = ] दूसरा सर्ग - सागरचंद्रा वृत्तांत ( १११--१६५ ) सान कुलकर (१२५-१३३) हाँ म-देवजी की माताके चौदह स्वप्न और उनका फल ( १६३-१३६ ) अपभदेवfter जन्म, २६ कुमारियोंका व ६४ इन्होंका थाना और जन्मोत्सव करना ( १३६-१७३) नामकरणं संस्कार, स्थापन और न ( १७१-१७७) जवानी, रूपका वर्गात (१७७-१८०) सुनंदा (१९६२-१८१) व्याह (१८४-२६५) गृहस्थजीवन, सन्तानोत्पत्ति, राज्याभिषेक, कलाओंकी शिक्षा (१६५-२०६) वसन्तवर्णन, वैराग्य (२०६-२१२) | तीसरा सर्ग - राज्यत्याग और दीक्षा (२१३-२२१) साधुयवस्था (२२१-२३८) श्रेयांसकुमारसे प्रभुका इक्षुरस पाना ( २३८-२१३) आदित्य पीठ (२४४ ) धर्मचक्र (२२२-२४६ ) केवलज्ञान (२४६-२५२ ) समवसरण (२४२-२५८) मरुदेवी मानाको केवलज्ञान और सोच ( २५-२६३.) भरतकृत स्तुतिः देशना [ संसार की असारता, मोक्ष प्रामिके लिए प्रयत्त, ज्ञान-दर्शनं चारित्र ] ( २६३ - २७१ ) चतुर्विध संवकी स्थापना, सैकडों का दीक्षा लेना, चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगकी रचना । गोमुख श्रधिष्ठायक देव और चक्रेश्वरी शासन देवी (२७१-२४९) चतुर्थ सर्ग - संतों का वृत्तांतः, चौदह रत्नों की प्राप्ति, छः खण्ड पृथ्वी जीवना (२८०-३४७) पाँच वर्ग भरत और बाहुबलीका वृतांत ( ३८५-१३१ ) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] : छठा सर्गः- परित्राजकोंकी उत्पत्तिः राजकुमार कपिलका परिव्राजक होना, अतिशय, अष्टापद, समवसरण, बारह पर्षदा, इन्द्रोत्सवकी स्थापना, विहार (४३५-४५६) ब्राह्मणों और यज्ञोपवीतकी उत्पत्ति, भावी त्रिषष्टिशलाकापुरुष, शत्रुजय, पुण्डरीक गणधरादि साधुओंका निर्वाण ( ४५६४६१) भगवान आदिनाथ प्रभुका परिवार, निर्वाणोत्सव (४८१-४६० ) भरतका अष्टापद पर मन्दिर बनवाना और प्रभुस्तुति करना (४६१-५०३) भरतका वैराग्य, गृहस्थावस्था में केवलज्ञान, भरतकी दीक्षा और मुक्ति (५०३-५०६). .. :: ... . . पर दूसरा .. . ... .: पहला सर्ग:-श्री अजितनाथ चरित्रः प्रथम भव-विमल वाहन राजा, राज्यत्याग, प्रजापालनका उपदेश, दीक्षा, समिति, गुप्ति, परिसह (५१०-५४१) दूसग भव-विजय विमानमें देव (५४१-४२) . दूसरा सर्ग-तीसरा भव-तीर्थंकरकी और सगर चक्रीकी माताओंके चौदह चौदह स्वप्न, स्वप्नोंके फल, अजितनाथ-- जीको जन्म, इन्द्रादि देवों द्वारा जन्मोत्सव, सगरका जन्म जन्मोत्सव (५४३-५६३) तीसरा सर्ग-दोनोंका : बचपन, यौवन, रूपवर्णन, विवाह, राज्यप्राप्ति, त्याग, सगरकी राज्यप्राप्ति, प्रभुकी दीक्षा (५६४-६२६) गुणस्थान, अजितनाथजीको केवलज्ञान, उत्सव, समवसरण, देशना, धर्मध्यान, आठ कर्म, चौदह राजलोक (६२६-६७२) गणधरोंकी स्थापना, अधिष्ठायक महायता अधिष्ठायिका अजितबला, सम्यक्त्वका माहात्म्य (६७२-६८४) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] बाँधा सर्ग-मगरका छः खण्ड पृथ्वी जीनना और चक्रवर्ती पद पाना (१८५-७१६) . पाँचौं सर्ग-सगर और भगवान प्रश्नोत्तर, राक्षस बंश, मगरके साठ हलार पुत्रोंकी यात्रा, अष्टापद पर्वत, नागेन्द्रका साठ हजार राजकुमारोंको जलाना (७२०-७३७) छठा सर्ग-इन्द्रका ब्राह्मगा बनकर, सगरके दरवार में जाना, सुगरका शोक, अद्देश, भगीरथका गंगाको समुद्र में डालना, नकुमारादि साठ हजार कुमारोंके पूर्वमन्त्र, सगरकी दीना और मुक्ति, अजितनायनीका परिवार, अजितनाथलीका सम्मेदशिखर पर निर्माण, निर्वाण महोत्सव (७३७-७८) टिप्पणियाँ कोश शुद्धिपत्र Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री गोडो पार्श्वनाथाय नमः ।। S प्रकाशकोंका वक्तव्य श्री गोडी पार्श्वनाथ जैन मन्दिर और धर्मादा विभागों के ट्रस्टी महाशयोंने ज्ञान विभागकी प्रायमेंसे एक अच्छी रकम ज्ञानप्रचारके लिए अलग निकाली है, और ज्ञानप्रचार में उसका उपयोग करने के लिए एक ज्ञानसमिति बनाई है। समितिने उद्देशपूर्तिके लिए एक पुस्तकालयकी स्थापना की है, उसमें सभी तरह के हजारों ग्रन्थ हैं और जनता उनसे लाभ उठाती है। और एक ग्रंथमाला भी आरंभ की है। उसमें अब तक नीचे लिखे ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। . (१) शाखवार्ता समुच्चय (२) कुमारपाल भूपाल चरित्र (३) नवतत्त्व बावनी (४) सुयगडांग सूत्र भाग १ ला (५) पंच प्रतिक्रमण सूत्र (६) सुयगडांग सूत्र भाग दूसरा (७) Jainism in Gujrat (८) सेठ मोतीशाह (६) श्री भगवतीसूत्रम् [-यूनिवरसिटोके विद्यार्थियों के लिए ] (१०) श्री. उत्तराध्ययन सूत्र [विद्यार्थियोंके लिये प्रेसमें] इनमेंसे नं० १, २, ३ की एक प्रति भी स्टाकमें नहीं है । . अब इस ग्रन्थमालाके १५वें मनकेके रूपमें, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित श्री त्रिषष्टि-शलाका पुरुष चरित्रके पहले व. दूसरे पर्वका हिंदी अनुवाद, प्रकाशित किया जा रहा है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] श्री त्रियष्टि शलाका-पुन्य-चरित्रका सम्पूर्ण गुजराती अनुवाद भावनगरसे प्रकाशित हुआ है। परन्तु इसका उपयोग केवल गुजराती भाषा जाननेवाले ही कर सकते हैं। वर्तमानमें हिंदी राष्ट्रभाषा हुई है। लगभग बीस करोड़ लोग इसे बोलते और समझते हैं। इसलिए यदि हिंदी भाषामें ग्रंथ प्रकाशित किए जाएं तो उसका उपयोग हिंदी नाननेवाले जैन और जैनेनर सभी कर सकें, लोग जैनधर्मको अच्छी तरह समझ सकें और जैनधर्मका प्रचार हो । यह बात अपने स्व. पंजाब केसरी, वयोवृद्ध प्राचाय श्री विजयवलमसूरीधरजीने हमको (ज्ञान-समितिक कार्यकर्ताओंको) समझाई और उन्हींकी सूचना और प्रेरणासे हमारी समितिने सं० २००६ के पोस बद्री ७ बुधवार. ता०७-१-५३ के दिन कार्यकारिणीकी बैठकम, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र पर्व पहले और दूसरेका हिंदी अनुवाद प्रकाशित करानका प्रस्ताव किया। उसके अनुवादका काम प्रसिद्ध लेखक साहित्यमूपण श्रीयुत कृष्णलाल वमी को सौंपा गया। श्री कृमाजाल वर्मा अजैन घरमै जन्म लेकर भी जैनधर्मक अभ्यासी हैं, इतना हा नहीं वे पूर्णतया जनाचार पालते हैं। इसलिए यद्यपि इनके अनुवादमें अपने सिद्धांतोंके विमद किसी वानका पाना संभव नहीं है तथापि यदि किसी जगह कोई भूल रह गई हो तो विन्न पाठक उसे मुबारकर पढ़े और हम सूचित करें ताके वह मूल सुधार दी जाए । '. हिंदीमापा जाननेवाले लोगोंक तिर यह ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है। इसका मूल्य लागतसे भी कम रखा गया है। श्राशा है हिंदीमापी हमार इन प्रयत्नको सफल बनाने Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] सहायक होंगे और हमें पूरा ग्रंथ प्रकाशित करानेका अवसर देंगे। स्वर्गवासी, पंजावकेसरी आचार्यदेव श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजीकी, साहित्यका प्रचार करनेकी, प्रबल भावना थी। उस भावनाको सफल बनाने में, यह संस्था जो कुछ कर सकी है उसके लिए वह अपनेको भाग्यवान मानती है। . निवेदक :१. पानाचन्द रूपचन्द झवेरी २. केशवलाल वुलाखीदास ३. लक्ष्मीचन्द रायचन्द सरवैया ४. रतनचन्द चुन्नीलाल दालिया ५. नरोत्तम भगवानदास .६.. फतहचन्द झवेरभाई ७. मोहनलाल दीपचन्द चौकसी ८.. छोटालाल गिरधरभाई. ":: : मंगलदास लल्लुभाई घड़ियाली ( मानद मन्त्री) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैनशास्त्र चार भागोंमें विभक्त है। वे हैं: १. द्रव्यानुयोग, २. चरितानुयोग अथवा कथानुयोग, ३. गणितानुयोग और ४. चरणकरणानुयोग। १. द्रव्यानुयोगमें-तत्त्वज्ञान है । इसमें छ: द्रव्य, व नवतत्व इत्यादिसे सम्बन्ध रखनेवाली बात है। या यह कहना चाहिए कि इसमें संमारके सभी पदार्थोकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाशका तात्त्विक विवेचन है। २. चरितानुयोगमें-महात्माओंके चरित्र आकर्षक शैलीमें कहे या लिखे गये हैं। इनका उद्देश्य कथाओं द्वारा मनोरंजन करना गौण है और उदाहरणों द्वारा जीवनको उच्च बनानेकी शिक्षा देना मुख्य ।। ३. गणितानुयोगमें-गणितका विषय है। इसमें क्षेत्रका प्रमाण, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रादिका व उनकी गति विधिका वर्णन ओर आठ तरहकी गगित-पद्धतिका विवंचन है। १. चाणकरणानुयोगमें-चरणमत्तरी और करणसत्तरी है। (देखो टिप्पणी नम्बर १,५.) त्रिपष्टिशनाका-पुरुषचरित्र ग्रन्थ चरितानुयोगका है। इसमें दम पर्व है। हरएक पर्वमें भिन्न भिन्न चरित्र है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] नीचेके कोष्ठकमें उनकी संख्या बताई गई है। 'पर्व तीर्थंकर चक्रवती प्रति वासुदेव बलभद्र | x ] ४ १ ला | x २ रा १ | १ | x ! - |- | २ ३रा x x | xxxx - ४ था .५ | २ ५ ५ वाँ| १ | १ | । ५ | x x | | | २ - - - ७ वाँ १ | २ | १ | १ | १ । ६ ८ वाँ| १ | | १ । १ | १ | ४ । . ६ वाँ| १ | १ | x x | २ १०वा| १ | - |- |- | | १ कुल । २४ / १२ / ३ | | | ३ । १. पहले पर्व में तीर्थंकर ऋपभदेवजी और चक्रवर्ती भरतके चरित्र हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] २. दूसर पर्व में तीर्थंकर अजितनाथजी और चक्रवर्ती मगरकं . चरित्र है। ३.नार पर्वमें पाठ तीर्थंकरोंके (समवनाथजी, अमिनन्दन __जी, मुमतिनाथजी, पद्मप्रभुजी, भुपाश्वनायजी, चन्द्रप्रमुजी, . मुविधिनायनी और शान्तिनाथजीके ) चरित्र है। ४. चौथ पर्वमें ५ तीर्थकरोंके (श्रेयांसनाथजी, वासुपुञ्चजी, विमलनाथजी, अनंतनायनी, और धर्मनाथजीके,) दो चक्र.. बर्दियोंके (मयत्रा और मननकुमारके,) पाँच वामुवाँक (त्रिपृष्ट, हिपृष्ट, स्वयंभू , पुरुषोत्तम व पुनपसिंहके) पाँच प्रनिवासुदेवोंक (अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधु और निकम) 'और पाँच बलभद्रोंक (अचल, विजय, मद्र, मुप्रम व मुदर्शन।) चरित्र है। ५ पाँचत्र पर्व में तीथंकर श्रीशांनिनायत्री और मवर्ती श्रीशांविनायनीके चरित्र हैं। (चक्रवर्ती शांतिनाथजी ही अंत .. में उयी भव में नीर्थकर भी हुए हैं। एक ही लीव एकही मत्रमें दो पालाका पुन्य हुआ है।) ... . ६. छठे पत्र में चार तीर्थंकरों (थुनाथजी, अरनाथनी मन्लिनाथजी और मुनिमुवनस्वामी ) चार चक्रवर्तियोंके (युनाथजी, अरनायनी, मुमोम और पद्म ) दो वासुदेवांक (पुन्यपुण्डरीक और. दत्तके ) दो प्रतिवामुवाँक (बलि और .. प्रहलाद) और दो बलमद्रांक (आनन्द और नन्दन) अल चौदह शलाका पुरुषोंक चरित्र हैं। (इनमेंसे कुशुनाय जी और अपनायली एकही भवन चक्रवती भी हरा और तीर्थकर भी हुए इसलिए जीव बारह ही है।) (कुंथुनाथजी, इतके ) दो प्रतिवाद और नन्दन) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] ७. सातवें पर्वमें तीर्थंकर नमिनाथजीका, दो चक्रवर्तियों के (हरिषेण और जयके ) वासुदेव लक्ष्मण, प्रतिवासुदेव रावण तथा बलभद्र रामके कुल छः शलाका पुरुषोंके चरित्र हैं। ८. आठवें पर्वमें तीर्थंकर नेमिनाथजी; वासुदेव श्रीकृष्ण जी; प्रतिवासुदेव जगसंध और बलभद्र बलदाऊजी ऐसे चार शलाका पुरुषोंके चरित्र हैं। ६. नवें पर्वमें तीर्थंकर श्री पाश्वनाथजी और चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त के चरित्र हैं। · १०. दसवें पर्वमें तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामीका चरित्र है । शलाका पुरुपोंके चरित्रोंके सिवा इन पर्यों में अवांतर कथायें भी सैकड़ों हैं। जिन आत्माओंके अधिकार, शक्ति व सम्पत्ति मनुष्य भवमें महान होते हैं और जिनका उसी भवमें या आनेवाले किसी मनुष्य भवमें मोक्ष जाना निश्चित होता है उनको 'शलाका पुरुष' कहते हैं। वर्तमान चौबीसमें ऐसे ६३ शलाका पुरुष हुए हैं। . - इनमें से चौबीसों तीर्थंकर मोक्ष गये हैं। बारह चक्रवर्तियों . मेंसे दस चक्रवर्ती संबमधारण कर मोक्ष गये हैं और सुसुम व ब्रह्मदत्त चक्री नरक गये हैं; वे अगले किसी मनुष्य भवसे मोक्ष जाएंगे; सभी वासुदेव और प्रतिवासुदेव तीन कषायी होनेसे नरक गए हैं। भविष्यमें किसी मामुष्य भवसे मोक्ष जाएँगे। कुछ बलभद्र वासुदेवोंकी की मृत्यु के बाद छः महीनेके .. पश्चात् मोहबन्धन काट संयमधारण कर मोक्ष गए हैं और कुछ स्वर्ग गए है; आगामी किसी भवसे मोक्ष जाएंगे। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] इन शलाका पुश्यों में श्रात्माएँ ५६ है और स्वरुप ६० हैं, कारण, शांतिनाथजी, कुंथुनाथजी तथा अईनाथजी एकही स्वरुपमें तीर्थकर भी हप हैं और चक्रवर्ती भी, इसलिए ६३ मेसे ३ कम करने पर. ६० स्वाप रहत है। प्रथम वासुदेव त्रिपृष्टका जीवही महावीर स्वामीका जीव हुआ। इसलिए चार जीव तिरसठ नीबॉमसे कम करनेसे उनसठ जीव हैं। तिरसठ शलाका पुरयोंकी माता साठ थीं। कारण,शांतिनाथ, युनाथ और अरहनाथ ये तीनों एकही भवमें तीर्थंकर भी थे और चक्रवर्ती भी अंतिग्मठ शताका पुनयाँक पिता एकावन है। कारण, वासुदेव और बलदेव एकही पिताकी नंतान होन है, इसलिए नी वासुदेवों और ना बलदेवोंके पिता नौ हुए और शांनि, जुय और अग्ह ये तीनों एकही पत्र में चक्रवती भी थे और तीनकर भी थे। इसलिए इनके पिता तीन थे। इस तरह कुल बारह कम करनेसे पिता इक्कावन हुए। नीकि मत्र अनन्त हान है, परन्तु शलाका-पुरुष-चरित्र में तीयकरो जो भत्र दिए गए है व अन्यक्त्व प्राप्त करने के बाद मोन गण तत्र न ही दिया गया है। जैसे श्री ऋषभदेव भगवानके तरह मवांका वर्णन दिया गया है। तीर्थकर होनेवाला आत्मा सम्यक्त्र प्राप्त करने के बाद तीसरं मत्रमें ही तीर्थकर नामकर्मचाधना है। तीर्थकर नामकर्म बीम स्थानकोमसे एक-दीकी अथवा बीसोंकी पाराधना करने से बचता है। बीस न्यानोका वर्णन पहले पर्व प्रथम मृगम (१०६ से १०८ पृष्ठ तक ) पाया है। इमको बीम पद भी कहत हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] त्रिषष्टि-शलाका-पुरुषचरित्र महाकाव्य है; इसलिए इसमें महाकाव्यके लक्षणके अनुसार त्रातुओका वर्णन,नायक-नायिका वर्णन, देश नगरादिका वर्णन और युद्धका वर्णन और प्राकतिक दृश्योंका वर्णन आदि हैं। यह ग्रन्थ'गुजरातके राजा कुमारपालके आग्रहसे कलिकाल सर्वज्ञके नामसे ख्यात श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यने संस्कृतपद्यों में लिखा था। आचार्यश्रीने दसवें पर्वकी प्रशस्तिमें लिखा है, "कुमारपालने एक बार श्रीआचार्यसे नम्रतापूर्वक कहा, हे स्वामी आप निष्कारण उपकारक हैं । मैंने आपकी आज्ञासे नरकगति के आयुष्यके निमित्तकारण शिकार, जुन्मा, मदिरापान इत्यादि दुर्गुणोंके आचरणों का निषेध किया है। पुत्रहीन मरे हुए आदमी का धन लेनाभी मैंने छोड़ दिया है और पृथ्वीको मैंने अरिहंतों के चैत्योंसे सुशोभित किया है, इसलिए मैं वर्तमानमें संप्रति गजाके समान हूँ। पहिले मेरे पूर्वज सिद्धराजकी प्रार्थनापर आपने वृत्ति सहित सिद्ध हेम व्याकरण' की रचना की थी। मेरे लिए भी आपने 'योगशास्त्र' की रचना की थी। सामान्य जनताके लिए भी आपने 'द्वाश्रय काव्य ' 'छन्दानुशासन' 'काव्यानुशासन''अभिधान चिंतामणिकोश' वगैरा अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। यद्यपि आप सदा लोककल्याणके काम करते रहते हैं तथापि मेरी प्रार्थना है कि आप मुझ जैसे अल्पज्ञ लोगोंके लिए त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित्र लिखें। .: ... इसी ग्रन्थके पहले और दूसरे पौंका यह हिन्दी अनुवाद है। जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित मूल और उसके गुजराती अनुवादसे यह अनुवाद किया गया है। सभाका मैं कृतज्ञ हूँ। मूलमें जो सुभाषित आए हैं वे सभी मूल संस्कृत Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] ही में दिए गए हैं। और नीचे उनका हिन्दीमें अर्थं दिया गया है। श्री हेमचन्द्राचार्य एक महान आचार्य हुए हैं। कुमारपाल इन्हींके उपदेशसे जैन बना था ; इन्हींकी प्रेरणासे उसने गुलरातमें जैनधर्मका प्रचार किया था और अमारी घोषणा कराई थी । आचार्यश्रीका प्रतिभा अद्वितीय थी। इसीसे उन्होंने सर्व विषयोंके अन्य लिखे हैं। उनके विस्तृत ज्ञानके कारणही लोगोंने इनको कलिकाल सर्वज्ञकी उपाधि दी थी। पाश्चात्य विद्वानोंने भी इनको महान विद्वान माना है। प्रोजेक्रोवीने परिशिष्ट पर्वक्री प्रस्तावनामें लिखाहै, "शब्दानुशासनके समान महान व्याकरणके रचयिता, अभिवान चिंतामणिके समान महान कोशके बनाने वाले, छन्दानुशासन के समान पिंगल ग्रंथ के प्रणेता और काव्यानुशासनके समान काव्यका निमाण करनेवालेकी विद्वत्ता किसी भी तरहकी भूलोंको दूर करनेके लिये काफी थी 1x x x x हेमचन्द्राचार्थने यह अन्य बड़ीही चतुराईसे लिखा है। अपनी कथा पाठकोंके सामने रखने उन्हें पूरी सफलता मिली है । इससे अच्छे अन्य होनेकी प्रसिद्धि पाए हुए प्रन्योंकी तरहही पाठक इस प्रन्यको (त्रिषष्टि शताका-पुनय-चरित्रको) उत्साह और आनंदसे पढ़ेंगे।" राव्यसंचालनकी हरेक बात पर ध्यान देनेवाले, हररोज राज्यसभा जानेवाले और इतना होते हुए भी सतत अन्यरचना करनेवाले असाधारण युद्धिमान, इस कलिकाल में सर्वज्ञ के समान मान गए मूरिजीने जो अन्य रचे हैं वे सचमुचही जनसमाजकी महान निधि है। इस निधिकी रक्षा करना और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] इसका लोगोंमें प्रचार कर जैनधर्मकी महत्ता बढ़ाना जैनप्तमाज का मुख्य कर्तव्य है। यह हिंदी अनुवाद स्वर्गीय आचार्य महाराज श्री विजयवल्लभसूरिजीकी आज्ञाके अनुसार किया गया है। उन्होंने प्रथम पर्वके दो सगोंका अनुवाद देखकर संतोष प्रकट किया था। उनका स्वर्गवास हो जाने के कारण वे पूरा अनुवाद न देख सके। उनकी इच्छा थी कि दसों पर्वोका हिंदी अनुवाद शीघ्र प्रकाशित हो जाए। पुस्तक प्रेसमें दी गई उसी समयसे मैं बीमार हूँ; अब तक भी मुझे बीमारीसे पूरी छुट्टी नहीं मिली है। इसी कारण. से कुछ शीपकोंमें और कुछ दूसरे स्थानोंमें मामान्य भूलें रह गई है। यद्यपि ये भूलें ऐसी नहीं है कि जिनसे कथाका रस भंग हो या कोई तात्त्विक बात गलत लिख दी गई हो तथापि जो भूलें रह गई हैं उनके लिए आशा है क्षमाशील पाठक क्षमा करेंगे। शीर्षक विषयसूचीके सही माने जाएँ और दूसरी जगह जो भूलें जान पड़ें वे शुद्धिपत्रसे सुधार ली जाएँ; फिर भी कोई छूट गई हो तो विद्वान पाठक उसे बतानेकी कृपा करें। हरेक बात अच्छी तरह समझाने की कोशिश की गई है, जिस बातका स्पष्टीकरण मूलमें नहीं हो पाया है, उसका स्पष्टीकरण टिप्पणियोंमें किया गया है। कोई बात अस्पष्ट रह गई हो तो पाठक सूचना देनेको कृपा करें । वह स्पष्ट की जाएगी। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] - हिंदी भाषामें श्वेताम्बर जैनग्रन्थ बहुतही कम है, ऐसी दशामें श्री गोडोजी महाराज जैनमंदिर और धार्मिक विभागों के ट्रस्टियोंने यह अनुवाद प्रकाशित कराया है, इसके लिए वे धन्यवावाई है। आशा है वे बाकी पाठ पत्रों का हिंदी अनुवाद भी शीघ्र ही प्रकाशित कर न्वर्गीय श्राचार्य महाराजश्रीकी इच्छा पूर्ण करेंगे और अहिंसा धर्मका संदेश समम्त हिंदी जानने वालों तक पहुँचाकर पुण्य और यशकी प्राप्ति करेंगे। ' लक्ष्मी हाउस लेडी हार्डिन रोड, माहीम, बंबई १६. ता०२-३-५६) कृष्णलाल वर्मा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र .. पर्व १ ला-सर्गः १ ला. श्री आदिनाथ चरित्र ... श्रीमदहते नमः . चौबीस तीर्थंकर-स्तुति श्लोक : सकलाहत्प्रतिष्ठानमधिष्ठानं शिवश्रियः । . भूर्भुवःस्वस्त्रयीशान-मार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥१क्षा जो सबके लिए पूजाके स्थान रूप हैं--पूज्य हैं, जो मोक्ष-लक्ष्मीके निवास रूप हैं, जो पाताल, पृथ्वी और स्वर्गके ईश्वर हैं (तीन लोकके स्वामी हैं) उन अहेतोंके समूहका हम ध्यान करते हैं। ... नामाकृतिद्रव्यभावैः, पुनतस्त्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मि-नर्हतः समुपास्महे ॥२॥ [जो सभी क्षेत्रों में, भूत, भविप्य और वर्तमान तीनों कालोंमें, नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप, द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेप-इन चार निक्षेपोंसे तीन लोकके लोगोंको पवित्र करते हैं उन अहंतोंकी हम सेवा करते हैं।] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र, पर्व १. सर्ग १. आदिमं पृथिवीनाथ-मादिम. निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥३॥ [जो पृथ्चीके प्रथम नाथ हैं, परिग्रहका त्याग करने वाले प्रथम (साधु) हैं, और प्रथम तीर्थंकर हैं, उन ऋषभ स्वामीकी हम स्तुति करते हैं। अहतमजितं विश्व-कमलाकरभास्करम् । अम्लान-केवलादर्श-संक्रांत-जगतं स्तुवे ॥४॥ [जो इस जगतरूपी कमलके सरोवरके लिए सूर्यके समान हैं, जिन्होंने अपने निर्मल केवलज्ञानरूपी दर्पणमे तीनों लोकोंको प्रतिबिंबित किया है (अर्थात् तीनों लोकोंकी बातें उनको इस तरह मालूम हो जाती है, जिस तरह भाइनेमें अपना-सामने खड़े रहनेवाले का-संपूर्ण आकार मालूम हो जाता है), उन अहंत यजितकी (अजितनाथ तीर्थकरकी) में स्तुति करता हूँ। विश्वमव्य-जनाराम-कुल्या तुल्या जयंति ताः । देशना समये वाचः, श्रीसंभवजगत्पतेः ॥५॥ जगतके स्वामी श्रीसंभवनाथ (तीर्थकर) के वचन-जो देशनाके (उपदेशके) समय बोले जाते हैं, और जो भव्य-जीव रुपी बगीचेको सींचनेमें (पानी पिलानेमें) जलधाराके समान है, वे वचन-सदा यशस्वी होते हैं।] अनेकांत-मतांमाधि-समुल्लासन-चंद्रमाः । . दयादमंदमानंद, भगवानभिनंदनः ॥६॥ [अनेकांत (स्याहाद्मतरूपीसमुद्रको उल्लसित (मानंदित) करनेम चंद्रमाके समान श्रीअभिनंदन भगवान बद्रुत यानंद दे। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... चौबीस तीर्थंकर-स्तुति. . ३ घुसकिरीट-शाणाग्रो-तेजितांघ्रि-नखापालि। . . भगवान् सुमतिस्वामी, तनोत्वमिमतानि वः ॥७॥ [देवताओंके मुकुट (ताज) रूपी शाण (सान) के अगले • भागके कोनोंसे जिनकी नखपंक्तिः चमकदार बनी है (यानी -देवताओंके,आगे आकर,चरणों में मुकुट सहित मस्तक झुकानेसे, नाखून चमक रहे हैं) वे भगवान् सुमतिस्वामी तुम्हारी इच्छाएँ .. पूरी करें। - पद्मप्रभ-प्रभोर्देह-भासः पुष्णंतु वः श्रियम् । . अंतरंगारिमथने, कोपाटोपादिवारुणाः ।।८।। [अंतरंग वैरियों (काम, क्रोधादि) का मंथन (नाश) करनेके लिए कोपकी प्रबलतासे मानों लाल हो गई है ऐसी, 'पद्मप्रभ प्रभुके शरीरकी अरुण (लाल), कांति तुम्हारे कल्याणका (मोक्ष रूपी लक्ष्मीका) पोषण करे।] श्रीसुपार्श्व-जिनेंद्राय, महेंद्र-महितांघ्रये ।। नमश्चतुर्वर्णसंघ-गगनाभोगभास्वते ॥९॥ [चतुर्विध संघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) रूपी आकाशके विस्तारमें सूर्य के समान चमकनेवाले, और इन्द्रोंके द्वारा पूजित चरणवाले श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेंद्रको नमस्कार हो।] चंद्रप्रभ-प्रभोश्चंद्र-मरीचि-निचयोज्ज्वला । मूर्तिमूर्त-सितध्यान-निर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥१०॥ - चंद्रप्रभ प्रभुकी जो मूर्ति मूर्तिमंत शुक्ल ध्यानसे वनी... 'हुईसी मालूम होती है, वह तुम्हारे लिए शानलक्ष्मी प्रामिका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ४ त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र. पर्व १. सर्ग १. कारण हो । (नुमको उस मूर्तिक कारणले मानरूपी लक्ष्मी मिले।) करामलकवद्विश्वं, कलयन् केवळश्रिया । अचित्यमाहात्म्यनिधिः, मुविधिधियन्तु वः ।।११।। इस इलोकमें आप. हुए. करामलकवद्विश्वं पद का समास दो तरहसे करके, दो तरहसे उसका अर्थ किया जाता है। (१) कर+आमलक+व+विश्व-हाथमें रखे हुए आँवकेकी तरह विश्वको (२) कर+अमल++ +विश्व [कर-हाथ; अमलनिर्मल, क-अल, बत-तरह; विश्व-जगतको ] हाथमे गये हुए निर्मल जलकी तरह जगतको । [.. जो हायमें रखे हुए आँचलकी नगह जगनको, अपनी केवलहानश्रीसे जाननेवाले हैं और जो चिंतनीय (जिसकी कल्पना मी न की जा सके से) प्रभावका खजाना है । सुविधिनाथ मंगवान तुम्हें सम्यकाल पानमसहायक हों। २.जो हाथमे रन्च हुप निर्मल जलकी नरद जगतको, सपनी केवलमानीस जाननवाले हैं और जो अचिननीय प्रमावकै नजाना है नुविधिनाथ भगवान, नुमको बोत्र दें। सत्त्वानां परमानंद-कंदानंदनवांबुदः । स्याहादामृत-निरचंदी, शीतलः पातु वा जिनः ||१२|| [जीवोंक उन्नमसे उन्नम आनंदला अंकुर टनमें जो नबीन मे समान है (अर्थात जैन नवीन मर जलन जमानमें अक्रुर, फटने हैवैसेही जिनकी वाणीत हृदयम Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीस तीर्थकर-स्तुति . आनंद होता है ) और जो स्याद्वादरूपी अमृत ( उपदेशामृत) चरसानेवाले हैं वे शीतलनाथ जिनेश्वर तुम्हारी रक्षा करें] भवरोगार्तजंतूना-मगदंकारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १४ ॥ [जिनका दर्शन संसार रूपी रोगसे दुखी जीवोंके लिए वैद्यके समान है और जो मोक्षरूपी लक्ष्मीके खामी हैं ये श्रेयांसनाथ तुम्हारे कल्याणका कारण हो।] - विश्वोपकारकीभूत-तीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः।। सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः ।। १४ ॥ " [सारी दुनियाकी भलाई करनेवाला तीर्थकर नामकर्म "जिन्होंने निर्माण किया है (पाया है), और जो देवों, (भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, और वैमानिक देवों), असुरों और मनुष्यों के ‘लिए पूज्य हैं वे वासुपूज्य तुम्हारी रक्षा करें।] विमलस्वामिनो वाचः, कतकक्षादसोदराः । जयंति त्रिजगचेतो-जलनैर्मल्यहेतवः ॥ १५ ॥ - [निर्मलीके चूर्णकी तरह, सारे संसारके लोगोंके चिच रूपी जलको साफ करनेके कारणरूप श्रीविमलनाथके वचनसदा जयवंत हों।]. . . . . . . स्वयंभूरमणस्पार्द्ध-करुणारसवारिणा। : अनन्तजिदनंतां वः, प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥१६॥ [जिनका करुणारसरूपी जल स्वयंभूरमण नामक समुद्रके ...जससे स्पर्धा करनेवाला है वे अनंतनाथ जिनेश्वर असीम मोक्षरूपी लक्ष्मी तुमको दें।]. . . :: :: : : । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ त्रिषष्टि शलाका पुनय-चरित्र पर्व १. सर्ग. कल्पद्रुममधर्माण-मिष्टप्राप्ती शरीरिणाम् । चतुर्षाधर्मदेष्टार, धर्मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥ शरीर धारण करनेवालजीवोंको, कल्पवृक्षकी तरह, चाही हुई चीज देनवाल थोर चार तरहका (दान, शील, उपचार भावन्प ) धर्म बतानवाल श्रीधर्मनाथकी हम उपासना. करते हैं। पृजा, सेवा, भक्ति, गुणगान करते हैं।) मुघासीदरवाग्ज्योत्स्ना-निर्मलीकृतदिङ्मुखः। . मृगलक्ष्मा तमाशात्य, शांनिनाथजिनोस्तु वः ॥१८॥ जिनकी वाणीन.पी चांदनीन दिशाओं मन्त्रीको निर्मल किया है और लोग (हिरण) के लक्षणवाल है वेयी शांतिनाथ नुम्हारे अन्धकारकी शांतिक कारण बनें । (अर्थात् उनके निमित्तले तुम्हारा अमान हट जाए और नुमको. शांति मिले। श्रीचंयुनाया भगवान, सुनायोऽतिशयदिमिः । .. मुरामुग्ननाथाना-मेकनायोस्तु वः श्रियं ।। १० ।। . [जो अंतिशयोंकी समृदिवाले हैं, और जो देवों और अमुर्गे स्वामी इन्द्रक तथा मनुष्योंके स्वामी चक्रवर्तीके (इन्द्रों और चक्रवतियोंकि मी ) अद्वितीय स्वामी हैं. वे श्री कुंथुनाथ नुम्हारे लिए कल्याण रूपी लक्ष्मीकी प्राप्तिके कारण हो। (अर्थात उन कारण तुमको कल्याण मधी लक्ष्मी .मिले।] .. . . . . १. चीती अतिशय होते हैं। विस्तृत विवंचन अन्दमें टिप्पनिमें देते। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... चौबीस तीर्थंकर-स्तुति अरनाथस्तु भगवा-चतुर्थारनभोरविः । - चतुर्थपुरुषार्थश्री-विलासं वितनोतु वः ॥ २० ॥ . [चौथे आरेरूपी आकाशमै सूरजके समान श्री अरनाथ तुम्हारे लिए चतुर्थ पुरुषार्थरूपी लक्ष्मी (मुक्ति) के विलास का विस्तार करें । (अर्थात उनके कारणले तुमको मुक्ति मिले।)] सुरासुरनराधीश-मयूरनववारिदम् । कर्मन्मूलने हस्ति-मल्लं मल्लिमभिष्टुमः ।। २१ ॥ [सुरों व असुरोंके स्वामी इन्द्र और मनुष्योंके स्वामी चक्रवर्ती (इंद्र और चक्रवर्ती ) रूपी मोरोंके लिए जो नवीन मेघके समान हैं और कर्मरूपी वृक्षोंको उखाड़नेके लिए जो मस्त हाथीके समान हैं उन श्री मल्लिनाथकी हम स्तुति करते हैं । ( अर्थात् जैसे नये मेघोंको देखकर मोर आनंदसे नाचने लगते है वैसे ही श्री मल्लिनाथ भगवानके दर्शन कर इंद्र व चक्रवर्ती आनंदित होते हैं; और जैसें मस्त हाथी वृक्षोंको उखाड़ देते हैं वैसे ही श्री मल्लिनाथ भगवानने अपने कर्मोको उखाड़ कर फेंक दिया है. इसलिए हम श्री मल्लिनाथ भगवानकी स्तुति करते हैं ।)] .. . जगन्महामोहनिद्रा--प्रत्यूषसमयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य, देशनावचनं स्तुमः ।। २२ ।। १. आरे छः हैं। वर्णन टिप्पणियों में देखो । २. पुरुषार्थ चार हैं। वर्णन " Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ विष्टि शलाका पुप-चरित्रः पर्व १. मर्ग १. - - L - - [श्री मुनियननाथकी जो वाणी सारी दुनियाकी मोहनीय कमन्पी निद्राम लिए प्रातःकालंक समान है उस देशना-वाणीकी हम स्तुति करने हैं। (अर्थात--जल सोते हुए प्राणी सवेरा होने पर नाग जाने है बस ही श्री मुनिझुंबतनाथकी उपदेश-वाणी मुनकर मोहक वा में पड़े हुए प्राणी सावधान होकर आत्मनाथन करने लगते हैं।)] लुटना नमनां मृनि-निमलाकारकारणम् । बारिप्लवा इत्र नमः, पातु पादनखांगवः ॥ २३ ॥ [श्री नमिनायक वगणांक नोंकी जो किरणे नमस्कार करने हुए, प्राणियोंकि मस्तकपर पड़ती है और जल प्रवाहकी तरह (उनके दिलोंको) निमल करनेका कारण बनती है. वे किरण नुम्हारी रक्षा करें।] यदुवंशसमृद्दुः, क्रर्मक महताशन । - अरिष्टनमिमंगवान, भूयाद्वारिष्टनाशनः ॥ २४ ॥ . [जो अदुवंशनापी समुत्रके लिए चंद्रमाके समान हैं, और जो कमनापी लगलक लिप, आगंक समान है. वे भगवान अरिएनेमि तुम्हारे. अरियको (दुःखों व आफ्तोंको) नाश करें।] कैमठे धरणेंद्र.च, स्वाचितं कर्म कुर्वति । प्रमुस्तुल्यमनोवृत्तिः, पावनायः श्रियेस्तु वः ॥ २५ ॥ - १. कपट और यादी नया हिनयिमि देला , Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीस तीर्थकर--स्तुति - [कमट और धरणद्र दोनों अपने अपने योग्य काम करते थे; परंतु जिन श्री प्रभुकी भावना दोनोंके लिए समान थी वे श्री पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हारे कल्याणका कारण बनें।] .. कृतापराधेपि जने, कृपामथरतारयोः ।। .. ईपद्वाष्पायोभद्र, श्रीवीरजिननेत्रयोः ।। २६ ॥ . [श्री वीरभगवानकी जिन आँखोंकी पुतलियोंमें अपराध करनेवालोंपर भी दया दिखाई देती है, और जो (उस दयाके कारण ही ) आँसुओंसें भीज जाती हैं उन आँखोंका कल्याण हो। + + + + + .. ...ऊपर चौवीस तीर्थंकरोंकी स्तुति की गई है। उन्हीं चौवीस तीर्थकरोंके समय में बारह चक्रवर्ती, नी अर्द्ध चक्रवर्ती (वासुदेव),नौवलदेव, नौ प्रति वासुदेव हुए हैं। ये सब इस अवसर्पिणी कालमें इसी भरतक्षेत्र में हुए हैं। ये त्रिषष्टि (६३) शलाका पुरुष कहलाते हैं । उनमेंसे कइयोंको मोक्षलक्ष्मी प्राप्त 'हुई है और कइयोंको होनेवाली है। ऐसे शलाका-पुरुपत्व से सुशोभित महात्माओंके चरित्र हम कहते हैं। कारण" . "महात्मनां कीर्तनं हि, श्रेयो निश्रेयसास्पदम् ।" (महात्मा लोगों के चरित्रोंका कीर्तन करना, कल्याण व मोक्षका स्थान रूप है।). प्रथम भगगन ऋषभदेवजीका चरित्र कहा जाता है। उनको जिस भवमें सम्यक्त्व हुआ. उसी भवसे यह कथन आरंभ होता है। इसीको उनका प्रथम भव कहा गया है। (२७ से ३०) १. वर्णन टिप्पणियों में देखो। . . . . . २. संगम अपराध करनेवाला था उसकी कथा टिप्पणियों में देखो। ३-जो उसो भव में अथवा आगामी भव में अवश्यमेव मोक्ष जाने नाते होते हैं---उनको शलाका पुरुष कहते हैं। . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रथम भव-धन सेठ जट्टाप नामका एक (बड़ा) द्वीप ( टापू) है। वह अमुल्य समुद्रों तथा असंथ्य (छोटे छोटे) टापुओं रूपी कंकणों तथा बज वेदिकामाले बिरा हुआ है। यह नदियों, क्षेत्रों, और घर पर्वताल मुशामिन है । उसके वीचम. सोने और रत्नों वाला मैन पर्वत है । बह जंबुद्धापकी नामिके समान जान पड़ता है। मन पर्वत एक लाख योजन ऊंचा है। वह तीन मेखलायासे मुशासित है। (पहली मन्त्रला नंदन वन है, दूसरा मैत्रला सोमनस बन है और तीसरी मेन्टला पांडक दन है।) उसकी चूलिका (नित्ररकी समतल भूमि ) चालीस योजन की है, वह अनेक अर्हत-मंदिरोंले नुशामिन है। .. मेन पर्वतकी पश्चिम तरफ विदेह क्षेत्र है। उसमें क्षिति प्रतिप्टिन नामका नगर है। वह भूमंडल मंडन (अलंकार) समान है। [३३] - इस नगर में 'प्रसन्नचन्द्र' नामका गजा था । ब्रह धर्म-क्रमम सावधान था । वन-वैभवसे वह इंद्रक समान मुशामित होता था। [३] .....- वर्ष कात, क्षेत्र क्षेत्रों को बुद्धा अनंबाला पर्वत । -बारकोम वा आर नाल का मक बोजन होता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भव-धन सै उस नगरमें एक 'धन' नामक सेठ रहता था। वह सारी संपत्तियोंका इसी तरह आश्रय था जैसे सारी नदियोंका आश्रयः समुद्र है। वह यश रूपी दौलत-. का स्वामी था । उस महत्वाकांक्षी सेठके पास इतना द्रव्य था कि जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। उस [द्रव्य] का उपयोग चाँदनीकी तरह लोगोंको लाभ पहुँचाना था:। धन सेठ रूपी पर्वतसे सदाचार रूपी नदी बहती थी जो सारी पृथ्वीको पवित्र करती थी। वह सबके लिए सेव्य (सेवा करने लायकः) था । उसमें यशरूपी वृक्षके, उदारता, गंभीरता और धीरजरूपी उत्तम बीज थे। उसके घर अनाजके ढेरोंकी तरह रत्नोंके ढेर थे और बोरोंकी तरह दिव्य वस्त्रोंके ढेर थे। जैसे जल-जंतुओंसे समुद्र शोभता है उसी तरह घोड़े, खच्चर,ऊँट आदि वाहनोंसे उसका घर शोभता था । शरीरमें जैसे प्राणवायु मुख्य है उसी तरह वह धनी, गुणी और यशस्वी लोगोंमें मुख्य था । जैसे महासरोवरके पासकी जमीन झरनोंके जलसे भर जाती है वैसे ही उसके धनरूपी झरनोंसे उसकी नौकररूपी भूमि भी भर गई थी ( उसके नौकर भी गरीब नहीं रहे थे। ) एक बार उसने उपस्कर (आभूषण, किराना, वगैरा). लेकर. वसंतपुर जाना स्थिर किया। उस समय वह मूर्तिमान उत्साह मालूम होता था । उसने सारे शहरमें ढिंढोरा पिटवाया कि, "धन सेठ वसंतपुर जानेवाले हैं। इसलिए जिनकी इच्छा हो वे उनके साथ चलें। वे जिनके पास पात्र नहीं होगा उनको पात्र देंगे, जिनके पास सवारी नहीं: Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र. पर्व १. सर्ग .. - - होगी उनको सवारी देंगे, जिनको मददकी जरूरत होगी उनको मदद देगे और जिनके पास पाथेय. (यात्राकी चीजें यार खरचके लिए चन) नहीं होगा उनको पायेय देंगे, मार्गमें चोरों, लुटेरों और शिकारी जानवरोले रक्षा करेंगे, तथा जो अशक्त व गंगी हॉग उनकी अपने भाईकी तरह सेवा-शुपा करेंगे।" (22-१८) : फिर जब अलवान स्त्रियान कल्याण करनेवाली मंगल. विधि की तब बह रथम बैठकर शुभ मुहर्तमें घरसे रवाना 'हुआ और शहर के बाहर आया। (४२) विदा होते समय ढोल बजा । उसकी आवाजको लोगोंने “चुलाबा करनेवाले लोगोंकी आवाज समझा। बसंतपुर जानेकी इच्छा रखनेवाले समी शहरके बाहर, आकर. जमा हो गए। (५०) उसी समय साधुचर्यासे और धर्मसे पृथ्वीको पवित्र करते हुए धर्मघोष याचार्य सेठके पास याप! उनका मुखमंडल सूर्यकी क्रांतिके समान सेजम्बी था। - उनको देखकर सेट आदरसहित बड़ा हुआ। उसने विधि पूर्वक हाथ जोड़कर आचार्यको. वंदना की और धानेका 'कारण पूछा। ___आत्रायने कहा, "हम तुम्हारे साथ वसंतपुर आएंगे।" सुनकर लेट योला, "हे भगवन, याज में अन्य या । (जैस) साथ रन्नने लायक (धर्मात्मामाकी मुझे आवश्यकता थी वैसे) आप मेरे साथ चल रहे हैं। आप बड़ी खुशीसे मेरे साथ चलिए।". . . . . . . .:: : Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भव-धन सेठ १३. - - फिर उसने अपने रसोइयोंको आशा दी, "इन आचार्य महाराजके लिए तुम हमेशा अन्न-पानादि तैयार करना।" ":. : आचार्य बोले, "साधु ऐसा आहार-पानी लेते हैं जो उनके लिए न बनाया गया हो. न बनवाया गया हो, या ने संकल्प ही किया गया हो। हे सेट, कूमा, बावड़ी और तालाबका जल भी-यदि अग्नि वगैरा से अचित न बनाया गया हो तो-साधु ग्रहण नहीं करते। यही जिन शासनका विधान है !(५६-५७). - उसी समय किसीने आमोसे भराहुआ थाल लाकर सेटके सामने रखा । उन पके हुए आमोंका सुन्दर रंग संध्याकालके फटे हुए वादलोंकासा था । सेठने बड़े आनंदभरे मनसे आचार्यको कहा, "आप' ये फल स्वीकार कर मुझे उपकृत कीजिए।" ___आचार्यने कहा, "हे श्रद्धालु, ऐसे सचित फलोको खानकी बात तो दूर रही स्पर्श करना भी साधुओंके लिए वर्जित है।" . . सेठने कहा, “आप किसी महा कठिन व्रतके धारी हैं। ऐसे कठिन व्रतको चतुर मनुष्य तक, अगर वह प्रमादी होता है तो, एक दिन भी नहीं पाल सकता। फिर भी आप साथ चलिए। मैं आपको वही आहार दूंगा, जो आपके लिए ... ग्राह्य होगा।” इस तरह कह, उसने वन्दना करके मुनिको विदा किया । [५८-६२] .... सेठ अपने चंचल घोड़ों, ऊँटो, गाड़ियों और बैलोंके साथ इस तरह आगे बढ़ा जैसे समुद्र [ज्वारके समय ]. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ त्रिषष्टि शन्द्राका पुरुष-चरित्र. पर्व १. सर्ग १. - - - चंचल जलतरंगॉसे आगे बढ़ना है। आचार्य भी अपने साधुः परिवार सहित रवाना हुए । साधु ऐसे मालूम होते थे, मानों वे मूर्तिमंत मन गुण और उत्तर गुण हो। [६३-६४] ___ मंत्रक आगे धन लेट चलता था और उसके पीछे उसका मित्र मणिमद्र चलता था ! उसके दोनों तरफ घुड़सवार चल रहे थे। उस समय याकाश, सटके सफेद छत्रॉसे 'शरदऋनुकं बादलोले घिरा हुमामा और मयुर-छत्रास [मारपवार यने त्रास] पी ऋनुक्के बादलोन्ले घिरा हुमाना मालूम होता था। व्यापारको मारी चीजोको ऊँट, त्रैल, खच्चर और गंध इस तरह उठाप, लिए, जा रहे थे जैसे पृथ्वीको धैनवान बद्दन करता है। वेगले चलने हए रोक पर कर पृचीपर टिकते थे और कर उठने थे यह समझ में नहीं आता था, इससे वे पले मालूम होने थे, माना मृग है । और चराकी पीठ पर लदे हुए चोर उछलने हर फैलकर ऐसे मालूम होते थे मानों उड़ने पंखियोंके पंन्न है।[६५-६८] बड़ी बड़ी गाड़ियाँ-जिनन बैठकर युवक चल सकते थेचलती हुई ऐसी मालूम होती थीं, माना घर जा रहे है।[१९] पानी ले जानेवाल बड़े शरीरों और कंयाँवाले मैले ऐसे 'जान पड़तथे मानों बादल-ज़मीन पर उतर पार, हैं और लोगोंकी प्यास बुझा रहे हैं। (७०) उपस्कॉल भरी चलती हुई गाड़ियांची अावाज ऐसी मानुन होजी श्री मानों भारले दबी हुई पृथ्वी चिल्ला रही 1-टयनी देखी। शारों अनुकर धनवान पृथ्वी हिची हुई है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : प्रथम भव-धनसेठ बैलों, ऊटों और घोड़ों (के पैरों) से उड़ी हुई धूलि आकाशमें इस तरह छा गई कि दिन भी सूईसे वींधा जा सके पेले अंधकारसे पूर्ण हो गया । (७२) । ... बैलोंके (गलोंमें बँधे हुए) घंटोंकी आवाजोंने 'मानों दिशाओंके मुखौंको बहिरा बना दिया था । चमरी मृग (सुरा गोएँ) अावाजोले डरकर, अपने बच्चों सहित, कान खड़े किए 'दुर खड़ी (आवाजोंकी तरफ) देख रही थीं। (७३) :. . बहुत वोझा उठाकर चलते हुए ऊँट अपनी गरदने टेढी करके वृक्षोंके अगले भागको बार बार चाटते.थे। (७४) , जिनकी पीठों पर (मालसे भरे) थैले रखे थे वे गधे अपने कान खड़े और गरदने सीधीकर एक दूसरेको काटते थे . और (चलते हुए) पीछे रह जाते थे । (७५.) . - हथियार बंदरनकोंसे घिरकर चलता हुआ सेट पेसामालूम होता था मानों वह वज्रकेपिंजरेमें बैठा जा रहा है । (७६) - बहुतसा धन और सामान लेकर जाते हुए सार्थ (व्या'पारियोंके समूह ) से चोर और लुटेरे इसी तरह दूर रहते थे जैसे मणिधर सर्पसे लोग दूर रहते हैं । (७७) सेट धनवान और गरीव सबके योग-क्षेमकी (कुशल. मंगलकी) समान भावले देखभाल करता था और वह सबके साथ इस तरह चलता था जैसे यूथपति हामी सव छोटे-बड़े हाथियोंको साथ लेकर चलता है। खुशीसे चमकती आँखोंके साथ लोग उसका आदर करते थे। यह सूर्यकी तरह, प्रति दिन, आगे बढ़ता था। (७८-७६) * योग-अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति कराना। क्षेम-प्राप्त वस्तुकी रक्षा करना। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व : सर्गः १. ग्रीष्म वर्णन सरोवरों और नदियोंके पानीको, रातकी तरह... कम करनेवाला (गरमी के दिनोंमें नदियों और तालाबोंका पानी सूखता है और रात छोटी होती हैं।) मुसाफिरोंके लिए. दुखदायक भयंकर गरमीका मौसम आ पहुँचा। भट्ठींकी आगकी तरह असह्य लूएँ (गरम हवाएँ) चलने लगी। अंगारोंके समान गरम बृपको सूरज चारों तरफ फैलाने लगा सार्थक लोग रस्ते अानेवाले वृक्षोंके नीचे चलते चलते रुक कर थोड़ा थोड़ा विधाम लेते हुए आगे बढ़ने लगे। पानीकी हरेक प्याऊपर जाकर लोग पानी पीने और थोड़ा लेटने लगे। भैसे अपनी जीभ बाहर निकालने लगे; मानों निसासनि उनको वाहर धकेल दिया है। वे चलानेवालोंके ग्राघातांकी (लाठी वगैरक मारकी)कुछ परवाह न कर कीचड़म घुटने लगे। सारथी चाधुकोले पीटते थे तो भी बैल मारकी परवाह न करते हुप.वृनोंकी. जो वृतरस्तांसं दूर होते थे उनकी, छायाम जां खड़े होते थे। मोम जैसे लोहेकी गरम कील लगनसं पिघलने लगता है वसही मूरजकी गरम किरणें लगनेंस लोगोंके शरीर पिघलने लगे (उनके शरीरोसं पसीना बहने लगा।) यागर्म तपार हुए लोहकी तरह सूरज अपनी किरणोंको गरम करने लगा। मार्गक्री घृल कंडाली भृमली जलने लगी । लायकी .. स्त्रियाँ मार्गमें पानवाली नदियोंम (जहाँ वहाब न हो और . एक तरफ नदी में पानी भर रहा हो ) इतर.कर नहाने यार कमलिनीकी इंडियाँ तोइसर गलामें लपटने लगीं। पसीनस तर कपड़े पहने हुए लिया गली मालम होती थीं, मानों वे अभी नहाकर भाग कप पहने पा रही है। मुसाफिर लोग ढाक, ताइपत्र, हिताल (छोटी जातिका एक खजूर), Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... प्रथम भव-धनसेठ १७ कमन और केलेके पत्तोंके पंखे बना बना कर हवा करने और अपने शरीरका पसीना सुखाने लगे। (८०-८८) . . वर्षा ऋतु फिर गरमीके मौसमकी तरहही मुसाफिरोंकी गतिको रोकनेवाली मेघोंके चिह्नोंवाली वर्षा ऋतु (बारिश का मौसम) आई । यक्षकी तरह धनुष धारण किए और जलधारा रूपी बाण वरसाते आकाशमें मेघ आ चढ़ा। साथके सभी लोगोंने भयभीत नजरसे उसको देखा। बालक अधजली लकड़ी लेकर जैसे धुमाते और डराते हैं वैसेही,मेघ विजली चमकाकर साथके लोगोंको भयभीत करने लगा। आकाश तक गए (बहुत ऊँचे ऊँचे उछलते) हुए जलके पूरने मुसाफिरोंके दिलोंकी तरह ही नदियोंके किनारोंको तोड़ डाला। बादलोंके पानीने जमीनके ऊँचे और नीचे सभी भागोंको समान बना दिया। ठीकही कहा है:___"जड़ानामुदये हंत विवेकः कीदृशो भवेत् ।" - [१. जड़ (मूर्ख) लोगोंका उदय होने पर भी, उनकी तरकी होने पर भी, उनमें विवेक कैसे आ सकता है ? २. जल जब बहुत बढ़ता है तब उसमें विवेक नहीं रहता।] - जल, काँटों और कीचड़के कारण मार्ग ‘दुर्गम हो गया था, इसलिए उसपर. एक कोस चलना भी सौ योजन चलनेके समान. मालूम होता था। मुसाफिर घुटने तक चढ़े हुए पानीमें . इस तरह धीरे धीरे चल रहे थे, मानों वे अभीही कैदसे छूटकर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ } त्रिषष्टि शलाका युध-चरित्र पर्व १ वर्ग १. - आरई है। (केट में पेंगने जब भारी भारी बेड़ियाँ होती है, तब छद्र ने नहीं चल सकता है। हरमच रस्तपर पानी फैल रहा था, वह पेना गान पड़ना या भानों किसी देवन मुनाप्निों रस्ता रोमन लिए अपने हाय कैलाप है। गाड़ियाँ क्रांबडमें सनई थी, गेमा मादल बीता था कि नुहन गाड़ियों द्वारा नीनी छानी गई जाती थी, इसलिए उसने नागन कर गाड़ियांनो पकड़ लिया था। टायर नहीं इसलिए मवान नीचे उतर, त्र गर्ने कल्ली हान्न उनन्त्रींचना गुन क्रियानगर पैनी नजोरी और चली अपिता) ऋण वे गिर गिर पड़ने लगे ! (६-24) . . बारिश व अन्न नाट्टरनं चलना बहुनु ऋठिन हो गया था, इसलिए बनसंठन (चा की देखकर उस पर) नंाँव और उनी व बंगलमें रहना स्थिर दिया। दूसरे लोगोंन मीड़ियों या नंबू बाँध लिए (और आगन्ने वर्शन जिनान बग) टीन्द्रीच्छा है "नहि सीदति इत्रता देशकालोत्रितां नियाम् ।। - बोइंग और चलने देवर काम करता है वह हुन्नी नहीं होना 1] (१०-११) के मित्र मणिमनन गइदिदी यायय बताया। वह नीव-जंतु रहिन बनीन पर था, इलिए बुरिना अपन मात्रुओं नदिन उसने रहने लगे। साथ लोग ऋवित्र और अद्भुत दिनों तक रहना पड़ा था, इसलिए उनके पास दो पात्र और कान मनात हो Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. प्रथम भव-धनसेठ . : . [१९ - - चले। इसलिए साथमें आए हुए लोग भूखसे घबराकर मैले कपड़ीवाले तापसोंकी तरह, कंद-मूलादि भक्षण करने के लिए इधर-उधर घूमने लगे । (१०२-१०४) .. एक दिन शामके वक्त सेठके मित्र मणिभद्रने साथके लोगोंकी दुःखकथा सेठको सुनाई। उसे सुनकर सार्थके लोगोंके दुःखोंकी चिंतामें वह इस तरह निश्चल होकर बैठ रहा जिस तरह हवा नहीं चलती है तब समुद्र निश्चल हो जाता है। (१०५-१०६) इस तरह चिंतामें पड़े हुए सेठको क्षणमात्रमें नींद आ गई। कारण"अतिदुःखातिसौख्ये हि तस्याः प्रथमकारणम् ।" [बहुत दुःख और बहुत सुख निद्राका पहला कारण है।] (१०७) रातकी अन्तिम पहरमें शुभ आशय रखने वाला अश्वशाला (घुड़साल) का एक चौकीदार कहने लगा "हमारे स्वामीका यंश चारों दिशाओं में फैला हुआ है। अभी बड़ाही बुरा समय आया है तो भी वे अपने आश्रित लोगोंका अच्छी तरह पालन-पोषण कर रहे हैं।” (१०८-१०६) . सेठने यह बात सुनी। वह सोचने लगा, किसीने मुझे उपालभ दिया है। मेरे साथमें कौन दुःखी है ? अरे हाँ ! मेरे साथ धर्मघोप प्राचार्य श्राए हुए हैं। वे अपने लिए नहीं बनाया और नहीं बनवाया हुआ प्रासुक(अचित)भिक्षान्न खाकर ही पेट भरते हैं । वे कंद, मूल और फलादि पदार्थोंको तो कभी छूते तक नहीं हैं। इस समय दुःखी सार्थमें उनकी क्या दशा हुई होगी? Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] त्रिषष्टि शनाका पुरुष- चरित्र पर्व १ सर्ग १. जिनको, मैं यह कहकर लाया था कि मैं उन्लेमें श्रापकी सब तरहने व्यवस्था करूँगा उनकी पाजनक मन याद भी नहीं छिया । अत्र में जाकर किस तरह उनको अपना मुँह दिन्नाऊँगा तो भी में थानही जाकर उनके दर्शन ऋलंगा और अपने पापको घोऊँगा। कारण, इसके लिया उन, सब तरहकी इच्छाओस रहित, महात्मानी में दूसरीच्या सेवा कर सकता है ? (११०-११५) इन नाहक विचारक बाद भनक लिए पातुर बने हुए, सेटको गानकी चौथी पहा दुसरी पहरमी मालूम होने लगी। गन बीन गई । संवेग हुश्रा | अच्छे बन्त्राभूषण (कपड़े और जेबर) पहनकर मंट अपने बास बास श्रादमियोंको साथ रिजीची, पायल्यान, झोपड़ा गया। बहनापट्टी हार पत्तोंने छाई हुई थी। इस धामकी दीवारें थीं। उनमें पड़े हुए छेद ऋजीदके काम मान्नुम होने थे। वह निर्जीव जमीन पर बनी हुई थी 1 (११३-११८ ) वहाँ उनन मंत्रीप श्राचार्य को देखा। उसे जान पड़ा कि आचार्य पापनपी मनुनको मयनेत्राल हैं (पायोंको नारा करनेवाले हैं), मोन माग है, धर्म मंडप है, नजके स्थान है, कपायरूपी गुलम (बास विशेष) के लिए, इिनके समान है, कन्याग लभी हार है, सब अद्वैन भूषण है, मानकी इच्छा रन्ननवालांलिपलयन है, नप माज्ञान अवतार. है, मुर्निमान आगम है और नीयको चलानवान्ले दीर्थकर है। (११-१२१) ___ उनके श्रासपान दुसरं मुनि थे। उनमें कोई ब्यान लगा रहे थे, कोई मौन धारण किए घंट, फिमीन भायोमा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भव-धनसेठ .. किया था, कोई आगमका अध्ययन कर रहे थे, कोई वाचना दे रहे थे (पढ़ा रहे थे), कोई भूमि प्रमार्जन कर रहे थे (इस तरह जमीनको साफ कर रहे थे कि उसपरसे जीव हट जाएं और कोई मरने न पावे), कोई गुरुको वंदना कर रहे थे, कोई धर्मकथा सुना रहे थे, कोई श्रुत (शास्त्र) का उदाहरण दे रहे थे, कोई अनुज्ञा (इजाजत या आज्ञा). दे रहे थे और कोई तत्व समझा रहे थे। (१२२-१२४ । ... सेठने पहले धर्मघोष श्राचार्य महाराजकी और फिर क्रमशः सव साधुओंकी वंदना की । आचार्य ने सेठको पापका नाश करनेवाला 'धर्मलाभ' (आशीर्वाद दिया। (१२५) फिर वह आचार्यश्रीके चरणकमलोंमें राजहंसकी तरह प्रसन्नतापूर्वक बैठा और बोला, "हे भगवन् ! मैंने आपको अपने साथ आनेके लिए कहा था, मगर मेरे वे वचन शरदऋतुके बादलोंकी गर्जनाके समान मिथ्या आडम्बरही हुए। कारण, उस दिनके बाद मैंने आजतक न श्रापके दर्शन किए, न आपकी वंदनाकी और न अन्नपान या वखसे आपका सत्कार ही किया। जागते हुए भी मैं सोता रहा । मैंने आपकी अवज्ञा की, और अपने वचनका भंग किया। हे महाराज, मेरे प्रमादाचरणके लिए (मैंने लापरवाही की इसके लिए) आप मुझे क्षमा करें। (आप तो पृथ्वीके समान क्षमाशील हैं।" कहा है "सर्वसह महांतो हि सदा सर्वसहोपमाः।" . [महात्मा सदा सब कुछ सहते हैं इसलिए वे सदा सबकुछ सहन करनेवाली(पृथ्वी) के जैसे (गंभीर) होते हैं।] (१२६-१३०) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२) त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व १ सर्ग १. सेठकी बातें सुनकर सूरिजी बोले, "हे सार्थवाह ! (हे सेठ ) तुमने रस्तेम हमको हिंसक पशुओंसे और चोरोंसे बचाया है। ऐसा करके तुमने हमारा सब तरहसे सम्मान किया है। तुम्हारे साथके लोगही हमको आहारपानी (खानापीना) देते रहे हैं, हमको (खानेपीनेकी) कोई तकलीफ नहीं हुई । इसलिए हे महामति ! आप जरासा भी खेद न करें ।" ( १३१-१३२ ) सेठ बोला "सन्त पुरुप सदा सब जगह गुणही देखते हैं। "गुणानेत्र संतः पश्यति सर्वतः ।" ___ इसलिए आप मुझ दोपीके लिए भी ऐसी बातें कहते हैं। मैं अपने प्रमादके (लापरवाहीके) लिए बड़ा शरमिंदा हूँ। (अब ) श्राप प्रसन्न होकर साधुओंको आहारपानी लेनेके लिए भेजिए। मैं इच्छा के अनुकूल आहारपानी दूंगा । (१३३-१३४) आचार्य बोले, "तुम जानते हो कि वर्तमान योगसे अकृत (नहीं किया हुआ ) अकारित ( नहीं कराया हुआ ) और अचित (जीव रहिन) अन्नादिकही हमारे उपयोगमें यात हैं. 1 ( १३५) "मैं ऐसाही आहारपानी साधुओंको बहोराऊँगा (दूंगा) जो आपके उपयोगमें थाने लायक होगा " यह कहकर सार्थवाह अपने डेरेपर गया। (१३६) उसके बाद दो साधु याहारपानी लेने उसके डेरेपर गए । दैवयोगसे कोई चीज साधुओंको देनेलायक उसके डेरेपर Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भव-धनसेठ २३ न मिली। सार्थवाह इधर-उधर देखने लगा। उसे उसके निर्मल अंत:करणके समान ताजा घी दिखाई दिया । (१३७-१३८). ___' सार्थवाहने पूछा, “यह आपको कल्पेगा ( आपके उपयोगमें आ सकेगा ? साधुओंने "कल्पेगा" कहकर पात्र. (लकड़ी की बनी हुई पतीली विशेष ) रखा । (१३६) । ___ "मैं धन्य हुआ, मैं कृतार्थ हुआ, मैं पुण्यवान हुआ, सोचते हुए सेठका शरीर रोमांचित हो गया। उसने अपने हाथोंसे साधुओंको धी बहोराया और मुनियोंकी अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे वंदना की; मानो उसने आनन्दानुसे पुण्यांकुर को अंकुरित किया। साधु सर्व कल्याणोंकी सिद्धिके लिए सिद्धमंत्रके समान 'धर्मलाभ' देकर अपने डेरेपर गए । सार्थवाहको (धनसेठको) मोक्षवृक्षके बीज के समान दुर्लभ ऐसा बोध वीज (सम्यक्त्व ) प्राप्त हुआ। रातको सार्थवाह फिर मुनियोंके डेरेपर गया, और गुरु महाराजको वंदनाकर, उनसे आज्ञा माँग, (हाथ जोड़ ) बैठा । धर्मघोपसूरि ने उसको श्रुतकेवलीकी तरह मेधके समान गंभीर वाणीमें नीचे लिखा उपदेश दिया। (१४०-१४५) .. "धर्म उत्कृष्ट मंगल है, स्वर्ग और मोक्षको देनेवाला है और संसाररूपी वनको पार करनेमें रस्ता दिखानेवाला है। धर्म माताकी तरह पोषण करता है, पिताकी तरह रक्षा करता है, मित्रकी तरह प्रसन्न करता है, बन्धुकी तरह स्नेह रखता है, गुरुकी तरह उजले गुणोंमें ऊँची जगह चढ़ाता है और स्वामीकी तरह बहुत प्रतिष्ठित बनाता है। धर्म सुखोंका बड़ा महल है, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] त्रिषष्टि शलाका पुस्य-चरित्र पर्व र सर्ग १. शत्रुओं संकटने कवच है. सील पैदा हुई जनाको मिटानमें धूप है और पापक मर्मको जाननेवाला है। धर्मसे जीव . राजा बनता है, बलदेव होता है, अर्द्धचक्री (वासुदेव ) होना है, चक्रवर्ती होना है, देव और इन्न होना है, अवयक और. अनुत्तर विमान (नामके न्वगों) में अहमिन्द्र होता है और धर्महीसे तीर्थकर भी बनता है। वमने क्या क्या नहीं मिलता है ? (सब कुछ मिलता है। ) (१४३-१५१) "दुर्गनिप्रपतवंतुधारमार्म उच्यते।" [दुर्गनिमें गिरने हुए जीयाको जो धारण करता है (बचाता है) उसे धर्म कहनें है। वह चार नरहका है। (उनके नाम है) दान, शील, नप और मात्रना । (१५२) दानधर्म नीन नाहका है। उनके नाम हैं. १. बानदान २. अमयदान ३. धर्मायग्रहदान । १५३ धर्म नहीं जाननवानांनी पाचन या उपदेश श्रादिका दान देना अथवा दान पान सावनोंका दान देना बानदान कहलाता है। ज्ञानदान प्राणी अपने हिताहितको जानता है। और उससे हिन-अहिती सुमन, जीवादि तलाको पहचान बिरनि (वैनन्य) प्राप्त करता है। बानवान प्राणी मन्चल केवलज्ञान पाना है और नत्र लोक पर कृपाकर लोमात्र मागपुर श्राद्ध होता है (मोक्षमें जाता है) 1 (१४2-१५६) अमयानका अभिप्राय है मन, वचन और कायासे जीवको नगरना, न मरखाना और न मारनेत्राताअनुमोदन करना (मारने कामको मल्ला न बताना।) (१५५% Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . प्रथम भव-धनसेठ ... [२५ - जीव दो तरहके होते हैं-स्थावर और त्रस । उनके भी दो भेद है-पर्याप्त और अपर्याप्त । . पर्याप्तियाँ छः तरहकी होती हैं। उनके नाम हैं १. श्राहार २. शरीर, ३. इंद्रिय, ४. श्वासोश्वास, ५. भाषा, ६. मन । . एकेंद्रिय जीवके (पहली) चार पर्याप्तियाँ, विकलेंद्रिय जीव (दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय और चार इंद्रिय जीव) के पहली पाँच पर्याप्तियाँ और पंचेंद्रिय जीवके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। (१५८-१६०) ... एकेंद्रिय स्थावर जीव पाँच तरहके होते हैं-१. पृथ्वी (जमीन) २. अप (जल) ३. तेज (अग्नि) ४. वायु (हवा) ५. वनस्पति । इनमेंसे आरंभके चार सूक्ष्म और वादर ऐसे दो तरहके होते हैं । वनस्पतिके प्रत्येक और साधारण दो भेद हैं। साधारण वनस्पतिके. भी दो भेद हैं। सूक्ष्म और बादर । (१६१-१६२) __ त्रस जीवोंके चार भेद है-१. दो इंद्रिय, २. तीन इंद्रिय, ३. चार इंद्रिय, ४. पंचेंद्रिय । - पंचेंद्रिय जीव दो तरह के होते हैं-१ संज्ञी, २. असंज्ञी। - १- जिस जीवके जितनी पर्याप्तियाँ होती हैं उननी जो पूरी करता . है उसे पर्याप्त जीव कहते हैं । २-जिस जीवके जितनी पर्याप्तियाँ होती हैं उतनीको पूर्ण किए बिना जो मरता है उसे अपर्याप्त जीव कहते हैं । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] त्रिषष्टि शलाका पुण्य-चरित्र पर्व १ मर्ग १. शत्रुओंके संकटमें कवत्र है.नगदीस पैदा हुई जनाको मिटानमें धूप है और पापक मर्मको जाननेवाला है। धर्मसे जीव । राना बनता है, बलदेव होता है, अद्धचक्री (वासुदेव) होता है, चक्रवर्ती होना है, देव और इन्न होता है, वयक और अनुचर विमान (नाम स्वगों) में अहमिन्द्र होता है और धर्महीसे तीर्थकर भी बनना है। धर्मसे क्या क्या नहीं मिलता है ? (सब कुछ मिलता है। ) ( १४६-१५१) "दुर्गतिप्रपतवंतुधारणाद्धर्म उच्यते।" . [दुर्गनिमें गिरते हुए जीवोंको जो धारण करता है (बचाता है) उसे धर्म कहने हैं। वह चार नरहका है। (उनके नाम हैं) दान, शाल, तप और भावना ।.(१५२) दानधर्म तीन तरहका है। उनके नाम हैं. १. ज्ञानदान २. अभयदान ३. बर्मापप्रदान । (१५३. __धर्म नहीं जाननेवालोंको याचन वा उपदेश श्रादिका दान देना अथवा जान पानेके साधनोंका दान देना ज्ञानदान कहलाता है। ब्रानहानसे प्राणी अपने हिताहितको जानता है। और उससे हिन-अहितको समन, जीवादि तलाको पहचान विरति (वैराग्य) प्राप्त करता है। बानदानसे प्रागी उज्ज्वल केवलज्ञान पाना है और सर्व लोक पर कृपाकर लोचा मागपर श्रारुढ़ होता है (मोक्षमें जाता है)। (१५४-१५६) __ अमयानका अभिप्राय है मन, वचन और. कायासे लीवको न मारना, न मरवाना और न मारनेवालेका अनुमोदन करना (मारनेचे कामको मन्ता न बताना ।) (१५७), Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' प्रथम भव-धनसेठ . . [२५ जीव दो तरहके होते हैं-स्थावर और त्रस । उनके भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । पर्याप्तियाँ छः तरहकी होती हैं। उनके नाम है १. आहार २. शरीर, ३. इंद्रिय, ४. श्वासोश्वास, ५. भाषा, ६. मन । एकेंद्रिय जीवके (पहली) चार पर्याप्तियाँ, विकलेंद्रिय जीव (दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय और चार इंद्रिय जीव) के पहली पाँच पर्याप्तियाँ और पंचेंद्रिय जीवके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। (१५८-१६०) ... एकेंद्रिय स्थावर जीव पाँच तरहके होते हैं-१. पृथ्वी (जमीन) २. अप (जल) ३. तेज (अग्नि) ४. वायु (हवा) ५. वनस्पति । इनमेंसे आरंभके चार सूक्ष्म और बादर ऐसे दो तरहके होते हैं। वनस्पतिके प्रत्येक और साधारण दो भेद हैं। साधारण वनस्पतिके. भी दो भेद हैं। सूक्ष्म और बादर । (१६१-१६२) त्रस जीवोंके चार भेद है-१. दो इंद्रिय, २. तीन इंद्रिय, ३. चार इंद्रिय, ४. पंचेंद्रिय ।। पंचेंद्रिय जीव दो तरहके होते हैं-१ संजी, २. असंज्ञी। १-जिस जीवके जिननी पर्याप्तियाँ होती हैं उतनी जो पूरी करता है उसे पर्याप्त जीव कहते हैं । २-जिस जीवके जितनी पर्याप्तियाँ होती हैं उतनीको पूर्ण किए बिना - जो मरता है उसे अपर्याप्त जीव कहते हैं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] त्रिषष्टि शलाका पुस्प-चरित्र पर्व १ सर्ग १. जो मन और प्राणको प्रवृत्त कर, शिक्षा, उपदेश और पालाप (बातचीत) को समझते हैं-समझ सकते हैं उनको संनी जीव कहते हैं । जो संज्ञीसे विपरीत होते हैं व असंही कहलाते हैं । (१३३-१६४) इंद्रियाँ पाँच हैं; १ स्पर्श, २ रसना (जीम ), ३ घाण (नासिका), ४ चक्षु (आंख ), ५ श्रोत्र (कान)। स्पर्शका काम है छूना, रसनाका काम है चखना (स्वाद जानना ), प्राणका काम है सूंघना, चक्षुका काम है देखना और श्रोत्रका काम है मुनना । (१६५.) ___ कीड़े, शंख, गढूपढ़ ( केंचुआ ), जॉक, कपर्दिका (कौडी) और (मुतुही नामका जलजनु ) वगैग अनेक तरहके दोइंद्रिय जीव हैं। (१६६) यूका () मत्कुण (खटमल ), मकोड़ा और लीख वगैरा तीनइंद्रिय जीव हैं। ___ पनंग (फलंगा), मन्त्री, भोग, डाँस बगैंग प्राणी चारइंदिर है। (१६७) ___ जलचर (मछली, मगर बगैंग जलकें नीव ), स्थलचर. (गाय भैंस वगैरा पशु ), खेंचर (कबूतर, तीतर, कौवा वगैरा पंखी), नारकी ( नरक में पैदा होने वाले ), देव (स्वर्ग में पैदा होनेवाले ) और मनुष्य ये सभी पंचेन्द्रिय जीव है । (१६८) ___ ऊपर कहे जुए जीवोंकी (मारकर) आयु समाप्त करना, उनके (शरीरको) दु:ख देना और उनके (मनको) क्लेश पहुंचानका नाम वध करना (हिंसा करना) है । और वध Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रथम भव-धनसेठ [२७ - - नहीं करने का नाम अभयदान है। जो अभयदान देता है वह __चारों पुरुषार्थों ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) का दान करता है। कारण, बचा हुआ जीव चारों पुरुषार्थ प्राप्त कर सकता है। प्राणियोंको राज्य, साम्राज्य और देवराज्यकी अपेक्षा भी जीवन अधिक प्रिय होता है। इसीसे कीचड़के कीड़ेको और स्वर्गके इंद्रको प्राण-नाशका भय समान होता है। इसलिए सुबुद्धि पुरुषको चाहिए कि वह सदा सावधान रहकर अभयदानकी प्रवृत्ति करे । अभयदान देनेसे मनुष्य परभवमें मनोहर, दीर्घायु, तन्दुरुस्त, कांतिवान, सुडोल और बलवान होता है। ( १६६-१७४) धर्मोपग्रहदान पांच तरहका होता है, १. दायक ( दान देनेवाला) शुद्ध हो, २. ग्राहक । दान लेनेवाला) शुद्ध हो, ३. देय (दान देनेकी चीज) शुद्ध हो, ४. काल (समय) शुद्ध अच्छा हो, ५ भाव शुद्ध हो।। दान देनेवाला वह शुद्ध होता है जिसका धनन्यायोपार्जित हो, जिसकी बुद्धि अच्छी हो जो किसी आशासे दान न देता हा, जो ज्ञानी हो (वह दान क्यों दे रहा है इस बातको समझता हो) और देनेके वाद पीछेसे पछतानेवाला न हो। वह यह माननेवाला हो कि ऐसा चित्त (जिसमें दान देनेकी इच्छा है) ऐसा वित्त (जो न्यायोपार्जित है) आर ऐसा पात्र ( शुद्ध दान लेनेवाला) मुझको मिला इससे मैं कृतार्थ हुआ हूँ। (१७५-१७७) दान लेनेवाले वे शुद्ध होते हैं जो सावद्ययोगसे विरक्त Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र पर्व १ सर्ग १. __ होते हैं ( पापरहिन होने हैं ), जो तीन गौरव ( १. रसगौरव, २. ऋद्धि गौरव, ३. साता गौरव) रहित होते हैं। तीन गुप्तियाँ धारण करनेवाले और पाँच समितियाँ पालनेवाले - - - - १. मधुरादि रसकि स्वादका अमिमान करना । २. ऐश्वर्यधन-सम्पति आदिका अमिमान करना। ३. मुखका अमिमान करना। ४. निवृत्तिको या रोकनेको गुप्ति कहते हैं। इसके तीन भेद है। १-मनोगुप्ति-ध्यानको मनको बुरे संकल्लों या विचारों में प्रवृत्त न होने देनेको 'मनोगुप्ति' कहते हैं । २-वचनगुप्ति-मौन रहनेको, और यदि बोलनेकी नरूरत ही हो तो ऐसे वचन बोलनेको, जिनसे किसी प्राणीको दुःख न हो, 'वचनगुप्ति' कहते हैं। ३-कायगुप्तिशरीरको स्थिर रखना और यदि हलन-चलन करनेकी जरूरत ही हो तो ऐसा हलन चलन करना-जिसने किसी प्राणीको दुःख न हो। इसीका नाम 'कायगुप्ति है। ५. अच्छी, स्वपरकल्याणकारी प्रवृत्तिको 'समिति' कहते हैं। इसके पाँच मेद है। १-ईर्यासमिति-इस तरहसे चलना कि किमीमी तीवको कोई तकलीफ न हो। २-मापाममिति-ऐसे वचन बोलना बिनसे किसी नीवको कोई दुःख न हो। ३.एपणासमिति-दोषोंको टालकर निर्वछ याहारपानी लानेकी प्रवृत्ति । ४-आदान-निक्षेपसमिति-पात्र, वस्त्र तथा दूसरी चीनको सावधानीसे-प्रमादरहित होकर उठाने और रखनेकी प्रवृत्ति । ५-परिष्टापनिकासमिति-मल, मूत्र और धुक्रको सावधानीसे त्यागनेकी प्रवृत्ति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रथम भव-धनसेठ [२६ होते हैं। जो राग-द्वेषसे मुक्त होते हैं, जो नगर, गाँव, स्थान, उपकरण और शरीरमें भी ममता नहीं रखनेवाले होते हैं, जो अठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले होते हैं, जो रत्नत्रय (सम्यक-ज्ञान, सम्यकदर्शन और सम्यक् चारित्र ) के धारण करनेवाले. होते हैं. जो धीर और लोहा व सोनेमें समान दृष्टिवाले होते हैं, धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें जिनकी स्थिति होती है, जो जितेंद्रिय, कुक्षिसंवल ( आवश्यकतानुसार भोजन करनेवाले), सदा शक्तिके अनुसार छोटे छोटे तप करनेवाले, सत्रह तरहके संयमको अखंडरूपसे पालनेवाले और अठारह तरहका ब्रह्मचर्य पालनेवाले होते हैं। ऐसे शुद्धदान लेनेवालोंको दान देना ग्राहक शुद्धदान' या 'पात्रदान' कहलाता है । ( १७८-१८२) - देय शुद्धदान-देने लायक,४२ दोषरहित अशन (भोजन, मिठाई, पुरी वगैरा ) पान (दूध-रस वगैरा), खादिम (फल मेवा वगैरा), स्वादिम (लौंग, इलायची वगैरा), वस्त्र और संथारा (सोने लायक पाट वगैरा) का दान, वह देय शुद्ध दान कहलाता है। (१८३) योग्य समय पर पात्रको दान देना 'पात्रशुद्धदान' है और कामना रहित (कोई इच्छा न रखकर ) दान देना 'भावशुद्धदान' है (१८४) शरीरके विना धर्मकी आराधना नहीं होती और अन्नादि विना शरीर नहीं टिकता। इसलिए धर्मोपग्रह ( जिससे धर्म साधनमें सहायता मिले ऐसा) दान देना चाहिए । जो मनुष्य अशनपानादि धर्मोपग्रहदान सुपात्रको देता है वह तीर्थको Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व ? सर्ग १. अविच्छेद ( स्थिर ) करता है और परमपद (मोन ; को पाता . है! ( १८५-१८६) "शीलं सावधयोगानां प्रत्याख्यानं निगद्यते।" [जिस प्रवृत्तिसे (कामसे) प्राणियोंको हानि दो ऐसी प्रवृत्ति नहीं करना शील है।] उसके दो भेद हैं१. देशविरति, २. सर्वविरति । (१८७) देशविरतिके बारह मेढ़ है; पाँच अणुव्रत, नीन गुणवत और चार शिक्षात्रत। (१८८) स्थूल अहिंसा, स्थूल सत्य, स्थूल अस्तेय (अचौर्य), स्थूल ब्रह्मचर्य, और स्यूल अपरिग्रह ये पाँच अणुव्रत जिनेश्वर ने कहे हैं। (१६) दिविति, भोगोपमोगविरति, और अनर्थदंडविरति ये तीन गुणव्रत है। (१६०) सामायिक, देशात्रकाशिक, पायव और अतिथिसंविभाग वे चार शिक्षात्रत है । (१६१) इस तरहका देशविरति गुण-शुश्रुषा (धर्म सुननेकी और सेवा करनेकी भावना) आदि गुणवाले, यतिधर्म (साधुधर्म) के अनुरागी, धर्मपथ्य भोजन (एला भोजन जिससे धर्मका पालन हो) को चादनवाल, शम (निर्विकारत्न शाँति ) संबैग (वैराग्य ), निद (नित्यूह), अनुकंपा (दया) और बालित्य (सहा) इन पाँच लक्षणांवान्त, सम्यक्त्वी, मिथ्यात्वसे निवृत्त (छूट हुए) और सानुबंध (अखंड) क्रोधक उदयसे रहिन-गृहमंधी (गृहन्धी ) महात्माश्राम, चारित्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ प्रथम भव-धनसेठ [३१ मोहनीय कर्मके नाश होनेसे, उत्पन्न होता है। (१९२-१६४) ... स्थावर और त्रस जीवोंकी हिंसासे सर्वथा दूर रहनेको सर्वविरति कहते हैं। यह सर्वविरतिपन सिद्धरूपी महलपर चढ़नेके लिए सीढ़ीके समान है। जो स्वभावसेही अल्प कपायवाले, दुनियाँके सुखोंसे उदास और विनयादि गुणोंवाले होते हैं उन महात्मा मुनियों को यह सर्वविरतीपन प्राप्त होता है। ( १६५-१६६) "यत्तापयति कर्माणि तत्तपः परिकीर्तितम् ।" [जो कर्मों को तपाता है (नाश करता है) उसे तप कहते हैं । ] उसके दो भेद हैं; १ वाह्य । २ अंतर । अनशनादि वाह्य तप है और प्रायश्चित आदि अंतर तप है। बाह्य तपके छः भेद हैं; १. अनशन (उपवास एकासन . विल आदि), २. ऊनोदरी (कम खाना), ३. वृत्तिसंक्षेप (जरूरतें कम करना), ४. रसत्याग (क रसोंमें हर रोज किसी रसको छोड़ना), ५. कायक्लेश ( केशलोंच आदि शरीर के दुख), ६. सलीनता (इंद्रियों और मनको रोकना)। अभ्यंतर तपके छः भेद है; १. प्रायश्चित्त (अतिचार लगे हों उनकी आलोचना करना और उनके लिए आवश्यक तप करना), २. वैयावृत्य (त्यागियोंकी और धर्मात्माओंकी सेवा करना), ३. स्वाध्याय (धर्मशास्त्रोंका पठन, पाठन, मनन श्रवण), ४. विनय (नम्रता ), ५. कायोत्सर्ग (शरीरके सय व्यापारीको छोड़ना), ६. शुभध्यान (धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानमें मन लगाना) । (१६७-१६६ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र पर्व १ सर्ग १. ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नत्रयको धारण करने वालोंकी भक्ति करना, उनका काम करना, शुभका विचार और संसारकी निन्दा करना भावना है। (२००) ___यह चार तरहका (दान, शील, नप और भावनारूपी) धर्म अपार फल (मोक्षफल ) पानेका साधन है, इसलिए संसार भ्रमणसे डरे हुए लोगों को सावधान होकर इसकी साधना करनी चाहिए। (२०१) धर्मापदेश सुनकर घनसेठने कहा, हे स्वामी, यह धर्म मैंने बहुत समयके वाद मुना है, इसलिए अबतक में अपने कमां से ठगा गया हूँ।" फिर सेठ उठा और गुरुके चरणोंमें तथा दूसरे मुनियोंकी बंदना करके अपने प्रात्माको धन्य मानता हुया डेरे पर चला गया। धर्मदेशनाके आनंदमें मग्न सेठने वह रात एक क्षणकी तरह समाप्त की। (२०३-२०४) वहानब सोके उठा तर, सवरही कोई मंगलपाठक (भाट) शंखके समान ऊँची व गंभीर और मधुर वाणी में कहने लगा, "चनांधकारसे मलिन, पद्मिनी (कमलिनी) की शोभाको चुरानवाली और मनुष्योंके व्यवहारको रोकनवाली रात, बरसातक मौसमी तरह चली गई है। तेजस्वी और प्रचंड किरणोंवाला सूरज उगा है। कामकाज करनेमें सुहृद (मित्र) के समान प्रातःकाल, शरद् ऋतुकं समयकी तरह बढ़ रहा है। इस शरदऋतुम सरोवर और सरिताओंके जल इसी तरह निर्मल हो रहे हैं, जिस तरह तत्ववाघसे बुद्धिमान लोगों मन निर्मल होते हैं । सूर्यक्री किरणों से मुग्ने हुए और कीचरहित मार्ग एसेही सरल हो गए हैं जिस तरह श्राचायक Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . प्रथम भव-धनसेठ . [३३ उपदेशसे ग्रंथ. संशय रहित और सरल हो जाते हैं। लीकपर जैसे गाड़ियोंकी कतार चलती है वैसेही नदियाँ भी दोनों किनारोंके बींचमें धीरे धीरे बह रही हैं। दोनों तरफ खेतोंमें पके हुए श्यामक ( साँवा चावल ), नीबार (तिनी धान्य), वालुंक (एक तरहकी ककड़ी) कुवलय (केले या बेर) आदिसे रस्ते मानों मुसाफ़िरोंका अतिथिसत्कार कर रहे हैं। शरदऋतुकी हवासे हिलते हुए गन्नोंसे निकलती हुई आवाज मानों पुकार रही है कि हे मुसाफिरों, अब अपनी अपनी सवारियोंपर चढ़ जाओ; (चलनेका) समय हो गया है। बादल सूर्यकी तेज किरणोंसे __ 'तपे. हुएं मुसाफिरोंके लिए छातेका काम कर रहे हैं। सार्थक साँढ अपने ककुदोंसे ( बैलोंके कंधों परके डिल्लोंसे ) जमीनको रौद् रहे हैं; मानों वे जमीनको, समतल बनाकर, सुखसे मुसाफिरी करने लायक बना रहे हैं। पहले रस्तोंपर पानी जोरसे बहता, गर्जना करता और उछलता हुआ आगे बढ़ता था, वह अब वर्षाऋतुके बादलोंकी तरह जाता रहा है। फलोंसे झुकी हुई वेलोंसे और पद पदपर बहनेवाले निर्मल जलके झरनोंसे रस्ते, मुसाफिरोंके लिए, बगैर मेहनतकेही पाथेयवाले हो गए हैं, और उत्साहसे भरेहुए दिलवाले उद्यमी लोग, राजहंस की तरह, दूसरे देशोंमें जानेके लिए जल्दी मचा रहे हैं।" (२०५-२१७) '' मंगलपाठककी बात सुनकर धनसेठने यह सोचकर कि इसने मुझे चलनेका समय हो जानेकी सूचना दी है, रवाना होनेकी भेरी वजवा दी (ढोल बजवा दिया)। आकाश और पृथ्वीके मध्यभागको भर देनेवाले भेरीके नादसे (आवाजसे) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ । त्रिषष्टि शन्लामा पुरुष-चरित्रः पर्व १. मग १. सार्थक सभी लोग, ( अपने अपने डेरे उम्बादकर) इस तरह रवाना हो गए, जैसे गवान के सिंगी नादसे गायोंका समूह चल पड़ना है। (२१-२१६) अन्यजीयमा कमलको बोध करने में प्रवीगा धर्मयोपं प्राचार्यन मुनियोंके साथ इसी तरह विहार किया जिस तरह किरणांसे घिरा हुया नुरज चलना है। साथकी रत्ताक लिए आगे, पीछे और बार-बार सिपाहियोंको मुर्रिर कर धनसेठ भी वहसि रवाना हुथा। नार्थ नब उस महाजंगलको पारकर गया नुन, श्राचार्य धनमेंटकी अनुमति लेकर दृसरी तरफ विहार करना । (२२०-२२२) नदियाँका समूह जैसे नमुद्रमें जाना है उसी तरह धनसेठ मी मशाल रलोको पारकर वसनपुर पहुँचा। यहाँ थोड़े समय नक रहकर उसने अलमाल बेचा और मुछ यहाँस नया वरीदा। फिर, समुद्र से जैसे बादल जलपूर्ण होते है बैंमेदी, धनसंठ भी दोलनसे भरा-पूरा होकर लौटा; क्षितिप्रतिष्टितपुर श्राया । कुछ बरलोक बाद उनकी उन्न पूरी हुई और वह कालधर्मको प्राप्त हुअा-मर गया । (२२१-२२५१ ) दृमरा भव . मुनिको दान दनक प्रभाव घनसेठका जीव उत्तरकुमनेत्रमें गुगलिया न्य जन्मा। वहाँ मुदा एकांत मुषमा ( मुख ही मुन्न हो ऐसा) नामको धारा (समय) वर्तता है। वह स्थान मीता नदीक टनर तटपर, अंबू वृक्ष पूर्व भागमें है। उस १-दालक-बान्तिका एक साथ जन्मंद है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भव-धनसेठः [.३५ - क्षेत्रके युगलियोंकी आयु तीन पल्योपमकी होती हैं, उनका शरीर तीन कोसका होता है,उनकी पीठमें दो सौ छप्पन पसलियाँ होती हैं, वे अल्पकषायी और ममतारहित होते हैं, उनको तीन दिनमें एक बार भोजनकी इच्छा होती है, आयुके अंत में एकही वार स्त्री-युगलिया गर्भ धारण करती है, उनके एक युगल संतान पैदा होती है। उनको उन्चास दिनतक पालकर युगलिया (पुरुष और स्त्री दोनों) एक साथ मरते हैं, और वहाँसे देवगतिमें जाते हैं (किसी स्वर्गमें जन्मते हैं)। उत्तर कुरुक्षेत्रमें रेती स्वभावसेही शकर जैसी मीठी होती है,जल शरदऋतुकी चाँदनीके समान निर्मल होता है और भूमि रमणीय (सुंदर ) होती है। उनमें दस तरह के कल्पवृक्ष होते हैं। वे युगलियोंको बिना मेहनतके, उनकी माँगी हुई चीजें देते हैं। ...१. मद्यांग नामके कल्पवृक्ष मद्य देते हैं । २. भृगांग नामके कल्पवृक्ष पात्र ( वरतन ) देते है। ३. तूर्योग नामके कल्पवृक्ष विविध शब्दोंवाले ( रागरागिणियोंघाले) वाजे देते हैं। ४. दीपशिखांग और ५. ज्योतिषकांग नामके कल्पवृक्ष अद्भुत प्रकाश देते हैं। ६. चिंत्राग नामके कल्पवृक्ष तरह तरहके फूल और उनकी मालाएँ देते हैं। ७. चित्ररस नामके कल्पवृक्ष भोजन देते हैं। ८. मण्यंग नामके कल्पवृक्ष प्राभूपण (जेवर) देते हैं। १. गेहाकार नामके कल्पवृक्ष घर देते हैं। १०. मनग्न नामके कल्पवृक्ष दिव्य या देते हैं। ये कल्पवृक्ष नियत और अनियत दोनों तरहके अोंको (पदार्थाको) देते हैं । वहाँ दूसरे १-समय विशेष । (टिप्पण देसो) - - - - - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] त्रिषष्टि शलाना पुरुष-चरित्र: पर्व १. सन १. भी कल्पवृज होते हैं जो सब रहली इच्छित चीजें देते हैं। समी इच्छित चीजें वहाँ मिलती थी, इसलिए वनलेठका जीव युगलियापन, स्वर्गकी तरह विषयनुलचा अनुभव करने लग। (२२५३-२३७) तीसरा भव युगलियानी अयु पूर्ण कर धनसेठका जीव भवके दानके पन्नसे सौधर्न नेवलोक देवता हुआ । (२१) चौथा भव वहाँले च्यवनर (योनि पूरीकर ) पश्चिन नहाविद्रहक्षेत्र विज्ञावती विजय (द्वीप) नवतन्य पवनने परगंवार देश गंधद्धि नारने, विद्याधरशिरोनलि शतवल नानने राजानी नांवा नाचन पनीनी चोखसे पुत्रत्य उत्पन्न हुआ। वह बहुत रत्वान था इसलिए उसना नान 'नहावर्त रंता गया। अच्छी तरह पालिद-योपित और रजनों द्वारा सुरनित महाबलइनार तरूवनलगा। ऋतशः चंद्रनी दह सब नलारे पूर्ण होकर वह नहानाग लोगोंके लिए आनंदवायच हुआ। उचित सनपर अवतरले जानकार नानापितान निमत्री विनयजीले उनान विनयवती नानी कन्या उमा ब्याह किया ! कह जानदेव तेज हथियारके सनान, ऋनिनियोंने लिए नहाकरण) के सुनान और रविले लीलावन कोड-बाग के सनान यौवनचो प्रात हुना। (पूरा जवान हो गया है ) उसके पैर छुएकी पानी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भव-धनसेठ .. ३७ - तरह ऊँचे और तलुए समान थे, उसका मध्यभाग सिंहके मध्य भागका तिरस्कार करनेवालोंमें अग्रणी था ( उसका छातीके नीचे और जंघाओंके ऊपरका भाग मोटा न था।) उसकी छाती पर्वतकी शिला (चट्टान) के समान थी। उसके दोनों ऊँचे कंधे बैलोंके कंधोंकी शोभाको धारण करने लगे। उसकी भुजाएँ शेषनागके फनोसी सुशोभित होने लगीं । उसका ललाट आधे उगेहुए (पूर्णिमाके) चंद्रमाकी लीलाको ग्रहण करने लगा। और उसकी स्थिर आकृति, मणियोसी दंत-पंक्ति (दौतोंकी कतार) से, नखोंसे और सोनेके समान कांतिवाले शरीरसे, मेरु पर्वतकी समग्र लक्ष्मीके साथ तुलना करने लगी। (२३६-२४६) - एक दिन सुबुद्धि. पराक्रमी और तत्वज्ञ विद्याधरपति शंतबल राजा एकांतमें बैठकर सोचने लगा, "यह शरीर कुदरतीही अपवित्र है, इस अपवित्रताको नये नये ढंगों से सजाकर कवतक छिपाए रहूँगा ? अनेक तरहसे सदा सत्कार पाते हुए भी यदि एकाध बार सत्कारमें कसर हो जाती है तो दुष्ट पुरुषकी तरह यह शरीर विकृत हो जाता है। विष्टा (पाखाना) मूत्र (पेशाब ) और कफ जब शरीरसे बाहर निकलते हैं तब मनुष्य उनसे दुखी होता है-नफरत करता है; मगर अफसोस है कि येही चीजें जब शरीरमें होती हैं तो मनुष्यको कुछ ख्याल नहीं आता। जीर्ण वृत्तकी कोटरमें (पेड़के खोखले भागमें ) जैसे सर्प, बिच्छू वगैरा कर प्राणी पैदा होते है वैसेही शरीरमें पीड़ा पहुँचानेवाले अनेक रोग पैदा होते हैं। शरदऋतुके बादलोंकी तरह यह शरीर स्वभावसेही नाशवान है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. यौवनरूपी लक्ष्मी, विजलीकी तरह देखतेही देखते विलीन हो जानेवाली है । उम्र धजाकी तरह चपल है। संपत्ति तरंगोंकी तरह तरल हैं। भोग भुजंगके फनकी तरह वक्र है। और संगम ( संयोग) सपनेकी तरह मिथ्या है । शरीरके अंदर रहनेवाला आत्मा, काम, क्रोधादिके तापोंसे तपकर-पुटपाक की तरह रातदिन पकता रहता है। अफसोस ! बहुत दुःख देनेवाले इन विषयोंमें सुख माननेवाले मनुष्य गंदगीमें रहनेवाले कीड़ोंकी तरह, कभी विरागी नहीं बनते । महान दुख देनेवाले विषयोंके स्वादमें फंसकर पराधीन बने हुए मनुष्य सामने खड़ी हुई मौतको इसी तरह नहीं देख पाते हैं जैसे अंधा आदमी अपने सामनेके कुएँको नहीं देख पाता है। विपकी तरह पहले हमलेमेंही, मधुर विषयोंसे अात्मा मूच्छित (बेहोश) होजाती है इसलिए अपने भनेकी कोई बात वह नहीं सोच पाती। चारों पुरुषायोंकी समानता है तो भी आत्मा पापनपी अर्थ और काम पुनपार्थमें ही लीन रहती है; धर्म और मोक्ष पुरुषार्थमं प्रवृत्ति नहीं करती। इस अपार संसाररूपी समुद्र में प्राणियोंके लिए अमूल्य रत्नकी तरह मनुष्यदेह पाना बहुत कठिन है। यदि मनुष्यशरीर मिलता है तो भी भगवान अहतदेव और निग्रंथ सुसाधु गुरु पुण्यके योगसेही मिलते हैं। यदि हम मनुष्यभवका फल ग्रहण नहीं करते है तो हमारी दशा शहरमें रहते हुए भी लुट जानेवाले मनुष्यके जैसी होती है, इसलिए अब १. किसी दरतनमें भरकर कोई चीज रखी जाती है। बरतनका मुह बन्द कर दिया जाता है और उसके चारों तरफ भाग जलाई बानी है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ... ... . प्रथम भव-धनसेठ .. .. [३६ मैं कवचधारी महाबलकुमारको राजका भार सौंपकर इच्छानुसार जीवन सुधारूँ"। ( २५०-२६५) . . . - इस तरह विचारकर शतवल राजाने तुरत महावलकुमारको बुलाया और उस विनीतकुमारको राज्य-भार उठानेका उपदेश दिया। पिताकी आज्ञासे राजकुमारने यह बात मंजूर की। कारण. "भवंति हि महात्मानो गुर्वाज्ञाभंगभीरवः ।" [महात्मा लोग ( अच्छी आत्मावाले लोग ) गुरुजनोंकी (बुजुरगोंकी) आज्ञा भंग करने से डरते हैं। ] (२६६) फिर राजा शतवलने महावलकुमारको सिंहासनपर बिठा, राज्याभिषेक कर अपने हाथोंसे मंगलतिलक किया। कुंदपुष्प ( मोगरेके फूल ) के समान कांतिवाले चंदनके तिलकसे वह नवीन राजा ऐसा सुशोभित हुआ जैसे चंद्रमासे उदयाचल (पर्वतविशेष) सुशोभित होता है। अपने पिताके हंसके पंखोंके समान आतापपत्रसे (छत्रसे) इस तरह सुशोभित हुआ जिसतरह गिरिराज शरदऋतुके बादलोंसे सुशोभित होता है। उड़ती हुई विमल बगुलोंको जोड़ीसे जैसे मेघ शोभता है वैसेही दोनों तरफ डुलते हुए चँवरोंसे वह शोभने लगा। चंद्रो. दयके समय जैसे समुद्र ध्वनि (आवाज) करता है वैसेही अभिपेकके समयकी स्तुति पाठकोंकी मंगलध्वनिसे दिशाएँ ध्वनित हो उठीं। सामंत और मंत्रियोंने महाबलको, शतवलका रूपांतर जानकर मस्तकानमाया और उसकी आज्ञा माननेकी तत्परता बताई। (२६६-३७३ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] त्रिषष्टि शलाका पुष-चरित्रः पर्व १. सग १. इस नन्ह पुत्रको गजगही देकर शनयन्द्र राजाने श्राचार्यके पास थाकर शमसाम्राज्य (चारित्र) ग्रहण किया-दीक्षा ली। उसने मार त्रिपयों को छोड़कर मारनप तीन रब (अन्य दर्शन, बान और चाचित्र) ग्रहण किपा (राज्यवैभव छोड़कर दीना देने पर भी) उस समनामात्र कायम रह ! उस जिनेन्द्रियनकायोंकी उमीन उखाड़ दिया जिस तरह नदीना पूरकिनारोककृतको उचाइ देता है। वह शनिशान्ती महात्मा मनको यात्मन्वन्यदीनकर, वागीको नियममें रख और शरीरको नियमित (गुम प्रवृत्रियोंमें ) लगा, दु:सह परीसह सहन करने लगा। भावना (मैत्री, कनया, प्रमोद और माध्यन्य भावनाओं) से जिननी वानवतनि बढी है ऐसा शनवल गार्षि, इस नन्ह श्रमंद ( कमी न बनवान्ल) यानंद में रहने लगा मानों वह मोहमदी है । ध्यान और तपमें लीन रखकर उस महात्मानं लीनामात्र (वलमें समयका अध खयाल नहीं रहना इस तरह) प्रायु परीकी और स्वर्गमें देवताओंका स्थान पाया। (२७.२७) महावन्त राजा या अपने बलवान विद्याधरोंकी सहायतासे इन्द्रकी तरह पृथ्वीका अन्लंड शासन (राय) करने लगा। ईम जैसे ऋमलिना खंडाने क्रीडा करता है वही वह भी रमनियाँक चाय वीत्री श्रानंदसे कीडा करने लगा। उसके शहरमें सदा नंगीत होना था, उसी प्रतिध्वनि वैताध्य पर्वतसे उनी थी, वह ऐसी जान पड़ती थी मानो वैताध्यकी गुफ्यम् संगीता अनुकरण कर रही है। श्रागपी और दोनों बगलामें वह स्त्रिबाट विग हुया मानान भर्तिमान शृङ्गाररसकी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..चौथा भव-धनसेंठ . . [४१ तरह सुशोभित होता था। स्वच्छन्दतासे विपय-क्रीडामें लीन उसके लिए रात और दिन विषुवतकी तरह समान रूपसे गुजरने लगे। (२८०-२८४) एक दिन, मणिस्तंभोंके समान सामंतों और मंत्रियोंसे अलंकृत (सजी हुई) सभाभूमिमें महावल बैठा था और दूसरे सभासद भी उसको नमस्कार कर करके अपनी अपनी जगहोंपर बैठे थे। वे महावलको एकटक इस तरह देख रहे थे मानों वे योगसाधनके लिए ध्यान लगा रहे हैं। स्वयंवुद्धि, संभिन्नमति, शतमति और महामति नामके चार मुख्य मंत्री भी वहाँ बैठे थे। उनमें स्वयंवुद्ध मंत्री, स्वामिभक्तिमें अमृतके सागरकी तरह, बुद्धिरत्नमें रोहणाचल पर्वतकी तरह और . सम्यग्दृष्टि था। वह सोचने लगा, "अफसोस ! हम देख रहे हैं और हमारे विषयासक्त स्वामीको इन्द्रियरूपी दुष्ट घोड़े लिए चले जा रहे हैं। हमें धिक्कार है ! कि हम इसकी उपेक्षा कर रहे हैं। विषयोंके आनन्दमें लीन हमारे स्वामीका जन्म व्यर्थ जा रहा है, यह देखकर मेरा मन इसी तरह दुखी होरहा है जिस तरह थोड़े जल में मछली दुखी होती है। यदि हम जैसे मंत्री इस राजाको उच्च पदपर न ले जाएँगे तो हममें और परिहांसक ( विदूपक ) मंत्रीमें अंतरही क्या रहेगा ? इसलिए हमको चाहिए कि हम अपने स्वामीको विषयोंसे छुड़ाकर सन्मार्ग पर चलावें। कारण राजा सारिणी (पानीकी नाली) १. जब सूर्य तुला या मेष राशिमें होता है तब दिन और रात समान होते हैं; छोटे बड़े नहीं होते । इसीको विषुवत् कहते हैं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. की तरह सदा उसी मार्गपर चलते हैं जिसपर उनके मंत्री उन्हें चलाते हैं। शायद स्वामीके व्यसनोंसे अपना जीवन निर्वाह करनेवाले लोग निन्दा करेंगे, तो भी हमको उचित सलाह देनी ही होगी । कारण ........."नोप्यते यवा मृगभयेन किम् ।" [क्या मृगोंके डरसे (खेतमें ) नाज नहीं बोया जाता ?) (२८४-२६३) बुद्धिमानोंमें अग्रणी स्वयंबुद्ध मंत्रीने इस तरह विचारकरहाथ जोड़, राजा महावलसे कहा, "महाराज, यह संसार समुद्रके समान हैं। जैसे नदियोंके जलसे समुद्र तृप्त नहीं होता, समुद्रके जलसे बडवानल तृप्त नहीं होता, जंतुआंसे चमराज तृप्त नहीं होता और लकड़ीसे आग ता नहीं होती वैसेही इस दुनियामें यह आत्मा विषयसुखसे कभी तृप्त नहीं होती। नदी किनारकी छाया, दुर्जन मनुष्य, विप, विषय और सपादि जहरीप्राणी इनका अधिक सेवन-परिचय सदा दुखदेनेवाला ही होता है । सेवनके समय कामभोग सुखदायी मालूम होते हैं, मगर परिणाममें विरस लगते हैं। जिस तरह खुजानेसे पाम (खुजली ) बढ़ती है इसी तरह कामका सेवन भी असन्तोपको बढ़ाता है । कामदेव नरकका दूत है, व्यसनोंका सागर है, विपत्तिरूपी लताका अंकुर है और पापरूपी वृक्षको फैलानेवाला है। कामदेवके मदसे मतवाले बने हुए पुरुप सदाचाररूपी मागसे भ्रष्ट होकर भव-संसाररूपी खईमें पड़ते हैं। चूहा जब घरमें घुसता है तो अनेक स्थानोंपर बिल बनाता है (और कपड़े लत्ते वगैरा काटता है।) उसी तरह कामदेव जब शरीरमें Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · चौथा भव-धनसेठ - [४३ घुसता है तब वह पुरुषके अर्थ, धर्म और मोक्षको नष्ट करता है। ( २६४-३०१) __ "स्त्रियाँ जहरीली बेलकी तरह दर्शन, स्पर्श और उपभोगसे अत्यन्त व्यामोह (भ्रम-अज्ञान ) उत्पन्न करती हैं। वे कालरूपी. पारधीके जाल हैं। इसलिए हरिणकी तरह पुरुषोंके लिए अत्यन्त अनर्थ करनेवाली हो जाती हैं। जो मौज-शौकके मित्र हैं, वे केवल खाने, पीने और खीविलासके मित्र हैं। इसलिए वे अपने स्वामीके परलोकके हितकी चिंता कभी नहीं करते। वे स्वार्थीलोग नीच, खुशामदी व लंपट होते हैं, इसलिए अपने स्त्रामीको सदा स्त्रीकथा, गीत, नाच और विनोदकी बातें ही सुना सुनाकर खुश करते हैं। वेरके पेड़के साथ रहनेसे जैसे केलेका पेड़ कभी अच्छा नहीं रहता वैसेही, कुसंगतिसे कुलीन पुरुपोंका कभी उत्थान नहीं होता, इसलिए हे कुलीन स्वामी, प्रसन्न होइए; विचार कीजिए। आप खुद ज्ञानी है इसलिए मोहमें न गिरिए, व्यसनोंकी आसक्ति छोड़िए और धर्म में मन लगाइए। छायाहीन वृक्ष, जलहीन सरोवर, सुगंधहीन फूल, दंतहीन हाथी, लावण्यहीन रूप, मंत्रीहीन राजा, देवमूर्तिहीन चैत्य, चंद्रहीन रात्रि, चरित्रहीन साधु, शस्त्रहीन सेना, और नेत्रहीन चेहरा, जैसे सुशोभित नहीं होते उसी तरह, धर्महीन पुरुष भी कभी सुशोभित नहीं होता। चक्रवर्ती राजा भी अगर अधर्मी होता है तो उसे वहाँ नया भव मिलता है जहाँ खराब अन्न भी राज्यसंपदाके समान समझा जाता है। महा कुलमें उत्पन्न होने पर भी जो प्रात्मा धर्माचरण नहीं करता है वह नए जन्ममें कुत्तेकी तरह दूसरोंका जूठा भोजन खानेवाला होता है। ब्राह्मण भी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] त्रिषष्टि शलाका पुरुय-चरित्र: पर्व १. सर्ग १. अमट्टीन होता है तो वह पाप बाँधना है और विलावकी तरह दुष्ट चेष्टायांवाला होतर न्च्छ, योनिमें जन्म लेता है। भव्य श्रात्माएँ भी धर्महीन होती है तो बिल्लाब, सर्प, लिह, वाज, और गीध वगैरा नियंत्र योनियों में कई मव तक भटकनें हुए नरकयोनिमें जानी है। वहाँ बैंग्स ऋन्ट ( लोगों) की तरह परमायामिक देवों के द्वारा अनेक नरहने मनाई जाती हैं। शीशा जैने भागमें गलना है बैंसट्टी अनेक व्यसनोंकी पागम अधार्मिक श्रात्माओंके शरीर गन्ना करने हैं। इसलिए पले अधार्मिक प्राणियोंको धिक्कार है ! परम बंधुनी नग्ह मुन्न मिलता है और नापी तरह धमके द्वारा आपत्ति कपिणी नदियाँ पार की जाती है। जो धर्म आर्जन करते हैं वे पुम्योंमें शिरोमणि होते है और लना जैसे नोचा थाश्रय लेनी है इमी नरह संपदा उनका श्राश्रय लेती है। आधि, व्याधि, विरोव आदि दुःखके हेतु है, धमने इसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह जलसे आग नकालही नष्ट हो जाती है। पूरी शक्ति लगाकर किया या धर्म, अन्य जन्मोंमें कल्याण और संपचिके लिए जामिनके समान है। हे त्रामी, मैं अधिक क्या हूँ जैस, जीनमें महलके ऊपर नाया जाता है वैसेही प्राणी धर्म लोकानमाग मोलमें पहुँचते हैं। आप भी धर्मसेही विद्यायगेंके राजा चन है, इसन्तिण इसमी अधिक लामलिए वर्मका पाचरण श्रीजिए।" (३०१-३२६) स्वयंयुद्धमन्त्रीकी ये बातें सुनकर अमावन्याकी रात्रिक अंपचारकी तरह मिण्यावरूपी अंधकारकीसानके समान और विष जेसी विषम मनियाला कमिटमति नामका मंत्री बोला, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भव-धनसेठ ... [४५ "शाबाश, स्वयंबुद्ध मंत्री, शाबाश ! तुम अपने स्वामी बहुत अच्छे हितचिंतक हो। जैसे डकारसे भोजनका अनुभव होता है वैसे ही तुम्हारी बातोंसे ही तुम्हारे भावोंका अनुमान होता है। सदा आनन्दमें रहनेवाले स्वामीके सुखके लिए तुम्हारे जैसे मंत्रीही ऐसा कह सकते हैं, दूसरे नहीं कह सकते । तुम्हें किस कठोर स्वभाववाले उपाध्यायने पढ़ाया है कि, जिससे तुम स्वामीको ऐसे असमयमें वनपातके समान, कठोर वचन कह सके हो ! सेवक खुद जब अपने भोगहीके लिए : स्वामीकी सेवा करते हैं तब वे स्वामीसे ऐसा कैसे कह सकते हैं कि, तुम भोग न भोगो । जो इस भवमें मिलनेवाले भोगसुखोंको छोड़कर परलोकके लिए यत्न करते हैं वे अपनी हथेलीमें रहे हुए लेह्य (चाटने लायक) पदार्थको छोड़कर कुहनी चाटनेकी कोशिश करनेवाले जैसी (मूर्खता) करते हैं। धर्मसे परलोकमें फल मिलता है यह कहना असंगत है । कारण परलोकमें रहनेवालोंका अभाव है। और जब रहनेवालेही नहीं हैं तव लोक कहाँसे आया ? जैसे गुड़, आटा और जलसे मदशक्ति (शराब) पैदा होती है उसी तरह पृथ्वी, अप, तेज और वायुसे चेतनाशक्ति उत्पन्न होती है। शरीरसे भिन्न कोई दूसरा शरीरधारी प्राणी नहीं है कि, जो इस लोकको छोड़कर परलोकको जाए । इसलिए निःशंक होकर विषयसुखोंको भोगना चाहिए। और अपने आत्माको ठगना नहीं चाहिए। स्वार्थका नाश करना मूर्खता है। धर्माधर्मकी शंकाएँ कभी नहीं करनी चाहिए। कारण ये सुखोंमें विघ्न करनेवाली हैं। और धर्म-अधर्मकीतो गधेके सींगकी तरह हस्तीही नहीं हैं। एक पाषाणको, स्नान, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. विलेपन, फूल और बब्राभूषणोंसे लोग पूजते हैं और दूसरे पायालपर बैठकर लोग पेशाव करते हैं। बताइए इस पापाणन कौनता पाप किया है और उसने कौनसा पुण्य किया है ! यदि प्राणी कमसे पैदा होने और मरते हैं तो पानीमें उठनेवाले जल युद्द किम कर्मम न यार नाश होतं है। जांजबतक इच्छा सहिन प्रयत्न करना है तबतक यह चेतन कहलाता है । नाश हुए चंतनका पुनर्जन्म नहीं है । यह कहना बिलकुल युक्तिहीन है कि, जो प्राणी मरना है वही पुन: जन्मता है। यह सिर्फ पातही बान है। हमार स्वामी शिरीपलुसुमखी कोमल सेजमें साय, कपलावण्यम पूर्ण रमणियोंके साथ निःशंक होकर क्रीड़ा करें, अमृत जैस माज्य व पंच पदायाँका श्रास्वादन करें. ( खाएँ पाएँ.)। लो इसका विरोध करता है उसे स्वामिद्रोही समझना चाहिए। ई न्वामी, श्राप कपूर, अगर, कस्तूरी और चन्दनादिसे मना ब्यान रहें, जिससे आप माज्ञान मुर्गवका अवतार मालूम हो। हे राजन ! नत्रोंको श्रानन्द देनवाले बाग, वाहन, मिले, और चित्रशालाएँ आदि जो पदार्थ हो उनको बार बार दन्धिपाइन्वामी! वीणा, पंगा, मृदंग आदि बाजे और उनपर गाए जानेवाले मधुर गीतांक शन्द श्राप कानोंके लिए निरंतर रसायन रूप बनें । जवनक जीवन है तवनक विषयोंके मुम्बका सेयन कीजिए। धर्मकार्यकं नामले बेकायदा तकलीफ न उठाए। (टुनिया ) धर्म-भवनका कोई फल नहीं है।" । (३२४-३४५) बभिन्नमनिकी बातें सुनकर स्वयंढने कहा, "विश्कार, है ! उन नान्तिक लोगोंको जो अपने और पराग सबको, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — चौथा भव-धनसेठ . [४७ - श्राकर्षित कर इसी तरह दुर्गतिमें डालते हैं, जिस तरह अंधा साथ आनेवाले सभी आदमियोंको अपने साथ कूएमें डालता है। जैसे सुख-दुख स्वसंवेदन (निज अनुभव) से ही मालूम होते हैं, वैसेही श्रात्मा भी स्वसंवेदनसे ही जानने योग्य है। स्वसंवेदनमें कोई बाधा नहीं आती, इसलिए आत्माका निषेध कोई नहीं कर सकता है। में सुखी हूँ। मैं दुखी हूँ। ऐसी अबाधित प्रतीति आत्माके सिवा और किसीको कभी भी नहीं हो सकती है। इस तरहके ज्ञानसे अपने शरीरमें श्रात्माकी सिद्धि होती है तो अनुमानसे दुसरेके शरीरमें भी आत्मा होनेकी सिद्धि होती है। जो प्राणी मरता है वही पुन: पैदा होता है, इससे निःसंशय मालूम होता है कि, चेतनका परलोक भी है। जैसे चेतन वचपनसे जवान होता है और जवानसे बूढ़ा होता है वैसे ही, वह एक जन्मसे दूसरे जन्ममें भी जाता है। पूर्वभवकी अनुवृत्ति ( याद ) के सिवा तुरतका जन्मा हुआ चालक सिखाए वगैरही माताका स्तनपान कैसे करने लगता है ? इस जगतमें कारणके समानही कार्य दिखाई देते हैं, तब अचेतन भूतोंसे (पृथ्वी, अप, तेज, और वायु से ) चेतन कैसे उत्पन्न हो सकता है ? हे संभिन्नमति ! बताओ कि चेतन प्रत्येक भूतसे उत्पन्न होता है या सबके संयोगसे ? यदि यह माने कि प्रत्येक भूतसे चेतन उत्पन्न होता है तो उतनेही चेतन होने चाहिए जितने भूत है; और यदि यह माने कि सब भूतोंके संयोगसे चेतन उत्पन्न होता है, तो भिन्न स्वभाववाले भूतोंसे एक स्वभाववाला चेतन कैसे उत्पन्न हो सकता है ? ये सब बातें विचार करने योग्य हैं। पृथ्वी रूप, रस, गंध और Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ] त्रिषष्टि शनाका पुरुष-चरित्रः पर्व, सर्ग. सशं गुणवानी है। जल रूप, स्पर्श, रसात्मक गुणवाला है; तन रूप और सशं गुगणवान्ता है, मन्न (वायु) स्पर्श गुगावाला है। हम नरह भूनांका भिन्न भिन्न न्यभाव सभी जानते हैं। यदि तुम कहोगे कि, जैन जनमें पिन गुणवाला मानी पैदा होता है, बैमट्टी अंचनन भूनांन चनन पैदा होना है, मगर ऐसा कहना योग्य नहीं है। कारण, माना मी जल होता है। दूसरे मोती और जल दोनों ही पौलिक हैं-युदलग बने हैं, इसलिए उनमें भिन्नता नहीं है। तुम गुड़, पाटा और जलमें पैदा हुई मदशनिका उदाहरण देन हो; मगर यह मशक्ति अंचंतन है, इसलिए चेननमें यह ांन केस मभव हो सकता है ? दंड और यात्माकी पक्रना कमी भी नही कही जा सकती । कारमा मृत शरीर में दनन नहीं पाया जाता। एक पत्थर, पूजा जाता है श्रीर. दुलपर लोग पशाव करते हैं, यह वटांन भी श्रमत्व है। कारणा,पत्थर चनन है इसलिए उसको मुम्बदुःस्वादिका अनुमत्र कैग हो सकता है। इसलिए इस शरीरले अलग परलोक जानेवाला श्रात्मा है, और धर्म अयन भी हैं। (कारण, परलोक जानवाला श्रात्माही यहाँ मन-बुरका फल लेकर जाना है. और वहीं भोगता है। श्रागक्री गरमीम मवन सिंघल जाना है, नही स्त्रीके श्रालगन पुरुषों का विवक चला जाता है। श्रनगन पोर, अधिक रसवात पाहार पुदलका उपमान करनेवाला श्रादमी उन्मच पशुत्री नरह उचित क्रमशो नहीं जानता। चंदन, अंगर, मन्ती श्रार अंसर आदिका मुघल कामदेव सपदिकी दाद मध्यवर, श्राममा करता है। जैस शॉटीम ऋपड़ा लनने यादमीकी गति नमनानी है नही Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . चौथा भव-धनसेठ . . * [४६ स्त्री.आदिके रूपमें फंसे हुए पुरुपकी गति भी स्खलित हो जाती है-लड़खड़ा जाता है। जैसे धूत आदमीकी मित्रता थोड़े समयके लिए सुखदायक होती है वैसेही मोह पैदा करनेवाला संगीत भी बार बार सुननेसे, दुखका हेतु होता है। इसलिए हे स्वामी ! पापके मित्र, धर्मके विरोधी, और नरकमें.ले जानेवाले विपयोंका दूरहीसे त्याग. कीजिए। एक सेव्य (सेवा, करने लायक होता है और एक सेवक होता है; एक दाता होता. है और एक याचक होता है, एक सवार होता है और एक वाहन होता है; एक.अभयदांता होता है और एक अभय माँगनेवाला होता है.इनसे इसी लोकमें. धर्म-अधर्मका महान फल दिखाई देता है। इसको देखते हुए भी जो मनुष्य मानता नहीं है उसका भला हो:! और क्या कहा जाए ? हे राजन् ! आपको असत्य वचनकी तरह दुःख देनेवाले अधर्मका त्याग और सत्य वचनकी तरह सुखके. अद्वितीय कारणरूप धर्मका ग्रहण करना चाहिए।" (३४६-३७४) ये बातें सुनकर शतमति नामका मंत्री बोला, "प्रतिक्षणभंगुर पदार्थक विपयके ज्ञानके सिवा जुदा कोई प्रात्मा नहीं है । वस्तुओं में स्थिरताकी जो वृद्धि है उसका मूल कारण वासना है। इसलिए पूर्व और अपर क्षणोंकी घासनारूप एकता वास्तविक है, क्षणोंकी एकता वास्तविक नहीं है।" . . ( ३७५-३७६) - तब स्वयंवुद्धने कहा, "कोई भी वस्तु अन्धय (परंपरा) रहित नहीं है। जैसे गायसे दृध पाने के लिए जल और घास इसे खिलानेकी कल्पना है। आकाशके फूलकी बरह और Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.] निषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सग १ . कछुएके कालकी तरह इस लोकमें अन्वयरहित कोई वस्तु नहीं है। इसलिए क्षणभंगुरताकी बुद्धि वृथा है। यदि वस्तु राणभंगुर हो नो मतानपरंपरा भी लगभगुरही कही जाएगी। चदि संतानकी नित्यता मानते हैं तो दूसरे समस्त पदार्थ क्षणिक कैसे हो सकते हैं ? यदि सभी पदार्थोको नणिक मानेंगे तो ली हुई धरोहरको वापस माँगना, बीती बातको याद करना और अभिज्ञान (चिह्न) बनाना आदि बातें भी कैसे संभव हो सकती है ? यदि जन्म होनेके बाद दूसरेही क्षण नाश हो जाता है नो जन्म के बाद दूसरे क्षण यालक अपने मातापिताकी न कहलाएगा और बालक भी दसरे क्षणमं पहले क्षणके मातापिनाको माता-पिता न कहेगा। इसलिए सभी पदार्थाको क्षणअंगुर बताना असंगत है। विवाहके क्षणमें एक पुरुष और स्त्री कहलाते है. वे यदि क्षणनाशमान होते तो दसरही क्षण पुरुष स्त्रीका पति न रहता और श्री पुरुष की पत्नी नहीं रहती। इसलिए वन्तुको क्षणभंगुर मानना असमंजस हैविचारहीनता है। एक क्षणमें नो पुरे काम करता है दूसरे क्षणमें वह बदलजाता है और उसका फल नहीं भोगवा, कोई अन्य भोगता है। यदि ऐसा हो तो उससे कृतका नाश व अनका श्रागमन ऐसे दो बड़े दोषोंकी प्राप्ति होती है।" . (३७७-३८३) तव महामति मंत्री बोला, "यह सब माया है। तत्वसे शुद्ध नहीं है। ये सारी चालें जो दिखाई देती है-सपने और मृगतृष्णाकी तरह झूठी है। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, धर्म-अधर्म अपना-पराया-ये सारे व्यवहार है, तत्वसे कुछ नहीं हैं। एक Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... चौथा भव-धनसेठ . [ ५१ - गींदड़ कहींसे मांसका टुकड़ा लेकर नदी किनारे आया। उसने पानीमें तैरती हुई मछलियाँ देखीं। वह मांसका टुकड़ा छोड़कर, मछली पकड़ने दौड़ा। मछली गहरे पानीमें चली गई। गीदड़ने लौटकर देखा कि उसका लाया हुआ मांसका टुकड़ा भी गीध लेकर उड़ गया। (वह खड़ा पछताने लगा।) इसी तरह जो मिले हुए दुनियवी सुखोंको छोड़कर परलोकके (सुखोंके ) लिए दौड़ते हैं, वे दोनों तरफसे भ्रष्ट होकर अपने आत्माको ठगते हैं। पाखंडी लोगोंके बुरे उपदेश सुनकर लोग नरकसे डरते हैं और मोहमें पड़कर व्रत वगैरा करके अपने शरीरको सताते हैं। उनका नरकमें गिरनेके डरसे तप करना ऐसाही है, जैसे लावक (लवा) पक्षीका पृथ्वी गिर जानेके डरसे एक पैर पर नाचना।" (३८४-३८६) . स्वयंवुद्धने कहा, "यदि वस्तु सत्य न हो तो हरेक अपने अपने कर्मका करनेवाला खुदही कैसे होता है ? यदि सब मायाही हो तो सपनेमें मिला हुआ हाथी (प्रत्यक्षकी तरह) काम क्यों नहीं करता ? यदि तुम पदार्थों के कार्य-कारणभावको सच नहीं मानते हो तो, गिरनेवाले वजसे क्यों डरते हो ? यदि कुछ न हो तो तुम और मैं-वाच्य (कहने योग्य ) और वाचक (कहनेवाला) ऐसा भेद भी नहीं रहता है और व्यवहार चलानेवाली, इष्टकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? हे राजन् ! वितंडावादक पंडित, अच्छे परिणामोंसे विमुख और विपयकी इच्छा रखनेवाले इन लोंगोंके फेरमें न पडिए; विवेकसे विचारकर विषयोंका दूरहीसे त्याग कीजिए और इस लोक व परलोकमें सुख देनेवाले धर्मका आसरा लीजिए।" (३६०-३६४) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२.] त्रिषष्टि शलाका पुन्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. . इस तरह मंत्रियोंकी अलगअलग बातें सुनकर स्वाभाविक निमंतनासे मुंदर मुन्नवाने गजान कहा, "ह महाबुद्धिवान स्वयंयुद्ध, तुमने बहुत अच्छी बातें कही है। तुमने धर्मग्रहण, करनेकी बात कही, वह उचित है। हम भी धर्ममुयी नहीं है... परंतु जैसे युद्धमही मंत्रान्त्र ग्रहण किया जाता है वैसेही समयपरही धर्मका ग्रहण करना योग्य है। बहुत दिनोंके बाद आए हुए मित्रकी तरह प्रान यौवनका योग्य उपयोग किए बिना कोन उसकी उपेक्षा करेगा ? तुमने जो धर्मका उपदेश दिया है वह असामयिक मौके है। जब मधुर वीणा बज रही हो तब वेदोंके वचन नहीं शोमने । धर्मका फल परलोक है । यह संदेहास्पद है (परलोकक होने में शंका है), इसलिए तुम इस लोक मुन्नास्वादका (मुन्न भोगनेका) कैन निषेध करते हो ?" (३६५-३६६) राजाकी बात सुनकर न्ययंबुद्धन हाथ जोड़ और कहा, "महाराज! श्रावश्यक धमक पलमं कमी भी शंका नहीं करना चाहिए । क्या आपको याद है कि वचयनमें हम एक दिन नन्दनवनमें गए थे, वहाँ हमने एक सुंदर कांतिवानं देवको देखा था। उस समय उस देवने प्रसन्न होकर आपसे कहा था; मैं नुन्हारा पिनामह था। मेरा नाम अतिबल था। मैंने बुरे दोस्ती नरह, बबराकर, विषयसुन्नुस मुँह मोड़ा और तिनके की तरह राज्यको छोड़कर स्नत्रयो ग्रहण किया । अंतिम अवस्था भी नदी महल कलशल्पी त्यानमारको स्वीकार कर उस शरीरका त्याग किया। उसी प्रमावसे में लांतकाधिपनि देवनायााइमलिए तुम भी इस अनार समार, प्रमादी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . चौथा भव-धनसेठ [५३ वनकर मत रहना।" यूँ कहकर वे विजलीकी तरह आकाशको प्रकाशित करते हुए चले गए थे। इसलिए है महाराज ! आप अपने पितामह (दादा) के वचनोंपर विश्वासकर यह मानिए कि परलोक है । कारण, जहाँ प्रत्यक्षप्रमाण हो वहाँ दूसरे प्रमाणकी कल्पना क्यों करनी चाहिये ? (४००-४०६) : महावल बोला, "तुमने मुझे पितामहकी वात याद दिलाई, यह बहुत अच्छा किया। अव मैं धर्म-अधर्म जिसके कारण है उस परलोकको मानता हूँ।" (४०७) : : राजाका आस्तिकतावाला वचन सुनकर, मिथ्याष्टियोंकी वाणीरूपी रजके लिए मेघके समान स्वयंवुद्ध, मौका देखकर सानंद इस तरह कहने लगा, "हे महाराज, पहले आपके वंशमें कुरुचंद नामका राजा हुआ था। उसके कुरुमती नामकी एक स्त्री थी और हरिश्चंद्र नामका एक पुत्र था। वह राजा वड़ा क्रूर था, बड़े बड़े आरंभ-परिग्रह करता था, अनार्य कार्योंका नेता था, दुराचारी, भयंकर और यमराजकी तरह निर्दय था। उसने बहुत लमय तक राज्य किया। कारण. - "पूर्वोपार्जितपुण्यानां फलमप्रतिमं खलु ।" [ पूर्व भवमें उपार्जित धर्मका फल अप्रतिम (अद्वितीय) होता है। ] अंतमें उस राजाको धातुविपर्यय (बहुत खराव) रोग हुआ। वह आनेवाले नरकदुःखोंका नमूनास्प था। इस रोगसे उसको ईकी भरी गदियाँ कांटोंके जैसी लगने लगीं। मधुर और स्वादिष्ट (जायकेदार ) भोजन नीम जैसे कडुए लगने लगे, चंदन, अगर, कपूर, कस्तूरी वगैरा मुगधी चीजें - - - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग १. दुगंधके जैसी लगने लगी, पुत्र और श्री श्रादि शत्रुकी तरह आँखाम खटकने लगे और सुंदर गायन गधे, ऊँट या गीदड़के स्वरकी तरह कर्णकटु लगने लगे। कहा है "पुण्यच्छेदेऽथवा सर्व प्रयाति विपरीतताम् ।" [जब पुण्यका नाश हो जाता है, नव सभी चीजें विपरीतही मालूम होती हैं।] कुरुमनि और हरिश्चंद्र गुप्तरीतिसे जागकर परिणाम दुःखदायी; परन्तु थोड़ी देरकं लिए मुख देनवान्न विषयोपचार करने लगे। उसके शरीर में ऐसी जलन होने लगी मानों उसको अंगारे, चूम रहे हो। श्रतम वह दुखसे घबराया हुया गद्रध्यान में लीन होकर इस लोकसे चल बसा। (४०८-४१७) उसका पुत्र हरिश्चंद्र पिताकी अग्निसंस्कारादि क्रिया करके राज्यगद्दीपर उठा । याचरगासे वह सदाचाररूपी माका मुसा. फिर. मालूम होता था। यह विधिवत-न्यायसे राज्य करने लगा। अपने पिताकी, पापीक फलसे हुई (दुग्न देनेवाली ) मौतको देखकर वह, धर्मकी स्तुति करने लगा। धर्म सब पुरुपायों में इसी तरह मुन्य है जिस तरह सूर्य ग्रहोम मुल्य है। (४१८-४१६) मुवृद्धि नामका एक पात्रक उसका बालमित्र था। उसका हरिश्चंद्रने कहा, "तुम धर्मनानियांसे धर्म मुनकर, मुम कहा करो।" वृद्धि तत्परतासे उसके कथनानुसार करने लगा। कहा है.... अनुकूल निदेयो दि मनामुत्माहकारपणम् ।" Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाथा भव-धनसेठ - [अपने मनके अनुकूल आज्ञा सत्पुरुषोंके लिए उत्साहः का कारण होती है। 7 पापसे डरा हुआ हरिश्चंद्र सुबुद्धिके कहे हुए धर्मपर इसी तरह श्रद्धा रखने लगा जैसे रोगसे डरा हुआ आदमी दवापर विश्वास रखता है। (४२०-४२२) ___ एक बार शहरके बाहर उद्यानमें 'शीलंधर' नामके महामुनिको केवलज्ञान हुआ था। उनकी पूजा करनेको देवता जा रहे थे। यह बात सुबुद्धिने हरिश्चंद्रसे कही। निर्मल मनवाला हरिश्चंद्र घोड़ेपर सवार होकर मुनिके पास गया। वहाँ वंदना करके वह मुनिके सामने बैठा। महात्मा मुनिने कुमतिरूपी अंधकारके लिए चाँदनीके समान धर्मदेशना दी । देशना (उपदेश) के बाद राजाने मुनिसे हाथ जोड़कर पूछा, "हे महात्मन् ! मेरे पिता मरकर किस गतिमें गए है ?" त्रिकालदर्शी मुनिने कहा, "हे राजा, तेरे पिता सातवें नरकमें गए हैं। उसके समान मनुष्यके लिए दूसरी जगह नहीं हो सकती।" . यह सुनकर उसके मनमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। वह मुनिको वदनाकर, उठा और तत्कालही अपने महलको गया। वहाँ उसने पुत्रको राज्यगहीपर बिठाया और सुबुद्धिसे कहा, "मैं दीक्षा लूँगा। तुम मेरी तरह मेरे पुत्रको भी सदा उपदेशकी . बातें कहते रहना।" सुबुद्धि बोला, "मैं भी आपके साथ दीक्षा लूँगा; मगर मेरा पुत्र आपके पुत्रको धर्मकी बातें सदा सुनाता रहेगा।" फिर राजा हरिश्चंद्र और सुबुद्धिने कर्मरूपी पर्वतका नाश Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ त्रिषष्टि शालाका पुन्य-चरित्र पर्व मर्ग १. करने के लिए वन लमान दीना ली। और बहुत समय तक उसका पालन करकं मोलमें गए (27-४३१) स्वयंट फिर बोला, "श्राप बंशमें दूसरा एक दंडक नानका राजा हुआ है। उनका शासन प्रचंड था । वह अपने शत्रुओंके लिए मानान यमराज समान था। उनके मणिमाली नामका पुत्र था ! वह अपने तजसे सूर्यक्री नन्ह दिशाओंकों व्याप्त करता था। इंडक राजा पुत्र, मित्र, बी, स्न, स्वर्ण और द्रव्यमें बहुन मृच्छावान था-फैला हुश्रा था और इन सबको वह अपने प्राणास मी अधिक प्यार करना था। आयुष्य पूर्णकर वह आनध्यान मग और अपने मंडारहीम भयानक छ गरी योनिमें जन्मकर रहने लगा। वह मर्वमनी और भयानक पात्मा जो कोई मंद्वार में जाना था उनको निगल जाता था। एक बार उसने मणिमालाको मंडार प्रवेश करते देखा, उसन पूर्वजन्म के मासे नाना कि यह मंग पुत्र है। वह इतना शांत हो गया कि नर्निमान स्नेहसा जान पड़ा। उसकी शांति देखकर मणिमालीन भी समन्न कि यह मेरे पूर्वजन्म का कोई बंधु है। कि नमिनालीने किन्हीं बानी अजगरका हाल पूछकर, नाना कि वह उसका पिता है। उसने अजगरको नयर्मका उपदेश दिया। जगान मा जैनधर्मको समनाकर संगमावत्यागमात्र धारण किया और गुमध्यान भरकर. यह देवना हुया! उस देवदान पाकर एक दिव्य मोनियांनी मला मणिमाती दी थी। वह माला अाज अापक गनमें पड़ी हुई है। श्राप हरिश्चंद्र बंशवर है और मैं मुथुद्धिक वंश जन्मा हूँ, इसलिए आपका नंग व बंशपरंपरागत है। इसलिए नेग Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ... . . : चौथा भव-धनसेठ . निवेदन है कि आप धर्ममें लगिए । मैंने असमयमें धर्माचरणकी बात क्यों कही, इसका कारण भी सुनिए । श्रान नंदनवनमें मैंने दो चारणमुनियोंको देखा था। वे दोनों मुनि जगतको प्रकाशित करनेवाले और महामोहरूपी अंधकारका नाश करनेवाले चाँद और सूरजके समान लगते थे। अपूर्व ज्ञानधारी वे महात्मा धर्मदेशना देते थे। उस समय मैंने उनसे आपकी उम्रका प्रमाण पूछा था। उन्होंने बताया था कि आपकी उम्र अव केवल एक महीना रही है। इसलिए हे महामति, मैं आपसे शीघ्रही धर्मकाममें लगनेकी विनती कर रहा हूँ।" (४३२-४४६) महावल राजा बोला, "हे स्वयंयुद्ध ! हे बुद्धिके समुद्र ! मेरे बंधु तो तुम्ही एक हो । तुम्हीं मेरे हितकी चिंतामें सदा रहते हो। विषयों में फंसे हुए और मोहनिद्रामें पड़े हुए मुझको तुमने जगाया यह बहुत अच्छा किया। अब मुझे बताओ कि मैं किस तरह धर्मका साधन करूँ ? आयु कम है, अब इतनेसे समयमें कितनी धर्मसाधना कर सकूँगा ? आग लगनेके बाद कुँश्रा खोदकर आग बुझाना कैसे हो सकता है ?" (४४७-४४६) . स्वयंवुद्धने कहा, "महाराज अफसोस न कीजिए ! वह बनिए। आप परलोकके लिए मित्रके समान यतिधर्मका आसरा लीजिए। एक दिनकी भी दीक्षा. पालनेवाला मनुष्य मोत पासकता है तो स्वर्गकी तो बातही क्या है ?" (४५०-४५१ ) महावल राजाने दीक्षा लेना स्वीकारकर अपने पुत्रको इसी तरह अपनी राज्यगद्दीपर बिठाया जिस तरह मंदिरमें प्रतिमा स्थापित की जाती है। फिर दीन और अनाथ लोगोंको उसने इस तरहसे और इतना अनुकंपादान दिया कि इस नगरमें एक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VE ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. भी मनुष्य दीन या अनाथ न रहा। दूसरे इंद्रकी तरह उसने सभी चैत्योंमें विचित्र प्रकारके वस्त्रों, माणिक्यों, स्वर्ण और फलों वगैरासे पूजा की। फिर उसने स्वजनों और क्षमा माँगकर मुनिमहाराजसे मोक्षलक्ष्मीकी सखिके समान दीक्षा ली। सभी सावद्ययोगोंका-दोपांवाली बातोंका त्यागकर उस रानपिन चतुर्विध अाहारको भी छोड़ दिया। वे समाधिरूपी अमृतकं मरनेमें सदा मग्न रहे, और कमलिनीके खंडकी तरह जरासे भी म्लान नहीं हुए। वे महासत्वशिरोमणि, इस तरह अक्षीणक्रांतिवाले होने लगे मानों वे अच्छा भोजन करते थे और अच्छी पीनेकी चीजें पीते थे । बाईस दिन अनशनके अंतमें वे पंचपरमेष्ठीका स्मरण करते हुए कालधर्मको प्राप्त हुए।" (४५२-४५६) वहाँ से दिव्य अश्वोंके समान संचित पुण्यक द्वारा धनसेठका नीव तत्कालही दुर्लभ ईशानकल्प (दूसरे देवलोक ) में पहुँचा। वहाँ श्रीप्रमनामकं विमानमें, उत्पन्न होनेके शयनसंपुटमें मेघके गर्ममें बिजली उत्पन्न होती है वैसे, उत्पन्न हुआ। दिव्य आकृति, समचतुरस्र संस्थान, सात धातुओंसे रहित शरीर, शिरीप-ऋतुमके समान कोमलता, दिशाओंके अंतरमागको देदीप्यमान करनेवाली क्रांति, वनके समान काया, बड़ा उत्साह, सब तरहके पुण्यलक्षण, इच्छाके अनुसार,रुप धारण करने की शक्ति, अवविज्ञान, सभी विज्ञानांमें पारंगतता, अणिमादि आठ सिद्धियोंकी प्राप्ति, निर्दोपता और वैभव-ऐसे सभी गुणोंसे सहित वह (धनसठका जीव ) ललितांग ऐसा सार्थक नाम धारण करनेवाला देव दृश्या। दोनों पैरोंमें रत्नके Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भव-धनसेठ [५६ कड़े, कमरपर कंदोरा, हाथमें कंकण, भुजाओमें भुजबंध, छातीपर हार, गले में अवेयक (गलेमें पहिननेका जेवर), कानमें कुंडल, मस्तकपर पुष्पमाला और मुकुट वगैरा आभूषण, दिव्य वख और सभी अंगोंका भूषणरूप यौवन उसको उत्पन्न होनेके साथही प्राप्त हुए । उस समय प्रतिध्वनिसे दिशाओंको गुंजा देनेवाले दुंदुभि वजे और मंगलपाठक (भाट) कहने लगे, "जगतको आनंदित करो और जय पाओ।" गीत-वादित्रकी ध्वनिसे और चंदीजनोंके (चारणोंके) कोलाहलसे मुखरित वह विमान ऐसा जान पड़ता था मानों वह अपने स्वामीके आनेकी खुशीमें पानंदसे गर्जना कर रहा है। फिर ललितांगदेव इस तरहसे उठ बैठा, जैसे सोया मनुष्य उठ बैठता है, और ऊपर कही हुई बातें देखकर सोचने लगा, "क्या यह इंद्रजाल है ? सपना है ? माया है ? या क्या है ? ये सव गीत-नाच मेरे लिए ही क्यों हो रहे हैं ? ये विनीत लोग मुझे स्वामी माननेके लिए क्यों तड़प रहे हैं ? और इस लक्ष्मीके मंदिररूप, आनंदके घररूप, रहनेलायक प्रिय और रमणीय भवनमें मैं कहाँसे आया ।" (४६०-४७२) इस तरहसे उसके मनमें कई सवाल उठ रहे थे उसी समय प्रतिहार उसके पास आया और हाथ जोड़कर कोमल वाणीमें बोला, "हे नाथ ! हम आज आपके समान स्वामी पाकर सनाथ हुए हैं धन्य हुए है। आप नम्र सेवकोंपर अमीदृष्टिसे कृपा कीजिए। हे स्वामी ! यह ईशान नामका देवलोक है। यह सभी इच्छित (वस्तुयें) देनेवाला, अविनाशी लक्ष्मीवाला और सभी सुखांकी खान है। इस देवलोकमें आप जिस विमान Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । नियष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग है. - को सुशोभित कर रहे हैं वह 'श्रीप्रभ' नामका विमान है। पुण्यसे आपको यह मिला है। ये सब सामानिक देवता हैं लो आपकी सभाके सिनगार जैसे हैं। इनके इस विमानमें आप एक होते हुए भी अनेक जैसे मालूम होते हैं। हे स्वामी! ये वेतीस पुरोहिन देवता है। ये मंत्रके स्थानाप हैं। ये यापकी श्राज्ञा पालनेको बार है । इनको समयोचिन अादेश दीजिए। ___ ये इस परिषदके नर्म-सचिव ( बिदृयक ) हैं । ये अानंदक्रीडा कराने के प्रधान हैं। ये लीला-बिलासकी बातोंमें आपके मनको प्रसन्न करेंगे। ___ये आपके शरीररक्षक देवता है। ये सदा कवच पहननेवाले, छत्तीस तरह के हथियारोस लस रहनेवाले और अपने स्वामीकी रक्षा करने में चतुर है।। ____ ये आपके नगरकी ( विमानकी ) रक्षा करनेवाले लोकपाल देवता है। - "ये सेनासंचालनमें चनुर सनापति है। ' "और ये पुरवासी और देशवासी प्रकीर्णक देवता हैं, जो आपकी प्रजाके समान हैं। ये आपकी निर्माल्यं (बिलकुल मामूली) यात्राको भी अपने मन्तकपर धारण करेंगे। "ये श्रामियोग्य देवता हैं। अापकी वासकी तरह सेवा करेंगे। .. ये किनिधपक देवता हैं। ये सब तरहके मलिन काम करेंगे। "ये अापके महल हैं जो मुंदर रमणियोंसे रमणीक आँगनवान्ने, मनको प्रसन्न करनेवाले और रत्नास जड़े हुए हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... ... चौथा भव-धनसेठ... . . .: [६१ - . ."स्वर्णकमलकी खानके समान ये बावड़ियाँ हैं। . ... "रत्न और स्वर्ण के शिखरवाले ये क्रीड़ा-पर्वत हैं। .. "आनंद देनेवाली और निर्मल जलसे भरी हुई ये क्रीड़ा. नदियाँ हैं।........ __.. "नित्य फूल और फल देवनाले ये क्रीड़ा-उद्यान हैं। "और अपनी कांतिसे दिशाओंके मुखको प्रकाशित करनेवाला सूर्यमंडलके समान स्वर्ण और माणिक्यसे बना हुआ यह आपका सभामंडप है। . .." ये वारांगनाएँ (वेश्याएं चमर. पंखा और दर्पण लिए खड़ो है। ये आपकी सेवा करने मेंही महामहोत्सव मानती हैं। "और चार तरहके वाद्योंमें चतुर यह गंधर्ववर्ग आपके सामने संगीत करनेको तैयार खड़ा है।" (४७३-४८६) . प्रतिहारकी बातें सुनकर ललितांगदेवने उपयोग दिया। और उसको अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवकी बातें इसी तरह याद आने लगी जैसे कलकी बातें याद आती हैं। . (४६०) .. ' "मैं पूर्व जन्ममें विद्याधरोंका स्वामी था। मुझे धर्ममित्र स्वयंयुद्ध मंत्रीने जैनेन्द्रधर्मका उपदेश दिया था, उससे मैंने दीक्षा लेकर अनशन किया था। उसीका यह फल मुझे मिला है। अहो ! धर्मका वैभव अचिंत्य है।" .. (४६१-४६२). इस तरह पूर्वजन्मका स्मरण कर तत्कालही वह वहाँसे उठा, छड़ीदारके हाथपर हाथ रखकर चला और जाकर उसने सिंहासनको सुशोभित किया। चारों तरफसे जयध्वनि उठी। देवताओंने उसका अभिषेक किया। चमर दुरने लगे और गंधर्व गधुर और गंगलगीत गाने लगे। (१९४-१६५) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. - - - फिर भक्तिभरे मनवाले उस ललितांगदेवने वहाँसे उठकर चैत्यमें जा शास्वती अहप्रतिमाकी पूजा की और तीन ग्राम (समक) के स्वरोंसे मधुर और मंगलमय गायनोंके साथ विविध स्तोत्रोंसे जिनेश्वरकी स्तुति की; ज्ञानके लिए दीपकके समान ग्रंथ पढ़े और मंडपके खंभेमें रखी हुई अरिहंतकी अस्थिकी अर्चना-पूजा की। (४६६-४६७) फिर आतपत्र (छत्र ) धारण करनेसे पूर्णिमाके चंद्रकी तरह प्रकाशमान होकर वह क्रीडाभुवनमें गया। अपनी प्रमासे बिजलीकी प्रभाको भी ललित करनेवाली स्वयंप्रभा नामकी देवीको उसने वहाँ देखा। उसके नेत्र, मुख और चरण बहुत कोमल थे, उनसे वह ऐसी मालूम होती थी मानों वह लावण्यसिंधु (सुंदरताके समुद्र ) में कमलवाटिका (बाड़ी) है। अनुक्रमसे स्थूल और गोल जाँघोंसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानों कामदेवने अपना माया वहाँ रखा है। स्वच्छ वबॉसे टके हुए नितंबासे वह ऐसे शोमती थी जैसे राजहंसोंसे व्याप्त किनारोंसे नदी शोमती है। पुष्ट और उन्नतस्तनोंका भार उठानेसे कृश बना हुआ उदर (उदर और कमर ) बचके मध्यभागके समान मालूम होता था, जिसने उसकी मनोहरताको बढ़ा दिया था। उसका तीन रेखाओंवाला और मधुर स्वर बोलनेपाला कंठ कामदेवके विजयकी घोषणा करनेवाले शतके जैसा १. वन ऊपरसे मजबूत, मोटा और एक तरफसे आगे बढ़ा हुआ और फिर क्रमश: चूड़ी उतार होता है। बीचका माग पतला होता है। फिर हायमें पकड़नेका माग थोड़ा मोटा होता है। . . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . चौथा भव-धनसेठ ... [६३ लगता था । विधफलका तिरस्कार करनेवाले होठोंसे और नेत्ररूपी कमलकी नालकी लीलाको ग्रहण करनेवाली नासिकासे वह बहुतद्दी सुंदर दिखाई देती थी। पूर्णिमाके आधे किए हुए चंद्रमाकी सारी लक्ष्मीका हरण करनेवाले उसके स्निग्ध और • सुंदर ललाटसे वह मनको मोह लेती थी। उसके कान कामदेवके भूलेकी लीलाको हरनेवाले थे। पुष्पवाणके धनुपकी शोभाको हरनेवाली उसकी भ्रकुटी थी। मुखरूपी कमलके पीछे फिरनेवाले भ्रमरसमूहकी तरह और स्निन्न काजलके समान उसके केश थे । सारे शरीरमें धारण किए हुए रत्न-जटित आभूषणोंकी रचनासे वह चलती-फिरती कामलतासी मालूम होती थी; और मनोहर मुखकमलवाली हजारों अप्सराओंसे घिरी हुई वह अनेक नदियोंसे वेष्टित गंगाके समान जान पढ़ती थी। (४६८-५१०) ललितांगदेवको अपने पास आते देख, उसने स्नेह-युक्तिसे खड़े होकर उसका सत्कार किया। वह श्रीप्रभ विमानका स्वामी स्वयंप्रभाके साथ जाकर पलंगपर बैठा। वे इस तरह शोभने लगे जैसे एक प्रालवाल (थाले) में वृक्ष और लता (पेड़ और वेल) शोभते हैं। एकही वेड़ीसे बँधे हुए (दो आदमी एकत्रित रहते है वैसे.) निविड रागसे (बहुत प्रेमसे ) बँधे हुए उनके चित्त एक दूसरे में लीन हो गए। जिसके प्रेमकी सुगन्ध अविच्छिन्न है (कभी मिटती नहीं है। ऐसे श्रीप्रभ विमानके प्रभुने देवी स्वयंप्रभाके साथ क्रीटा करते हुए, बहुतसा काल बिताया जो एक कलाके समान मालूम हुआ। फिर जैसे वृक्षसे पत्ता गिर १. कला-समयका प्रमाण जो १ मिनिट ३६ सेकंडफे बराबर होता है। - - - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___६४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. पड़ता है वैसेही, आयु पूर्ण होनेसे, स्वयंप्रभा देवीका वहाँसे च्यवन हो गया-देवगतिसे किसी दूसरी गतिमें चली गई। कहा है कि"आयुःकर्मणि हि क्षीणे, नंद्रोऽपि स्थातुमीश्वरः।" . [आयुकर्मके समाप्त होजानेपर इंद्र भी रहने में समर्थ नहीं होता।] (५११-५१५) . प्रियाके वियोग-दुःखसे ललितांगदेव इस तरह गिरकर मृञ्चित हो गया, मानो वह पर्वतसे गिरा हो या वनके आघातसे गिरा हो। थोड़ी देरसे जब वह होशम आया तब वह जार जार रोने लगा। उसकी प्रतिध्वनि ऐसे जान पड़ती थी मानों सारा श्रीप्रभ विमान रो रहा है। बाग-बगीचोंमें उसका मन न लगा, वापिकाओंके (ठंडे पानीसे) उसका मन ठंडा न हुआ, क्रीडापर्वतमें उसे शांति न मिली और नन्दनवनसे भी उसको खुशी न हुई। हा प्रिये ! तू कहाँ है ? हा प्रिये ! हा प्रिये ! पुकारता और रोता, वह सारी दुनियाको, स्त्रयंप्रभामय देवता, चारों तरफ फिरने लगा। (५१६-५१६) - उधर स्वयंबुद्ध मंत्रीको भी अपने स्वामीकी मौतसे वैराग्य पैदा हुआ। और उसने श्रीसिद्धाचार्य नामक आचार्यसे दीक्षा लेली । वह बहुत वर्षों तक निरतिचार दीक्षा पाल, श्रायु पूर्णकर, ईशान देवलोकमें इंद्रका 'धर्मा' नामक सामानिकदेव हुआ। (५२०-५२१) - उस उदारवुद्धिवाले देवके मन में पूर्वभवके संबंधसे, बंधुकासा प्रेम हुआ। वह (अपने विमानसे) ललितांगदेवके पास Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भव-धनसेठ [६५ - आया और उसे धीरज धरानेके लिए कहने लगा, "हे महासत्त्व ! (हे महागुणी, हे महाधीर, ) केवल स्त्रीके लिए आप इतने क्यों घबरा रहे हैं ? धीर पुरुप मौतके समय भी इतने नहीं घबराते हैं ।" (५२२-५२३) ललितांगने कहा, "हे बंधु ! तुम यह क्या कह रहे हो ? प्राणोंका विरह सहन हो सकता है; परंतु कांताका विरह नहीं सहा जा सकता। कहा है कि "एकैव ननु संसारे सारं सारंगलोचना । या विना नूनमीप्योप्यसाराः सर्वसंपदः ॥" इस संसारमें एक सारंगलोचना (हिरणके समान आँखों. वाली स्त्री) ही सार है। उसके विना ये सारी संपत्ति भी असार है। (५२४-५२५) उसकी ऐसी दुखभरी बातें सुनकर ईशानंद्रका वह सामानिक देव भी दुखी हुआ। फिर अवधिज्ञानका उपयोग कर उसने कहा, "हे महानुभाव ! आप दुःख न कीजिए। मैंने ज्ञानसे जाना है कि आपकी होनेवाली प्रिया कहाँ है ? इसलिए स्वस्थ होकर सुनिए । (५२६-५२७) "पृथ्वीपर धातकीखंडके पूर्व विदेह क्षेत्रमें नंदी नामका गाँव है । उसमें एक दरिद्र गृहस्थ रहता है । नागिल उसका नाम है। वह पेट भरनेके लिए भूतकी तरह सदा भ्रमता है, तो भी पेट नहीं भरता; भूखाही सोता है और भूखाही उठता है । दरिद्री को भूखकी तरह उसके मंदभाग्य-शिरोमणि नागश्री नामकी त्री है। खुजलीम फुसियोंकी तरह, उसके एक एक करके यह लड़. - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] त्रियष्टि शलाका पुज्य-चरित्रः पर्व १. मग १. - क्रिया हुई। ये लड़कियाँ गाँवक्र शूकर की तरह प्रकृतिसे बहुन खानवाली, बदनरत और दुनिया में निंदा पानवाली हुई। उसके बाद भी उसकी बीको गर्म रहा । कहा है "प्रायेण हि दरिद्राणां शीघ्रगर्भभृतः स्त्रियः ।" [प्रायः दरिद्रीक बरही गर्भधारण करनेवाली त्रियाँ होती है1] उस समय नागिल मनमें सोचने लगा, 'यह मेरे किस कर्मका फल है कि में मनुष्यलोकमें रहता हुया भी नरकलोकका दुःख सह रहा हूँ। मेरे माथ जन्मी हुई और निसका प्रतिकार होना असंभव है एसी इस दरिद्रतानं मुझे इस तरह खोखला कर डाला है जिस नरह दीमक पड़को खाकर खोखला कर देती है। अन्यन्न अलक्ष्मी दरिद्रता) की तरह, पूर्वजन्मकी वैरिनाकी नरह, मर्निमान अशुभदनगांकी तरह इन कन्यायान मुमदुःन्य दिया है। यदि इमवार भी लड़कीही जन्मगी तो में इस कुटुंबका त्याग कर परदेश चला जाऊँगा । (५२-५३७) बह इसी तरहकी बात सोचा करता था। एक दिन उसन सुना कि उसकी बीन कन्याको जन्म दिया है। यह बात उसके कानमें मुहली चुमी । नत्र वह अपने परिवारको छोड़कर इसी तरह चला गया जैसे अधम बल भारको छोड़कर चला जाना है (भाग जाता है। उसकी बीको पनिक चले जानकी बात प्रसववदनाकं साथ इसी नरह दुःन्य दनवाली हुई, जिस तरह घात्रपर नमक होता है। दुन्विनी नागान कन्याका कोई नाम नहीं गया, इसलिए लोग से निनामिका कहकर पुकारने लगे। 'नागाने उसका अच्छी नह पालन पोषण नहीं किया। तो मी 'बद्द वाला दिन बदिन उड़ने लगी। कहा है- Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भव-धनसेठ "जंतोर्वजाहतस्यापि मृत्यु त्रुटितायुपः ।" [प्राणी वनकी चोट खानेपर यदि उसका आयुकर्मयाकी होता है तो वह नहीं मरता।] अत्यन्त अभागी और माताको दुःख पहुँचानेवाली वह दूसरोंके घर हलके काम करके अपना जीवन विताने लगी। एक दिन उसने किसी धनिकके लड़केके हाथमें लड्डू देखा । वह भी अपनी माँसे लड्डू माँगने लगी। उसकी माता गुस्सेसे दाँत पीसती हुई कहने लगी, "लड्डू क्या तेरा बाप है कि तू उससे माँगती है ? यदि तुझे लड्डू खानेकी इच्छा हो तो अंबरतिलकपर्वतपर लकड़ीका बोझा लेने जा।" ... (५३८-५४६) अपनी माँकी कंडेकी श्रागकी तरह जलानेवाली बात सुनकर वह रस्सी लेकर, रोती हुई पर्वतकी तरफ चली । उस समय पर्वतपर, एक रात्रिकी प्रतिमा धारणकर रहे हुए युगंधर नामक मुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। इससे पासमें रहनेवाले देवताओंने केवलज्ञानकी महिमाका उत्सव करना प्रारंभ किया था। पर्वतके आसपासके गाँवों और शहरोंमें रहनेवाले नरनारी केवलज्ञानकी बात सुनकर जल्दी जल्दी पर्वतपर जा रहे थे। अनेक तरहके वस्खालंकारोंसे सजे हुए लोगोंको आते देखकर निर्नामिका विस्मित हुई और चित्र में लिखी पुतलीसी खड़ी रही। जब उसे लोगोंके पर्वतपर जानेका कारण मालूम हुआ तय वह भी लकड़ीका बोझा, दुःखके भारफी तरह, फेंकफर लोगोंके साथ पर्वतपर चढ़ी। ".....'नीर्थानि सर्वसाधारणानि यत् ।" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ६ ] त्रियष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग १.. [ कारण, नीर्थ सबकं लिए समान होते हैं।] उसने महामुनिके चरणकमलोको कल्पवृक्ष के समान समझा और श्रानंदने बंदना की । ठीकहीं कहा गया है.- .. ....."मति: गत्यनुसारिणी ।" - [बुद्धि गतिके अनुसार होती है । ] महामुनिने गंभीरवाणीमें, लोगोंके लिए हितकारी और श्रानंदकारी धर्मदेशना दी। (५४७-५५६) "कच्चं सूतसे बुने हुए पलंगपर सोनेवाला प्राणी जैसे जमीनपर गिरता है वैसेही विषयसेवन करनेवाला आदमी भी संसारमपी भूमिपर गिरता है। दुनिया में, पुत्र, मित्र और पत्नी श्रादिका स्नेह-समागम एक रात (किसी मुसाफिरखानेम) बिताने के लिए रहनेपर वहाँ मिलनेवाले मुसाफिरोंकासा है। चौरासीलाख जीव-योनिमं भटकनवाले जीवांपर नो अनंत दुःखका भार है वह अपने कमांकाही परिणाम है। . . . .. (५५७-५८) नव हाथ जोड़कर निर्नामिकान सवाल किया, "हे भगवन् ! याप राजा और रंक दोनों में समान भाव रखनेवाले हैं। इसीलिए में पूछती हूँ। आपने कहा है कि संसार दुःखांका घर है; मगर मुझसे ज्यादा दुखीभी क्या कोई इस दुनियाम है ?” . (५५६-५६०) "कवलीमगवानने कहा, "ह दुःखनी बाला ! है भनें! तुम क्या दुःव है ! नुमने बहुत ज्यादा दुःत्री जीव है, उनका हान मुन । 'जो जीप अपने बुर कमी के कारण नरकगतिम Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . चौथा भव-धनसेठ . . [E जाते हैं उनमेंसे अनेकोंके शरीर भिदते हैं,. अनेकोंके अंग छिदते हैं और अनेकोंके मस्तक धड़से जुदा होते हैं। नरकगतिमें अनेक जीव तिलोंकी तरह, परमाधामी देवों द्वारा, घाणोमें पीले जाते हैं, कई लकड़ीकी तरह तीक्षण करौतोंसे चीरे जाते हैं और कई धनोंसे लोहेके वरतनोंकी तरह कूटे जाते हैं । वे असुर कई जीवोंको सूलीकी सेजपर सुलाते हैं, कइयोंको कपड़ोंकी तरह शिलाओंपर पछाड़ते हैं और कइयोंके शाककी तरह टुकड़े टुकड़े करते हैं, मगर उन सबके शरीर वैक्रियक होते हैं इस लिए तत्कालही मिल जाते हैं। इसलिए परगाधामी फिरसे उनको उसी तरह दुःख देते हैं। ऐसे दुःख झेलते हुए वे करुण स्वरमें रोते हैं। वहाँ पानी माँगनेवालोंको तपाये हुए शीशेका रस पिलाया जाता है और छाया चाहनेवाले जीवोंको असिपत्र (तलवारकी धार जैसे पत्तोंचाले) नामक पेड़ोंके नीचे बिठाया जाता है। अपने पूर्वकर्माको याद करते हुए वे पलभरके लिए दुःखसे रहित नहीं हो सकते। हे वत्से ! (हे वाले !) उन नपुंसकवेदवाले नारकी जीवोंको जो दु.ख होते हैं उनका वर्णन भी श्रादमियोंको कंपा देता है। (५६१-५६६) "इन नारकी जीवोंकी बात तो दूर रही; मगर सामने दिखाई देनेवाले जलचर, स्थलचर और खेचर तियंच जीवोंको भी पूर्वकमों के उदय से अनेक तरहके दुःख भोगने पड़ते है। जलचरजीवोंमेंसे कइयोंको दूसरे जलचर खाजाते हैं, कइयोंको धीवर पकड़ते हैं और कइयोंको बगुले पकड़कर निगल जाते हैं। चमड़ा चाहनेवाले मनुष्य उनका चमड़ा उधेड़ने है, याने के शौकीन उनको मांसकी तरह भूनते हैं और घरची चाहनेवाले Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १.सर्ग १. उनको पेलते हैं। (५७०-५५२) ____ थलचर जीवोंमें मांसकी इच्छावान्ले बलवान सिंह वगैस गरीब हिरन वगैगयोंको मारते है, शिकारके शौकीन उन गरीब निरपराध प्राणियोंको, मांसके लिए या कंबल शिकारका शोक प्रग करनहीं लिए. मारत है। बेल वगंग पशु मृग्य, प्यास, सरदी और, गरमी सहन करते हैं, बहुत बोमा उठाते हैं और चाबुक, अगई श्रादिके श्राघात सहत हैं। (५७३-५५५.) ___ श्राक्रशचारी लीवों में से तीतर, तोता, ऋचूनर, चिड़िया वगैरानीको मांसमनी बाज, गीध, सिंचान (शिकरा) वगैग पकड़कर खाजाते हैं और चिड़ीमार उन सबको अनेक तरकीबोंसे पकड़त है और तरह तरह सताकर मार डालन है। उन तिचंचोंको दूसरे. शत्रों श्रादिका और लल (श्राग वगैराका ) भी बहुन दुर रहता है। पूर्वकमांका बंधन ऐसा होता है कि निसका विस्तार रोका नहीं जा सकता। (५७६-y ) ___लो जीव मनुष्ययोनिमें जन्म लेते हैं उनमेंसे भी अनेक ऐसे होते हैं, जो जन्महीसे अंध, बहर, जुन्ने, लँगई और कोढ़ी होने है। ऋई चोरी करनेवाले श्रार. कई परस्त्रीगामी मनुष्य अनेक नरहकं दर पार्कर नारकी जीवोंकी तरहही दुग्न पाते हैं। कई अनेक तहके गंगाम फंस जाते हैं और अपने पुत्रोंसे भी उपचिन होते हैं-उनके बेटे भी उनकी परवाह नहीं करतं । कई विकत है और (नोकर, गुलाम श्रादि होकर चरीकी तरह अपने स्वामियास पिटत है, अपमानित होते हैं, बहन बोमा उटाते हैं और भूख-प्यास दुःख सहते हैं। (५७-५८२) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भव-धनसेठ __... [ ७१ - "आपस में लड़कर हार जानेसे और अपने स्वामीके स्वामित्वमें बंधे रहने के कारण देवता भी सदा दुःखी रहते हैं । स्वभाव. सेही दारुण और अपार समुद्र में जैसे जल-जंतु अपार है वैसेही इस संसाररूपी समुद्र में दुःवरूपी अपार जल-जंतु है। भूतप्रेतोंके स्थानमें जैसे मंत्राक्षर रक्षक होते हैं वैसेही इस संसारमें जिनेश्वरका बताया हुया धर्म संसाररूपी दुःखोंसे बचाता है। बहुत अधिक वोझेसे जैसे जहाज समुद्र में डूब जाता है वैसेही हिंसारूपी बोझसे प्राणी नरकरूपी समुद्र में डूब जाता है, इससे कभी हिंसा नहीं करनी चाहिए । भूठको सदा छोड़ना चाहिए। कारण, भूठसे प्राणी इसी तरह संसारमें सदा भटकता रहता है. जैसे बवंडरसे तिनका इधर-उधर उड़ता रहता है। कभी चोरी नहीं करनी चाहिए-बगैर मालिककी आज्ञाके कभी कोई चीज नहीं लेनी चाहिए। कारण, चोरीकी चीज लेनेसे आदमी इसी तरह दुःखी होता है जिस तरह कपिकच्छ ( कौंच ) की फलीसे छूकर आदमी खुजाते खुजाते परेशान हो जाता है । अब्राह्मचर्य (संभोग. सुख, को सदा छोड़ना चाहिए। कारण, यह मनुष्यको इसी तरह नरकमें लेजाता है जिस तरह सिपाही बदमाशको पकड़कर हवालातमें लेजाता है। परिग्रह जमा नहीं करना चाहिए। कारग, बहुत बोभेसे बैल जैसे कीचड़ में फंस जाता है वैसेही श्रादमी परिग्रहके भारसे दुःखमें डूब जाता है। जो लोग हिंसा आदि पांच बातें देशसे (थोड़ेसे ) भी छोइते है वे उत्तरोत्तर कल्याण-संपत्ति के पात्र होते हैं। (५७६-५६१) "फेवली भगवानके मुखसे उपदेश सुनकर निनामिकाको वैराग्य उत्पन्न हुआ। लोहे के गोलेकी तरह उसकी कमग्रंथी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुय-चरित्रः पर्व १ सर्ग १. मिद गई । उसने मुनिमहाराजसे अच्छी तरह सम्यक्त ग्रहण किया; सर्वतका बनाया हथा गृहस्थधर्म अंगीकार किया और . परलोकलपी मार्गके लिए पाथेयकं समान अहिंसादि पाँच अणुव्रत धारण किए। फिर मुनिमहाराजको प्रणामकर अपनेको कृतकृत्य लमम, घासका बोमा उठाकर अपने घर गई। उस दिनसे बढ़ बुद्धिमती वाला अपने नामकी तरह योगघर मुनिके उपदेशको नहीं भुलाती हुई अनेक तरहके तप करने लगी । बह जबान हुई तो भी किसीने उससे शादी नहीं की। जैसे कड़त्री लोकीको पक्रनेपर कोई नहीं खाता वैसेही उसको भी किसीने ग्रहण नहीं किया । इस समय विशेष वैराग्यकी भावनासे निनामिका योगंधरमुनिसे अनशनत्रन ग्रहण कर रही है। हे ललिनांगदेव ! तुम उसके पास जाओ और उसे दर्शन हो, जिससे तुममें श्रासक्त वह मरकर तुम्हारी पत्नी बने। कहा है ....'या मतिः सा गतिः किल ।" [अंतमें जैसी बुद्धि होती है वैसीही गति होनी है] (५२-५६६) ललिनांगदेवने वैसाही किया । और उसके ऊपर. (मनमें) प्रेम करती हुई वह सती मरकर स्वयंप्रमा नामा उसकी पत्नी हुई । प्रणय-कोपसे भागकर गई हुई न्त्री वापस आई हो उस तरह, अपनी प्रियाको पाकर ललितांगदेव अधिक क्रीड़ा करने लगा। कारगा, बहुत धूप, तपट्टए यादमीको छाया अत्यंत प्रिय-मुखदेनवाली होती है। (६००-६०१) 1.... Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा भव-धनसेठ - [७३ इस तरह कीड़ा करते बहुतसा समय बीत गया। पीछे ललितांगदेवको अपने च्यवनके चिह्न दिखाई देने लगे । स्वामीका वियोग निकट समझकर उसके रत्नाभरण निस्तेज होने लगे, मुकुटकी मालाएँ म्लान होने लगी और उसके अंगवस्त्र मलिन होने लगे। कहा है"आसन्ने व्यसने लक्ष्म्या लक्ष्मीनाथोऽपि मुच्यते ।" जब दःख नजदीक आता है तब लक्ष्मी विष्णको भी छोड़ जाती है ] उस समय उसके मनमें धर्मका अनादर, भोगकी विशेष लालसा उत्पन्न हुई। जब अंतसमय पाता है तब प्राणियों की प्रकृतिमें परिवर्तन होही जाता है। उसके परिवारके मुखसे अपशकुनमय-शोककारक और नीरस वचन निकलने लगे। कहा है"माविकार्यानुसारेण, वागुच्छलति जल्पताम् ।" [बोलनेवालेकी जवानसे, होनहारके अनुसारही. वचन निकलते हैं।] जन्मसे प्राम हुई लक्ष्मी और लज्जास्पी प्रियाने उसे इसी तरह छोड़ दिया जैसे लोग किसी अपराधीका त्याग करदेते हैं। चीटेके जैसे मौतके समयही पंख पाते हैं वैसेही वह अदीन और निद्रारहित था, तो भी अंतसमय निकट श्रानेसे वह दीन और निद्राधीन हुश्रा। हदयके साथ उसके सैधिवंध शिथिल होने लगे। महाबलवान पुरुप भी जिनको नहीं हिला सकते थे ऐसे उसके कल्पवृक्ष कौंपने लगे। उसके नीरोग अंगोपांगको संधियों भविष्य में आनेवाले दुःम्बकी शंकासे भग्न (शिथिल होने लगी । दमरका स्थायीभाव देखने में Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४1 त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. असमर्थ हो ऐसे उसकी आँग्ने चीजोंको देखनेमें असमर्थ होने लगी। गर्भ रहने के दुःखका भय लगा हो बस उसका सारा शरीर काँपने लगा । ऊपर अंकुश लेकर बैठे हुए महावतकें कारण से हाथीको चन नहीं पड़ती बसही वह ललितांगदेव रम्य-क्रीड़ापर्वतों, सरिताओं, वापिकाओं, दीर्घिकाओं तालाबों) और बगीचाम भी आराम नहीं पाता था। (६००-६१३) उसकी ऐसी दशा देखकर देवी स्वयंप्रभा बोली, "हे नाथ! मैंने आपका ऐसा कौनसा अपराध किया है कि जिसके कारण आप इस तरह नाराजसे रहते हैं ? (३१४) ललितांगदेव बोला, "ह सुभ्र ! (सुन्दर भौहोंवाली !) तुमने कोई अपराध नहीं किया । अपराध मेगा है कि मैंने पुण्य कम किया-तपस्या भी कम की । पूर्वजन्ममें में विद्याधरीका राजा था, तब भोगकायों में जागृत और धर्मकायाम प्रमादी था। मेरे सौभाग्यके इतकी तरह स्वयंवुद्ध नामकं मंत्री ने मेरी थोड़ी उम्र वाकी रही तब मुझे जनधर्मका उपदेश दिया। मैंने उसको स्वीकार किया। उस थोड़ी मुहत तक पालन किए हुए घमंक प्रभावसे में इतने समय तक श्रोप्रभ विमानका प्रभु रहा, मगर अब मुझे यहाँसे जाना पड़ेगा। कारण, अलभ्य वस्तुका कभी लाम नहीं होता। (३१५.६१८) । उसी समय इंद्रको पानासे धर्मा नामका देव उसके पास आया और बोला, "याज ईशान कल्पके स्वामी नंदीश्वरादिक द्वीपोंमें जिनेन्द्रप्रतिमाओं की पूजा करने के लिए जानेवाले हैं। उनकी आशा है कि श्राप भी उनके साथ जावे । (६१-६२०) सुनकर उसे बड़ी खुशी हुई और वह यह कहता हुआ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ भव-धनसेठ अपनी प्रियाके साथ रवाना हुआ कि सौभाग्यसे स्वामीकी आज्ञा भी समयके अनुसारही मिली है। (६२१) नंदीश्वर द्वीपमें जाकर उसने शाश्वती अर्हत्प्रतिमाकी पूजा की । और पूजासे पैदा हुए आनंदमें वह अपने च्यवनकालको भी भूल गया । निर्मल मनवाला वह देव जब दूसरे तीर्थोकी तरफ जा रहा था तब उसकी आयु समाप्त हो गई और वह थोड़े तेलवाले दीपककी तरह रस्ते ही समाप्त हो गया-देवयोनिसे निकल गया। (६२२-६२३) पाँचवाँ भव जबूद्वीपमें, सागरके समीप पूर्व विदेह क्षेत्र है। उसमें सीता नामकी महानदीके उत्तरतटकी तरफ पुष्कलावती नामका विजय (प्रांत ) है। उसमें लोहार्गल नामका वड़ा शहर है। उसका राजा स्वर्णजंघ था। उसकी पत्नी लक्ष्मीके गर्भसे ललि. तांग नामका देव पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ। आनंदसे फले हुए माता-पिताने खुश होकर उसका नाम वनजंघ रखा। (६२४.६२६) स्वयंप्रभादेवी भी, ललितांगदेवके वियोगसे दुखी होकर धर्मकार्यमें दिन विताती हुई, कुछ कालके बाद वहाँसे च्यवी और उसी विजयमें पुंडरी किनी नगरीके राजा वनसेनकी पत्नी गुणवतीकी कोखसे न्यारुपमें जन्मी। यह बहुतही शोभावाली (सुदरी) थी, इसलिए मातापिताने उसका नाम श्रीमती रखा। वह दाइयों द्वारा पाली जाकर इस तरह प्रमशः बढ़ रही थी जिस तरह मालिनों द्वारा पाली जाफर लताएं बढ़ती है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] त्रिषष्टि शलाका पुरुय-चरित्रः पर्व १. सर्ग १.. उसका शरीर कोमल था और उसके हाथ नवीन पत्नोंकी तरह चमकते थे। अपनी निन्ध क्रांनिमें गगनलको (पृथ्वीको) पल्लविन (आनंदिन )करती हुई उस राजबालाको इस तरह यौवन ग्रात हा जिस तरह स्वर्णकी अँगुठीको रत्न प्राप्त होता है ( गटीमें रत्न जड़ा जाता है। एक बार संध्या अभ्र लेखा जैन पर्वतपर चढ़ती है वही वह अपने सर्वतोभद्र नामकं महज़पर यानंदकं माय चढ़ी। उस समय उसने उबरसे देवताओं विमानों की जान देना। मनोरम नामक ब्यानने किन्हीं मुनिको कंवलदान हुआ था उसके पास जा रहे थे। उन्हें देखकर उस विचार आया कि मैंन पहिलभी ऐसा कहीं देता है। मोचन हाए उनको पूर्वमवधी बातें गत सपनची तरह याद आई। पूर्वमत्र बानका वान्ट म्यानम असमय हुई हो वैसे वह पलमग्ने जमीनपर, गिरी और बेहोश हो गई। सखियोंने चंदनादिने उपचार किया, इससे बट्ट होश आई और छकर इस तरह विचार करने लगा। (३२-३३६). पूर्वमत्रमें ललितांग नाम देव नेरे पति थे। उनका न्वान च्यवन हुया है। नगर अभी वे कहाँ है ? यह बात में नहीं जानती। इसीलिए मन दुःख है। मेरे दिल में बेहो बैठे हुए हैं । बट्टी में प्राणश्वर हैं। कारण कयूरकं बरतनने नमक कौन हान्न ? यदि में अपने प्राणापनिस बातचीत नहीं कर सकती हूँ दो दूसरंक साथ बातचीत करनं क्या लामा पमा सोचकर उसने मौन धारण कर लिया। (७३) जब उसने बोलना बंद कर दिया तब उसकी सन्वियाने इलको वद्रीय समन्ा और मंत्र-तंत्रादिक उपचार करना Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... .. पाँचवाँ भव-धनसेठ . [७७ - शुरू किया। ऐसे सैकड़ों उपचार किए गए मगर उसने मौनका . त्याग नहीं किया। कारण, एक रोगकी दवा दूसरे रोगको अच्छा नहीं कर सकती। जब जरूरत होती थी तब वह लिख कर या हाथ आदिके संकेतसे परिवारके लोगोंको अपनी जरूरत बताती थी। (६४०-६४२) एक दिन श्रीमती अपने क्रीडोद्यानमें (खेलने कूदनेके बगीचे में ) गई । उस समय एकांत देखकर उसकी पंडिता नामकी दाईने कहा, "हे राजपुत्री! तू मुझे प्राणोंके समान प्रिय है और मैं तेरी माताके समान हूँ। इसलिए हमें एक दूसरेपर अविश्वास नहीं रखना चाहिए। हे पुत्री! तूने जिस कारणसे मौन धारण किया है वह कारण मुझे बता और मुझे दुखमें भागीदार बनाकर अपना दुःख कम कर । तेरा दुःख जानकर उसे मिटानेकी मैं कोशिश करूंगी।" कारण "न ह्यज्ञातस्य रोगस्य चिकित्सा जातु युज्यते ।" [ रोग जाने विना इलाज कैसे हो सकता है ? ] (६४३-६४६) .. तब श्रीमतीने अपनी पूर्वजन्मकी सही बातें पंडिताको इस तरह कह सुनाईं जिस तरह शिप्य प्रायश्चित्त के लिए सद्गुरुके सामने सही सही बातें कहता है। पंडिताने सारी बातें एक पट पर चित्रित कर ली और फिर वह पंडिता ( चतुर) पट लेकर वहाँ से विदा हुई । (६४७-६४८) नहीं दिनोंमें चावी वन्नसेनका जन्मदिन पास या रहा था, इसलिए बहनसे राजा और राजकुमार, उम गोकपर वरमा रहे थे। उस समय श्रीमती गनारको बनानेवाली Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .७ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. चित्रपटको खोलकर पंडिता राजमार्गमें खड़ी रही। जानेवालोमें से कई शाम्रोंकी बातें जाननेवाले थे इसलिए वे आगमके अर्थ के अनुसार चित्रित नंदीश्वरद्वीप वगैराको देखकर उसकी स्तुति करने लगे। कुछ लोग श्रद्धासे अपने सर हिलाते हुए उसमें चित्रित श्रीमत अरिहंतके हरेक विवका वर्णन करने लगे। कलाकौशल के पंडित राहगीर-बारीकीसे चित्रोंकी रेखा आदिकी वास्तविकता जानकर बार बार बखान करने लगे। और कई लोग काला, सफेद, पीला, नीला और लाल रंगोंसे संध्याभ्र (शामके बादल ) के समान, उस पटके अंदरके रंगोंका वर्णन करने लगे । (३६-६५४) इतनेहीमें नामके समान गुणवाला दुर्दर्शन नामके राजाका दुद्रात नामक पुत्र वहाँ आया । वह कुछ क्षण पटको देखता रहा और कपट कर जमीनपर गिरा और बेहोशसा हो गया। फिर वापस होशमें आया हो वैसे वह (धीरे धीरे) उठा। उठने पर लोगोंन उसको बेहोश होनका कारण पूछा । वह ऋपट नाटक करक इस तरह अपना ( मृला)नि सुनान लगा। (३५५-६५७) "इस पटम किसीन मेरे पूर्वजन्मका हाल चित्रित किया है। उसको देखनसे मुझ पूर्वजन्मका बान हुआ है । यह में ललितांगदेव हूँ और यह मेरी देवी स्वयंप्रभा है। इस तरह उसमें जो जो बात चित्रिन थीं वे बातें उसने बताई।" पंडिताने कहा, "यदि ऐसा है तो इस पटमें लो जो स्थान है उनको अँगुली लगन्तकर बताओ।" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पाँचवाँ भव-धनसेठ [७६ दुर्दीतने कहा, "यह सुमेरु पर्वत है और यह पुंडरीकिणी नगरी है।" पंडिताने पूछा, "मुनिका नाम क्या है ?" - वह बोला, "मैं मुनिका नाम भूल गया हूँ।" उसने फिर पूछा, "मंत्रियोंसे घिरे हुए इस राजाका नाम क्या है और यह तपस्विनी कौन है ?" उसने कहा, "मैं उनके नाम नहीं जानता।" (६५८-६६२) इससे पंडिताने समझ लिया कि यह आदमी मायावी है। उसने हँसते हुए कहा, "हे वत्स ! तेरे कथनानुसार यह तेरे पूर्वजन्मका हाल है। तू ललितांगदेवका जीव है और तेरी पत्नी स्वयंप्रभा अभी कर्मदोपसे पंगु होकर नंदीग्राममें जन्मी है। उसको जातिस्मरण (पूर्वभवका ) ज्ञान हुआ इसलिए इस पटमें उसने अपने पूर्वजन्मका चरित्र चित्रित किया। मैं जब धातकीखंडमें गई थी तब उसने मुझे दिया था। मुझे उस पंगुपर दया आई इसलिए मैंने तुमे ढूंढ़ निकाला। अब तू मेरे साथ चल । मैं तुझे धातकीखंडमें उसके पास पहुँचा हूँ। हे पुत्र ! वह गरीव विचारी तेरे वियोगसे दुःखग जीवन वितारही है। इसलिए तू वहाँ जाकर अपने पूर्वजन्मको प्राणवल्लभा को आश्वासन दे ।" (६६३-६६७ ) यह कहकर पंडिता चुप हो रही, इसलिए उसके समान उम्रयाले मित्रांन विलिनी के बरंगे कहा, "हे मित्र ! तुमको बीरत्नकी प्रानि हुई है। इसलिए मालग होना है कि तुम्हारे पुगका उपय हुआ। सलिप तुग जाकर उन पगु सीमे मिलो सीर या उसका पालन-पोषमा करो।" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.] त्रियष्टि शलाका पुग्यचरित्रः पर्व १. सर्ग १. मित्रांस गली परिहासकी बान सुनकर दुदानकुमार लनित दृश्रा और विक्री हुई चीजोमसे जैस बची बुची चीजें रहती हैं. वैसा होकर बह वहाँसे चला गया। (६६०-६७०) थोड़ी देर बाद उस जगह, लोहार्गलपुरसे श्राया हुश्रा बन्नजंघनुमार भी पाया । यह चित्रपटमें लिखे हुए चरित्रको देखकर मुछिन होगया। पंखाचं हवा कीगई और पानी छींटा गया तब वह मूछा जागा। पाठे, वह न्वर्गहारो भाया हो इस तरह उसे जानिम्मरगा डान हुया" उनु ममय पंडिनाने पूछा, "ह कुमार ! पटको देखकर तुमको मुछी श्यों श्रागई थी ?" ___ बनर्जयने उत्तर दिया, हमनें ! मेरे पूर्वजन्मका हाल, मेरी श्री नहिन, हम पटमें चित्रिन है। उसे देखकर मुझे मृा श्रागई। यह श्रीमान ईशानकल्य है। इसमें यह श्रीप्रम विमान है। यह मैं ललितांगदेव हूँ और यह मेरी देवी स्वयंप्रभा है। चाताखंड नंदीग्राम महादरिद्री घर यह निनामिका नामकी लड़की है। वह इस अंबगनिन्लक नामपनपरन्नड़ी है और उसने युगंधर नामक मुनिसे अनशनत्रन ग्रहण किया है। यहाँ मुनमें श्रासक्त इमन्त्रीका में यात्मदर्शन करान पाया हूँ। फिर वह इस जगह मरकर स्वयंप्रभा नामक मंग देवी हुई है। यहाँ मैं नंदीश्वद्धीपक जिनत्रियों की पूजा करने में तत्पर हुश्रा हूँ। और वहीं दूसरे तीर्थों में जातं समय मेंग च्यवन हुया है। एकाकिनी, दीन और रंक समान बनी हुई यह स्वयंप्रभा यहाँ पाई है। गला गन्याल है। और.बही मरी पूर्वमयकी प्रिया है! बहन्छा बहीं है। और मुझे विश्वास है कि उसने अपने Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ भव-धनसेठ [८१ जातिस्मरणसे यह पट चित्रित किया है। कारण, अनुभवके विना दूसरा कोई इन बातोंको जान नहीं सकता है।" सब स्थानोंको बताते हुए वनजंघने जो बातें कहीं उनको सुनकर पंडिताने कहा, "तुम्हारा कहना विलकुल सही है।" फिर पंडिता श्रीमतीके पास आई और हृदयके दुखको मिटानेवाली दवाके समान वे सारी बातें उसने श्रीमतीसे कहीं। (६७१-६८२) मेघके शब्द सुनकर जैसे विदूरपर्वतको भूमि रत्नोंसे अंकुरित होती है वैसेही श्रीमती अपने प्रिय पतिका हाल सुनकर रोमांचित हुई। फिर उसने पंडिताके द्वारा अपने पितासे यह बात कहलाई। कारण "अस्वातंत्र्यं कुलस्त्रीणां धर्मो नैसर्गिको यतः।" [स्वच्छंद न होना कुलीन स्त्रियोंका स्वाभाविक धर्म है ।] (६८३-६८४) पंडिताकी बात सुनकर वनसेन राजा ऐसे खुशी हुश्रा जैसे मेघकी आवाज सुनकर मोरको खुशी होती है। फिर उसने वध कुमारको बुलाया और कहा, "मेरी पुत्री श्रीमती पूर्वजन्मकी तरह इस जन्ममें भी तुम्हारी पत्नी वने।" वनजंघने स्वीकार किया। तव वनसेनने अपनी कन्या श्रीमतीका व्याह वनजघके साथ इस तरह कर दिया जिस तरह समुद्ने लक्ष्मीको विष्णुके साथ व्याह दिया था। फिर चंद्र और चाँदनीकी तरह एकरूप बने हुए ये पति-पनी उसञ्चल रेशमी वस्त्र धारणाफर राजाकी पाशाले लोहार्गलपुर गए। यहाँ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] प्रियष्टि शलाका पुश्प-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. सुवर्णजय राजाने, पुत्रको योग्य समझकर राज्य दिया और बुदन दीन्ना लेली। (६८५-६८) __ इधर बन्नसेन चक्रवर्तीन अपने पुत्र पुष्करपालको राज देकर दीना ली और वे तीर्थकर हुए। (६०) बननंधन अपनी प्रियाक साथ संमोग करते हुए राज्यमारको इस तरह बहन किया जिस तरह हाथी कमलको बहन करता है। गंगा और समुद्रकी तरह वे कमी वियोगी नहीं हुए। निरंतर मुत्रका उपमोग करते हुए उस दंपती एक पुत्र उत्पन्न हुया। (३६१-६२) में मर्यक्र मारकी उपमाको नेवन करनेवान और महाक्रोधी सीमा सामंत गजा पुष्करपालके विरोधी हो गए। इसने नकी तरह उनको वश करने के लिए वनवको बुलाया । यह बलवान राजा उसको मदद करने लिए चला । हुंदकेसाय नेम इंद्राणी जाती है उसी तरह अचलमक्ति रखनेवाली श्रीमती मी बननंयके साथ चली। वे श्राव रस्ते पहुचें होंगे कि उनको अमावसकी गतने भी चंद्रिकाका भ्रम करानेवाला एक शरवण (कॉम) का महावन दिखाई दिया। मुसाफिरोंन बताया कि उस गन्त में वृष्टिविष सर्प (जिन साँपोंक देखतेही जहर चढ़ता है ऐसे सप) रहते हैं, इसलिए वह दूमर मार्ग चला । कारण "..."नयना हि प्रस्तुतार्थधु तत्पराः". [नीतिवान पुरुष प्रस्तुन अर्थमट्टी तत्पर होत है।] (६६३-६६७) पुंडरीक (मफेद कमल) की अमावाला यमघ पुरीकिणी Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ भव-धनसेठ [८३ - नगरीमें आया। और उसकी शक्तिसे सभी सामंत पुष्करपालके आधीन हो गए। विधि (रिवाज ) को जाननेवाले पुष्करपालने वयोवृद्धोंका जैसे सम्मान किया जाता है वैसे वनजंघ राजा का बहुत सम्मान किया। (६६८-६६६) कुछ समय बाद श्रीमतीके भाईकी अनुमति लेकर वनजंघ राजा वहाँसे श्रीमतीके साथ इस तरह चला जैसे लक्ष्मीके साथ लक्ष्मीपति चलता है। शत्रुओंका नाश करनेवाला वह राजा जब काँसवनके पास आया तब मार्गदर्शक चतुर पुरुषोंने उससे कहा, "अभी इस वनमें दो मुनियोंको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, इससे देवताओंके आनेके प्रकाशसे दृष्टिविपसर्प निर्विप हुआ है। वे सागरसेन और मुनिसेन नामके दो मुनि सूर्य और चंद्रकी तरह अब भी यही मौजूद हैं और वे सगे भाई हैं। यह जानकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और विष्णु जैसे समुद्रमें निवास करते हैं वैसे उसने उस वनमें निवास किया। देवताओंकी पर्पदा ( सभा) से घिरे हुए और धर्मोपदेश देते हुए उन दोनों मुनियोंको, राजाने खीसहित भक्तिके भारसे झुका हुआ हो इस तरह झुककर वंदना की। देशनाके अंतमें उसने अन्न, पानी और सादि उपकरणोंसे मुनिको प्रतिलामा अन्न वस्त्रादि यहोराए-दिए । फिर वह सोचने लगा, "धन्य है एन मुनियोंको जो सहोदरभाव में समान है, कपायरहित , ममतारहित है और परिग्रहरहित है। मैं ऐसा नहीं है, इसलिए अधन्य हैं। बत महण करनेवाले अपने पिता सन्मार्गका अनुसरण करने. पाले ये पिता सारस (शरीरसे जन्मनेवाले) पुत्र और में ऐसा नाही करता इसलिए गरी हमला ममान । पा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग १. होते हुए भी यदि अब भी मैं व्रत ग्रहण का तो उचितही होगा। कारण-दीक्षा, दीपककी तरह ग्रहण करने मात्रहीसे अज्ञानके अंधकारको दूर करती है। इसलिए मैं यहाँसे नगरमें जाकर पुत्रको राज्य दूंगा और हंस जैसे हंसगतिका आश्रय लेता है वैसेही मैं भी पिताकी गतिका अनुसरण करुंगा।" (७५०-७१०) फिर एक मनकी तरह व्रत ग्रहण करनेमें भी वाद करने वाली श्रीमतीके साथ वह अपने लोहार्गलनगरमें आया। वहाँ रायके लोमसे उसके पुत्रने घन देकर मंत्रियोंको फोड़ लिया था। "धने:.....कि नामे जलेरिख ।" [जलकी तरह (धनसे ) कौन अमेद्य है ? अर्थात जैसे जल समीको फोड़ देता है इसी तरह वनसे भी प्राय: आदमियोंको अप्रामाणिक बनाया जा सकता है] (७११-७१२) श्रीमती और वनजंघ यह विचार करते हुए सो गए कि सवेरे उठकर पुत्रको राज्यगद्दी देना है और हमें ऋन ग्रहण करना है-दीक्षा लेना है। उस समय मुखसे सोते हुए राज्यदंपतिको मारडालनेके लिए राजपुत्रने विषधूप किया। कहा है"कस्तं निषेद्भुमीशः स्याद्गुहादग्निमित्रोत्थितम् ।" [घरमें उठी हुई (लगी हुई) आगकी तरह उसको (राजाले पुत्रको) रोकनमें कौन समर्थ हो सकता है ? ] प्राणोंको पकड़कर.टींचनवाले अंजुट (चीमट) की तरह वियआपका श्रृयों राजाराणीकी नाकम त्रुसा और उनके प्राणपन्वेत. रह गये। (७१३-१५) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा भव-धनसेठ [५ -- छठा भव वनजंघ और श्रीमतीके जीव उत्तर कुरुक्षेत्रमें जुगलियारूपमें उत्पन्न हुए। ठीक ही कहा है कि "एक चिताविपनानों गतिरेका हि जायते।" [समान विचार करते हुए मरनेवालोंकी गति भी एकही होती है।] (७१६) सातवाँ भव उस क्षेत्रके योग्य प्रायुको पूर्ण कर मरे और सौधर्म देवलोकमें स्नेहशील देवता हुए और बहुत समयतक स्वर्गके सुख भोगे। (७१७) आठवाँ भव देव आयु समाप्त होनेपर, गरमीसे जैसे वरफ गलता है वैसेही वनजंघका जीय यहाँसे ज्यवा और चूद्वीपके विदेहक्षेत्रमें, तितिप्रतिष्ठित नगर में सुविधि वैद्यके घर पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ। नाम जीवानन्द रखा गया। उसी दिन उस शहरमें, धर्मके शरीरधारी चार अंगोंकी तरह, दूसरे चार बालक जन्मे। पहला इशानचंद्र राजाके घर कनफरती नामकी नीसे महीधर नामका पुन हुआ। दूसरा सुनातीर मंत्रीकी लरमो नामक सीसे लक्ष्मीपुत्रके समान सुयति नामका पुत्र हुआ। तीसरा सागरदरा सेठको अभवमती नामकी त्रीसे पूर्णभद्र नामफा पुत्र हुमा । और पीया धनशेट्रोफी शीलमती नामी श्रीसे so Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .८६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग १. शीलपुंजके समान गुणाकर नामका पुत्र हुश्रा । दाइयोंके द्वारा प्रयत्न महिन पालिन और रक्षित चागं बालक समानम्.पसे इस तरह बढ़ने लगे जैसे शरीरक सभी अंगोपांग एकसाथ बढ़ने हैं। सदा एक साथ बलतं कुदते हुए उन्होंने सारी कला, हम नरह ग्रहण की जिस तरह वृक्ष मेवका जल एक साथ समानरूपस ग्रहण करते हैं। (७२८-७२६) श्रीमतीका जीव भी देवलोकसे च्यवकर उसी शहरम ईश्वरदत्त सेठके घर पुत्ररूपमें पैदा हुया । नाम केशव रन्या गया । पाँच इंद्रियाँ और छठे मनकी तरह, व छ: मित्र हुए और प्रायः दिनभर वे एक साथ रहते थे। (७२४-७२८) उनमसे मुविधि वैद्यका पुत्र जीवानंद श्रीपधि और रसवीर्यक विपाक अपने पिता सीखकर अष्टांग अायुर्वेदका जाननेवाला हुवा। हाथियोंमें जैसे ऐरावत और नवग्रहोंमें जैसे १-अायुर्वेद के श्राट अंग ये है-१-शल्य-इममें चीरफाड़ सम्बन्धी ज्ञान होता है । अंगरेजी में इसे मनरी (Surgery ) कहते हैं। ३-गानाक्य-यायुर्वेदोक्त शल्यचिकित्सा मंबंधी एक शात्रानंत्र निममें गर्दनक कपरकी इन्द्रियोंकी चिकित्साका वर्णन है । ३-काय चिकित्मा-हसमें मृबीगठ्यापी गंगोंकी चिकित्सा दी गई, है। ४-मूविद्या-हममें पिशाच यादिकी बाधा उत्पन्न रोगका इलान बताया गया है। ५.-कीमारपत्य इनमें बालककी चिकित्सा का वर्णन है 1.-अगदतंत्र-इसमें पांदिकके देशकी चिकिल्ला बनाई गई है। मायन-इसमें नगन्याधिनायक चिकिता बताई गई है। -बाजीकरणा-कामोद्दीपन औपत्र और उसका प्रयोग। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठवाँ भघ-धनसेठ [९७ सूरज अग्रणी ( मुख्य ) होता है वैसेही सभी वैद्योंमें वह, ज्ञानवान और निर्दाप विद्याओंका जाननेवाला, अग्रणी हुआ। वे छहों मित्र सहोदरकी तरह निरंतर साथ साथ रहते थे और एक दूसरेके घर जमा होते थे। (७२६-७३१) एक दिन वे वैद्यपुत्र जीवानंद के घर बैठे थे, उस समय एक मुनि महाराज बहोरनेको आए। वे साधु पृथ्वीपाल राजाके गुणाकर नामक पुत्र थे। और उन्होंने मलकी तरह राज्य छोड़कर शमसाम्राज्य-दीक्षा ली थी। गरमीके मौसमसे जैसे नदी सूख जाती है उसी तरह तपसे उनका शरीर सूख गया था। समय और अपथ्य भोजन करनेसे उनको कृमिकुष्ट (ऐसा कोढ़ जिसमें कीड़े पैदा होजाते हैं) नामका रोग होगया था। सारे शरीरमें रोग फैल गया था, तो भी उन महात्माने कभी दवा नहीं मांगी थी। कहा है ......... कायानपेक्षा हि मुमुक्षवः ।" [मुमुक्षु ( मोलकी इच्छा रखनेवाले ) कभी शरीरकी परवाह नहीं करते। ] (७३२-७३५) गोमूत्रिका विधानसे घर घर फिरते साधुको, छट्टके १. साधु जब श्राहारपानी लेने जाते हैं तय में इस तरह एस परसे दूसरे पर जाते हैं से चल पेशाव करता है। पांत ने माप सिलसिलेवार घरों में प्राधार लेने नहीं जाते। फारम मिसिलेवार जानेसे, संभव है कि प्रगल परगाले साधुके लिए गुरु संगार गर लें। इसलिए ये दाहिने हामी शेगा, परसे पाई बामशकिगी परले जाते और साई की गरमे दाहिने हाके किसी परमें सातेहा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर त्रिषष्टि शलाका पुरय-चरित्रः पर्व १ सर्ग १. (दो दिनके उपवासके ) बाद पारना करने के लिए आहारपानी लेनेके हेतु, अपने आँगनमें आते उनने देखा । उस समय महीघर कुमारने,जगतके अद्वितीय (दुनियामें जिनके समान दूसरा कोई नहीं हैं ऐसे) वैद्य जीवानंदसे परिहास करते हुए कहा, "तुमको, बीमारियोंकी जानकारी है, दवाइयों मालूम हैं और इलाज भी तुम बहुत अच्छा करते हो, मगर तुममें दया बिलकुल नहीं है। जैसे वेश्या धनके बिना किसीके सामने नहीं देखती बसेही तुम भी धनके बिना परिचित विनती करनेवाले-प्रार्थना करनेवाले दुःखी श्रादमियोंकी तरफ भी नहीं देखते । विवेकी आदमियोंको सिर्फ धनका लोभीही नहीं होना चाहिए ! किसी समय धर्मका खयाल करके भी इलाज करना चाहिए। तुम्हारी रोगोंके कारणोंकी और उनके इलाजकी, जानकारीको विकार है कि तुम ऐसे श्रेष्टपात्र रोगी मुनिका भी खयाल नहीं करते।" (७३६-७४१) यह सुनकर विज्ञानरत्नके रत्नाकर लैंसे जीवानंदने कहा, "तुमने मुन्को याद दिलाई, यह बहुत अच्छा किया ।" धन्यवाद!" अकसर- (७४२) ब्राह्मणवातिरद्विष्टो वणिगजातिरवंचका । प्रियजातिरनीर्ष्यालुः शरीरी च निरामयः ।। विद्वान् धनी गुण्यगर्वः स्त्रीजनश्चापचापलः । राजपुत्रः मुत्ररित्रः प्रायेण न हि दृश्यते ।। [दुनिया में प्राय: ब्राह्मणनाति द्वेष-रहित नहीं होती (द्वेष करनेवाली होती है।) वनियोंकी नाति अवचकं (न ठगनेवाली) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ भव-धनसेठ [ e नहीं होती (ठगनेवालीही होती है । ) मित्रमंडली अनीर्ष्यालु (ईया न करनेवाली) नहीं होती (ईर्ष्या करनेवालीही होती है।) शरीरधारी निरोग (तंदुरुस्त ) नहीं होता (रोगीही होता है।) विद्वान लोग धनवान नहीं होते, गुणवान निरभिमानी (वगैर घमंडके) नहीं होते, खी अचपल (चंचलतारहित ) नहीं होती और राजपुत्र अच्छे चारित्र (चालचलन ) वाला नहीं होता। (७४३-७४४) ये मुनि इलाज करने लायक हैं (और में इलाज करना चाहता हूँ) परन्तु इस समय मेरे पास दवाकी चीजें नहीं है। यह अंतराय है; इस व्याधिको मिटाने के लिए लक्षपाक तेल, गोशीपचंदन और रत्नकवल चाहिए। मेरे पास तेल है मगर दो चीजें नहीं है। ये चीजें तुम ला दो।" (७४५-७४६) ये दोनों चीजें हम लाएंगे, फाहकर पाँची मित्र वालारमें गए। और मुनि अपने स्थान पर गए। ( ७४७) उन पाँचों मित्रोंने बाजारमें जाकर किसी चूढ़े व्यापारीसे कहा, "हमको गोशीपचंदन और रत्नचलकी जरूरत है। कीमत लो और ये चीजें हमको दो।" उस व्यापारीने कहा, "इनमेंसे हरेककी कीमत एक लाख सोना मुहरें (अशरफियो) हैं। यानी दोनोंकी कीमत दो लाख अशरफियों हैं। कीमन लाओ और चीजें लेजानो। मगर पहले या यताओ कि तुमको पन चीजोंकी जरूरत क्यों हुई?" (७५-७६) उन्होंने कहा, "जो कीमत हो सो लो और दोनों पीजे हमको दो। इनका उपयोग एफ महात्मा का इलाज करने किया जाएगा।" (७५) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-धरित्रः पर्ष १. सर्ग १. ' यह सुनकर उसे अचरज हुया । खुशीसे उसकी आँखें चमकने लगी और शरीरमें रोमांच हो आया। वह विचार करने लगा, "कहाँ उन्माद, श्रानंद और योयनके कारण कामदेवकी मस्तीसे भरी इनकी यह जवानी ! और कहाँ वयोवृद्धोंके समान इनकी विवेकशीलमति ! जिन कार्मोको मुझ जैसे. बुढ़ापेसे जर्जर बने हुए आदमियोंको करना चाहिए उनको ये कर रहे हैं और अदम्य उत्साहके साथ भारको उठा रहे हैं।" (७५१-७५३) इस तरह विचारकर बूढ़े व्यापारियोंने कहा, "हे भले जवानो! ये गोशीपचंदन और कंबल तुम ले जाओ। कीमत देनेकी जरूरत नहीं है । मैं इन चीजों की कीमत, धर्मरूपी अक्षयनिधि लगा। तुमने मुझे सगे भाईकी तरह धर्म-काममें हिस्सेदार बनाया है।" फिर उस भले सेठने दोनों चीजें दी 1 कुछ काल पाद शुद्ध मनवाला सेठ दीक्षा लेकर मोक्ष गया। (७५४-७५६) दवाइयों लेकर महात्माओंमें अग्रणी वे मित्र वैद्यजीवानंदको साथ लेकर मुनिके पास गए। वे मुनि महाराज एक बढ़के नीचे फायोत्सर्ग कर ध्यानमें खड़े थे। वे ऐसे मालूम होते थे मानों यड़के पैर हो । उनको वदनाकर वे बोले, "हे भगवन ! आज हम चिकित्सा-कार्यसे आपके तपमें विघ्न डालेंगे। श्राप आज्ञा दीजिए और पुण्यसे हमको अनुगृहीत (अहसानमंद) कीजिए ।" (७५७-७५६) .. मुनिने इलाज करनेकी संमति दी। इसलिए वे तत्कालका मरा गोमृतक (गायका मुरदा) लाए। कारण अच्छे वैध कभी भी विपरीत (पापवाला ) इलाज नहीं करते । फिर उन्होंने मुनिके Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राठवाँ भव-धनसेठ - - हरेक अंगमें लक्षपाक तेलकी मालिशकी। तेल मुनिकी हरेक नसमें इस तरह फैल गया जैसे नहरका पानी खेतमें फैल जाता है। उस बहुत गरम गुणवाले तेलसे मुनि बेहोश हो गए। "योग्यमुग्रस्य हि व्याधेः शांत्यामत्युग्रमौषधम् ।" ( बड़ी बीमारीमें बहुत उग्र ( तेज ) दवाही योग्य होती है-असर करती है। तेलसे घबराए हुए कीड़े मुनिके शरीरसे इस तरह बाहर निकले जिस तरह पानी डालनेसे पल्मीक (चींटियोंके दर ) से चीटियाँ निकलती है। तब जीवानंदने मुनिके शरीरको रत्नकवलसे इस तरह ढक दिया जिस तरह चाँद अपनी चाँदनीसे आकाशको ढक देता है। रत्नकवलमें शीतलता थी, इसलिए शरीरसे बाहर निकले हुए कीड़े उस कवलगे ऐसे घुस गए जैसे गरमीके दिनोंमें दुपहरके वक्त गरमीसे घबराई हुई मदलियों सेवालमें घुस जाती है। फिर उन्होंने रत्नफंवलको, हिलाए बगैर धीरेसे उठाकर, उसमेंके सारे फीले गायके मुरदेपर डाल दिए । कहा है "........"अहो सर्वत्राद्रोहता सताम् ।" [सतपुरुपोंकी सब जगह अद्रोहता होती है यानी उनका हरेक काम,दयापूर्ण होताई ] उसके बाद जीवानंदने अमृतरसफे समान प्राणीको जिलानेवाले गोशोपचंदनका लेप मुनि शरीरपर किया। इससे उसमें शांति हुई। इस तरह पहले पमशीक अंदर के कीड़े निकले। फिर उन्होंने तेल मला. इससे मानवायुसे असे रस निकलवा मे मांस अदरसे पाहतसे की दादर निगले । पदने की तरह रत्नपल टका. इससे दो तीन दिन, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. मर्ग १. - - दहीके नंतु जैसे लाख पुट पर तैर कर आनाते हैं वैसेही कीड़े ढके हुए रत्नकंवलपर आगए और उन्होंने उनको पहलेकीही तरह गायके मुरदे पर डाल दिया। वाह ! वैद्यकी यह कैसी चतुराई है ! फिर जीवानंदने गोशीपचंदनके रसकी धारासे मुनिको इस तरह शांत किया जैसे गरमीके मौसमसे पीड़ित हाथीको मेघ शांत करता है। थोड़ी देर बाद उन्होंने तीसरीवार लक्षपाक तेल की मालिश की। इससे हड़ियों में जो कीड़े रहे थे घे भी निकल थापा कारण, जब बलवान पुरुष नारान होता है तब वनके पिंजरेमें भी रक्षा नहीं होती। वे कीड़े भी पहलेहीकी तरह रनवलपर लेकर गायके मुरडेपर डालदिए गए। ठीकही कहा गया है कि '"....."अघमस्थानं अघमानां हि युज्यते ।" __[बुरे के लिए बुरा स्थानही चाहिए । ] फिर उस वैद्यशिरोमणिने परममक्ति के साथ से देवको विलेपन किया जाता है वैसेही, मुनिको गोशीपचंदन रसका विलेपन किया। इस तरह दवा करनेसे मुनि निरोग और नवीन कांतिबाले हुए) और मार्जन की हुई-उजाली हुई सोनेकी मूर्ति जैसे शोमती है वैसे शोमने लगे। अन्तमें उन मित्रोंने क्षमाश्रमणसे क्षमा माँगी। मुनिमी वहाँसे बिहार करके दूसरी जगह चलेगए । कारण, वैसे साधुपुरुष कमी एक जगहपर नहीं रहते । (७६०-४४) फिर बोहुए गोशीर्षचंदन और रस्नकंचलको वेचकर उन बुद्धिमानोंने सोना लिया और उस मोनेसे तथा दूसरे अपने सोनसे (जिसे वे गोशीपचन्दन और स्वर्णकंबल के लिए देना चाहते थे) मेरके शिखर जैसा लिनचैत्य बनवाया। जिन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवा भव-धनसेठः [६३ प्रतिमाकी पूजा व गुरुकी उपासना-सेवामें तत्पर उन लोगोंने कमकी तरह बहुतसा समय भी खपाया। एकबार उन छहों मित्रोंको संवेग (वैराग्य ) उत्पन्न हुआ। इससे उन्होंने मुनिमहाराजके पास जाकर जन्मवृक्षके फलसमान दीक्षा अंगीकार की। नवगृह जैसे नियत समयतक रहकर एक राशिसे दूसरी राशिपर फिरा करते हैं वैसेही वे गाँव, नगर और वनमें नियत समयतक रहते हुए विहार करने लगे। उपवास, छह और अट्ठम वगैरा तपरूपी खरादसे अपने चरित्ररूपी रत्नको अत्यंत उज्ज्वल करने लगे। आहार देनेवालेको किसी तरहकी पीडा न पहुँचाते हुए, केवल प्राणधारण करनेके लिए ही वे माधुकरी वृत्तिसे पारणेके दिन भिक्षा ग्रहण करते थे। वीर जैसे (शस्त्रोंके) प्रहार सहन करते हैं वैसेही धीरजके साथ भूख, प्यास और गरमो वगैरा परिसह सहन करते थे। मोहराजाके चार सेनांगों के (फौजके अफसरोंके ) समान चार कपायोंको उन्होंने क्षमादिक शस्त्रोंसे जीता। फिर उन्होंने द्रव्यसे और भावसे संलेखना करके कर्मरूपी पर्वतका नाश करनेमें वजके समान अनशननत प्रहण किया। समाधिको धारण करनेवाले उन्होंने पंचपरमेष्ठी. का स्मरण करते हुए अपने शरीरका त्याग किया। कहा है ......... न हि मोहो महात्मनाम् ।" [ महात्मा पुरुषों को मोड़ नहीं होता।] ( --) १- गाफर यानी भारत से पलता पराग प्रहार करता पान गयो तीन पगासागर मानसपके पार A और ना आहार लेने कि यहाको मान लम Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. नयाँ भव वे छहों महात्मा वहाँसे आयु समाप्त कर अच्युत नामके देवलोकमें इन्द्रके सामानिक देव हुए । कारण "......"ताङ् न हि सामान्यफलं तपः ।" . ... [उस तरहके तपका सामान्य फल नहीं होता।] वहाँसे _वाईस सागरोपमकी आयु पूर्णकर वे च्यवे । कारण"....... अच्यवनं न हि मोक्षं विना क्वचित् ॥" मोक्षके विना दूसरी किसी भी जगहपर अच्यवनस्थिरता नहीं है । ] (७८e-७६०) दसवाँ भव पूर्वविदेहमें पुष्कलावती नामक विलय (प्रांत) में लवण समुद्रके पुंडरीकिणी नामका नगर है। उस नगरका राना वनसेन था। उसकी धारणी नामक गनीके गर्भसे उनमसे पाँच क्रमशः पुत्ररूप में जन्मे । उनमेंसे जीवानंदका नीव चतुर्दश महास्वप्नोंसे सूचित वजनाम नामका पहला पुत्र हुआ, रानपुत्र महीधरका जीव वाहु नामसे दूसरा पुत्र हुया, मंत्रीपुत्र सुबुद्धिका जीव सुबाहु नामसे तीसरा पुत्र हुआ; सेठपुत्र पूर्णभद्रका जीव पीठ नामसे चौथा पुत्र हुश्रा और सार्थवाहपुत्र पूर्णभद्रका लीव महापीठ नामसे पाँचवाँ पुत्र हुआ । केशवका जीव सुयशा नामसे अन्य राजपुत्र हुथा। मुयशा बचपनहीसे वजनामका आश्रय लेने लगा। सच है Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ भव-धनसेठ [५ "स्नेहः प्राग्भवसंबंधो ह्यनुवध्नाति बंधुताम् ।" [ पूर्वभवका स्नेहसंबंध इस भवमें भी बंधुता पैदा करता है । ] (७६१-७६६) .. जैसे छः वर्षधर पर्वत मनुष्यरूप पाए हों वैसे वे पाँचों राजकुमार और छठा सुयशा क्रमशः यदे होने लगे। वे महापराक्रमी राजपुत्र चाहर राजमार्गों पर घोड़े कुदाते-दौड़ाते थे, इससे ये रेवंत ( सूर्यपुत्र ) के समान क्रीडा करनेवाले मालूम होते थे। कलाओं का अभ्यास कराने में उनके कलाचार्य साक्षीमात्रही होते थे। कारण "प्रादुर्भवंति महतां स्वयमेव यतो गुणाः ।" [महान आत्माओंमें गुण अपने आपही पैदा होते हैं। वे अपने हाथोंसे बड़े पर्वतोंको शिलाकी तरह तोलते थे-उठा लेते थे, इसलिए उनकी बालक्रीडा किसीसे भी पूर्ण नहीं होती थी। (७६७-८००) एक दिन लोकांतिक देवोंने आकर राजा वनसेनसे कहा, "हे स्वामी, धर्मतीर्थका प्रवर्तन कीजिए, धर्मतीर्थ प्रारंभ कीजिए।" (०१) १-चूल हिमवंत, मदादिमयंत, निश, शिरी, रूपी और नोवा ये पर्गत भरल. मितादि को करनेवाले , इसलिए पर्दभर पर्वत कहलाते हैं। वर्ष यानी क्षेत्र, भर पानी धारण करनेवाले पंधर पोको धारण करनेगाले। --पाट का पानी , दर्शनावरली, सनी और रायगे मारकर्मपाला गानादि Yeh HIT करने Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. वनसेन राजाने वनके समान पराक्रमी वजनाभ पुत्रको गद्दीपर बिठाया और एकवर्ष तक दान देकर लोगोंको इस तरह तृप्त करदिया जिस तरह मेघ बरसकर जमीनको तर करदेते हैं। फिर देव, असुर और मनुष्योंके स्वामियोंने वनसेनका निर्गमनोत्सव क्रिया-जुलूस निकाला। और उन्होंने (वज्ञसेनने) शहरके बाहरके वागको जाकर इस तरह मुशोमित किया जिस तरह चाँद आकाशको सुशोभित करता है। वहीं उन स्त्रयंबुद्ध भगवानने दीक्षा ली । उसी समय उनको मनःपर्ययनान (जिससे हरेकके मनकी बात मालूम हो जाती है ऐसा ज्ञान) उत्पन्न हुआ। फिर आत्मस्वभावमें लीन रहने वाले, समतारूपी धनवाले, ममतारहित, निष्परिग्रही और अनेक तरहके अमिग्रह धारण करनेवाले वे प्रभु पृथ्वीपर विहार करने लगे। (८०२-८०६) उधर वचनामने अपने हरेक भाईको अलग अलग देशोंके राज्य दिए । वे चारों भाई सदा उसकी सेवामें रहने लगे । इससे वह ऐसा शोभने लगा जैसे लोकपालोंसे इन्द्र शोभता है। अरुण जैसे सूर्यका. सारथी है वैसे सुयश उसका सारथी हुआ। महारथी पुरुषोंको सारथी भी अपने समान ही करना चाहिए । (८०७-०८) वनसेन भगवानको, घातिकर्म रूपी मलके नाश होनेसे, १-यह शास्वत नियम है कि जब कोई श्रात्मा तीर्थकर होने वाला होता है तो उसकी गृहस्थावस्थाम लाक्रांतिक देव श्राकर तीर्थ प्रवनिकी सूचना करते हैं। और वह दीना लेता है। - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दसवाँ भव-धनसेठ [१७ दर्पण (आइने) परसे मैल निकल जानेसे जैसे उज्ज्वलता प्रकट होती है वैसे ही उज्ज्वल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। (८०६) उसी समय वजनाभ राजाकी आयुधशालामें सूर्यमंडलका भी तिरस्कार करनेवाले चक्ररत्नने प्रवेश किया। दूसरे तेरह रत्न भी उसको तत्कालही मिले । कहा है___ "संपद्धि पुण्यमानेनांभोमानेनेव पद्मिनी ।" [जैसे कमलिनी जलके प्रमाणके अनुसार ऊँची होती है वैसेही पुण्यके अनुसार संपत्ति भी मिलती है।] सुगंधसे आकर्पित होकर जैसे भँवरे पाते हैं वैसेही प्रवल पुण्यसे आकर्पित नवनिधियों भी आकर उसके घर सेवा करने लगीं। (८१०-८१२) फिर उसने सारे पुष्कलावती विजयको जीत लिया। इससे यहाँके सभी राजाने श्राकर उसको चक्रवर्ती बनाया। भोगोंका उपभोग करनेवाले उस चक्रवर्ती राजाकी धर्मबुद्धि भी इस तरह अधिकाधिक बढ़ने लगी मानो वह बढ़ती हुई आयुफी स्पर्धा फररही हो। अधिक जलसे जैसे लताएँ बढ़ती है वैसेही संसार. के वैराग्यकी संपत्तिसे उसकी धर्मबुद्धि भी पुष्ट होने लगी। (१३-८१५) पावार साक्षात मोक्ष समान परम आनंद उत्पन्न करनेवाले वस्त्रसेन भगवान विहार करते हुए उधर आए। यहाँ उनका समवसरण या। समवसरण में यक्ष नीचे बैटकर उन्होंने कानॉक लिए अमृनकी प्रपा (ला) जैसी धर्मदेशना देनी पारंभ की। (८१६-०१७) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. प्रभुका आगमन सुनकर वजनाभ चक्रवर्ती वधुवर्ग सहित राजहंसकी तरह, सानंद प्रभुके चरणोंमें-समवसरणमें आया और तीन प्रदक्षिणा दे, जगत्पतिको वंदना कर, छोटे भाईकी : तरह इंद्रके पीछे बैठा। फिर भव्यजीवोंकी, मनरूपी सीपमें बोध रूपी मोतीको उत्पन्न करनेवाली स्वाति नक्षत्रकी वर्षाके समान . प्रभुकी देशनाको वह श्रावकाग्रणी सुनने लगा। मृग जैसे गाना ... सुनकर उत्सुक होता है वैसे भगवानकी वाणी सुन उत्सुक बना हुआ वह चक्रवती हपंपूर्वक इस तरह विचार करने लगा। (८१८-८२१) . . यह संसार अपार समुद्रकी तरह दुस्तर (कठिनतासे तैरने लायक ) है। इससे तिरानेवाले तीनभुवनके मालिक ये मेरे पिताही है। अंधकारकी तरह, पुरुषोंको अत्यंत अंधा बनानेवाले मोहको, सूर्यकी तरह सब तरहसे भेद करनेवाले ये जिनेश्वरही हैं। चिरकालसे जमा हुआ यह कमांका समूह महा भयंकर असाध्य रोगके समान है। उसका इलाज करनेवाले ये पिताही हैं। अधिक क्या कहा जाए ! परंतु करणारूपी अमृतके सागररूपये प्रभु दुःखका नाश करनेवाले और अद्वितीय सुखको उत्पन्न करनेवाले हैं। अहो ! ऐसे स्वामीके होते हुए भी मैंने, मोहसे प्रमादी बने हुए लोगोंके मुखियाने, अपने आत्मा को, वहुत समयतक (धर्मसे ) वंचित रखा है।" (२२-२६) .... इस तरह विचारकर उस चक्रवर्तीने धर्मके चक्रवर्ती प्रभुसे भक्ति-द्गद वाणी द्वारा विनती की, "हे नाथ ! दर्भ जैसे क्षेत्रकी भूमिको कर्थित (निकम्मी) करता है, वैसेही अर्थसाधनका प्रतिपादन करनेवाले नीतिशास्त्रोंने मेरी बुद्धिको दीर्घ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ भव-धनसेठ [EE - कालतक कदर्थित किया। विपयोंमें लोलुप होकर मैंने (नेपथ्यकर्मसे) जुदा जुदा रूप धारण कराके इस यात्माको नटकी तरह चिरकालतक नचाया है। यह मेरा साम्राज्य अर्थ और कामका कारण है। इसमें धर्मका जो चिंतन किया जाता है वह भी पापानुबंधकही होता है। मैं आपके समान पिताका पुत्र होकर भी यदि संसार-समुद्रमें भटका कम् तो फिर मुझमें और दूसरे सामान्य मनुष्योंमें क्या अंतर है ? इसलिए जैसे मैंने आपके दिए हुए राज्यका पालन किया है वैसेही अत्र, मुझे संयमरूपी साम्राज्य दीजिए । उसका भी मैं पालन करूंगा। (८२७-८३२) अपने वंशरूपी आकाशमें सूरजके समान चक्रवर्ती वनजघने निज पुत्रको राज्य सांप भगवानके पाससे दीक्षा ग्रहण की। पिताने और बड़े भाईने जिस व्रतको ग्रहण किया उस प्रतको वाह आदि भाइयोंने भी ग्रहण किया। फारण उनकी फुलरीति यही थी। सुयशा सारथीने भी धर्मके सारथी ऐसे भगवानसे अपने स्वामीके साथही दीक्षा ली। कारण, सेवक स्वामीका अनुकरण करनेवालेही होते हैं। (८३३-२३५) वमनाम गुनि घोडेही समय में शालसमुद्र पारगामी हए । इससे ये एक अंगको प्रान हुई प्रत्यन जंगम ( मननी फिरती )द्वादशांगीके समान मालूम होने । यार, वगैरा मुनिगण ग्यारा अंगोंके पारगामी हुए। टीकाही मादा है कि "अयोपशमचिच्याचित्रा हि गुणसंपदः ।" [षयोपशमले विपिनमा पाई गुगसपशिना भी विचित्र की ही होतीमानीमा अगोपनामा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] त्रिषष्टि शलाका पुश्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. वैसेही गुण भी मिलते हैं।] यद्यपि वे संनोपरूपी धन धनी थे तो भी नीर्थकरकी चरण सेवा करनेमें और दुष्कर तप करने में असंतुष्टही रहते थे। मासोपवासादि (एक महीनेकाउपवास आदि) तप करते हुए भी निरंतर तीर्थंकरकी वाणीरूपी अमृतका पान करनेसे वे ग्लानि नहीं पाते थे-थऋतं नहीं थे। फिर भगवान वनसेन स्वामी उत्तम शुक्लच्यानस निवाणपढ़को प्राप्त हुए। देवताओंने निर्वाणोत्सव किया। (३६-220) अब धर्मक माइक समान बननाम मुनि अपने साथ व्रतधारण करनेवाल मुनियोंक साथ पृथ्वीपर विहार करने लगे। अंतरात्मासे जैसे पाँच इंद्रियाँ मनाथ होती है वैसेही बननाम स्वामीसे बाहु वगैरा चारों आई नथा मारथी, ये पाँचों मुनि, मनाथ हुए। चौड़की चाँदनीसे लेंस पर्वतॉम दवाइयाँ प्रकट होनी है, वैसेही योग प्रमावसे उनको खेलादि लब्धियाँ प्राप्त हुई। (८४१-८४३) लब्धियों का वर्णन १. खेलोसहि लद्धि (पौषधि लब्धि)-कोढ़ीके शरीरपर थोड़ासा छूक लेकर मलने से कोढ़ नाश होता है और शरीर ऐसा सुवर्णवर्ण-सोनेके रंग सा हो जाता है जैसे कोटिरससे (सोना बनानेवान्न रससे ) ताम्रराशि स्वर्णमय हो जाती है। (८४४) २. जल्लोसहि लद्धि (जल्लोपथि लन्धि इससे कानों, श्रांत्रों और शरीर का मैल गंगा सभी रोगांका नाश करनेवाला और कस्तूरीके समान सुगंधीदार होता है। (52) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ भव-धनसेठ [१०१ - ३. आमोसहि लद्धि ( श्रामीपधि लब्धि )-जैसे अमृतके स्नानसे रोगियों के रोग चले जाते हैं वैसेही शरीरके स्पर्शसे सव रोग चले जाते हैं। (८४६) ४. सव्योसहि लद्धि ( सर्वोपधि लब्धि )-वारिशमें परसता हुआ और नदी वगैरामें बहता हुया जल, इस लन्धिवालेके शरीरसे स्पर्श करलेनेपर इसीतरह सभी रोगोंका नाश करताहे जैसे सूरजका तेज अंधकारका नाश करता है। गंधहस्तिके मदकी सुगंधसे जैसे हाधी भाग जाते हैं वैसेही उनके शरीरका स्पर्श करके आए हुए पवनसे विष आदि दोष दूर हो जाते हैं। अगर विप मिला हुया अन्नादिक पदार्थ उनके गुग्यमें या पात्र. में आजाता है तो वह भी अमृतकी तरह निर्विप हो जाना है। चाहर उतारनेके मंत्राक्षरोंकी तरह उनके वचनको याद करनेसे महाविपके कारण दुख उठाते हुए श्रादमियों के दुःख दूर होजाते है और (स्वातिका)जल सीपमें गिरनेसे जैसे मोती होता है वैसेही उनके नग्न, केश, दौत और उनके शरीरसे होनेवाली सभी चीजें (रामवाण ) दवाइयों होजाती है। (८४७-८५१) ५. अणुत्व शक्ति-धागेकी तगा (अपने शरीरको) मुश्के देदमंसे निकालनेकी शक्ति। ६. महत्व शक्ति-मसे हनना ऊँगा शरीर पनाना जा सकता है कि मेर पर्वत भी उनके घुटनों नर पांगे। ७. लघुन्य शक्ति- इससे शरीर इयाने मी दला किया जा सकता। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___१०२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. - ८. गुरुत्व शक्ति-इंद्रादिक देव भी जिसे नहीं सह सकतें ऐसा, बन्नसे भी भारी शरीर करनेकी शक्ति। ९. प्राप्ति शक्ति -पृथ्वीपर रहते हुए भी पड़के पत्ताकी तरह मेरु के अग्रभागको और अहादिकको स्पर्श करनेकी शक्ति । १०, प्राकाम्य शक्ति जमीनकी तरह पानी में चलनेकी और जलकी तरह जमीनपर भी उन्मजन निमनन करने (नहाने, धोने, डुबकी लगाने की शक्ति। ११. ईशत्व शक्ति-चक्रवर्ती और इंद्रकी ऋद्धिका विस्तार करनेकी शक्ति। १२. वशित्व शक्ति-स्वतंत्र, ऋरसे क्रूर प्राणियोंको भी वश करनेकी शक्ति। १३. अप्रतियाती शक्ति-छिद्रकी तरह पर्वतके बीचमेंस भी बेरोक निकल जानेकी शक्ति । १४, अप्रतिहत अंतान शक्ति-पवनकी तरह सब जगह अश्यरूप धारण करनेकी शक्ति। १५. कामरूपत्र शक्ति एकट्टी समयमें अनेक प्रकारके रूपांस लोकको पूर्ण कर देने की शक्ति। १-मंध्या में १५ की शक्तियाँ वैलियलब्धि श्राबाती हैं। यानी क्रियान्विवालमें यं गलियाँ होती है। इन्हें मिदियाँ भी कहते हैं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ भव-धनसेठ [१०३ - १६. बीजबुद्धि - एक अर्थरूपी वीजसे अनेक अथरूपी चीजोंको जान सके ऐसी शक्ति। (अर्थात-जैसे किसान अच्छी जोती हुई जमीनमें वीज बोता है और उससे अनेक बीज होते है, इसी तरह ज्ञानावरणादि कमों के क्षयोपशमकी अधिकतासे एक अर्थरूपी वीजको जानने-सुननेसे अनेक अर्थरूपी वीजोंको जानता है, उसे बीजवुद्धि लब्धि कहते हैं। १७. कोष्टबुद्धि-इससे कोठेमें रखे हुए धान्यकी तरह पहले सुने हुए अर्थ, स्मरण किए बगैर भी यथास्थित रहते हैं। १८. पदानुसारिणी लब्धि-इससे श्रादि, अंत या मध्यका एक पद सुननेसे सारे ग्रंथका बोध हो जाता है। (किसी सूत्रका एक पद सुननेसे अनेक श्रुतोंमें जो प्रवृत्त होता है उसे भी पदानुसारिणी लब्धि कहते हैं।) १९. मनोवली लब्धि-इससे एफ. वस्तुका उतार फरके यानी एक बातको जानकर अंतर्मुहुर्तमें सारे श्रुतसगुद्रका अवगाहन किया जा सकता है। १-मफे तीन भेद हैं। (6) नुतपदानुमारिस पहला पद या 34 मुगार गारमिनारनामे प्रान होती है गानों सारे गा माला । (क) Ffitwareignारणीस पद मुनका सुरTER है। (1) मारनी पप गुगार, मामे siniti Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] त्रिषष्टि शलाका पुनम-चरित्रः पत्र १. वर्ग १. __ '३० वागवली लब्धि-इसमें एक मुल मुलाहर गिननी चान्नासे नारे शान्त्रका पाठ किया जा सकता है। ___ २१ कायवली लन्धि-इनले त समयक योलग कर निनाची दह स्थिर रहनयर भी थकान नहीं होती है। २२. अमृत-झीरमध्चाच्याश्रति लधि-इल पात्रमें पड़े म ऋल्लिन-वगाव ऋगने भी ऋत, हार, मधु और बी वगैगचा रस आता है और कुन्नी पीड़ित लोगोंची इन लविवानेत्री बानी अनर मधु और बी जैदी शादि देनवाली होती है। २२. अमीण महानतीलविइन पात्र में पड़े हुए अन्नमें से कितनाही दान दिया जानवर भी वह अन्न चायन रहता है. समान नहीं होता है। २३. अभीणमहालय लचि- इन तीर्थयात्री पर्याची दह थोड़ी जगहने भी अन्य प्राणियों दिया जानता है। *१६,२०,२२वायटीनविय तगमयपगाने प्रगट होती है। १- छन्दि गेटमन प्रवर्थी, इसरि उन्होंने क. पार पत्रलाई ईन्दर नदीकाका गया था। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ भव-धनसेठ [ १०५ - - - २४. संमिनीत लब्धि-इससे एक इंद्रीसे दूसरी इंद्रियोंके विपयों का ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है। २५. जंघाचारण लब्धि-इस लब्धिवाला एकही कदममें जंबूद्वीपसे रुचकद्वीप पहुँच सकता है; और लौटते समय एक कदममें नंदीश्वर द्वीप और दूसरे कदममें अबूद्वीप यानी जहाँ से चला हो वहीं पहुँच सकता है। और अगर ऊपरकी तरफ जाना हो तो एक कदममें मेरु पर्वनपर स्थित पांडक उद्यान में जा सकता है व लौटते समय एक कदम नंदनवन में रख दूसरे कदममें जहाँसे चला हो वहीं पहुँच जाता है। २६. विद्याचारण लब्धि-इस लब्धिवाला एक कदममें मानुपोत्तर पर्वतपर, दूसरे कदममें नंदीश्वरद्वीप और तीसरे फदगमें रवाना होनेकी जगापर पहुँच सकता। और उपर जाना हो तो जघाचरणसे विपरीन गमनागमन (जाना आना) फर सकता। ये सारी लब्धियां वनचादि मुनियों के पास थी । इन अलाया पासीविष लधि और दानिलाभ पहुंचाने वाली कई - - - -मलपिया.! मी निमसे सुन सकता है दियों के नियोको मागमा साइन होता; शमी (ER) म. सोमrest in En पर है। :- 1 : Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व १. सर्ग १. दूसरी लब्धियाँ भी उनको मिली थीं। मगर इन लब्धियोंका उपयोग वे कभी नहीं करते थे। सच है "मुमुक्षत्रो निराकांक्षा वस्तुपस्थितेष्वपि ।" [मोन जाने की इच्छा रखने वाले मिली हुई वस्तुओंकी भी इच्छा नहीं रखते, यानी उनका उपयोग नहीं करने ।] (८८४-८८१) यत्र वचनाम स्वामीन बीस स्थानककी आराधना करके दृढ़तीर्थकर नाम-गोत्रकर्म उपार्जन किया। उन बीस स्थानोंकापदोंका वर्णन नीचे दिया जाना है। १. अरिहंत पद- अरिहनोंकी और अरिहंतोंकी प्रतिमाकी पूजा करनेसे, उनकी अच्छे अर्थवाली स्तुति करनेसे और उनकी निंदा होती हो तो उसका निषेध करनेसे इस पढ़की श्राराधना होती है। २. सिद्ध, पद-सिद्धस्थानों में रहे हुए सिद्धोंकी भक्तिके लिए लागरणका उत्सव करनेसे तथा यथार्यरीत्या सिद्धनाका कीर्तन-मजन करनेसे इस स्थानकी आराधना होती है। ३. प्रवचन पद बालक, बीमार और नये दीक्षित शिष्य वगैरा यतियोंपर अनुग्रह करने और प्रवचनका यानी चतुर्विध संघ अथवा जनशासनपर वात्सल्य स्नेह रखनेसे इन स्थानककी श्राराधना होती है। ४. आचार्य पद-बड़े श्रादरके साथ आहार, दवा, और कपड़े वगैरके दान द्वारा गुनके प्रति वात्सल्य या भक्ति दिखानेसे इस पदकी श्राराधना होती है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. १२. ब्रह्मचर्य पद- अहिंसादिक मूलगुणोंमें और समिति आदि उत्तरगुणोंमें अतिचाररहित प्रवृत्ति करना बारहवीं ब्रह्मचर्यस्थानक अाराधना है। १३. समाधि पद-पल पल और क्षण क्षण प्रमाद छोड़कर शुभध्यानमें लीन रहना तेरहवीं समाधि आराधना है। - १४. तप पद-मन और शरीरको पीड़ा न हो, इस तरह यथाशक्ति तप करना चौदहवीं तपस्थानक आराधना है। १५. दान पद-मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक तपस्वियोंको अन्नादिकका यथाशक्ति दान देना पंद्रहवीं दानस्थानक अाराधना है। १६. वैयावृत्य पद या वैयावच्च पद- आचार्यादि दसका, अन्न, जल, और आसन वगैरहसे वैयावृत्य-भक्ति करना सोलहवीं वैयावृत्यस्थानक आराधना है। १७. संयम पद-चतुर्विध संघके सभी विघ्नोंको दूर करके मनमें समाधि (संतोष ) उत्पन्न करना सत्रहवीं संयमस्थानक आराधना है। १८. अभिनवज्ञान पद--अपूर्व ऐसे सूत्र और अर्थ इन दोनोंका प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना अठारहवीं अभिनवज्ञान स्थानक आराधना है। १. जिनेश्वर, सूरि, बाचक, मुनि, बालमुनि, स्थाविर मुनि, ग्लान ( रोगी ) मुनि, तपस्वी मुनि, चैत्य और श्रमसंघ-ये दस । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. - - १२. ब्रह्मचर्य पद- अहिंसादिक मूलगुणों में और समिति श्रादि उत्तरगुणोंमें अतिचाररहित प्रवृत्ति करना बारहवीं ब्रह्मचर्यस्थानक आराधना है। १३. समाधि पद-पल पल और चूण क्षण प्रमाद छोड़कर शुमध्यानमें लीन रहना तेरहवीं समाधि आराधना है। १४. तप पद-मन और शरीरको पीड़ा न हो, इस तरह यथाशक्ति तप करना चौदहवीं तपस्यानक अाराधना है। १५. दान पद-मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक तपस्त्रियोंको अन्नादिकका यथाशक्ति दान देना पंद्रहवीं दानस्थानक अाराधना है। १६. यावृत्य पढ़ या यात्रच्च पद- प्राचार्यादि इसका, अन्न, जल, और श्रासन वगैरहसे बैंयावृत्य-भक्ति करना सोलहवीं बैंयावृत्यस्थानक आराधना है। १७. संयम पद-चतुर्विध संघ सभी विन्नीको दूर करके मनमें समाधि (संतोष ) उत्पन्न करना सत्रहवीं संयमस्थानक अाराधना है। १८. अमिनयनान पद--अपूर्व ऐसे सूत्र और अर्थ इन दोनोंका प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करना अठारहवीं अमिनबन्नान स्थानक धारावना है। - १. जिनेश्वर, रि, बाचक, मुनि, दाजमुनि, स्थाविर मुनि, ग्लान (रोगी) मुनि, तबली मुनि, चैत्य और श्रमयमंघ-ये दस। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ भव-धनसेठ [१०६ - १९. श्रत पद--श्रद्धासे, उद्भासन-प्रकाशनसे और अवर्णवाद-निंदाको मिटाकरके श्रुतज्ञानकी भक्ति करना उन्नीसवीं श्रुतस्थानक आराधना है। २०. तीर्थ पद-विद्या, निमित्त, कविता, वाद और धर्मकथा आदिसे शासनकी प्रभावना करना बीसवीं तीर्थस्थानक आराधना है। इस बीस स्थानकोंमेंसे एक एक पदकी आराधना भी तीर्थंकर नामकर्मके बंधनका कारण होती है; परन्तु वजनाभ मुनिने तो इन बीसों स्थानकोंकी आराधना करके तीर्थंकर नामकर्मका बंध किया था। (८८२-६०३) ___ बाहु मुनिने साधुओंकी सेवा करके चक्रवर्तीके भोग-फलोंको देनेवाला कर्म बाँधा । (६०४) तपस्वी मुनियोंकी विश्रामणा-सेवासुश्रुषा करके सुबाहु मुनिने लोकोत्तर बाहुबल उपार्जन किया । (६०५) तब बज्जनाभ मुनिने कहा, "अहो ! साधुओंकी वैयावच्च और विश्रामणा ( सेवा-सुश्रूषा ) करनेवाले इन बाहु और सुबाहु मुनियोंको धन्य है।" (६०५-६०६) . तब प्रशंसा सुनके पीठ और महापीठ मुनियोंने सोचा कि जो लोगोंका उपकार करते हैं उन्हींकी तारीफ होती है। हम दोनों आगमोंका अध्ययन करने और ध्यान करने में लगे रहे, इसलिए किसीका कोई उपकार नहीं करसके, इसलिए हमारी तारीफ कौन करेगा ? अथवा सभी लोग अपना काम करनेवालेही को मानते है । (६०७-६०८ ) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११.] त्रिषष्टि शन्ताका पुरुष-चरित्रः पर्व १, सर्ग १. इस तरह माया-मिथ्यात्वसे युक्त इर्षा करके, इस घुरे कामकी आलोचना न करके उन्होंन श्रीनामकर्म-श्रीपर्याय जिससे मिले ऐसा नामकर्म बाँधा । (६) उन छहों महर्षियोंने तलवारकी धाराके समान संयमका, अतिचाररहित, चौदहलाख पूर्व (समयविशेष) तक पालन किया। फिर धीर उन छहों मुनियोंन दोनों तरहकी संलेखनापूर्वक पादोपरामन अनशन अंगीकार कर, उस देश का त्याग किया। (६१-६११) बारहवाँ भव छहों सर्वार्थसिद्धि नामके पाँचवें अनुत्तर विमानमें देतीस सागरोपमकी श्रायुवान देवना हुए। (३११) आचार्य श्री हेमचंद्रविरचित त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्र महाकाव्यके प्रथम पर्वमें, धन आदिक बारह भवोंका वर्णन करनेवाला--- प्रथम मर्ग पूरा हुआ। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __सर्ग दूसरा १. सागरचंद्रका वृत्तांत इस जवूद्वीपके पश्चिम महाविदेहमें, शत्रुओंसे जो कभी पराजित नहीं हुई-धारी नहीं, ऐसी अपराजिता नामकी नगरी थी। उस नगरी में ईशानचंद्र नामका राजा था। उसने अपने चलसे जगतको हराया था और लक्ष्मीसे वह ईशानंद्रके समान मालूम होता था। (१-२) उसी शहरमें चंदनदास नामका सेठ रहना था। उसके पास बहुत धन था। वह धमात्मा पुरुषों में मुख्य और दुनिया. फो मुख पहुँगाने चंदनके समान था। (३) उसके सागरचंद नामका पुत्र था। उससे दुनिगाकी प्रोन्न टंडी होनी थीं। समुह जैसे चंद्रमाको आनंदित करना सही या पिनाको प्रानंदित करना था । स्वभाव सही या मरल, धार्मिक और विवेकी था। इससे मारे नगरका बा, गुवमंटन (निलफ) हो गया था (१-५) एक दिन मागरचंद राजयनग-दरबार में गगा । यहाँ राजा ( सिंहासन पर बैठा भा) और उममें मुजरा करने और अपनी सेवा करने लिए गए माना गारो नरपेट । गजाने मागका उममे पिनाही ही मरद, समन, गांगुनदान (पान-बाना ना ) यग में नमार फिया लार पड़ा . मायामा । ६) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पत्र ? सर्ग २. उस समय कोई मंगलपाठक (चारण) दरबार में श्राया और शंत्रकी ध्वनिको मी यादेनवाली ऊंत्री आवा लगा, "हे राजा, अाज अापकं उद्यानमें उद्यानपालिका-मालिनकी तरह फ्लॉको सजानेवाली बसंतलक्ष्मीका आगमन हुआ है, इसलिए खिन्न हग फूलोंकी सुगंधमें दिशाओंके मुखको मुर्गवित करनवाल वाचको, श्राप इसी तरह मुशोमित क्रीलिए जिस तरह इंद्र नंदनयनको मुशोमिन करता है।" (-१०) मंगलपाठककी बात सुनकर राजान द्वारपालको पात्रा दी, "नगरमें हिंढोरा पिटवा दिया जाब कि कन्त संवरे समी राजोद्यानमें (गन्य बाग) नाएँ। फिर उसने सागरचंद्रमें भी कहा, "तुम मी सवर बागमें श्राना। यह स्वामीकी बुशीका बिद्ध है। (११-१२) राजाने अादा पाकर सागरचंद्र वुशी वुशी अपने घर गया और उसने अपने मित्र अशोकचकी रानाकी श्राना सुनाई। (१३) दुसरं दिन राजा अपने परिवार सहित बागमें गया । शहरों लोग मी यहाँ गए। प्रजा गजाका अनुकरण करती है। सागरत्रंद्र भी अपने मित्र अशाऋदत्तकै साथ उद्यान में इसी तरह गया जिस तरह मलय पवननाथ वनंत ऋतु आती है। वहाँ कामदेव शासनमें समी लोग पल चुनकर, गीत, नाच वर्गगं क्रीडा करने लग जगह जगह इकटे होकर क्रीडा करने हुग नगरके लोग, (इम बागकी) राजा कामदेव पड़ावके साथ तुलना करने लगे। पद-पदपर गायन योर. वादनकी ध्वनि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सागरचंद्रका वृत्तांत . [११३ इस तरह हो रही थी मानों वह दूसरी इंद्रियोंके विषयोंको जीतने के लिए निकली है । (१४-१८) . . . . . उसी समय पासकी किसी वृक्षोंकी सुरभुटमेंसे स्त्रीकंठसे निकलती हुई "रक्षा करो! रक्षा करो!' की आवाज सुनाई दी। सुनतेही सागरचंद्र उस तरफ आकर्षित हुआ और ' क्या है? क्या है ?' कहता हुआ जल्दीसे आवाजकी तरफ दौड़ा। वहाँ • जाकर उसने देखा, कि भेड़िया जैसे मृगीको पकड़ता है वैसेही पूर्णभद्र सेठकी पुत्री प्रियदर्शनाको बंदीयोंने (बदमाशोंने) पकड़ रक्खा है। सागरचंद्रने एक बदमाशके हाथसे छुरी इस तरह छीन ली जिस तरह सर्पकी गरदन मोड़कर मणि निकाल लेते है। उसकी यह वीरता देखकर दूसरे बदमाश भाग गए । कारण, "व्याघ्रा अपि पलायंते ज्वलज्ज्वलनदर्शनात् ।" [ जलती आगको देखकर व्याघ्र भी भाग जाते हैं। ] सागरचंद्रने प्रियदर्शना को इस तरह छुड़ाया जिस तरह लकड़हारेके पाससे आम्रलता छुड़ाई जाती है। उस समय प्रियदर्शनाको विचार आया, " परोपकार करने के व्यसनियोंमें मुख्य यह कौन है ? अहो ! यह अच्छा हुआ कि मेरी सद्भाग्यरूपी संपत्तिसे आकर्षित होकर यह पुरुष यहाँ आया। कामदेवके रूपका भी तिरस्कार करनेवाला यह पुरुष मेरा पति हो।" इस तरह विचार करती हुई प्रियदर्शना अपने घरकी तरफ रवाना हुई । सागरचंद्र भी, मूर्ति स्थापित की गई हो इस तरह प्रियदर्शनाको अपने हृदय-मंदिरमें रखकर मित्र अशोकदत्त के साथ घर गया। (१६-२७) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग २. धीरेधीरे चंदनदासको यह बात मालूम हुई। ऐसी बातें गुप्त भी कैसे रह सकती है ? चंदनदासने अपने दिलमें सोचा, "इस पुत्रका प्रियदर्शनापर प्रेम हुया, यह उचितही है। कारण, कमलिनीकी मित्रता राजहंसके साथही होती है। परंतु उसने वीरताका काम किया, यह अनुचित हुआ। कारण, पराक्रमी बनियोंको भी अपना पराक्रम प्रकट नहीं करना चाहिए। फिर सागरचंद्र मुरल स्वभावका है। उसकी मित्रता मायावी अशोकदत्त से हुई है यह अयोग्य है । इसका साथ इसी तरह बुरा हैं जिस तरह केलके साथ वेरका संग अहितकर होता है।" इस तरह बहुत देरतक सोचनेके बाद उसने सागरचंद्र कुमारको बुलाया और जैसे उत्तम हाथीको उसका महावत शिक्षा देना श्रारंभ करता है वैसेही चंदनदासने सागरचंद्रको मीठी वाणीमें उपदेश देना शुरू किया। (२८-३२) ___हे पुत्र ! सब शास्त्रोंका अभ्यास करनेसे तुम व्यवहारको अच्छी तरह समझते हो, तो भी मैं तुमसे कुछ कहता हूँ। हम वणिक कला-कौशलसे निर्वाह करनेवाले हैं, इसलिए हमें अनुट (सौम्य ) स्वभाव व मनोहर वेपसे रहना चाहिए। इस तरह रहनेहीसे हमारी निंदा नहीं होती; इसलिए इस जवानीमें भी तुमको गढ पराक्रमी (वीरताको गुप्त रखनेवाला) होना चाहिए । वणिक लोग सामान्य अर्थके लिए भी आशंकायुक्त वृत्तिवाने कहलाते हैं। त्रियोंका शरीर जैसे ढका हुआही अच्छा लगता है वैसेही, हमारी संपत्ति, विषयक्रीड़ा और दान ये सभी गुप्तही अच्छे लगते हैं। जैसे ऊँटके परोम बंधा हुया सोनेका कंकरण नहीं शोमता वैसेही अपनी जातिके लिए अयोग्य (पराक्रमका ) काम करना भी हमें नहीं शोभता ! इसलिए Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत .. ११५ - - हे प्रिय पुत्र ! अपने कुलपरंपरासे आए हुए योग्य व्यवहार करनेवाले बनकर तुम्हें धनकी तरह गुणको भी गुप्त रखना चाहिए। और जो स्वभावसेही कपटी हों उन दुर्जनोंको संगति छोड़ देना चाहिए । कारण 'सोऽलर्कविषवतकालेनापि यात्येव विक्रियाम् ।" [वह ( दुर्जनकी संगति ) पागल कुत्तेके जहरकी तरह समय पाकर विकृत होती है-नुकसान पहुँचाती है ।] हे वत्स ! तेरा मित्र अशोकदत्त अधिक परिचयसे तुझे इसी तरह दूषित करेगा जिस तरह कोढ़का रोग, फैलनेसे, शरीरको दूषित करता है । यह मायावी वेश्याकी तरह सदा मनमें जुदा, वचनमें जुदा और काममें जुदा होता है ।" (३३-४१) . सेठ इस तरह आदर सहित उपदेश करके चुप रहा, तब सागरचंद्र मनमें सोचने लगा, "पिताजी ऐसा उपदेश करते हैं, इससे जान पड़ता है कि प्रियदर्शनाके संबंधकी बात इनको मालूम होगई है। और पिताजीको यह मेरा मित्र अशोकदत्त संगति करने लायक नहीं मालूम होता है। ऐसे ( उपदेश देनेवाले ) गुरुजन भाग्यहीनोंकेही नहीं होते। ठीक है, इनकी इच्छा पूरी हो ।" इस तरह थोड़ी देर सोचकर सागरचंद्र विनय सहित नम्रवाणीमें बोला, “पिताजी, आपकी आज्ञाके अनुसार मुझे चलनाही चाहिए। कारण, मैं आपका पुत्र हूँ । जिस कामको करनेसे गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लंघन होता है उस कामको नहीं करना चाहिए। मगर कई बार दैवयोगसे, अकस्मात ऐसा काम आ पड़ता है कि जिसके लिए, विचार करनेमें थोड़ासा समय भी नहीं खोया जासकता। जैसे किसी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. संर्ग २. मूर्ख मनुष्यकी पर्ववेला ( पर्वका समय ) पैरोंको पवित्र करनेमेंही बीत जाती है वैसेही कुछ काम ऐसे होते हैं जिनका समय विचार करने में बीत जाता है (और काम विगढ़ जाता है) फिर भी हे पिताजी! अबसे, प्राणोंपर संकट आनेपर भी, कोई ऐसा काम न करूँगा जिससे आप लन्नाका अनुभव करें। और आपने अशोकदत्तके बारे में कहा, मगर मैं न तो उसके दोपोंसे दूषित हूँ और न उसके गुणोंसे गुणीही हूँ। सदाका सहवास,एकसाथ धूलमें खेलना, बार बार मिलना, समान जाति, समान विद्या, समान शील, समान वय और परोक्षम भी उपकारिता और सुखदुःखमें हिस्सा लेना-आदि कारणोंसे मेरी उसके साथ मित्रता हुई है। मुझे इसमें कोई कपट नहीं दिखता । उसके संबंध आपको किसीने मठी बातें कही है। कारण "......"खलाः सर्वकपाः खलु ।" . [दुष्टलोग दूसरोंको दुखी करनेवालेही होते हैं।] यदि वह मायावी होगा तो भी वह मेरा क्या नुकसान कर सकेगा ? कारण"एकत्र विनिवेपेऽपि काचः काचो मणिर्मणिः ।।" [एक साथ रखें रहनेपर भी काच काचही रहेगा और मणि मगिही रहेगा।] (४२-५८) सागरचंद्र इस तरह कहकर चुप रहा तब सेठ बोला,"पुत्र! यद्यपि तुम बुद्धिमान हो तो भी मुझे कहनाही पड़ता है। कारण ___......"दलेक्षा हि पराशयाः।" Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत ... [ ११७ [दूसरोंका आशय-दूसरोंके मनकी बात-जानना कठिन है। ] ( ५५) फिर पुत्रकी भावनाको जाननेवाले सेठने शीलादिक गुणोंसे पूर्ण प्रियदर्शनाको, पूर्णभद्र सेठसे (अपने पुत्र के लिए) माँगा। पूर्णभद्र सेठने यह कहकर उसकी माँगको स्वीकार किया, कि आपके पुत्रने तो उपकारके द्वारा पहलेही मेरी पुत्रीको खरीद लिया है। शुभ दिन और शुभ मुहूर्तमें मातापिताने सागरचंद्रका प्रियदर्शनाके साथ ब्याह कर दिया। इच्छित दुंदुभि बजनेसे जैसे आनंद होता है वैसेही मनवांछित ब्याह होनेसे वधू-वरको बहुत प्रसन्नता हुई। समान अंत:करण (भावना) वाले होनेसेएक आत्मावाले हों इस तरह उनकी प्रीति सारस पक्षीकी तरह बढ़ने लगी। चाँदसे जैसे चाँदनी शोभती है वैसेही निरंतर उदयवाली और सौम्य ( मोहक ) दर्शनवाली प्रियदर्शना सागरचंद्रसे शोभने लगी। चिरकालसे घटना करनेवाले दैवके योगसे उस शीलवान, रूपवान और सरलतावाले दंपतिका उचित योग हुआ.। एक दूसरेपर विश्वास था इसलिए उनमें कभी अविश्वास तो उत्पन्नही नहीं हुआ। कारण, सरल आशय (विचार ) वाले कभी विपरीत शंका नहीं करते। (५६-६३) एक बार सागरचंद्र जब बाहर गया हुआ था तब अशोकदत्त उसके घर आया और प्रियदर्शनासे कहने लगा, "सागरचंद्र हमेशा धनदत्त सेठकी स्त्रीसे एकांतमें मिलता है, इसका क्या कारण है ?" (६४-६५) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पव १. सग २. स्वभावसेही सरल मनवाली प्रियदर्शना बोली, "इसका कारण तुम्हारे मित्र जाने या सदा उनके दूसरे दिलके समान तुम जानो। व्यवसायी महत्पुरुपोंके एकांतसूचितकार्य कौन जान सकता है ? और जो जानता है वह घर क्यों कहेगा ?" (६६-६७ ) __अशोकदत्तने कहा, " तुम्हारे पति उसके साथ एकांतमें मिलते हैं, इसका अभिप्राय मैं जानता हूँ; परंतु वह बताया कैसे जा सकता है ?"६८) प्रियदर्शनाने पूछा, "वताइए, क्या अभिप्राय है ?" अशोकदत्त बोला, " हे सुभ्र ! नो अभिप्राय मेरा तुम्हारे साथ है, वही अभिप्राय उसका उसके साथ है।" (६) इस तरह अशोकदत्तन कहा तो भी उसका मतलब वह नहीं समझी और उस सरल मनवाली प्रियदर्शनाने पूछा,"मुझ से तुम्हें क्या काम है " उसने कहा, "हे सुभ्र! तुम्हारे पति के सिवा दूसरे किस रसन्न और सचेतन पुरुषको तुमसे काम न होगा ?"(७०-७१) अशोकदत्तकी इच्छाको सूचित करनेवला उसका बचन प्रियदर्शनाके कानमें सूईकी तरह चुभा । वह नाराज हुई और सर मुका कर बोली," हे नराधम !हे निर्लज्ज ! तूने ऐसी बात कैसे सोची ? अगर सोची तो उसे जवानपर क्यों लाया ? मुर्ख ! तेरे इस दुःसाहसको धिक्कार है । और हे दुष्ट ! मेरे महात्मा पतिको तू अपने समान होनेकी संभावना करता है, यह मित्रके बहाने तू शत्रुका काम कर रहा है । तुझे धिक्कार Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [११६ है। हे पापी ! तू यहाँसे चला जा ! खड़ा न रह ! तुझे देखनेसे भी पाप होता है ।"(७२-७५) इस तरह अपमानित होकर अशोकदत्त चोरकी तरह वहाँसे निकला। गोहत्या करनेवालेके सामन, पापरूपी अंधकारसे मलिन मुखवाला, खीजता हुआ अशोकदत्त चला जाता था। उस समय सामने आते हुए सागरचंद्रने उसे देखा और उस साफ मनवालेने उससे पूछा, "हे मित्र ! तुम दुखी क्यों दिखते हो ?” (७६-७७) मायाके पर्वतके समान अशोकदत्तने दीर्घ निःश्वास डाला और मानो महान दुःखसे दुखी हो ऐसे होठ चढ़ाकर कहा," हे भाई ! जैसे हिमालयके पास रहनेवालोंके लिए ठिठुर जानेका हेतु प्रकट है वैसेही, इस संसारमें रहनेवालोंके लिए दुःखके कारण भी प्रकटही हैं । तो भी बुरी जगहपर उठे हुए फोड़ेकी तरह यह बात न गुप्तही रक्खी जा सकती है और न प्रकटही की जा सकती है।"(७८-८०) इसतरह कह आँखों में आँसू भर आनेका कपट दिखावाकर . वह चुप रहा। तब निष्कपट सागरचंद्र विचार करने लगा,"अहो! यह संसार असार है। इसमें ऐसे पुरुषोंको भी अचानक ऐसी शंकाकी जगह मिल जाती है। धुआँ जैसे पागकी सूचना करता है वैसेही धैर्यसे नहीं सहने लायक इसके आंतरिक दुःखको जबर्दस्ती इसके आँसू प्रकट करते हैं।" (८१-८३ ) कुछ देर इसी तरह सोच, उसके दुःखसे दुखी, सागरचंद्र पुन: गद्गद स्वरमें बोला,"हे बंधु ! अगर कहने लायक हो तो इसी समय, तुम अपने दुःखका कारण मुझे बताओ और मुझे Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. अपने दुःखका भाग देकर दुःखका भार कम करो।"(52-८५) अशोकदत्तने कहा, "हे मित्र ! तुम मेरे प्राणों के समान हो तुमसे जब दूसरी भी कोई बात छिपाकर नहीं रखी जा सकती तब यह तो छिपाईही कैसे जा सकती है ? तुम जानते हो कि दुनिया औरतें, अमावसकी रातें जैसे अर्धकार पैदा करती हैं वैसे ही, अनर्थ पैदा करती हैं।" (८६-८७) सागरचंद्रने पूछा, "परंतु माई ! इस समय तुम नागिनके समान किसी स्त्रीके संकटमें पड़े हो "(८८) ___ अशोकदत्त, बनावटी शरमका दिखावा करके,बोला,"प्रियदर्शना बहुत दिनोंसे मुझे अनुचित बात कहा करती थी, मगर मने यह सोचकर, अवज्ञाके साथ उसकी उपेक्षा की कि वह श्रापही ललित होकर चुप हो रहेगी; मगर उसने तो असतीके लायक बातें कहना बंद नहीं किया। कहा है, "......अहो स्त्रीणामसद्ग्रहाः।" [अहो ! स्त्रियोंका अनुचित प्राग्रह कितना होता है ? हे बंधु ! आज मैं तुमसे मिलनेके लिए तुम्हारे घर गया था। तब छलको जाननेवाली उस स्त्रीने राक्षसीकी तरह मुझे रोका । मगर हाथी जैसे बंधनसे छूटता है वैसेही मैं बहुन कोशिशके बाद इसके बंधनसे छूटा और जल्दी जल्दी वहींसे चला धारहा हूँ। मैंने रस्तमं सोचा,"मेरी जिंदगी तक यह औरत मुमको नहीं छोड़ेगी इसलिए मुझे यात्मवात करलेना चाहिए मगर मरना भी तो ठीक नहीं है। कारण, यह स्त्री मेरे लिए इसी तरह कहेगी या इसके विपरीत पुछ कहेगी ? इसलिए मैं खुदही अपने मित्रको सारी वातें बता , जिससे वह स्त्रीपर विश्वास करके अपना नाश न Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सागरचंद्रका वृत्तांत [१२१ - - - करे। अथवा यह भी ठीक नहीं है। कारण, मैंने उस स्त्रीकी इच्छा पूरी नहीं की तब मैं क्यों उसके दुःशीलकी बात कहकर तुम्हारे घावपर नमक छिड़कूँ ? इसी तरह के विचार करता जा रहा था कि तुमने मुझे देखा। हे भाई ! यही मेरे दुःखका कारण है।" (८६-६८) . उसकी बातें सागरचंद्रको ऐसी लगीं मानों उसने हालाहलभयंकर जहर पिया हो और वह हवा विनाके समंदरकी तरह स्थिर हो गया। फिर उसने कहा, "स्त्रियों के लिए यही ठीक है। कारण, खारी जमीनके तालमें खारा जलही होता है । हे मित्र ! अब अफसोस न करो; अच्छे कामों में लगो; स्वस्थ होत्रो और उसकी बातें याद मत करो। हे भाई ! वह सचमुचही चाहे जैसी भी हो; परंतु हम मित्रोंके मनमें मलिनता नहीं आनी चाहिए।" (६६-१०२) सरल स्वभाववाले सागरचंद्रकी ऐसी प्रार्थनासे अधम अशोकदत्त खुश हुआ। कारण मायाचारी लोग अपराध करके भी अपनी आत्माकी तारीफ कराते हैं।" ( १०३ ) . उस दिनसे सागरचंद्र प्रियदर्शनासे स्नेहरहित हो, उसके साथ इस तरह रहने लगा जैसे रोगी उँगलीको दुःखी होकर रखा जाता है। कारण, "वंध्याप्युन्मूल्यते नैव लता या लालिता स्वयम् ।" - [खुदने सींची हुई बेल यदि वंध्या होती है-फलफूल नहीं देती है तो भी वह उखाड़कर फैकी नहीं जाती।] (१०४-१०५) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. प्रियदर्शनाने भी यह सोचकर अशोकदत्तकी बात अपने पतिसे नहीं कही कि मेरे कारण मित्रोंमें कोई जुदाई न आवे । (१०६) सागरचंद संसारको दिखाने के समान मानकर सारी धन-दौलत दीनी और अनाथोंको देकर उन्हें कृतार्थ-निश्चित करने लगा। समयपर प्रियदर्शना सागरचंद्र और अशोकदत्त ये तीनों अपनी अपनी उमें पूरी कर परलोक गए । (१०७-१०८) सागरचंद्र और प्रियदर्शना, इस जंबूदीपमें, भरतक्षेत्रके दक्षिण खंडम, गंगा-सिंधुके मध्यप्रदेशमें, इस अवसर्पिणीके तीसरे पारमें पल्योपमका श्राठवाँ भाग बाकी रहा था नव युगलिया रूपमें उत्पन्न हुए। (१०६-११०) .. पाँच भरन और पाँच ऐरावत क्षेत्रांम समयकी व्यवस्था करनेका कारणरूप बारह पारोंका एक कालचक्र गिना जाता है। बह काल अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके भेदसे दो तरहका है। अवसर्पिणी कालके छः प्रारं हैं । वे नाम सहित नीचे दिए जाते है: १. एकांत मुपमा- यह पारा चार कोटाकोटि सागरोपमका होता है। २. सुपमा यह तीन कोटाकोटि सागरोपमका होता है। (१) चूद्री एक, धातकी ग्लंडमें दो और पुष्कराई में दी इस तरह पाँच भात और पाँच ऐरावत क्षेत्र जानने चाहिए । (२) अयसुपिणी इतरता । (३) उरसपिग-चढ़ता। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१२३ ३. सुषमा दुखमा-यह दो कोटाकोटि सागरोपमका होता है। १. दुखमा सुषमा-यह बयालीसहजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपमका होता है। ५. दुखमा- यह इक्कीसहजार वर्षका होता है। ६. एकांत दुखमा- यह भी इक्कीसहजार वर्षका होता है। जिस तरह अवसर्पिणीके आरे कहे हैं उसी तरह उत्सर्पिणीके भी प्रतिलोम क्रमसे छः आरे समझने चाहिए। (अर्थात-१. एकांत दुखमा, २. दुःखमा, ३. दुखमा सुखमा, ४. सुषमा दुःखमा, ५. सुषमा, ६. एकांत सुषमा ) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालकी संख्या कुल मिलाकर बीस कोटाकोटि सागरोपमकी होती है। इसे कालचक्र कहते हैं। (१११-११७) __ प्रथम बारेमें मनुष्य तीन पल्योपम तक जीनेवाले, तीन कोस ऊँचे शरीरवाले और चौथे दिन भोजन करनेवाले होते हैं । वे समचतुरस्रसंस्थानवाले, सभी लक्षणोंसे लक्षित (चिह्नोंवाले ), वज्जऋषभनाराचसंहननवाले और सदा सुखी होते हैं। वे क्रोधरहित, मानरहित, निष्कपट, निर्लोभी और स्वभावहीसे अधर्मका त्याग करनेवाले होते हैं। उत्तरकुरुकी तरह उस समय रातदिन उनकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाले मद्यांगादि इस तरहके कल्पवृक्ष होते हैं । (११८-१२१)। . १-मद्यांग नामके कल्पवृक्ष माँगनेसे तत्कालही उत्तम मद्य देते हैं । २-भृतांग नामके कल्पवृक्ष भंडारीकी तरह पान Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] त्रिषष्टि गन्नाचा पुन्य चरित्रः पर्व १. सन २. बनुन ते है ! ३-नुयांग नानल्या तीन नाइले बाने देते हैं। ?-दीपशिन्ता और ज्योतिविका नाममा अत्यंत प्रकाश देने है। ई-चित्रांग नानक कल्य विचित्र नरहने लॉत्री मानापन है। -विस नाना रसोइयोंकी नन्द्र अनेत्र नरहने भोजन देन है। -नयंग नाम उल्लङ्ग इच्छित आभूषण (उबर) देद है। :गेहाकार मच गंवत्रनगरकी नङ्गशभरमें अच्छे घर देने है! और ?:-अनन्न लन ननवाई ऋडे ते हैंइनमें अनेक नाकी ननवाही की भी है। (१२२-१२६) उनमय बनीन शकर भी बहुत अधिक स्वादिष्ट (झायनर होती है। नदी वनपालन जैसाठः होता है। मान्ने नमः वीरवार शायनाति और मडों का प्रभाव कम न होना जाता है। (१७-१८) सो पाने मनुष्य के योनी श्राशुत्राने दो ॐ शगवाले, और तीन दिन मोचन ऋग्ने बान है। समय लव कुछ समाधान वा कत्रावाली और बलपीछ करना होता है। इसने भी पहले करेली ददरेवानजी नलीनी जानी है दिल तथा हयात्री बने कानं हो जाती है। (१२०-१३१) तीनो ने मनुष्य काल्योम तक जीनवाने एक ओ ॐ शरीरले और दूसरे दिन भोजन ऋग्नवान होते हैं। इस बार भी पहले की लग्छ, गर्गर, अयुनीनी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत ... [१२५ मिठास और कल्पवृक्षोंकी महिमा क्रमशः कम होती जाती है। (१३२-१३३ ) चौथा आरा पहलेके प्रभावसे-कल्पवृक्षोंसे, पृथ्वीके स्वादसे और जलकी मधुरतासे-रहित होता है। उसमें मनुष्य एक कोटि पूर्वके आयुवाले और पाँचसौ धनुष ऊँचे शरीरवाले होते हैं। पाँचवें आरेमें मनुष्य सौ वर्षकी आयुवाले, और सात हाथ ऊँचे शरीरवाले होते हैं। छठे आरेमें मनुष्य केवल सोलह वर्षकी आयुवाले और सात हाथ ऊँचे शरीरवाले होते हैं। - एकांत दुखमा नामक आरेसे आरंभ होनेवाले कालमें इसी तरह पश्चानुपूर्विसे-अवसर्पिणीसे उल्टी तरहसे छः आरोंमें मनुष्योंकी स्थिति जाननी चाहिए ।(१३४--१३६) सागरचंद्र और प्रियदर्शना तीसरे आरेके अंतमें उत्पन्न हुए इसलिए वे नौसौ धनुषके शरीरवाले और पल्योपमके दसर्वे हिस्से की आयुवाले युगलिया हुए। उनका शरीर वज्वऋषभनाराचसंहननवाला और समचतुरस्त्रसंस्थानवाला था। मेघमालासे जैसे मेरुपर्वत शोभता है वैसेही जात्यसुवर्णकी ( खरे, सौटंचके सोनेकी) कांतिवाला वह युग्मधर्मी ( सागरचंद्रका जीव) अपनी प्रियंगु ( राईके ) वर्णवाली स्त्रीसे शोभता था। (१३७-१३६) अशोकदत्त भी पूर्वजन्मके किए हुए कपटसे उसी जगह सफेद रंग और चार दाँतवाला देवह स्तिके जैसा हाथी हुआ । एक. बार वह अपनी इच्छासे इधर-उधर फिर रहा था उस Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग २. समय उसने युग्मधर्मी जन्मे हुए अपने पूर्वजन्म मित्र सागरचंद्रको देवा । (१४०-१४१) (मित्रके ) दर्शनकपी अमृनकी धारा में जिसका शरीर व्यात होरहा है ऐसे उस हाथीके (मनमें ) बीजमेंसे जैसे अंकुर निकलता है वैसेही स्नेह उत्पन्न हुआ। इससे उसने अपनी गुंडसे, उसे (सागरचंद्रके जीवको) धानंद हो इस तरह, आलिंगन किया और उसकी इच्छा न होने हुए भी उसे उठाकर अपने कंधपर बिठा लिया। एक दूसरेको देखते रहने अभ्याससे उन दोनों मित्रोंको थोड़े समय पहल किए गए कामकी तरह पूर्वजन्म की याद आई। ___ उस समय चार दाँतवाले हाथाके कंधपर बैठे हुए सागरचंद्रको, अचरजसे प्रास्त्रे फैलाकर दूसरे गुगलिए, इंद्रकी तरह देखने लगे। बह, शंख, डोलरकं, फूल और चंद्रके जैसे विमल हाथीपर बैठा हुआ था इसलिए युगलियॉन उसको विमलवाहन के नामसे पुकारना शुरू किया । नातिन्मरण (पूर्वजन्मके) बानसे सब नरहकी नीतियों को जाननेवाला, विमलहाथीकी सवारीबाला और कुदरती सुंदररूपवाला वह सबसे अधिक (सन्माननीय) हया। (१४२-१४७) कुछ समय बीतनके बाद चारित्रभ्रष्ट अतियोंकी तरह कल्पवृक्षका प्रमात्र कम होने लगा। मद्यांग कल्पवृक्ष थोड़ा और विरम मद्य न लग.मानों वे (पुराने कल्पवृत्त नहीं है। वन उनकी जगह दूसरे कल्पवृक्ष रख दिए हैं। भृतोंग कल्पवृक्ष, दें या न दें, इस तरह सोचते हुए, और परवश हो इस तरह याचना करनेपर मी, देरस पात्र देन लगे। तूयांग कल्पवृक्ष ऐसा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१२७ संगीत करते थे मानो वे जबर्दस्ती बेगारमें पकड़कर लाए गए थे; दीपशिखा और ज्योतिष्क कल्पवृक्ष, बारवार प्रार्थना करनेपर भी, (रातके समय भी) दिनमें जैसे बत्तीका प्रकाश मालूम नहीं होता उसी तरह प्रकाश देते न थे; चित्रांग वृक्ष अविनयी और तत्काल आज्ञानुसार काम न करनेवाले सेवककी तरह इच्छानुसार फूलमालाएँ नहीं देते थे चित्ररस वृक्ष, दान देनेकी इच्छा जिसकी क्षीण होगई है ऐसे सत्रीकी (सदावत देनेवालेकी) तरह, चार तरहके विचित्र रसवाला भोजन पहलेकी तरह नहीं देते थे; मण्यंग वृक्ष, इस चिंतासे कि फिर कैसे मिलेंगे, व्याकुल होकर पहलेकी तरह आभूपण नहीं देते थे; व्युत्पत्ति ( कल्पना शक्तिकी) मंदतावाले कवि जैसे अच्छी कविता धीरेसें कर सकता है वैसेही गेहाकारवृक्ष घर धीरेसे देते थे और बुरे ग्रहोंसे रुका हुआ मेघ जैसे थोड़ा थोड़ा जल देता है वैसेही अनग्न वृक्ष वस्त्र देने में स्खलना पाने लगे-कमी करने लगे। उस कालके प्रभावसे युगलियोंको भी शरीरके अवयवोंकी तरह कल्पवृक्षोंपर ममता होने लगी। एक युगलिया जिस कल्पवृक्षका आश्रय लेता था उसीका दूसरा भी कर लेता था तो पहले श्राश्रय लेनेवालेका पराभव (हार) होता था; इससे परस्परका पराभव सहन करनेमें असमर्थ होकर युगलियोंने विमलवाहनको, अपनेसे अधिक (शक्तिशाली) समझकर, अपना स्वामी मान लिया। (१४८-१६०) जातिस्मरण ज्ञानसे नीतिको जाननेवाले विमलवाहनने, उनमें कल्पवृक्ष इसी तरह बाँट दिए जैसे वृद्धपुरुष अपने गोत्रवालोंमें (परिवारमें) धन बाँट देता है। यदि कोई दूसरेके कल्प Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. वृक्षकी इच्छासे मर्यादाका त्याग करता था तो उसको दंड देनके लिए. 'हाकार' नीति स्वीकार की । समुद्र के बारका जल से मर्यादा नहीं छोड़ता है, वैसेही "हा! तुमने यह बुरा काम किया !" ये शब्द सुनकर युगलिए नियम नहीं तोड़ते थे। वें शारीरिक पीड़ाको सहनकर सकते थे मगर 'हा! तुमने ऐसा किया ! इस वाक्यको वे सहन नहीं कर सकते थे। (इसे बहुत अधिक दंड सममते थे।) ( १६१-१६४ ) दुसरा कुलकर चक्षुष्मान जब विमलवाहनकी आयु छः महीनेकी बाकी रही तब उसकी चंद्रयशा नामकी बीसे एक युग्मका जन्म हुआ। वह युग्म असंत्यपूर्वकी आयुवाला प्रथम संस्थान और प्रथम संहननवाला, श्याम (कान) रंगका र आठसा यनुष प्रमाण ऊच शरीर वाला था। मातापिताने उनके नाम चक्षुष्मान और चंद्रकांता रखें। साथमें उगे हुए वृक्ष और लताकी तरह वे एक साथ बढ़ने लगे (१६५-२६७) छ: महीने तक अपने दोनों बालकोंका पालनकर, बुढ़ा। और रोगके बगैर मृत्यु पाकर विमलवाहन सुवर्णकुमार देवलोकन और उसकी स्त्री चंद्रयशा नागकुमार देवलोकमें उत्पन्न हुए। कारा "अस्तमोयुपी पीयूपकरे तिष्ठेन्न चंद्रिका ।" [चाँदकं छिप जानेपर चाँदनी भी नहीं रहती।] (१६८-१६६) १-मुवनातिका दम निकायों (सन्ह) मंझे नीचर निकाय २-हमरा निकाय Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१२६ - वहाँसे वह हाथी भी अपनी आयु पूर्णकर नागकुमारदेव हुआ। कालका महात्म्यही ऐसा है। (१७०) . . अपने पिता विमलवाहनकी तरह चक्षुष्मान भी 'हाकार' नीतिहीसे युगलियोंकी मर्यादाओंको चलाता रहा । (१७१) तीसरा कुलकर यशस्वी अंत समय निकट आया तब चक्षुष्मानकी चंद्रकांतासे यशस्वी और सुरूपा नामका युगलधर्मी जोड़ा पैदा हुआ। दूसरे कुलकरके समानही उनके संहनन और संस्थान थे। उनकी आयु कुछ कम थी। आयु और बुद्धिकी तरह वे दोनों क्रमशः बढ़ने लगे। साढ़ेसातसौ धनुप ऊँचे शरीर-परिमाण (नाप) वाले वे साथ साथ फिरते थे जो तोरणके खंभोंकी भ्रांति पैदा करते थेतोरण के खंभोंके समान लगते थे। (१७२-२७४) . आयु पूर्ण होनेपर मरकर चक्षुष्मान सुवर्णकुमारमें और चंद्रकांता नागकुमारमें उत्पन्न हुए । (१७५) यशस्वी कुलकर अपने पिताहीकी तरह, गवाल जैसे गायोंका पालन करता है उसी तरह, युगलियोंका लीलासे (सरलतासे) पालन करने लगा। मगर उसके समयमें युगलिए 'हाकार' दंडका क्रमशः इस तरह उल्लंघन करने लगे जिस तरह मदमाते हाथी अंकुशको नहीं मानते हैं । तव यशस्वीने उनको 'माकार' __दंडसे सजा देना शुरू किया। कारण-- "रोगे त्वेकौपधासाध्ये देयमेवौषधांतरम् ।" [अगर एक दवासे बीमारी अच्छी न हो तो दूसरी दवा _देनी चाहिए। वह महामति यशस्वी थोड़े अपरांधवालेको - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. हाकार' नीतिसे और अधिक अपराधबालेको 'माकार' नीतिसे और उससे अधिक अपराधबालेको दोनों नीतियोंसे दंड देने लगा । ( १७६-१७६) चौथा कुलकर अमिचंद्र ___ यशस्त्री मुल्पाकी आयु जब थोड़ी बाकी रही तब उनके एक युगलिया इस तरह जन्मा जिस तरह विनय और बुद्धि एक साथ जन्मते हैं। मातापिताने पुत्रका नाम अमिचंद रखा कारण वह चंद्रमाके समान उजला था और पुत्रीका नाम प्रतिरूपा रखा कारण वह प्रियंगुलता (राईकी बेल) की प्रतिरूपा (समान) थी। वे अपने माँवापसे कुछ कम आयुवाले और साइछहसौ घनुप ऊँचे शरीरवाले थे। एक जगह मिले हुए शमी और पीपल के पेड़ों की तरह वे एक साथ बढ़ने लगे। गंगा और यमुनाके पवित्र प्रवाहके मिन्ने हुए नलकी तरह वे दोनों निरंतर शोमने लगे। (१८०-१८३) आयु पूर्ण होनेपर यशस्वी उदधिकुमार और सुरूपा उसके सायही मरकर, नागकुमार भुवनपति देव-निकायमें उत्पन्न हुए। (१४) श्रमिचंद्र भी अपने पिताहीकी तरह, उसी स्थिति और पन्हीं दोनों नीतियोंके द्वारा युगलियाँको दंड देने लगा ।(१८५) ___पाँचत्रा कुलकर प्रसेनजित .. अंतिम अवस्था में प्रतिरूपाने एक लोईंकोइसी तरह जन्म दिया जिसतरहबहुत प्राशियोंके चाहनपर गावचंद्रमाकोजन्मदेती है। मातापिताने पुत्रका नाम प्रसेनलित रखा और पुत्री सचक्र Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत । १३१ चक्षुओंको (आँखोंको) मनोहर लगती थी इसलिए उसका नाम चक्षु-कांता रखा। वे दोनों अपने मातापितासे कम आयुवाले, तमालवृक्षके समान श्यामकांतिवाले बुद्धि और उत्साहकी तरह एक साथ बढ़नेवाले, छहसौ धनुप प्रमाण शरीरकी ऊँचाईवाले, और विपुवंत कालके समान जैसे दिन और रात समान होते हैं उसी तरह, समान प्रभावाले थे। (१८६-१८६) मरकर अभयकुमार उदधिकुमारमें और प्रतिरूपा नागकुमारमें (भुवनपति देव निकायमें) उत्पन्न हुए। ( १६० ) प्रसेनजित भी सव युगलियोंका राजा हुआ । कारण"प्रायो महात्मनां पुत्राः स्युर्महात्मान एव हि ।" .. [प्राय: (अकसर)महात्माओंके लड़के महात्माही होते हैं। कामात लोग जैसे लाज और मर्यादा नहीं मानते वैसेही उस समयके युगलिए 'हाकार' और मांकार'दंडनीतिकी उपेक्षा करने लगे। तब प्रसेनजित, अनाचाररूपी महाभूतको त्रास करने में (भूतको ठीक करनेमें ) मंत्राक्षरके समान, तीसरी 'धिकार' नीतिका उपयोग करने लगे। प्रयोग करनेमें कुशल वह प्रसेनजित, (महावत) तीन अंकुशोंसे (तीन फलोंवाले अंकुशसे) जैसे हाथीको वशमें करता है, वैसेही वह तीन नीतियोंके ('हाकार' 'माकार'और 'धिकार)दंड द्वारा सभी युगलियोंको दंड देने लगाअपने वशमें रखने लगा । (१६१-१६४) ..१~सूर्य जब तुला और मेष राशिमें आता है तब विपुवतं काल होता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व' - छठा मरुदेव कुलकर कुछ कालके बाद युग्म दंपतिकी आयु कम रही तव चक्षुकांताने स्त्री-पुरुषरुप युग्मको जन्म दिया। साढ़ेपाँचसा प्रमाण शरीरवाले वे वृन और छायाकी तरह क्रमशः बढ़ने लगे। वह युग्मधर्मी मरुदेव और श्रीकांताके नामसे इस लोकमें प्रसिद्ध हुए । सुवर्णके समान कांतिवाला वह' मरुदेव अपनी प्रिय. गुलताके समान प्रियाके साथ इस तरह शोभने लगा जैसे नंदनवनकी वृक्षश्रेणीसे (पेड़ोंकी कतारसे ) कनकाचल (मेन) पर्वत शोभता है । (१६५-१६८) आयु पूर्णकर प्रसेनजित द्वीपकुमार देवोंमें और चक्षुकांता नागकुमार देवोंमें उत्पन्न हुए। (१६६) ___ मनदेव प्रसेनजितकी दंडनीतिसे ही, इंद्र जैसे देवताओंको दंड देता है वैसेही, युगलियोंको दंड देकर वशमें रखने लगा। (२००) सातवाँ नामि कुलकर आयु पूर्ण होने में थोड़ा समय बाकी रहा तब मरुदेवकी प्रिया श्रीकांताने एक युगलको जन्म दिया 1 पुरुषका नाम नाभि और बीका मरुदेवा रखा गया। सवापाँचसौ प्रमाण ऊँचे शरीरवाले वे क्षमा और संयमकी तरह एक साथ बढ़ने लगे। मनदेवा प्रियंगुलताके समान और नामि सुवर्णके समान कांतिवाले थे, इससे वे अपने मातापिताके प्रतिबिंबके समान सुशोभित होते थे। उन महात्मायोंकी श्रायु अपने मातापिता-ममदेव और Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [ १३३ - श्रीकांता-की आयुसे कुछकम संख्यात पूर्वकी हुई । (२०१-२०४) काल करके मरुदेव द्वीपकुमार देवोंमें उत्पन्न हुआ और श्रीकांता भी तत्कालही मरकर नागकुमारमें उत्पन्न हुई। (२०५) .... मरुदेवकी मृत्युके बाद नाभिराजा युगलियोंका सातवाँ कुलकर हुआ । वह ऊपर बताई हुई तीनतरहकी नीतिके द्वाराही युग्मधर्मी मनुष्योंको सजा करने लगा । (२०६) ऋषभदेवजीकी माताके चौदह स्वप्न तीसरे आरेके चौरासीलाख पूर्व और नवासी पक्ष (तीनबरस और साढ़ेसात महीने) बाकी रहे तब आषाढ़ मासकी कृष्ण (काली) चतुर्दशी (चौदस) के दिन, उत्तराषाढा नक्षत्र में, चंद्रयोगके समय वजनाभका (धनसेठका) जीव तेतीससागरोपमकी आयु पूर्ण कर, सर्वार्थसिद्ध नामक विमानसे च्यवकर, नाभि कुलकरकी स्त्री मरुदेवीके गर्भमें इस तरह आया जिस तरह हंस मानसरोवरसे गंगाके तटपर आता है । (२०७-२१०) प्रभु गर्भमें आए उस समय, क्षणभरके लिए प्राणीमात्रके दुःखका उच्छेद (अभाव) हुआ, इससे तीनोंलोकमें सुख और उद्योत-प्रकाश हुआ । (२११) जिस रातको प्रभु च्यवकर माताके पेटमें आए उसी रातको अपने महलमें सोती हुई मरुदेवी माताने चौदह महास्वप्न देखे । (२१२) १. मरुदेव और श्रीकांताकी श्रायुका प्रमाण दिया हुआ नहीं है। - Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] त्रियष्टि शलाका पुरुय-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. - १-पहले सपनमें उबल, पुष्ट कंधवाला, लंबी और. सीधी पूंछवाला, सोनकी घर-मालाबाला, और माना विद्युत सहित शरदऋतुका मेघ हो वैसा वृपम (बैल) देखा । (२१३) २-दूसरे सपने में सफेद रंगवाला, क्रमसे ऊँचा, निरंतर मरते हुए मदकी नदीसे रमणीय और मानां चलता-फिरता कैलाश हो वैसा चार दाँतवाला हस्ति (हाथी) देखा । (२१४) ३-तीसरे सपनेमें पीली आँखोंवाला, लंबी जीभवाला, चपल केशर (कंधक बाल) वाला और मानों वीरोकी जयध्यता हो वैसा पूंछको उछालता हुआ (ऊँची करता हुश्रा) केसरी-सिंह देवा । (२१५.) ४-चौथे सपने में पद्म (कमल) में रहनेवाली, पद्मके समान आँखोवाली, दिग्गनों (दिशायांक हाथियों ) की गुंडासे उठाए गप पूर्ण कुंमांस (कलसोंसे) शोमती लक्ष्मीदेवी देखी 1 (२१६) ५-पाँचवें सपने में, तरह तरहके देववृक्षोंके फूलोंसे गूंथी हुई, सरल और धनुषधारीके अारोहण (धारण)किए हुए. धनुपके जैसी लंबी पुष्पमाला देवी । (२१७) । ६-छठे सपने में मानों अपने मुखका प्रतिबिंब हो वैसा, श्रानंदका कारगारूप और कांति-समूहसे जिसने दिशाको प्रकाशित किया है ऐसा चंद्रमंटल देवा । (२१८) ७-सातवें सपनेम,रातके समय भी तत्काल दिनका भ्रम करानेवाला, सारे अंबरेको मिटानेवाला और फैलती हुई कांतिवाला सूरज देखा । (२१६) And Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ": : सागरचंद्रका वृत्तांत [१३५ . . .८-आठवें सपने में चपल कानोंसे जैसे हाथी शोभता है वैसा, घूघरियोंकी पंक्तिके भारवाला व चलायमान (हिलती हुई) पताकाओंसे सुशोभित महाध्वज देखा। (२२०) - - नर्वे सपनेमें,खिले हुए कमलोंसे जिसका मुख अचित किया हुआ है ऐसा, समुद्र मथनेसे निकले हुए सुधा (अमृत) के घड़े जैसा जलसे भरा हुआ सोनेका कलश देखा । (२२१) १०-दसवें सपने में, मानों आदि अहंत (प्रथम तीर्थंकर) की स्तुति करनेको अनेक मुख हों ऐसे और भँवरे जिनपर गूंज रहे हैं ऐसे अनेक कमलोंसे शोभता महान पद्माकर (कमलोंका सरोवर) देखा । (२२२) . ... ११-ग्यारहवें सपनेमें. पृथ्वीपर फैले हुए, शरदऋतुके मेघकी लीलाको चुरानेवाला और ऊँची तरंगोंके समूहसे चिसको आनंदित करनेवाला क्षीरनिधि (समुद्र) देखा । (२२३) । . १२-बारहवें सपने में, मानों भगवान देवशरीरसे उसमें रहे थे इससे, पूर्वस्नेहके कारण आया हो वैसा बहुत कांतिवाला विमान देखा । (२२४) १३-तेरहवें सपने में, मानों किसी कारणसे ताराओंका • समूह जमा हुआ हो वैसा और एकत्र हुई निर्मल कांतिके समूह जैसा आकाशस्थित रत्नपुंज देखा । (२२५) .. १४-चौदहवें सपनेमें तीनलोकमें फैले हुए तेजस्वी पदाथों के पिंडभूत (इकट्ठे हुए) तेजके जैसा प्रकाशमान निर्धूम अग्नि मुखमें प्रवेश करते देखी। (२२६) - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पत्र १. मर्ग २. रात अंदमें, सपनों के समाप्त होनेपर खिले हुए मुखवाली स्वामिनी ममदेवी, कमलिनीकी तरह,प्रबोध पाई (जागी) मानों उनके हृदयमें हर्ष समाता न हो इससे, उन्होंने अपने सपनकी सारी ठीक ठीक बातें कोमल अक्षरोंसे वार करती हों (बोलती हों) बैंस नाभिरानाको कह मुनाई। नामिराजाने अपने सरल स्वभावको शोमा दे इस तरह सपनोंका विचार करके कहा, "तुम्हारे उत्तम कुलकर पुत्र होगा।" (२५-२६) उस समय इंद्रोंके श्रासन कोप, मानो वे यह सोचकर नाराज हुए हो कि स्वमिनीने केवल कुलकर उत्पन्न होनेकीही संभावना की है, यह अनुचित है।हमारे श्रासन अचानक क्यों काँपे ? ऐसा (प्रश्नकर.), उपयोग देनेस इंद्रोंको कारण मालम हुआ । ( पहलमे किए हुए) संकेत के अनुसार, जैने मित्र एक जगह जमा होने हैं वैस, सभी इंद्र मित्रों की तरह जमा होकर, सपनाका अर्थ बतानके लिए भगवानकी माताके पास श्राए । फिर वे हाथ जोड़कर विनयपूर्वक इस तरह सपनोंका अर्थ (फल) समझाने लगे, जैसे वृत्तिकार (व्याच्या करनेवाला ) सूत्रोंका अर्थ सष्ट करके (खोलकर) समझाना है 1 (२३०-२३३) - वे कहने लगे, "हे स्वामिनी ! आपने पहले सपने में वृषम (बैल) देखा इससे अापका पुत्र मोहरूपी कीचड़में फंसे हुए धर्मरूपी रथका उद्धार करने में सफल होगा । हे देवी ! हाथीको देखनेसे श्रापका महान पुरुषोंका भी गुरु और बडुन बलका एक स्थानरूप होगा(बहन बलवान होगा)। सिंहको देखनेसे श्रापका पुत्र पुन्यों में सिंह जैसा धीर, निर्मय, बोर और अस्खलित (कम नहीं होनेवाले ) पराक्रमवाला होगा । हे देवी! आपने सपने में Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत - लक्ष्मी देखी इससे आपका पुत्र पुरुषों में उत्तम, और तीनलोककी साम्राज्य-लक्ष्मीका पति होगा। आपने पुष्पमाला देखी इससे आपका पुत्र पुण्यदर्शनवाला होगा और सारी दुनिया उसकी आज्ञा मालाकी तरह धारण करेगी ( आज्ञा मानेगी)। हे जगन्माता! आपने सपने में चंद्रमा देखा इससे आपका पुत्र मनोहर और आँखोंको आनंद देनेवाला होगा। सूर्य देखा इससे आपका पुत्र मोहरूपी अंधकारका नाश करके दुनियामें प्रकाश करनेवाला होगा। और महाध्वज देखा उससे आपका आत्मज (पुत्र) आपके वंशमें बड़ी प्रतिष्टावाला (इज्जतदार) और धर्मध्वज होगा। हे देवी! आपने सपने में पूर्णकुंभ देखा इससे आपका सूनु (पुत्र) सभी अतिशयोंका पूर्णपात्र होगा अर्थात् सभी अतिशयोंवाला होगा । हे स्वामिनी ! आपने पद्मसरोवर देखा इससे आपका आत्मज (पुत्र) संसाररूपी कांतार (जंगल) में पड़े हुए मनुष्योंका (पापरूपी) ताप मिटाएगा। आपने समुद्र देखा इससे आपका तनय.(पुत्र) अधृष्य (अजेय)होते हुए भी उसके पास लोग जाएँ ऐसा वह होगा। हे देवी! आपने सपने में संसारमें अद्भुत ऐसा. विमान देखा इससे आपके सुत (पुत्र) की वैमानिक देव भी सेवा करेंगे । आपने चमकती हुई कांतिवाला रत्नपुंज देखा इससे आपका आत्मज सर्वगुणरूपी रत्नोंकी खानके समान होगा, और अपने जाज्वल्यमान (दहकती हुई) अग्नि देखी इससे आपका पुत्र दूसरे तेजस्वियोंके तेजको दूर करनेवाला होगा। हे स्वामिनी ! आपने चौदह सपने देखे हैं वे यह सूचित करते हैं कि आपका पुत्र चौदह राजलोकका स्वामी होगा।" (२३४-२४८) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. त्रियष्टि शलाका युनय-चरित्र पर्व १. सर्गर इस तरह सभी इंद्र सपनोंका फल यता, नन्देवी माताको प्रणाम कर,अपने अपने बयानोंको गणास्वामिनी मनदेवी माना स्वप्नफलकी व्याख्यानपी उपासे नींत्री जाकर ऐसी प्रफुल्लित हुई जैसे जमीन बरसात के पानी से सींची जानेपर प्रचल्लिन होती है। (२४०-२५०) महादेवी मनदेवी उन गर्मसे ऐसी शोमने लगी जैसे सूरतसे मेघमाला (बादलोंकी कतार ) शोमनी के मोतीसे सीप शोमनी है और सिंहसे पर्वतकी गुफा शोमती है । प्रियंगु (राई के समान श्यामवर्णवाली होनेपर मी, गमक प्रभावसे ऐसें पीने वर्णवाली हो गई जैसे शरदऋतुस मेयमाला पीले रंगवाली हो जाती है । उनके स्तन मानों इस वर्ष से उन्नत और पुष्ट हुए कि नगवके स्वामी हमारा पयपान करेन-दूध पिणी । उनकी श्रान्ले विशेष विनित हुई नानों वे मगवानका मुख देलनक लिए पहलेहीसे उत्कंठिन हो रही है। उनचा नितंब, (कमरसे नीचा माग) यद्यपि पहनही बनाया तो मी वाचाल बीतनपर.नं नदी किनारंगी जमीन विशाल होती है वसही विशाल हुआ। उनकी चाल यद्यपि पहलहा मंद थी पर अब वह ऐसी हो गई थी वैसे नदमन्त होनेपर दायीनी चाल हो जाती है। उनकी लावण्यलक्ष्मी (मुंदरतामी लक्ष्मी) गर्म प्रमावस इस तरह वहन लगी र संवरे विद्वान मनुथ्यकी त्रुद्धि बढ़ती है या नीम ऋतु, नमुनकी बेना (मामा) बढ़ती है। यद्यपि उन्होंने तीनजोक मारल्य गमको धारण किया था तो मी उनको कोई तकलीक नहीं होती थी; चारण, गर्मवानीअईतोंका ऐसा ही प्रभाव है। पृथ्वीचे अंतरमागमें जैसे अंकन बढ़ता है Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत वैसेही मरुदेवीके उदरमें वह गर्भ गुप्तरीतिसे धीरे धीरे बढ़ने लगा। ठंडा पानी, हिममृतिका (बरफ) डालनेसे जैसे अधिक ठंडा होता है वैसेही गर्भके प्रभावसे स्वामिनी मरुदेवी अधिक विश्व-वत्सला हुई। गर्भ में आए हुए भगवानके प्रभावसे, नाभिराजा युग्मधर्मी लोगोंमें, अपने पितासे भी अधिक माननीय हुए। शरदऋतुके.योगसे चाँदकी किरणें जैसे अधिक तेजवाली होती हैं वैसेही सभी कल्पवृक्ष अधिक प्रभाववाले हुए। जगतमें पशुओं और मनुष्योंके आपसी वैर शांत हो गए; कारण वर्षाकालके आनेसे सभी जगह संताप (दुःख) शांत हो जाते हैं। (२५१-२६३) भगवान ऋषभदेवका जन्म इस तरह नौ महिने और साढ़े आठ दिन बीते; फिर चैत्र महिनेकी वदी पक्षकी अष्टमी के दिन, आधी रातके समय सभी ग्रह उच्चस्थानमें आए थे और चंद्रका योग उत्तराषाढा नक्षत्रमें पाया था उस समय मरुदेवीने सुखपूर्वक युगलधर्मी संतानको (जुडवाँ बच्चोंको) जन्म दिया। तब इस आनंदकी (बातसे) दिशाएँ प्रसन्न हुई और स्वर्गमें रहनेवाले देवोंकी तरह लोग बड़े श्रानंदसे क्रीड़ाएँ करने लगे। उपपादशय्या (देवताओंके उत्पन्न होनेकी शय्या) में उत्पन्न हुए देवताओंकी तरह जरायु और रुधिर आदि कलकसे रहित-भगवान बहुत अधिक शोभने लगे। उस समय दुनियाकी आँखों में अचरज पैदा करने. बाला और अँधेरेको मिटानेवाला, बिजलीके प्रकाशजैसा, प्रकाश . १-न-मिल्ली जिसमें लिपटा हुआ बच्चा गर्भसे बाहर आता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० त्रिषष्टि शलाका पुस्प-चरित्र; पर्व १. सर्ग२. तीनोंलोकोंमें फैल गया। नौकरोंने नगारे नहीं बजाए थे तो भी बादलोंकी गड़गड़ाहटके समान गंभीर शब्दवाले दुंदुभि आकाशमें वजने लगे; उनसे ऐसा मालूम होता था कि खुद स्वर्गही आनंदसे गर्जना कर रहा है। उस समय जब नारकियोंको भी क्षणभरके लिए, पहले कभी नहीं हुआ था वैसा, सुख मिला तब तिथंच, मनुष्य और देवताओंको सुन्न हो इसके लिए तो कहनाही क्या है ? मंद मंद बहती हुई हवात्रोंने, सेवकोंकी तरह जमीनकी धूलिको दूर करना शुरू किया। बादल चेलक्षेप (वत्र गिराने ) और सुगंधित जलकी वर्षा करने लगे; इससे पृथ्वी वीज बोया हुआ हो ऐसे उच्छवास पाने लगी ( प्रोत्साइन पाने लगी)। (२६४-२७२) ___उस समय अपने आसनोंके हिलनेसे भोगकरा, भोगवती, सुमोगा, भोगमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिंदिताचे आठ दिशाकुमारियाँ तत्कालही अघोलोकसे भगवानके सूतिकागृहमें आई। आदि तीर्थकर और तीर्थकरकी मावाचो प्रदक्षिणा देकर कहने लगी, हे जगन्माता! हे जगदीपकको जन्म देनेवाली देवी! हम आपको नमस्कार करती हैं। हम अपोलोको रहनेवाली आठ दिशाकुमारियाँ पवित्र तीर्थकर जन्मको अवविज्ञान द्वारा जानकर, उनके प्रभावसे, उनकी महिमा करनेके लिए यहाँ आई हैं। इससे आप भयभीत न हों। फिर उन्होंन, इशान विदिशामें रहकर एक सूतिकागृह बनाया। उसका मुख पूर्व दिशाकी तरफ था और उसमें एक हजार खंभे थे। उन्होंने संवर्व नामकी वायु चलाकर सूतिकागृहके चारों तरफ एक योजनतकके कंकर और काँटे दूर Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सागरचंद्रका वृत्तांत [१४१ कर दिए। फिर, वे संवर्त वायुको रोक, भगवानको प्रणाम कर गीत गाती हुई उनके पास बैठीं। (२७३-२८०) उसी तरह आसन काँपनेसे प्रभुके जन्मको जानकर, मेघकरा मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, वारिपेणा और बलाहिका नामकी, मेरुपर्वतपर रहनेवाली आठ ऊर्ध्वलोकवासिनी आठ दिशाकुमारियों वहाँ आई और उन्होंने जिनेश्वर तथा जिनेश्वरकी माताको, नमस्कार करके, स्तुति की। उन्होंने भादोंमासकी तरह तत्काल आकाशमें बादल फैलाए; उनसे सुगंधित जलकी बारिश करके सूतिकागृहके चारों तरफकी, एक योजनतककी रज ऐसे नाश करदी जैसे चाँदनी अँधेरेका नाश करती है; घुटनोंतक पचरंगी फूलोंकी वर्षा करके भूमिको इस तरह सुशोभित कर दिया मानों वह अनेक तरहके चित्रोंवाली है। फिर वे तीर्थंकरके निर्मल गुणोंका गान करती हुई और बहुत बढ़े हुए आनंदसे शोभती हुई अपने उचित स्थानपर बैठीं । (२८१-२८६) - दक्षिण रुचकाद्रिमें रहनेवाले नंदा, नंदोतरा, आनंदा, नंदिवर्धना, विजया, वैजयंती, जयंती, और अपरातिजा नामकी आठ दिशाकुमारियाँ भी ऐसे वेगवान विमानोंमें बैठकर आईं जो मनकी गतिके साथ स्पी करते थे। वे स्वामी तथा मरुदेवीमाताको नमस्कार करके, पहलेकी देवियोंकी तरह कहकर और अपने हाथोंमें दर्पण लेके मांगलिक गीत गाती हुई पूर्व दिशाकी तरफ खड़ी हुई । (२८७-२८६) . . . दक्षिण रुचकादिमें रहनेवाली, समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती,शेपवती,,चित्रगुता और वसुंधरा अपने उचित स्थाननेवाले नंदा, नामकी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रः पर्व १. सर्ग २. नामक्री आठ दिशानुमारियाँ प्रमोद (श्रानंद) ने उनको प्रेरित क्रिया हो वैसे, प्रमोद पाती हुई वहाँ पाई और पहले श्राई हुई दिशाकुमारियोंकी तरह जिनेश्वर और उनकी माताको नमस्कार कर, अपना काम बता, हाथोंमें कलश ले गायन गाती हुई दक्षिण दिशामें खड़ी हुई । (२६०-२६२) ___पश्रिम मंत्रक पर्वतमें रहनेवाली इलादेवी, मुरादेवी, पृथ्वी, पद्मवती, एकनासा, अनवमिका, भद्रा और अशोका नामकी अाठ दिशाकुमारियाँ इस तंजीम वहाँ थाई मानो वे भक्त्तिसे एक दुसरेको जीतना चाहती है और वे पहलवालियोहीकी तरह भगवानको व माताको नमस्कार कर, श्रानका कारण बता, हायों में पग्ने ले गीत गाती हुई पश्चिम दिशा में खड़ी हुई। (२६३-२६५) उत्तर कचक पव॑नसे अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुंडरीका, वामपी, हासा, सर्वप्रमा, श्री और ही नामकी आठ दिशाकुमारियाँ श्रामियोगिक देवताओंके साथ इस धंगके साथ रथोंमें श्राई मानो रथ वायुकाही रूप हो। फिर वे भगवानको तथा उनकी माताको पहल थानेवालियाहीकी तरह, नमस्कार कर, अपना काम बता, हाथोंमें चवर ले गीत गाती हुई उत्तर दिशा में · खड़ी रहीं। (२९६-२०) विदिशा मचक्र पर्वतसे चित्रा, चित्रकनका, सतरा और सौत्रामणी नामकी चार दिशाकुमारियाँ भी वहाँ श्राई। बै पहनेवालियोकाही तरह जिनश्वरको तथा माताको नमस्कार कर, अपना काम बना, हाथमें दीपक ले ईशान श्रादि विदिशाओम, गीम गानी हुद, यही हुई। E-00) - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सागरचंद्रका वृत्तांत - [१४३ '. रुचक द्वीपसे रूपा, रूपासिका, सुरूपा और रूपकावती नामकी चार दिशाकुमारियाँ भी तत्कालही वहाँ पाई। उन्होंने भगवानके नाभिनालको, चार अंगुल रखकर, काटा; फिर वहाँ एक खड्डा खोदकर, उसे उसमें रखा और खड्डेको रत्नों व वज्जोंसे पाट दिया और उसपर दुर्वा ( दूव) से पीठिका बाँधी; पश्चात भगवानके जन्मगृहसे संबंध रखनेवाले, पूर्व, दक्षिण और उत्तरमें, लक्ष्मीके गृहरूप, केलेके तीन घर बनाए; हरेक घरमें अपने विमानके जैसे विशाल और सिंहासनसे भूपित चौक बनाए; वादमें वे जिनेश्वरको हस्तांजलिमें ले, जिनमाताको चतुरदासी की तरह हाथका सहारा दे दक्षिण चौकमें ले गई। वहाँ दोनोंको सिंहासन पर बिठाकर वृद्ध संवाहिका (मालिश करनेवाली) स्त्रीकी तरह, सुगंधित लक्षपाक तेलसे, उनके मालिश करने लगी। फिर उन्होंने दोनोंके उबटन-जिसकी सुगंधसे सभी दिशाएँ सुगंधित हो रही थीं-लगाया; फिर उन्हें पूर्व दिशाके चौकमें ले जाकर सिंहासनपर विठाया और अपने मनके समान निर्मलजलसे दोनोंको स्नान कराया; कापाय (गेरुआ ) रंगके अंगोलोंसे. उनका शरीर पोछा; गोशीपचंदनके रससे उनके शरीरको चर्चित किया और दोनोंको दिव्य वस्त्र और विजलीके प्रकाशके समान विचित्र आभूपण (जेवर) पहनाए। फिर उन्होंने भगवान व उनकी माताको उत्तरके चौकमें ले जाकर सिंहासनपर विठाया। वहीं उन्होंने आभियोगिक देवताओंको भेजकर, क्षुद्र हिमवत पर्वतसे, गोशीपचंदनकी लकड़ी मँगवाई; अरणी (खास तरहकी एक लकड़ी) के दो बड़े टुकड़े लेकर उनसे आग पैदा की; होमने लायक बनाए हुए गोशीपचंदनके काष्ठ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] - विघष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. (लकड़ी ) से हवन किया और उस श्रागसे बनी हुई राखकी पोटली बनाकर दोनोंके हाथों में बाँधी । यद्यपि वे (प्रभु और माता) बड़ी महिमावाले थे तो भी दिशाकुमारियोंका भक्तिकम ऐसाही है। उन्होंने भगवान कानोंके पास जोरसे यह पुकारकर कि,"तुम पर्वत समान आयुष्मान हो"पत्थरके दो गोले लमीनपर पचाउँपश्चात प्रमुको और माताको सूतिका भुवनमें सेजपर मुलाकर वे मंगलगीन गाने लगी । (३०१-३१७) तब, जैसे लग्नकं समय सभी बाज एक साथ बनते हैं वैसेही शास्वत घंटांकी एक साथ कैंची श्रावाज हुई और पर्वतोंके शिखरकी तरह अचल इंद्रोंके ग्रासन, सहमा हदय काँपता है उस तरह, काँपने लगे । उस सौधमंद्रकी आँखें गुस्से के वेगसे लाल हो गई, कपालपर भ्रकुटी चढ़नेसे उसका मुख विकराल मालूम होने लगा, प्रांतरिक क्रोधरूपी ज्वालाकी तरह उसके होठ फड़कने लगे, मानो श्रासन स्थिर करने की कोशिश करता हो से उसने एक पर उठाया और कहा, "यान किसने यमराजको पत्र भेजा है। फिर उसने वीरतारूपी भागको प्रज्वलित करनेके लिए वायुके समान वन उठानेकी इच्छा की । (३१८-३२१) इस तरह सिंहके समान क्रुद्ध इंद्रको देखकर, मानो मूर्तिमान मान हो ऐसे सेनापत्तिने श्राकर विनती की, "स्वामी ! श्राप मेरे जैसा नौकर है तो भी श्राप बुदही क्यों क्रोप करते हैं.? हे जगत्पति ! मुझे आज्ञा दीजिए कि में आपके किस शत्रका नाश कर " (३२२-३२३) उस समय अपने मनका समाधान कर इंद्रने अवधिज्ञानसे देखा तो उस मालूम हुआ कि प्रमुका जन्म हुआ है। आनंद Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. सागरचंद्रका वृत्तांत . [१४५ से तत्कालही उसके क्रोधका वेग गल गया, और वर्षासे दावानलके बुझने पर पर्वत जैसे शांत होता है वैसेही वह शांत हो गया। "मुझे धिक्कार है कि मैंने ऐसा विचार किया। मेरा दुष्कृत (पाप) मिथ्या हो।" इस तरह कहकर उसने इंद्रासनका त्याग किया सात-आठ कदम भगवानके सामने चलकर, मानो दूसरे रत्नमुकुटकी देनेवाली हो ऐसी करांजलि सरपर रखी, जानु (घुटने) और मस्तक-कमलसे पृथ्वीको स्पर्श किया और प्रभुको नमस्कार कर, रोमांचित हो, उसने इस तरह भगवानसे प्रार्थना करना प्रारंभ किया। (३२४-३२६) ... "हे तीर्थनाथ ! हे जगतको सनाथ करनेवाले ! हे कृपारसके समुद्र ! हे नाभिनंदन ! आपको नमस्कार करता हूँ। हे नाथ! नंदनादिक (नंदन, सोमनस और पांडुक) नामके उद्यानोंसे जैसे मेरुपर्वत शोभता है वैसेही मति, श्रुति और अवधिज्ञान सहित आप शोभते हैं। क्योंकि ये तीनों जन्मसेही आपको प्राप्त हैं। हे देव! आज यहभरतक्षेत्र स्वर्गसे भी अधिक शोभता है; कारण, तीन लोकके मुकुटरत्नके समान आप उसको अलंकृत करते हैं। हे जगन्नाथ ! जन्मकल्याणकके महोत्सवसे पवित्र बना हुआ आजका दिन, संसारमें रहूँ तबतकके लिए (मेरे लिए) आपकी तरहही वंदनीय है। इस आपके जन्म-पर्वसे आज नारकियों को भी सुख हुआ है । अर्हतोंका जन्म किसके संतापको मिटानेवाला नहीं होता है ? इस जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें निधान की तरह धर्म नष्ट हो गया है, उसे आप अपने आज्ञारूपी बीजसे पुन: प्रकाशित कीजिए। हे भगवानं ! Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___ १४६ ] त्रिषष्टि शलाका घुमघ-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. "त्वत्पादी प्राप्य संसार, तरिष्यति न केऽधुना । अयोऽपि यानपात्रस्थं पारं प्राप्नोति वारिधेः ।" [अब श्रापकं चरणको प्राप्त करके कौन संसारसे पार न होगा ? कारणा, नावके योगसे लोहा भी समुद्रको तैर जाता है। हे भगवन! आपने इस भरतक्षेत्र में लोगोंके पुण्यसे ऐसे अवतार लिया है जैसे बिना वृक्षके प्रदेशमें कल्पवृक्ष उत्पन्न होता है और मदेशमें नदीका प्रवाह होता है । (३३०-३३७) प्रथम देवलोकके इंद्रन इसतरह भगवानकी स्तुति करके, अपने सेनापति नंगमेपी नामके देवसे कहा, "जबूद्वीपके दक्षिणाई. भरतक्षेत्र बीचके भूमिभाग नाभि फुलकरकी लक्ष्मीकी निधिक समान पत्नी मम्देवीके गर्भस प्रथम तीर्थंकरका जन्म हुआ है, इसलिए उनके जन्मस्नात्र के लिए सभी देवताओंको चुलायो।" (३२८-३४०) इंद्रकी पाना मुनकर उसने एक योजनके विस्तारवाला और अद्भुत ध्वनिवाला सुघोपा नामका-घंटा तीन बार बजाया । इससे दूसरे विमानोंके घंटे भी इसी तरह बनने लगे, जैसे मुख्य गानेवाले के पीछे दूसरं गवैये भी गाने लगते हैं। उन सभी घंटों का शब्द, निशाओंके मुख में हुई प्रतिध्वनिसे इस तरह बढ़ा जिस तरह झुलवान पुत्रोंसे कुलकी वृद्धि होती है। बत्तीस लाख विमानाम उछलता हुया वह शब्द तालुकी तरह अनुरणन (प्रतिध्वनि) रूप होकर बढ़ा। देवता प्रमादमें पड़े थे इसलिए यह शब्द सुनकर मूच्छित हो गए और मूर्छा जानेपर सोचने लगे कि क्या होगा ? सावधान देवाको संबोधन कर सेनापतिने मेघकी Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१४७ - गर्जनाके समान गंभीर शब्दों में कहा, "हे देवो! सबके लिए अनुलध्य शासनवाले इंद्र, देवी वगैरा परिवार सहित तुमको आज्ञा देते हैं, कि बूद्वीपके दक्षिणा भरतखंडके वीचमें कुलकर नाभि राजाके कुलमें आदि-तीर्थंकर जन्मे हैं। उनके जन्मकल्याणकका उत्सव करनेके लिए मेरीही तरह तुमभी वहाँ जानेकी जल्दी तैयारी करो। कारण, इसके समान कोई दूसरा उत्तम काम नहीं है। (३४१-३४६) सेनापतिकी बातें सुनकर कई देवता भगवानकी भक्तिके कारण तुरतही इस तरह चले जैसे मृग वेगसे, वायुकी तरफ जाते हैं; या लोहचुंबकसे लोहा खिंचता है। कई देवता इंद्रकी . आक्षा से खिंचकर चले, कई देव अपनी देवांगनाओंके उत्सा हित करनेसे इस तरह चले जैसे नदियोंके वेगसे जलजेतु दौड़ते .. है । कई अपने मित्रोंके आकर्पणसे ऐसे चले जैसे पवनके आकर्पणसे सुगंध फैलती है। इसतरह सभी देव अपने सुंदर विमानों और दूसरे वाहनोंसे, आकाशको दूसरे स्वर्गकी तरह सुशोभित करते हुए, इंद्रके पास आए। (३५०-३५२) उस समय इंद्रने पालक नामक आभियोगिक देवको, असंभाव्य (बहुत कठिन) और अप्रतिम (अद्वितीय) एक विमान बनानेकी आज्ञा दी । स्वामीकी आज्ञाका पालन करनेवाले उस देवने तत्कालही इच्छानुगामी (बैठनेवालेकी इच्छाके अनुसार चलनेवाला) विमान बनाया । वह विमान हजारों रत्न-स्तंभोंके किरणसमूहसे आकाशको पवित्र करता था। गवाक्ष (खिड़कियाँ) उसके नेत्र थे, बड़ी बड़ी ध्वजाएँ उसकी भुजाएँ थीं, वेदिकाएँ उसके दाँत थे और स्वर्णकुंभ ऐसे मालूम होते थे मानों वह हँस Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] त्रिषष्टि गल्लाका पुरुष-चन्त्रिः पत्र ? सर्ग २. रहा है। विमान पाँचली योजन ऊँचा था। उसका विस्तार लान्द्र योजन था। उस विमानकी क्रांनि नरगिन(लगनी हुई) तीन मीडियाँ यी वहिनवंत पनकी गंगा यि और गति नासा नदियाँले समान माइम होनी थीं उन माहियां आगे अंतर रंगांक ना दोरण ये व वनुष समान मुदर मालूम होन थे। उस विमान चंद्रमंडल संखआलिंगी मुझंग (छोटा टोन और ग्लन पित्रा चाँदनी समान और चौरस जनीने (आँगन सामनी थीं। उन भूमिपर पनी हुई सन्मय शिला लगातार पनवाली वहनदी चित्रमा दावाश्री नन्त्रीरोग गिग्नबाली अनित्राची शोमाचीवारण करती हुई मानवानी थीं। उपवारने अल्लाया समान पुन लियॉन विभूषित गननडिनशानंडप (रंगमंडवाया और उस अंडर मागिन्यत्री मन्त्र पीठिका (बैठक ) यो हवित हुए असली चर्षिचा (कमल छसमान मुंबर माडून होती श्री बट्ट पीठिका लंबा-चौडाइमें अटजन और मोटाईन चारोनन थी। वकीलनाची शैयां बनान नाम होनी थी उनपर ननिहालन यात्रहवतनमारकंडिया मादन होता या लिंबाचनयर ऋर्व शोमात्राना, त्रित्रित्र स्ने जड़ा हुआ और अपनी हिमाल पानाधानी व्यात नवाला विजयवन्न देयमान हो रहा था। उसके वीत्रने हाय जान हो वैसा बांटा और लम कडा नं जैसी मित्र मनिकोनियामाला शानती थी उस मोनियांची माला याख्यान गंगानही अंतर डेसी, उनकी हा श्राचे चिन्तावाली, अनिल मोतियात्री माला Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत . [१४६ शोभती थीं। और उसके स्पर्श-सुखके लोभसे, मानों स्खलना पाया हो-कदम नहीं उठते हों वैसे, मंदगतिसे चलते हुए पूर्व दिशाको वायुसे वह माला धीरेधीरे हिल रही थी। उसके अंदर संचार करता हुआ-जाता हुआ पवन, कानोंको सुख देनेवाले शब्द करता था। वह, ऐसा मालूम होता था मानों, स्तुतिपाठककी तरह इंद्रका निर्मल यश-गान कर रहा है। उस सिंहासनके वायव्य और उत्तर दिशाके मध्यमें तथा उत्तर और पूर्व दिशाके बीच में, चौरासीहजार सामानिक देवोंके चौरासीहजार भद्रासन (सिंहासन ) थे वे स्वर्गकी लक्ष्मीके मुकुट से मालूम होते थे। पूर्व-दिशामें आठ अग्रमहिषियों (इंद्राणियों) के आठ आसन थे। वे सहोदरकी तरह, समान आकार-प्रकारके से शोभते थे। दक्षिण पूर्वके बीचमें अभ्यंतर सभाके सभासदोंके बारह हजार सिंहासन थे। दक्षिणमें मध्यसमाके चौदह हजार सभासदोंके चौदह हजार सिंहासन थे। दक्षिण-पश्चिमके बीचमें बाह्य पर्षदा (सभा) के सोलहहजार देवताओंके सोलहहजार सिंहासनोंकी पंक्ति (कतार) थी। पश्चिम दिशामें, मानों एक दूसरेके प्रतिबिंब हों वैसे, सांत तरहकी सेनाओंके सात सेनापति देवोंके सात श्रासन थे और मेरु पर्वतके चारों तरफ जैसे नक्षत्र शोभते हैं वैसेही, शक्रके सिंहासनके चारों तरफ चौरासीहजार आत्मरक्षक देवताओंके चौरासीहजार आसन शोभते थे। इस तरह परिपूर्ण विमानकी रचना कर आभियोगिक देवताओंने इंद्रको सूचना दी। इससे इंद्रने तत्कालही उत्तर वैक्रिय रूप धारण किया. "नैसर्गिकी हि भवति घुसदा कामरूपिता।" Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] त्रिषष्टि शलाका पुरप-चरित्र: पर्व १. सर्ग२. [इच्छाके अनुसार रूप धारण करलेना देवताओं के लिए स्वाभाविक है। ] (३५३-३७६) फिर इंद्र दिशा-लक्ष्मीक समान श्राट पट्टरानियों सहित गंधवों और नाय (नाटक) के सैन्यों ( मैनिकों) के कौतुक देखता हुआ, सिंहासनको प्रदक्षिणा देकर पूर्व दिशाके जीनोंके मार्गसे, अपने मनके जैसे ऊँचे सिंहासनपर चढ़ा। माणिक्यकी मीना-दीवारों में उसका प्रतिबिंब पड़नसे वह मानों हजारों शरीरवाला हो, ऐसा मालूम होना था । सीधमंद्र पूर्वाभिमुख होकर (पूर्वकी तरफ मुँह करके ) अपने ग्रासनपर बैठा । फिर मानों इंद्र के दूसरे रूपही हो वैसे उसके सामानिक देव उच्चर तरफ जीनेस चढ़कर अपने अपने आसनोंपर बैठे। इससे दूसरे देवता मी दक्षिण तरफ जीनपर चढ़कर अपने पास पर बैठे कारण स्वामीके पास आसनांका उलंघन नहीं होता । सिंहासनपर बैठेहुए शचिपनि (इंद्र) के श्रागे दर्पण वगैरा अष्ट मांगलिक और मस्तक पर चाँदके जैसा उचल छत्र शोभा देन लगे। दोनों तरफ दो चंबर इस तरह डुलने लगे मानों में चलते हुए दो ईस हो। निरणोंसे-(बहत हुए स्रोतास) से पर्वत शोभता है वैसेही पताकाओं में मुशोभित हजार. योजन ऊँचा एक इंद्रध्वज विमानक आग पर रहा था। उस समय करोड़ों सामानिक यादि देवताबास घिराहुया इंद्र इस तरह सुशोभित होरहा था जैसे नदियों के प्रवाह घिरा हया लागर शोमता है । दूसरे विमानोंसे घिरा हुआ वह विमान, इस तरह शोभता था जैसे, दूसर चैत्यास विरा हुश्रा मूल चत्य शोमता है । विमानकी मुंदर, माणिक्यमय दीवारांक श्रदर एक विमानका प्रतिबिंब Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . . सागरचंद्रका वृत्तांत . [१५१ दूसरे विमानकी दीवारोंमें पड़ता था; इससे ऐसा मालूम होता था कि विमान विमानोंसे सगर्भ (गर्भ धारण किया हो वैसे) हुए हैं । (३८०-३६०) . दिशाओंके मुखमें प्रतिध्वनिरूप वनाहुआ, वंदीजनों(चारणों) की जयध्वनिसे दुंदुभि ( नगारों) के शब्दोंसे और गंधवों तथा नाटकके वाजोंकी आवाजोंसे, मानों आकाशको फाड़ता हुआ बढ़ रहा हो इस तरह, वह विमान इंद्रकी इच्छासे सौधर्म देवलोकके वीचमें होकर चला । सौधर्म-देवलोकके उत्तरमें होकर जरा टेढ़ा उतरता हुआ वह विमान, लाख योजनके विस्तारवाला होनेसे, जंबूद्वीपके ढक्कनसा मालूम होता था। उस . समय रस्ते चलते हुए देव आपसमें एक दूसरेसे कहने लगे "हे हाथीके सवार ! दूर जाओ, तुम्हारे हाथीको मेरा शेर वरदाश्त नहीं करेगा।" -'"हे घोड़ेके सवार ! तुम जरा अलग रहो, मेरा ऊँट गुस्से हुआ है । वह तुम्हारे घोड़ेको सहन नहीं करेगा।""हे मृगवाहन ! (हिरणकी सवारीवाले) तुम पास न आना, अन्यथा मेरा हाथी तुम्हारे मृगको हानि पहुँचाएगा।" "हे सर्पके वाहनवाले ! यहाँसे दूर चले जाओ, वरना मेरा वाहन गरुड़ तुम्हारे सर्पको हानि पहुँचाएगा।" - "हे भाई ! बीचमें आकर तुम मेरे विमानकी गतिको क्यों रोकते हो ? मेरे विमानसे अपना विमान क्यों टकराते हो ?" -"अजी साहब ! मैं पीछे रह गया हूँ और इंद्र बड़ी शीघ्रतासे चले जा रहे हैं, इसलिए अगर कहीं विमान टकरागया हो तो गुस्सा न करो। कारण,- : . . ....."संमईः खलु पर्वणि ।" Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. मगर. [पर्वके दिन सकडेही होते हैं, यानी पर्वकं दिनों में भीड़ होतीही है। इस तरह उन्मुकनाम इंदकं पीछे चलनवाले सौधर्म देवलोकके देवताओंका बड़ा शोर होने लगा। उस समय वह बड़ी पतामात्राला विमान श्राकाशसे उतरना हुया इस तरह शोमता था जैस समुद्र मध्य शिखरम उतरती हुई नाव शोमती है। मानों मेघमलने पंकिल (क्रीचड़वाला ) बने हुए स्वर्गको मुकाताहो वैसे,वृक्षासे बीच में चलनेवाले हाथियोंकी नरह नक्षत्रचक्रके बीच में होकर, यह विमान श्राकाशम चलना हुया वायुवेगसे असंख्य द्वीप-समुद्राको लाँधकर नंदीश्वर द्वीप पहुंचा। विद्वान पुरुष जैसे ग्रंथको संक्षेप करत है बैस, इंद्रन उस द्वीपक दक्षिण पर्वके मध्यभागमें स्थित, रतिकर पर्वतकं अपर विमानको छोटा बनाया। वहाँस भाग कई द्वीप और समुद्रांको लाँचकर, उस विमानको पहलेसे भी छोटा बनाता हुश्रा, इंद्र जंबूद्वीपके दक्षिण मरताम, श्रादिनीयकरक जन्ममुवन यापहचा। मूरज जैसे मेल पर्वतकी प्रदक्षिणा करता है वैसेही यहाँ दिने उस विमानसे प्रभु सुतिकागृहकी प्रदक्षिगा दी और फिर घरके कोनमें जैसे निधि-धन रखने है वैसेही ईशान कोनमें उस विमानको रग्या । (३६१-१०६) फिर शकेंद्र, महामुनि जैसे मानसे उतरते हैं. वैसे विमानसे उतरा और प्रमुक पास श्राया । प्रभुको देवतही उस देवानगीन पहले प्रभुको प्रगाम किया; कारणा, स्वामीके दर्शन होतही प्रणाम करना, उन्हें पहली भेट देना है। फिर. माता सहित प्रमुको, प्रदक्षिणा देकर, फिरसे प्रणाम किया। कारण ......."मक्ती न पुनरुक्तता।" Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . सागरचंद्रका वृत्तांत - . [१५३ ' . [भक्तिमें पुनरुक्तदोष नहीं होता। 7 देवताओंने जिसका मस्तकाभिषेक किया है ऐसा वह भक्तिमान इंद्र, हाथ जोड़, उन्हें मस्तकसे ऊपर उठा, स्वामिनी मरुदेवीसे कहने लगा,___ "अपने उदरमें पुत्ररूपी रत्नको धारण करनेवाली और जगदीपकको प्रकाशित करनेवाली, हे जगन्माता! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप धन्य हैं ! आप पुण्यवान हैं। आपका जन्म सफल है और आप उत्तम लक्षणोंवाली हैं। तीनलोकमें पुत्रवाली स्त्रियों में आप पवित्र हैं; कारण-धर्मका उद्धार करनेमें अंग्रणी और आच्छादित ( ढकेहुए) मोक्षमार्गको प्रकट करनेवाले भगवान आदि तीर्थंकरको आपने जन्म दिया है। हे देवी! मैं सौधर्मेंद्र देवलोकका इंद्र हूँ; आपके पुत्र अरिहंतका जन्मो. त्सव करने यहाँ आया हूँ। इसलिए आप मेरा भय न रखें।" . . फिर इंद्रने अवस्वापनिकानिद्रा (गहरी नींदमें सुलानेवाली नींद ) में मरुदेवी माताको सुलाया; उनकी बगल में प्रभुकी एक मूर्ति बनाकर रखी और अपने पाँच रूप बनाए । कारण, शक्तिशाली लोग अनेक रूपोंसे प्रभुकी भक्ति करनेकी इच्छा रखते हैं। उनमेंसे एक रूप भगवानके पास गया और नम्रतासे प्रणाम कर बोला, "हे भगवन ! आज्ञा दीजिए।" इस तरह कहकर उस कल्याणकारी भक्तिवाले इंद्रने अपने गोशीर्षचंदन लगे हुए दोनों हाथोंसे, मानों भूर्तिमान कल्याणही हों ऐसे, भुवनेश्वर भगवानको उठाया एक रूपसे जगतके तापको नाश करनेमें छत्रके समान जगत्पिताके मस्तकपर, पीछे रहकर, छत्र रखा। स्वामीके दोनों तरफ बाहुदंड (भुजाओं) की तरह दो रूपोंमें रहकर सुंदर चँवर धारण किए और एकरूपसे मानों मुख्य द्वारपाल हो इस तरह Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग २. वज हायमें लेकर भगवानके आगे रहा । फिर जय नय शब्दोंसे श्राकाशको गुंजाता हुआ देवनाओंसे विराहुआ और प्राकाशके समान निर्मल मनवाला इंद्र अपने पाँच पास आकाशमार्ग द्वारा चला | तृपा (ध्यास) से बबराए हुए मुसाफिरोंकी नजर जैसे अमृतके सरोवरपर पड़ती है वैसही, उसुक बने हुए देवताओंकी द्रष्टि भगवानके अद्भुत रूपपर पड़ी। भगवानके अद्भुत रूपको देखने के लिए आगे चलनेवाले देवता पीछेकी तरफ आँखें चाहते थे। दोनों तरफ चलनवाले देवता स्वामीको देखनसे तृप्त नहीं हुई हो इसतरह मानोंत्तंभित होगई हो इस तरह, वें अपनी ऑलं दूसरी तरफ नहीं घुमा सके थे। पीछे रह हुए देवता भगवानको देखने के लिए आगे आना चाहते थे, इसलिए वे अपने न्वामी या मित्रकोमी पीछे छोड़कर आगे बढ़नाते फिर देवपति इंद्र भगवानको अपने हृदयके पास रखकरमानों उसने भगवान को हत्यमें रख लिया है, मनपर्वतपर गया। वहाँ पांइक बनमें, दक्षिण चुलिनाके पर निर्मल क्रांतिवाली अतिपांडुकवता नामकी शिलापर, अहंत स्नानके योग्य सिंहासनपर, पूर्व दिशाका पति इंद्र, हर्ष सहित प्रभुको अपनी गोदमें लेकर बैठा। (४०७-४३०) जिस सनब सौधर्मेन्द्र मेन्यवनपर श्राचा उसी समय महायोवा घंटा नाद (आवात्र ) से, (भगवानके जन्मत्रो) जानकर, अटाइमलाल विमानवासी देवताओंसे घिरा हुआ त्रिशूलबारी,वृषभके बाहनवाला ईशानकायका अधिपति ईशानेंद्र याभियोगिक दबके बनाए हुए पुश्यक नामक विमान में बैठकर दङ्गिण दिशाक रनसे ईशानन्यसे नीचे उतर, विद्या बता Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सागरचंद्रका वृत्तांत [१५५ नंदीश्वर द्वीपपर श्रा, उस द्वीपके ईशानकोनके रतिकर पर्वतपर सौधर्मेंद्रकी तरह अपने विमानको छोटा.वना, भक्तिभरे हृदयके साथ भगवानके पास आया । . सनत्कुमार नामका इंद्र भी अपने बारह लाख विमानवासी देवोंके साथ सुमन नामके विमानमें बैठकर आया । - महेंद्र नामका इंद्र आठलाख विमानवासी देवताओंके साथ श्रीवत्स नामके विमानमें बैठकर मनकी तरह शीघ्रही वहाँ आया। ब्रहेंद्र नामका इंद्र चारलाख विमानवासी देवताओंके साथ नंद्यावर्त नामके विमानमें बैठकर प्रभुके पास आया। लांतक नामका इंद्र पचासहजार विमानवासी देवोंके साथ कामगव नामके विमानमें बैठकर जिनेश्वरके पास आया। शुक्र नामका इंद्र चालीसहजार विमानवासी देवोंके साथ पीतिगम नामके विमानमें बैठकर मेरुपर्वतपर आया। सहस्रार नामका इंद्र छःहजार विमानवासी देवताओंके साथ मनोरम नामके विमानमें बैठकर जिनेश्वरके पास आया। पानत प्राणत देवलोकका इंद्र चारसौ विमानवासी देवों.. के साथ अपने विमल नामके विमानमें बैठकर आया। और आरणाच्युत देवलोकका इंद्र भी तीनसौ विमानवासी देवोंके साथ अपने अतिवेगवाले (तेज चालवाले ) सर्वतोभद्र नामके विमानमें बैठकर आया । (४३१-४४२). Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष - चरित्रः पर्व १. सर्ग २. -- उसी समय रत्नप्रभा पृथ्वीके मोटेपनके अंदर रहनेवाले भुवनपति और व्यंतर देवोंके इंद्रोंके आसन काँपे । चमरचंचा नामकी नगरीमें, सुधर्मा सभामें, चमर नामके सिंहासनपर, चमरासुर (चमरेंद्र) वैठा था । उसने अवधिज्ञानसे भगवानका जन्म जाना और सभी देवोंको यह बात जतलानेके लिए अपने द्रुम नामके सेनापतिसे श्रोघघोपा नामका घंटा चजवाया । फिर वह अपने चौसठहजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायत्रिंशक (गुरुस्थानके योग्य) देवों, चार लोकपालों, पाँच अग्र महीपियों, अभ्यंतर, मध्य और बाह्य इन तीन सभाओंके देवों, सात तरहकी सेनाओं, सात सेनापतियों, चारों तरफ चौसठ चौसठ हजार आत्मरक्षक देवों तथा दूसरे उत्तम ऋद्धिवाले असुरकुमार देवोंसे घिरा हुआ वह श्रभियोगिक देवके द्वारा तत्कालही बनाए हुए, पाँचसौ योजन ऊँचे, बड़े ध्वजसे सुशोभित और पचासहजार योजन के विस्तारवाले, विमानमें बैठकर भगवानका जन्मोत्सव करने की इच्छासे रवाना हुआ। वह चमरेंद्र भी शकेंद्रकी तरह अपने विमानको मार्ग में छोटा बनाकर, स्वामी के आगमन से पवित्र बने हुए मेरुपर्वत के शिखर पर आया । ( ४४३-४५१ ) वलिचंचा नामकी नगरीके इंद्र वलिने भी महौधस्वरा नामक बड़ा घंटा बजवाया । उसके महाद्रुम नामक सेनापतिके बुलाने से आए हुए साठहजार सामानिक देवों, उससे चौगुने (२४०००० ) अंगरक्षक देवों और दूसरे त्रायत्रिंशक इत्यादिक १ - रत्नप्रभा पृथ्वीकी मोटाई १८०००० योजन है । उसीमें वे रहते है । . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१५७ देवों सहित चमरेंद्रकी तरह अमंद आनंदके मंदिर रूपमेरु पर्वतपर आया । ( ४५२-४५४) नागकुमारके धरण नामके इंद्रने मेघस्वरा नामक घंटा बजवाया। उसकी छःहजार पैदल सेनाके सेनापति भद्रसेनके कहनेसे आए हुए छःहजार सामानिक देवों, उससे चौगुने (२४०००) आत्मरक्षक देवों, अपनी छः पट्टदेवियों (इंद्राणियों) और दूसरे भी नागकुमार देवों सहित वह, इंद्रध्वजसे शोभित पच्चीसहजार योजन विस्तारवाले और ढाईसौयोजन ऊँचेविमानमें बैठ भगवानके दर्शनके लिए उत्सुक हो, क्षणभरमें मंदराचलके (मेरुके) मस्तक (शिखर) पर आया। (४५५-४५८) भूतानंद नामके नागेंद्रने मेघस्वरा नामका घंटा बजवाया और उसके दक्ष नामके सेनापति द्वारा सामानिक देवता आदिकोंको बुलवाया। फिर वह आभियोगिक देवके बनाए हुए विमानमें, सबके साथ बैठकर, जो तीनलोकके नाथसे सनाथ हुआ है उस मेरु पर्वतपर आया । ( ४५६-४६०) फिर विद्युत्कुमारके इंद्र हरि और हरिसह; सुवर्णकुमारके इंद्र येणुदेव और वेणुदारी; अग्निकुमारके इंद्र अग्निशिख और अग्निमानव; वायुकुमारके इंद्र वेलंच और प्रभंजन; स्तनितकुमारके इंद्र सुघोष और महाघोष; उदधिकुमारके इंद्र जलकांत और जलप्रभा द्वीपकुमारके इंद्र पूर्ण और अवशिष्ट और दिककुमारके इंद्र अमित और अमितवाहन भी आए । (४६१-४६४) ___ व्यंतर देवोंमें पिशाचोंके इंद्र काल और महाकाल, भूतोंके इंद्र सुरूप और प्रतिरूप, योंके इंद्र पूर्णभद्र और गणिभद्र - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग २. राक्षसोंके इंद्र भीम और महाभीम; किन्नरोंके इंद्र किनर और. किंपुरुषः किंपुम्पोंके इंद्र सत्पुरुप और महापुरुप; महोरंगोंके इंद्र अतिकाय और महाकायः गंधवाक इंद्र गीतरति और गीतयशा; अप्रज्ञप्ति और पंचप्रज्ञप्ति वगैरा व्यंतरोंकी दूसरी आठ निकायों-(जो वाणज्यंतर कहलाती हैं) के सोलह इंद्र, उनमेंसे अप्रज्ञप्तिके इंद्र संनिहित और समानक; पंचप्रज्ञप्तिके इंद्र धाता और विधाता ऋषिवादितके इंद्रऋपि और ऋषिपालक; भूतवादिनके इंद्र ईश्वर और महेश्वर; ऋदिनके इंद्र सुवत्सक और विशालक; महादितके इंद्र हास और हासरति; कुष्मांडके इंद्र श्वेत और महाश्वेत, पावके इंद्र पवक और पत्रकपतिः और ज्योतिप्कोंके सूर्य और चंद्र, इन दोही नामोंके असंख्य इंद्र इस तरह कुल चौसठ इंद्र एक साथ मेमपर्वतपर पाए । (४६५-४७४) फिर अच्युतेंद्रन, जिनेश्वरके जन्मोत्सबके लिए उपकरण (साधन) लानेकी आभियोगिक देवताओंको श्राक्षा दी, इसलिए वे ईशान दिशाकी तरफ गए। वहाँ उन्होंने बैंक्रिय समुढातके द्वारा एक पलमें उत्तम पुद्गलोका आकर्षण करके सोनेके, चाँदीके, रत्नोंके, सोने और चाँदीके, सोने और रत्नोंके; सोना- १-चौसठ इंद-मानिकांक १०, मुवनपतिकी दम निकायके २०, व्यंतरोंके ३२ और ज्योतिप्कोंक २ इंद्र; इस तरह कुल ६४ इंद्र हुए । च्यातिएकांके सूर्य चंद्र नामकही असंख्य इंद्र है; इसलिए यह भी कहा जाता है कि असंख्य इंद्र प्रमुखा जन्मोत्सव करते हैं। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१५६ चाँदी और रत्नोंके, चाँदी और रत्नोंके, तथैव मिट्टीके, ऐसे आठ तरहके, हरेक तरहके एक हजार आठ, एक योजन ऊँचे (कुल ८०६४ ) सुंदर कलश बनाए । कुंभोंकी संख्याके अनुसारही और आठ प्रकारके पदार्थों के मारियाँ, दर्पण, रत्नकी करंडिकाएँ ( छोटी टोकरियाँ), सुप्रतिष्टक (डिब्बे), थाल, पात्रिकाएँ (कटोरियाँ) और फूलोंकी चंगेरियाँ ( डलियाँ); ये सब प्रत्येक तरहके ८०६४ गिनते, ५६४४८ बरतन और कलश मिलाकर ६४५१२-वगैरा बरतन, मानों वे पहलेहीसे तैयार रखे थे वैसे, तुरत बनाकर वहाँ लाए। (४७५-४८०) फिर भाभियोगिक देवता घड़े उठाकर ले गए और उन्होंने क्षीरसागरमेंसे घड़े बारिशके पानीकी तरह भरलिए और वहाँसे पुंडरीक, उत्पल और कोकनद जातिके कमल भी, इसलिए लेभाए कि उनकी तीरनिधिके जलकी जानकारी को इंद्र जानले । पानी भरनेवाले पुरुष जलाशय (कूत्रा, वावड़ी या तालाब) मेंसे जल भरते समय जैसे कलश हाथमें लेते हैं पैसे ही देवोंने कलश उठाए और पुष्करवर समुद्रपर जाकर वहाँसे पुष्कर जातिके कमल लिए, फिर वे मागधादि तीर्थोंको गए और वहाँसे उन्होंने जल और मिट्टी लिए, मानों वे अधिक कलश बनाना चाहते हैं। माल खरीदनेवाले जैसे नमूना लेते हैं वैसेही उन्होंने गंगा आदि महानदियोंमेंसे जल लिया क्षुद्रहिमवत पर्वतसे उन्होंने सिद्धार्थ (सफेद सरसों) के फूल, श्रेष्ठ सुगंधकी चीजें और सषधि लिए। उसी पर्वतसे उन्होंने पद्म नामक सरोबरमेंसे निर्मल, सुगंधित और पवित्र जल और कमल लिए । एकही कामके लिए वे भेजे गए थे इसलिए मानों आपसमें स्पर्धा करते Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १.सर्ग२. हो वैसे, उन्होंने दूसरे वर्षधर पर्वतपरकी महीला से पद्म आदि लिए।समी क्षेत्रों से वनान्यपरसे और दूसर विजयाँ(प्रांतों मेसे अतृप्रदेवोंने स्वामी प्रसादकी तरह जल और क्रमललिए। वक्षार नामक पर्वतसे उन्होंन, दूसरी पवित्र और मुगंधित चीजें इस लिए जमा करके वहाँ रस्त्री हुई थीं। पालसरहिन उन देवाने देवकुन और उत्तरकुन क्षेत्रोंके नहाँके (तालाबोंके) जलसे कलशों को इस तरह भरा मानों श्रेय (मंगल-कल्याण ) से अपनी आत्माओंकोही भरा हो । भद्रशाल, नंदन, और पांडुक बनमसे उन्होंने गोशीर्ष चंदन वगैरा चीजें ली। इस तरह गंधकार जिस तरह सभी मुगंधित द्रव्योंको एकत्र करता है, वैसे सुगंधित चीजें और जल एकत्रित करके तत्काल ही मेरुपर्वतपर पाए । (४५२-९३) अब दस हजार सामानिक देवास, चालीस हजार प्रात्मरनक देवोंसे, तेतीस त्रायन्त्रिंशत देवास, तीन सभाओंके सभी देवासे, चार लोकपालॉस, सात बड़ी सेनाओंसे और सेनापतियोसे परखरा हुवा-यानी ये जिसके साथ है ऐसा-यारणाच्युत देवलोकका इंद्र पवित्र होकर भगवानको स्नान कराने के लिए तैयार हुआ। पहले उस अच्युतंद्रन उत्तरासंग (उत्तरीय-दुपट्टा) धारणकर नि:संग (निवार्य, मन्तिसे खिलेहुए पारिजात यादि फूल, अंजलिमें (मिलहम दोनों हाथीम) ले, सुगंधित धूपके घुरसे धूपित कर, नीनलोक नाथके सामने रखा। तब देवानं, भगवानके निकट पहुँचनेके श्रानंदन मानों हमरहे हों ऐसे और पुष्पमालाराने लिपट हुए, मुगंधित जलकं कलशोंको लाकर वहाँ रखा। उन पानीक पलशॉक मुखभागपरमवगेक Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. सागरचंद्रका वृत्तांत . [१६१ शब्दोंसे गूंजते हुए, कमल थे. जो ऐसे मालूम होते थे मानों थे भगवानके प्रथम स्नात्रमंगलका पाठ पढ़ रहे हों । कलश ऐसे मालूम होते थे मानों वे पातालकलश हैं और स्वामीको स्नान करानेकेलिए पातालसे वहाँ पाए हैं। अपने सामानिक देवता ओंके साथ अच्युतेंद्रने एकहजारआठ कलश इस तरह उठाए मानों वे उसकी संपत्तिके फल थे । ऊँची उठाई हुई भुजाओंके अग्रभागमें (हाथोंमें ) कुंभ, नालें ( कमलकी डंडियाँ) जिनके ऊपर की गई हों ऐसे कमलकोशोंकी विडंबना (परिहास) करते से मालूम होते थे; अर्थात उनसे भी अधिक सुंदर लगते थे । फिर अच्युतेंद्रने अपने मस्तककी तरह कलशको जरा झुकाकर जगत्पतिको स्नान कराना प्रारंभ किया। उस समय कईएक देवोंने,गुफाओंमें होते हुए शब्दोंकी प्रतिध्वनिसे मेरुपर्वतको वाचाल करते हों वैसे, आनक नामक मृदंग बजाने प्रारंभ किए । भक्तिमें तत्पर कई देव, सागरमंथनकी ध्वनिको चुरानेवाली दुदुभियाँ बजाने लगे। कई देव भक्तिमें मस्त होकर, पवन जैसे आकुल ध्वनिवाले प्रवाहकी तरंगोंको टकराता है वैसे,माँझ बजाने लगे। कई देवता, मानों ऊर्ध्वलोकमें जिनेन्द्रकी आज्ञाका विस्तार करती हो वैसी ऊँचे मुँहवाली भेरियाँ उचस्वरसे बजाने लगे। कई देवता, मेरुपर्वतके शिखरपर खड़े होकर, गवाल लोग जैसे सींगियाँ बजाते हैं वैसे ऊँची आवाजबाले काहल नामक बाजे बजाने लगे। कई देव उद्घोष(भगवानके जन्माभिषेककी घोपणा)करनेके लिए, जैसे दुष्ट शिष्योंको हाथोंसे पीटते हैं वैसे, मुरज नामक बाजेको अपने हाथोंसे पीटने लगे। कई देवता वहाँ आए हुए असंख्य Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. विठ शलाका बुनन-चरित्र: पर्व १. १२. सूरज और चाँदी लच्ली ( शोमा की हरनबाड़ी सोने और चाँदीची नाला बनाने लगे। और कई देवता नुहने अमन गंडूष छल्ली) महोब अपने स्टन गालों पुडासलाकर गंन्द्र जाने लगे। इस नाट्ट बांड बनार हनन्द नरहने बाजांची प्रतिवनि प्राशमी बाइक (जानवान न होने हुमी बननेवाला परवाना हो गया। (261-233) आप मुनियान इत्वरले उहा, " बगाय ! ई सिद्धिमानी कामगार वर्मप्रवक! तुन्हाय जय हो ! तुम सदा मुन्बी रहो। ५४४) ___ अच्युन्न बालसाहब, गति और बस्तुबदन नाममनोहर गद्य-पद्य बाग सानी नुनि श्री जितबह वीर वीरे अपने परिवार देवों सहित वनमनी र तीनोंलोडछोपाचनवाले श्रादिनाय )पर बरवीर कुमजल नलगा। माधान नवकार बनवान हालत हुषबग बलय) नेर पद शिवसरवर हल बादलगिनान मादल होने हो। भगवान मन्तवे दोनों बनाना चाहुल अन्तरा माणिज्य चटकी सामाअंधार करने लगा चोदनों मुखवाले ऋलशाल गिरती हूई बल बाग दर्दनी गुन निकलने डुलन्न यनान गोपने लगी। मनमाग उछलकर बानें तक गिर पडलछट वा एक ननाद सोमन लगे ले गर्गखर शिनही ईनि विदरजन बैलर भन्दमाग समान, बाट पर, वे दिवान लडाउने आपल-मान, पानोंडे भागने शार, विश्रांद (च) नॉकी तिथे जैसा, कोड Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सागरचंद्रका वृत्तांत - (गाल).पर कपूरकी पत्रवल्ली (पत्तोंकी बेलों) के स मनोहर होठोंपर स्मित-हास्यकी कांतिके कलाप ( समूह ) जैसा, कंठभागमें मोतियोंकी माला जैसा, कंधोंपर गोशीर्षके चंदनके तिलक जैसा और बाहु, हृदय और पीठपर विशाल (बड़े) वस्त्र जैसा मालूम होता था। (५१५-५२५) . जैसे चातक स्वातिका जल ग्रहण करते हैं वैसेही कई देवता प्रभुके स्नात्र (स्नान) के उस जलको, पृथ्वीपर पड़तेही, श्रद्धासे ग्रहण करने लगे; कई देवता, मारवाड़के लोगोंकी तरह यह सोचकर कि ऐसा जल हमें फिर कहाँसे मिलेगा, इस जलको अपने मस्तकपर डालने लगे; और कई देवता, गरमीके मोसमसे घबराए हुए हाथियोंकी तरह, बड़े शौकसे उस जलसे अपना शरीर भिगोने लगे। मेरुपर्वतके शिखरोंपर वेगसे फैलता हुआ वह जल चारों तरफ हजारों नदियोंकी कल्पना कराता था और पांडुक, सोमनस, नंदन तथा भद्रशाल उद्यानोंमें फैलता हुआ वह जल कुल्या (नाले) के समान मालूम होता था। स्नान करातेकराते कुभोंके मुख नीचे हो गए । वे ऐसे मालूम होते थे, मानों स्नान करानेकी जलरूपी संपत्ति कम हो जानेसे वे लजित हो रहे हैं। उस समय इंद्रकी आज्ञाके अनुसार चलनेवाले आभियोगिक देव, खाली कुंभोंको दूसरे भरे हुए कुंभोंके जलसे भरते थे। एक हायसे दूसरे हाथमें-ऐसे अनेक हाथोंमें-जाते हुए वे कुंभ धनवानोंके बालकों जैसे मालूम होते थे। नाभिराजाके पुत्रके समीप रखे हुए कलशोंकी कतार आरोपित स्वर्णकमलोंकी मालाके समान सुशोभित होती थी। खाली कुंभोंमें पानी डालनेसे जो भाषाज होती थी वह ऐसी मालूम होती थी मानों कुंभ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. प्रभुकी स्तुति कर रहे हैं। देवगण उन भरे कलशोंसे फिरसे प्रभुका अभिषेक करते थे। यक्ष जैसे चक्रवर्तीके निधान-कलशको (खजानेके कलशको ) भरते हैं वैसेही प्रभुको स्नान करानेसे खाली हुए इंद्रके कलशाको देवता जलसे भर देते थे। यार यार भरते और खाली होते कलश चलते हुए रहँटकी घटिका (घड़िया या घड़े) के समान मालूम होते थे। इस तरह अच्युतेंद्रने करोड़ों कलशोंसे प्रभुको स्नान कराया और अपने आत्माको पवित्र क्रिया। यह भी एक अचरज है ! फिर आरण और अच्युत देवलोकके स्वामी अच्युतेंद्रने दिव्य गंधकापायी (सुगंधित गेरुए ) वस्त्रसे प्रभुका शरीर पोंछा; उसके साथही अपने आत्माको भी पोंछा (पापमलरहित किया। प्रातः और संध्याके प्रकाशकी रेखा जैसे सूर्यमंडलका स्पर्श करनेसे शोभती है वैसेही वह गंधकापायी वन प्रभुके शरीरको स्पर्श करनेसे शोभता था । पोछा हुआ भगवानका शरीर, स्वर्णसारके सर्वस्वके जैसा, स्वर्ण-गिरिके एक भागसे बनाया हो वैसा शोभता था। (५२६-५४१) फिर भाभियोगिक देवोंने गोशीपचंदनके रसका कर्दम (लेप) सुंदर और विचित्र रकाबियोंमें भरकर अच्युतेंद्रके पास रखा। इंद्रने भगवानके शरीरपर इस तरह लेप करना प्रारंभ किया जिस तरह चाँद अपनी चाँदनीसे मेरुपर्वतके शिखरपर लेप करता है। उस समय कई देवता दुपट्टे पहन, तेज धूपवाली धूपदानियाँ हाथोंमें ले, प्रभुके चारों तरफ खड़े हुए। कई जो उनमें धूप डालते थे, ऐसे मालूम होते थे मानों ये स्निग्ध धूएँकी रेखाओंसे मेकपर्वतकी दूसरी श्यामवर्णकी चूलिका (घोटी) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१६५ - बना रहे हों । कई देवता जो प्रभुके ऊपर सफेद छत्र लगा रहे थे, ऐसे मालूम होते थे मानों वे आकाशरूपी सरोवरको कमलमय बना रहे हैं। कई, जो चंवर डुला रहे थे, ऐसे मालूम होते थे मानों वे प्रभुके दर्शनके लिए अपने आत्मीय (परिवार) लोगोंको बुला रहे हैं। कई देवता जो कमर कसे शस्त्र लिए प्रभुके चारों तरफ खड़े थे, प्रभुके अंगरक्षकोंसे मालूम होते थे। कई देवता जो सोने और मणियोंके पंखोंसे भगवानको हवा कर रहे थे, ऐसे मालूम होते थे मानों वे आकाशमें लहलहाती हुई विद्युल्लता (बिजलीरूपी वेल ) की लीला बता रहे हैं। कई देवता जो आनंदसे विचित्र प्रकाशके दिव्य पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे, दूसरे रंगाचार्य ( चितारे ) से मालूम होते थे। कई देव अत्यंत सुगंधित द्रव्योंका चूर्ण कर चारों दिशाओंमें घरसा रहे थे, वे अपने पापोंको निकाल-निकालकर फेंकते हुएसे जान पड़ते थे। कई देवता, जो सोना उछाल रहे थे, ऐसे जान पड़ते थे मानों उनको स्वामीने नियत किया है, इसलिए मेरुपर्वतकी ऋद्धि बढ़ानेका प्रयत्न कर रहे हैं। कई देवता, ऊँचे दरजेके रत्न बरसा रहे थे; वे रत्न आकाशसे उतरती हुई ताराओंकी कतारसे जान पड़ते थे। कई देवता अपने मीठे स्वरोंसे, गंधर्वोकी सेनाका भी तिरस्कार करनेवाले नए नए ग्रामों ( तार, मभ्य और पडज आदि स्वरों) और रागोंसे भगवानके गुण-गान करने लगे। कई देव मढ़े हुए घन (मोटे) और छिद्रवाले याजे बजाने लगे। कारण, भगवानकी भक्ति अनेक तरहसे की जाती है। कई देवता अपने चरणपातसे मेरुको कपाते हुए नृत्य कर रहे थे, मानों वे मेरुको भी नचा रहे हैं। कई देषता अपनी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] त्रिषष्टि शन्नाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. - - देवियों के साथ तरह तरह के हावभाव दिखाते हुए च्च प्रकारक नाटक करने लगे। कई देवता श्राकाश उड़त थे, वे गाड़ पड़ीसे नाम होने थे। कीडा (वनस) मुर्गेकी तरह जनीन पर गिरते थे। कई देव अचार (नट) की तरह सुंदर चाल चलने थे। कई निहली नरहन्शी सिंहनाद करते थे। कई हाथियोंची वरह ऊँची याबान करते थे। कई यानंद चोड़ाकी तरह हिनहिनाने थे। कई गया पहियोंत्री श्रावाजकी तरह घर-घर शब्द कररहे थे। कई विद्यऋकी तरह हमी उत्पन्न करनेवाने वार नरहले शब्द बोलते थे। कई बंदर कूट-कूटकर नैले पेडोंना हिलाते हैं बैन, कूट-कूटकर नेत्यर्वत शिखरको हिलाते थे। वह अपने हाथों इस नन्ह जोर पृीपर पत्राई रहे थे मानों वे लड़ाइने प्रतिज्ञा करनेवान चोदा हैं। कई बार जीते हो इस तरह चिल्ला रहे थे। ई बाजेकी तह अपने पूरले हा गालोगो बना रहे थे। कई नाची अनोखा व्य बना कर उछलने थे। ईन्द्रियाँ गोल किती हुई रान करती है वैसे गोन जिरते हुए मधुर गायन और मनोहर नाच कर रहे थे। ई आगची तट्ट जलद थे। कई घरजची तरह तयदे थे। कई नेवकी नन्ह गरजद थे। कई बिजलीची तरह अमरत थे और पूरी नहले पेट भरे हुम विद्यार्थीची तरह दिखावा करत थे। प्रमुची प्राप्ति होनेवाले पानंदको श्रीन लिया सता है ? इन नह देवना जब त्रुशियाँ मना रहे थे तब, अच्युतेंद्रने प्रभु क्षेप निया, पारिजातादि विचित हलो मलिलदिव नमु. की पूजा की और जिर. जरा पीछे हट मक्तिले नन्न हो, शिश्यत्री तरह भगवानकी वंदना की। ( -१) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. .. : . साग़रचंद्रका वृत्तांत ... ..: [ १६७ ..... दूसरे. घासठ इंद्रोने भी स्नान, विलेपनसे प्रभुकी इसी तरह पूजा की.जैसे बड़े भाईके पीछे छोटे भाई करते हैं। (५७२) फिर सौधर्मेद्रकी तरह ईशानेंद्रने भी अपने पाँच रूप किए। उनमें के एक रूपने भगवानको गोदमें लिया, एक रूपने कपूर जैसा छत्र धारण किया। छत्रके मोतीकी झालरें लग रही थीं,वे ऐसी मालूम होती थीं मानों ईंद्र दिशाओंको नाचनेका आदेश कर रहा है। दो रूपोंसे वह प्रभुके दोनों तरफ चवर डुलाने लगा। उसके हिलते हुए हाथ ऐसे मालूम होते थे मानों वे हर्षसे नाच रहे हैं। और एक रूपसे वह इस तरह प्रभुके आगे खड़ा रहा मानों वह प्रभुके दृष्टिपातसे अपनेको पवित्र बना रहा है । (५७३-५७६) __.. फिर सौधर्मकल्पके इंद्रने जगत्पतिकी चारों दिशाओं में स्फटिकमणिके चार ऊँचे पूरे वृषभ(बैल)बनाए। ऊँचे सींगोंसे शोभते वे चारों वृषभ चारों दिशाओं में रहें हुए चंद्रकांत रत्नके चार क्रीड़ापर्वतोंके समान मालूम होने लगे । चारों बैलोंके आठ सींगोंसे आकाशसे इस तरह जलधाराएँ निकलने लगीं मानों वे पृथ्वी फोड़कर निकली है । मूलमें अलग अलग मगर अंतमें मिली हुई वे जलधाराएँ आकाशमें हुए नंदी-संगमका भ्रम कराने लगीं। सुरोंअसुरोंकी नारियाँ कौतुकसे उनजलधाराओंको देखने लगीं। वे धाराएँप्रभुके मस्तकपर इसतरह पड़ने लगी जिस तरह नदियाँ समुद्र में पड़ती है। जलयंत्रों (नलों) की तरह सींगोंसे निकलती हुई जलधाराओंसे शकेंद्रने आदि-तीर्थकरको स्नान कराया। भक्तिसे जैसे हृदय आर्द्र हो जाता है (भीग जाता है) वैसेही मस्तकपररागिरफर उछलतीहुई स्नानजलकी बूंदोंसे दूर खड़े Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] त्रिषष्टि शालाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग:. हुए देवनाओंके कपड़े भीगने लगे। फिर इंद्रने उन चारों बैलोको इस तरह अवश्य कर दिया जैसे जादूगर अपने जाइसे बनाई चीजोंको अवश्य कर देना है। स्नान कराने के बाद बहुत स्नेहशील उस देवपनिने देवदुष्य बन्नसे प्रभुके शरीरको इसतरह (यत्नके साथ) पोला जैसे रनके दर्पणको (आइनेको पांचते हैं। रत्नमयापटपर निर्मल और चाँदीक अलंड अक्षतोंसे (चाँवलासे ) प्रभुके सामने अष्टमंगल (साथियांविशेष ) बनाया । पीछे मानों अपना बहुन अनुराग (लेह) हो उस तरह के उत्तम अंगराग (चटन) से उसने त्रिजगतगुनके अंगपर लेप किया। प्रभुके हुनते हुए मुखपी चंद्रकी चंद्रिकाका भ्रम पैदा करने वाले उन्चल और दिव्य बन्त्रोंसे इंजन प्रमुकी पूजा की और विश्वकी मूर्द्धन्यताके (जगतमें मुख्य होन) चिह्न समान बत्रमाणिक्यका सुंदर मुजुट प्रभुको धारण कराया। फिर उसने प्रभुके कानों में सोने के दो कुंडल पहनाए ऐसे शोमते थे जैसे मॉम्के समय पूर्व और पश्चिम दिशामें आकाशपर मुरल और चाँद शोमने हैं। उसने स्वामी गन्में दिव्य मोतियोंकी बड़ी माला पहनाई, बट्ट लक्ष्मीके भूलकी डोगसी मालूम होती थी। बालइन्तिकी इंकूलों में से नोन कंगा (चूड़ियाँ) पहनाते हैं वैसेही उसने प्रमुकी भुताओंमें दो भुजबंध पहनाए । उसने वृक्षकी शान्ता अंतिन भागके गुच्छ समान, गोलाकार और बड़े मोतियों मणिमय कंत्रण प्रमुळे मणिबंधों (कलाइयां पहनाए । वर्षवर पर्वतचे नितंत्रमाग (दाल) पर रहे हुए सुवर्णकुल बिलासको धारण करनेवाला कोरा इंजन प्रमुकी कमरमें पहनाया । उसने मुझे दोनों पैरों में माणिक्यमय लंगर पहनाए, वे ऐसे मालूम होते थे मानों देवों और अनुरोंके वेन उनमें समा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - सागरचंद्रका वृत्तांत गए हैं। इंद्रने जो जो आभूषण भगवानके अंगोंको अलंकृत करनेके लिए पहनाए थे वे खुदही भगवानके अंगोंसे अलंकृत हुए। भक्तिपूर्ण चित्तवाले इंद्रने, प्रफुल्लित पारिजातके पुष्पोंकी मालासे प्रभुकी पूजा की। फिर कृतार्थ हुआ हो वैसे वह जरा पीछे हटकर प्रभुके सामने खड़ा हुआ। उसने आरती करनेके लिए हाथमें आरती ली। जलती हुई कांतिवाली उस आरतीसे इंद्र ऐसा शोभने लगा जैसे प्रकाशमान औषधिवाले शिखरसे महागिरि शोभता है। जिसमें श्रद्धालु देवोंने फूलोंका समूह डाला है ऐसी उस आरतीसे उसने तीन बार प्रभुकी आरती उतारी। फिर भक्तिसे रोमांचित होकर शक्रस्तव द्वारा प्रभुकी वंदना कर इंद्र इस तरह विनती करने लगा; (५७३-६०१) ___"हे जगन्नाथ ! हे त्रैलोक्य-कमल-मार्तंड ! (तीन लोकके प्राणी रूपी कमलोंके लिए सूरजके समान) हे संसाररूपी मरुस्थलमें कल्पवृक्ष ! हे विश्वका उद्धार करनेवाले वांधव ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! यह मुहूर्त भी वंदनीय है कि जिसमें धर्मको जन्म देनेवाले, अपुनर्जन्मा ( जिनका फिर कभी जन्म न होगा ऐसे ) और जगजंतुओंके दुःखका नाश करनेवाले ऐंसे, आपका जन्म हुआ है। हे नाथ ! इस समय आपके जन्माभिषेकके जलके पूरसे भीगी हुई और वगैर कोशिशकेही जिसका मल दूर होगया है ऐसी यह रत्नप्रभा पृथ्वी (आपके समान रत्नको जन्म देकर ) यथानाम तथा गुणवाली हुई है । हे प्रभो! वे मनुष्य धन्य हैं जो सदा आपके दर्शन पाएँगे; हम तो कभीकभीही आपके दर्शन पाएँगे। हे स्वामी ! भरतक्षेत्रके मनुष्यों के लिए मोक्षमार्ग बंद हो गया है, उसे आप नवीन मुसाफिर होकर Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५] त्रिषष्टि शलाका पुश्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. फिरसे प्रारंभ करेंगे हे प्रभो ! आपकी बर्मदेशना तो दूर रही, वल श्राप दर्शनही प्राणियाँका कल्याण करनेवाले है। है भत्रनारक (संभारको तारनेवान) ऐसा कोई नहीं है जिससे आपकी तुलना की जाए इसलिए मैं कहता हूँ कि आपके समान प्रापही है। अब अधिक स्तुति ? ईनाथ ! मैं आपके मथनाय (सत्य अयचो बनानेवाल) गुणोंका वर्णन करने भी अनमयं हूँ। कारण, स्वयंभूरमण सके जलको कौन माप सकता है ? (३-६० इस तरह जगलतिची स्तुति कात्र, प्रमोद (खुशी से जिसका मन सुगंधमय (श) या है ए शद्रने पहीत्री तरह पाँच न बनाए । उनसे अयमादी एक बस उसने शानेंद्रकी गोदी, रहस्यची तरह जगत्यतिको अपने सीनियर लिया स्वानीची नेत्रानो जाननवाजे उस दस कप,नियुक्त चिए हुए नारीवरह, पहलेची तरहही अपना अपना आन कग्ने जंग। फिर अपने देवताओं सहित देवताओंका नेता शद्र, वहाँ अाशंकर, मन्दबाये अहंछन नंदिर (महल) में आया। वहाँ, माता पाल सन पुतज्ञा पत्रा था उसे उठा लिया और प्रमुत्री सुना दिया। इन मन्देवी माताकी अवस्वापिनी निनाइसी तरह दरअर जिस तरह सूर्य कमलिनीकी निद्राको दूर करता है। चरितानयर ई हम हंसनाला बिलानो धारण करनेवाला उजला, दिव्य और शनी बड़ा एक जोड़ा उसने मुझे सिरहाने रखा। चरनमें भी, ब्लन हुपमामंडनची कल्पना करानेवाली रत्नमय इंदनी जोड़ी भी बसनं प्रमुझे सिरहाने रन्नी ! मी तरह मान प्राकार (दीवार) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सागरचंद्रका वृत्तांत . . [ १७१ से बनाए हुए विचित्र रत्नके हारों और अर्द्धहारोंसे व्याप्त और सोनेके.सूर्यके समान प्रकाशित श्रीदामगंड (झूमर) भी प्रभुकी नजरको आनंदित करने के लिए,आकाशके सूर्यकी तरह, अपरके चंदोवेमें लटका दिया। फिर उसने कुबेरको आज्ञा दी कि बत्तीस करोड़ हिरण्य (कीमती धातुविशेष), बत्तीसकरोड़ सोना, बत्तीस नंदासन, बत्तीस भद्रासन, और दूसरे मनोहर वस्त्र इत्यादि मूल्यवान पदार्थ-जिनसे सांसारिक सुख होता है-स्वामीके भुवनमें इस तरह बरसाओ जिस तरह बादल पानी बरसाते है।" (६१०-६२२) . कुबेरने आज्ञा पातेही चंभक जातिके देवोंसे कहा और उनने इंद्रकी आज्ञाके अनुसार सभी चीजें बरसाई। कारण "याज्ञाप्रचंडानां वचसा सह सिद्ध यति ।" [प्रचंड-शक्तिवान पुरुषोंकी आज्ञा वचनके साथही सिद्ध होती है ।] फिर आभियोगिक देवोंको इंद्रने आज्ञा दी, "तुम चारों निकायके देवोंको सूचना देदो कि जो कोई प्रभुको अथवा उनकी माताको हानि पहुँचानेका विचार करेगा उसका मस्तक अर्कमंजरीकी तरह सात तरहसे छेदा जाएगा । गुरुकी आज्ञाको शिष्य जैसे ऊँची आवाजसे सुनाता है वैसेही उन्होंने भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवोंमें इंद्रकी आज्ञाकी घोषणा १-दस तरहके तिर्यगभक देवता हैं; वे कुवेरकी श्राज्ञामें रहनेनाले हैं। २-यह एक तरहकी मंजरी है। जब थह पककर फूटती है तब इसके सात भाग हो जाते हैं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पत्र १. सर्ग २. - की। फिर जैसे सूरज बादलोंमें पानी डालना है वैसेही उसने भगवानके अंगूठेमें अनेक तरह के रस भरदिए अयोत अंगूठेमें अमृत भरदिया। अहंत स्तनपान नहीं करते इसलिए जब उनको भूख लगती है तब अपने आप, अमृतरस बरसानेवाला अपना अंगूठा, मुँहमें लेकर चूसते हैं । फिर उसने पाँच अप्सराओंको, धायका काम करनेके लिए वहीं रहने की आज्ञा दी। (६२३-६२६) जिन-स्नात्र हो जाने के बाद. जब इंद्र भगवानको रखने के लिए आया उस समय बहुतसे देवता मेरुशिखरसे नंदीश्वर द्वीप गए। सौधर्मंद्रभी नाभिपुत्रको उनके महल में रखकर, स्वर्गवासियोंके निवास समान नंदीश्वर द्वीपको गया और वहाँ पूर्व दिशाके, क्षुद्र मेरु पर्वतके समान प्रमाणवाले, देवरमण नामके अंजनगिरि पर उतरा। वहाँ उसने विचित्र मणियोंकी पीठिकावाले, चैत्यवृक्ष और इंद्रध्वजद्वारा अंकित, और चार दरवाजोंवाले चैत्यमें प्रवेश किया और अष्टाह्निका उत्सवमहित ऋषभादि अहंतोंकी शाश्वती प्रतिमाओंकी पूजा की। उस अंजनगिरिकी चार दिशाओंमें चार बड़ी बावड़िया है। उनमसं हरेकम एक एक स्फटिक मणिका दधिमुख नामक पर्वत है। उन चारों पर्वतोंके ऊपरके चैत्योंमें शाश्वती अहंतोंकी प्रतिमाएँ हैं। शके चार दिग्पालाने, अष्टाहिका उत्सवसहित, उन प्रतिमाओंकी विधिसहित पूजा की। ___ (६३०-६३६) . १-दूसरे चार छोटे मेरु पर्वत हैं | ८४००० योजन ऊँचे हैं। २-अयम, चंदानन, वारिषण और वर्द्धमान इन चार नामावालीही शाश्वती प्रतिमाएँ होती हैं। . - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका. वृत्तांत : [१७३ ईशानेंद्र उत्तर दिशाके नित्य रमणीक ऐसे रमणीय नामके अंजनगिरिपर उतरा और उसने उस पर्वतपरके चैत्यमें ऊपरकी तरह ही शाश्वती प्रतिमाएँ हैं, उनकी अष्टाहि. उत्सवपूर्वक पूजा की। उसके दिक्पालोंने भी उस पर्वतके चारों तरफकी बावड़ियोंके दधिमुख पर्वतोपरके चैत्योंमें विराजमान शाश्वत प्रतिमाओंकी पूजा की। (६३७-६३६) चमरेंद्र दक्षिण दिशाके नित्योद्योत नामके अंजनाद्रि पर उत्तरा । रत्नोंसे नित्य प्रकाशमान उस पर्वतपरके चैत्योंमें विराजमान शाश्वत प्रतिमाओंकी उसने बड़ी भक्तिके साथ, अष्टाहिका महोत्सव सहित पूजा की। और उस पर्वतके चारों तरफ की बावड़ियोंके दधिमुख पर्वतोपरके चैत्योंमें विराजमान प्रतिमाओंकी अचलचित्तसे उत्सबके साथ चमरेंद्रके चार लोकपालोंने पूजा की। (६४०-६४२) - बलि नामका इंद्र पश्चिम दिशाके स्वयंप्रभ नामके अंजन. गिरिपर, मेघके समान प्रभावके साथ उतरा । उसने उस पर्वतके चैत्योंमें विराजमान देवताओंकी आँखोंको पवित्र करनेवाली, शाश्वती ऋषभादि अहंतोंकी प्रतिमाओंका उत्सव किया। उसके चार लोकपालोंसे भी उस अंजनगिरिके चारों तरफकी दिशाओंकी बावड़ियोंके अंदर दधिमुख नामक पर्वतोपरके चैत्योंमें विराजमान शाश्वती जिनप्रतिमाओंका उत्सव किया। (६४३-६४५). इस तरह सभी देव नंदीश्वरद्वीपपर उत्सव करके मुसाफिरोकी तरह जैसे आए थे वैसेही अपने अपने स्थानोंपर गए। . (६४६) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. इधर सबेरे स्वामिनी ममदेवी माता जागी । उनने रातमें देवता. ओंके यानेजानेकी, रावकं सपनेकी तरह, सारी बातें कहीं। जगस्पतिके उमपर ऋषभका चिह्र था और मनदेवी माताने भी सप. नोंमें सबसे पहले ऋपम देखा था इसलिए हर्पित मातापिताने शुम दिन देखकर उत्साह के साथ प्रभुका नाम ऋषम रखा । उनके साथही, युगल रूपमें जन्मी हुई कन्याका नाम सुमंगला रखा। यह नाम यथार्थ और पवित्र था। जैसे वृक्ष खेतों की कुल्याओं का (पानीकी नालियोंका) जल पीते है सही पम स्वामी भी, इंद्रके द्वारा अंगूठेमें भरद्वप अमृतका योग्य समयपर पान करने लगे। जैसे पर्वतकी गोद (गुफा में बैठे सिंहका किशोर. शोभता है, वैसेही पिताकी गोदमें बैठे हुए बालक भगवान शोमने लगे। जैसे पाँच समितियाँ महामुनिको नहीं छोड़ती हैं, वैसेही इंद्रकी रखी हुई पाँच दाइयाँ प्रभुको कभी भी अकेला नहीं छोड़ती थीं। (६४७-६५३) लय प्रमुके जन्मको एक साल होने पाया तब सौधर्मेंद्र वंशकी स्थापना करनेके लिए वहाँ (अयोध्या में पाया । सेवकको कमी खाली हाथ स्वामीके पास नहीं जाना चाहिए, इस विचारसे इंद्र एक बड़ा गन्ना अपने साथ लाया। शरीरधारी शरदऋतु के समान सुशोभित इंद्र गन्ने सहित वहाँ आया जहाँ प्रमु नामिरानाकी गोदमें बैठे हुए थे। प्रभुने अवधिनानके द्वारा इंद्रका इरादा लान, हाथीकी (गुंडकी ) तरह अपना हाथ गमा लेनेको लंवा किया स्वामीका भाव नाननेवाले इंद्रने सर मुकाकर गन्ना मेंटकी तरह प्रभुको दे दिया। प्रमुने इक्षु (गमा) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . मगर चंद्रका वृत्तांत [१७५ ग्रहण किया था, इसलिए इंद्र प्रभुके वंशका नाम इक्ष्वाकु रखकर स्वर्गमें चला गया । (६५४-६५६ ). युगादिनाथका शरीर पसीना, रोग और मलसे रहित सुगंधि व सुंदर आकारवाला था और वह स्वर्णकमलके समान शोभता था। उनके शरीरके मांस और मधिर गायके दूधकी धाराके समान उज्ज्वल और दुर्गधरहित थे। उनके आहारभोजन, नीहार (मलत्याग) की विधि चर्मचक्षु के अगोचर थी। यानी कोई आँखोंसे प्रभुका भोजन करना या मलत्याग करना देख नहीं सकता था। उनकी साँसकी सुगंध खिले हुए कमलके समान थी। ये चारों अतिशय जन्मसेही प्रभुको मिले हुए थे । वचऋपभनाराच संहननवाले प्रभु इस विचारसे धीरेधीरे चलते थे कि कहीं जमीन धंस न जाए। उनकी उम्र छोटी थी, तो भी वे गंभीर और मधुर बोलते थे। कारण, लोकोत्तर पुरुपोंका वचपन उम्रकी दृष्टिसेही होता है। समचतुरस्रसंस्थानवाला प्रभुका शरीर ऐसा शोभता था मानों वह खेलनेकी इच्छा रखनेवाली लक्ष्मीकी स्वर्णमय क्रीड़ावेदिका हो। समान उसके बनकर आए हुए देवकुमारोंके साथ वे उनकी अनुवृत्तिके लिएउनको खुश रखनेके लिए खेलते थे। खेलते समय धूलसे भरे हुए शरीरवाले और घुघरू पहने हुए प्रभु मस्तीमें आए हुए हाथीके चालकके समान शोभते थे। जिसको प्रभु लीलामात्रमें ले सकते थे उसको पानेमें बड़ी ऋद्धिवाला देव भी समर्थ नहीं ... १~-प्रभुके ३४ अतिशय होते हैं, उनमसे ४ तो जन्मके साथही प्राप्त होते है। . . . .. .. . . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष १. सर्ग २. होता था। अगर कोई प्रमुके बल्लकी परीक्षाके लिए, उनकी अँगुली पकड़ता था तो वह उनके श्वासके पवनसे रेतीके कणकी तरह उड़कर दूर जा गिरता था। कई देव-कुमार कंदुक (गंद) की तरह प्रमुक सामने लोटते थे और विचित्र कंदुकांसे (नदीसे) प्रभुको खिलाते थे। कई देवकुमार राजशुक्र (पाले हुए तोते) का रूप धारण कर चाटुकार ( खुशादम करनेवाले ) की तरह, "जीते रहो ! जीते रहो । वुश रहो ! खुश रहो !" इत्यादि तरह तरहके शब्द बोलते थे। कई देव स्वामीको खुश करने के लिए मोर बनकर केकावाणीस (मोरकी बोलीस, पहज स्वरमें गाते थे और नाचते थे। प्रमक मनोहर हस्तकमलको ग्रहण करने और स्पर्श करने के इरादेसे कई देवकुमार इंसाका रूप धारण कर गांधार स्वरमं गायन कर. प्रभुके यासपास फिरते थे। कई देवकुमार प्रमुका प्यारभरा दृष्टिपात रूपी अमृतपान करनेकी इच्छासे क्रोचपक्षीका रूप धारण कर उनके सामने मध्यम स्वर में बोलने थे। कई प्रमुके मनको प्रसन्न करने के लिए कोयलका रूप धारण कर. पासकं वृक्षपर बैट, पंचम स्वरमें गाते थे। कई अपनी यात्माको पवित्र करनेकी इच्छासे, प्रमुका वाहन बननेके लिए घोड़का रूप धारण कर. धैवत ध्वनिमें हिनहिनातं हुए प्रमुके पास आत थे। कई हाधीका रूप धारण कर निषाद स्वरमें बोलते हुए नीचा मुंह किए ढासे प्रमुके चरणोंको स्पर्श करते थे। कई वृषम (बैल) का रूप धारण कर सांगांसे तट. प्रदेशको (पासकी जमीनको) नाइन करत और वृषभ समान स्वगम बालतं हा प्रमुकी दृष्टिको प्रानदित करते थे। को अंजनाचल (काल पहाड़ी के समान बड़े सांका रूप धारण कर परापर लड़त और प्रभुको युद्ध-फ्रीड़ा बताते थे। का Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सागरचंद्रका वृत्तांत [१७७ . ... . .. . प्रभुके आनंदके लिए पहलवानोंका रूप धरकर अपनी भुजाओंको ठोकते हुए एक दूसरेको अखाड़ेमें उतरनेके लिए ललकारते थे। इस तरह योगी जैसे तरह तरहकी विधियोंसे प्रभुकी उपा-. सना करते हैं वैसेही देवकुमार भी तरह तरहके खेल बताकर प्रभुकी उपासना करते थे। ऐसी स्थितिमें रहते हुए और उद्यानपालिकाएँ जैसे वृक्षका लालन करती हैं उसी तरह अप्रमादी पाँच दाइयोंके द्वारा लालित-पालित प्रभु क्रमशः बड़े होने लगे। (६६०-६५२) अंगूठा चूसनेकी अवस्था पूरी होनेपर दूसरी अवस्थाको प्राप्त गृहवासी अरिहंत सिद्धअन्न (धाहुआ नाज) का भोजन .. करते हैं; परंतु नाभिनंदन भगवान तो उत्तरकुरु क्षेत्रसे देवताओं के द्वारा लाए हुए कल्पवृक्षके फलोंका भोजन करते थे और क्षीरसमुद्रका पानी पीते थे। बीते कलकी तरह बचपनको पूरा कर, सूरज जैसे दिनके मध्यभागमें आता है वैसे प्रभुने, जिसमें अवयव पूर्ण दृढ़ हो जाते हैं, ऐसे यौवनका आश्रय लिया। जवान होनेके बाद भी प्रभुके दोनों चरण, कमलके मध्यभागके समान कोमल, लाल, उष्ण, कपरहित, पसीनेरहित और समान तलुएवाले थे। उनमें चक्रका चिह्न था, वह मानों दुखियोंके दुःखोंका छेदन करनेके लिए था, और माला, अंकुश तथा ध्वजाके चिह्न थे, वे मानों लक्ष्मीरूपी हथिनीको हमेशा स्थिर रखने के लिए थे। लक्ष्मीके लीलाभवनके समान प्रभुके चरणतलमें शंख और कुंभके चिह्न थे व एड़ीमें स्वस्तिकका चिह्न था। प्रभुका पुष्ट, गोलाकार और सर्पके फनकी तरह उन्नत अंगूठा, पत्सकी सरह श्रीवत्सके चिहवाला था। वायुरहित स्थानमें Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग, जलते हुए कंपरहित दीपककी शिस्त्राने समान प्रभुकी छिद्ररहित और सरल अंगुलियाँ चरणरूपी कमलके समान मालूम होती थीं। उन अंगुलियोंके नीचे नंद्यावर्त (जीके जैसी रेखाओं) के चिह्न शोभते थे। उनका जो प्रतिबिंब भूमिपर पड़ता था वह धर्मप्रतिष्ठाका हेतुरूप होता था। जगत्पतिकी हरेक उँगलीके पर्वमें अधोवापियाँ(गहरे खड़ों सहित जौके चिह्न थे। वे ऐसे मालूम होते थे मानों वे जगतकी लक्ष्मीके साथ प्रभुका व्याह होनेवाला है इसलिए बोए गए हैं। पृथु (मोटी) और गोलाकार एड़ी ऐसी शोमती थी, मानों वह चरणकमलका कंद (बचा) हो। नाखत अंगूठे और अंगुलीरूपी सों के फनोंपर मणिके समान शोभते थे। चरणोंके गृह (माफ न दिखनेवाले ) गुल्फ (टखने) सोनेके कमलकी कलिकी कर्णिका (गाँठ ) के गोलक (बड़ा) की शोमाका विस्तार करते थे । प्रमुके दोनों पैरोंके तलुबेके ऊपरके भाग कलाएकी पीठकी तरह क्रमसे उन्नत, नसें न दिखें ऐसे, रोमरहित ओर स्निग्य क्रांतिवाले थे। गोरी पिंडलियाँ, अस्थि-कृघिरमें छिप जानेसे, पुष्ट, गोल और हिरणोंकी पिंडलियोंकी शोमाका भी निरस्कार करनेवाली थीं। वुटने मांससे भरे हुए और गोल थे। वे रईसे मरेडएगोल तकिये के अन्दर डाले हुए श्राइनके समान लगते थे। बाँव कोमल, क्रमसे (मोटाईम ) चढ़ती हुई और निग्य थीं। वे केलेके खमके विलासको धारण करती थीं। मुष्क (अंडकोश) हाथीकी तरह गूढ़ व समस्थितिवाले थे; कारण, १-चैत्यकी प्रतिष्ठा नंद्यावर्तनी यत्रा होती है.वैनेही यहाँ मी उसे धर्मकला प्रतिष्ठाका चिह ममनना चाहिए। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१७६ - - अश्वकी तरह कुलीन पुरुषके चिह्न बहुत गूढ़ होते हैं। उनका पुरुषचिह्न ऐसा था जिसकी नसें नहीं दिखती थीं। वह न ऊँचा था, न नीचा था, न शिथिल था, न बहुत छोटा था, न बहुत मोटा था; सरल था, कोमल था, रोमरहित था और गोलाकार था। उसके कोशमें रहा हुआ पंजर-शीत, प्रदक्षिणावर्त्त शब्दमुक्ताको धारण करनेवाला, अबीभत्स (जिससे घृणा न हो ऐसा) और आवर्ताकार (भँवर जैसा ) था। प्रभुकी कमर विशाल, पुष्ट, स्थूल और बहुत कठिन थी। उनका मध्यभाग सूक्ष्मतामें वज्ञके बीचके भाग जैसा मालूम होता था। उनकी नाभि नदीके भँवरके विलासको धारण करती थी। उनकी कुक्षि (कोख) के दोनों भाग स्निग्ध, मांसल, कोमल, सरल और समान थे। उनका वक्षस्थल (छाती) सोनेकी शिलाके जैसा विशाल, उन्नत, श्रीवत्सरत्नपीठके चिह्नवाला और लक्ष्मीके खेलनेके लिए छोटे चबूतरेसा मालूम होता था। उनके दोनों कंधे सांढके ककुद (डिल्ला) के समान दृढ़, पुष्ट और उन्नत थे। उनकी दोनों कक्षाएँ (काँखें) अल्प रोमवाली, उन्नत और गंध, पसीना व मैलसे रहित थीं। उनकी पुष्ट और कर (हाथ) रूपी फनोंके छत्रवाली भुजाएँ घुटनों तक लंबी थीं। वे ऐसी मालूम होती थीं मानों चंचला लक्ष्मीको वशमें रखनेके लिए नागफाँस हैं। और दोनों हाथ नवीन आमके पत्तोंसी लाल हथेलीवाले, निष्कर्म होते (कुछ काम न करते) हुए भी, कठोर, पसीनेरहित, छिद्ररहित और जरा गरम थे। पैरोंकी तरह उनके हाथ भी-दंड, चक्र, धनुप, मत्स्य, श्रीवत्स, वन, अंकुश, ध्वज, कमल, चामर, छत्र, शंख, कुंभ, समुद्र, मंदिर, मकर, ऋषभ, सिंह, अश्व, रथ, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. स्वस्तिक, दिग्गज, प्रासाद, तोरण और दीप वगैरा चिह्नोंसे अंकित थे। उनके अंगूठे और अँगुलियाँ लाल हाथ से उत्पन्न हुए, इसलिए लाल और सरल थे। वे प्रांतभागमें माणिक्यके फूलवाले कल्पवृक्षके अंकुरके जैसे मालूम होते थे। अंगूठेके पर्वभागमें यशम्पी उत्तम अश्वको पुष्ट करनेके कारणरूप यवोंके चिह्न स्पष्टतया शोभते थे। अंगुलियोंके ऊपरके भागमें प्रदक्षिणावर्तके (दाहिनी तरफके चक्रके) चिह्न थे, वे सर्वसंपत्ति बतानेवाले दक्षिणावर्तके शंम्बपनको धारण करते थे। उनके कर-कमलके मूलभागमें (कलाईमें ) तीन रेखाएँ शोभती थीं, वे ऐसी मालूम होती थीं मानों में तीनलोकका उद्धार करने के लिए ही बनाई गई है । उनका गोलाकार, श्रदीर्घ (बहुत लंबा नहीं ऐसा ) और तीन रेखाओंसे पवित्र बना हुआ गंभीर ध्वनिवाला कंठ शंखकी समानताको धारण करता था। निर्मल,तुल (गोल) और कांतिकी तरंगोंवाला मुग्न कलकरहित दूसरे पूर्ण चंद्रसा लगता था। दोनों कपोल (गाल ) कोमल, स्निग्ध और मांससे भरे थे, वे एक साथ रहनवाली वाणी और लक्ष्मी के दो दर्पण जैसे थे; और अंदरके श्रावर्त (गोलाई) से सुंदर और कंधेतक लवे दोनों कान मुखकी कांतिरूपी समुद्र के तीरपर रही हुई दो सीपोंके जैसे थे। होठ बिवफलके समान लाल थे। बत्तीसी दाँत कुंदकलिके सहोदर (सगे भाई) के समान थे और उनकी नाक क्रमशः विस्तारवाली और उन्नत वंशकं समान थी। उनकी चिचुक (ठड़ी) पुष्ट, गोलाकार, कोमल और समान थी तथा उसपर उंगी हुई डाहीके केश श्याम, सघन, स्निग्ध और कोमल थे। प्रमुकी जीभ नवीन कल्पवृक्ष प्रधान समान लाल,कोमल, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. सागरचंद्रका वृत्तांत : . [१८१ NEEROLORruneupeup अनतिस्थूल (बहुत मोटी नहीं ऐसी). और द्वादशांगके अर्थको मतानेवाली थी। उनकी आँखें अंदरके भागमें श्याम व सफेद और किनारेपर लाल थीं इससे मानों वे नीलमणि,स्फटिकमणि और शोणमणिसे बनी मालूम होती थीं। कानातक फैली हुई ' और काजलके समान काली भौहोवाली आँखें,मानों भौरे जिन' में लीन होरहे हों ऐसे कमलसी मालूम होती थीं। उनकी श्याम और टेढ़ी भौंहें, दृष्टिरूपी पुष्करिणी (जलाशय-विशेष ) के तीरपर उगीहुई लताकी शोभाको धारण करती थीं। मांसल, गोल, कठिन, कोमल और समान ललाट अष्टमीके चंद्रमाके समान शोभता था। और मौलिभाग (ललाटके ऊपरका भाग) क्रमशः उन्नत था. वह उलटे किए हुए छत्रसा जान पड़ता था। जगदीश्वरपनको सूचित करनेवाला प्रभुके मौलिछत्रपर विराजमान गोल और ऊँचा मुकुट कलशकी शोभाको धारण करता था और टेदे, कोमल, स्निग्ध और भौरेके जैसे काले केश यमुना नदीकी तरंगोंके समान जान पड़ते थे। प्रभुके शरीरपर गोरोचनके गर्भके समान गोरी, स्निग्ध और स्वच्छ त्वचा (चमड़ी) सोनेके रससे पोती हुई हो ऐसी, शोभती थी। और कोमल, भौरेके जैसी श्याम, अपूर्व उद्गमवाली और कमलतंतुके समान वारीक रोमावली शोभती थी। (६५२-७२६) इस तरह अनेक तरहके असाधारण लक्षणोंसे युक्त प्रभु, रत्नोंसे रत्नाकरकी तरह किसके सेव्य (सेवा करने योग्य) न थे? अर्थात सुर, असुर और मनुष्य, सबके सेव्य थे। इंद्र उनको हाथका सहारा देते थे, यक्ष चमर डुलाते थे और चिरजीवो ! चिर जीवो!' कहते हुए असंख्य देवता उनके चारों Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ त्रिषष्टि शालाका पुरुष-चरित्रः पर्य १. सर्ग २. तरफ रहते थे तो भी प्रभुके मनमें अमिमान जरासा भी न था। वे यथासुख विहार करते थे (खेलतं कूदते थे)। कई बार प्रमु इंद्रकी गोदमें पैर रखें, चमरेंद्रके गोदरूपी पलंगपर, अपने शरीरके ऊपरी भागको स्थिर किये और देवताओंद्वारा लाएहए श्रासनपर विराजमान हो, दोनों हाथों में हस्ताई (तौलिए) लिए हाजिरी में खड़ी हुई अप्सराओं द्वारा से विन, अनासक्त भावसे दिव्य नृत्य-गीत देखते-मुनते थे । (७३०-७३४) एक दिन एक युगलियोंकी जोड़ी ताइवृक्षके नीचे बालकोके लायक खेलकूद करती थी। उस समय बहुत मोटा ताड़का फल उस युगलके पुरुपके सरपर पड़ा और काकतालीय न्यायसे, वह पुरुष तत्कालही अकालमृत्युसे पंचत्व पाया (असमयमें मर गया)। ऐसी घटना यह पहलीही बार हुई थी । अस्पकपायों कारण यह युगलिया लड़का मरकर स्वर्गमें गया । कारण "तूलमप्यल्पमारत्वादाकाशमनुधावति ।" मह भी बहुत कम वजनवाली होनस श्राकाशमें लाती है। पहले बड़े पत्नी, अपने घोंसलोंकी लकड़ीकी तरह युगलियोंके मृत शरीरको उठाकर समुद्र में डाल देते थे; मगर उस समय यह बात नहीं रही थी; अवसर्पिणीकालका प्रमाव अत्रसपंरा हो रहा था (आगे बढ़ रहा था)। इसलिए यह कलेवर. मुदी वहीं पड़ा रहा। उस जोड़ीमें बालिका थी, वह स्त्रमावसंही मुग्धपनसे मुशोभित होरही थी। अपने साथी लड़के मर जानेसे, विकने के बाद बची हुई चीजकी तरह वह चंचल याखावाली बालिका वहीं बैठी रही। फिर उसके मातापिता उसको वहाँसे उठाकर ले गए और उसका पालन-पोषण करने लगे। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१८३ उन्होंने उसका नाम सुनंदा रखा । कुछ दिनोंके बाद सुनंदाके मातापिता मर गए । कारण संतान पैदा होने के बाद युगलियोंकी जोड़ी थोड़े दिनही जीवित रहती है। अकेली रह जानेपर क्या करना चाहिए सो उसे नहीं सूझता था और वह यूथभ्रष्टा मृगीकी तरह (अपने समूहसे विछुड़ी हुई हरिणीकी तरह ) वनमें अकेली भटकने लगी। सरल अँगुलीरूपी पत्रवाले चरणोंसे जमीनपर कदम रखती हुई वह, मानों पृथ्वीपर खिले हुए कमल स्थापित कर रही हो ऐसी मालूम होती थी। उसकी दोनों जाँघे कामदेवके बनाए हुए सोनेके भाथोंसी (तरकस)जान पड़ती थीं। क्रमसे विशाल और गोल पिंडलियाँ हाथीकी सूंडसी मालूम होती थीं। चलते समय उसके पुष्ट और भारी नितंब (चूतड़) कामदेवरूपी जुआरीकी सोनेकी फैकी हुई गोटसे दिखते थे। मुट्ठीमें आजाए ऐसी और कामदेवके आकर्पणके समान कमरसे और कामदेवकी क्रीड़ावापिका (खेलनेकी बावड़ी) के समान नाभिसे वह बहुत शोभती थी। उसके पेटमें त्रिवलि रूपी तरंगें थीं, उनसे वह अपने रूपद्वारा तीनलोकको जीतनेसे, तीन जयरेखाओंको धारण करती हो ऐसी मालूम होती थी । उसके 'स्तन कामदेवके क्रीड़ापर्वतोंके समान दिखते थे । उसकी भुजलताएँ (हाथ) रतिपतिके झूलेकी दो यष्टियों (डोरियों) सी जान पड़ती थीं । उसका तीन रेखाओंवाला कंठ शंखकी शोभाको हरता था । उसके होठोंसे वह पके हुए विवफलकी कांतिका पराभव करती थी(हराती थी) और होठरूपी सीपके अंदर रहेहुए मुक्ताफलरूपी दाँतोंसे और नेत्ररूपी कमलकी नालकीसी नासिकासे . वह बहुत अधिक सुंदर मालूम होती थी। उसके दोनों गाल मानों Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. ललाटकी स्पर्धा करते हो वैसे अर्द्धचंद्रकी शोभाको चुरावे थे । और उसके सुन्दर केश मुखरूपी कमलमें लीन हुए भरि हों ऐसे जान पड़ते थे। सभी अंगोंसे सुंदर और पुण्य लावण्यासुन्दरता) रूपी अमृतकी नदीसी वह वाला वनमें फिरती हुई वनदेवीके समान शोमती थी । उस अली मुग्धाको देखकर किंकर्तव्य मूढ़तासे (क्या करना चाहिए सो नहीं समझनेसे) जड़ बने हुए कई युगलिए उसे नामिरानाके पास ले गए। श्री नामिराजान 'यह अपमकी धर्मपत्नी हो' यह कह कर, नेत्ररूपी कुमुद के लिए चाँदनीके समान उस यालाको स्वीकार किया । (७३५-७५६) इसके बाद एक दिन सौधर्मेंद्र अवधिनानस प्रभुके व्याहका समय जानकर अयोध्यामें पाया और जगत्पतिकं चरणोंमें प्रणाम कर उनके सामने एक प्यादेकी तरह खड़े हो, हाथ जोड़ विनती करने लगा,"हे नाथ नो अनानी ज्ञानकी निधिके समान स्वामीको, अपने विचार या बुद्धिसे किसी काममें प्रवृत्त होनेकी बात कहता है वह हँसीका पात्र बनता है तोभी स्वामी अपने नोकरोको स्नेहकी दृष्टिसेही देखता है, इसलिए वे कई बार स्वच्छंदतापूर्वक कुछ बोल सकते हैं। उनमें भी जो अपने स्वामीके अमिप्रायको सममकर बोलते हैं वे सच्चे सेवक कहलाते हैं। मगर हे नाथ ! मैं आपके अभिप्रायको जाने वगैर बोलता हूँ, इसलिए श्राप अप्रसन्न न हों। मैं जानता हूँ कि आप गर्भवांससेही बीतराग है और अन्य पुरुषार्थाकी इच्छा न होनेसे चौथे पुरुषार्थ (मोक्ष) के लिए ही तैयार हैं, फिर भी हे स्वामी ! मोक्षमार्गकी तरह व्यवहारमार्ग भी पापहीसे प्रकट होनेवाला है, इसलिए उस लोकव्यवहारको श्रारंभ करनेकेलिए में आपका विवाह Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. : ‘सागरचंद्रका वृत्तांत '. [१८५ महोत्सव करनेकी इच्छा रखता हूँ इसलिए हे प्रभो ! आप 'प्रसन्न होकर मुझे अनुमति दीजिए। भुवनमें भूषणरूप रूपवान सुमंगला और सुनंदा आपके व्याहने योग्य है ।" (७५७-७६५) उस समय स्वामी भी, अवधिज्ञानसे यह जानकर कि मुझे तेरासी लाख पूर्व तक दृढ़ भोगकर्म भोगना ही पड़ेंगे, सर हिला कर सार्यकालकी तरह अधोमुख हो रहे (७६६-६७) इंद्रने स्वामीके मनकी बात जानकर विवाहकर्मका प्रारंभ करने के तत्कालही देवताओंको वहाँ बुलाया। इंद्रकी आज्ञा पाकर आभियोगिक देवोंने वहाँ एक सुंदर मंडप बनाया। वह सुधर्मा सभाका अनुज (छोटा भाई) सा लगता था । उसमें रोपे हुए सोने, माणिक और चाँदीके खंभे, मेरु, रोहणाचल और चैताव्य पर्वतोंकी चूलिकाओं (शिखरों) से शोभते थे। उनपर रखे हुए स्वर्णमय उद्योतकारी(प्रकाश करनेवाले) कलश चक्रवर्तीके कांकणी रत्नोंके मंडलोंके समान शोभते थे और वहाँ रखी हुई वेदियाँ अपनी फैलती हुई किरणोंसे, दूसरे तेजको सहन नहीं करनेवाली सूर्यकी किरणोंका आभास कराती थीं। उस मंडपमें प्रवेश करनेवाले, मणिमय शिलाओंकी दीवारों में प्रतिबिवित बहुत परिवारवाले मालूम होते थे । रत्नोंके खंभोंपरकी पुतलियों नाचकर थकी हुई नाचनेवालियोंसी जान पड़ती थीं। उस मंडपकी हरेक दिशामें कल्पवृक्षके तोरण बनाए गए थे, जो ऐसे शोभते थे, मानों वे कामदेवके धनुष हो। और स्फटिकके द्वारकी शाखाओंपर नीलमणिके तोरण बनाए गए थे, वे शरद ऋतुकी मेघमालामें रही हुई ( उड़ती हुई ) तोतोंकी पंक्तियों के जैसे सुंदर लगते थे। कई स्थान स्फटिकमणियोंसे बने थे। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग२. उनपर निरंतर किरणें पड़नेसे वे क्रीड़ा करनेको अमृतसरसी (वावड़ी) के समान शोभते थे। कई स्थानोंपर पद्मरागमणियोंकी शिलाओंकी किरणें फैलरही थीं, उनसे वह मंडप कसूंबी और विस्तारवाले दिव्य वखोंको संचित करनेवालासा मालूम होता था। कई स्थान नीलमणियोंकी शिलाओंके बहुतही मनोहर किरणों के अंकुर पड़नेसे, मंडप फिरसे बोएहुए मांगलिक यवांकुरवालासा जान पड़ता था। कई स्थानोंपर मरकतमय (रत्नमय) पृथ्वीकी किरणें निरंतर पड़ती थी, इससे वह वहाँ लाए हुए नीले, और मंगलमय वाँसोंकी शंका पैदा करता था। उस मंडप पर सफेद दिव्य बस्रोंका उल्लेच (चंदोवा) बंधा था, वह ऐसा मालूम होता था मानों आकाश-गंगा चॅदोवेके बहाने वहाँ कौतुक देखने आई है। और चदोवेके चारों तरफ खंभों पर मोतियोंकी मालाएँ लटकाई गई थीं,वे आठों दिशाओंके हर्षकी हँसीसी जान पड़ती थीं। मंडपके वीचमें देवियोंने रतिके निधानरूप रत्न. कलशोंकी आकाश तक ऊँची चार श्रेणियाँ (कतारें) स्थापन की थीं। उन चार श्रेणियोंके कुंभोंको सहारा देनेवाले हरे वाँस विश्वको सहारा देनेवाले स्वामीके वंशकी वृद्धिको सूचित करते हुए शोभते थे। (७६८-७८४) ___ . उस समय-"हे रंभा माला ( बनाना ) प्रारंभ कर । हे उर्वशी ! दुव तैयार कर । हे घृताचि ! घरको (दूल्हेको) अर्घ्य देनेके लिए घी और दही वगैरा चीजें ला । हे मंजुघोपा ! सखियों से धवलमंगल अच्छी तरहसे गवा। हे सुगंध! तू सुगंधित चीजें तैयार कर । हे निलोत्तमा! दरवाजे मुंदर साथिया पूर। हे मैना ! तू पाए हुए लोगोंका सुंदर पालापकी रचनासे सम्मान Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . सागरचंद्रका वृत्तांत . [१८७ - कर । हे सुकेशी! वरवधूके लिए केशाभरण तैयार कर । हे सहजन्या ! जन्ययात्रा ( बारात) में आए हुए पुरुषोंको स्थान बता। हे चित्रलेखा ! मातृभुवनमें विचित्र चित्र बना।हे पूर्णिमे! तू पूर्णपात्र शीघ्र तैयार कर । हे पुंडरीके ! तू पुंडरीकों (कमलों) से पूर्ण कुंभोंको सजा। हे अम्लोचे! तू वरमंचिका (वरके . लिए चौकी ) योग्य स्थानमें रख । हे हंसपादि ! तू वरवधूकी पादुकाएँ (जोड़े) रख । हे पुंजिकास्थला! तू वेदिकाको गोमय (गोबर) से शीघ्र लीप । हे रामा! दूसरी तरफ कहाँ रमती है (खेलती है ) ? हे हेमा ! तू सोनेको क्यों देख रही है ? हे द्रुतुस्थला ! तू पागलकी तरह विसंस्थुल (शांत ) कैसे हो रही है ? हे मारिची ! तू क्या विचार कर रही है ? हे सुमुखी ! तेरा मुख क्यों विगड़ रहा है ? हे गांधर्वी ! तू आगे क्यों नहीं रहती ? हे दिव्या! तू वेकार खेल क्यों कर रही है ? अब लग्नका मूहूर्त नजदीक आगया है। सभी अपने अपने विवा-होचित काम जल्दी पूरे करो।" इस तरह अप्सराएँ एक दूसरे को, नाम लेकर पुकार पुकारकर कह रही थीं। उससे वहाँ अच्छा कोलाहलसा हो रहा था। (७८५-७६५) फिर कुछ अप्सराओंने सुमंगला और सुनंदाको मंगलस्नान करानेके लिए चौकियोंपर बिठाया । मधुर, धवल-मंगलगान करते हुए पहले उन्होंने उनके सारे शरीरपर सुगंधित तेलका अभ्यंग किया (मालिश की), फिर जिनके रजके पुजसे पृथ्वी पवित्र हुई है ऐसी उन दोनों कन्याओंके वारीक उबटन लगाया; फिर उनके दोनों चरणोंपर, दोनों हाथापर, दोनों घुटनोंपर, दोनों कोपर और एफ केशी, ऐसे नौ श्यामतिलक किए । वे उनके Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] त्रिषष्टि शनाका पुरुष-चरित्रः यत्र १ मा ३. शरीरमें नौ अमृतकुंडों मनान लगने थे। उन्होंने तर पर शिफ्ट हुए उनके बारे निचलकर उन देवियों मन्य और. अपसव्य (दाहिने और कर) अंगोंचो व चिया, मानों उनका शरीर मचतुरचमन्यानवाला है या नहीं इसकी जाँच की। इन बड अवाओन झुंदर वर्णवाली उन बान्ताओंको, बाइयोंकी तरह, नानों में उनकी पलता निवती हॉइस नन्वर्णकमें डाला । वुशी ली हुई उन अलगाने वर्णनले महोदाक समान ठणचा मी उनी वह लेप किया ! उस बाद दोनों ब्रो, मानों ने अपनी कुलदेवियाँ हो, इस नन्हवसर प्रामनार बिठाकरमाने लगाने भरे जलग्नान कराया । सुगवित गेनन अंगोन जना शहर पोकामनानी व उनक केशल रेशानी न पहनाकर उनको दुसरं शासनपर किया उन निगवान यानीकीनताहव्यवाही या कानों मोती बरस रहे हों और स्निाय न लन जिन शामः बहरहा है ऐले नगगीत गांजो दिव्य कृषित किया (सुगंवित किया) जिल वह सोनार गेनका लेप करते है वैसे ही उन बीपना शरीरपुर, सुगंधित अंगणार किया। उनीग्रीवायां गन्नों मुन्नात्रा ऋग्रभागॉन्दनबार पत्रवल्लरियाँ ( पन्नोंत्री बने). बनाईवे जान्देवी प्रशान्तिकं १- बालन यानी उचललगाना शाईने उन लगानेवादलत्री कबर-उर नहीं निकल इनिरकर्षित साँचिन्तालनेवाली टाइटीना की। 2-3. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सागरचंद्रका वृत्तांत समान मालूम होती थीं। कामदेवके ठहरनेके नवीन मंडल प्रदेश) के समान उनके ललाटोपर चंदनका सुन्दर तिलक किया। उनकी आँखोंको नीलकमलके वनोंमें आनेवाले भौंसेंके समान काजलसे सँबारा; उनके अंवोड़े (पीछे गोलाकारमें बंधी हुई केस-वेणियों) खिले हुए पुष्पोंकी.मालाओंसे गूंथकर वाँधे, वे ऐसे मालूम होते थे मानों कामदेवने अपने हथियार रखनेके लिए शस्त्रागार बनाए हैं। चंद्रमांकी किरणोंका तिस्कार करनेवाले और लंबे पल्लावाले जरीसे भरे विवाहके वस्त्र उन्हें पहनाए पूर्व और पश्चिम दिशा ओंके मस्तकोंपर जैसे सूर्य और चंद्रमा रहते हैं वैसेही उनके 'मस्तकोंपर विचित्र मणियोंसे दैदीप्यमान मुकुट रखेउनके कानों में मणिमय अवतंस (करनफूल ) पहिनाए वे अपनी शोभासे रत्नोंसे अंकुरित-शोभित मेरुपर्वतकी पृथ्वीके सव अभिमानको हरते थे। कर्णलताओंमें नवीन फूलोंके गुच्छोंकी शोभाकी विडंबना (दिल्लगी) करनेवाले मोतियोंके सुन्दर कुंडल पहनाए, कंठोंमें विचित्र माणिकोंकी कांतिसे आकाशको प्रकाशित करनेवाले, और संक्षेप (छोटा) किए हुए इंद्रधनुपकी लक्ष्मीको (शोभाको) हरनेवाले पदक (गलेके आभूपण-विशेष) पहनाए; भुजाओंपर कामदेवके धनुपमें बाँधे हुए वीरपटसे सुशोभित रत्नमंडित वाजूवंद बाँधे; उनके स्तन-तटोपर, चढ़ती उतरती नदीका भ्रम करानेवाले हार पहनाए; उनके हाथोंमें मोतीके कंकण पहनाए; वे जललताओंके नीचे सुशोभित जलके आल. वालसे (थालेसे) जान पड़ते थे, जिनमें घुघरियोंकी कतारें घमकार कर रही है, ऐसी मणियोंकी कटिमेखलाएँ (कंदोरे) उनकी कमरों में बाँधे, इनसे वे रसिदेवीकी मंगल-पाठिकाभोंसी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पत्र १. सन २. शोमने लगी और उनके चरणों में रत्नमय झाँझर पहनाए, उनकी माणकार दोनोंके गुणगानसी मालूम होने लगी। देवियोंने इस तरह दोनों वालाओंको लेजाकर मातृभुवनमें स्वर्ण के श्रासनपर बिठाया। (७६६-२३) उसी समय इंद्रने आकर वृषभलांछनवाले प्रमुसे विवाह लिए तैयार होनेकी विनती की। प्रभुने यह सोचकर इंद्रकी विनती मानली कि मुझे लोगोंको व्यवहारमार्ग बताना चाहिए और सायही मुझे जिन क्रमांको अवश्य भोगना पड़ेगा उनको भी भोग लेना चाहिए। विधिक जानकार इंद्रने प्रभुको स्नान कराया, अंगराग लगाया और यथाविधि सिंगा। फिर प्रभु दिव्य वाहन में बैठकर विवाहमंडपकी तरफ चले । इंद्र छड़ीदारकी तरह उनके आगे आगे चला, अप्सराएँ दोनों तरफ नमक उतारने लगी, इंद्राणियाँ श्रेय करनेवाजे धवल मंगलगीत गाने लगी, सामानिक देवियाँ बलाएँ लेन ( किसीका रोग दुःख अपने पर लेना लगीं और गंधर्व तुरतही जन्म हुए हर्षसे बाजे बजाने लगे। इस तरह प्रमु दिव्यवाहन में मंडपके द्वारके पास श्राप; फिर विधिको जाननेवाले प्रमु, नैंस समुद्र अपनी मर्यादा-भूमिपर आकर सकता है बैंसेट्टी, वाहनसे उतरकर, विवाहमंडपके दरवाजेपर खड़े हुए । प्रभु इंद्रके हाथका सहारा लेकर खड़े हुए ऐसे मालूम होते थे मानों हाथी वृक्षका सहारा लेकर खड़ा है। (२४-८३१) तत्कालही मंडपकी त्रियांमसे किसीने एक सरावसंपुट १-दो कारोंको मिलाकर बनाया हया पात्रा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत . [१६१ द्वारके बीचमें रखा। उनमें आग और नमक थे, इससे (नमकके जलनेसे) तड़-तड़की आवाज आ रही थी। एक स्त्री, पूर्णिमाकी रात्रि जैसे चंद्रमाको धारण करती है वैसे, चाँदीका थाल उठाकर प्रभुके आगे खड़ी रही। उसमें दुर्वा वगैरा मांगलिक पदार्थ थे। एक स्त्री कसूंबी वस्त्र पहनकर, पाँच पखुड़ियोंवाली-मथनी-जोप्रत्यक्ष मंगलके समान जान पड़ती थी-लेकर अर्घ्य देनेके लिए खड़ी हुई । "हे अर्घ्य देनेवाली ! अर्घ्य देने योग्य इन दूल्हेको अर्घ्य दे; थोड़ा मक्खन छींट, समुद्रमेंसे जैसे अमृत उछालते हैं वैसे थालमेंसे दही लेकर उछाल " "हे सुंदरी ! नंदनवनमेंसे लाए हुए चंदनका रस तैयार कर ।" "भद्रशाल वनकी जमीनमें से लाई हुई दुर्वा आनंदसे ले आ" जिनपर, एकत्रित लोगोंके नेत्रोंकी श्रेणीका बना हुआ जंगम-हिलता हुआ तोरण है और जो तीनों लोकों में उत्तम हैं ऐसे वर तोरणद्वार पर खड़े हुए हैं। उनका शरीर उत्तरीय वस्त्र के अंतरपटसे ढका है, इससे वे गंगा नदीकी तरंगोंमें ढके हुए जवान राजहंसके समान मालूम होते हैं। "हे सुंदरी! हवासे फूल खिर रहे हैं और चंदन सूखने लग रहा है, इसलिए वरको अब अधिक समय तक दरवाजेपर रोककर न रख ।" इस तरह बीच बीचमें बोलती हुई देवांगनाएँ धवल-मंगल गान कर रही थीं। उस समय उस ( कतूंवल वस्त्र धारण करके अर्घ देनेके लिए खड़ी हुई) स्त्रीने अर्घ देने योग्य वरको अर्घ अर्पण किया। शोभायमान लाल होठोंवाली उस देवीने, धवल मंगलकी तरह शन्द करते हुए कंकणवाले हाथोंसे तीनलोकके स्वामीके ललाटको तीन बार मथनीसे स्पर्श किया। फिर प्रभुने अपनी बाई पादुका द्वारा हिमकर्परकी लीलासे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३, (लिस तरह धरपके टुकड़ेको तोड़ते हैं वैसे.) अग्निसहित सरावसंपुटका चूर्ण कर डाला। तब अर्थ देनेवानी देवीन. प्रभुके गले कत्री बन्न डाला, उसके द्वारा लिहुए प्रभु भात -- भुवनमें गए। (२४-८४३) — बहाँ वामदेवके कंदके समान मदनफल (मैनफाल-मांडल) से मुशोभित सूत्र (धान) बबरके हाथों में बाँध गए। देवियोंने वरको मातृदेवियोंके भाग ऊँच सोनके सिंहासनपर बिठाया। व बहाँ ऐसे शोमत ये नानों नपर्वतकी शिलापर सिंह बेटा हो। मुंदरियोंन शनीवृन और पीपलकी छालोंका चूर्ण करके उसका लेप दानों कन्याओं के हाथों में किया। वह कमदेव रुपी वृनचा दोहद पूर्ण किया हो ऐसा लगता था। जब लग्नचा टीक समय हो गया तब सावधान प्रमुने दोनों बालाओंके लेपवान हाथोंको अपने हादसे पकड़ा उस समय इंद्रने जनवाने वाले जैनेशालिवान्या वीज बोया जाना है वैस. लेपत्रात दोनों हस्तसंपुट में एक मुद्रिका हाली । प्रमुक दोनों हाथ जब उन दोनोंके हाथों मिल तब प्रभु मे शोमन लग से दो शाखानाने लवायाँ लिपटन वृद्ध शामता है। नदियाँच जल से समुहले मिलता है वैसे बधुओंकी प्रॉ वरची श्रॉसि मिलीं। विना वायु पानीची तरह वरवधुनोंक नयन नयनांस और मन मनांस मिल गय! ये पत्र दलकी नारिकानाने प्रतिबिंबित होने लगे। मालूम होने लग भानों श्रापली ग्रेमसे एकदुलरले दिनोंमें घुन गए हैं। (२४४-८५). ..' . उस समय विद्युत्रादि गजन बैंस नेमके पास रहते है से प्रामानिक व भनुपर की तरष्ट्र भगवान मार एं। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१६३ कन्याके साथ जो स्त्रियाँ थीं उनमेंकी चतुर परिहासरसिका (दिल्लगी-पसंद) त्रियाँ इस तरह परिहास के गीत गाने लगी, "बुखारवाला आदमी समुद्रका सारा जल पी सकनेका विश्वास रखता है, वैसेही ये अनुवर सारे लड़ खा जाने का विश्वास किस मनसे कर रहे हैं ? कुत्ता काँदे (प्याज) पर अखंड दृष्टि रखता है वैसेही मंडॉपर लगी हुई इन अनुवरों की निगाहें कुत्तोंकी निगाहोंसे स्पर्धा कर रही हैं । इन अनुवरोंके दिल बड़े खानेको इस तरह ललचा रहे है जैसे रंक (गरीब) बालकका मन-जन्मसेही कभी बड़े नहीं मिलनेसे-ललचाया करता है। जैसे चातक मेघजलकी इच्छा करता है और याचक पैसे की इच्छा करता है वैसेही अनुवरोंका मन सुपारीकी इच्छा कर रहा है। बछड़ा जैसे घास खानेकी लालसा रखता है वैसेही तांबूलपत्र पान) खानेको ये अनुवर लालायित हो रहे हैं। मक्खनके गोलेको देखकर जैसे विल्लीकी राल टपकरी है, वैसेही चूर्ण खानेको इन अनुवरोंकी राल टपक रही है । कीचड़में जैसे भैंसे श्रद्धा रखते हैं, वैसेही य अनुवर विलेपनमें किस मनसे श्रद्धा रख रहे हैं । उन्मत्त आदमी जैसे निर्माल्यपर प्रीति रखते हैं वैसे ही पुष्पमालाओंपर इन अनुवरोंकी चपल आँखें लगी हुई हैं।" (८५३-८६२) ऐसे परिहासपूर्ण गाने सुनने के लिए कुतूहलसे देवता कान खड़े कर ऊँचा मुख किए हुए थे। वे सब चित्रलिखित. से मालूम होते थे। (८६३) । 'लोगोंको यह व्यवहार दिखाना योग्य है।' यह सोचकर वाद-विवादमें चुने हुए मध्यस्थ श्रादमीकी नरह प्रभु उसकी उपेक्षा कर रहे थे । (६१) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र; पर्व १. सर्ग २. फिर इंद्रने प्रभुके दुपट्टेके पल्लेके साथ दोनों देवियोंके दुपट्टोंके पल्ले इसतरह बाँध दिए जिस तरह जहाजके साथ नौकाएँ बाँधी जाती है। श्राभियोगिक देवोंकी तरह इंद्र खुद भक्तिसे प्रभुको गोदमें उठाकर, बेदीगृहमें लेजानेको चला, तब दो इंद्रापियोंने श्राकर तत्कालही दोनों देवियोंको गोदमें उठा लिया और हस्तमिलापको छुड़ाए बगैर स्वामीके साथही चलीं । तीनलोकके शिरोरत्न के समान वधू-बरने पूर्वद्वारसे वेदीवाले स्थानमें प्रवेश किया। किसी बायन्त्रिंश (पुरोहितका काम करनेवाले) . देवताने, तत्कालही, मानों पृथ्वी से भाग उठी हो ऐसे, वेदीमें आग प्रकट की। उसमें समिध डालनेसे धुआँ उठकर श्राकाशमें फैलने लगा, वह ऐसा मालूम होरहा था, मानों आकाशचारी मनुष्यों (विद्याधरों) की स्त्रियोंके अवतंसों ( कर्णफूलों) की श्रेणी है । (८६५-८७०) त्रियों मंगलगीत गा रही थीं । प्रभुने सुमंगला और सुनंदाके साथ अष्ट मंगल (आठ फेरे ) पूरे हुए तबतक वेदीकी प्रदक्षणा की। फिर असीसके गीत गाए जा रहे थे तब इंद्रने तीनोंके हायोंको अलग किया और साथही उनके दुपट्टोंके पल्लोकी गाँठं भी खोली । (८७१-८७२) फिर, स्वामीके लग्नोत्सवसे श्रानंदित इंद्र, रंगाचार्य (सूत्रधार) की तरह याचरण करते हुए, इंद्राणियों सहित हस्तामिनयकी लीलाएँ बता नाच करने लगा । पवनके द्वारा नचाप हुप वृक्षों के साथ लैंसे आश्रित लताएँ भी नाचने लगती है वैसेही इंद्रके साथ दूसरे देवता भी नाचने लगे । कई देवता चारणों की तरह. . . जय-जयकार करने लगे; कई भारत-नाट्य पद्धतिके अनुसार. . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर चंद्रका वृत्तांत [१६५ - विचित्र प्रकारके नाच करने लगे; कई ऐसे गायन गाने लगे मानों उनकी जाति गंधर्वही है; कई अपने मुँहसे ऐसे शन्न करने लगे मानों उनके मुख बाजेही हों; कई बड़ी चपलतासे बंदरोंकी तरह कूदने लगे; कई वैहासिकों ( विदूषकों) की तरह सबको हँसाने लगे और कई प्रतिहारों (छड़ीदारों) की तरह लोगोंको दूर हटाने लगे। इस तरह हर्षोन्मत्त होकर जिनके सामने भक्ति प्रकट की है ऐसे, और जो, दोनों तरफ बैठी हुई सुमंगला और सुनदासे शोभित हो रहे हैं ऐसे, श्री आदिनाथ प्रभु दिव्य वाहनमें सवार होकर अपने स्थानपर गए । (८७३-७६) इस तरह विवाह-महोत्सव समाप्त कर इंद्र ऐसे अपने देवलोकको गया जैसे रंगाचार्य नाट्यगृहका काम पूरा कर अपने घर जाता है। तभीसे स्वामीने विवाहकी जो विधि बताई है वह लोगों में प्रचलित हुई। कारण ".... परार्थाय महतां हि प्रवृत्तयः ।" [महान पुरुपोंकी प्रवृत्तियाँ दूसरोंकी भलाईके लिए ही होती हैं।] (८८०-८८१) अव अनासक्त होते हुए भी प्रभु दोनों पत्नियोंके साथ दिन बिताने लगे। कारण, पहले सातावेदनीयकर्मका जो बंधन हुआ था यह भोगे बिना क्षय नहीं हो सकता था। विवाहके बाद प्रभुने छःलाख पूर्वसे कुछ कम समय तक दोनों पत्नि. योंके साथ सुख-भोग भोगे। (८८२-८८३) - उस समय वाहु और पीठके जीव सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्यवकर सुमंगलाकी फुतिसे युग्मरूपमें उत्पन्न हुए; और सुबाहु Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ) त्रिषष्टिं शन्ताका पुरुष-चरित्रः पर्ब १. सर्ग २. नया महापीट के जीव भी उसी सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्यवकर सुनंदा; गर्म शुगलिया रूपमें उत्पन्न हुए । मन्देवीकी तरह गर्भ महात्म्यको सूचित करनवाने चौदह स्वम नंगलादेवीन मी दन्न । वान इन नोंकी बात प्रमुख कही । प्रभुने कहा,"तुम्हारे चक्रवर्ती पुत्र पैदा होगा। (८५/ नमय यानपर. जैन व दिशा मुत्र और.संध्याची जन्न देनी है नही नुमंगतान अपनी क्रांनिस दिशाको प्रकाशित करनवान दा बालकको जन्म दिया। उन नाम 'भरत' और. 'ब्राझी र गम । (पन) ___ वर्षाचनु अब मंत्र और विजनीको जन्म देती है बैंसही सुनंदानं झुंदर प्राकृतिबाळ बाहुबन्ति' और 'मुंदरी' को जन्म दिया।4) किर नुमंगलाने, विदूर्वतकी भूमि जैसे रनोंको उत्पन्न करना है बैंस उनचान युग्मपुत्रांको (लड़कोको ) जन्म दिया । महापराक्रमी और उत्साही बं बालक इस तरह खेलतेऋदन बढ़ने और पुष्ट होने लग जैस वियपर्वतमें हाथियों बच्चे होते हैं। जैसे बहुतसी शाबाओंसे बड़ा वृद्ध शोमना है. बैंस अपने बालकोम विर हा अपमन्वामी मुशोभित होने लग 1 (20-८६) उस समय कानदीप फायनांचा प्रभाव इसी तरह मन होने लगा जैग मर दीपांका प्रकाश कम होता है। अन्य (पापक) के पंडमें मनाना (लाब) के कगा उन्यन होम है, देलई युगन्तियों में धीरे धीरे क्रांघादि ऋया उत्पन्न होने लगा । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . सागरचंद्रका वृत्तांत [ १६७ mom m और जैसे सर्प तीन तरहकी ताड़ना-विशेषकी परवाह नहीं करते वैसेही युगलिए हाकार, माकार और धिक्कारकी-तीन तरहकी-नीतिकी उपेक्षा करने लगे। तब ( समझदार ) युगलिए प्रभुके पास आए और उन्होंने (राज्यमें) जो असमंजस (अनुचित) घटनाएँ होती थीं वे कह सुनाई। सुनकर तीन ज्ञान (मति, श्रुति और अवधि ) के धारक और जातिस्मरणज्ञानवाले प्रभुने कहा, "दुनियामें जो लोग मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले होते हैं उनको दंड देनेवाला राजा होता है। राजाको पहले ऊँचे आसनपर बिठाकर अभिषेक किया जाता है। उसके पास अखंड अधिकार और चतुरंगिणी सेना (हाथी, घोड़े, रथ और प्यादोंकी सेना ) होती है।' (८६३-८६८) तब उन्होंने कहा, "हे स्वामी, श्राप हमारे राजा वनिए । आपको हमारी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । कारण, हममें आपके समान दूसरा कोई नहीं है ।" (EEE) प्रभुने कहा, "तुम उत्तम कुलकर नाभिके पास जाकर प्रार्थना करो। वे तुम्हें राजा देंगे। ६००) __तदनुसार उन्होंने कुलकराग्रणी नाभिसे जाकर प्रार्थना को। तब उन्होंने कहा, "ऋपभदेव तुम्हारा राजा वने ।"(E0१) युगलिए खुशी खुशी प्रभुके पास आए और कहने लगे, "नाभि कुलकरने तुम्हींको हमारा राजा बनाया है। (६०२) उसके बाद वे युगलिए प्रभुका अभिषेक करनेको जल लेनेके लिए गए। उस समय स्वर्गपति-इंद्रका सिंहासन काँपा। उसने अवधिज्ञानसे प्रभुके राज्याभिषेकका समय जाना और वह जैसे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] त्रिपष्टि शलाका पुस्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. आदमी एक घरसे दूसरे घरमें जाता है वैसे क्षणभरमें-अयोध्या-पाया। (१०३-०४) फिर सौधर्म कल्पके उस इंद्रने स्वर्णकी वेदिका (चबूतरा) बनाकर, अतिपांडुकवला शिलाकी' तरह, उसपर एक सिंहासन बनाया । और पूर्व दिशाके अधिपतियोंने स्वस्तिवाचक (पुरोहित) की तरह, देवताओंके द्वारा लाए हुम तीर्थजल द्वारा प्रभुका अमिपेक क्रिया । फिर इंद्रने प्रभुको दिव्य बन्न धारण कराए। वे निर्मलनासे चंद्रके मुन्दर तेजमय मालूम होते थे; और तीनलोकके स्वामीके अंगको, मुकुट आदि रत्नालंकार यथास्थान धारण कराए । उसी समय युगलिए कमलिनीके पत्तोंमें जल लेकर आए । वे प्रभुको भूपिन देखकर इस तरह सामने खड़े हो रहे मानों वे उनको अयं दे रहे हैं। उन्होंने यह सोचकर कि दिव्य वस्त्रालंकारों से मुशोमिन प्रभुके मस्तकपर जल डालनायोग्य नहीं हैं, कमलिनीके पत्तोंक दोनोन भरा हुया जल प्रमुके चरणों में चढ़ाया। इससे इंद्रने समझा कि ये लोग काफी विनीत हो गए हैं। इसलिए इन लोगोंके रहने के लिए विनीता नामकी नगरी बसा. नेकी जुबेरको यात्रा दी; फिर वह अपने देवलोकको चला गया। (१०५-४११) युवरने बारह बोजन लंबी और नी योजन चौड़ी विनीता नामक नगरी बसाई । उसका दूसरा नाम 'अयोग्या' रखा । यक्षपति अवरन उस नगरीको अक्षय वस्त्रों, अलंकारों और वन तीर्थकर भावान का जन्माभिषेक करनेकी, मेरुपर्वतपरकी शिला। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१६ धान्यसे परिपूर्ण किया। उस नगरीमें हीरों, इंद्रनीलमणियों और वैडूर्यमणियोंसे बनी हुई बड़ी बड़ी हवेलियाँ, अपनी कर्बुर (स्वर्ण) किरणें आकाशमें, दीवारके न होनेपर भी विचित्र चित्रकी क्रियाएँ रचती थीं, और मेरुपर्वतके शिखरके समान ऊँची स्वर्णकी हवेलियाँ ध्वजाके बहाने चारों तरफ पत्रालंबनकी लीलाका विस्तार करती थीं। वे उनके चारों तरफ पत्ते फैले हुए हों ऐसीमालूम होती थीं यानी हवेलियाँ वृक्षसी और ध्वजाएँ फैले हुए पत्तोंसी जान पड़ती थीं । उस नगरीके किलेपर माणिक्यके कंगूरोंकी श्रेणियाँ थीं; विद्याधरोंकी सुंदरियोंके लिए विना प्रयत्न केही दर्पणका काम देती थीं । उस नगरीके घरोंके आँगनों में मोतियोंके साथिए पूरे हुए थे, इसलिए लड़कियां उन मोतियोंसे कर्करिक क्रीड़ा (कंकरोंसे-चपेटा खेलनेका खेल) करती थीं । उस नगरीके वागोंके अंदरके ऊँचे ऊँचे वृक्षोंसे रात-दिन टकराते हुए खेचरियोंके विमान कुछ देरके लिए पक्षियोंके घोंसलोंका दृश्य दिखाते थे। अटारियोंमें और हवेलियोंमें पड़े हुए रत्नोंके ढेरोंको देखकर, वैसे शिखरोंवाले रोहणाचलकी शंका होती थी। गृहवापिकाएँ, जलक्रीड़ाएँ करती हुई सुंदरियोंके मोतियों के हारोंके टूटनेसे, ताम्रपरणी सरिताकी शोभाको धारण करती थीं। वहाँके व्यापारी इतने धनवान थे कि किसी व्यापारीके लड़केको देखकर यह मालूम होता था कि धनद (कुबेर) खुद यहाँ व्यापार करने आया है। रातके समय चंद्रकांतमणियोंकी दीवारोंसे भरते हुए जलसे वहाँकी रज स्थिर हो जाती थी। अयोध्या नगरी अमृतके समान जलवाले लाखों फुओं, वावड़ियों और सरोवरोंसे नवीन अमृतके कुंडवाले नाग-लोकोके समान शोभती थी। (६१२-६२३) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०.] त्रिषष्टि शनाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. जग २. जब प्रभु बीनलाल वची आयुक हुए तत्र व प्रजात्रा पाननं न्तिप गाजा वन मंत्रीम ॐनारमही राजाओंने प्रथम गाजा गले श्रम धनु अपनी संतानची रह प्रजाका पालन करने लगे। उन्होंने अमल्योंको सजा देनेलिया और मुत्युन्यांचा पालन ऋग्न लिग ञ्चन जानेवाले मंत्री नियुक्त किए। वे प्रमुक अंगम नाचून होने थे! इंक लोकयान्नोंत्री नन्ह, महागज ऋषमंदवने अपने गन्यमं चोरी वांगन रहा करने, ऋदुर चौकीदार नियत किन ! गन्ति मनान प्रभुने गन्यकी स्थिनिक लिए, मगरके विषयने रचनांग लिरकी नन्ह मनानं उत्कृष्ट अंगवर वायी रन्छ । सुर्य बोलि पा करने वान ॐत्री वाले, च जानिक बाडांची प्रभु बुसान बनवाई। नाभिनंदननं अच्छी लकड़ी सुशिष्ट (अच्छी तरह जुड़े हुम) सुंदर ग्ध वनवाण ! चक्रवर्ती पत्र में एकत्र ऋग्ने है बैं, जिनकी शनिकी अच्छी नन्ह परीक्षा हो चुरी है गली पैदल सेना भी नाभिपुत्रने जमा की मने जो सेनापति नियन शिन व नवीन मात्र ज्यनमसे मान होने और गान मैंन, चैन, डहर ऊँ गैंग पशु मी, उनका उपयोग जाननेबाल मनुने एकत्र किए। (६२-६३) उन लमय शुत्रविहीन बंशी तह मन नष्ट हो गए थे, इनलिप लोग कंद-मूल प्लादि वादे थे। वही शालि (चावल, गहै. चने और मूंग अादि अनाज भी अपने आप यानी ह उगने लगा था। उन्ले वे युगलिए चाही यात थे। यह मचा उनको जन नहीं हुआ इसलिए उन्होंने ग्रस तक यह बान पहुँचाई । मनुने बताया, "उनको मलकर, उसके छिलके Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत . [२८१ .निकाल डालो और. फिर खाओ।" पालक प्रभुकी यह बात सुनकर वे उसके अनुसार अनाज खाने लगे। मगर कठिन होनेसे वैसा अनाज भी उनको नहीं पचने लगा। तब वे फिरसे प्रभुके पास गए। तब प्रभुने कहा, "पहले अनाजको हाथोंसे .मलो, उसे पानी में भिगोदो और फिर पत्तोंके दोनोंमें लेकर खाओ।" उन्होंने ऐसाही किया, तोभी उनका अजीर्ण नहीं मिटा । इसलिए वे पुन: प्रभुके पास गए। तब प्रभुने कहा, "ऊपर बताई हुई विधि करनेके बाद अनाजको मुट्ठीमें या बगलमें गरमी लगे इस तरह थोड़ी देर बरावर रखो, और फिर खाओ, इससे तुमको आराम मिलेगा।"ऐसा करनेपर भी उनका अजीर्ण नहीं मिटा और लोग कमजोर हो गए। उसी अरसेमें एक दिन वृक्षोंकी शाखाओंके आपसमें घिसनेसे आग पैदा हुई। (६३४-६४१) . वह भाग घास और लकड़ियोंको जलाने लगी। लोगोंने उस जलती हुई आगको रत्नराशि समझा और रत्न लेने के लिए उन्होंने हाथ लंबे किए। इससे उनके हाथ जलने लगे। तब वे प्रभुके पास जाकर कहने लगे, "वनमें कोई अद्भुत भूत पैदा हुआ है। प्रभुने कहा, "स्निग्ध और रूक्ष कालके मिलनेसे यह आग पैदा हुई है। एकांत रूक्ष कालमें या एकांत स्निग्ध कालमें आग कभी पैदा नहीं होती। तुम उसके पास जाओ और उसके पास जो घास-फूस हो उसको हटा दो। फिर उस आगको लो और पहले बताई हुई विधिके अनुसार तैयार किए हुए अनाज. को उसमें पकानो और पक जाने पर निकालके खाओ।" (६४२-१४६) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग २. उन भोले लोगोंन अनान आगमें डाला। वह सारा जल गया, तब उन्होंने श्राकर प्रभुसे कहा, "हे. स्वामी ! यह आग तो कोई मुक्कड़सी लगती है। हमने जितना अनाज उसमें डाला समीको बह खागई। उसने थोडासा भी वापस नहीं किया।" उस समय प्रमु हाथीपर सवार थे, इससे उन्होंने वहीं भीगीहुई मिट्टीका पिंड मँगवाया और उसकी हार्थी मस्तऋपर रखकर, हाथ से उसको फैलाकर, वैसे हायीक मस्तकके श्राकारका एक बरतन बनाया। इसतरह शिल्यों में प्रथम कुंमकारका शिल्प प्रमुने प्रकट किया। फिर स्वामीन उनमें कहा, "इस तरहकं दूसर बहुनसे बरतन बनाओ। ( उनको श्रागमें रखकर मिट्टीको मुन्नाओं ) फिर उन बरतनों (भीगा हुआ ) अनाज रखकर पकायो । अनानक यनयर बरतन धागयरसे उतार लो और फिर अनाज लायो।" उन्होंने प्रभुकी श्राबाके अनुसार काम किया। तमीने अन्हार पहने कारीगर हुए। उसके बाद प्रमुने (घर बनानेकी ऋन्ना सिखाकर.) बर्द्धकी यानी मकान बनानेवाले राज बनाए । कहा है "विश्वस्य मुखपृष्टय हि महापुरुषसृष्टयः ।" महापुमय जो बना है वह दनिया लाभ लिपट्टी होता है। रोम नन्त्रीरें बनाने और लोगों अनोन्त्र खेल लिए प्रमुन चित्रकला मिलाकर अनेक लोगोंको चित्रकार बनाया। लोगों के लिए बत्र चुननको (त्रुनाईका काम सिखाकर.) जुलाई, बनाए। कारगा, उस समय ममी कल्पवृक्षांक स्थानपर प्रमु एकही ऋत्ययन रद थे। लोगोंको, नावनों और फेशोंके गढ़नस नकलीफ उठाने देखकर.प्रभुने नापित बनाए । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [२०३ उन पाँच शिल्पोंके (कुम्हारके, चित्रकारके, राजके, जुलाहेके और नापितके )-प्रत्येक बीस बीस भेद हुए। इससे वे शिल्प सरिताके प्रवाहकी तरह सौ तरह फैले। यानी शिल्प सौ तरहके हुए। लोगोंकी जीविकाके लिए प्रभुने, घसियारेका, लकड़ी वेचनेवालेका,खेतीका और व्यापारका काम भी लोगोंको बताया। और साम, दाम, दंड व भेदकी नीति चलाई। यह चार तरहकी नीति मानों जगतकी व्यवस्थारूपी नगरीके चतुष्पथ (चार मार्ग) थे। (६४७-६५६) ज्येष्ठ पुत्रको ब्रह्म (मूल मंत्र ) कहना चाहिए, इस न्यायसेही हो वैसे प्रभुने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरतको वहत्तर कलाएँ सिखाई। भरतने भी वे कलाएँ अपने भाइयोंको और पुत्रोंको अच्छी तरहसे सिखलाई । कारण, "सम्यगध्यापयत्पात्रे विद्या हि शतशाखिका ।" [पात्रको-योग्य मनुष्यको सिखाई हुई विद्या सौ शाखाओवाली होती है। ] प्रभुने बाहुबलीको हाथियों, घोड़ों, स्त्रियों और पुरुपोंके अनेक भेदोंवाले लक्षणोंका ज्ञान दिया; ब्राह्मीको दाहिने हाथसे अठारह लिपियाँ सिखाई और सुन्दरीको बाएँ हाथसे गणित विद्या बताई। वस्तुओंका मान (माप ) उन्मान (तोला, माशा आदि वजन ) अवमान (गज, फुट, इंच आदि माप) प्रतिमान (पाव, सेर, ढाई सेर आदि वजन ) बताए और मणि इत्यादि पिरोनेकी कला भी सिखलाई । (६६०-६६४) वादी और प्रतिवादीका व्यवहार राजा अध्यक्ष और कुलगुरुकी साक्षीसे होने लगा। हस्ति आदिकी पूजा धनुर्वेद (तीर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] विष्ट शहाना पुन्य-चरित्रः पर्व १. नगर वो ब) बैंठीची उपासना, नाम, अर्थशाव, बंध, पान और कच (यानी-बड़ीचाईनीकी सजा । नत्र सना बगामी समयये आरंभ हुन। यह माना है, वे पिता है. यह भाई है. स्त्री है. यह पुत्र है, यह घर है, यह धन है, गर्मः मनना भी उसी समय लागाने क हुई। लगान व्याममय अलंक न और वन्न प्रजाकिंतु (संजड अनुदेना था, इसलिए उन्होंने भी अपने आरची आयनों और वन्न माना गंभ किया। ऋतु पमिल ऋग्न इन्त्रा था, इसलिए लोगी ऋतक उनी वह पासिंदल (या विधिक पाई है। ऋग्स ४...."वो छब्छा महत्तः " महान पुनयाँका बनाया था भाग ( विधि-विधान) स्थिर होना है। (Ex-६६६) प्रभु विवाहल, बनन्या यानी दृसगंवारा दी हुई कन्या काय विवाह करना शुरु हुआ। डाकन (बालकनी व प्रथम मुंडन गरी स्वतंक ऋय) पनयन (बदावान) और डा युद्धन्द श्री पृच्छा (छ) माना प्रारंभ हुई। कार म यति मात्रछ (दिसाय आता होलानामा प्रमुन जान लागावी मला लिए इनको चलाया । उनी अन्नाय अवनवीपर लाल राई हैं अर्वाचीन विद्वान उन साल यता हूँ वानी संदेश की लोग चनुर हट ऋण "अंतरंगापदेष्टा पर्वन्ति ना अपि ।" Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [२०५ [उपदेशक अगर न हो तो मनुष्य भी पशुओंके समान आचरण करते हैं। ] ( ६७०-६७३) . विश्वकी स्थिति रूपी नाटकके सूत्रधार प्रभुने उग्र, भोग, राजन्य, और क्षत्रिय नामक चार कुल स्थापित किए । १-उग्रदंडके अधिकारी लोगोंका (यानी सिपाहीगिरी करने वालोंका और चोर, लुटेरे आदि प्रजाको सतानेवाले लोगोंको सजादेनेवालोका )जो समूह था उस समूहके लोगोंका कुल उग्रकुलवाला कहलाया।२-इंद्रके जैसे त्रायस्त्रिंश देवता है वैसे प्रभुके मंत्रीका काम करनेवाले लोगोंका कुल भोगकुलवाला कहलाया । ३-- प्रभुके समान आयुवाले जो प्रभुके साथही रहते थे और मित्र थे -लोगोंका कुल राजन्य कुल कहलाया। ४-बाकी जो मनुष्य थे उन सबका कुल क्षत्रिय कुल कहलाया । (६७४-७६) इस तरह प्रभु नवीन व्यवहारनीतिकी नवीन रचना करके, नवोढ़ा लीकी तरह नवीन राज्यलक्ष्मीका उपभोग करने लगे। वैद्य जैसे रोगकी चिकित्सा करके योग्य दवा देता है वैसेही अपराध करनेवाले लोगोंको, उनके अपराधोंके अनुसार, दंड देनेका विधान किया । दंडसे डरे हुए ( साधारण ) लोग चोरी वगैरा अपराध नहीं करते हैं। कारण "एकैव दंडनीतिहि सर्वान्यायाहि जांगुली ।" [दंडनीतिं सभी अन्याय रूपी साँपीको वशमें जांगुली (विय विद्या ) के समान है। जैसे सुशिक्षित लोग प्रभुकी आनाका उजधान नहीं करने से पैसेही कोई किसीफे घर न्वत और मान Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १ सर्ग २. वगैराकी मर्यादाको नहीं नोड़ना था। बारिश भी अपनी गर्जना बहान मानों प्रमुक न्यायधमंका नारीफ करतीधी थोर समयपर, धानके वनोंको जल देनके लिए बरसती थी। (लहलहाने) धान्य. केलेतास, गन्नों वागास और गोजुलाई (गों आदि पशुओंकी श्रावानांसे) गूंजने हुए शहर और गाँव अपनी ऋद्धिये शोमन ये और वेत्रामीकी ऋद्धिको भूचित करने थे । प्रमुन सभी लोगोंचो त्यान्य (छोड्न लायक) और ग्राह्य (लन लायक) वस्तुयांका विवेक-नान कराया, इससे यह मरत क्षेत्र प्रायः विद हक्षेत्र अनुसार हो गया। इन नरह नामिगन्नाकं पुत्र ऋषमदेव)ने राज्याभिषेक के बाद निरसठ लान्त्र पूर्व नक पृथ्वीका पालन किया । (ey-2) एक बार कामदेवका निवासस्थान वसंत ऋतु श्राया। परिवारके लोगों अनुरोधम-विनतीन प्रम बागम गण । वहाँ देहधारी वसंतश्चनु हो ऐसे फूलों के गहनास बजे हुए प्रमुग्लाके घर बैठा उस समय नलों और माकंद (थान के मकरंद (फूलोंकी शहद ) से उन्मत्त बनेहप व गन रहे थे। इसस मालूम होता था कि वसंतलमी प्रमुछान्वागत कर रही है। पंचमन्त्ररमं गानेवाली कोयलॉन मानों पूर्वरंगका (नाटक श्रारंभ होने पहले मंगलाचरणाका ) प्रारंम किया है, यह समन्तकर मलयात्रलके पवनने नट बनकर लनानपी नृत्य बताना प्रारंभ किया। मृगलोचना अपने कामुक पुन्योंकी तरह, अबक (श्राक) अशोक और यशुलने पड़ोंचो श्रालिंगन करती थी, उनपर लात मारती थीं और अपने मुरन्त्रका श्रामब पिलाती थी। निलक कृत (वर्मन चलनेवाला एक येड़ ) अपनी प्रबल किया जानने नाम क्रिया Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सागरचंद्रका वृत्तांत [२९७ सुगंधसे भौंरोंको खुश कर के जवानोंके ललाटकी तरह बागको सुशोभित कर रहा था। लवली लता (पीले फूलोंवाली एक लता) अपने फूलोंके गुच्छोंके भारसे इस तरह झुकी हुई थी जिस तरह पतली कमरवाली स्त्री पुष्ट स्तनोंके भारसे झुक जाती है। चतुर कामी पुरुष जैसे मंद-मंद आलिंगन करता है वैसे मलयपषन आम्रलताओंका धीरे धीरे आलिंगन करने लगा। लकड़ीवाले पुरुषकी तरह कामदेव जंबू, कदंव, आम और चंपक वृक्षरूपी लकड़ियोंसे मुसाफिरोंको मारने में समर्थ होने लगा। नवीन पाटल-पुष्पोंके संपर्कसे ( मेलसे) सुगंधित बनाहुआ मलयाचल पवन वैसेही सुगंधित जलकी तरह सबको आनंदित करता था। मकरंदके रससे भराहुआ महुएका पेड़, भौरोंकी गुंजारसे ऐसे गूंज रहा था जैसे मधुपात्र भौरोकी गुंजारसे गूंजता है। गोलिका और धनुपका अभ्यास करनेके लिए कामदेवने, ऐसा मालूम होता था मानों कदंवके पुष्पके बहाने गोलिका बनाई है। जिसको इष्टापूर्ति (परोपकारके लिए कूत्रा, बावड़ी खुदवाना और प्याऊ विठाना) पसंद है ऐसे बसंत ऋतुने, वासंतीलताको भौंरे रूपी मुसाफिरके लिए,मकरंदरसकी एक प्याऊसी बना रखी थी। जिनके पुष्पोंके आमोदकी समृद्धि (प्रभाव) बहुत मुशकिलसे हटाई जासके ऐसे सिंदुवारके वृक्ष मुसाफिरोंकी नासिकाओंमें सुगंध पहुँचाकर उनको, विपकी तरह मुग्ध बनाते थे। वसंतरूपी उद्यानपालके नियत किए हुए (सिपाहियोंकी तरह ) चंपक-वृक्षोंमें बैठे भौरे निःशक होकर घूमते थे। यौवन जैसे स्त्री और पुरुष दोनोंको सुशोभित करता है पैसेही वसंत-ऋतुभी अच्छे-बुरे सभी तरहके वृक्षों और Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] त्रियष्टिं शताका पुरुष-चरित्र: पत्र १. सर्ग ३. नुनाको मुशामिन करता था। मृगन्दोचनाएँ (हिरनीके समान आँन्यावाही स्त्रियाँ) जल चुनने लग रही थी; मानों व बड़े पत्र में चमनको अयं इनकी नैयारी कर रही है। ल बुनत हुए, उन स्त्रियोंकी गली कल्पना भी हुई होगी कि हमारे होते हुए कामदयनी दुर कुलों अनुपकी क्या जरुरत है ? वासंती लना चल चुन लिए गए थे और उनपर और गूंज रह थे; मा मान्नुम होना था कि अगन लोक वियोगमें, मोरोकी गुंजारकं बहाने, यहाग रही है। कोई न्त्री मदिनांक फूल चुनकर जाना चाहती थी, परंतु उनकी बाडीका बल्ला बन्दमें अटक गया और बह छड़ी रह गई। इसमें मालूम होना था, मानों मल्लिका बल्ला पकड़कर उन कह रही है कि न कहीं दूसरी जगह न जा। एक न्त्री चमक कल चुनना चाहती थी; मगर वहाँ बैंठ हुम भाग्नं उस होठोंपर डंक माना, मानों वह अपना श्राश्य मंग ऋग्नवाली पर नागज हुआ है। कोई स्त्री अपनी मुजाना लनाको ऊंचा कर, उसकी भुजा मूलमागको दालनबान्त पुन्या मनकामी झालांमाय चुन रही थी। नवीन लोक गुच्छांचा हायाने गवनय भूल चुननवानी स्त्रियाँ मानों अंगम (ऋदती निरनी लना होगमा मालन होती थीं। हॉकी शान्तायाम न चुननं वाही स्त्रियाँ कौतुक मृतुन लगी थी, इमस वृद्ध मानों स्त्रीया बन्दयाले मालूम होत थे। किन युपमें छुट्टी मलिकाकी ऋतियाँ चुनकर अपनी प्रियाके लिग उनस, मोनियाकी मातामा भाला और दूसरे यामुषणा बनाना किलीन भामंदवायं ममान अपनी प्यारीक कंगनायको तिहानि मायालाई पाँच बल्ला Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सागरचंद्रका वृत्तांत .. [२०६ - से इंद्रधनुष के समान फूलमाला, अपने हाथोंसे गूथता था और अपनी प्रियाको पहनाकर प्रसन्न करता था; और कोई पुरुप . अपनी प्रिया द्वारा खेल-खेलमें फेंकी गई, फूलोंकी गेंदको उठाकर सेवककी तरह अपनी प्रियाको देता था। कई मृगलोचनाएँ झूलेपर झूलती हुई, सामने वाली डालीपर ऐसे पैर लगाती थीं जैसे अपने अपराधी पतिको कोई पादप्रहार करती हो-लात लगाती हो । कोई नवोढ़ा-नवविवाहित युवती, सखियोंके द्वारा पतिका नाम पूछा जानेपर लज्जासे मुद्रित मुखको झुका लेती थी और सखियोंके पादप्रहारको सहती थी । कोई पुरुष भूलेपर अपने सामने बैठी हुई डरपोक प्रियाको गाढ़ आलिंगन देनेके इरादेसे झूलेको जोरसे चलाता था और कई रसिक युवक बागके वृक्षोंकी डालोंमें वाँधे हुए झूलोंकी लंबी लंबी पंगे लगाते थे। और वे झूलोंके वृक्षोंके पत्तोंमें जाने मानेसे बंदरके समान मालूम होते थे। (९८५-१०१६) '. इस तरह नगरके लोगोंको लीला करते हुए देखकर प्रभुके मनमें विचार आया कि क्या दूसरी जगह भी इस तरह के खेल होते होंगे ? विचारते विचारते अवधिज्ञानसे पूर्वजन्मोंमें भोगे हुए अनुत्तर विमान तक सभी स्वर्ग-सुख याद आए। पुन: विचारते हुए उनके मोहबंधन टूट गए और वे सोचने लगे"इन विषयोंसे आक्रांत लोगोंको धिक्कार है ! ये आत्मसुखको जरासा भी नहीं जानते । अहो ! इस संसाररूपी कुरमें 'अरघट्ट घट्टि यंत्र' के न्यायसे (यानी जैसे रहँटकी माला कुएमें जाती है और वापस ऊपर आती है वैसे )जीव अपने कमासे गमना. १४ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । त्रिषष्टि शन्हाका पुरुष-चरित्रः पर्ष १. सर्ग :. गमनकी किया करते हैं। मोहमें अय बने द्रुप प्राणियोंके जन्म को विश्कार है। कारण, उनका जन्म इसी तरह व्यर्थ बीन. जाता है जिस नरहनाने पादमीकी गन व्यर्य बीत जानी है। "एन गगीपमोहा उद्युतमपि दे हिनाम् । मूलाधर्म निछंतति मृपका इव पादपम् ।। [राग, द्वेष और मोह उद्योगी प्राणियों धर्मको भी इस ताइ जड़मूल में छंद डालन है जिस तरह हा वृक्षको छेद डालना है। ] मोहने से हुए लोग बड़क पेड़की नन्ह कोषको बढ़ाते है। यह कोष अपने बहानवालोंकोही असे बाजाना है। मानपर चढ़े हप. मनुष्य हाथीपर चढ़े हुए श्रादमियोंकी तरह, किसीकी परवाह नहीं करने और मर्यादाका उल्लंघन करते हैं। दुगराव प्राणी कांच बीनकी पत्नीकी नह सानु करनेवाली मायाको नहीं छोड़ते। तुषोदक (चाबल या बोकी आँनी) से जैसे दूध बिगड़ना है, और जानलमें जैस उजन कपड़े मैन होन है. वैसेंट्टी लोममे प्राणी अपने उत्तम गुणोंको मलिन करता. है। अयनुक इस भाररूपी बेलवान चे चार कपायरूपी चौकीदार, जागने हप चौकी कर रहा है, तुबनुक पुम्बाको मोन म मिल सकता है ? अहो ! भूत लगा हो ऐले अंगनानीके धादिंगन व हुए प्राणी अपने ही होते हुए श्रात्माको .. कैन पहचान मन है ? दवाओं जैम मिहको तंदुमन्तु बनाया जाता है वैसे मनुष्य नट्ट नरहकी भोजन-सामग्रियोंप, अपने श्रापही अपनी यात्माको उन्मादी बनाते हैं। (ये शेरको नोरोग बनानसे वह नीरोग बनानेवालेही पर आक्रमण करना , . Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: सागरचंद्रका वृत्तांत [ २११ है वैसेही आहारादि द्वारा पैदा किया हुआ इंद्रियोंका उन्माद आत्माके लिए भवभ्रमणका कारण होता है । ) यह सुगंधित है या वह ? मैं किसे ग्रहण करूँ ? इस तरह विचार करता हुआ प्राणी लंपट और मूढ़ बनकर भौंरेकी तरह भ्रमता फिरता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता । जैसे लोग खिलौनोंसे वालकोंको बहलाते हैं वैसेही सुंदर मालूम होनेवाली चीजोंसे लोग अपने आत्माहीको धोखा देते हैं। जैसे निद्रामें पड़ा हुआ पुरुप शास्त्रचिंतनसे वंचित होता है वैसेही वेणु (वंसी) और वीणाके नादस्वरमें कान लगाकर प्राणी अपने स्वार्थसे (आत्मस्वार्थसे) भ्रष्ट होता है। एक साथ प्रवल बने हुए त्रिदोष-वात, पित्त और कफ-की तरह उन्मत्त बने हुए विषयोंसे प्राणी अपनी चेतनाको खो देता है, इसलिए उसे धिक्कार है!" (१०१७-१०३३) ___ इस तरह जव प्रभुका मन संसारसे उदास होनेके विचारतंतुओंसे व्याप्त हो रहा था उसी समय सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दितोप, तुषिताश्व, अव्यावाध, मरुत और रिष्ट-ये नौ तरहके, ब्रह्म नामके पाँचवें देवलोकके अंतमें बसनेवाले, लौकातिक देवता प्रभुके चरणोंके पास आए और दूसरे मुकुटके समान, मस्तकपर पनकोश (कमलके संपुट) के जैसी अंजलि बना (दोनों हाथोंको जोड़) उन्होंने प्रभुसे निवेदन किया, "इंद्रके मुकुटको कांतिरूपी जलमें जिनके चरण मग्न हो रहे हैं ऐसे और भरतक्षेत्रमें नाश हुए मोक्षमार्गको बतानेमें दीपकके समान ऐसे; हे प्रभु ! जैसे आपने लोकव्यवहार प्रचलित किया है वैसेही अब आप अपने कृत्यको-फर्तव्यको याद कर धर्मतीर्थ प्रच. लित कीजिए।" इस तरह विनती कर देवता ब्रह्मलोकमें अपने Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] त्रिषष्टि शलाका पुस्पन्चरित्रः पर्व १. सर्ग २. अपने स्थानों को गए और दीनाकी इच्छावाले प्रमुभी तत्कालही नंदनोद्यानसे अपने राजमहल में गए । ( १०३४-१०४०) . आचार्य श्रीहेमचंद्रमूरिक बनाए हुए त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरित्र महाकाव्य के प्रथम , पर्वमें भगवानका जन्म, व्यवहार और राज्यस्थिति बतानेवाला दूसरा सर्ग समाप्त हुआ। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह तीसरा दीक्षा अब प्रभुने, तत्कालही सामंत आदि सरदारोंको और भरत, बाहुबली वगैरा पुत्रोंको बुलाया व भरतसे कहा, "हे पुत्र! यह राज्य तुम सँभालो; हम अव संयमरूपी साम्राज्य ग्रहण करेंगे।" .. स्वामीके वचन सुनकर भरत थोड़ी देर सर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा,फिर हाथ जोड़ गद्गद स्वरमें बोला,"हे स्वामी! आपके चरण-कमलोंमें लोटनेसे जैसा सुख मिलता है वैसा सुख सिंहासन पर बैठनेसे नहीं मिलेगा। आपके चरण-कमलोंकी छायामें मुझे जिस आनंदका अनुभव होता है, उस आनंदका अनुभव मुझे छत्रकी छायामें नहीं होगा। यदि मुझे आपका वियोग सहना पड़े तो साम्राज्यलक्ष्मीसे क्या लाभ ? आपकी सेवाके सुखरूपी क्षीरसागरमें राज्यका सुख एक बूंदके समान है।" (१-७) स्वामीने कहा, "हमने राज्य छोड़ दिया है। अगर पृथ्वी. पर राजा न होगा तो 'मत्स्यगलागलन्याय' की सब जगह प्रवृत्ति होगी। इसलिए हे पुत्र ! तुम अच्छी तरह इस पृथ्वीका - . .१-पानी में बड़ी मछलियों छोटी मछलियोको खा जाती है। इसी ..तर यदि गजानही होता है तो जोरावर गरीबोंफो चूसते और सताते हैं। इसी प्रतिको मत्स्यगलागल' कहते हैं । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. पालन करो। तुम हमारी आज्ञा पालनेवाले हो; और हमारी यही पाना है।" प्रभुकी आज्ञाको उल्लंघन करनेमें असमर्थ भरतने राज्य अंगीकार किया । कहा है ..."गुरुग्वेषैव विनयस्थितिः। . - [गुरुजनों के लिए इसी तरहकी विनयस्थिति है यानी बड़ोंकी यात्रा पालनाही छोटोका कर्तव्य है।]:(८-१०): ::: तव नम्र भरतने, सर झुकाकर उन्नतवंशकी तरह पिताके सिंहासनको अलंकृत किया। (भरत सिंहासनपर बैठा 1) प्रभुके आदेशसे अमात्यों (बजीरों ), सामंतों और सेनापति वगैरहने भरतका उसी तरहका राज्यारोहण (गद्दीनशीनी) उत्सव किया जिस तरहका उत्सव ऋषभदेव भगवानके राज्यारोहण के समय इंद्रादि देवोंने किया था। उस समय प्रमुके शासनकी तरह भरतके मस्तकपर पूर्णिमाके चाँदसा अखंड छत्र सुशोभित होने लगा। उनके दोनों तरफ ढलते हए चमर चमकने लगे, वे भरतक्षेत्रके अर्द्धद्वयसे आनेवाली लक्ष्मीके दो दूतोंसे मालूम होते थे। भरत बम्रों और मोतियोंके आभूपोंसे ऐसे सुशोभित होने लगे, मानों वे उनके अति उज्ज्वल गुण हो । महामहिमाके योग्य उन नवीन राजाको, नवीन चंद्रमाकी तरह राजमंडलने अपने कल्याणकी इच्छासे, प्रणाम किया। (११-१६). ..... . प्रभुने बाहुबली वगैरा पुत्रोंको भी उनकी योग्यताके अनुसार देश वाँट दिए। उसके बाद प्रमुने कल्पवृक्षकी तरह, लोगों १- भरतक्षेत्रके उत्तराई और दक्षिणाई, ऐसे दो भाग । . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : . . . . भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२१५ को उनकी इच्छानुसार, वार्षिक दान देना आरंभ किया । नगर.. के चौराहों और दरवाजोंपर ऐसी डोंडी पिटवा दी गई कि जिसको जो कुछ चाहिए वह प्रभुके पास आकर ले जाए । स्वामीने दान देना शुरू किया, तब कुबेरने जूभक देवताओंको आज्ञा दी कि वे प्रभुके पास धन पहुँचावें। जृभक देव इस तरहका धन-रत्न, जवाहरात, सोना, चाँदी वगैरा लाकर प्रभुके खजानेमें रखते थे कि जो चिरकालसे नष्ट हो गया था, खो गया था, मर्यादाको उल्लंघन करनेवाला था (यानी-लोगोंने जिसे अन्यायसे प्राप्त किया था), जो मसानोंमें, पहाड़ियोंमें, वगीचोंमें या घरों में जमीनमें गाड़कर-छिपाकर रखा गया था और जिसका कोई मालिक नहीं था। देवता इस तरह प्रभुके खजानेको भर रहे थे जिस तरह बारिशका पानी कुओंको भरता है। प्रभु सूर्योदयसे दान देना शुरू करते थे सो भोजनके समय तक देते थे। हर रोज एककरोड़ आठलाख स्वर्णमुद्राकी कीमत जितना दान देते थे। इस तरह एक बरसमें प्रभुने, तीनसीअठासीकरोड़ और अस्सीलाख स्वर्ण-मुद्राकी कीमत जितना धन दानमें दिया । प्रभु दीक्षा लेनेवाले हैं यह जानकर लोगों के मनोंमें भी वैराग्य-भावना जागी थी, इसलिए वे बहुत कम दान लेते थे। यद्यपि प्रभु इच्छानुसार दान देते थे तथापि लोग अधिक नहीं लेते थे। (१७-२५) वार्षिक दान पूरा हुआ तब इंद्रका आसन काँपा। वह दूसरे भरतकी तरह प्रभुके पास पाया। जलके कलश हाथमें लिए हुग दूसरे इंद्र भी उसके साथ थे। उनने राज्याभिषेकफी तरहही दीनामहोत्सव संबंधी अभिषेक किया। वम और अलकारों के Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व १. सर्ग ३, ‘विभागके अधिकारीकी तरह, इंद्र वस्त्रालंकार लाया और प्रभुने - उन्हें धारण किया । इंद्रने प्रभुके लिए सुदर्शना नामकी शिविका (पालकी ) तैयार की। वह अनुत्तर विमान नामक देवलोक के विमानसी दिखती थी । प्रमु इंद्रके हाथका सहारा लेकर उम शिविकामें बैठे ऐसा जान पड़ता था मानों वे लोकाग्र रूपी मंदिर (मोक्ष) की पहली सीढ़ी पर चढ़े हैं। पहले रोमांचित हुए मनुष्योंने और फिर देवताओंने, मूर्तिमंत पुण्य-मारके समान उस शिविकाको उठाया। उस समय अानंदसे मंगल बाने वजाग गए। उनकी श्रावानसे, पुस्करावर्तक मेघकी तरह दसों दिशाएँ मर गईं। मानों इस लोक और परलोक दोनोंकी मूर्तिमानं निर्मलताहोगेसे दो चवर, प्रम दोनों तरफ चमकने लगे। वृंदारक नानिके देव,चारणांकी तरह, मनुष्योंके कानोंको प्रसन्न करनेवाले, प्रमुकी लय-जयकारके शब्द ऊँचे स्वरमें करने लगे। शिविक्रामें बैठकर चलते हुए प्रभु उत्तम देवोंक विमानमें रही हुई शाश्वत प्रतिमाकी तरह शोमने थे। भगवानको जाते देखकर बालक, बूढे-सभी नगर निवासी प्रमुके पीछे इस तरह दौड़ने लगे, जिस तरह बालक अपने पिताके पाछे दौड़त है। कई मेवको देखनवाले मोरॉकी तरह, दरसे स्वामीको देखनेक लिए वृक्षोंकी ऊँची डालियोंपर ला बैट; कई रस्तेके मंदिरों व महलोंकी छनोंपर प्रमुको देखने के लिए ना चढ़े। ऊपरसे पड़ती हुई तेज धूपको उन्होंने चाँदनीके समान माना ! कई घोड़ा जल्दी न पानसे यह सोचकर पैदलही घोड़े की तरह.मार्गपर दौड़ने लगे कि समय व्यर्थ जा रहा है, और कई बलमें मछलीकी तरह लोकसमूहमें घुसकर, स्वामी दर्शनकी इच्छासे आगे Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .: अषभनाथका वृत्तांत [२१७ निकलने लगे। जगत्पतिके पीछे दौड़नेवाली कई स्त्रियोंके, वेगके कारण, हार टूट रहे थे, वे ऐसी मालूम होती थीं, मानों वे लाजांजलिंसे (खीलोंकी अंजलिसे) प्रभुका स्वागत कर रही हैं। कई, प्रभु आते हैं यह सुनकर अपने बच्चोंको लिए स्थिर ...खड़ी थीं, वे बंदरोंके सहित लताएँ हों ऐसी जान पड़ती थीं; कुचकुभके भारसे मंदगतिवाली युवतियाँ अपनी दोनों तरफ • चलनेवाली स्त्रियोंके कंधोंपर हाथ रखकर चल रही थीं; मानों - उन्होंने दो पंख निकाले हैं। कई स्त्रियाँ प्रभुको देखनेके उत्साह की गतिको भंग करनेवाले अपने नितंबोंकी निंदा करती थीं। ___ मार्गमें आनेवाले घरोंमें रहनेवाली कई कुलवधुएँ सुंदर कसूवी __वस्त्र पहन, पूर्णपात्र लिए खड़ी थीं, वे चंद्रमाके सहित संध्याकी : सगी बहनोंसी, जान पड़ती थीं; कई चपलनयनियाँ, प्रभुको देखनेके लिए ( उत्सुक) अपने साड़ीके पल्लेको, हस्तकमलसे चँवरकी तरह हिला रही थीं (मानों वे भक्तिसे प्रभुपर चँवर दुरा ..रही हो।); कई नाभिकुमारपर लाजा (चावलकी खोलें) डाल रही थीं, मानों वे अपने लिए, निर्भरतासे, पुण्यके वीज बो रही थीं; कई सुवासिनिया(सधवाएँ) 'चिर जीवो,चिर आनंद पाओ!' ऐसी असीसें देती थीं; और कई चपलाती (चंचल आँखोंवाली) नगर-नारियों स्थिर आँखोंसे, शीघ्र चलनेवाली या धीरे चलनेवाली होकर प्रभुके पीछे जा रही थीं। (२६-४६) . . अब चारों तरहफे देव अपने विमानोंसे पृथ्वीतलको छाया. . बाला बनाते हुए आकाशमें आने लगे। उनमें कई देव उत्तम मद... जल बरसाते झाथियोंको नेफर आते थे; इससे जान पड़ता था कि वेभाकाशको मेषमय बना रहे हैं। कई देवता आकाशरूपी समु. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. द्रमें, नौका रूपी घोड़ोंपर सवार होकर, डाँडों रूपी चावुकोंसे उन्हें चलाते हुए जगत्पति को देखने आ रहे थे। कई देवता मूर्तिमान पवन हों ऐसे वेगवाले रथोंपर सवार होकर नाभिनंदनको देखने के लिए प्रारहे थे; मानों उन्होंने वाहनोंकी क्रीडाकी (गतिकी)शर्त लगाई हो इस तरह वे मित्रको भी राह नहीं देखते थे। अपने गाँव पहुंचे हुए मुसाफिरकी तरह प्रभुके पास पहुँचनेपर थे स्वामी हैं ! ये स्वामी है !' कहते हुए वे अपने वाहनोंकी गतिको रोकते थे। विमान रूपी हवेलियोंसे और हाथियों, घोड़ों और रथोंसे ऐसा मालूम होता था कि मानों अनेक देवताओं और मनुष्यों से घिरे हुए जगत्पति, अनेक सूर्यों और चंद्रमाओंसे घिरे हुए, मानुपोत्तर पर्वतके समान मालूम होते थे। उनके दोनों तरफ भरत और बाहुबलि सेवा करते थे। इससे प्रभु ऐसे शोभते थे जैसे दोनों किनारोंसे समुद्र शोभता है । हाथी जैसे अपने यूथपति (दलके सरदार ) का अनुसरण करते हैं वैसेही दूसरे अट्ठानवै विनीत पुत्र प्रभुके पीछे चलते थे । माता मरुदेवी, पनियाँ सुमंगला और सुनंदा,पुत्रियाँ ब्राह्मी व सुंदरी तथा दूसरी स्त्रियाँ, ओसकी बूंदोंवाली कमलिनियोंकी तरह आँसूभरी आँखों के साथ प्रभुके पीछे चल रही थीं। इस तरह प्रभु सिद्धार्थ नामके उद्यानमें पधारे। वह उद्यान प्रभुके पूर्वजन्मके सर्वार्थसिद्ध विमानसा मालूम होता था। वहाँ प्रभु शिविकारत्नसे अशोक वृक्षके नीचे उतरे, जैसे ममतारहित मनुष्य संसारसे उतरता है (संसार ‘छोड़ता है); और कपायकी तरह उन्होंने वस्त्रों, आभूषणों और 'मालाओंको तत्कालही छोड़ दिया। उस समय इंद्रने पास आकर चंद्रकी किरणोंसेही बना हो ऐसा उजला और बारीक देवदुष्य • वर प्रभुके कंधेपर आरोपण किया (रखा)। (५०-६४) .. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत . [२१६ . वह चैत वदी आठमका दिन था। चंद्र उत्तराषाढा नक्षत्र में आया था। दिनके पिछले पहरका समय था। जय जय शब्दके कोलाहल पूर्वक असंख्य देवता और मनुष्य अपना हर्प प्रकट कर रहे थे। उनके सामने मानों चारों दिशाओंको प्रसाद (वखशिश) देनेकी इच्छासे प्रभुने चार मुट्ठीसे अपने सरके बालोंका लोंच किया। प्रभुके केशोंको सौधर्मपतिने अपने अंचलमें (कपड़े. के पल्लमें) लिया । ऐसा मालूम होता था मानों वह अपने वस्त्रको अलग तरहके धागोंसे बुनना चाहता है। प्रभुने पाँचवीं मुट्ठीसे बचे हुए केशोंका भी लोच करनेकी इच्छा की, तब इंद्रने प्रार्थना की, "हे प्रभु! आप इतने केश रहने दीजिए। कारण, वे जय हवासे उड़कर आपके सोनेके जैसी कांतिवाले कंधेके भाग पर आते है तब मरकत-मणिके समान शोभते हैं। प्रभुने इंद्रकी बात मानली और बचे हुए केशोंको रहने दिया। कारण "याञ्चामेकांतभक्तानां स्वामिनः खंडयंति न " | स्वामी अपने एकनिष्ठ भक्तोंकी याचना को नहीं ठुकराते। सौधर्मपति जाकर उन केशोंको क्षीरसागरमें डाल आया। फिर उसने रंगाचार्य (सूत्रधार) की तरह हाथके इशारेसे वाजोंको बजाना बंद कराया । उस दिन प्रभुके छह तप (दूसरा उपवास) था। उन्होंने देवताओं, असुरों और मनुष्योंके सामने सिद्ध भगवानको नमस्कार करके "मैं सायद्ययोगका प्रत्याख्यान करता हूँ।" (मैं उन सभी कामोंका करना छोड़ता हूँ जिनसे हिंसा होनेकी संभावना है ) कहा और मोक्षमार्गके लिए रथके समान चारित्र प्रहण किया। शरद ऋतुके तापसे तप हुए पुरुष. को जैसे बादलों की दायासे थोड़ी देर के लिए सुग्व होता वैसे Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. ही नारकी जीवोंको भी क्षणमात्रके लिए सुख हुआ। उसी समय मानों दीक्षाके साय संकेत कर रखा हो वैसे, मनुष्यक्षेत्रके सभी पंचेंद्रिय जीवोंकी वातको जाननेवाला मनापर्ययज्ञान प्रभुको उत्पन्न हुआ। कच्छ और महाकच्छ वगैरा चारहतार राजाओंने भी प्रभुके साथही दीक्षा लेली। मित्रोंने उन्हें रोका, वंधुओंने उनको मना किया, भरतेश्वरने वारम्वार निपेय क्रिया तो भी, उन्होंने अपने बी-पुत्र-राज्य वगैरा सबका, तिनकेकी तरह त्याग कर, अपने स्वामीकी कृपाओंको याद कर, भौरोंकी तरह प्रभुके चरण कमलोंका विरह अपने लिए असह्य (सहन न हो सके ऐसा ) समझ कर, और जो स्वामीकी गति है वही हमारी भी है यह निश्चय कर,आनंदसे चारित्र ग्रहण कर लिया। ठीकही कहा है कि , "...""भृत्यानामेष हि क्रमः ।" . [नौकरोंका यही क्रम है, यानी सच्चे नौकर हर हालतमें अपने मालिक का साथ देते हैं।] (६५-८०) - फिर इंद्रादि देव वंदना कर, हाथ जोड़, प्रमुकी न्तुति करने लगे, "हे प्रभो! हम आपके यथार्थ गुणोंका वर्णन करनेमें असमर्थ है, तो भी स्तुति करने लगे हैं। कारण आपके प्रभावसे हमारी वृद्धिका विकास होता है-हमारी अक्ल बढ़ती है। हे स्वामी ! बस और स्यावर जीवोंकी हिंसाको छोड़नेसे, अभयदान देनेवाली दानशालाके समान बने हुए, आपको हम नमस्कार करते हैं। झूठको बिलकुल छोड़ देनसे, निर्मल व हितकारी, सत्य और प्रिय वचनरूपी सुधारसके समुद्र के जैसे आपको हम Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भ० ऋषभनाथका वृत्तांत . [२२१ नमस्कार करते हैं । अदत्तादानका (बगैर दिए किसीकी चीज लेनेका ) त्यागरूपी मार्ग बंद हो गया था, उसपर सबसे पहले, चलकर उसे पुनः प्रारंभ करनेवाले, हे भगवान! हम आपको नमस्कार करते हैं। कामदेवरूपी अंधकारका नाश करनेवाले, अखंडित ब्रह्मचर्यरूपी महान तेजवाले सूर्यके समान हे प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं। तिनकेके समान जमीन-जायदाद वगैरा सब तरहके परिग्रहोंको एक साथ छोड़ देनेवाले, हे निर्लोभ आत्मावाले प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं। पाँच महाव्रतोंका भार उठानेमें वृपभ (बैल) के समान और संसाररूपी समुद्रको तैरने में कछुएके समान आप महात्माको हम नमस्कार करते हैं। पाँच महानतोकी सगी बहनोंके समान पाँच समितियोंको धारण करनेवाले, हे प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं। आत्मभावोंमेंही लगे हुए मनवाले, वचनकी प्रवृत्तिको रोकनेवाले और सभी प्रवृत्तियोंसे अलग शरीरवालेऐसे तीन गुप्तियोंको धारण करनेवाले हे प्रभो! हम आपको नमस्कार करते है।" (८१-६०) इस तरह स्तुति कर देवता जन्माभिपेकके समय जैसे नंदीश्वर द्वीप गए थे, वैसेही नंदीश्वरद्वीप जा, (वहाँ अहाई महोत्सव कर) अपने अपने स्थानोंको गए । देवताओंकी तरहही भरत और बाहुवली वगैरा भी प्रभुको नमम्कार कर, दुखी मनके साथ अपने अपने स्थानोंको गए। विहार अपने साथ दीक्षा लेनेवाले कन्छ-महाकाहादि गुनियों Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३. सहित प्रभुने मौन धारणकर पृथ्वीपर विहार करना (एक स्थानसे दूसरे स्थान को जाना ) शुरू किया । (६१-६३) प्रभु पारणेके दिन गोचरीके लिए गए; मगर उनको कहींसे. आहार नहीं मिला। कारण, उस समय लोग भिक्षादानको नहीं जाननेवाले और एकांत सरल थे। मिनाके लिए जानेवाले प्रमुको, पहले की तरहही राना सममकर, कई लोग उनकें सूरजके उचःश्रवा नामके घोडेको भी वेगमें पीछे रख देनेवाले घोड़े भेट करते थे कई शायंसे दिग्गजोंको भी हरानेवाले हाथी भेट करते थे कई रूप-लावण्यमें अप्सराओं को भी लजानेवाली कन्याएँ भेट करते थे; कई विजलीकी तरह चमकनवाले श्राभूषण आगे रखने थे; कई साँन्के आकाशमें फैले हुए तरह तरहके रंगोंक समान रंगीन कपड़े लाते थे; कई मंदार-माला (स्वर्गके एक वृक्षके फूलोंकी माला) से स्पा करनेवाले फूलोंकी माला अर्पण करते थे; कई सुमन-पर्वतके शिस्त्रर लेना मोनेका ढेर भेट करते थे और कई रोहणाचल (रोहण नामक पर्वत ) की चूना (चोटी) के समान रत्नोंका ढेर अर्पण करते थे मगर प्रमु उनसे एक भी चीज नहीं लेते थे। मिक्षा न मिलने पर भी अदीन मनवाले प्रमु जंगम तीर्थकी नरह बिहार कर (भ्रमण कर) पृथ्वीतलको पावन करते थे। वे मुन्व-प्यास वगैराके परिसहाँको इस तरह सहन करते थे, मानों उनका शरीर सात घातुओका बना हुया नहीं है। नहाज जिस तरह पवनका अनुसरण करते है सहीस्वयमेव दीक्षित गना भीत्रामीक साय ही विहार करते थे। (३४-१००) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२२३ - जटाधारी तापसोंकी उत्पत्ति ... भूख प्याससे घबराए हुए और तत्त्वज्ञानसे रहित वे तपस्वी राजा अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करने लगे, "ये स्वामी किंपाक ( जहरी कोचले ) के फलकी तरह मीठे फलभी नहीं खाते, खारे पानीकी तरह स्वादिष्ट मीठा जल भी नहीं पीते,शरीरकी तरफसे लापरवाह होनेसे स्नान और विलेपन भी नहीं करते और वस्त्रालंकारों और फूलोंको भार समझकर ग्रहण नहीं करते। ये तो हवाके द्वारा उड़ाई हुई धूलको पर्वतकी तरह धारण कर लेसे हैं। ललाटको. तपानेवाला ताप सदा सरपर सहन करते हैं। कभी सोते नहीं है तो भी नहीं थकते; श्रेष्ठ हाथीकी तरह गरमीसरदीकी इन्हें कुछ परवाह नहीं है । ये भूखको नहीं गिनते, प्यासको नहीं.पहचानते और वैर लेनेकी इच्छा रखनेवाले क्षत्रीकी तरह रातको नींद भी नहीं लेते। हम इनके अनुचर बने हैं; मगर मानों हम अपराधी हो इस तरह, हमें एक निगाहसे देखकर भी प्रसम नहीं करते; फिर बातचीतकी तो बात ही क्या है ? ये प्रभु पुत्र-कलत्र (वाल पच्चे)आदिके त्यागी है तो भी हम नहीं समझते कि वे अपने मनमें क्या सोचा करते हैं ?" (१०३-११०) इस तरह विचारकर वे सब तपस्वी अपने समूहके नेता और स्वामीके पास सेवककी तरह रहनेवाले, फच्छ और महा. फच्छके पास गए व कहने लगे,"काही भूग्यको जीतनेवाले प्रभु ! और कहाँ अन्नके फीडे हम ! फहो प्यासको जीतनेवाले प्रभु ! और फहां जलके मेंढक दम ! फहौ शीतसे न घयरानेयाले प्रनु ! और कहाँ बदरफी तरह सरदीसे कोपनेवाले इम! कहो निद्रादीन Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. प्रभु ! और कहाँ अजगरसे निद्रालु हम ! कहाँ हमेशा जमीनपर नहीं बैठे रहनेवाले प्रभु ! और कहाँ आसन लगाकर बैठे रहनेवाले पंगुसे हम ! संमुद्र लाँघनेको उड़नेवाले गरुड पक्षीका जैसे कौवे अनुसरण करते हैं वैसेही स्वामीके धारण किए हुए व्रतका हमने अनुसरण किया है । (मगर उनका अनुगमन हमारे लिए कठिन हो गया है। ) तब अपनी आजीविकाके लिए क्या हमें अपने राज्य वापस लेने चाहिए ? मगर उन्हें तो भरतने अपनेअधिकारमें कर लिया है, तब हमें क्या करना चाहिए? क्याहमें : अपने जीवननिर्वाह के लिए भरतका आसरा लेना चाहिए । मगर स्वामीको छोड़कर जानेमें उसीका भय हमें अधिक है । हे. आर्य ! आप सदा प्रभुके पास रहनेवाले और उनके विचारोंको अच्छी तरह जाननेवाले हैं, इसलिए हम दिग्मूढ बने हुए साधुओंको क्या करना चाहिए ? सो बताइए।" (१११-११८) उन कच्छ और महाकच्छ मुनियोंने जवाब दिया, "यदि स्वयंभूरमण समुद्रका पार पाया जासके तो प्रभुके भावोंकोभी जाना जासके। (स्वयंभूरमण समुद्रका जैसे कोई पार, नहीं पा सकता, वैसेही प्रभुके विचारोंका पता भी किसीको नहीं लग सकता।) पहले हम प्रभुकी आज्ञाके अनुसार चलते थे। परंतु अभी तो प्रभुने मौन धारण कर रखा है, इसलिए जैसे उनके मनकी बात आप लोग नहीं जानते, वैसेही हम भी कुछ नहीं जानते । हम सबकी दशा एकसीही है। इसलिए आप कहिए वैसाही हम भी करें।" (११६-१२१) .. . फिर वे सब विचार करके गंगा नदीके पासके वनमें गए. और वहाँ उन्होंने इच्छानुसार कंद-मूल-फलादि का आहार, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथफा वृत्तांत [२२५ करना शुरू किया। तभीसे कंदमूल-फलादिका आहार करनेवाले और वनमें रहनेवाले जटाधारी तपस्वियोंकी जमात पृथ्वीपर फिरने लगी। (१२२-१२३) नमि विनमिका, प्रभुकी भक्ति करना, और विद्याधरोंका ऐश्वर्य पाना। - कच्छ और महाकच्छके नमि और विनमि नामके विनयी पुत्र थे। वे प्रभुकी आज्ञासे, प्रभुने दीक्षा ली इससे पहलेही, कहीं दूर-देश गए थे। वहाँसे.लौटते समय उन्होंने अपने पिताको वनमें देखा । उनको देखकर वे सोचने लगे, "वृषभनाथके समान नाथ होते हुए भी अपने पिताओंकी ऐसी दशा क्यों हुई ? कहाँ उनके पहननेके वे बारीक वस्त्र और कहाँ इनके ये भील लोगोंके पहनने लायक बलकल (पेड़की छालोंके ) षख! कहाँ शरीर पर लगानेका उबटन और कहाँ पशुओंके लायक यह जमीनकी धूल ! कहाँ फूलोंसे सजे हुए केश और कहाँ यह घड़की बड़वाईके समान लंबी जटा ! कहाँ हाथियोंकी सवारी और कहाँ प्यादोंकी तरह पैदल चलना!" इस तरह विचार कर वे अपने पिताओंके पास गए और प्रणाम कर उन्होंने उनसे सारी बातें पूछीं। तब कच्छ, महाकच्छने जवाब दिया। (१२४-१२६) "भगवान ऋषभदेवने राज-पाट छोड़, भरतादि पुत्रोंको पृथ्वी घौट, दीक्षा लेली। हाथी जैसे गन्ना खाता है वैसेही हम सपने भी साहस करके उन्हीं के साथ दीक्षा लेली । मगर भूग्य, प्यास, सरदी और गरमी वगैराके दुःग्योंसे बराफर हमने, १५.. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ) त्रिषष्टिं शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३. गधे या खच्चर जैसे अपना भार छोड़ देते है वैसेही, प्रतका त्याग कर दिया। हम यद्यपि प्रमुकी तरह आचरण करने में समर्थ नहीं हो सके तथापि हमने वापस घर-गिरस्ती बनना न चाहा और अब हम इस तपोवनमें बसते हैं।" (१३०-१३३) ये बात सुन, वे यह सोचकर प्रमुके पास गए कि हम भी अपना हिस्सा माँग। उन्होंने प्रभु के चरणों में प्रणाम किया। प्रभु मौन धारणकर कारसग ध्यान में (समाधि लगाए ) खड़े थे। नमि-विनमि यह नहीं जानते थे कि प्रभु श्रय नि:संग हैसब कुल छोड़ चुके हैं । इसलिए वे बोले, "हम दोनोंको आपने दूर देशोंमें भेज दिया और भरतादिको सारी पृथ्वी बाँट दी, हमको गौके जुरके बराबर भी पृथ्वी नहीं दी, इसलिए. हे विश्वनाथ ! अब मेहरबानी करके हमें भी जमीन दीजिए. । (भगवानको चुप देखकर वे फिर बोले ) “श्राप देवोंके भी देव हैं। आपने हमारा कोनसा ऐसा अपराध देखा है कि, जिसके कारण आप जमीन देना तो दूर रहा, बात तक नहीं करते।" दोनोंके इस तरह कहनेपर भी प्रमुने उस समय कोई जवाब नहीं दिया। कारण, "निर्ममा हि न लिप्यते कस्याप्यहिकचिंतया 1" . [मोह-माया रहित लोग किसी भी दुनियची यातका विचार नहीं करते ।] (१३४-१३६) . वे यह सोचकर प्रयुकी सेवामें लग गए कि प्रभु कुछ नहीं बोलते हैं तो भी हमारी गति तो यही है। स्वामीके आसपासकी जमीनकी धूल न उड़े, इसलिए सरोवरसे कमलके पत्तोंमें पानी भरकर लाते थे और जमीनपर रिदकते थे। वे नित्य Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [२२७ - सवेरे धर्मचक्रवर्ती भगवानके आगे, सुगंधसे मतवाले बने हुए भौरे जिनपर गूंज रहे हैं ऐसे, फूलोंके गुच्छे लाकर रखते थे। जैसे सूरज और चाँद रातदिन मेरु पर्वतकी सेवा करते हैं वैसेही वे सदा हाथोंमें तलवारें लिए प्रभुकी सेवामें, उनके पास खड़े रहते थे और सवेरे शाम और दुपहरको हाथ जोड़, प्रणाम कर याचना करते थे, "हे स्वामी! हमको राज्य दीजिए। आपके सिवा हमारा कोई स्वामी नहीं है।” (१४०-१४४) एक दिन नागकुमारोंका अधिपति श्रद्धालु धरणेंद्र प्रभुके चरणोंमें वंदना करनेके लिए आया। उसने अचरजके साथ, यालकोंके समान सरल दोनों कुमारोंको, प्रभुसे राज्यलक्ष्मीकी याचना करते और प्रभुकी सेवा करते देखा । धरणेंद्रने अमृतके समान मधुर वाणीमें उनसे पूछा, "तुम कौन हो और बड़े आग्रहके साथ प्रभुसे क्या माँगते हो ? जय प्रभुने एक बरस तक मुंहमाँगा दान दिया था तब तुम कहाँ गए थे? इस समय तो ये ममता-रहित, परिग्रह-रहित, अपने शरीरपर भी मोह नहीं रखनेवाले, और खुशी या नाराजगीसे मुक्त है।" (१४५-१४७) धरणेद्रको भी प्रभुका सेवक समझ नमि-विनमिने पादरके साथ उससे कहा, "ये हमारे स्वामी है और हम इनके सेवक है। इन्होंने हमें किसी दूर देशमं भेज दिया और पीछेसे अपने भरतादि पुत्रोंको सारा राज्य चॉट दिया। यापिएनहोंने मयकुछ दे दिया है तथापि ये हमको राज्य देंगे। (ऐसा हमें विश्वास है।) सेवकको सिर्फ सेवा करना चाहिए इसे गा निंता पचों फरनी चाहिए कि मालिकके पास पुदई या नहीं?" (१५०-२५३) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. धरणेंद्रने कहा, "तुम भरतके पास जाकर माँगो । वह भी प्रभुका पुत्र होनेसे प्रभुके समानही है।" उन्होंने कहा, "दुनियाके मालिकको पानेके बाद उनको छोड़कर अब हम कोई दूसरा मालिक नहीं बनाएँगे । कारण; कल्पवृक्षको पाकर कौन करीरके पास जाएगा ? हम परमेश्वरको छोड़कर दूसरेसे कुछ नहीं माँगेंगे। क्या चातक पक्षी मेघके सिवा किसी दूसरेसे कुछ माँगता है ? भरतादिका कल्याण हो ! आप क्यों चिंता करते हैं ? हमारे स्वामी जो कुछ दे सकेंगे देंगे; दूसरोंको इससे मतलव ?” (१५३-१५६) ___उनकी ऐसी युक्ति-युक्त बातें सुनकर नागराज खुश हुआ। उसने कहा, "मैं पातालपति हूँ और इन प्रभुका सेवक हूँ | मैं तुम्हें शाबाशी देता हूँ। तुम बड़े भाग्यवान हो और सत्यवान भी हो। इसीसे तुम्हारी यह दृढ़ प्रतिज्ञा है कि ये स्वामीही सेवा करने लायक हैं, दूसरे नहीं। इन दुनियाके मालिककी सेवा करनेसे राज्यसम्पति, बँधकर खिंची आई हो इस तरह, सेवकके पास चली आती है। वैताव्य पर्वतपर रहनेवाले विद्याधरोंकी मालिकी भी इन महात्माकी सेवा करनेवालेको वृक्षपर लटकते हुए फलकी तरह आसानीसे मिल जाती है। इनकी सेवा करनेसे भुवनाधिपति (इंद्र) की सम्पति भी, पैरोंतले पड़ी हुई दौलतकी तरह सरलतासे प्राप्त हो जाती है। इनकी सेवा करनेवालेको, व्यंतरेंद्रकी लक्ष्मी वशमें होकर इस तरह नमस्कार करती है जिस तरह जादूसे कोई स्त्री वशमें होती है । जो भाग्यवान पुरुष इन प्रभुकी सेवा करता है उसको,स्वयंवरा वधूकी तरह,ज्योतिष्पतिकी लक्ष्मी तुरंत अंगीकार करती है। जैसे वसंत ऋतुसे तरह तरहके फूलोंकी Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [२२६ वृद्धि होती है वैसेही इनकी सेवा करनेसे इंद्रकी संपत्तियों मिलती है। मुक्तिकी छोटी बहिनसी दुर्लभ अहमिंद्रकी लक्ष्मीभी इनके सेयकको तत्कालही मिलती है । इन जगत्पतिफी सेवा करनेवाला प्राणी जन्म-मरण रहित सदा आनंदमय पद (मोक्ष) भी पाता है। अधिक क्या कहें ? इनकी सेवा करनेसे प्राणी इनकी तरहही इस लोकमें तीन भुवनका मालिक और परलोकमें सिद्धरूप होता है । मैं इन प्रभुका दास हूँ और तुम भी इन्हींके किंकर हो, इससे तुमको इनकी सेवाके फलरूप विद्याधरोंका ऐश्वर्य देता हूँ। यह समझना कि यह राज्य तुमको प्रभुकी सेवा करने से ही मिला है। (अर्थात स्वामीनेही यह राज्य तुमको दिया है।) पृथ्वीपर श्रमणका उदय सूर्यसेही होता है ।" इसके बाद इसने उनको, गौरी, प्रज्ञप्ति वगैरा अड़तालीसहजार विद्याएँ जो पाठ करनेहीसे सिद्धि देती है, दी और कहा, "तुम वैतादर पर्वतपर जाओ, वहाँ दोनों तरफ नगरकी स्थापना कर अक्षय राज्य करो।" (१५७-१७१) तब वे भगवानको नमस्कार कर (विद्यायलसे ) पुष्पफ नामका विमान बना, उसमें सवार हो, पन्नगपति( नागराज ) के साथही वहाँसे रवाना हुए । पहले वे अपने पिता कच्छ, महाकच्छके पास गए और उनको स्वामीकी सेवारूपी वृक्षके फलरूपी उस नवीन संपत्ति प्राप्तिकी बात कही। फिर उन्होंने अयोध्याके पति भरतके पास जाकर उसे अपनी प्रसिका हाल बनाया । कारण,"मानिनां मानसिद्धिहि सफला स्थानदर्शिनाम् ।" [मानी पुरोको मानकी सिन्दि अपना स्थान बतानेदीसे Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. सफल होती है। उसके बाद वे अपने स्वजनों और परिजनोंको (कुटुंव और परिवारके लोगोंको) साथ ले, उत्तम विमानमें बैठ वैताव्य पर्वतकी तरफ गए । (१७२-१७५) वैताव्य पर्वतके एक भागको लवणसमुद्रकी तरंगें चूम रही थीं। वह मानों पूर्व और पश्चिम दिशाका मानदंड' हो, ऐसा मालूम होता था। वह पर्वत भरतक्षेत्रके दक्षिण और उत्तर भाग की मध्यवर्ती (वीचकी) सीमाके समान है। वह पचास योजन विशाल (फैला हुआ) है, सबाछ:योजन पृथ्वीमें है और पृथ्वीसे पच्चीस योजन ऊँचा है। गंगा और सिंधु नदियाँ उसके आसपास बहती हैं। उनसे ऐसा जान पड़ता है कि हिमालय दोनों हाथ पसारकर वैताढ्य पर्वतको भेट रहा है। भरतार्द्धकी लक्ष्मीके आराम और खेल करने के स्थानोंके समान खंडप्रपा और तमिश्रा नामकी गुफाएँ उनमें हैं। चूलिका(शिखर)से जैसे मेरु पर्वत शोभता है वैसेही शाश्वत प्रतिमावाले सिद्धायतनकूट (मंदिर) से वह पर्वत अदभुत सुंदर मालूम होता है। माना नए कंठाभरण (गलेमें पहननेके जेवर) हों वैसे विविध रत्नोंवाले और देवताओंके लिए लीलास्थान (खेलनेकी जगह ) रूप नौशिखर उसके ऊपर हैं। उसके वीस योजन ऊपर दक्षिण और उत्तरकी तरफ मानों वस्त्र हों ऐसी व्यंतरोंकी दो निवास श्रेणियाँ हैं। मूलसे लेकर चोटी तक मनोहर सोनेकी शिलाएँ हैं, उनसे वह पर्वत ऐसा मालूम होता है मानों स्वर्गका एक पादकटक १-वह निश्चत किया हुया सर्वमान्य मान या माप जिसके अनुसार किसी प्रकारकी योग्यता, श्रेष्ठता, गुण श्रादिका अनुमान या कल्पना की जाए। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .भ० ऋषभनाथका वृत्तांत - [२३१ (पैरोंका एक जेवर ) जमीनपर आ गिरा है। पवनसे हिलती हुई वृक्षकी शाखाएँ ऐसी मालूम होती थीं, मानों वे पर्वतकी भुजाएँ हैं और हाथोंके इशारोंसे वह नमि-विनमिको बुला रही हैं। नमि-विनमि वैताठ्य पर्वतपर आ पहुँचे । (१७६-१८५) ... : नमि राजाने जमीनसे दस योजन ऊपरकी तरफ दक्षिणके हिस्सेमें पचास नगर वसाए । उनके नाम थे-बाहुकेतु, पुंडरीक, हरिकेतु, सेतकेतु, सारिकेतु, श्रीबाहु, श्रीगृह, लोहार्गल, भरिजय, स्वर्गलीला, वज्जगल, वनविमोक, महिसारपुर, जयपुर,सुकृतमुखी,चतुर्मुखी, यहुमुखी, रक्ता, विरक्ता, पाखंडलपुर, विलासयोनिपुर, अपराजित, कांचिदाम, सुविनय, नमःपुर, क्षेमकर, सहचिह्नपुर, कुसुमपुरी, संजयती, शक्रपुर, जयंती, वैजयंती, विजया, क्षेमंकरी, चंद्रभासपुर, रविभासपुर, सप्त. भूतलावास, सुविचित्र, महाध्रपुर, चित्रकूट, त्रिकूटक, वैश्रवणफूट, शशिपुर, रविपुर, विमुखी, वाहिनी, सुमुखी, नित्योदो: तिनी और श्रीरथनुपुर चक्रवाल। .. किन्नर पुरुषोंने पहले वहाँ मंगलगान किया। फिर नमिने रथनुपुर चक्रवाल नामक सर्वोत्तम नगरमें निवास किया। यह शहर सभी नगरोंके बीचमें था । (१८६-१६५) ... धरणेंद्रकी श्राक्षासे विनमिने भी वैतागके उत्तर विभाग, साठ नगर यसाए । उनके नाम थे,-अर्जुनी, बामणी, वरस. हारिणी, कैलाशवारणी, विशुद्वीप, किलिफिल, चारचूदामणि, नंद्रभूपण, यशवत, फुसुमचूल, हमगर्भ, मरक, शंकर, लकमी. एन, चामर, विमल, असुमत्कृत, शिवमंदिर, यमुमती, सर्वसिद्धस्तुन, सर्पशगुजय, केतुमालांक, नान, महानंदन, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३: - - अंशोक, वीनशोक, विशोकक, मुखालोक, अलक तिलक, नमस्तिलक, मंदिर, कुमुदकुद,गमनवल्लम, युवतीतिलक, अवनि. तिलक, सगंधर्व, मुक्तहार, अनिमिप विष्टप, अग्निचाला, गुरुज्वान्ता, श्री नितनपुर, जयश्री निवास, रत्नकुलिश, वसिष्टाश्रम, द्रविजय, समद्रक, भद्राशयपुर, फनशिखर, गोनीरवर शिखर, वैयनोम शिवर, गिरिशिखर, घरणी, वारशी, मुदर्शनपुर, दुर्ग, दुर्द्धर, माहंद्र, विजय, मुर्गधिन मुरत, नागरपुर, श्रोर रत्नपुर. घरगोंद्रकी याज्ञासे विनमिने गगनबल्लम नामके नगर में निवास किया। यह नगर सभी नगर-नगरियोंके मध्यभागमें था। (१६६-२०८) विद्याधरॉकी महान ऋद्विवाजी दोनों तरफके नगरोंकी हारमालाएँ उनके ऊपर रही हुई व्यंतर अंगीके प्रतिबिंबसी लान पड़ती थीं। उन्होंने दूसरे अनेक गाँव, कसबे और उपनगर. मी असाए। और स्थान व योग्यता अनुसार कई जनपद (देश) मी बसाए। जिन जिन जनपदोंसे लाकर वहाँ लोगोंको बसाया था उन्हींक नामोंके अनुसार उन देशांक नाम रखे गए। ममी नगरोंमें नमि विनमिने, हृदयकी तरह. समायों अंदर भगवान श्री नाभिनंदनको स्थापित किया। • विद्याधर, विद्याांसे उन्मत्त होकर अविनयी न बन जाए इसलिए घरगाउन उनके लिए नियम बनाया कि जो विद्याधर अपनी विद्याके धर्महमें, जिनेवर, जिनमंदिर, चरमशारीरी (उसी तन्ममें मोन सानवाले ) और कायोत्सर्ग ध्यान रहे हुए मुनिका अपमान करेगा उसकी विद्या इसी तरह चली जाएगी जिस तरह पालमी श्रादमीको छोड़कर, लक्ष्मी चली Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भऋपभनाथका वृत्तांत [२३३ - जाती है। और जो विद्याधर किन्हीं पतिपत्नीको मार डालेगा या किसी स्त्रीके साथ उसकी इच्छा न होनेपर भी संभोग करेगा उसकी विद्या भी उसको तत्काल ही छोड़ जाएगी ।" नागपतिने यह आज्ञा ऊँची आवाजमें कह सुनाई और सदा कायम रखने के लिए रत्नोंकी दीवार में प्रशस्तिकी तरह खुदवा दी। फिर नमिविनमि दोनोंको विधिसहित विद्याधरोंका राजा बना, दूसरी कुछ जरूरी व्यवस्था कर, नागपति अंतर्धान होगया। (२०६-२१८) अपनी अपनी विद्याओंके नामसे विद्याधरोंकी सोलह जातियों हुईं। जैसे- गौरी विद्यासे गौरेय, मनु विद्यासे मनु पर्वक, गंधारी विद्यासे गांधार, मानवी विद्यासे मानव, कौशिकी पूर्व विद्यासे कौशिकी पूर्वक, भूमितुंड विद्यासे भूमितुंडक, मूलवीर्य विद्यासे मूलवीर्यक, शंकुका विद्यासे शंकुक, पांडुकी विद्यासे पांडुक, काली विद्यासे कालिकेय, श्वपाकी विद्यासे श्वपाकक, मातंगी विद्यासे मातंग, पार्वती विद्यासे पार्वत, वंशालया विद्यासे वंशालय, पांसुमूला विद्यासे पांसुमूलक, और वृक्षमूला विमासे पृतमूलक । (२१६-२२४) . इनके दो भाग किए गए; आठ जातियों के विद्याधर नमिके राज्यमें और आठके विद्याधर विनमिक राज्यमें हुए । अपनी अपनी जातिमें अपने शरीरकी तरह उन्होंने हरेक विद्यापति देवताकी स्थापना की। सदा वृपभस्वामीकी मूर्तिकी पूजा करनेवाले वे धर्मको वाधा न पहुँचे इस तरह, देवताओं के समान मोग भोगते हुग समय बिताने लगे। मानों दुसरे शन और शानेंद्र हो इसतरह ये दोनों(नमि-विनमि)फिसीसमग द्वीपांनकी जगली. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] त्रियष्टि शलाका घुरप-परिश्रः पर्व १. सग इ. - के लाल कटकपर. (यानी जंबूद्वीप भूमिसमूहपर स्थित पर्वतके शिवरपर.) क्रांताओं सहिन क्रीडा करते थे; कई बार वे मुमेन पर्वतपरके नंदनादिक वनों में पवनकी तरह इच्छापूर्वक श्रानंदसहित विहार करते थे कई बार यह समझाकर कि श्रावककी संपत्तिका यही फल है, नंदीश्वरादि तीर्थापर, शाश्वत प्रतिमा. ओंकी पूजा करने के लिए जाने थे; कई बार वे विदेहादि क्षेत्रों में श्री अरिहन समवसरणाम जाकर प्रमुकी वाणी रूपी अमृतका पान करन थ; और कई बार त्र, हरिण से कान ॐत्र करके गायन मुनता है, बस चारण मुनिबाँसे धर्मशाना सुननें ये । सम्यक्त्र (समकिन) और अलीग मंडारको धारण करनेवाले विद्याधरोग विरहग तीन पुरुषायाँको-धर्म,अर्थ और कामको हानि न पहुँचें इस तरह राज्य करत थे। (२२५-२३३) आहार दान ऋच्छ और महाकच्छ-नो गना नपस्त्री हुप मांगा नदीके दृद्धिगा किनारे, मृगकी तरह बनचर होकर. फिरत ये और बल्लन (छान) बन्न पहने हुए चलने-फिरत वृद्धति समान मालूम होने थे। व गृहस्थियों पर श्राहारको वमन किए हुए अमके समान सममकर कमी ग्रहण नहीं करते थे। चतुर्थ (एक उपबाय) और छह (दो उपवास) वगैरा तय करनसे उनके शरीर का लोहू और मांस मुम्बनसे, उनका सूखा हुआ शरीर पड़ी इह वाकनीकी उपमाको धारणा करता था । पारण दिन भी व अपनथाप वृज सिंहए पन्नों और फलोंका अाहार करतं थे, और मनमें भगवानका ध्यान करने हम वहीं रहते थे। .. . (२३४-३७) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत .. [२३५ भगवान ऋषभदेव मौन धारण किएहुए आर्य और अनार्य सभी देशोंमें विचरण करते थे। एक साल तक निराहार रहे हुए प्रभुने विचार किया, "दीपक जैसे तेलसेही जलता है, वृक्ष जैसे जलसेही टिकता है, वैसेही प्राणियोंके शरीर भी आहारसेही टिकते हैं। साधुओंको भी बयालीस दोपरहित माधुकरी' वृत्तिसे भिक्षा माँग योग्य समय पर आहार लेना चाहिए । बीते दिनोंहीकी तरह, अव भी यदि मैं पाहार न लूँगा तो मेरा शरीर तो टिका रह जायगा, मगर जैसे चार हजार मुनि भोजन न मिलनेसे पीड़ित होकर मुनिधर्मसे भ्रष्ट हो गए हैं वैसेही दूसरे साधु भी भ्रष्ट हो जाएँगे।" इस विचारको हृदयमें धारण कर प्रभु सभी नगरोंके मंडनरूप गजपुर नगरमें भिक्षाके लिए. गए। वहीं बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ राजाके पुत्र श्रेयांसको सपना आया कि चारों तरफसे श्याम बने हुए सुवर्णगिरिको (मेरु पर्वतको ) उसने दूधसे भरे हुए घड़ेसे अभिषेक करके उजला बनाया है। सुबुद्धि नामके सेठने सपने देखा कि सूरज. से निकली हुई हजार किरणोंको, श्रेयांसकुमारने वापस सूर्यमें रखा है, इससे सूरज बहुत प्रकाशमान हुआ है। सोमयशा राजाने सपने में देखा कि अनेक शत्रुओं के द्वारा चारों तरफसे १-धुकर यानी भौरा जिस तरहसे अनेक मासे पोदारम लेता है और अपना पेट भरता है, इससे किसी लकी सकशीक नही होती; उसी तरह नुनि भीमाने परोसे, यना दुश्मा, गोडा पोसा निदोष शाहार मन्य करने है। इससे किसी गायोगोई सफली नहीं होती। दीको मारी गाने हैं। माग नाम गरोमा। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३. घिरे हुए एक राजाने अपने पुत्र श्रेयांसकी सहायतासे विजय प्राप्त किया है। तीनोंने अपने अपने सपनेका हाल एक दूसरेको सुनाया; मगर, उनके कारणका निर्णय न हुआ, इसलिए वे अपने अपने घर चले गए। मानों उन सपनोंका कारण या फल बताना चाहते हों। वैसे प्रभुने उसी दिन भिक्षाके लिए हस्तिनापुरमें प्रवेश किया। एक बरस तक निराहार रहनेपर भी ऋषमकी चालसे आते हुए प्रभुको शहरके लोगोंने श्रानंदके साथ देखा । (२३८-२५०) शहरके लोग प्रभुको आते देखकर, तत्कालही दौड़े और विदेशसे आए हुए वंयुकी तरह उनके पास खड़े हो गए । एक बोला, "हे प्रमो ! आप हमारे घर चलनका अनुग्रह कीजिए। कारण, आपन वसंतऋतुकी तरह, चिरकाल के बाद दर्शन दिए है। दूसरेने कहा, "हे स्वामी ! स्नान करने के लायक जल, उबटन, तेल वगैरा और पहननेको) बन्न दैयार हैं, आप स्नान करके वन्न धारण कीजिए।" तीसरा वोला, "हे भगवान ! मेरे यहाँ उत्तम केसर, कस्तूरी, कपूर और चंदन हैं । उनका उपयोग कर मुने कृतार्थ कीजिए। चौथा बोला, "हे जगत-रत्न ! कृपा करके हमारे रत्नालंकारोंचो अपने शरीरपर धारण कर अलंकृत कीजिए।" पाँचवाँ बोला, "हे स्वामी ! मेरे मंदिर (घर) पधारिए और अपने शरीरके अनुकूल रेशमी बलोंको धारण कर उन्हें पवित्र बनाइए।" कोई बोला, "हं देव ! मेरी कन्या देवांगनाके समान है, उसको ग्रहण कीजिए। आपके समागमसे हम धन्य हुए है। कोई बोला, "हं राजकुंजर ! आप क्रीडासे भी पैदल क्यों चलते हैं ? में इस पर्वतके समान हा पर सवार होइए।" Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२३७ कोई बोला, "मेरे सूरजके घोड़ेके समान घोड़ेको स्वीकार कीजिए। आतिथ्य (मेहमानवाजी) स्वीकार न कर हमको अयोग्य क्यों बनाते हैं ?" कोई बोला, "इस रथमें उत्तम जातिके घोड़े जुने हुए है। आप इसको स्वीकार कीजिए। अगर आप इसमें सवार नहीं होते हैं तो फिर ये रथ हमारे किस कामका है ?" कोई बोला, "हे प्रभु ! आप इन पके फलोंको अंगीकार कीजिए। आपको सेवकोंका अपमान नहीं करना चाहिए।" किसीने कहा, "हे एकांतवत्सल ! इस तांबूलकी घेलके पत्र प्रसन्न होकर ग्रहण कीजिए।" किसीने कहा, "हे स्वामी! हम लोगोंने क्या अपराध किया है कि जिसके सबबसे श्राप, सुनही न सकते हो इस तरह. कुछ बोलते भी नहीं हैं।" इस तरह लोग उनसे प्रार्थना करते थेमगर वे किसी चीजको भी लेने लायक न समझ, स्वीकार न करते थे और चाँद जैसे तारे तारे पर फिरता है वैसे वे घर घर फिरते थे। सवेरे जैसे पखियोंका कोलाहल सुनाई देता है सेही नगरनिवासियोंका कोलाहल अपने भवनमें बैठे हुए श्रेयांसकुमारने सुना। उसने कोलाहल क्यों हो रहा है सो जानने के लिए छड़ीवारको भेजा। छड़ीदार गया, सारी बातें जानकर वापस आया और हाथ जोड़कर इस तरह कहने लगा,- (२५१-२६६) "राजाओंकी तरह अपने मुकुटोसे जमीनको लकर पादपीट (पैर रखनेकी चौफी ) के सामने लोटते हुए द्रादि देव हद भनिसे जिनकी सेवा करते हैं मुरज जैसे चीजको बताना सही जिन्होंने इमलोक दया करके सयलोगोको उनकी प्राली. विका मापनप काम बना है। दीक्षा लेने नदा फरक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. - जिन्होंने भरतादि बगैरहको और आपको भी अपने शेप (बचे हुए अन्नं ) की तरह यह भूमि दी है और जिन्होंने सभी सावंद्य वस्तुओंका त्याग कर, आठ कर्मरूपी महापंक(कीचड़) को सुखाने के लिए, गरमीकी धूपके समान, तपको स्वीकार किया है, वे ऋपभदेव प्रभु ममता-रहित, भूखे-प्यासे, अपने पादसंचारसे (चलनेसे) पृथ्वीको पवित्र करते फिरते हैं । वे न सूरजकी गरमीसे घबराते हैं और न छायासे खुश होते हैं; वे पर्वतकी तरह दोनोंमें समान भाव रखते हैं । वे वनकी कायावालेकी तरह न सरदीमें विरक्त होते हैं और न गरमीमें आसक्तही होते हैं । वे जहाँ तहाँ रहते हैं । संसाररूपी हाथीके लिए केसरी-सिंहके समान वे प्रभु युगमात्र प्रमाणसे (चार हाथ आगे) नजर रखते हए. एक चींटीको भी तकलीफ न हो इस तरह कदम रखकर चलते हैं। प्रत्यक्ष (आपको ) निर्देश (आना) करने लायक और तीन लोकके देव आपके दादा भले भाग्यसे यहाँ आए हैं । गवालेके पीछे जैसे गौएँ दौड़ती हैं वैसेही, प्रभुके पीछे दौड़नेवाले नगरनिवासियोंका ग्रह मधुर कोलाहल है।" ( २६७-२७६) स्वामीका आना सुनकर युवराज श्रेयांस तुरत पैदल चलनेवालोंको भी पीछे छोड़ता हुआ (पांव-प्यादे)ही दौड़ पड़ा। युवराजको छत्र और उपानह (जूतों ) रहित दौड़ते देखकर उसकी सभांके लोग भी, अपने छत्र और उपानह छोड़कर छायाके समान उसके पीछे दौड़ चले। जल्दी जल्दी दौड़नेसे उसके कानोंके कुंडल हिलते थे, उससे ऐसा मालूम होता था मानों युवराज पुन: स्वामीके सामने वाललीला कर रहा है। अपने घरके आंगनमें प्रभुको आए देख, वह प्रमुके चरणकमलामें लोटने लगा और Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... भ. ऋपभनाथका वृत्तांत . [२३६ भौंरेका भ्रम पैदा करनेवाले अपने केशोंसे उसने (प्रभुके चरणोंको)मार्जन किया-उनके चरणोंकी धूल पोंछ डाली। उसने उठकर जगत्पतिको तीन प्रदक्षिणा दो और पुनः श्रानंदके आँसू भरे नेत्रोंसे उनके चरणों में नमन किया। गिरते हुए आँसूऐसे मालूम होते थे मानो वे प्रभुके चरणोंको धो रहे हैं। फिर वह खड़ा होकर प्रभुके मुख-कमलको इस तरह देखने लगा जैसे पूनोंके चाँदको चकोर देखता है। मैंने ऐसा वेप पहले भी कहीं देखा है। इस तरह सोचते हुए उसको विवेक-वृक्षके वीजके समान जातिस्मरणज्ञान (जिससे बीते जन्मोंकी बातें याद आजाएँ ऐसा ज्ञान)उत्पन्न हुआ। इससे उसने जाना कि किसी पूर्व जन्ममें, पूर्व विदेह क्षेत्रमें जब भगवान वज्वनाम नामके चक्रवर्ती थे तब मैं उनका सारथी था। उसी भवमें स्वामीके वनसेन नामके पिता थे। उनको मैंने ऐसे तीर्थंकरोंके जिह्नवाला देखा था । वजनाभने वनसेन तीर्थकरके चरणोंके पास बैठकर दीक्षा ली थी; तब मैंने भी उनके साथ ही दीक्षा ली थी। उस समय वनसेन अरिहंतके मुखसे मैंने सुना था कि यह वजनाभ भरतखंडमें पहले तीर्थंकर होंगे। स्वयंप्रभादिके भवमें भी मैं इन्हींके साथ रहा हूँ। वे इस समय मेरे प्रपितामह (परदादा) हैं। इनको भले भागसे आज मैंने देखा है। ये प्रभु,साक्षात मोक्ष हों इस तरह सारी दुनियापर और मुझपर कृपा करनेके लिए यहाँ पधारे हैं।" .. कुमार इस तरह सोच रहा था, उसी समय किसीने आनंदके साथ आकर नवीन इक्षुरस (गन्ने के रस ) से पूरे भरे हुए घड़े श्रेयांसकुंमारको भेट किए । ( जांतिस्मरण ज्ञानसे) निर्दोष भिक्षा देनेकी विधिको जाननेवाले कुमारने प्रभुसे प्रार्थना Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३. की, "हे भगवान ! यह कल्पनीय (दोप रहित, ग्रहण करने लायक) रस स्वीकार कीजिए।" प्रमुने अंजली कर हस्तरूपी पात्र उसके सामने किया । कुमारने गन्नेके रससे भरे घड़े उठा उठाकर प्रभुक्री अंजली में उंडेलना प्रारंभ किए। प्रभुकी अंजली में बहुतसा रस समा गया; मगर कुमारके हृदय में उतना आनंद नहीं समाया (उसे संतोष नहीं हुया)। स्वामीकी श्रनलीम रस इस तरह स्थिर होगया मानां उसकी शिखा आकाशमें लगी हुई होनेसे वह जम गया हो । कारण,तीर्थंकरोंका प्रभाव अचिंत्य है। प्रभुने उस रससे (एक बरसके उपवासोंका )पारणा किया, और सुर, अमुर व मनुष्योंकी आँखोंने उनके दर्शनरूपी अमृतसे पारणा किया। उस समय श्रेयांसके कल्याणकी प्रसिद्धि करनेवाले चारण ही ऐसे आकाशमें प्रतिबनिसें वृद्धि पाए हुए दुंदुमि जोरसे बजने लगे। मनुष्योंकी आँखोंसे गिरनेवाले श्रानंदके आँसुयोंके साथ साथ देवताओंने अाकाशसे रत्नोंका मेह घरसाया । मानो प्रमुके चरणोंसे पवित्र बनी हुई पृथ्वीको पूतना हो इस तरह देवता वहाँ पाँच रंग फूलोंका मेह बरसाने लगे। देवताओंने सभी फूलोंके समूहसे संचय किए हो.वैसे, गंधोदक की वृष्टि की। और मानो आकाशको विचित्र बादलोंवाला बनाते हों वैसे देवता और मनुष्य उजले कपड़े डालने लगे। (तीर्थकरोंको आहार देनेसे ये पाँच दीव्य प्रकट होते हैं। ) वैशाख सुदी तीजको दिया हुआ वह दान अक्षय हुआ। इसीलिए वह दिन अक्षय तृतीयाके नामसे बाज भी प्रचलित है। जगतम दानधर्म श्रेयांसकुमारसे प्रारंभ हुआ और दूसरं सभी व्यवहार भगवान ऋषभदेवसे प्रारंभ हुए। (२७७-३०२) .. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भ. ऋषभनाथका वृत्तांत ... [२४१ 'प्रभुने पारणा किया,इससे और देवताओंने रत्नादिका मेह बरसाया, इससे राजाओं और नगरके लोगोंको अचरज हुआ। और वे श्रेयांसके मंदिरमें आने लगे। कच्छ और महाकच्छ आदि क्षत्रिय तपस्वी भी भगवानके आहार करने की बात सुनकर बहुत खुश हुए और वहाँ आए। राजा, नागरिक और जनपदोंके (गाँवोंक) लोगोंका शरीर रोमांचित हो गया। वे प्रफुल्लित होकर श्रेयांसकुमारसे कहने लगे, "हे कुमार, तुम धन्य हो कि प्रभुने तुम्हारा दिया हुआ गन्नेका रस भी स्वीकार किया, मगर हम सबकुछ भेट कर रहे थे तो भी उन्होंने कोई चीज स्वीकार नहीं की सबको तिनकेके समान समझा। वे हमपर प्रसन्न न हुए। प्रभु एक बरस तक गाँवों, शहरों, आकरों, (खानों) और जंगलोंमें फिरे, मगर उन्होंने हममेंसे किसीका भी आतिथ्य स्वीकार नहीं किया। इसलिए भक्त होनेका अभिमान रखनेवाले हमको धिक्कार है ! हमारे घरोंमें विश्राम करना और हमारी चीजोंको स्वीकार करना तो दूर रहा, मगर आज तक उन्होंने हमको संभावित भी नहीं किया-बातचीत करनेका मान भी हमें नहीं दिया। जिन्होंने लाखों पूर्वोतक हमारा पुत्र की तरह पालन किया, वे प्रभु इस समय हमारे साथ अनजानसा बरताव करते हैं।" (३०३-३१०) : श्रेयांसने कहा, "तुम ऐसा क्यों कहते हो ? ये स्वामी इस समय पहले की तरह परिग्रहधारी राजा नहीं हैं। इस समय तो ये संसार रूपी आवर्त (भँवर या चक्कर) से निकलनेके लिए सभी सावध व्यापारका त्याग करके यति हुए हैं । जो भोगकी Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३, इच्छा रखते हैं वे स्नान, उबटन, श्राभूषण और वस्त्र स्वीकार करते हैं। मगर विरक्त वने हुए प्रभुको उन चीजोंकी क्या जरूरत हो सकती है ? जो कामके वशमें होते हैं वे कन्याओंको स्वीकार करते हैं, मगर कामको जीतनेवाले स्वामी के लिए तो कामिनियाँ पूर्णतया पापाणके समान हैं। जिनको पृश्वीकी चाह हो वे हाथी, घोड़े वगैरा स्वीकार करें; संयमरूपी साम्राज्यको प्रहण करनेवाले प्रमुके लिए तो ये सब चीजें जले हुए कपड़ेके समान है। जो हिंसक होते हैं वे सजीव फलादि ग्रहण करते हैं। मगर ये दयालु प्रभु तो सभी जीवोंको अभय देनेवाले हैं। ये तो सिर्फ एषणीय (निर्दोष ), कल्पनीय (विधिके अनुसार ग्रहण करने योग्य ) और प्राशुक (शुद्ध) आहारही ग्रहण करते है। मगर इन बातोंको, आप अजान लोग नहीं जानते हैं।" - - . (३११-३१७) उन्होंने कहा, "हे युवराज ! ये शिल्पादि जो श्राज चल रहे हैं, इनका ज्ञान पहले प्रभुने कराया था। इसी लिए सब लोग जानते हैं, मगर तुम जो बात कहते हो वह बात तो पहले प्रभु. ने हमें कभी नहीं बताई । इसलिए हम कोई नहीं जानते । आपने यह बात कैसे जानी ? अाप इसे बता सकते हैं, इसलिए कृपा करके कहिए।" (३१८-३१६) .. युवराजने बताया, "ग्रंथ पढ़नेसे जैसे बुद्धि उत्पन्न होती है वैसे ही प्रभुक्के दर्शनसे मुझे लातिस्मरण ज्ञान हुआ। सेवक जैसे एक गाँवसे दुसरं गाँव (अपने स्वामीके साथ) जाता है वैसेही, मैं आठ भव तक प्रभुके साथ फिरा हूँ । इस भवसे पहले वीते हुए तीसरे जन्ममें, विदेह भूमिमें प्रभुके पिता वयसेन नामक Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ० ऋषभनाथका वृत्तांत २४३ - - तीर्थंकर थे। उनसे प्रभुने दीक्षा ली, फिर मैंने भी दीक्षा ली थी। उस जन्मकी यादसे ये सारी बातें मैंने जानी है; इसी तरह गई रातको मुझे, मेरे पिताको और सुवुद्धि सेठको जो सपने आए थे उनका मुझे यह प्रत्यक्ष फल मिला है । मैंने सपनेमें श्याम मेरुको दूधसे धोया देखा था, इससे इन प्रभुको-जो तपसे दुर्बल हो गए थे-मैंने इक्षुरससे पारणा कराया। और इससे ये शोभने लगे। मेरे पिताने शत्रके साथ जिनको लड़ते देखा था वे प्रभुही हैं और उन्होंने मेरे कराए हुए पारणेकी मददसे परिसह रूपी शत्रुओंको हराया है। सुबुद्धि सेठने सपना देखा था कि सूर्यमंडलसे गिरी हुई सहस्र किरणोंको मैंने वापस आरोपित किया; इससे सूर्य अधिक शोभने लगा। प्रभु सूरजके समान हैं। सहस्त्र किरणरूप केवलज्ञान' नष्ट हो रहा था, उसे आज मैंने प्रभुको पाराणा कराके जोड़ दिया है। इसीसे भगवंत शोभने लगे हैं।" श्रेयांसकी बातें सुनकर सबने "बहुत अच्छा ! बहुत अच्छा !" कहा। फिर वे सब अपने अपने घर गए। ( ३२०-३२६) - श्रेयांसके घर पारणा करके जगत्पति स्वामी वहाँसे दूसरी जगह विहार कर गए । कारण,छमस्थ तीर्थंकर कभी एक जगह नहीं रहते। भगवानके पारणा करनेकी जगहका कोई उल्लंघन न करे इस खयालसे श्रेयांसने उस स्थानपर एक रत्नमय पीठिका (चबूतरा). वनवाई । और उस रत्नमय पीठिकाकी प्रभुके साक्षात : १-प्रभुको श्राहारका अंतराय था। श्राहारके बिना शरीर नहीं टिकता और शरीरके बिना केवलज्ञान नहीं होता। इसलिए कहा गया है कि श्राहार देकर श्रेयांस कुमारने नए होते हुएं केवल ज्ञानको जोड़ दिया है। ....... : Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. चरण हो वैसे वह भक्तिभावसे नम्र हो त्रिकाल-पूजा करने लगा। जब लोग पूछते थे कि यह क्या है ? तब वह जवाब देता था कि यह आदिकर्ताका मंडल है। फिर जहाँ जहाँ प्रभुने मिक्षा ग्रहण की वहीं वहीं लोगोंने उस तरहकी पीठिकाएँ वनवाई। इससे क्रमशः 'आदित्य पीठ' की प्रवृत्ति हुई। ( ३३०-३३४) ___ बाहुवलीका धर्मचक्र बनवाना एक बार कुंजर (हाथी ) जैसे निकुंजमें ( लता-मंडपमें ) प्रवेश करता है वैसेही प्रभु साँझके समय बाहुबलीके देशमें उसकी तक्षशिलापुरीके निकट आए और नगरीके बाहर एक बगीचे कायोत्सर्ग करके रहे। उद्यानपालने (वागवानने) जाकर बाहुबलीको इसके समाचार दिए । तुरत बाहुवली राजाने नगर-रक्षक लोगोंको आज्ञा दी कि हाट-बाटको सजाकर सारे नगरका श्रृंगार करो। ऐसी आज्ञा होतेही सारे नगरम जंगह जगह कदलीके स्तंभोंकी तोरणमाला बनाई गई और उनसे लटकती हुई केलोंकी लुंवोंसे रस्ते चलनवालोंके मुकुट छूने लगे। मानों भगवान के दर्शन करने के लिए देवताओंके विमान पाए हों वैसे हरेक रस्तपर रत्नपात्रोंसे प्रकाशित मंच सुशोभित होने लगे। हवासे हिलती हुई ऊँची पताकाओंकी पंक्तिके बहाने मानों वह नगरी हजार हाथॉवाली होकर नाच करती हुईसी सुशोभित होने लगी। और चारों तरफ किए गए नवीन कुंकुम जलके छिड़कावरों सारे नगरकी जमीन ऐसी मालूम होती थी मानो उसने मंगल अंगराग किया है। भगवानके दर्शनकी उत्कंठारूपी चंद्रके दर्शनसे वह नगर मुमुद-खंडकी तरह (जिसमें कमल खिले हुए हों ऐसे स्थानकी तरह) विकसित Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत . [ २४५ - हुआ, अर्थात लोगोंकी नींद जाती रही। सवेरेही स्वामीके दर्शनसे मैं अपने श्रात्माको और लोगोंको पावन करूँगा।' ऐसी इच्छा रखनेवाले बाहुबलीको वह रात महीनेके समान जान पड़ी। यहाँ रात जब प्रभातके रूपमें बदली तव प्रतिमास्थिति समाप्त कर (ध्यानावस्थाको छोड़) प्रभु हवाकी तरह दूसरी जगह चले गए। (३३०-३४४) सबेरेही बाहुबलीने बगीचेकी तरफ जानेकी तैयारी की। उस समय बहुतसे सूर्यों के समान बड़े बड़े मुकुटधारी मंडलेश्वर उनको-बाहुवलीको-घेरेहुए (उनकी हाजरीमें ) थे; उपायोंके मानों मंदिर हों ऐसे और साक्षात शरीरधारी अर्थशास्त्र हों ऐसे शुक्रादिकके समान बहुतसे मंत्री उनकी सेवामें थे। मानों गुप्त पंखोंवाले गरुड़ हों ऐसे और जगतका उल्लंघन करनेका वेग रखते हों ऐसे चारों तरफ खड़े हुए लाखों घोड़ोंसे वह सुशोभित हो रहे थे। ऊँचे ऊँचे हाथी थे। उनके मस्तकसे मदजल बह रहा था। वे ऐसे मालूम होते थे, मानों वे पृथ्वीकी धूलको शांत करनेवाले झरने जिनसे बह रहे हों ऐसे पर्वत हैं। और मानों पातालकन्याओंके समान और सूर्यको भी नहीं देखनेवाली वसंतश्री वगैरा अंत:पुरकी त्रियाँ भी, तैयार होकर, उनके आसपास खड़ी थी। उनके दोनों तरफ चामरधारी स्त्रियाँ थीं, उनसे वह राजहंस सहित गंगा-यमुना द्वारा सेवित प्रयागके समान मालूम होते थे। उनके मस्तकपर सफेद छत्र था, उससे वह ऐसे शोभते थे जैसे पूनोंकी आधी रातके चाँदसे पर्वत शोभता है। देवनंदी नामका छड़ीदार आगे आगे चलकर जैसे ईंद्रको मार्ग बताता है वैसेही, सोनेकी छड़ीवाला प्रतिहार उनको, आगे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पय १. सगं. श्रागे चलकर मार्ग दिवाना था। नामरणसि भूपित श्रीदेवीके पुत्रक ममान असंख्य साहकार घोड़ोंपर सवार होकर उनके पीछे चलनेको नैयार हो रहे थे, और लेग पर्वतकी शिलाकी पीठपर जवान सिंह बैठता है बैंमुद्री इंद्रके समान बाहुबली राजा मद्र, जातिक अच्छस अच्छ, हाथी पर सवार हुए थे। शिंग्वरसे जैसे पर्वत शामना है सही मन्तकपर तरंगित क्रांतिबाले रत्नमय मुकुट से बह मुशोभित हो रहे थे। उनने मोतियाँक दो झंडल धारण किए थे, वेगम जान पड़त थे मानों उनके मुखकी शोभा द्वारा जीन हुए दो चाँद उनकी संवाद लिए, श्राप है। लक्ष्मी मंदिराप हदयपर स्थूल मुक्ता-मणिमय हार. उनने पहना था, वह मंदिर किन जान पड़ने थे। हाथाके मुलमें उत्तम सानको बाजूबंद ; उनसे ऐसे मालूम होत थे कि भुजारुपी वृत्त, बाजूबंधपी लनास वेष्टित कर, मजबूत बनाया गया थाहाकि मग्गियोंपर (कलाइयोपर) मुक्तामणिके दो अंकग बंध थ, वहावण्यमयी सरिताके तौरपर फनक समान जान पड़त था और अपनी कांनियाकाशको चमकानवाली दो अंगठियाँ जनन पहनी थी, जो गली शोमती श्री माना वैमापक फलांकी मी शोभावाली बड़ा दो मणियाँ हाँ। उनने शरीरपर, बारीक धार सफद कपड़ा पहना था; मगर शरीरपर, किंग हा चंदन नपस उसका मंद किसीको मालुम नहीं होता था। पूनोंका चाँद जैसे चाँदनीको धारण करता है वैसही, गंगाके नरंगसमूहस स्पा करनेवाला मुंदर बन्नटुपट्टा उनने श्राहा था 1 नाह नरहको धानुमय अासपासकी भूमिग जैसे पर्वन शोयना वसही विचित्र गोत्राले सुन्दा, Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत . [२४७ . . . .. .... अंदर पहने हुए वस्त्रोंसे वह शोभते थे । लक्ष्मीका आकर्षण करने के लिए क्रीडा करनेका शस्त्र हो वैसा वज्न यह महाबाहु अपने हाथोंमें फेररहे थे। और बंदीजन (चारण भाट वगैरा) जय-जयकारसे दिशाओंके मुखको भर रहे थे (दिशाएँ जयजयकार शब्दसे गूंज रही थीं।) इसतरहसे राजा बाहुवली उत्सवपूर्वक स्वामीके चरणोंसे पवित्र बने हुए बगीचे के पास आये । (३४५-३६५) . फिर, आकाशसे गरुड उतरता है वैसे उनने हाथीसे उतर छत्रादि राजचिह्नोंका त्याग कर उपवनमें प्रवेश किया । वहाँ उनने विना चंद्रके आकाशकी तरह, और अमृत-रहित सुधाकुंडकी तरहं विना प्रभुका उद्यान देखा । (प्रभु के दर्शनोंकी) बड़ी इच्छावाले बाहुबलीने उद्यानपालकोंसे पूछा, "आँखोंको आनंद देनेवाले भगवान कहाँ है ?" उन्होंने जवाब दिया, "वे तो रातकी तरहही कहीं आगेकी तरफ चले गए हैं। हमने जब यह बात जानी तब हम आपको समाचार देने आनेही वाले थे, इतनेमें आपही यहाँ पधार गए।" . यह बात सुन तक्षशिला नगरीके राजा बाहुबली ठुडीपर "हाथ रख आँखोंमें आँसू भर,दुखी दिलसे इसतरह सोचने लगे, "हाय ! आज परिवार सहित प्रभुकी पूजा करने का मेरा मनोरथ, ऊसर भूमिमें बोए हुए वृद्ध बीजकी तरह बेकार हुभा । लोगोंपर अनुग्रह करनेकी इच्छासे मैंने यहाँ पहुँचने में बहुत देरी की, इसलिए मुझको धिक्कार है ! इस स्वार्थके नाश होनेसे मेरी मूर्खताही प्रकट हुई है। स्वामीके चरण-कमलोका दर्शन करनेमें अंतराय डालनेवाली इस वैरिन रातको और मेरी मतिको Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. धिक्कार है ! मैं स्वामीको नहीं देख पारहा हूँ, इसलिए मेरे लिए यह प्रभात भी अप्रभात है, सूरज भी असूरज है और नेत्र भी अनेत्र हैं ! ओह ! त्रिभुवनपति रातको इसी जगहपर प्रतिमारूप से रहे थे और निर्लन्न बाहुबली अपने महलमें पारामसे सोरहा था!" (३६६ ३७५) - . इस तरह की चिंतासे चिंतित बाहुबलीको देख शोकल्पी शल्यको निःशल्य करनेवाली (दुखको मिटानेवाली ) वाणीमें उसके मुख्य मंत्रीने कहा, "हे देव ! आप यह चिंता क्यों करते हैं, कि मैंने यहाँ आए हुए स्वामीको नहीं देखा ? कारण, वे प्रभु तो हमेशा आपके हृदयमें विराजमान दिखाई देते हैं । और यहाँ उनके चरणोंके यन्त्र, अंकुश, चक्र, कमल, ध्वजाऔर मछलीके चिह्नोंको देखकर यही मानिए कि मैंने भाव-दृष्टिसे ( साक्षात) स्वामीकोही देखा है।" (३७६-३७८) सचिवकी बात सुनकर अंत:पुर और परिवार सहित सुनंदाके पुत्र बाहुबलीन चरण-चिट्ठोंकी वंदना ले। इन चरणचिह्नोंको कोई न लाँघे, इस विचारसे उनने उन चरण-चिहॉपर रत्नमय धर्मचक्र स्थापित किया। पाठयोजन लवा, चार योजन ऊँचा और हजार भारोंवाला वह धर्मचक्र ऐसाशोमता था मानों वह पूरा सूर्यर्विव हो । जिसका बनाना देवताओंके लिए भी कठिन है ऐसा तीन-लोकके नाय प्रभुके अतिशयके प्रभावसे वना हुआ धर्मचक्र बाहुबलीने देखा । पीछे तत्कालही सभी स्थानोंसे लाए हुए फूलोंस बाहुवलीने धर्मचक्रकी पूजाकी। इससे ऐसा मालूम हुआ कि वहाँ फूलोंका पर्वत बन गया है। नंदीश्वर द्वीपपर जैसे ई अहाई-महोत्सव करता है वैसेही वाहवतीने Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२४६ वहाँ उत्तम संगीत और नाटकादिसे अद्भुत अट्ठाई-महोत्सव किया। उसके बाद धर्मचक्रकी पूजा तथा रक्षा करनेवाले पुरुषों को सदा वहीं रहनेकी आज्ञा कर,धर्मचक्रको वंदना कर बाहुबली राजा अपने नगरमें गये । ( ३७६-३८५) . केवलज्ञानकी प्राप्ति इस तरह पर्वतकी तरह स्वतंत्रतापूर्वक और अस्खलित गतिसे (जो कहीं नहीं रुकती ऐसी चालसे ) विहार (भ्रमण) करनेवाले, तरह तरहकी तपस्याओंमें निष्ठा-भक्ति रखनेवाले, अलग अलग तरहके अभिग्रह (अमुक बात होगी तभी भोजन करूँगा, ऐसे नियम ) धारण करनेवाले मौनी, यवनडंब वगैरा म्लेच्छ देशोंके निवासी, अनार्य जीवोंको भी दर्शनमात्रसे भद्र (सदाचारी) बनानेवाले और उपसर्ग तथा परिसह सहन करनेवाले प्रभुने एक हजार वरस एक दिनकी तरह बिताए । . क्रमशः वे विहार करते हुए महानगरी अयोध्याके पुरिमताल नामक शाखानगर (उपनगर) में आए। उसकी उत्तरदिशाके, दूसरे नंदनवनके समान, शकटमुख नामक उद्यानमें प्रभुने प्रवेश किया। अष्टम तप( तीन दिनका उपवास) कर प्रतिमारूपसें रहे हुए प्रभु 'अप्रमत्त' नामक सातवें गुणस्थानमें पहुंचे। फिर 'अपूर्वकरण' नामक गुणस्थानमें आरूढ हो 'सविचार प्रथक्त्ववितर्क-युक्त' नामक शुक्लध्यानकी प्रथम श्रेणीको प्राप्त । हुए। उसके बाद 'अनिवृत्ति' नामक नवाँ और 'सूक्ष्म सांपराय नामक दसवाँ गुणस्थान पाकर क्षणभरमें वे 'क्षीणकषायपनको प्राप्त हुए। फिर उसी ध्यान द्वारा क्षणभरमें चूर्ण किएहुए लोभका नाश कर, रीठेके जलकी तरह ( रोठा पानीमें डालनेसे Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पवं १. सर्ग३. ऊपरसे पानी साफ होजाता है, उसी तरह ) 'उपशांतकषायी हए। फिर गोक्यचन अत्रिचार' नामक शुक्लन्यानकी दूसरी अंगीको पाकर व अंतिम चरणम, नगमरमें क्षीणमोह नामक वारहवें गुणस्थानमें पहुँचे । इससे उनके समर्मी घातिकमांका (पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरगीय और पाँच अंतरायकर्म, से चौदह वानिकमांका) नाश हो गया। इस तरह व्रत लेनके एक हजार बरस बीननकं बाद, फाल्गुन महीनकी बड़ी एकादशीके दिन, चंद्र जब उत्तराषाढा नक्षत्र में पाया था तब, सबके समय, प्रभुको त्रिकाल विषय बाला (यानी तीनों कालांकी बातें जिससे मालूम होनी है गमा) कंवलज्ञान प्राप्त हुश्रा। इस ज्ञानसे नीनी लोकांकी बान हाथ में रहे हा पदार्थकी तरह मालूम होती है। उस समय दिशाण प्रसन्न हुई, मुखकारी हवा चलन लगी और नरके जीवोंको भी एक जगाके लिए, मुत्र हुआ। (३८६-३६) उस समय समी इंद्रांक श्रासन काँपन लगा मानों वे स्वामीके कंचलनानका उत्सव करनेकी इंद्रांसे प्रेरणा कर रह हो । सभी देवलोकॉमें मधुर. शब्दावान घंटे वजन लगा मानों व अपने अपने देवलोक देवतायांको बुलानका काम कर रह हैं। प्रमुक चरणों में जानकी इच्छा रखनेवान सौधमंदकं सोचतेही, रावण नामका देव, गजका रुप धारण कर, तत्कालही उसके पास श्राया। उसने अपना शरीर एक लाख योजनका बनाया 1 वह पला शोमता या मानां वह प्रमुक दर्शनॉकी इक्छा रखनवाला चलना-फिरना मनपर्वन है। अपने शरीरकी-बरफक समान समंद कांतिम यह हाथी चारों दिशाओंमें चंदनका क्षेप Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत २५१ करता हो ऐसा मालूम होता था। उसके गंडस्थलमेंसे झरते हुए अति सुगंधित मदजलसे वह स्वर्गके आँगनकी भूमिको कस्तूरीके समूहसे अंकित करता था। उसके दोनों कान पंखोंकी तरह हिल रहे थे; ऐसा मालूम होता था कि उसके कपोल-तलसे मरते हुए मदकी सुगंधसे अंध बने हुए भौरोंके समूहको वह उड़ा रहा था। अपने कुंभस्थलके तेजसे उसने बालसूर्यका पराभव किया था । ( यानी वालसूर्य उसके तेजके सामने मंद लगता था।) और क्रमशः गोलाकार और पुष्ट सूंडसे वह नागराजका अनुसरण करता था। (नागराज जैसा लगता था ।) उसके नेत्र और दाँत मधुके समान कातिवाले थे। उसका तालू ताम्रपत्र (तांबेकी चहर ) के समान था। उसकी गरदन भंभा (डुग्गी) के समान गोल और सुंदर थी । शरीरके बीचका भाग विशाल था। उसकी पीठ डोरी चढ़ाए हुए धनुपके जैसी थी। उसका उदर कृश था। :: वह चंद्रमंडलके समान नखमंडलसे मंडित ( शोभता) था। उसका निःश्वास दीर्घ और सुगंधित था। उसकी करांगुली (लँडका अगला भाग) दीर्घ और चलित ( हिलती हुई.) थी। उसके होठ, गुह्य-इंद्री और पूंछ बहुत बड़े थे। दोनों तरफ रहे हुए सूरज और चाँदसे, जैसे मेरु पर्वत अंकित होता है वैसेही, दोनों तरफ लटकते हुए दो घंटोंसे वह अंकित था। उसकी दोनों तरफकी डोरियाँ देववृक्षके फूलोंसे गुंथी हुई थीं। मानों आठों दिशाओंकी लक्ष्मियोंकी विभ्रम-भूमियाँ (हिरनेफिरनेके स्थान ) हो वैसे सोनेके पत्रोंसे सजाए हुए आठ ललाटों और पाठ मुखोंसे वह शोभता था.। मानों बड़े पर्वतोंके Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. शिखर हों ऐसे छ, कुछ देदे, बड़े और ऊँचे पाट पाठ दाँत उसके हरेक मुँहमें शोमत थे। उसके हरेक दाँतपर स्वादिष्ट (जायकेदार) और माफ जालवाली एक एक पुष्करिणी (बावड़ी) थी। वह हरेक वर्षवर' नामक पर्वतपरके नह (गहरी नाल) के समान शोमती थी। हरेक पुष्करिणी में श्राठ आठ कमल थे; वे ऐसे मालूम होते थे मानों जलदेवियोंन जलसे बाहर मुँह निकाने हैं। हरेक कमलम पाठ पाठबई पत्य वापसे शोमत थे मानों क्रीडा करती हुई देवांगनायोंकि विश्राम करने के लिए द्वीप (दापू ) हो । हरेक पत्रपर चार तरह के अमिनयोंसे युक्त अलग अलग पाठ नाटक हो रहे थे और हरेक नाटकम, मानों इसके ऋल्लोलकी संपत्तिवाले मारने हा पसे बत्तीस पात्र (नाटक करनेवाले) ! पेले उत्तम गनेंद्रपर अगले थामनपर इंद्र सपरिवार बैठा। हाथीले छुमन्यत्तसे उसकी नाक ढक गई। हाथी, इंद्रको उसके परिवार सहित वहाँम लेकर चला; वह ऐसा मालूम होता था, मानों संपूर्ण सौधर्म देवलोक चलरहा है। क्रमश: अपने शरीरको छोटा बनाता हुया, मानों पालक विमान हो मेसे-वठ्ठ हाथी क्षणमात्र में उन बगीचे में जा पहुँचा, जिसको भगवानने पवित्र किया था । दुसर अच्युत वगैरा इंद्र. मी, मैं पहले पहुँ। मैं पइने पहुँचूँ यो मोबने हुए अनि शीघ्र देवताओं सहित वहाँ श्रा पहुँचे । (१००-१२२) समवसरण उस समय वायुकुमार देवनबद्दप्यनको छोड़, समवसरण लिए एक योजन पृथ्वी माफ की मेयच्चमार देवताओंन मुर्गचित Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत २५३ - जलकी वर्षा कर पृथ्वीपर छिड़काव किया; उससे ऐसा मालूम हुआ मानो प्रभुके आनेकी वात जानकर पृथ्वीने सुगंधित आँसु ओंसे धूप और अर्घ्य उत्तिप्त किया है-फेंका है। व्यंतर देवताओं ने भक्तिसहित अपनी आत्माके समान उच्च किरणोंवाले, सोने, माणिक और रत्नोंके पत्थरोंका फर्श बनाया। उसपर खुशबूदार पाँच रंगोंके फूल-जिनके वृत (वोंड़ी) नीचेकी तरफ थे-फैला दिए; वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जमीनमेंसे निकले हैं। चारों दिशाओंमें उन्होंने रत्नों, माणिकों और सोनेके तोरण याँधे, वे उनकी कठियोंके समान मालूम होते थे। वहाँपर खड़ी कीगई रत्नादिककी पुतलियोंसे निकलते हुए प्रतिविव एक दूसरी पुतलीपर गिरते थे, वे ऐसे मालूम होतेथे मानो सखियाँ आपसमें गले मिल रही हैं। स्निग्ध इंद्रनीलमणियोंसे गढ़े हुए मगरोंके चित्र, नष्ट हुए कामदेवके छोड़े हुए अपने चिह्नरूपी मगरोंका भ्रम पैदा करते थे। वहाँ सफेद छत्र ऐसे शोभ रहे थे मानों वे भगवानके केवलज्ञानसे पैदा हुई दिशाओंकी प्रसन्नताकी हँसी है। ध्वजाएँ फर्रा रही थीं,वे ऐसे मालूम होती थीं मानो भूमिनेबड़े आनंदसे नाचनेके लिए अपने हाथ ऊँचे किए हैं। तोरणों के नीचे स्वस्तिकादि अष्टमंगलोंके चिह्न वनाए गए थे, वे बलि-पट्ट(पूजाके लिए वनाई गई वेदी) के समान मालूम होते थे। वैमानिक देवताओंने समवसरणके अपरके भागका प्रथम गढ़ रत्नोंका बनाया था वह ऐसा मालूम होता था मानो रत्नगिरिकी रत्नमय मेखला वहाँ लाई गई है। उस गढ़. पर मणियोंके कंगूरे बनाए गए थे, वे अपनी किरणोंसे आकाशको विचित्र रंगोंके वस्त्रोंवाला बनाते हुएसे आन पड़ते थे। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ ] त्रिषष्ट्रि शलाका पुरुप चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. :: मध्यमें ज्योतिष्यति देवाने सोनेका दूसरा गढ़ बनाया। वह उनके अंगकी पिंडरूप बनीहुई ज्योतिसा मालूम होता था। उस गढ़पर रत्नोंके कंगूरे बनाए गए थे, वे ऐसे मालूम होते थे मानों देवताओं और असुरॉकी नारियोंके लिए मुँह देखनको रत्नमय आइने रखें हैं। भुवनपतिने बाहरी भागमें चाँदीका 'गढ़ बनाया था, वह ऐसा जान पड़ता था मानों भक्तिसे वताव्य पर्वत मंडलरूप (गोल) हो गया है । उस गढ़पर सोनेके विशाल कंगूरे बनाए गए थे, वे देवताओंकी वावड़ियोंके जलमें मोनेके कसलसे मालूम होते थे। वह तीन गढ़वाली जमीन, भुवनपति, ज्योतिष्पति और विमानपति कीलक्ष्मी जैसे एक एक गोलाकार कुंडलसे शोभती है, वैसे सुशोभित हुई। पताकाओं के समूहवाले माणिकमय तोरण ऐसे मालूम हो रहे थे, मानों वे अपनी किरणांसे दूसरी पताकाएँ बना रहे हैं। हरेक गढ़में चार चार दरवाजे, वे चतुर्विध धर्मके लिए क्रीड़ा करनेके झरोखोसे मालूम होते थे। हरेक दरवाजेपर व्यंतर देवताओं द्वारा रखी हुई धूपदानियाँ, इंद्रनीलमणिके स्तंभोंके समान, धुएँकी रेखाएँ छोड़ रही थीं। (४२१-४४२) - उस समवसरणके हरेक दरवाजेपर गड़की तरह, चार रत्तों और अंदर सोनेके कमलोंवाली वावड़ियाँ बनाई गई थीं। दूसरे गढ़के ईशान कोने में प्रमुक्के विश्राम करनेके लिए एकदेवछंद (वेदिकाके आकारका आसनविशेष) बनाया गया था। अंदर प्रथम गढ़के पूर्व द्वारमें दोनों तरफ, सोनेके समान रंगवाले, दो वैमानिक देवता, द्वारपाल होकर खड़े थे।दक्षिण द्वार- . में दोनों तरफ, मानों एक दूसरेके प्रतिवित्र हों ऐसे उज्ज्वल, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . "भ० ऋषभनाथका वृत्तांत - [२५५ व्यंतर देवता द्वारपाल बने थे। पश्चिमके दरवाजेपर, साँझके समान जैसे सूरज और चाँद एक दूसरेके सामने आते हैं वैसही, लाल रंगवाले ज्योतिष्क देवता दरवान बने खड़े थे। और उत्तरके दरवाजेपर, मानो उन्नत मेघ हों ऐसे, काले रंगवाले भुवनपति देवता, दोनों तरफ द्वारपाल होकर स्थित थे। (४४३-४८) - . दूसरे गढ़के चारों दरवाजोंपर, दोनों तरफ क्रमशः अभय पाश:( तरुणास्त्र), अंकुश और मुद्गर धारण किए हुए, श्वेतमणि,शोणमणि,म्वर्णमणि और नीलमणिके समान कांतिवाली और ऊपर कहा गया है वैसे चारों निकायों (जातियों) की जया, विजया, अजीता औ अपराजिता नामकी दो दो देवियाँ प्रतिहार (दरबान ) की तरह खड़ी थीं। (४४६-५०) ... अंतिम बाहरके गढ़के चारों दरवाजोंपर,-तुबरू धारी, खट्वांग (हथियार-विशेष ) धारी, मनुष्योंके मस्तकोंकी माला धारण करनेवाले, और जटा-मुकुटवाले, इन्हीं नामोंवाले, चार देवता दरबानकी तरह खड़े थे। (४५१) . समवसरणके वीचमें व्यंतरोंने एक तीन कोस ऊंचा चैत्यवृक्ष बनाया था, वह मानो तीन रत्नों (ज्ञान, दर्शन और चारित्र कंपी रत्नों) के उदयके समान मालूम होता था, और उस वृक्षके नीचे विविध-रत्नोंकी एक पीठ (आसन) बनाई थी, और उस पीठपरं अनुपम मणियोंकाछंदक (वेदिकाके आकारका आसन) बनाया था। छंदकके बीचमें पूर्व दिशाकी तरफ, लक्ष्मीका सार हो ऐसा पादपीठ (पाँव रखनेकी जगह) सहित रत्नोंका सिंहासन बनाया था और उसपर तीन लोकके स्वामीपनके चिह्नोंकेसमान उज्ज्वल तीनछत्र रचे थे। सिंहासनके दोनों तरफ दो यक्ष हाथोंमें Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. - चमर लेकर खड़े थे; चमर ऐसे मालूम होते थे मानों हृदयमें भक्ति नहीं समाई थी इसलिए वह बाहर निकल आई और उसीके ये समूह हैं ! समवसरण चारों दरवाजापर अनोखी काँति समूहवाले धर्मचक्र (प्रत्येक दरवाजेपर एक धर्मचक्र) सोने कमलोंमें रखे थे। दूसरी बात भी लो करनी थी,व्यतरोन वे सभी की। कारण साधारण समवसरणमें वेही अधिकारी हैं। (४५२-४५) सवेरक समय चारों तरहक, करोड़ों देवताओंके साथ प्रमु समवसरण में प्रवेश करनको चले। उस समय देवता हजार पत्तोंवाले सोने नो क्रमल बनाकर क्रमश: प्रभुके आगे रखने लगे। उनके दो दो कमलोपर स्वामी पर रखने लगे और देवता, ज्योंही प्रमुके पैर अगले कमलोंपर पड़ते थे त्योंही पिछले कमल आगे रख देते थे। जगत्पतिन पूर्वके द्वारसे समवसरणमें प्रवेश किया, चैत्यवृक्षकी प्रदक्षिणा की और फिर वे तीर्थको नमस्कार कर सूर्य जैसे पूर्वांचलपर चढ़ता है वैस,जगतके मोहरूपी अंधकारका नाश करने के लिए, पूर्वाभिमुख (पूर्व दिशाकी तरफ मुँह याले) सिंहासनपर आरूढ़ हुग-बैठे । नव व्यतन दूसरी तीन दिशाओंमें, रत्नोंके तीन सिंहासनांपर प्रमुकी रत्नमय तीन प्रति. माएँ स्थापित की । यद्यपि देवतापमुके अंगूठेकी प्रतिकृति (नकल) भी यथायोग्य करने लायक नहीं है, तथापि प्रमुके प्रतापसेही । प्रमुकी प्रतिमाएँ यथायोग्य (ग्रह) बनी थी। प्रमुक मस्तक (प्रतिमाओंके मस्तकों सहित चारों तरफ शरीरकी कांतिका मंडल (भामंडल ) प्रगट हुआ। इस महलकं तेनके सामने सूर्यमंडलका तंत्र खद्योत (जुगन् ) के समान मालूम होता था। मेव Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२५७ समान गंभीर स्वरवाली दुंदुभि आकाशमें बजने लगी, उसकी प्रतिध्वनिसे चारों दिशाएँ गूंज उठीं। प्रभुके निकट एक रत्नमय ध्वज था, वह ऐसा शोभता था मानों धर्मने यह संकेत करनेके लिए, कि दुनियामें येही एक प्रभु हैं, अपना एक हाथ ऊँचा किया है। (४५६-४६८) . .. अब विमानपतियोंकी स्त्रियाँ पूर्वद्वारसे आई, तीन प्रदक्षिणा दे, तीर्थंकर और तीर्थको नमस्कार कर, प्रथम गढ़में साधुसाध्वियोंके लिए जगह छोड़, उनकी जगहके अग्निकोने में खड़ी रहीं। भुवनपति, ज्योतिष्क,और व्यंतरोंकी खियाँ दक्षिण दिशाके द्वारसे प्रवेश कर क्रमशः विमानपतियोंकी स्त्रियोंके समान विधि कर नैऋत्य कोनेमें खड़ी रहीं। भुवनपति,ज्योतिष्क और व्यंतर देवता पश्चिम दिशाके द्वारसे प्रवेश कर, ऊपरकी तरह विधि कर वायव्य दिशामें वैठे। वैमानिक देवता, तथा पुरुष और स्त्रियाँ उत्तर दिशाके द्वारसे प्रवेश कर पूर्व विधिके अनुसार ईशान दिशा में बैठे। वहाँ पहले आए हुए अल्प ऋद्धिवाले, पीछे आनेवाले बड़ी ऋद्धिवालोंको नमस्कार करते और पीछे आनेवाले पहले आए हुओंको नमस्कार करके आगे जाते। प्रभुके समवसरणमें किसीके लिए रोक न थी, कोई विकथा न थी, विरोधियों में भी परस्पर वैर नहीं था और किसीको किसीका डर नहीं था। दूसरे गढ़में तिथंच आकर बैठे और तीसरे गढ़में सबके वाहन रहे। तीसरे गढ़के बाहरके भागमें कई तिर्यंच,मनुष्य और देवता आते जाते दिखाई देते थे। (.४६६-४७७) इस तरह समवसरणकी रचना होनेके बाद सौधर्म कल्पका इंद्र हाथ जोड़, जगत्पतिको नमस्कार कर, रोमांचित हो, १७ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३ इस तरह स्तुति करने लगा, हे स्वामी ! कहाँ श्राप गुणोंके पर्वत और कहाँ मैं बुद्धिका दरिद्री। फिर भी भक्तिने मुझे अत्यंत वाचाल बना दिया है, इसलिए मैं आपकी स्तुति करता हूँ। हे जगत्पति ! जैसे रत्नोंसे रत्नाकर शोभता है वैसेही श्राप अनंत ज्ञान-दर्शन-वीर्यके आनंदसे शोभते हैं। हे देव !इस भरतक्षेत्रमें बहुत समयसे धर्म नष्ट हो गया है, उस धर्मरूपी वृक्षको पुनः उत्पन्न करनेके लिए आप वीजके समान हैं। हे प्रभो !आप के महात्म्यकी कोई अवधि (सीमा) नहीं है; कारण अपने स्थानमें रहे हुए अनुत्तर विमानके देवताओंके संदेहोंको यहाँ बैठे हुए भी आप जानते हैं और मिटाते हैं । महान ऋद्धिवाले और कांतिसे प्रकाशमान इन सभी देवताओंको स्वगों में रहने__ का जो सौभाग्य मिला है वह आपकी भक्तिहीका अल्प फल है। मूर्ख आदमीको ग्रंथका अध्ययन (पढ़ना) जैसे दुःखके लिए होता है वैसेही जिन मनुष्योंके मनमें आपकी भक्ति नहीं है उनके बड़े बड़े तप भी व्यर्थ कायक्लेशके लिए ही होते हैं । हे प्रभो! आपकी स्तुति करनेवाले और निंदा करनेवाले दोनोंपर आप समान भाव रखते हैं, परंतु अचरज इस वातका है कि दोनोंको शुभ और अशुभ फल अलग अलग मिलता है। हे नाथ ! मुझे स्वर्गकी लक्ष्मीसे भी संतोप नहीं है, इससे मैं माँगता हूँ कि मेरे हृदयमें आपकी अक्षय (कमी नाश न होनेवाली) और अपार भक्ति हो।" इंद्र इस तरह स्तुति कर, फिरसे नमस्कार कर नरनारी और देव-देवांगनाओंसे आगे, (प्रभुके सामने हाथ जोड़ कर बैठा । (१७८-४८७) Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२५६ मरुदेवीको केवलज्ञान और मोक्षकी प्राप्ति उधर अयोध्या नगरीमें विनयी भरत चक्रवर्ती सवेरेही मरुदेवी माताको नमस्कार करने गया। अपने पुत्र के विरहमें रात-दिन रोते रहनेसे उनकी आँखों में नीली (आँखोंका एक रोग) रोग हो गया था, इससे उनकी आँखोंकी ज्योति जाती रही थी,-वे देख नहीं सकती थीं, इसीलिए "यह आपका बड़ा पोता आपके चरणकमलोंमें नमस्कार करता है। कहकर भरतने नमस्कार किया। स्वामिनी मरुदेवीने भरतको असीस दी। फिर उनके हृदयमें शोक समाता न हो इस तरह उन्होंने इस तरह बोलना आरंभ किया, "हे पौत्र भरत !मेरा बेटा ऋषभदेव, मुझे, तुझे, पृथ्वीको, प्रजाको और लक्ष्मीको तिनकेकी तरह छोड़कर अकेला चला गया, फिर भी इस मरुदेवीको मौत नहीं आई। मेरे पुत्रके मस्तकपर चाँदकी चाँदनीके जैसा छत्र रहता था, वह (सुख) कहाँ ? और अब छत्ररहित होनेसे सारे अंगको संताप पहुँचानेवाले सूर्यकी धूप उसको लगती होगी, वह (दुःख) कहाँ ? पहले वह सुंदर चालवाले हाथी वगैरा वाहनों पर सवार होकर फिरता था और अब मुसाफिरकी तरह पैदल चलता है। पहले मेरे पुत्रपर वारांगनाएँ चँवर डुलाती थीं और अब वह डांस, मच्छर आदिकी पीड़ा सहन करता है। पहले वह देवताओंके लाए हुए दिव्य आहारका भोजन करता था और आज अभोजनके समान भिक्षा-भोजन करता है । पहले वह महान ऋद्धिवाला, रत्नोंके सिंहासनपर बैठता था और आज गेंडेकी तरह आसन-रहित रहता है। पहले वह नगररक्षकों और शरीररक्षकोंसे रक्षित नगरमें रहता था और अब सिंह आदि श्वापदों (हिंसक Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. पशुओं) से भरे हुए वनमें रहता है । अमृतरसके समान दिव्यांगनाओंके गायन सुननेवाले उसके कानोंमें आज सुईके समान चुभनेवाली सोंकी फूत्कार सुनाई देती है । कहाँ उसकी पूर्व स्थिति और कहाँ वर्तमान स्थिति ? हाय ! मेरा पुत्र कितना दुःख सह रहा है ! जो कमलके समान कोमल था वह वर्षाके जलका उपद्रव सहन करता है ! हेमंत ऋतुमें अरण्यकी(जंगली) मालतीकी वेलकी तरह हिमपातके (वरफ गिरनेके ) क्लेश लाचार होकर सहता है और गरमीके मोसममें वनवासी हाथीकी तरह सूरजकी अति दारुण ( बहुत तेज धूपसे ) किरणोंसे अधिक कष्ट सहन करता है। इस तरह मेरा पुत्र वनवासी बन, आश्रयहीन साधारण मनुष्यकी तरह अकेला फिरता है और दुःख उठाता है। ऐसे दुःखसे घबराए हुए पुत्रको, मैं हर समय अपनी आँखोंके सामने हो वैसे, देखती हूँ। और सदा ये बातें कह कहकर तुमे भी दुखी बनाती हूँ। (४८८-५०४) . इस तरह घबराई हुई मरुदेवी माताको देख, भरत राजा हाथ जोड़ अमृतके समान वाणीमें बोला, "हे देवी ! धीरजके पर्वत समान, वनके साररूप और महासत्व (बहुत बड़ी ताकत वाले) मनुष्योंके शिरोमणि मेरे पिताकी माता होकर आप इस तरह दुःख क्यों करती हैं ? इस समय पिताजी संसार-समुद्रको तैरनेके लिए प्रयत्न कर रहे हैं। ऐसे समयमें उन्होंने हमारा, हमें गलेमें बँधी हुई शिलाके समान समझ कर, त्याग किया है। वनमें विहार करनेवाले उनके सामने. हिंसक पशु भी पत्थरकी मूर्तिके समान हो जाते हैं वे उनको कोई भी तकलीफ नहीं पहुंचा सकते । भूख, प्यास और सरदी-गरमी तो पिताजी Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [२६१ को कमाका नाश करने में मददगार हो रहे हैं। अगर आपको मेरी बातपर विश्वास न हो तो, थोड़ेही समयमें आप जब अपने पुत्रके केवलज्ञानके उत्सवकी बात सुनेंगी तव विश्वास हो जाएगा। (५०५-५१०) उसी समय चोबदारने भरत महाराजको यमक और शमक नामक पुरुषोंके आनेकी सूचना दी। उनमेंसे यमकने भरत-राजाको प्रणाम कर निवेदन किया, "हे देव ! आज पुरीमलताल नगरके शकटानन उद्यानमें युगादिनाथको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। ऐसी कल्याणकारी बात निवेदन करते मुझे मालूम होता है कि भाग्योदयसे आपकी अभिवृद्धि हो रही है।" शमकने ऊँची आवाजमें निवेदन किया, "आपकी आयुधशालामें अभी चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।" सुनकर भरत राजा थोड़ी देरके लिए इस चिंतामें पड़े कि उधर पिताजीको केवलज्ञान हुआ है और इधर चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, पहले मुझे किसकी पूजा करनी चाहिए ? मगर कहाँ जगतको अभय देनेवाले पिताजी ! और कहाँ प्राणियोंका नाश करनेवाला चक्र ! इस तरह विचार कर उनने पहले पिताजीफी पूजा करनेके लिए जानेकी तैयारी करनेकी आज्ञा दी, यमक और शमकको बहुतसा इनाम देकर विदा किया और फिर मरुदेवी मातासे निवेदन किया, "देवी! आप सदा करुणवाणीमें कहा करती थीं कि मेरा भिक्षा-आहारी और एकाकी पुत्र दुःखका पात्र है; मगर अब वे तीनलोकके स्वामी हुए हैं। उनकी सम्पत्ति देखिए।" ऐसा कहकर उनको हाथीपर सवार कराया। (५११-५१६) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ २६२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३. . पीछे मूर्तिमान लक्ष्मी हो वैसे सोने, रत्नों और माणिकके आभूषणवाले घोड़े, हाथी, रथ और पैदल ले भरत महारान रवाना हुए । अपने आभूषणोंकी कांतिसे जंगम (चलते-फिरते) तोरणकी रचना करनेवाली सेना सहित चलते हुए भरत महाराजने दूरसे ऊपरका रत्नमय गढ़ देखा और मरुदेवी मातासे कहा, "हे देवी! वह देखिए देवियों और देवताओंने प्रभुके समवसरणकी रचना की है। पिताजी चरणकमलकी सेवासे आनंदित देवताओंका वह लय-जयकारशब्द सुनिए। हे माता! मानो प्रभुका बंदी (माट) हो वैस गंभीर और मधुर शब्दों से आकशमें बजता हुआ दुंदुमि आनंद उत्पन्न करता है। स्वामीके चरणों में बंदना करनेवाले देवताओंके विमानोंमें होती हुई धुंघनोंकी आवाज हम सुन रहे हैं। स्वामी के दर्शनोंसे हर्षित हुए देवताओंका, मेघकी गर्जनाके समान यह सिंहनाद आकाशमें हो रहा है । ताल, स्वर और राग सहित (प्रमुगुणोंसे) पवित्र बनी हुई गंधत्रोंकी गीति प्रभुकी वाणीको दासी हो वैसे हमको आनंद देनी है।" (५३०-५२७) . भरतकी बातों से उत्पन्न हुए, आनंदाश्रुनोंसे मन्देवीमाता की आँखोंके नाले इसी तरह कट गए जिस तरह पानी के प्रवाहसे कोचढ़ घुल जाता है। इससे उन्होंने अपने पुत्रकी अतिशयसहित तीर्थंकरपनकी लक्ष्मी निजाँखाले देखी। उसके दर्शनसे उपजे हुए आनंदमें, मन्देवीमाता, लीन हो गई। तत्कालद्दी समकालमें अपूर्वकरणके क्रमसे आपकोणीमें आनद हो, आठ कमाको क्षीण कर, मनदेवी माताने केवलज्ञान पाया, और (इसी समय श्रायुके पूर्ण होनेसे) अंतकृतवली हो, हाथीपर बट बैठे ही Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२६३ अव्ययपद-मोक्ष पाया। इस अवसर्पिणी कालमें मरुदेवी माता प्रथम सिद्ध हुईं। देवताओंने उनके शरीरका सत्कार करके उसे क्षीरसागरमें डाला। तभीसे इस लोकमें मृतककी पूजा आरंभ हुई। कहा है कि,- "यत्कुर्वति महांतो हि तदाचाराय कल्पते ।" [महापुरुष जो काम करते हैं वह आचार-रिवाज मान लिया जाता है।] भरतकृत-स्तुति माता मरुदेवीको मोक्ष पाया जान भरत राजा ऐसे शोक और हर्षसे व्याप्त हो गए जैसे बादलोंकी छाया और सूरजकी धूपसे मिश्रित शरदऋतुका समय (दिन ) हो जाता है। फिर भरतने, राज्यचिह्नका त्याग कर, परिवार सहित पैदल चलकर उत्तर दिशाके द्वारसे समवसरणमें प्रवेश किया। वहाँ चारों निकायके देवोंसे घिरे हुए और दृष्टिरूपी चकोरके लिए चंद्रमाके समान प्रभुको देखा। भगवानकी तीन प्रदक्षिणा दे,प्रणाम कर, जुड़े हुए हाथ मस्तकपर रख चक्रवर्तीने इस तरह स्तुति करना आरंभ किया, (५२८-५३७) हे सारे संसारके नाथ, आपकी जय हो! हे दुनियाको अभय देनेवाले आपकी जय हो! हे प्रथम तीर्थंकर, हे जगतको तारनेवाले आपकी जय हो ! आज इस अवसर्पिणीमें जन्मेहुए लोक-रूपी कमलके लिए सूरजके समान प्रभो ! तुम्हारे दर्शनसे मेरा अंधकार दूर हुआ है और मेरे लिए सवेरा हुआ है। हे . नाथ ! भव्यजीवोंके मनरूपी जलको निर्मल करनेकी क्रियामें Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४.] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग३. कतक (निर्मली) के चूर्ण जैसी आपकी वाणीका जय-जयकार हो! हे करणाके क्षीरसागर ! जो आपके शासनरूपी महारथमें पाल्ढ़ होते हैं उनके लिए मोक्ष दूर नहीं रहता । हे देव ! हे निष्कारण जगतबं। हम साक्षात यापकं दर्शन कर सकते है, इसलिए इस संसारको हम मोनसे भी अधिक मानते हैं। हे स्वामी! इस दुनियामें भी हमें, निश्चल नेत्रों द्वारा आपके दर्शन के महानंदरूपी मरनेमें (स्नान करनेसे) मोचमुखके स्वादका अनुमत्र होता है। हे नाथ | रागद्वेष और कयायादि शत्रुओं द्वारा बाँबहुए इस संसारको श्राप, अमय-दान देनेवाले और बंधनसे छाडानेवाले हैं। हजगत्पते ! श्राप तत्व बनाते हैं, मार्ग बताते हैं और संसारकी रक्षा करते हैं, तब इसमें विशेष में आपसे क्या माँD ? लो अनेक तरह के उपवास और लड़ाइयोंसे एक दसरंके गाँवों और देशकोहीननवाने राजा है.वे सभी श्रापनमें मित्रमाव धारण कर आपकी समान बैठे है। श्रापकी पर्षदामें आया हुआ यह हाथी अपनी मूंडसे केमरी-सिंहके कर (पंजे) को खींचकर उससे बार बार अपने कुंम अलको नुजाता हैं। यह महिष मैंमा) दुसरं महिपकी तरह लेहमे बार बार अपनी जीम द्वारा इस हिनहिनातं घोड़को चाटता है। खेलसे - अपनी पूंछको हिलाता यह मृग, ऊँचे कान कर और सर मुका अपनी नाकसे इस बायका मुँह नवना है। यह तरुण मार्जार (दिल्ली) अाग-पीछ और पास-यासमें फिरते हुए चूहोंके बच्चोंको अपने बच्चों की तरह प्यार करती है। यह मुजंग (मॉप) कुंडलीकर, इन नकुलके पास मित्रकी तरह निर्भय बना बैठा है। हे देव ! ये दूसरे प्राणी मी-जोनदा आपसमें बैर रखनेवाले हैं Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत. [ २६५ यहाँ निर्वैर होकर बैठे हैं। इसका कारण आपका अतुल प्रभाषही है।" ( ५३८-५५२) भरत राजा इस तरह जगत्पतिकी स्तुति करक्रमशः पीछे हट स्वर्गपति इंद्रके पीछे जा बैठे। तीर्थनाथके प्रभावसे उस योजनमात्र जगहमें करोड़ों प्राणी किसी तरहकी तकलीफके बगैर वैठे हुए थे। भगवानकी देशना उस समय सभी भाषाओंको स्पर्श करनेवाली, पैंतीस अतिशयोंवाली और योजनगामिनी वाणीसे प्रभुने इस तरह देशना ( उपदेश) देनी शुरू की- "आधि, व्याधि, जरा और मृत्युरूपी सैंकड़ों ज्वालाओंसे भरा हुआ यह संसार सभी प्राणियों के लिए दहकती हुई आगके समान है। इसलिए विद्वानोंको ( समझदारोंको ) थोड़ासा प्रमाद भी नहीं करना चाहिए; कारण, रातहीके वक्त मुसाफिरी करने लायक मरुदेशमें कौन ऐसा अज्ञानी होगा जो प्रमाद करेगा ? (मुसाफिरी न करेगा ?) अनेक योनिरूपी आवतों (भँवरों) से क्षुब्ध बने हुए संसाररूपी. समुद्र में भटकते हुए प्राणियोंको उत्तम रत्नकी तरह इस मनुष्यजन्मका प्राप्त होना दुर्लभ है। दोहद' पूर्ण होनेसे . १-किंवदंति है कि-पहले कई फलदार वृक्ष ऐसे होते थे, जो बड़े होनेपर भी तबतक नहीं फलते थे जब तक उनके तनेमें किसी ऐसी स्त्रीका पर नहीं लगता था जिसकी पहली संतान पुत्र हो; और जिसको प्रसववेदना अधिक नहीं हुई हो। इसी वातको वृक्षका दोहदपूर्ण होना कहा जाता था। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. जैसे वृक्ष फलयुक्त होता है वैसेही परलोकका साधन करनेसे मनुष्य-जन्म सफल होता है। इस संसारमें शठ लोगोंकी वाणी जैसे प्रारंभमें मीठी और अंत में कह फल देनेवाली होती है, वैसेही विषय-वासना विश्वको ठगने और दुःख देनेवाली है। बहुत ऊँचाईका परिणाम जैसे गिरना है वैसेही संसारके अंदरके सभी पदार्थों के संयोगका अंत वियोगमें है। इस संसारमें सभी. प्राणियोंके धन, यौवन और श्रायु परस्पर स्पा करते हो ऐसे जल्दी आनेवाले और नाशमान हैं। मरुदेशमें जैसे स्वादिष्ट जल नहीं होता वैसेही, संसारकी चारों गतियों में सुखका लेश भी नहीं होता । क्षेत्र-दोषसे दुश्व पात हुए और परमाधार्मिकों के द्वारा सताए हुप नारकी नीवोंको तो मुग्न होही कसे सकता है ? (यानी उन्हें कभी मुख्न नहीं होता) सरदी, हवा, गरमी और पानी इसी तरह वध, बंधन और भूख इत्यादिसे अनेक तरहकी तकलीफ उठाते हुप नियंचोंको भी क्या मुख है ? गर्भवास, बीमारी,बुढ़ापा, दरिद्रता और मौतसे होनेवाले दुःखमें सने हुए मनुष्योंको भी कहाँ मुख है ? आपसी द्वेष, असहिष्णुता, कलह तथा च्यवन वगैरा दुःखांस देवताओंको भी मुख नहीं मिलता। तो भी जल लेस नीची जमीनकी तरफ बहता है वैसेही प्राणी भी अज्ञानसे बार बार इस संसारद्दीकी तरफ जाते हैं। इसलिए हे चेतनावान (ज्ञानवान) भव्यजनो ! जैसे दूध पिलाकर सर्पका पोपण करते है वही, तुम मनुष्य जन्मसे संसारका पोषण मत करो। हे विक्रियों ! इस संसारमें रहनसे अनेक तरह के दुःख होते है, उन सबका विचार करकं सब तरहसे मुक्ति पाने: का यत्न करो । संसारमं नरकके दुःख जमा, गर्मबासका दुःख Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२६७ होता है, वैसा मोक्षमें कभी भी नहीं होता। कुंभीके बीचमेंसे खींचे जानेवाले नारकी जीवोंकी पीड़ाके समान प्रसववेदना मोक्षमें कभी भी नहीं होती। अंदर और बाहर डाले हुए कीलकाँटोंके समान पीड़ाके कारणरूप आधि-व्याधि मोक्ष में नहीं होती। यमराजकी अग्रदूती, सब तरहके तेजको चुरानेवाली तथा पराधीनता पैदा करनेवाली जरा ( वृद्धावस्था) भी वहाँ बिलकुल नहीं होती। और नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवताओंकी तरह संसारमें भ्रमण करनेकी कारणरूप मौत भी वहाँ नहीं होती। वहाँ मोक्षमें तो महा आनंद, अद्वैत और अव्यय सुख, शाश्वतरूप और केवलज्ञान-सूर्यसे अखंड ज्योति है। हमेशा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी तीन उज्ज्वल रत्नोंको पालनेवाले (धारण करनेवाले) पुरुषही मोक्षको प्राप्त कर सकते हैं । (५५३-५७७) ज्ञान __“जीवादि तत्वोंकासंक्षेपमें या विस्तारसे यथार्थ ज्ञान होता है, उसको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इस क्रमसे ज्ञान पाँच तरहका है। उसमें से जो अवप्रहादिक भेदोंवाला तथा दूसरे बहुग्राही, अबहुग्राही भेदोंवाला और जोइंद्रिय-अनिद्रियसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है उसे मतिज्ञान कहते हैं। जो पूर्व, अंग, उपांग और प्रकीर्णक सूत्र-प्रथोंसे विस्तार पाया हुआ और स्यात् शब्दसे लांछित(सुशोभित)अनेक प्रकारका ज्ञान है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। जो देवता और नारकी. जीवोंको जन्मसे उत्पन्न होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२६८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. दय और उपशम लक्षणवाला है। और दूसरोंके (मनुष्यों व तिर्यंचोंके ) श्राश्रयसे इसके छः भेद होते हैं। (निससे दूसरे प्राणियोंके मनकी बात जानी जाती है उसे मनःपर्ययनान कहते हैं।) मनःपर्ययज्ञानके ऋजुमति और त्रिपुलमति ऐसे दो भेद होते हैं। उनमेंसे विपुलमनिकी विशुद्धि और अग्रनिपातपनसे विशेषताजानना चाहिए। जो समस्त द्रव्य-पर्यायके विषयवाला है, विश्वलोचनके समान अनंत है, एक है और इंद्रियोंके विषय विनाका है वह केवलनान कहलाता है । (५७-५८४) सम्यक्त्व शास्त्रोंमें कहे हुएतत्वोंमें मचि होना सम्यश्रद्धा कहलाती है।वह श्रद्धा स्वभावसे और गुम्के उपदेशसे प्राप्त होती है, (५८५) [सम्यक् श्रद्धाकोही सम्यक्त्व या सम्यकदर्शन कहते हैं।] इस अनादि अनंत संसारके चक्कर में फिरते हुए प्राणियोंमें बानावरणी, दर्शनावरगी, वेदनी और अंतराय नामके क्रमांकी उत्कृष्ट स्थिति तीसकोटाकोटि सागरोपमकी है गोत्र व नामक्रमकी स्थिति बीसकोटाकोटि सागरोपमकी है; और मोहनीय कर्मकी स्थिति सत्तर (७०) कोटाकोटि सागरोपमकी है। अनुक्रमसे फलका अनुभव (उपमोग) करके सभी कर्म, पर्वतसे निकली हुई नदीमें टकराते टकराते पत्थर जैसे गोल हो जाते हैं उसी न्यायसे,अपने श्राप तय हो जाते हैं। इस तरह क्षय होने हुए कर्मकी अनुक्रमसे उन्नीस, उन्नीस और उनहत्तर कोटाकोटि सागरोपम तककी स्थिति क्षय होती है और एककोटाकोटि सागरोपमसे कुछ कम स्थिति वाकी रहती है नव प्रागी यथाप्रवृत्तिकरणद्वारा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२६६ ग्रंथीदेशको प्राप्त होता है। दुःखसे (वहुत कठिनतासे ) भेदे जा सकें ऐसे रागद्वेषके परिणामोंको ग्रंथीदेश कहते हैं। वह ग्रंथी काठकी गाँठकी तरह दुरुच्छेद (बहुत मुशकिलसे कटनेवाली) और बहुत मजबूत होती है। जैसे किनारेपर आया हुआ जहाज वायुके वेगसे वापस समुद्र में चला जाता है वैसेही रागादिकसे प्रेरित कई जीव ग्रंथीको भेदे विनाही ग्रंथीके पाससे लौट जाते हैं। कई जीव, मार्गमें रुकावट आनेसे जैसे सरिताका जल रुक जाता है वैसेही, किसी तरहके परिणाम विशेषके वगैरही वहीं रुक जाते हैं। कई प्राणी, जिनका भविष्यमें भद्र (कल्याण) होनेवाला होता है, अपूर्वकरण द्वारा अपना वल प्रकट करके दुर्भेद्य ग्रंथीको उसी तरह शीघ्रही भेद देते हैं जिस तरह बड़े (कठिन) मार्गको तै करनेवाले मुसाफिर घाटियोंके मार्गको लाँघ जाते हैं। कई चार गतिवाले प्राणी अनिवृत्तिकरण द्वारा अंतरकरण करके मिथ्यात्वको विरल (क्षीण) करके अंतर्मुहूर्तमात्रमें सम्यकदर्शन पाते हैं। यह नैसर्गिक (स्वाभाविक ) सम्यक् श्रद्धान कहलाता है। गुरु-उपदेशके आलवन (सहारे) से भव्यप्राणियोंको जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह गुरुके अधिगमसे (उपदेशसे)हुआ सम्यक्त्व कहलाता है । (५८६-५६८) सम्यक्त्वके औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक ऐसे पाँच भेद है। जिसकी कर्मग्रंथी भिद गई है ऐसे प्राणीको, जिस सम्यक्त्वका लाभ प्रथम अंतर्मुहूर्तमात्रके लिए होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। इसी तरह उपशम श्रेणीके योगसे जिसका मोह शांत हुआ हो ऐसे देही (शरीरधारी आत्मा) को मोहके उपशमसे ( जो सम्यक्त्व) Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. - उत्पन्न होता है वह भी औपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है। सम्यक्त्व भावका त्याग करके मिथ्यात्वकी ओर जानेवाले प्राणीको, अनंतानुबंधी कपायके उदय होनेसे उत्कर्षसे छःप्रावली (समयका एक भाग) तक और जघन्यसे एक समय (समयका एक भाग) तक सम्यक्त्वका परिणाम रहता है, वह सास्वादन सम्यक्त्व कहलाता है। मिथ्यात्व मोहनीके क्षय और उपशमसे जो सम्यक्त्व होता है वह क्षयोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है; यह सम्यक्त्वमोहनीके परिणामवाले प्राणीको होता है। जो क्षपक-भावको प्राप्त हुआ है, जिसकी अनंतानुबंधी कपायकी चौकड़ी क्षय हो गई है,जिसकी मिथ्यात्व मोहनी और सम्यक्त्व मोहनी अच्छी तरह क्षय हो गई है, जो क्षायक सम्यक्त्त्रके सम्मुख हुआ है ऐसे, और सम्यक्त्व मोहनीके अंतिम अंशका भोग करनेवाले प्राणीको वेदक नामका चौथा सम्यक्त्व प्राप्त होता है। सातों प्रकृतियोंको (अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोम, सम्यक्त्व मोहनी, मिश्र मोहनी और मिथ्यात्व मोहनी इन सात प्रकृतियोंको) क्षीण करनेवाले और शुभभावोंवाले प्राणीको क्षायिक नामका पाँचवाँ सम्यक्त्व प्राप्त होता है। (५६६-६०७). सम्यक्त्व गुणसे रोचक, दीपक और कारक तीन प्रकारका है। शास्त्रोक्त(शास्त्रोंमें कहे हुए)तत्त्वमें, हेतु और उदाहरण: __ के बिना जो दृढ़ विश्वास उत्पन्न होता है उसे रोचक सम्यक्त्व कहते हैं। जो दसरेके सम्यक्त्वको प्रदीप्त करता है उसे दीपकसम्यक्त्व कहते हैं और जो संयम तथा तप वगैराको उत्पन्न Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भ. ऋषभनाथका वृत्तांत . [२७१ करता है उसे कारक सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकता इन पाँच लक्षणों से अच्छी तरह पहचाना जाता है। जिसमें अनंतानुबंधी कषाय. का उदय नहीं होता उसे शम कहते हैं; सम्यक् प्रकृतिसे कषायके परिणामोंको देखनेका नाम भी शम है। कर्मके परिणामों और संसारकी असारताका विचार करते हुए विषयों में जो वैराग्य होता है उसको संवेग कहते हैं । संवेगभाववाले पुरुषको, विचार आता है कि संसारका निवास काराग्रह (जेलखाना) है और कुटुंबी बंधन हैं। इस विचारहीको निर्वेद कहते हैं। एकेंद्रिय आदि सभी प्राणियोंको संसारसागरमें डूबनेसे जो दुःख होता है उसे देखकर मनमें जो आद्रता (दया, उनके दुःखसे मनमें जो दुःख) होती है और उसको मिटानेके लिए जो यथाशक्ति प्रवृत्ति की जाती है उसे अनुकंपा कहते हैं। दूसरे तत्त्वोंको सुनते हुए भी आहत् ( अरिहंतके कहे हुए) तत्त्वोंमें जो प्रतिपत्ति ( गौरव या विश्वास ) रहती है उसे आस्तिकता कहते हैं। इस तरह सम्यकदर्शनका वर्णन किया गया है। उसकी प्राप्ति थोड़ी देरके लिए होनेपर भी पूर्वका जो मतिअज्ञान होता है वह नष्ट होकर मतिज्ञानके रूपमें बदल जाता है; श्रुत-अज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान हो जाता है और विभंगज्ञान नष्ट होकर अवधिज्ञान हो जाता है । (६०८-६१६) . चारित्र सभी सावघयोगोंको (ऐसे कामोंको जिनसे कोई हिंसा . १-इंद्रियोंका संयम । २-वैराग्य। -भासक्ति रहित । ४-दया Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __२७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. हो) छोड़नेका नाम चारित्र है। वह अहिंसादि व्रतोंके भेदसे पाँच प्रकारका है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच व्रत पाँच भावनाओंसे युक्त होनेसे मोक्षके कारण होते हैं। प्रमाद (असावधानी ) के योगसे त्रस और स्थावर जीवोंके प्राणोंको नाश न करना अहिंसावत कहलाता है। प्रिय, हितकारी और सत्य वचन बोलना सुनृत (सत्य) व्रत कहलाता है; अप्रिय और अहितकारी सत्यवचनको भी असत्यके समानही समझना चाहिए। अदत्त (न दी हुई) वस्तुको ग्रहण न करना अस्तेय या अचार्य व्रत कहलाता है। कारण, "बाह्यप्राणा नृणामर्थो हरता तं हृता हि ते।" [धन मनुष्यके बाहरी प्राण हैं इससे जो किसीका धन लेता है वह उसके प्राणही लेता है ] दिव्य (वैक्रिय) और औदारिक शरीरसे अब्रह्मचर्यसेवनका-मन, वचन और कायासे; करने, कराने और अनुमोदन करनेका त्याग करना ब्रह्मचर्यव्रत कहलाता है। इसके अठारह भेद हैं। सभी चीजोंसे मूर्छा (मोह.) का त्याग करना अपरिग्रहवत कहलाता है। कारण, मोहसे न होनेवाली वस्तुमें भी चित्तका विप्लव होता है-(जो बात होनेवाली नहीं है उसके लिए भी मनमें व्याकुलता होती है।) यतिधर्मसेमें अनुरक्त यतींद्रोंके लिए ( इन पाँचों व्रतोंको) सबसे (यानी पूरी तरहसे पालना) श्री गृहस्थोंके लिए देशसे (कुछ छूट रखकर पालना ) चारित्र कहा है। (६२०-६२७) . पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाव्रत मिलाकर Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... .. भ. ऋषभनाथका वृत्तांत [२७३ गृहस्थोंके लिए बारह व्रत हैं। ये सम्यक्त्वके मूल हैं। पंगु, कोढ़ी और कूरिणत्व (अंगका अव्यवस्थित) होना हिंसाका फल है।इसलिए बुद्धिमान पुरुषोंको संकल्पसे (इरादापूर्वक) निरपराध (बेगुनाह त्रस जीवोंकी) हिंसा करनेका त्याग करना चाहिए। मनमनत्व, काहलपन (मुँहका एक रोग), मूकता (गूंगापन), और मुखरोग, इनको झूठके फल जान, कन्या संबंधी झूठ वगैरा पाँच असत्योंको छोड़ देना चाहिए। कन्या, गाय और भूमि संबंधी झूठ बोलना, धरोहर दबाना और झूठी साक्षी देना ये पाँच स्थूल ( मोटे) असत्य कहलाते हैं। दुर्भाग्य, प्रेष्यता, (कासिदका काम) दासता, अंगका छिदना और दरिद्रता, इनको अदत्तादानका फल जान स्थूल चौर्यका त्याग करना चाहिए। नपुंसकता, और इंद्रियके छेदको अब्रह्मचर्यका फल जान, बुद्धिमान पुरुषको स्वस्त्रीमें संतोष और परस्त्रीका त्याग करना चाहिए। असंतोष, अविश्वास, आरंभ और दुःख, इन सबको परिग्रहकी मूच्छाका (तीव्र इच्छाका) फल जान परिग्रहका प्रमाण करना चाहिए। (ये पाँच अणुव्रत कहलाते हैं)। दशों दिशाओंमें निर्णय की हुई सीमासे आगे न जाना, दिगवत नामक पहला गुणव्रत कहलाता है । शक्ति होते हुए भी भोग और उपभोग करनेकी संख्या ठहराना भोगोपभोग प्रमाण नामका दूसरा गुणवत कहलाता है। आर्त और रौद्र नामक चुरें ध्यान करना, पापकर्मका उपदेश देना, किसीको ऐसे साधन देना जिनसे हिंसा हो तथा प्रमादाचरण, इन चारोंको अनर्थदंड कहते हैं; शरीरादि अर्थदंडके प्रतिपक्षी अनर्थदंडका त्याग करना - - - - - Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] त्रिषष्टिं शलाका पुरुष-चरित्र: पत्र १. सर्ग , - तीसरा गुणत्रत कहलाता है। . आत और गद्रव्यानचा त्याग कर, सावध (हिंसा हो ऐसे) कामोंको छोड़, मुहूर्त (दो बड़ी ) तक समता धारण करना सामायिक वन कहलाता है। . . दिन और रात्रि संबंधी द्विग्नत में प्रमाण किया हुआ हो, उनमें भी कमी करना देशावकाशिक वन कहलाता है। . चार पर्वणियोंके दिन (दून, पंचमी, अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशीक दिन उपवासादि तप करना, कुव्यापारका(संसारसे संबंध रखनेवाले सभी कामोत्याग करना, ब्रह्मचर्य पालना और दूसरी न्नानादिक क्रियाओंका त्याग करना, पायधनत कहालाना है। ___ अतिथि (साधु) को चतुर्विध (अशन-रोटी आदि भोजन, पान-पान योग्य चीजें, खादिम-फल मेवा वगैरा, स्वादिम-लौंग, इलायची वगैरा) आहार, पात्र, बन्न और स्थान (रहने की जगह) कादान करना अतिथि संविमागवत कहलाता है। (१८-६४२) यनियों ( साधुनों ) को और श्रावकोंको, मोक्षकी प्राप्तिक लिए सम्यक से इन नीन रत्नांकी हमशा उपासना करना चाहिए। (४३) तीर्थ (चतुर्विध संघ) की स्थापना सी देशना सुनकर तत्कालद्दी भरनके पुत्र ऋषमसेनन प्रमुको नमस्कार कर बिनती की, स्वामी ! कयायरूपी दावानलस दाम्य (भयंकर) इस संसारल्या जंगलमें आपने नवीन मेयके समान अद्वितीय तत्वामृत बरसाया है। लगत्पति ! जैसे Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . . . ... : म ऋषभनाथका वृत्तांत [ २७५ डूबते हुए मनुष्योंको जहाज मिलता है,प्यासे आदमियोंकोप्याऊ मिलती है, सरदीसे व्याकुल श्रादमियोंको श्राग मिलती है, धूपसे घबराए हुए मनुष्योंको पेड़की छाया मिलती है, अंधकारमें वे हुओंको दीपक मिलता है, दरिद्रीको धन मिलता है, विषपीड़ितोंको अमृत मिलता है, रोगियोंको दवा मिलती है, दुष्ट शत्रुओंसे घबराए हुए लोगोंको किलेका आश्रय मिलता है, वैसेही दुनियासे डरे हुए लोगोंको आप मिले हैं। इसलिए हे दयानिधि ! रक्षा कीजिए! रक्षा कीजिए ! पिता,भाई,भतीजे और दूसरेसगे-संबंधी संसारभ्रमणके हेतुरूप होनेसे अहितकारियोंके समान हैं, इस. लिए इनकी क्या जरूरत है ? हे जगतशरण्य ! हे संसारसमुद्रसे तारनेवाले ! मैंने तो आपका सहारा लिया है, इसलिए मुझपर प्रसन्न हूजिए और मुझे दीक्षा दीजिए।" (६४३-६५०) इस तरह निवेदन कर ऋषभसेनने भरतके अन्य पाँचसौ पुत्रों और सातसौ पौत्रोंके साथ व्रत ग्रहण किया(दीक्षा ली)। सुरअसुरोंके द्वारा कीगई प्रभुके केवलज्ञानकी महिमा देखकर भरत के पुत्र मरीचिने भी व्रत ग्रहण किया। भरतके आज्ञा देनेसे ब्राझीने भी दीक्षा लेली। कारण--- "गुरूपदेशः साक्ष्येव प्रायेण लघुकर्मणाम् ।" . - [लघु कर्मवाले जीवोंके लिए गुरुका उपदेश प्राय: साक्षी मात्रही होता है। ] ( ६५१-६५३) . पाहुवलीके मुक्त करनेसे सुंदरी भी दीक्षा लेना चाहती थी, परंतु भरतने मना किया, इसलिए वह प्रथम श्राषिका हुई। भरतने भी प्रभुके निकट श्रावकपन स्वीकार किया। कारण, भोगंकर्म भोगे विना कभी भी व्रत ( चारित्र ) की प्राप्ति नहीं Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. होती 1 मनुष्य, तिर्यंच और देवताओंकी पर्षदामिसे किसीने साधुव्रत ग्रहण किया, किसीन श्रावकत्रत लिया और किसीने सम्यक्त्र धारों। उन राजतापसमि कच्छ और महाकच्छ के सिवा दूसरे सभी तापसाने स्वामीके पास पाकर दर्य सहित पुनः दीक्षा ली। उसी समयसे चतुर्विध संबक्री व्यवस्था हुई । उसमें ऋषभसेन (पुंडरीक) वगैरा साधु, ब्राझी वगैरा साध्वियों, भरत वगैरा धावक और मुंदरी वगैरा धाविकाएँ थे। यह चतुर्विध संघकी व्यवस्था नबसे अबतक धर्मके एक श्रेष्ट गृहरूप होकर चल रही है। · चतुर्दशपूर्व और द्वादशांगीकी रचना ___ उस समय प्रभुने गणधर नामकर्मवाले ऋषमसेन वगैरा चौरासी सबृद्धिवाले साधुओंको,सभी शास्त्र जिनमें समा नाते है एसी उत्पाद, विगम (व्यय) और श्रीव्य इन नामावाली पवित्र त्रिपदीका उपदेश दिया। उस त्रिपदीके अनुसार गणपनि अंनुक्रमसे चतुर्दशपूर्व थार. द्वादशांगीकी रचना की। फिर दंवता. ऑसे घिरा हुआ इंद्र, दिव्यचूर्णसे पूरा भरा हुया एक थाल लेकर प्रमुके चरणों के पास खड़ा रहा। भगवान ने लड़े होकर उनपर चूर्ण डाला और सूत्रसे, अर्थसे, मूत्रार्थसे, द्रव्यसे, गुणसे, पर्यायसे और नयसे उनको अनुयोग अनुन्ना (यात्रा) दी, तथा गएकी यात्रा भी दी। उसके बाद देवता, मनुष्य और उनकी ब्रियान ईदमिकी ध्वनिके साथ उनपर चारोतरफसे वासदेप किया (चूर्णविशेष डाला)1 मेघ जलको ग्रहण करनेवाले वृक्षोंकी तरह प्रभुकी यागीको ग्रहण करनेवाले सभी गश्वर हाथ जोड़कर बड़े रई। फिर भगवानने पूर्ववत, पूर्वामिमुग्य Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२७७ सिंहासन पर बैठकर पुनः उपदेशप्रद धर्मदेशना दी । इस तरह प्रभुरूपी समुद्रमेंसे उठी हुई देशनारूपी उद्दामवेला (ज्वार) की मर्यादाके समान प्रथम पौरुषी (पहर) पूरी हुई। (६५४-६६६) - उस समय, छिलकोंसे रहित, अखंड और उज्ज्वल शालि (चावल) से बनाया हुआ और थालमें रखा हुआ चार प्रस्थ (सेर) बलि समवसरणके पूर्वद्वारसे अंदर लाया गया। देवता ओंने उसे, खुशबू डालकर दुगना सुगंधित बना दिया था। प्रधान पुरुष उसे उठाए हुए थे। भरतेश्वरने उसे बनवाया था। और उसके आगे दुंदुभि बज रहे थे। उनकी निर्घोष (ध्वनि) से दिशाओंके मुखभाग प्रतिघोषित (प्रतिध्वनित ) हो रहे थे। उसके पीछे मंगलगीत गाती हुई खियाँ चल रही थीं, मानो प्रभुके प्रभावसे जन्माहुआ, पुण्यका समूह हो वैसे वह चारों तरफसे पुरवासियोंसे घिरा हुआ था। फिर मानों कल्याणरूपी धान्यका बीज बोनेके लिए हो वैसे वह बलि प्रभुकी प्रदक्षिणा कराके उछाला गया। मेघके जलको जैसे चातक ग्रहण करता है वैसेही आकाशसे गिरते हुए उस बलिके आधे भागको देवता ओंने अंतरिक्षमेंही (जमीनपर गिरनेसे पहलेही) ग्रहण कर लिया। पृथ्वीपर गिरनेके बाद उसका (गिरे हुएका ) आधा भाग भरत राजाने लिया और जो शेष रहा उसको गोत्रवालोंकी तरह लोगोंने बाँट लिया। उस बलिके प्रभावसे पहले हुए रोग नाश होते थे और छ:महीने तक फिरसे नए रोग पैदा नहीं होते थे। (६७०-६७७) फिर सिंहासनसे उठकर प्रभुउत्तरके मार्गसे बाहर निकले। जैसे कमलके चारों तरफ भौंरे फिरते हैं पैसेही सभी इंद्र भी Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. प्रभुके साथ चले। रत्नमय और स्वर्णमय वप्र (टेकरी) के मध्यमागमें, ईशानकोनमें स्थित, देवछंदपर प्रमुं विश्राम लेनेके लिए बैठे। उस समय भगवानके मुख्य गणधर ऋषभसेनने, भगवतकी पादपीठ (पैर रखनेकी जगह ) पर बैठकर, धर्मदेशना देनी शुरू की। कारण,स्वामीको थकानमें श्रानंद, शिष्योंका गुणदीपन(गुण प्रकाशन)और दोनों तरफ प्रतीति (विश्वास) ये गणधरकी देशनाके गुण हैं। जब गणधरका व्याख्यान समाप्त हुआ तब सभी प्रभुको वंदना कर अपने अपने स्थानपर गए । (६७-६८२) . इस तरह तीर्थकी स्थापना होनेपर गोमुग्न नामका एक यज्ञ, जो प्रमुके पास रहता था, अधिष्टायक हुआ। उसके चार .हाथ थे। उसकी दाहिनी तरफके दो हाथोंमेंसे एक हाथ वरदान चिह्नवाला (वरदान देनेकी मुद्रामें) था और दूसरेमें उत्तम अक्षमाला शोमती थी; वाई तरफके दो हाथोंमें घीजोरा और पांश (रस्सी) थे। उसका वर्ण सोनेके जैसा और वाहन हाथी या। उसी तरह ऋषभदेव प्रभुके तीर्थमें उनके पास रहनेवाली एक प्रतिचक्रा (चक्रेश्वरी ) नामक शासन-देवी हुई। उसकी कांति स्वर्णके समान थी और उसका वाहन गरुड़ था। उसकी दाहिनी भुजाओंमें वर देनेवाला चिह्न, बाण, चक्र और पाश थे और चाएँ हाथोंमें धनुप, वन, चक्र और अंकुश य । (६८३-६८६) र नक्षत्रोंसे घिरे हुए चंद्रमाकी तरह महर्पियोंसे घिरे हुए भगवानने दूसरी जगह विहार किया। मानों भक्तिवश होकर मार्गमें नाते प्रभुको वृक्ष नमस्कार करते थे, कॉट ओंधे. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२७६ मुँह हो जाते थे और पक्षी प्रदक्षिणा देते थे। विहार करते हुए प्रभुकी इंद्रियोंके लिए ऋतुएँ और वायु अनुकूल हो जाते थे। कमसे कम एक करोड़ देवता उनके पास रहते थे। मानों भवांतरमें जन्मे हुए कर्माको नाश करते हुए देखकर भयभीत हुए हों ऐसे जगत्पतिके केश, श्मश्रु (डाढ़ी) और नाखून बढ़ते न थे। प्रभु जहाँ जाते थे वहाँ वैर, मारी, ईति, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष और स्वचक्र तथा परचकसे होनेवाला भय, ये उपद्रव होते न थे। इस तरह विश्वको विस्मयों (अचरजों) से युक्त होकर संसारमें भटकनेवाले जगतके जीवोंपर अनुग्रह (मेहरबानी) करनेका विचार रखनेवाले नाभेय (नाभिराजाके पुत्र) भगवान वायुकी तरह पृथ्वीपर अप्रतिवद्ध (वेरोक-टोक) विहार करने लगे। (६८७-६६२) । आचार्य श्री हेमचंद्रविरचित, त्रिषष्टिशलाका पुरुष . चरित नामक महाकाव्यके प्रथम पर्वमें, . भगवद्दीक्षा,छमस्थ, विहार, केवलज्ञान . .. और समवसरण-वर्णन नामका तीसरा सर्ग पूर्ण हुआ। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ सर्ग भरतका चौदह रत्न पाना और दिग्विजय करना अब वहाँ अतिथिकी तरह चक्रके लिए उत्कंठित भरत राजा विनीता नगरीके मध्यमार्गसे होकर आयुधागारमें पहुंचे। चक्रको देखते ही राजाने उसको प्रणाम किया । कारण "मन्यते क्षत्रिया ह्यस्वं प्रत्यक्षमधिदेवतम् ।" [क्षत्रिय लोग शस्त्रको साक्षात देवता या परमेश्वर मानते हैं।] भरतन रोमहम्तक (पोछनेका एक वन) हाथमें लेकर चक्रको पोंछा। यद्यपि चक्ररत्नपर रज नहीं होती, तोमी भक्तोंकी यह रीति है। फिर उदय होते हुए सूर्यको जैसे पूर्वसमुद्र स्नान कराता है वैसही महाराजाने चक्ररत्नको पवित्र जलसे स्नान कराया। मुन्न्य गजपनिके पिछले भागकी तरह उसपर गोशीपं. चंदनका पूल्यतासूत्रक तिलक किया। फिर साक्षात जयलक्ष्मीकी तरह पुष्प, गंध, वासचूर्ण,वस्त्र और श्राभूषणोंसे उसकी पूजा की। उसके धागे चाँदीकं चावलांसे अष्टमंगल चित्रित किए और उन जुदा जुदा मंगलांसे श्राठा दिशाओंकी लक्ष्मीको घेर लिया। उसके पास पाँच वरण के फलोंका उपहार. रख पृथ्वीको विचित्र वणवाली बनाया। और शत्रुओंके यशकी तरह यत्नपूर्वक चंदन-कपुरमय उत्तम धूप जलाया। फिर चक्रधारी भरत रानाने चक्रको तीन प्रदनिणा दी और गुरु-भावनासे वह सात पाठ कदम पीछे हटा । जैसे हमको कोई न्नेही मनुष्य नमस्कार Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [२८१ करता है वैसे, उसने बायाँ घुटना सिकोड़ दाहिना घुटना जमीन पर रख, चक्रको नमस्कार किया। फिर मानो रूपंधारी हर्षही हो वैसे पृथ्वीपतिने वहीं रहकर चक्रका अष्टाहिका उत्सव किया। कारण- 'पूजितः पूज्यमानो हि केन केन न पूज्यते ?" [पूज्य जिसकी पूजा करते हैं उसकी पूजा कौन नहीं करता ?] (१-१३) फिर उस चक्रके दिग्विजयरूप उपयोगको ग्रहण करनेके लिए भरत राजाने मंगलस्नानके लिए स्नानागारमें प्रवेश किया। आभूषण उतार, नहाने लायक कपड़े पहन,महाराज पूर्वकी तरफ मुँह कर स्नानसिंहासन (नहानेकी चौकी) पर बैठे। तब मालिश । करने और न करने लायक स्थानको और मालिशकी कलाको जाननेवाले संवाहक (मालिश करनेवाले) पुरुषोंने देववृक्षके पुष्पके मकरंद (फूलोंके रस) के समान सुगंधित सहस्रपाक तेलसे महाराजके शरीरपर मालिश की। मांस, हाड़, चाम और रोमको सुख पहुँचानेवाली चार तरहकी मालिशसे और मृदु,मध्य और दृढ़ ऐसे तीन तरहके हस्तलाघव(हाथकी सफाई) से उन्होंने राजाके शरीरपर अच्छी तरह मालिश की; फिर उन्होंने आदर्श की तरह अम्लान (स्वच्छ) कांतिके पात्ररूप उस महिपतिके सूक्ष्म दिव्य चूर्णका उबटन लगाया। उस समय ऊँची नालके कमलोंवाली सुंदर वापिकाके समान सुशोभित कई स्त्रियाँ जलसे भरे सोनेके घड़े लेकर खड़ी हुई; कई स्त्रियाँ, मानों जल धनरूप होकर कलशका आधार रूप हुआ हो ऐसे दिखाई देनेवाले, घाँदीके कलश लेकर खड़ी थीं, कई खियोंने अपने सुन्दर हाथोंमें Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग ४. लीलामय (खेलते हुए) नीलकमलकी भ्रांति पैदा करनेवाले इंद्रनीलमणिके बड़े लिए.थे और कई सुभ्र (मुन्दर भौहोवाली) वालाोंने अपने नखरत्नकी कांतिरूपी जलसे अधिक शोमावाले दिव्य रत्नमय कुंम लिए थे। इन सभी स्त्रियोंने देवतास जिनेंद्रको स्नान कराते हैं वैसे अनुक्रमसे सुगंधित और पवित्र जलधारासे धरणीपतिको स्नान कराया। स्नान करके राजाने दिव्य विलेपन कराया, दिशाओंकी चमके समान उनले कपड़े पहने, और ललाटपर मंगलमय चंदनका तिलक किया, वह यशरूपी वृक्षका नवीन अंकुर नान पड़ता था। आकाश जैसे बड़े ताराओंके समूहको धारण करता है वैसेही अपने यशपुंजके समान उजाले मोतियोंके श्राभूषण उसने पहने। और कलशसे जैसे प्रासाद (महल) शोमता है वैसेही, अपनी किरणोंसे, सूर्यको लजानेवाले मुकुटसे, वह शोभित हुआ। वारांगनाओंके करकमलोंसे बार बार हलते हए और कानों के लिए श्रामयणके समान बने हुए दो चामरोंसे वह विराजने (शोमने लगा)। लक्ष्मीक सदनलप (घरके समान कमलाको धारण करनेवाले पन्न हदसे (कमलोंके सरोवरसे) जैसे चूलहिमवंत नामका पर्वत शोमता है वैसेही सोनेक कलशवाले सफेद छत्रसे वह मुशोमित होने ल सदा पासही रहनेवाले प्रतिहार (दरवान) हो वेस सोलहजार यन अक्त बनकर उसके आस-पास तमा हो गए । फिर इंद्र जैसे ऐरावण हाथीपर सवार होता है वैसेही, ऊँचे भस्थल के शियरसे दिशाम्पी मुखको ढकनेवान रत्नकुंजर - नामक हार्थीपर वह सवार हुअा। नत्कालही उत्कट (बड़ी) मदकी घागासे दूसरे मेधके समान मालूम होनेवाले उस Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भरत चक्रवर्तीका पत्तांत ... [२८३ - जातिवंत हाथीने गंभीर गर्जना की। मानों आकाशको पल्लवित करते हों वैसे दोनों हाथ ऊँचे कर बंदीवृंदने (चारणोंके समूहने) एक साथ जय-जय शब्दका उच्चारण किया। जैसे वाचाल गायक पुरुष अन्य गानेवालियोंको गवाता है, वैसेही दुदुभि ऊँची आवाजसे दिशाओंसे नाद कराने लगा। और सभी सैनिकोंको बुलानेके काममें दूतरूप बने हुए दूसरे मंगलमय श्रेष्ठ बाजे भी बजने लगे। धातुसहित पर्वत हों वैसे, सिंदूर धारण करनेवाले हाथियोंसे, अनेक रूप बने हुए रेवंत अश्वों (सूर्यके घोड़ों) का भ्रम करानेवाले अनेक घोड़ोंसे, अपने मनोरथके समान विशाल रथोंसे, और सिंहोंको वशमें किए हों वैसे पराक्रमी प्यादोंसे अलंकृत महाराजा भरतेश्वरने, मानो वे सैनाके (पैरोंसे) उड़ती हुई धूलिसे दिशाओंको दुपट्टेवाली बनाते हों वैसे, पूर्व दिशाकी तरफ प्रयाण किया । (१४-३६) उस समय आकाशमें फिरते हुए सूर्यके बिंब जैसा, हजार यक्षों द्वारा अधिष्ठित ( सेवित) चक्ररत्न सेनाके आगे चला। दंडरत्नको धारण करनेवाला सुषेण नामका सेनापतिरत्न अश्वरत्न पर सवार हो चक्रकी तरह आगे चला। शांति करानेकी (अनिष्टोंको मिटानेकी) विधिमें देहधारी शांतिमंत्र हो वैसा पुरोहितरत्न राजाके साथ चला। जंगम अन्नशालाके समान और सेनाके लिए हरेक मुकाम पर उत्तम भोजन उत्पन्न करने में समर्थ गृहपतिरत्न; विश्वकर्माकी तरह शीघ्रही स्कंधावार (सेनाके लिए रस्तेमें रहनेकी व्यवस्था) करने में समर्थ वर्द्धकिरत्न और चक्रवर्तीकी स्कंधावार (छावनी) के प्रमाण (लंबाई, चौड़ाई पौर ऊँचाई) के अनुसार विस्तार पानेकी (फोटा पड़ा होनेकी) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र; पर्व १. सर्ग ४.. शक्तिवाले चर्मरत्न और छत्ररत्न-ये सब महाराजके साथ चले। अपनी ज्योतिसे, सूरज और चाँदकी तरह अंधकारका नाश करनेमें समर्थ मणि और कांक्रिणी नामके दो रत्न भी चने; और मुरों व असुरोंके श्रेष्ठ अन्नोंके सारसे बनाया गया हो ऐसा प्रकाशित खड्गरत्न नरपति के साथ चलने लगा । (४०-४७) सेना सहित चक्रवर्ती भरतेश्वर प्रतिहारकी तरह चक्र के पीछे पीछे चला । उस समय ज्योतिषियोंकी तरह अनुकूल पवनने और अनुकूल शकुनोंने सब तरहसे उसके दिग्विजयकी सूचना दी। किसान जैसे इलसे जमीनको समान करता है वैसे सेनाके आगे चलते हुए मुपेश सेनापति दंडरत्नसे आसमान रस्तोंको समान करता नाता था। सेनाके चलने से उड़ी हुई रजसे दुर्दिन (धूलिपूणे) बना हुआ श्राकाश रथों और हाथियोंपर उड़ते हुए पताकाम्पी बगुलोंसे सुशोमित होता था। जिसका अंतिम भाग दिखाई नहीं देता ऐसी चक्रवर्तीकी सेना निरंतर बहनेवाली, दूसरी-गंगा नदी मालूम होती थी ! दिग्वि"यके उत्सवक लिए, रथ चीत्कार शब्दोंसे, घोड़े हिनहिनाइटसे और हाथी गर्जनायोंसे, आपसमें शीघ्रता करने लगे थे। सेनासे रज उड़ती थी, तो भी सवारोंके माने उसमें चमक रहे थे वे मानो ढकी हुई सुरजकी किरणांका परिहास कर रहे थे। सामानिक देवताओंसे घिरे हुए इंद्रकी तरह मुकुटधारी और भक्तिवान रानात्रास घिरा हुआ रानकुंजर(राजाओंमें श्रेष्टोमरत बीचमें शोमता था। चक्र पहले दिन एक योजन चलकर रुक गया। तभीसे उस प्रयापक अनुमानस योजनकी नापचली हमेशा एक एक योजन चलते हए राजा भरत कई दिनों बाद गंगाके दक्षिण किनारक Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [२५ नज़दीक जा पहुंचे। महाराजाने गंगातटकी विस्तृत भूमिको भी,.. अपनी सेनाकी जुदा जुदा छावनियोंसे, संकुचित बनाकर उस.. पर विश्राम किया। उस समय गंगातटकी जमीन, बरसातके मौसमकी तरह हाथियोंके भरते मदसे पंकिल (कीचड़वाली.) हो गई। मेघ जैसे समुद्रसे जल ग्रहण करता है, वैसे गंगाके निमल प्रवाहमेंसे, उत्तम हाथी इच्छापूर्वक जल ग्रहण करने लगे। अति चपलतासे बार बार कूदते हुए घोड़े, गंगातटमें तरंगोंका भ्रम पैदा करने लगे; और बहुत मेहनतसे गंगाके अंदर घुसे हुए हाथी, घोड़े, भैंसे और ऊँट, उस उत्तम सरिताको, चारों तरफसे नवीन जातिकी मछलियोंचाली बनाने लगे। अपने तटपर रहे हुए राजाको मानो अनुकूल होती हो वैसे गंगानदी अपनी उछलती हुई तरंगोंकी बूंदोंसे सेनाकी थकानको शीघ्रतापूर्वक मिटाने लगी। महाराजाकी बड़ी सेनासे सेवित गंगानदी शत्रुओं की कीर्तिकी तरह क्षीण होने लगी। भागीरथी (गंगा) के किनारे उगे हुए देवदारुके वृक्ष सेनाके हाथियों के लिए, बिनाही मेहनतके बंधन-स्थान हो गए। (४८-६५) महावत हाथियों के लिए पीपल, सल्लकी (चीड़), कर्णिकार (कनेर) और उदुंबर (गूलर) के पत्तोको कुल्हाड़ियोंसे काटते थे अपने ऊँचे किए हुए कर्णपल्लवोंसे (कानरूपी पत्तोंसे ) मानो तोरण बनाते हों वैसे पंक्तिरूप बँधे हुए हजारों घोड़े शोभते थे। अश्वपाल ( साईस) भाईकी तरह मूंग, मोठ, चने और जो वगैरा लेकर घोड़ोंके सामने रखते थे। महाराजाकी छावनी में अयोध्यानगरीकी तरह थोड़ेही समयमें चौक, तिराहे और दुकानों की पंक्तियाँ हो गई थीं। गुप्त, बड़े और मोटे कपड़ेके Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र पर्व १. सर्ग ४, सुंदर तंबुओंमें अच्छी तरहसे रहते हुए सेनाके लोग अपने महलोंको भी याद नहीं करते थे। खेजड़ी, ककंधु (वेर) और वत्थूल (केर) के समान काँटेदार वृक्षोंको छूटनेवाले (टहनियों और पत्चोंको खानेवालेॐट सेनाके काँटे चुननेवाले हों ऐसे मालूम होते थे। स्वामीके सामने नौकरोंकी तरह खच्चर गंगाके रेतीले तीरपर अपनी चाल चलते और लोटते थे। कई श्रादमी लकड़ियाँ लाते थे, कई नदीसे पानी लाते थे, कई दूबके बोमे लाते थे और कई शाक फलादि लाते थे। कई चूल खोदते थे, कई शालि कूटते थे, कई श्राग जलाते थे, कई भात पकाते थे, कई घरकी तरह एक तरफ निर्मल जलसे स्नान करते थे,कई सुगंधित धूपसे शरीरको धूपित करते थे, कई पदातियोंको (प्यादोंको) पहले भोजन कराकर खुद बादमें आरामसे भोजन करते थे और कई त्रियोसहित अपने अंगपर विलेपन करते थे। चक्रवतीकी छावनी में सभी चीजें श्रासानीसे मिल सकती थीं इसलिए कोई अपनेको फौजमें श्राया हुआ मानता न था। (६६-७७ ) भरत एक दिन-रात रहकर सवेरेही वहाँसे विदा हुए और उस दिन भी एक योजन चलनेवाले चक्रके पीछे एक योजन चले । इस तरह हमेशा एक योजन प्रमाणसे चक्रके पीछे चलनेवाला चक्रवर्ती मागधतीर्थ पहुंचा। वहाँ पूर्व समुद्रके तटपर महाराजाने छावनी डाली । वह वारह योजन लंबी और नीयोजन चौड़ी थी। बद्धकी रत्नने वहाँ सारी सेनाके लिए श्रावास (मकान) बनाए। धर्मरूपी हाथीकी शालारूप पौपधशाला भी मनाई। केसरीसिंह जैसे पर्वतसे उतरता है वैसेही महाराजा भरत पापयशालामें रहनकी इच्छासे हाथीसे उतरे । संयमरूपी Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ... भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [२८७ साम्राज्य लक्ष्मीके सिंहासन जैसा दर्भका नया संस्तार (विस्तर) चक्रवर्तीने वहाँ विछवाया। उन्होंने हृदयमें मागधतीर्थ कुमारदेवको धारण कर सिद्धिका आदि द्वाररूप अष्टम भक्त (अट्ठमतीन उपवासका ) तप किया। बादमें निर्मल वस्त्र धारण कर, अन्य वनों, फूलोंकी मालाओं और विलेपनका त्याग फर, शत्रोंको छोड़, पुण्यका पोषण करने में दवाके समान पौषधव्रत ग्रहण किया। अव्ययपद (मोक्ष) में जैसे सिद्ध रहते हैं वैसे दर्भके विस्तरपर पौषधव्रती महाराज भरत जागते हुए और क्रियारहित होकर रहे। अष्टमतपके अंतमें पौषधव्रतको पूरा कर शरद ऋतुके बादलोंमेंसे जैसे सूरज निकलता है वैसे अधिक कांतिवान भरत राजा पौषधागारमेंसे निकले और सर्व अर्थको (सिद्धिको) पाए हुए राजाने स्नान करके बलिविधि की। कारण 'यथाविधि विधिज्ञा हि विस्मरंति विधिं न हि ।" . यथार्थ विधिको जाननेवाला पुरुप कभी विधिको नहीं भूलते। ] (७८-८८) फिर उत्तम रथी राजा भरत पवनके समान वेगवाले और सिंहके समान धीरे घोड़े जिसमें जुते हैं ऐसे सुंदर रथपर सवार हुआ । वह रथ चलता हुआ प्रासादसा मालूम होता था। उसपर ऊँची पताकाओंवाला ध्वजस्तंभ था। शस्त्रागारकी तरह अनेक तरहके शस्त्रोंसे वह सजा हुआ था । उस रथपर चारों तरफ चार घंटे बंधे हुए थे। इनकी आवाज मानों चारों दिशाओंकी विजयलक्ष्मीको बुला रही थी। तत्कालही, इंद्रके सारथी मालतीकी .. तरह, राजाके भावोंको जाननेवाले सारथीने लगाम खींची और - घोड़ोंको हाँका राजा भरत दूसरे समुद्रकी तरह समुद्र किनारे Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] त्रिषष्टि शन्नाचा पुन्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. आया । इस (समुद्र) में हाथी गिरि(बादल) ये, बड़ी बड़ी गाड़ियाँ मकर (मगर ) नमूह या, अश्वोंको चपल चालें तरंगें थीं, विचित्र . शन्न भयंकर सप थे, जमीनसे नीही रन बेला (किनारा) यी और रयोंकी आवाज गर्जना थी। फिर मछलियोंकी आवाजसे जिस जलकी गर्जना बढ़ गई है उस समुद्र में चक्रवर्तन रथ. को, उसली नामि (धुरी)बक जलमें चलाया। एक हाय अनुप के बीच में और दूसरा हाय कोनेपर, चिल्ला चढ़ानेकी बगह रखकर चिल्ला चढ़ाया। पंचमीके चाँदका अनुसरण करनेवाला घनुपा श्राकार बनाया और प्रत्यंचाको (चिनेको) नरा। खींचकर धनुषकी टंकार की; यह धनुर्वेदकं श्राद्य (शुक्र) ओंचारमी मालूम हुई। उसने माम अपने नाम से अंकित एक चाण खींचा। वह पानालस निकन्तत हुप मर्पके समान माळून हुअा। सिंह कानोसी मुट्ठी में उसने शत्रुओं के लिए वनइंडके समान पाएको पकड़कर, उस पिछले मागको चिल्डंपर रखा। मोनेके कानोंक-श्राभूषणन्य और कमलनालकी उपमानो धारण करनेत्राने उस बाणको क्वीन कानों नकलींचा। महीपति (राजा) के नवरत्नांस, फैजनी हुई किरणोंसे, वह बाण मानो अपने महोदरोंस घिरा हुआ हो ऐसा मालूम होता था। वित्र हुए धनुष अंतिम भागनें रहा हश्रा बह चमकता बाण, मौन खुन हुए मुंहने लपलपानी जीमची लीलाको धारण करता था। उस अनुपमडलो भागमें रह हुए मध्यलोकपाल भरत राजा, अपन मंडल रह हर सुरनकी तरह महा दाना भयंकरः) मालूम होते। ( -१०३) ___ उन समय लवणसमुद्र यह सोचकर दुश्य हृया कि यह Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [२८९ राजा मुझे स्थानभ्रष्ट करेगा अथवा मेरा निग्रह करेगा-मुझे दंड देगा। भरत चक्रवर्तीने, बाहर, वीचमें, अगली व पिछली नोकपर नागकुमार ,असुरकुमार और सुवर्णकुमारादि देवताओंसे अधिष्ठित (रक्षित), दूतकी तरह आज्ञाकारी और दंडके अक्षरोंसे भयकर, वारणको मगधतीर्थ के अधिपतिपर चलाया। पंखोंकी बहुत बड़ी फड़फड़ाहटसे श्राकाशको शब्दायमान करता हुआ (गुंजाता हुभा) वह बाण गरुड़के समान वेगसे चला । राजाके धनुपसे निकला हुआ वह बाण ऐसे शोभने लगा जैसे मेघसे निकलती हुई बिजली, आकाशसे गिरते हुए. तारेकी आग, आगसे उड़ती हुई चिनगारियाँ, तपस्वीसे निकलती तेजोलेश्या, सूर्यकांतमणिसे प्रकट होती हुई आग और इंद्रके हाथ से छूटता हुआ शोभता है। क्षणभरमें बारह योजन समुद्रको लॉपकर वह बाण मगधपतिकी सभामें जाकर ऐसे पड़ा जैसे छातीमें वाण लगता है। मगधपति उस असमयमें सभागे बाणके आकर गिरनेसे इस तरह गुस्से हुए जिस तरह लकड़ी लगनेसे साँप गुस्से होता है। उसकी दोनों भ्रकुटियाँ भयंकर धनुपकी तरह चढ़कर गोल हो गई; उसकी आंखें दहकती पागके समान लाल हो.. उठी; उसकी नाक धोंकनीके समान फूलने लगी और उसके ओंठ साँपके छोटे भाई हों ऐसे फूत्कार करने लगे। आकाशमें धूमकेतु. की तरह ललाटपर रेखाओंको चढ़ा, सपेरा जैसे सर्पको उठाता है वैसे अपने दाहिने हाथमें शस्त्र उठा, अपना बायाँ हाथ शत्रके कपालकी तरह आसनपर पछाड़, विपज्वालाके समान पाणीमें वह बोला,-(१०४-११५) - "अपनेको वीर समझनेवाला और न माँगने लायक वस्तु. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. को माँगनेवाला वह कौन कुबुद्धि पुरुप है लिसने मेरी समामें वाण फेका है ? वह कौन ऐसा पुरुष है जो ऐरावण हाथीके दाँत..को तोड़ कर उससे कानका नेवर बनाना चाहता है ? वह कौन - पुरुष है जो गमड़के पंखोका मुकुट धारण करना चाहता है ? वह . कोन है जो शेषनागके मस्तकपर रही मणि-मालाको लेनेकी चाह रखता है ? सूर्यके घोड़ेको हरनेकी इच्छा रखनेवाला वह कौन ऐसा पुरुष है कि जिसके घमंडको में, गरुड़ जैसे साँपकी जान लेता है वैसे, चूर-चूर कर ऐसा कहकर मगधाधिप एकदम उठग्बड़ा हुआ। बाँवीमेंसे सर्पकी तरह उसने न्यानसे तलवार ग्वींची और अकाशमें, धूमकेतुका भ्रम पैदा करनेवाली, उस तलवारको घुमाने लगा। उसका सारा परिवारमी कोपकी अधिकनासे इस तरह उठ खड़ा हुआ जिस तरह हवा वेगसे) समुद्रमें तरंगें उठती हैं। कई अपनी तलवारोंसे श्राकाशको काली विजलीकेसमान और कई अपने चमकते वसुनंदासे (हथियारोंसे आकाशको अनेक चंद्रमाांवाला बनाने लगे। कई मानके दाँतोंसे बने हुए हों ऐसे तेज भालांको चारों तरफ उछालने लगे, और कई अागक्री जीभकी बहिनके समान परशुओंको (कुल्हाड़ियोंको) घुमाने लगे। कई राहुके समान भयंकर भागवाले मुद् गरोंको पकड़ने लगे; कई वनकी धारकं समान तीखें त्रिशूलोंको और कई यमराजके दंडके समान प्रचंड दंडाको उठाने लगे। कई शत्रुका विस्फोट (नाश) करने के कारणरूप अपनी भुजाएँ ठोकने लगे और कई मेघनादकी तरह ऊँची आवाजमें सिंहनाद करने लगे। कई 'मारों! मारो!' पुकारने लगे और कई 'पकड़ों! पकड़ो !' कहकर चिल्लाने लगे। कई 'ठहरो ठहरो !' कहने लगे Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भरव चक्रवर्तीका वृत्तांत [२६१ और कई 'चलो! चलो ! बोलने लगे। इस तरह मगधपतिका सारा परिवार कोपसे अनोखी अनोखी चेष्टाएँ करने लगा। फिर अमात्य (वजीर ) ने भरत राजाके बाणको उठाकर अच्छी तरह देखा । उसे उसपर मंत्राक्षरोंके समान उदार और सारवाले नीचे लिखे अक्षर दिखाई दिए । (११६-१२६) -- "सुर असुर और नरोंके साक्षात ईश्वर श्रीऋषभदेव स्वामी के पुत्र भरत चक्रवर्ती तुमको आज्ञा देते हैं कि तुम अंगर अपने राज्य और जीवनको सुरक्षित चाहते हो तो, अपना सर्वस्व हमारे पास रखकर हमारी सेवा करो।" (१३०-१३१) इन अक्षरोंको देख,मंत्रीने अवधिज्ञानसे विचार और जानकर वह वाण स्वामीको और सबको बताया और उच्च स्वरमें कहा, "हे (मिथ्या साहस करनेवाले, अर्थबुद्धिसे अपने स्वामीका अनर्थ करनेवाले और इस तरह अपने आपको स्वामीभक्त माननेवाले सभी राजाओ! तुम को धिक्कार है। इस भरतक्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामीके पुत्र भरत राजा प्रथम चक्रवर्ती हुए हैं। वे हमसे दड माँगते हैं और इंद्रकी तरह प्रचंड शासनवाले वे हम सभीको अपनी प्राज्ञामें रखना चाहते हैं। इस भूमिपर शायद समुद्रका शोपण किया जा सके, मेरुपर्वत उठाया जा सके, यमराजका नाश किया जा सके; जमीन उलटी जा सके,वज्ञका चूर्ण किया जासके और वडवाग्नि वुझाईजासके, मगर चक्रवर्ती को नहीं जीता जा सकता। इस लिए हे राजन! अल्पवुद्धिवाले इन लोगोंका खयाल न कर दंड (भेट) लेकर चक्रवर्तीको नमस्कार करने चलिए।" (१३२-१३८) गंधहस्तिके मदको सूंघकर जैसे दूसरे हाथी शांत हो जाते Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष १. सर्ग ४. है वैसे मंत्रीकी बात सुनकर और वाणपर अंकित अक्षरोंको देखकर मगधपति शांत हो गया। फिर वह वाण और भेट लेकर भरत राजाके पास आया और प्रणाम करके बोला, "हे पृथ्वीपति ! कमलिनीकी पर्वणी (पूर्णिमा) के चंद्रमाकी तरह भाग्यसे मुझे आपके दर्शन हुए हैं। भगवान ऋपभदेव जैसे प्रथम तीर्थकर होकर पृथ्वीपर विजय पा रहे हैं वैसेही आप भी पृथ्वी पर प्रथम चक्रवर्ती होकर विजयी हों। जैसे ऐरावण हाथीका कोई प्रतिहस्ति ( उसके समान दूसरा हाथी) नहीं होता, वायुके समान कोई बलवान नहीं होता और आकाशसे अधिक कोई माननीय नहीं होता वैसेही आपकी समता करनेवाला कोई नहीं हो सकता। कानों तक खिंचे हुए आपके धनुपसे निकले हुए बाणको कौन सह सकता है ? मुझ प्रमादीपर कृपा करके आपने मुझे अपना कर्तव्य बतानेके लिए छड़ीदारकी तरह यह बाण भेजा, इससे हे नृपशिरोमणि ! आजसे मैं आपकी आज्ञाको शिरोमणिकी तरह मस्तकपर धारण करूँगा। आपके द्वारा नियुक्त किया गया में, पूर्वदिशाके आपके जयस्तंभकी तरह, निष्कपट भक्तिसे इस मगधतीर्थमें रहूँगा। यह राज्य, यह सारा परिवार, मैं खुद और दूसरा लो कुछ भी है, वह सभी आपका है। आप मुझे अपना सेवक समझकर आज्ञा दीजिए।" (१३६-१४८) ऐसा कहकर उसने वाण, मगधतीर्थका जल, मुकुट और दो कुंडल भेट किए। भरत राजाने उन वस्तुओंको स्वीकारकर मगधपतिका सत्कार किया। कहा है- ' ......"महातो हि सेवोपनतवत्सलाः।" Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [२१३ मिहान लोग सेवाके लिए झुके हुए मनुष्यपर कृपाही करते हैं। फिर इंद्र जैसे अमरावतीमें जाता है वैसेही चक्रवर्ती रथको घुमाकर ( जिस मार्गसे आए थे) उसी मार्गसे वापस अपनी छावनी में चले गए। रथसे उतर, स्नान कर परिवार सहित उन्दोंने अट्टमका पारणा किया। बादमें (सेवककी तरह) झुके हुए मगधपतिका भी चक्रवर्तीने चक्रकी तरहही बड़ी धूम-धामसे वहाँ अष्टाहिका उत्सव किया । उत्सव समाप्त होनेपर, मानों सूर्यके रथमेसे निकलकर पाया हो ऐसे तेजसे तीक्ष्ण चक्र आकाशमें चला और दक्षिण दिशामें वरदामतीर्थकी तरफ बढ़ा। (व्याकरणमें) प्र-प्रादि उपसर्ग जैसे धातुके पीछे चलते हैं वैसेही चक्रवर्ती भी चक्रके पीछे चला । (१४-१५५ ) हमेशा एक योजन-मात्र चलते हुए क्रमसे चक्रवर्ती दक्षिण समुद्रपर ऐसे पहुँचा जैसे राजहंस मानसरोवर पर पहुँचता है। इलायची, लोंग, चिरोंजी और कक्कोल (एक फलदार वृक्ष) वृक्षोंवाले दक्षिण सागरके किनारे नपतिने सेनाकी छावनी डाली। महाराजकी आज्ञासे वर्द्धकिरत्नने पूर्व समुद्रके तटकी सरहही यहाँ भी निवासस्थान और पौषधशाला बनाए । राजाने वरदामतीथके देवको हृदयमें धारण कर अहम तप किया और पोपधागारमें पौपधत्रत ग्रहण किया। पौषध पूरा होनेपर पौषधघरमेंसे निकलकर धनुप धारण करनेवालोंमें अग्रणी चक्रवर्ती कालपृष्ठ (धनुष)ग्रहण कर सोनेके बने, रत्नोंसे जड़े और जयलक्ष्मीके निवासगृहके समान रथमें सवार हुआ। देवसे जैसे प्रासाद (मंदिर ) शोभता है वैसेही सुंदर श्राकृतिवाले '. १-महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्णके धनुपका नाम भी कालपृष्ठ' था। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पत्र १. सर्ग ४. महाराजाके बैठनेसे रथ शोमने लगा। अनुकूल पवनसे चपत धनी हुई पताकाओंसे श्राकाशको मंहित करता हुया वह उत्तम रथ जहाजकी तरह समुद्रमें चला। रथको नामि (धुरी ) तक समुद्रके जल में लेजाकर सारथीने घोड़ोंकी लगाम खींची, घोड़े रके और रय ठहर गया । फिर श्राचार्य जैसे शिष्यको नमाते हैं (नम्र बनाते हैं) बैसेही पृथ्वीपतिने धनुपको मुकाकर चिल्ला घढ़ाया। संग्रामरूपी नाटककं श्रारंभ मुत्रधारकं समान वया कालके आह्वानके लिए मंत्र के समान, धनुषका टंकार किया। ललाटपर क्रीहुई तिलकलक्ष्मीको चुरानेवाला बाण मासे निकाला, धनुयपर चढ़ाया और चक्रालय बने हुए घनुपके मध्यभागमें धुरीका भ्रम पैदा करनेवाले उस वागाको महाराजाने कान तक लौंचा। कान तक बिचा हुया बाग मानों महारानसे पूछ रहा था कि बताइए में क्या कर ? फिर महागाजाने उस बांग्एको वरदामपति की तरफ चला दिया। श्राकाशमें प्रकाश करते हुए जानेवान्ने उस बयाको पर्वतोन वनक्री भ्रांतिसे, सपनि रहते हुए गनड़की भ्रांतिसे और समुद्रने वडवानलकी भ्रांतिसे भयके साथ देखा । बारइयोजन होकर वह बाण चिजलीकी तरह जाकर वरदामपतिकी सभामें गिरा | शत्रुक भेजे हुए धानककी तरह उस बाणको गिरते देख बरदामपति नाराज हुया और उचलते हुए समुहकी तरह उभ्रांत प्रकुटिम तरंगित हो उत्कट (कटोर) वाणीमें बोला, (१५६-१७३ ) "अरे यह कौन है जिसने ठोकर लगाकर इस सोते हुए ...सिंहको जगाया है। श्रान मौतने क्रिमका पत्रा खोला है ? कोद्दीकी तरह पाज किसे अपने जीवन में गग्य हुभा है कि Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [२६५ जिसने साहस करके मेरी सभामें बाण फेका है। इसी बाणसे मैं इस बाणको फेकनेवाले के प्राण लूँगा।" __उसने क्रोधके साथ बाणको उठाया । मगधपतिकी तरहही वरदामपतिने भी चक्र बाणपर लिखे हुए अक्षर पढ़े। उन अक्षरोंको पढ़कर वह इसी तरह शान्त हो गया, जिस तरह नागदमन औषधसे सप शांत हो जाता है। वह बोला, "अहो ! मेंढक जैसे काले साँपको तमाचा मारनेके लिए तैयार होता है, वकरा जैसे अपने सींगोंसे हाथीपर प्रहार करनेकी इच्छा करता है, हाथी जैसे अपने दाँतोंसे पर्वत गिराने की इच्छा करता है, वैसेही मैं मंदबुद्धि भरत चक्रवर्तीसे युद्ध करनेकी इच्छा करने लगा।' फिर उसने यह सोचकर अपने आदमियोंको उपायन(भेट) लानेकी आज्ञा की कि अब तक भी कुछ नहीं बिगड़ा है। वह अनेक तरहकी भेटें लेकर, इंद्र जैसे ऋपभध्वजके पास जाता है वैसेही, चक्रवर्ती के पास जानेको रवाना हुश्रा। वहाँ जाकर उसने चक्रवर्तीको नमस्कार किया और कहा, "हे पृथ्वीके इंद्र ! आपके दूनके समान आए हुए बाणके बुलानेसे मैं यहाँ पाया हूँ। आप खुद यहां आए हैं, तो भी मैं स्वतः आपके सामने नहीं आया, 'मुझ मूर्खके इस दोपको क्षमा कीजिए। कारण,"निहते दोपमज्ञता।" [अज्ञानता दोपको ढक देती है।] हे स्वामी ! जैसे थकेहुए श्रादमीको विश्रामस्थान मिलता है, और प्यासे आदमीको जैसे भरा सरोवर मिलता है, वैसेही मुझ स्वामीहीनको आपके समान स्वामी मिले हैं। हे पृथ्वीनाथ ! समुद्रपर जैसे वेलाधर पर्वत रहता है वैसेही, मैं भाजसे Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] त्रिषष्टिं शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. आपके रखे हुए ( मनुष्यकी तरह ) आपकी श्रान्नामें रहूँगा।" ऐसा कहकर वरनामपनिने उस वाणको भरतके सामने ऐसे रखा जैसे कोई किसी धरोहरको उसके सामने रखवा है, मानों सूरजकी क्रांनिसट्टी गुंथा हुआ हो वैसा अपनी क्रांतिसे दिशामुम्बको प्रकाशित करना हुआ एक रत्नमय कटिसूत्र (कदोरा), ओर मानों यशका नमूह हो ऐसा चिरकालसे संचित किया हुआ मोतिबांका समूह उसने भरत राजाको भेट किए। इसी तरह जिसकी उज्ज्वल कांति प्रकाशित हो रही है ऐसा और मानो रत्नाकरका सर्वत्र हो ऐसा एक रत्नसमूह भी उसने भरतको भेट किया । सब चीजें स्वीकार कर मरतन वरदामपतिको अनुग्रहीत किया और मानों अपना कीर्तिकर हो ऐसे उसे वहाँ स्थापित किया (मुर्रिर किया, फिर कृपापूर्वक वरदामपतिको विदा कर विजयी भरतेश अपनी छावनी में प्राया। (१७४-१२) रथसे उत्तर, स्नान कर, उस राजचंद्रन परिजन सहित, अट्टम तपा पारणा किया और फिर वहाँ बरदामपतिकाअष्टाहिका उत्सव किया। कारण, 'लोके महत्वदानाय महंत्यात्मीयमीश्वगः ।" [स्वामी, लोगोंमें सन्मान कराने के लिए अपने आत्मीयजनोंका सत्कार करते हैं ।[ (१६३-१४) फिर पराक्रममें द्वितीय इंद्रके समान चक्रवर्ती भरद चक्रके पीछे पीछे पश्चिम दिशा में प्रभासतीर्थकीतरफ चले । सेनासे उड़ती हुई धूलिके द्वारा आकाश और जमीनको भरते हुए कई दिनोंके बाद वे पश्चिम समुद्रपर आपहुँचे। उन्होंने पश्चिम समुद्रके किनारे Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [२६७ - छावनी डाली । किनारेकी भूमि सुपारी, तांबूल और नारियलके पेड़ोंसे भरी हुई थी। वहाँ प्रभासपतिके उद्देश्यसे भरतने अष्टम भक्तका(तीन उपवासका तप किया और पहलेहीकी तरह पौषधालयमें पौपध लेकर बैठ।पौपधके अंतमें मानो दूसरा वरुण हो ऐसे चक्रीने रथमें बैठकर समुद्र में प्रवेश किया। रथको पहियोंकी धुरी तक जलमें लेजाकर खड़ा किया और धनुपपर चिल्ला चढ़ाया। फिर जयलक्ष्मीके लिए क्रीडा करनेकी बीणारूप धनुपकी लकड़ीकी, तंत्रीके समान प्रत्यंचाको ( चिलेको ) अपने हाथसे उच्च स्वरमें शब्दायमान किया ( बजाया) । सागरके किनारे खड़े हुए उनके वृक्षके समान भाथेमेंसे वाण निकाल, उसे धनुपके आसनपर इस तरह रखा जैसे आसनपर अतिथिको बिठाते हैं। सूर्यविमेंसे खींचकर निकाली हुई किरणकी तरह बाणको प्रभासदेवकी तरफ चलाया। वायुके समान वेगसे बारह योजन समुद्रको लाँघ, माकाशको प्रकाशित करता हुआ वह बाण प्रभासपतिकीसभामें जाकर गिरा। बाणको देखकर प्रभासेश्वर नाराज हुआ; मगर उसपर लिखे हुए अक्षरोंको पढ़कर वह दूसरे रसको प्रकट करनेवाले नटकी तरह, तुरंत शांत हो गया। फिर वाण और दूसरी भेटें लेकर प्रभासपति-चक्रवर्ती के पास आया और नमस्कार करके इस तरह कहने लगा, "हे देव ! आप, स्वामीके द्वारा भासित (प्रकाशित) किया गया मैं आजही वास्तविकरूपसे प्रभास (पाया हूँ प्रकाशित हुआ हूँ) कारण, कमल सूर्यको किरणोंहीसे कमल' होता १-कंजलं; अलन्ति भूपयति : दांतं कमलानि । जलको जो सुशोभित करता है, उसे कमल करते हैं। . Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] निषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. . है। हे प्रभो ! मैं पश्चिम दिशामें, सामंत राजाकी तरह रहकर सदा पृथ्वीपर शासन करनेवाले आपकी आज्ञा रहूँगा।" यो कहकर पहले चलाया हुआ बाण,युद्ध-विद्याका अभ्यास करनेके मैदानमें चलाए गए वाणोंको वापस लाकर देनेवाले नौकरकी तरह, प्रभासेश्वरने भरतको भेट किया; उसके साथही अपने मूर्तिमान तेजके समान कड़े, कंदोरा, मुकुट, हार और दूसरी कई चीजें और संपत्ति भी भेट की । उसको श्राश्वासन देने के लिए भरतन ये सभी चीजें स्वीकार की । कारण "प्रभोः प्रासादचिह्न हि प्राभृतादानमादिमम् ।" [स्त्रामीका अपने नौकरकी भेट स्वीकार करना, स्वामीकी प्रसन्नताका प्रथम चिह्न है। फिर जैसे क्यारी में पौधा रोपा जाता है वैसेही प्रभासेश्वरको वहाँ स्थापित कर वह शत्रुनाशक नपति अपनी छावनी में पाया। कल्पवृक्षकी तरह गृहीरत्नके द्वारा तत्कालही तैयार किए गए भोजनसे उसने अहमका पारणा किया। फिर प्रभासदेवका अष्टाहिका उत्सव किया । कारण, "आदी सामंतमात्रस्याप्युचिताः प्रतिपत्तयः ।" [भारंभमें अपने सामंतका भी आदर करना उचित है। . (१९५-२१४) • जैसे दीपकके पीछे प्रकाश चलता है वैसेही, चक्रके पीछे चलते हुए चक्रवर्ती, समुद्र के दक्षिण तटके नजदीक सिंधु नदीके किनारं आ पहुँचा। उसके किनारे किनारे पूर्वक्री तरफ चलकर . सिंधुदेवीके सदनके पास उसने छावनी डाली । वहाँ उसने अपने मनमें सिंधुदेवीका स्मरण करके अट्टम तप किया। इससे Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [२६ पवनके द्वारा उठाई हुई तरंगोंकी तरह सिंधुदेवीका आसन कंपित हुआ । अवधिज्ञानसे चक्रवर्तीको पाया जान बहुतसी दिव्य भेटें लेकर वह उनकी पूजा-सत्कार करने सामने भाई। देवीने आकाशमें रह 'जय ! जय !' शब्दके द्वारा असीस देकर कहा, "हे चक्री ! मैं आपकी सेविका होकर यहाँ रहती हूँ। आप प्राज्ञा दीजिए, मैं उसका पालन करूँ. फिर उसने मानों लक्ष्मीदेवीके सर्वस्त्र हों ऐसे और मानों निधान (खजाने) की संतति हों ऐसे रत्नोंसे भरे हुए एकहजारआठ कुंभ; मानों प्रकृतिकी तरहही कीर्ति और जयलक्ष्मीको एक साथ बैठानेके लिए हो ऐसे रत्नोंके दो भद्रासन; शेषनागके मस्तकपर रहनेवाली मणियोंसे बनाए हुए हों ऐसे प्रकाशमान रत्नमय बाहुरक्षक (भुजबंध); मानों वीचमें सूर्यविंवकी कांतिको बिठाया हो ऐसे कड़े और मुट्ठीमें समा जाएँ ऐसे सुकोमल दिव्य वस्त्र चक्रवर्तीको भेट किए । सिंधुराज ( समुद्र ) की तरह इनने सब चीजें स्वीकार की और मधुर बातचीतसे देवीको प्रसन्न कर विदा किया। फिर पूनोंके चाँदके समान सोनेके वासनमें भरतने अट्ठम तपका पारणा किया और वहाँ देवीका अष्टाहिका उत्सव कर चक्रके बताए हुए मार्गसे आगे प्रयाण किया। (२१५-२२६) उत्तर और पूर्व दिशाओंके बीच में (ईशानकोनमें) चलते हुए वे अनुक्रमसे दो भरताद्धों के बीच में सीमाकी तरह रहे हुए वैताव्यपर्वतके पास जा पहुंचे। उस पर्वतके दक्षिण भाग पर, मानों कोई नया द्वीप हो इस तरह, लंबाई-चौड़ाईसे सुशोभित छावनी यहाँ डाली गई। वहाँ पृथ्वीपतिने अट्टमतप किया, Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३.०] निघष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. इसलिए वैताल्याद्रिकुमारका श्रासन कपित हुआ | उसने. अवधिनानसे जाना कि भरतक्षेत्र में यह प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है। उसने पा श्राकाशमें स्थित रह कहा,"हे प्रभो! आपकी जय हो। मैं आपका सेवक हूँ , इसलिए मुझे जो कुछ प्राज्ञा देनी हो दीजिए।" फिर मानों बड़ा भंडार खोला हो ऐसे कीमती रत्न, रत्नोंके अलंकार, दिव्यवन और प्रताप-संपत्तियोंके क्रीडा-स्थलके समान भद्रासन उसने चक्रवर्तीको भेंट किए। पृथ्वीपतिने उसकी सारी चीजे स्वीकार की। कारण, "अलुब्धा अपि गृहति, भृत्यानुग्रहहेतुना ।" [निर्लोभी स्वामी भी, नौकरोंपर मेहरबानीके लिए, उनकी भेट स्वीकार करते हैं। फिर महाराजने उसे बुला, उसका अच्छी तरह आदर-सत्कार कर, उसे विदा किया। कहा है "महांतो नावजानंति नृमात्रमपि संश्रितम् ।" [ महापुरुष अपने प्राश्रित सामान्य पुरुषकी भी अवज्ञा नहीं करते हैं।] अट्ठमतपका पारणा कर भरतने वहाँ बताव्यदेवका अवाहिका उत्सव किया। (२२७-२३६) वहाँसे चक्ररत्न तमित्रा गुफाकी तरफ रवाना हुआ। राना मी पदान्वयी (पदचिहाँको खोज करनेवाले ) की तरह उसके पीछे चले। अनुक्रमसे वे तमिन्नाके पास पहुँचे । वहाँ उन्होंने फोनकी छावनी हाली छावनीक खेमे ऐसे मालूम होते थे मानों विद्याधरोक नगर वैतास्य पर्वतसे नीचे उतरे हैं। उस गुफाके अघिष्टाता कृतमाल देवका मनमें स्मरण कर, भरतने Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [ ३०१ अट्ठमतप किया । देवका आसन कंपित हुआ। उसने अवधिज्ञानसे चक्रवर्तीका आना जाना। वह बड़ी मुदतके वाद आए हुए गुरुकी तरह, चक्रवर्तीरूपी अतिथिकी पूजा करने आया और बोला, "हे स्वामी ! इस तमिस्रागुफाके दरवाजेपर मैं आपके द्वारपालकी तरह रहा हूँ।" यों कहकर उसने भूपतिकी सेवा अंगीकार की, और स्त्रीरत्नके योग्य अनुत्तम (जिनके समान उत्तम दूसरे नहीं ऐसे ) चौदह तिलक और दिव्य आभूषणोंका समूह चक्रवर्तीके भेट किया। उनके साथही, पहलेसे महाराजाके लिएही रख छोड़ी हों ऐली उनके योग्य मालाएँ और दिव्य वस्त्र भी अर्पण किए। चक्राने उन सभी चीजोंको स्वीकार किया। कारण, ...........'कृतार्था अपि भूभुजः । न त्यजति दिशोदंड चिह्न दिग्विजयश्रियः ॥" [कृतार्थ राजा भी दिग्विजयकी लक्ष्मीके चिहरूप दिशादंडको दिशाओंके मालिकोंसे मिली हुई भेटको-नहीं छोड़ते हैं। अध्ययनके अनमें उपाध्याय जैसे शिष्यको छुट्टी देता है वैसेही भरतेश्वरने उसे बुला, उसके साथ बड़ी कृपाका व्यवहार कर, विदा किया। पीछे भरतने मानो जुदा पड़े हुए अपने अंश हों ऐसे और पृथ्वीपर पात्र रख, हमेशा साथ बैठकर भोजन करनेवाले हों ऐसे, राजकुमारोंके साथ पारण किया। फिर कृतमालदेवका अष्टाहिका उत्सव किया। कहा है कि - . "प्रभवः प्रणिपातेन गृह ताः किं न कुर्वते ।" [नम्रता दिखानेसे जो अपनालिए जाते हैं, उनके लिए स्वामी क्या नही करते हैं ?] (२३७-२४७) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ३०३ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. दूसरे दिन महाराजाने सुपेण नामक सेनापतिको बुलाया और इंद्र जैसेनेगमेपी देवताको आज्ञा करता है वैसे, उसे प्राज्ञा की, "तुम चर्मरत्नसे सित्रु नदी उतरकर सिंधु, समुद्र और वैताठ्यपर्वतकं बीचमें श्राप हुए दक्षिणमिधुनिष्कुट (सिंधुके दक्षिण किनारेवाले बगीचे के समान प्रदेश) को जीतो और बेरके फलकी तरह, वहाँरहनेवाले म्लेच्छ लोगोंको आयुध रूपी लकड़ीसे माड़कर चर्मरत्नके पूण फलको प्राप्त करो।" सुपेण सेनापतिन चक्रवर्तीकी आज्ञा मानी। वह मानों वहींका जन्मा इबा हो ऐसे, जल-स्थलके ऊँचे नीचे सभी भागांम, दूसरे किलों में तथा दुर्गम स्थानों में जानेवाले सभी मागाँसे परि चित था, म्लेच्छ भाषाका जानकार था, सिंहके ममान पराक्रमी था, सूर्यके समान नजम्बी था, बृहम्पतिके जैसा बुद्धिमान था और सभी लक्षणोंसे युक्त था। वह नत्कालही अपने ढरेपर आया। उसने मानों अपनही प्रतिबिंब ही ऐसे सामंत राजाओंको चलनेकी आज्ञा दो। फिर वह स्नान कर. बलिदान दे, पर्वतके समान ऊँचे गजरत्नपर सवार हुआ। उस समय उसने थोड़े मगर बड़े कीमतां प्राभूषण पहने थे, कवच धारण किया था, प्रायश्चित्त और कोतुकमंगल किया था, इसी तरह और रत्नांका दिव्य हार धारण किया था; वह ऐमा मालूम होता था, जयलक्ष्मीने उसके गले में अपनी मुज-लता डाली है। पट्टहस्तिकी तरह वह पटेके चिह्नसे शोभता था। उसकी कमरपे मृतिमती शक्तिके समान एक क्षुरिका (कटार) थी; उसकी पीठपर सरल आकृतिबाले और सोनके बने हुए मुन्दर दो भाये थे, वे ऐसे लान पड़ते थे, मानों पीटेकी तरफसे भी युद्ध करने के लिए दो Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत : [३०३ बैंक्रिय हाथ हैं । वह गणनायकों, दंडनायकों, सेठों, सार्थवाहों, (कारवाँके नेताओं, संधिपालों और नौकरों आदिसे युवराजकी तरह घिरा हुआ था। उसका अग्रासन (सम्मानका स्थान) ऐसा निश्चल था, मानों वह आसनके साथही जन्मा हुआहो। श्वेत छत्र और चामरोंसे सुशोभित उस देवोपम सेनापतिने अपने पैरके अँगूठेसे हाथीको चलाया। चक्रवर्तीकी आधी सेनाके साथ वह सिंधुके किनारे गया। सेनासे उड़ती हुई रजसे वह किनारा ऐसा बन गया मानों वह वहाँ सेतुबंध कर रहा है (पुल बाँध रहा है), सेनापतिने अपने हाथसे चमेरत्नको-जो बारह योजन तक बढ़ सकता है, जिसमें सवेरे चोया हुआ नाज साँमको उग आता है और जो नदी, झील, और समुद्रको पार करने में समय होता हैस्पर्श किया। स्वाभाविक प्रभावसे उसके दोनों किनारे फैले। सेनापतिने उसे उठाकर जलमें तेलकी तरह रखा । फिर रस्तेकी तरह वह सैना सहित उसपर चलकर नदीके दूसरे किनारे गया। (२४८-२६६) . सिंधुके दक्षिणके सभी प्रदेशोंको जीतनेके लिए वह प्रलयकालके समुद्रकी तरह वहाँ फैल गया । धनुपक निर्धोपसे (शब्दसे ) दारुण और युद्धमें कौनूहुली-उसने कुतूहल (खेल) में ही सिंहकी तरह सिंहल लोगोंको जीत लिया; बर्बर लोगोंको खरीदे हुए गुलामोंकी तरह अपने आधीन किया और टंकणों को घोड़ों की तरह राजचिह्नोंसे अंकेत किया। जलरहित रत्नाकरके समान रत्न-माणिक्यसे भरे हुए यवनद्वीपको उस नरकेसरीने खेलही खेलमें जीत लिया। उसने कालमुख जातिके म्लेच्छोंको जीत लिया, इससे वे भोजन न करते हुए भी मुंहमें उँगलियाँ रानने Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्य१. सर्ग. लंगे। उसकें फैलने से जोनक नामके न्लेच्छ लोग, वायुले वृक्षकी नरह, परांगमुन्य होगा (हार गए)। गागड़ी (सपेरा) जैसे सब तरह के सपोंको वश में कर लेता है, वैसेही उसने बताध्यपर्वतके श्रालयाम प्रदेशों में रहनवान्न म्नच्छोंकी सभी जातियोंको जीन लिया । ( २६७-२३) प्रौढ प्रताप अनिवार्य प्रसास्वान उस सेनापतिने वहाँसे आगे चलकर, मूरज जैसे मार श्राकाशमें फैल जाता है वैसेही, कच्छदंशकी सारी भूमिका पात्रांन कर लिया (बीन लिया)। सिंह जैसे सारं जंगलको दवा देना है, वैसही वह सारे निछुट प्रदेशीको दबाकर कच्छकी समतलमूनिमें स्वस्थ होकर रहा। जैसे पनि पास त्रियाँ आती है बैलही, म्लेच्छदेशों के राजा मत लेकर भक्तिसहित सेनापतिक पास याने लगे। किसीन स्वर्णगिरिक शिवर. जितने रत्नोंक दर दिए, कल्यॉन चलवेफिरत विंध्य पर्वतक बैंस हाथी दिए, कइयॉन सूर्यक घोड़ोंको भी नाँच जानेवाले बाई दिए और कईयान अंजनसे बनाए हुए देवताओंके याक नस रय दिया दुसरी मी नोलो सारभूत पीने थी वे ममी उन्होंने उनको भेट की | कहा है कि"गिरिम्यापि मरित्कृष्टं रत्न रत्नारे ब्रजेन् ।" पिवंत नहीं हार निका गए रत्न मी रत्नाकर (समुद्र) मेंही जान हैं।] इस तरह में अर्पण कर उन्होंन सेनापतिसे कहा, "श्रान हम आपश्रादापालकहोश्राप नोंकरकी तरह यहाँ रहेगा सेनानीन सबको यथोचित सत्कार देकर, बिदा किया। फिर पाप जैसे पाया था बैनही मुन्नस सिंधुके पार चला गया। कीर्तिरुपी बड़ी (लता) के दोइद, के समान म्लेच्छोंसे Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३.५ . भेटमें आई हुई सभी चीजें सेनापतिने चक्रीको भेट की । कृतार्थ । चक्रीने सेनापतिको, आदरपूर्वक सत्कार कर सीख दी। वह • खुशी-खुशी अपने डेरेपर गया । (२७४-२५३) यहाँ भरत राजा अयोध्याकी तरहही सुखसे रहता था, कारण, सिंह जहाँ जाता है वहीं उसका स्थान होता है। एक दिन उसने सेनापतिको बुलाकर आज्ञा दी, "तमिस्रा गुफाके दरवाजे खोलो।" सेनापतिने इस आज्ञाको मालाकी तरह मस्तकपर चढ़ाया। आर वह जाकर तमिस्राकी गुफाके बाहर ठहरा । तमिसाके अधिष्ठाता देव कृतमालका स्मरण करके उसने अष्टम तप किया । कारण. ...... सर्वास्तपोमूला हि सिद्धयः। [सभी सिद्धियोंका मूल तप है। अर्थात तपसेही सभी सिद्धियाँ मिलती हैं। फिर सेनापति स्नान कर, श्वेत वस्त्ररूपी पंखोंको धारण कर, सरोवरमेंसे जैसे राजहंस निकलता है वैसे, स्नानागारमेंसे निकला और सुन्दर नीले कमलके समान सोनेकी धूपदानी हाथमें लेकर तमिलाके द्वारपर आया। वहा के किवाड़को देखकर उसने पहले प्रणाम किया। कारण "महांतः शक्तिवतोऽपि प्रथम साम कुर्वते ।" [शक्तिवान महान पुरुप पहले साम नीतिका प्रयोग करते हैं। वहाँ वैताव्य पर्वत पर फिरती हुई विद्याधरोंकी स्त्रियोंको संभन करने (रोकने ) के लिए दवाके समान महद्धिक (महान शक्ति देनेवाला) अष्टाहिका उत्सव किया, और मांत्रिक ( मंत्र जाननेवाला) जैसे मंडल बनाता है वैसेही सेनापतिने वहाँ अखंड .२० Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. मर्ग ४. चावलांसे अष्ट मांगलिक बनाए। फिर वह इंद्रके वनकी तरह शत्रयोंका नाश करनेवाला, चक्रवर्तीका दंडरत्न अपने हाथ में लेकर विवाहापर.प्रहार करने के लिए मात-पाठ कदम पीछे इटा। कारगा: "मनागपसरत्येत्र प्रजिद्दीघुर्गजोपि हि ।" [हाथी भी प्रहार करनेकी इच्छासे कुछ पीछे हटता है।] फिर सेनापतिन वचरत्नमें किवाड़ोंपर श्राघात किया और बाजकी नरह उस गुफाको गुँजा दिया। तत्कालही, वैताठ्यपर्वतके अच्छी तरह मुंद हुए नेत्रांक समान मजबूती से बंद वनके बने हुए वे कपाट ( किंवाड़) खुल गए । दंडक श्राघातसे खुलते हम उन किवाड़ास ऐसी भावान पा रही थी, मानों व रो रहे है। उत्तर दिशा भरतखंडको जीतन लानके लिए मंगलरूप उन किंवा किन्तुलनकी बात सेनापनिन जाकर चक्रवर्ती से कही। इससे इन्तिग्नपर सवार होकर महान पराक्रमी महारानाने चंद्रमाक्री तरह मिना गुफामं प्रवेश किया। (पर-२६) प्रवेश करत समय नरपतिन, चार अंगुल प्रमाणवाला और सूर्यके समान प्रकाशमानमगिरत्न ग्रहण किया। एक हजार यनांस वह अविष्टित था अयान एक हजार. यक्ष उसकी सेवा करते थे। उस रत्नको सरपर चोटीकी नरहवाँध लेनेसे, नियंच, मनुध्य और देवताओंका उपसर्ग (उत्यात ) नहीं होता। फिर उस रख्न प्रमावस, (मुरनसे) अंधकारकी तरह, समी दुःख नष्ट हो जाते है और.शत्र श्राघातकी तरह सारे रोगमी नष्ट हो जाते हैं। मानक ऋतशपर जैसे मोनका ढक्कन लगाते हैं वैसे उम रिपुनाशक गजान वह रत्न हाथोंके दाहिन कुंभमयलपर Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत ... [३०७... - - रखा। पीछे चलती हुई चतुरंग सेना सहित, चक्रका अनुसरण करनेवाले, केसरी सिंहकी तरह गुफामें प्रवेश करनेवाले नरकेसरी चक्रीने, चार अंगुल प्रमाणवाला दूसरा कांकिणीरत्न भी ग्रहण किया। वह सूरज, चाँद और पागके समान कांतिवाला था। उसका आकार अधिकरणीके समान था । हजार यक्ष उसके अधिष्ठित(रक्षक) थे। पाठ सोनयाके समान उसका प्रमाण था। उसमें छः पत्ते थे, बारह कोने थे, नीचेका भाग समतल था। वह मान, उन्मान और प्रमाण-युक्त था। उसके आठ कर्णिकाएँ (पखुड़ियाँ) थीं। बारह योजन तकका अँधेरा दूर करने में वह समर्थ था । गुफाके अंदर दोनों तरफ एक एक योजनपर, गोमूत्रिकाके आकारसे (यानी एक दाहनी तरफ और दूसरा बाई तरफ) कांकिणीरत्नके द्वारा मंडल बनाते हुए चक्रवर्ती चलने लगे। हरेक मंडल पाँचसौ धनुप विस्तारवाला और एक योजन में प्रकाश करनेवाला था। इन मंडलोंकी संख्या उनचास थी। जब तक महीतलपर कल्याण करनेवाले चक्रवर्ती जीवित रहते हैं तवतक गुफाके किवाड़ खुले रहते हैं। (३००-३१०) - चक्रके पीछे चलनेवाले, चक्रवर्तीके पीछे चलनेवाली, उसकी सेना मंडलके प्रकाशमें वेरोक आगे बढ़ने लगी। चक्रवर्तीकी चलती हुई सेनासे वह गुफा, जैसे असुरादिकी सेनासे रत्नप्रभाका मध्यभाग शोभता है वैसे, शोभने लगी। मथानीसे जैसे मथनीमें आवाज होती है वैसेही, चलते हुए चक्र चमूसे (चक्र और सेनासे ) वह गुफा गूंजने लगी। अनरौंदा गुफाका रस्ता रथोंके पहियोंसे लीक वाला होनेसे और घोड़ोंके खुरोंसे उसके कंकर उखड़ जानेसे वह नगरके रस्ते जैसा हो गया। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] निषष्टि शलाका पुरुष-बरित्रः पर्व १. मर्ग १. मेनाके लोगोंसे बह गुफा लोकनालिका की तरह निरवीनत्वको प्राप्त हुई (टेदी-मढ़ी हो गई)। क्रमश: चक्रवती नमिलागुफा मध्यभागमें, नीचेके कपड़क ऊपर रहनेवाली ऋटिमेखला (कंदोग के समान, उनमगना और निमग्ना नामकी दो नदियोंकि भूमीप पहुँचे । व नदियों ऐसी मालूम होती थीं मानों तिण और उत्तर, भरनाम श्रानेवाले लोगों के लिए नदियों के यहान वैनाट्यपर्वतन दो श्राद्वानग्या बनाई है। उनकी इनमगनामें पत्थरकी शिला भी नवाकी तरह नेरती है और निमगनामें नवी मी पन्थरकी नरहन जानी है। वे दोनों नदियाँ मित्रगुफाकी पूर्व दीवारम निकलना है और पश्चिम दीवारमें होकर सिंधु नदी में मिल जाती है। उन नदियोयर, बार्द्धकी रत्ननं एक अच्छा पुल बनाया ! घट्ट पकांनमें बैनाट्यछुमारदेवकी विशाल शेवा समान मान्नुम होना था। बाकी रत्नन इणसर में बह घुल नंग्रार कर लिया, कारणा, गहाकार. कल्पवृक्षके नितना समय भी उसको नहीं लगता है। उन पुलपर पत्थर इस तरह जई हायक हमारा पुल एकट्टी पत्थरका माम होता था। उसकी जमीन हायक समान समतल श्रीर बम सुमान मजबूत होने यह पुन्त गुफ्ता किवाड़ोंसे बना हयामा जान पड़ता था। उन दुन्दर नदियाँको चक्रवर्ती, सेना महित हम दुह, श्रागमम पार कर गया जैसे पैदल चलनवाला (माफ रतको) पार करता है। सेनाके साथ चलते हुए महाराज, अनुमडे उत्तर दिशा मुम्ब समान गुफाक उत्तरद्वारके पास श्रा पहुँचे। इस दाना किंवा, मानो दहिगा द्वारक किंवाड़ा. की धायान सुनकर हर गए हो चले, अपने पाप नत्कानही Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्ताव [३६ खुल गए। उन किंवाडोसे जो सर-सर की आवाज निकली वह मानों सेनासें जानेकी बात कह रही थी। गुफाके ( दरवाजेके पास ) दीवारोंसे चिपककर किंवाड़ खड़े थे, वे ऐसे मालूम होते थे मानो वहाँ वे पहले कभी नहीं थीं ऐसी अगलाएँ हैं । फिर सूरज जैसे बादलों से निकलता है ऐसे पहले चक्रीके आगे चलनेवाला चक्र गुफामेंसे निकला। उसके पीछे पृथ्वीपति भरत ऐसे निकले जैस पातालके विवरमेंसे वलींद्र ,एक इंद्र) निकलता है। फिर विंध्याचलकी गुफाकी तरह उस गुफामेंसे निःशक लीलायुक्त गमन करते (भूमते) हुए हाथी निकले। समुद्रमंसे निकलते हुए सूयके घोड़ोंका अनुसरण करनेवाले सुंदर घोड़े अच्छी चालसे चलते हुए निकले। धनाढ्य लोगोंकी रथशालाओंमेंसे निकलते हों ऐसे अपने शब्दोंसे गगनको [जाते हुए रथ निकले और स्फटिकमणिके बिलोंमेंसे जैसे सर्प निकलते हैं ऐसेही वैताव्यपर्वतकी उस गुफाके मुखमेंसे बलवान प्यादे भी निकले (३११-३३४) __ इस तरह पचास योजन लंबी गुफाको लौंपकर महाराजा भरतेशने, उत्तर भरतार्द्धको विजय करनेके लिए उत्तर खंडमें प्रवेश किया। उस खंडमें 'आपात' जातिके अति मत्त भील बसते थे। मानों भूमिपर दानव हों ऐसे वे धनवान, बलवान और तेजस्वी थे। उनके पास अपरिमित बड़ी बड़ी हवेलियाँ थीं, शयन, (विस्तर) आसन व वाहन थे और चांदी-सोना था; इनसे वे कुबेरकं गोत्रवाले हों ऐसे जान पड़ते थे। उनके कुटुंब घड़े बड़े थे, उनके पास बहुतसे दासी दास थे और देवताओंके बगीचेकी वृक्षोंकी सरह कोई उनका पराभष (नाश) नहीं कर - Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] . त्रिषष्टि शलाका पुग्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. सकता था। बड़े शकुट ( छकड़े ) का भार खींचनवाले बड़े बैलांची तरह वे सदा अनेक जड़ाइयोंने अपने बलका उपयोग करते थे । नत्र भरतपतिन जबर्दस्ती यमराजकी तरह उनपर चढाई की नत्र, उनको अनिष्ट की सूचना करनेवाले, अनेक उयात होने लग । चलती हुई चक्रवर्तीची सेना भारसे दुखी हुई हो ऐसे घरों के बीचोंचो हिलानी हुई जनीन काँपने लगी। चवर्तीक दिशाओं में फैले हुए महान प्रतापसे हों ऐसे, दिशायामें दावानल ममान श्राग जलने लगी | उड़ती हुई बहुत अधिक वृद्धि दिशाएँ पुग्विणी (रजस्वला) वियोंकी तरह नहीं देखने लायक हो गई। क्रूर और कर्णदु शब्द करनेवाले मगर जैन समुद्र में लड़ते-टऋगत है वैसे बुट पवन परस्पर टकराते हुए बढ़ने लगे। बलदी हुई नशानों की तरह सभी लच्छ वाघोंओ हरानेवाला, यानाश सकापात होने लगा। क्रोबसे उठकरमानों नीनपर, हाथ पछाड़ रहा होगेसी डरावनी धावाजवानी विजलियाँ चमकने लगी और मानों मृत्युलक्ष्मीक छत्र हाँ ऐसे चीलों और कीयांक नमूह आकाश जहाँ तहाँ उड्न लगे। (३३५-३४७) ___उन तरफ मान कवच, चुल्हाड़ी और भालोंके पलोंकी किरणों यात्राशन रहनवान्नेहनारकिरणोंबाने सूरजको करोड़ किरणोंवाला बनानवान्ने ग्इंड इंड,वनुष और मुद्गरोस आकाश को बड़े बड़े दाँतोंवाला बनानेवाले, वनाओंमें बनी हुई वायों, सिंहों और साँपोंकी नन्बागेस आकाशमें फिरनेवाली बंबरी वियाँको डरानेवाले, और बड़े बड हाथियोंरूपी बादलोस दिशायो मुन्द्रमागको अंधकारपूर्ण ऋग्नवाने भरत राजा श्रागे Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत - [३११ 'बढ़ने लगे। उनके रथके अगले भागपर बने हुए मगरोंके मुँह यमराजके मुंहकी स्पर्धा करते थे। वे घोड़ोंके खुरोंके आघातोंसे । मानों जमीनको तोड़ते हों और जयके बाजोंपर गिरते आघातों से मानों आकाशको फोड़ते हों ऐसे मालूम होते थे; और आगे चलनेवाले मंगलके तारेसे जैसे सूरज भयंकर लगता है वैसेही आगे चलनेवाले चक्रसे भरत भयंकर लगते थे।(३४८-३५१३) उनको आते देख भील लोग बहुत नाराज हुए और कर ग्रहोंकी मित्रताका अनुसरण करनेवाले वे सव जमा हो गए और मानों चक्रवर्तीका हरण करनेकी इच्छा रखते हों ऐसे वे क्रोध के साथ कहने लगे, “साधारण आदमीकी तरह लक्ष्मी, लाज, धीरज और कीर्ति-रहित यह कौन पुरुप है जो अल्पबुद्धि बालककी तरह मौतकी इच्छा करता है! जिसकी पुण्य चतुर्दशी क्षीण . हुई है (अर्थात वदी चौदसके चौदकी तरह जिसका पुण्य क्षीण हो गया है) ऐसा और लक्षणहीन यह, ऐसा जान पड़ता है कि, मृग जैसे सिंहकी गुफामें जाता है वैसेही, हमारे देशमें आया है। महा पवन जैसे बादलोंको छिन्न-भिन्न कर देता है वैसेही उद्धत आकारवाले इस फैलते हुए पुरुषको हम दशों दिशाओंमें (छिन्न भिन्न करके) फेक दें।" । इस तरह जोर जोरसे बातें करते हुए वे, शरभ (अष्टापद नामका पशु ) जैसे मेघके सामने गर्जता और दौड़ता है वैसेही, भरतके साथ युद्ध करनेकी तैयारी करने लगे। किरातपतियोंने, कछुओंकी पीठोंकी हड़ियोंके टुकड़ोंसे बने हुए हों ऐसे, अभेद्य कवच पहने, सरोंपर खड़े केशोंवाले, निशाचरोंकी शिरलक्ष्मीको बतानेवालें रीछोंके बालोंवाले शिरस्त्राण उन्होंने धारण किए। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. .. - लड़ाईकी उमंगमें उनके शरीरं ऐसे फूलने लगे कि उससे उनके कवचोंके तार टूटने लगे। उनके खड़े केशोंवाले सरॉपरसे शिर खाण सरक जाते थे; ऐसा जान पड़ता था, मानों मस्तक दुखसे कह रहे थे कि हमारी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। कई क्रोध में आए हुए किरात, यमराजकी भ्रकुटीके समान टेढ़े और सींग. के वनाए हुए धनुप आसानीसे चढ़ाकर, धारण करने लगे, कई मानों जयलक्ष्मीकी लीलाकी शैया हो ऐसी रणमें दुर्वार और भयंकर तलवारें म्यानोंसे खींचने लगे; कई यमराज के छोटे भाई. के जैसे दंडोंको ऊँचे उठाने लगे; कई धूमकेतुकी तरह भालोंको पाकशमें नचाने लगे; कई रणोत्सवोंमें आमंत्रित प्रत राजाओंको प्रसन्न करने के लिए, मानों शत्रुओंको शूलपर चढ़ाना हो ऐसे, त्रिशूल धारण करने लगे; कई शत्रु रूपी चिड़ियोंके प्राण लेनेवाले बाज पर्व की तरह लोहेके शल्य हाथों में लेने लगे और कई, मानों आकाशके तारोंको तोड़ना चाहते हों ऐसे, अपने उद्धत हाथ से तत्काल मुद्गर फिराने लगे। इस तरह लड़ाई करने की इच्छ.से सबने तरह तरह के हथियार बाँधे। एकभी आदमी विना हथियारका न था। युद्धरसकी इच्छावाले वे, मानों एक आत्मावाले हों ऐसे, सभी एक साथ भरतकी सेनापर । चढ़ पाए । ओले गिरानेवाले प्रलयकालके मेघकी तरह, शस्त्रोंकी वर्षा करते हुए म्लेच्छ, भरतकी सेनाक अगले भागके साथ जोरोंसे युद्ध करने लगे। मानों पृथ्वीमसे, दिशाओंके मुखसे और आकाशसे पड़ते हों वैसे चारों तरफसे हथियार गिरने लगे। दुर्जनकी उक्तिसे जैसे सभीमें भेद हो जाता है ऐसेही भरतकी सेनामें कोई ऐसा न रहा जो भीलोंके याणसे मिदान . Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . भरत पक्रवर्तीका वृत्तांत ..... [३१३ हो । म्लेच्छ लोगोंके आक्रमणसे चक्रवर्तीके अगले घुड़सवार, समुद्रकी लहरोंद्वारा नदीके अगले भागकी लहरोंकी तरह पीछे हटें और घबरा उठे। म्लेच्छरूपी सिंहोंके बाणरूपी सफेद । नाखूनोंसें, घायल हुए चक्रवर्तीके हाथी, दुखी स्वरमें चिंघाड़ने लगे। म्लेच्छ वीरोंक प्रचंड दंडायुद्धके द्वारा बार बार किए गए । आघातोंसे,भरतकी पैदल सेनाकं लोग गेंहकी तरह उछल उछल: कर गिरने लगे। वज्राघातसे पर्वतोंकी तरह, यवनसेनाने गदा-प्रहारसे चक्रवर्तीकी अगली सेनाके रथोंको तोड़ दिया। संग्रामरूपी सागरमें, तिमिंगल जातिके मगरोंसे जैसे मछलियोंका समूह अम्त (पीड़ित होता है वैसेही म्लेच्छ लोगोंसे चक्रवर्तीकी सेना ग्रस्त और त्रस्त हुई। ( ३५१७-३७७ ) अनाथकी तरह हारी हुई अपनी सेनाको देख, राजाकी प्राज्ञाकी तरह, गुम्सेने सेनापति सुषेणको उत्तेजित किया। उसके नेत्र और मुँह लाल सुर्ख हो गए और क्षणभरमें वह मनुष्यके रूपमें साक्षात भागके समान दुनिरीक्ष्य (जिसकी तरफ देखा न जा सके ऐसा) हो उठा। राक्षसपतिकी तरह वह सभी दूसरोंकी सेनाका ग्रास करनेके लिए तैयार हो गया। शरीरमें उत्साह आनेसे उसका सोनेका कवच बंदी कठिनतासे पहना गया और वह ऐसा चुस्त बैठा कि दूसरी चमड़ीसा मालूम होने लगा। कवच पहनकर साक्षात जयके समान वह सुषेण सेनापति कमलापीड़ नामके घोड़े पर सवार हुआ। उस घोड़ेकी ऊँचाई अस्सी अंगुल, उसका विस्तार निन्यानवे अंगुल और लंबाई एकसौआठ अंगुल थी। उसका सर सदा मत्तीस अंगुल. की ऊँचाईपर रहता था। उसके माहू (अगले पैर) चार अंगुलके Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] त्रिषष्टिशक्षाका पुरुष- चरित्रः पर्व १. सर्ग ४ थे; उसकी जाँघें सोलह अंगुलकी थीं, उसके घुटने चार अंगुल - • के थे और उसके खुर चार अंगुल ऊँच थे। उसका मध्यभाग गोलाकार और झुका हुआ था; उसकी पीठ विशाल, जरा झुकी दुई और खुशी पैदा करनेवाली थी; उसके रोम रेशमके सूतके समान कोमल थे; उसके शरीर में श्रेष्ठ बारह श्रावर्त (मँवरियाँ) थे; उसमें सभी अच्छे लक्षण थे और उसकी कांति अच्छी तरहसे जवानी में आए हुए तोते के पंखोंसी हरी थी । उसको कभी चाबुक लगा न था; वह हमेशा सवारकी इच्छा के अनुसार चलाता था । रत्न और स्वर्णमय लगामके बहाने, लक्ष्मीने अपने दोनों हाथ उसके गज्ञेमें डाले हों, ऐसा जान पड़ता था । उसपर सोनेकी माला खनन आवाज कर रही थी, इससे मालूम होता था कि मधुरध्वनिवाले मधुकरोंसे सेवित कमलीको मालासे वह पूजा गया है । उसका मुख ऐसा मालूम होता था मानों यह पाँचरंगी मणियोंसे मिले हुए सोने के गहनोंकी किरणों द्वारा पताकाओं के चिह्नोंसे अंकित है। मंगलके नारेसे मंडित प्रकाशकी तरह सोनेके कमलका उसके ललाटपर तिलक था और उसके पहने हुए चामरोंके आभूषणोंसे बह ऐसा शोभता था मानों उसने दूसरे कान धारण किए हैं। बहू, चक्रवर्ती के पुण्यसे विकराए हुए, सूर्यके श्रवा नामक घोड़ेसा सुशोभित होरहा था। उसके पैर टेढ़े गिरते थे इससे वह खेलता हुश्रासा जान पड़ता था। उसमें एक क्षण सौ योजन लॉध लानेकी शक्ति थी; इससे वह साक्षात गरुड़ या पवन मालूम होना था। वह कीचड़, जल, पत्थर-कंकर और खाले विग्रम : महास्थलको स्थानको और पहाड़, गुफा वगैरा दुर्गम स्थल Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . . . [ ३१५. को पार कर जानेकी ताकत रखता था।..चलते समय उसके.. पैर भूमिपर बहुतही कम गिरते थे, इससे जान पड़ता था कि ... वह आकाशमें उड़ रहा है। वह बुद्धिमान और नम्र था। पाँच : तरहकी गतिसे उसने श्रमको जीता था । उसका श्वास कमलके समान सुगंधवाला था। (३७७-३६५) ऐसे घोड़ेपर सवार होकर सेनापतिने यमराजकी तरह . खगरत्न ग्रहण किया । यह शत्रुओंके लिए पत्र ( मृत्युपत्र ) के समान था। खड्ग पचास अंगुल लंबा, सोलह अंगुल विस्तृत (चौड़ा) और आध अंगुल मोटा था। उसका सोनेका म्यान रत्नोंसे मढ़ा हुआ था। वह म्यानसे बाहर निकाला हुभा था, . इससे काँचलीसे मुक्त सर्पके समान मालूम होता था। उसकी धार तेज थी। वह मानों दूसरा वज्ज हो ऐसा मजबूत था और विचित्र कमलोंकी श्रेणीके समान दिखाई देनेवाले रंगोंसे वह शोभता था। इस खङ्गको धारण करनेसे वह सेनापति ऐसा जान पड़ता था, मानों वह पंखोंवाला अहींद्र (शेषनाग) हो या . कवचधारी केसरी सिंह हो । आकाशमें चमकती हुई बिजलीकी चपलतासे खङ्ग घुमाते हुए उसने अपने घोड़ेको रणभूमिकी । तरफ दौड़ा दिया। वह, जलकांतमणि जैसे जलको चीरती है ऐसे, रिपुदलको चीरता हुआ रणभूमिमें जा पहुंचा। (३६६-४०१) सुषेणके आक्रमणसे कई शत्रु मृगोंकी तरह व्याकुल हो गए; कई जमीनपर पड़े हुए खरगोशकी तरह आँखें बंद करके बैठ गए; कई रोहित मृगकी तरह थके हुए-से वहीं खड़े हो रहे और कई बंदरोंकी तरह दुर्गम स्थानों में जा बैठे। कइयोंके हथियार.पेड़के .. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] निपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. पचेकी तरह जमीनपर गिर गए, कईयोंके छत्र, यशकी तरह भूमिसात हो गए. कइयोंके घोड़े मंत्रसे स्थिर किए हुए सपांकी तरह स्थिर हो रहे, और कइयोंके रथ इस तरह टूट गए मानोंचे मिट्टीके बने हुए थे। कई अपरिचितोंकी तरह इधर उधर भाग गए। वे अपने आदमियोंके अनिकी राह भी न देख सके। सभी ग्लेच्छ अपने प्राण लेकर दशों दिशाओं में भाग गए। पानीकी बाढ़से जैसे वृक्ष बिचकर बह जाते हैं ऐसही सुपेणरूपी जलकी वादसे म्लेच्छ, बहकर चले गए। फिर वे कौओंकी तरह एक जगह जम. हो, थोड़ी देर सोच-विचार कर, आतुर बालक जैसे माताके पास जाते हैं ऐसेही महानदी पिधुके पास आए, और मृत्यु-स्नान करतंको तैयार हुए हों ऐसे, बलुके समूह के बिस्तर पिछाकर उनपर बैठे। वहाँ उन्होंने नग्न ऊँचे मुँह कर मेघमुख वगैरा नागकुमार जातिके अपने कुलदेवताका मनमें ध्यान कर अट्ठम तप किया। अट्टम तप श्रतमें मानों चक्रीके चक्रसे डर लगा हो ऐसे नागकुमार देवताओंके आसन कापे। अवधिज्ञानसे मच्छ लोग को दुबी देख, पिता संतान के दुःखसे दुखी होता है ऐसे दुखी हो वे उनकेसामने आकर प्रकट हुए और आकाशमें रहकर उनसे उन्होंने पूछा, "तुममनचीती किस बातकी सफलता चाहते हो ?' (४०२-४१३) । - आकाशमं स्थित उन मेघमुम्ब नागकुमारोंको देव, मानों बहुत प्यासे हाँ ऐसे, उन्होंने हाथ जोड़, मस्तकपर रख कहा"हमारे देशपर आन तक किसीने हमला नहीं किया था, अत्र कोई पाया है, आप ऐसा कीजिए कि जिससे वह यहाँसे बला ताए । (४१४-११५) Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भरत चक्रवतीका वृत्तांत [३१७ देवोंने कहा, "हे किरातो! यह भरत नामका चक्रवर्ती राजा है। यह इंद्रकी तरह अजेय है। देव,असुर या मनुष्य कोई ' भी उसे नहीं जीत सकता। टाँकियोंसे जैसे पर्वतके पत्थर भेरे नहीं जा सकते वैसेही, पृथ्वीपर चक्रवर्ती राजा मंत्र, तंत्र, विष, शस्त्र और अन्य विद्याओंके अगोचर होता है, कोई उस तक पहुँच नहीं सकता। फिर भी तुम्हारे आग्रहसे हम उसको हानि पहुँचानेकी कोशिश करेंगे।" यों कह कर वे चले गए। (४१६-४१८) क्षणभरमें मानो पृथ्वीपरसे उछलकर समुद्र प्रकाशमें आए हों वैसे काजलके समान कांतिवाले मेघ प्रकाशमें पैदा हुए। बिजलीरूपी तर्जनी अंगुलीसे चक्रवर्तीकी सेनाका तिस्कार करते हों और घोर गर्जनासे बार बार क्रोधकर उसका अपमान करते हों ऐसे वे दिखाई देने लगे। सेनाको चूर्ण करनेके लिए उतनेही प्रमाणवाली (अर्थात सेनाके विस्तार जितनीही लंबीचौड़ी) कार आई हुई वनशिलाके जैसे मेघ, महाराजाकी छावनीपर तत्कालही चढ़ आए और मानों लोहे के टुकड़ेके तीखे अगले भाग हों, मानों बाण हों, मानों दंड हों ऐसी धारासे वे वरसने लगे। सारी जमीन चारों तरफ मेघके पानीसे भर गई और उसमें रथ नौकाओंकी तरह और हाथी वगैरह मगरमच्छोंके समान मालूम होने लगे। सूरज मानों किसी तरफ चला गया हो और पर्वत मानों की भाग गया हो ऐसे मेघों के अंधकारसे कालरात्रिके समान दृश्य दिखाई देने लगा। उस समय चारों तरफ पृथ्वीपर अंधकार और जलही जल हो गया। ऐसा मालूम होने लगा मानों पुथ्वीपर फिरसे युग्मधर्म मा गया है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ३१८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. ऐसी अरिष्टकारक-दुख देनेवाली बारिश देखकर चक्रवती. ने पापात्र नौकरकी तरह अपने हाथसे चर्मरत्नको स्पर्श किया। " उत्तरदिशाके पवनसे जैसे मेघ फैलते हैं वैसे चक्रवर्तीका हाथ 'लगनेसे चर्मरत्न वारह योजन तक फैल गया। समुद्रके बीचमें पानीके ऊपर जैसे जमीन होती है वैसेही चर्मरत्नपर सारी सेना सहित महाराज बैठ गए। फिर विद्रुम (मूंगा ) से जैसे क्षीरसमुद्र शोभता है वैसे सुन्दर कांतिवाली सोनेकी निन्यानवे हजार शलाकाओंसे (छातेकी तीलियोंसे) सुशोभित, त्रण और . प्रथी (गाँठ) से रहित कमलनालकी तरह सीधा सोनेकी सुन्दर डेडीवाला और पानी, धूप, हवा और धलिसे बचाने में समर्थ ऐसे छत्ररत्नको राजाने स्पर्श किया, इससे वह भी चर्मरत्नकी तरह फैल गया। उस छत्रकी डंडीके ऊपर अंधकारका नाश करने केलिए राजाने सूरजके समान मणिरत्न रक्खा । छत्ररत्न और चर्मरत्नका वह संपुट तैरते हुए अंडेके समानशोभने लगा। तभीसे लोगों में ब्रह्मांडकी कल्पना उत्पन्न हुई। गृहीरत्नके प्रभाव से उस चर्मरत्नमें अच्छे खेतकी तरह सवेरे बोया हुआ धान्य साँझको उत्पन्न होता है; चंद्रके प्रासादकी तरह उसमें सबेरे वोए हुए कूष्मांड ( कुम्हड़े ), पालक और मूली वगैरा शामको फल देनेवाले होते हैं; और सवेरे चोए हुए आम, केले वगैरा फलोंके वृक्ष भी साँझको, महान पुरुपोंके प्रारंभ किए हुए काम जैसे सफल होते है वैसेही सफल होते हैं। उस (संपुट) में रहे हुए लोग ऊपर बताए हुए धान्य, शाक-पात और फलोंका भोजन करके प्रसन्न थे, उद्यानमें खेलकूद करने गए हों ऐसे उनको फोजका श्रम भी मालूम नहीं होता था। मानों महल में रहते हों ऐसे । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... . भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत : १६ मध्यलोकके (मर्त्यलोकके ) पति भरत राजा चर्मरत्न और छत्ररत्नके बीचमें परिवार सहित आरामसे रहने लगे। (इस तरह भरत और उनकी सेना रह रही थी। और) कल्पांतकाल. की तरह वहाँ पानी बरसते हुए नागकुमार देवताओंने सात “ दिन-रात बिताए । (४१८-४३६) फिर राजाको विचार श्राया, "वह पापी कौन है जो मुझे इस तरह तकलीफ दे रहा है ?" राजाका यह विचार जानकर सदा उसके पास रहनेवाले और महापराक्रमी सोलहहजार यक्ष : (तकलीफ मिटानेको ) तैयार हुए। उन्होंने भाथे बाँधे, धनुषों के चिल्ले चढ़ाए और मानों वे अपनी क्रोधरूपी आगसे शत्रओंको जला डालना चाहते हों ऐसे मेघमुख नागकुमारोंके पास आए और बोले, "हे दुष्टो ! मूर्खकी तरह क्या तुम इन पृथ्वीके स्वामी . भरत चक्रवर्तीको नहीं जानते ? जो सारी दुनियामें अजेय हैं . उन राजाको तकलीफ देने के लिए कीगई कोशिश तुमको इसी तरह दुःख देगी जिस तरह पर्वतोंमें अपने दाँतोंका प्रहार करनेसे हाथियोंको होती है। तो भी अब खटमलकी तरह तुम यहाँसे चले जाओ, नहीं तो ऐसी बुरी मौत मरोगेजैसे पहले कोई नहीं मरा है । (४४०-४५) . यह बात सुनकर मेघमुख नागकुमार घबराए और उन्होंने क्षणभरमें मेघवलको (वर्षाको) इस तरह समेट लिया जिस तरह जादूगर जादूके खेलको समेट लेता है। फिर वे किरात लोगोंसे यह कहकर अपने स्थानपर चले गए कि तुम भरत राजा - की शरणमें जाओ। . . देवताओंके वचनसे निराश बने हुए म्लेच्छ लोग और Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३२. निरष्टि राजाच्या पुच्च-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. ओई श्राश्य न बहनसे श्राश्रय देने योग्य भरत रानाकी शरणमें गम। उन्होंन, मानों नेनपतचा भार हो ऐसा स्वर्णकार और मानों अश्वान प्रतिबिंब हो पसे लालों बाड़े मरत गानाके भेट त्रिपनिहाय जोड़, सरकुत्रासुन्दर वचनोंसे गर्मिन वाण, मानों के बंदीजनों (वारों के सगे भाई हाँ गंडे, बान्न, जगप्रति ! अन्वंद प्रचंड पराक्रमी ! आपकीजयं होखिंड यूवी में आप इंदकं समान है । हे राजा ! हमारे प्रदेशक निलकं समान बैनाध्यपवनच गुन-धार श्राप सिवा दूसरा कौन ब्रांन्त मनाया? ई विजयी गाजा ! अाकाशने व्यानिश्चमकी तरह जलपर मारी सेनाकी छावनी रन्तनकी शक्ति किसमें है ? यानी ! अद्भुत शक्तिकं कारण श्राप देवनानास मी अंजेय है। यह बात हम अब समझ है। इस लिए हम प्रहानियाँमार अपराव दुना कीजिए। नाय ! नया जीवन देनवान श्राप अपना हाथ हमारी पाठपर रखिए ! याब हम पापी पादन रहना न्यवित (कामका विचार • कानान्त) मगढ़ महाराजन उन्हें अपने अधीन माना और उनी, सन्कार कर विदा किया । कहा है "..."उत्तमानां हि प्रणामावषयः वः।" जतन धुषांना नोय प्रणामकी अवधि तक ही रहता है। अयान बिराचा जत्र नक नुक नहीं जाता तमी त उच्चन पुरुष उसपर नागन रहता है। बच्चों की पान सेनापति मुंषेश गिरि नया समुद्री भादाबाद सिंधुके उत्तर निष्कृत (द्वार) तक सपत्री नीत श्राया। ऋची भरत मुत्र भोग मागन हुए.वही पहन समय नरहमानों के अपनी गनिन Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३२१ __अनार्य लोगोंको आर्य वनाना चाहते थे। (४४६-४५६) एक दिन दिग्विजयमें जमानत के समान, तेजस्वी विशाल चक्ररत्न राजाकी श्रायुधशालामेंसे निकला और क्षुद्र हिमवंत पर्वतकी तरफ पूर्व दिशाके मार्गसे चला । जैसे जलका प्रवाह नालेके रस्तेसे होता है वैसेही, चक्रवर्ती भी चक्रके पीछे पीछे चले। गजेंद्रकी तरह लीलासे चलते हुए महाराज कई दिनोंकी मुसाफिरीके बाद क्षुद्रहिमाद्रिके दक्षिण भागके पास आए। भोजपत्र, तगर और देवदारु के वृक्षोंसे भरे हुए उस प्रदेशके पांडुकवनमें महाराजने इंद्रकी तरह, छावनी डाली । वहाँ क्षुद्रहिमाद्रिकुमारदेवके उद्देशसे ऋपभात्मजने (भरतने ) अष्टम तप किया। कारण ..........'कार्यसिद्धेस्तपोमंगलमादिमम् ।" [काम सिद्ध करनेके लिए तपस्या प्रारंभका मंगल है।] रातके अंतमें सूरज जैसे पूर्व समुद्रसे बाहर निकलता है वैसे अट्ठम पूर्ण होनेपर सवेरेही तेजस्वीमहाराज रथमें बैठकर छावनी रूपी समुद्रसे बाहर निकले और आटोप (अभिमान) सहित जल्दी जाकर महाराजाओंके अग्रणीने अपने रथके अगलेभागके (डंडेसे ) क्षुद्र हिमालय पर्वतपर तीन वार आघात किया। धनुर्धरकी. वैशाख-आकृतिमें रहकर महाराजने अपने नामसे अंकित बाण हिमाचलकुमार देवपर चला दिया। पक्षीकी तरह वहत्तर योजन तक आकाशमें उड़ता हुआ याण देवके सामने जाकर गिरा। अंकुशको देखकर जैसे उन्मत्त हाथी बिगड़ता है १-याण चलाने ममय होनेवाली श्राकृतिविशेष । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र; पर्व १. सर्ग ४. एसेही शत्रुके बाणको देखकर हिमाचलकुमार देवकी आँखें लाल हो गई। मगर जब उसने बाणको उठाकर देखा और उसपर लिखे हुए अक्षरोंको पढ़ा तब उसका गुस्सा इसी तरह शांत हो गया जिस तरह सपको देखकर दीपक शांत हो जाता है। इससे प्रधानपुन्यकी तरह वह वाणको भी साथमें रख मेंटें ले भरतेश्वरके पास आया। श्राकाशमें ठहर, जयजय शब्दोंका उच्चारण कर उसने, पढ़ने वाण बनानेवालेकी तरह वारण भरतको दिया और फिर देववृनके फूलोंसे गुंथी माला गोशीपचंदन, सर्वोपधि और न्हका जल, ये सब चीजें चक्रवर्तीको भेट की, कारण उसके पास वेद्दी चीजें मारप थीं। कई, बाजूबद और दिव्य बन्न भेटके बहाने उसने महाराजको दंडमें दिये और कहा, हे स्वामी! मैं उत्तरदिशाके अंतमें आपके नौकर की तरह रहूँगा।" यों कहकर जब वह चुप हुआ तब,चक्रवर्तीन उसको,मत्कार करके विदा किया। फिर उन्होंने, मानों हिमालयका शिखर हो ऐसे और मानों शत्रुओंका मनोरथ हो ऐसे अपने रथको लौटाया। (४४६-४७६) ___ वहाँस ऋषमपुत्र ऋषभकूट गए और, जैसे हाथी अपने दाँतोंसे पर्वतपर प्रहार करता है वैसे, उन्होंने अपने रथके अगले मागसे तीन बार ऋषमऋपर आघात किया। फिर सूर्य से किरणकोशको ग्रहण करता है सही चक्रवर्तीन, रथको वहीं ठहरा, काँकिणीरत्न ग्रहण किया और काँकिणीरत्नसे पर्वतके पूर्व शिवरपर लिखा, "श्रवसर्पिणीकालके तीसरं श्रारं के अंतिम मागमें में भरत नानक चक्रवर्ती हुआ हूँ।" ये अक्षर लिख चक्रवर्ती अपनी छावनी में आए, और उन्होंने उसके लिए किया Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · भरत चक्रवर्तीका घृत्तांत [ ३२३ हुआ अष्टम तपका पारणा किया। फिर हिमालयकुमारकी तरह, ऋषभकूट पतिके लिए चक्रीकी सम्पत्तिके योग्य अष्टाहिका उत्सव किया। (४७७-४८१) गंगा और सिंधु नदियोंके बीचकी भूमिमें,मानों समाते न हो इससे,आकाशमें उछलनेवाले घोड़ोंसे,सेनाके वोमसे घबराई जमीनको छिड़कनेकी इच्छा रखते हों ऐसे मदजलके प्रवाहवाले गंधहस्तियोंसे, कठोर पहियोंकी धाराओं द्वारा लीकोंसे पृथ्वीको अलंकृत करते हों ऐसे उत्तम रथोंसे और नराद्वैत (नरके सिवा और कुछ नहीं है ऐसी स्थिति)को बतानेवाले अद्वितीय पराक्रमवाले, भूमिपर फैले हुए करोड़ों प्यादोंसे घिरे हुए चक्रवर्ती, अश्ववार (महावत ) की इच्छानुसार चलनेवाले कुलीन मतंगजकी तरह, चक्रके पीछे चलकर वैताठ्यपर्वतपर आए और उस पर्वतके उत्तरभागमें जहाँ शवरों (भीलों) की स्त्रियाँ आदीश्वरके अनिंदित गीत गाती थी,महाराजाने छावनी डाली । वहाँ रहकर उन्होंने नमि-विनमि नामके विद्याधरोंके पास दंडको माँगनेवाला वाण भेजा। बाणको देखकर वे दोनों विद्याधरपति, गुस्से हुए और आपसमें विचार करने लगे। एक बोला,-(४७७-४८६) "जवूद्वीपके भरत खंडमें यह भरत राजा प्रथम चक्रवर्ती हुआ है। यह ऋपभकूट पर्वतपर चंद्रवियकी तरह अपना नाम लिखकर, लौटते समय यहाँ आया है। हाथीके आरोहककी तरह उसने वैताठ्यपर्वतके पार्श्वभागमें (पासमें ) छावनी टाली है। वह सब जगह जीता है, उसे अपने भुजबलका अभिमान हो गया है, वह हमें भी जीतना चाहता है और इसी लिए, मैं मानता हूँ कि उसने यह उदंड दंडरूप वाण हमारे पास फेका है।" Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. फिर सोच-विचार कर दोनों युद्ध के लिए तैयार हो, अपनी सेनासे पर्वतके शिखरको ढकने लगे। सौधर्म और ईशानपतिकी देव-सेनाकी तरह, दोनोंकी आज्ञासे विद्याधरोंकी सेना आने लगी। उनकी किल-किल आवाजसे मालूम होता था मानों वैताट्यपर्वत हँस रहा है, गर्ज रहा है, फट रहा है। विद्याधरेंद्रोंके सेवक वैताव्यपर्वतकी गुफाकी तरह सोनेका बहुत बड़ा ढोल बजाने लगे। उत्तर और दक्षिण तरफके शहरों, कसबों और गाँवोंके मालिक, रत्नाकरके पुत्र हों ऐसे, तरह तरहके रत्नोंके आभूषण पहनकर, मानों गरुड़ हों ऐसे, अस्खलित गतिसे आकाशमें फिरने लगे। नमि-विनामके साथ चलते हुए वे उनके प्रतिबिंबसे मालूम होते थे। कई विचित्र माणिक्योंकी प्रभासे दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले विमानोंमें बैठकर, वैमानिक देवताओंसे भिन्न न दिखाई दें ऐसे चलने लगे कई, पुष्करावर्तके मेघकी तरह, मदबिंदुओंकी वर्षा करनेवाले और गर्जना करनेवाले, गंधहस्तियोंपर सवार होकर चले; कई सूरज और चाँदके तेजसे भरे हुए हों ऐसे, सोने और रत्नसे बनाए हुए रथमें बैठकर चले; कई आकाशमें अच्छी चालसे चलते और अति वेगसे शोभते, मानों वायुकुमार देवता हों ऐसे घोड़ोंपर सवार हो, जाने लगे और कई हाथोंमें हथियार लिए, वनके कवच पहने, बंदरोंकी तरह कूदते फाँदते पैदलही चले। इस तरह विद्याधरोंकी सेनासे घिरे हुए और लड़ाईके लिए तैयार नमिविनमि वैताव्यपर्वतसे उतर भरतपतिके सामने आए। (४६०-५०५) ... आकाशसे उतरती हुई विद्याधरोंकी सेना ऐसी मालूम Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [ ३२५ -- - -- होती थी, मानों वह आकाशको, मणिमय विमानों द्वारा, अनेक सूर्योवाला बना रही है; मानों चमकते हुए हथियारोंसे विद्युतमय बना रही है। मानों बड़े जोरसे बजते हुए नगारोंकी आवाजसे गूंजता हुआ बना रही है। "अरे दंडार्थी ! क्या तू हमसे दंड लेगा?" यूँ कहते हुए विद्यासे उन्मत्त बने हुए उन दोनों विद्याधरोंने भरतपतिको युद्ध करनेके लिए पुकारा। फिर दोनों तरफकी सेनाएँ अनेक तरहके हथियार चलाती हुई युद्ध करने लगीं। कारण, . ..... युद्धैर्युद्धाा यजयश्रियः ।" [जयलक्ष्मी लड़ाईसेही पाने योग्य है यानी लड़ाईसेही जयलक्ष्मी मिलती है। बारह बरस तक लड़ाई हुई। अंतमें विद्याधर हारे और भरत जीते । तब उन्होंने हाथ जोड़कर भरतको प्रणाम किया और कहा, "हे कुलस्वामी! जैसे सूर्यसे अधिक तेजवाला दूसरा कोई नहीं है, वायुसे अधिक वेगवाला दूसरा कोई नहीं है और मोक्षसे अधिक सुख दूसरा कोई नहीं है, ऐसेही तुमसे अधिक वीर दूसरा कोई नहीं है। हे ऋषभ स्वामीके पुत्र ! श्रापको देखकर हम अनुभव करते हैं कि हमने साक्षात ऋपभस्वामीको ही देखा है। अज्ञानतावश हमने आपको जो तकलीफ पहुँचाई है उसके लिए आप हमें क्षमा कीजिए; कारण, आज आपहीने हमें अज्ञानके (अंधकारसे ) बाहर निकाला है। पहले हम जैसे ऋषभस्वामीके नौकर थे वैसेही, अव हम आपके नौकर हैं; कारण, स्वामीकी तरहही स्वामीके पुत्रकी सेवा भी लज्जाजनक नहीं होती। हे महाराज ! दक्षिण और उत्तर भरतार्द्धके मध्यमें स्थित वैताठ्यके दोनों भागोंमें हम Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] विषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पत्र १, सर्ग . दुर्गपान्द्रकी महापकी श्रादा रग।। फिर राजा बिनर्मिन यद्यपि वह महागजको कुछ मेट करना चाहता था, नयापि मानों वह शुछ माँगना चाहता हो प, नमस्कार ऋर, हाय जोड़-चिरलमा समान, नियाम रनप अपनी मुमदा नामकी कन्या चक्रामा मेट की। (५०६-११५) उपची पानिपली मुमत्रारस थी मानों वह नापकर बनाई गई हो, उसकी निगला वंज थी, मानों वह तीनला झं माणिकांना पुन हो; जवानां श्रीर सदा रहनत्रा सुंदर गोश्रीरनाम बहामी गोमती श्री मानी बह शनन्द्र संवत्रीमेचिरी हुई दो दिव्य श्रीपची तरह यह मत्र गंगांको शांत ऋग्नंबानी यी दिव्य जतकी तरह वह इच्छानुशल शान श्रीर उध्य माशंवाली थी । बह दीन स्थानोंवर श्याम, नीन स्थानापर संद, नानन्यानों पर नार (लान्त), नीन न्यानोपर उठन, दीन स्यानांवर नमार, तीन न्यानोपर, विन्ती, दीन स्थानोपर दी और तीन स्थानोपराश थी। श्रन शकलापसे (कंशांक ममूहल ) वह मोर जलापत्र (पन्समूहको ) जीनती श्री और हन्नाट अमीचंद्रन हगती थी। उनकी याद रति परमानिका डावापिका थीं: नमकी दीयं नासिका तलाट लावण्य (मौदय) की जन्नधारा समान थी; उप मुंदर गान्न नपान दर्षगा समान था उसु ऋयों तक पहुँचत हुए दानों ऋान मानों दोमंत उपहाट एक नाय पक हुए विनतममान जयंदानहोगणियाची अंगाकी शामाकी पगमत्र ऋग्नंबान्त था उनका टमंदल (गल्ता) पटकी हरह Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [ ३२७ - तीन रेखाओंवाला था; उसकी भुजाएँ कमलकी डंडीके समान सीधी और विस (कमल) के समान कोमल थीं; उसके स्तन कामदेवके दो कल्याण-कलशोंके समान थे; स्तनोंने मानों मोटापा हर लिया हो, इससे कृश वना हो ऐसा उसका कृश और कोमल उदर था; उसका नाभिमंडल नदीकी भँवरीके समान था, उसकी रोमावली नाभिरूपी वावड़ीके किनारे उगी हुई दूर्वा हो ऐसी थी; उसके बड़े बड़े नितंब मानों कामदेवकी शय्या हो ऐसे थे; उसके ऊरुदंड (जाँचें) झूलेके दो सोनेके हँडे हों ऐसे सुंदर थे; उसकी पिंडलियाँ हरिणीकी जाँघोंका तिरस्कार करनेवाली थीं। उसके पैर भी हाथोंकी तरह कमलोंका तिरस्कार करनेवाले थे। ऐसा मालूम होता था मानों वह, हाथ-पैरोंकी उँगलियों रूपी पत्तोंसे विकसित, लता (वेल) है, या प्रकाशित नखरूपी रत्नोंसे रत्नाचलकी तटी (किनारा) है, या हिलते हुए विशाल, स्वच्छ, कोमल और सुंदर वस्त्रोंसे, मृदुपवनके द्वारा तरंगित सरिता है। स्वच्छ कांतिसे चमकते हुए सुंदर अवयवोंसे वह अपने सोने और रत्नमय आभूपणोंको सुशोभित करती थी; छायाकी तरह पीछे चलनेवाली छत्रधारिणी स्त्री उसकी सेवा करती थी; दो हंसोंसे कमलिनीकी तरह हिलते हुए दो चामरोंसे वह शोभती थी और जैसे लक्ष्मी अनेक अप्सराओंसे और गंगा अनेक नदियोंसे शोभती है वैसेही वह सुंदरी वाला समान वयवाली हजारों सखियोंसे शोभती थी। ( ५१६-५३४) नमि राजाने भी महा मूल्यवान रत्न उसको भेट किए । कारण, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. "गृहागते स्वामिनि हि किमदेयं महात्मनाम् ।" स्वामी जब घर आते हैं तब महात्मा सबकुछ उनको भेट करते हैं; कोई चीज उनके लिए अदेय नहीं होती है।] फिर भरतपतिन उनको विदा किया। वे घर आए और अपने पात्रोको राजदे, विरक्त हो, भगवान ऋषभदेवके चरणों में गए। वहाँ उन्होंने वन ग्रहण किया । (५३५-५३६) महाननेजस्वी भरत चक्रवर्ती वहाँसे चक्ररत्नके पीछे चलतं हुए गंगाके तटपर आप। जाह्नवी (गंगा) किनारंसे बहुत दूर भी नहीं और बहुत निकट भी नहीं, ऐसे स्थानपर पृथ्वीके इंद्रने अपनी सेनाकी छावनी डाली। महाराजाकी पानासे सुषेण सेनापतिनं सिंधुकी तरहही गंगा पार कर उसके उत्तर-निष्कुट (प्रदेश) को जीता। फिर भरन चक्रवर्तीने अट्ठम तप कर गंगादेवीकी साधना की। "उपचारः समर्थानां सद्यो भवति सिद्धये ।" [समर्थ पुरुपोंका उपचार तत्कालही सिद्धि देनेवाला होता है।] गंगादेवान प्रसन्न होकर दो रत्नमय सिंहासन और एकहजार पाठ रत्नमय कुंम भरतको दिए । रुपलावण्यसे कामदेव. को भी किंकरकं समान बनानेवाले भरत राजाको देखकर गंगा. देवी क्षुब्ध हुई। उसने सारे शरीरपर बदन (मुख) रूपी चंद्रका अनुसरण करनेवाल मनोहर तारागण हों ऐसे मोतियोंके याभूपण धारण किए थे; कलेके अंदरकी त्वचा (छाल ) के समान वस्त्र पहनथे, वे ऐसे मालूम होते थे मानों उसका जलप्रवाह वस्त्र के रूप में बदल गया है; रोमांचरूपी कंचुकी (चोली) से उसके Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [३२१ - - - स्तनपरकी कंचुकी चर्र चरं फटती थी और मानों स्वयंवरकी .माला हो ऐसी धवल (सफेद ) दृष्टिको वह बार बार भरतपर डालती थी। इस स्थितिको प्राप्त गंगादेवी क्रीडा करने की इच्छासे, प्रेमभरी गद्गद् वाणीमें भरत राजासे अत्यंत प्रार्थना करके • उनको अपने रतिगृहमें (शयन घरमें) ले गई। वहाँ भरत राजाने विविध भोग भोगते हुए एक हजार बरस, एक दिनकी तरह विताए । फिर किसी तरहसे देवीको समझा, उसकी आज्ञा ले, भरत वहाँसे निकले और अपनी प्रबल सेनाके साथ खंडप्रपाता गुफाकी तरफ चले । ( ५३७-५४८ ) केसरी सिंह जैसे एक वनसे दूसरे वनकी तरफ जाता है वैसेही अखंड पराक्रमी चक्रवर्ती खंडप्रपाता गुफाके पास पहुंचे। गुफासे थोड़ी दूरीपर उस बलवान राजाने अपनी फौजकी छावनी डाली। वहाँ उस गुफाके अधिष्ठायक नाट्यमालदेवको मनमें धारण कर अट्ठम तप किया। इससे उस देवका आसन काँपा। अवधिज्ञानसे भरत राजाका आगमन जान वह, कर्जदार जैसे कर्जदाताके पास जाता है ऐसेही, भेटें लेकर भरत राजाके पास पाया । महान भक्तिवाले उस देवने छःखंड भूमिके आभूपण• रूप भरत महाराजको आभूपण भेट किए, और उनकी सेवा स्वीकार की। नाटक करनेवाले नटकी तरह नाट्यमालदेवको, विवेकी चक्रवर्तीने प्रसन्न होकर विदा किया और फिर पारणा कर उस देवका अष्टाहिका उत्सव किया। अव चक्रीने सुपेण सेनापतिको आज्ञा दी, "खंडप्रपाता गुफा खोलो।" सेनापतिने मंत्रकी तरह नाट्यमालदेवका मन. में ध्यान कर, अष्टम तप कर पौपधशालामें जा पोपधत्रत ग्रहण Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. किया। अष्ठमके अंतमें उसने पोपधशालामेंसे निकल प्रतिष्टामें जैसे श्रेष्ठ प्राचार्य वलिविधान करते हैं वैसेही, बलिविधान किया। फिर प्रायश्चित्त वा कौतुक मंगल कर बहु-मूल्यवान थोड़े वस्त्र धारण कर हाथमें धूपदानी ले, वह गुफाके पास गया । गुफाको देखतेही पहले उसने उसको नमस्कार किया, फिर उसके दरवाजे की और वहाँ अष्ट मांगलिक वनाए। तब किवाड़ खोलनेके लिए सात-आठ कदम पीछे हट उसने दरवाजेको सोनेकी चावी हो ऐसे दंडरत्नको उठाया और उससे दरवाजेपर आघात किया । सूर्यकी किरणोंसे जैसे कमलकोश खिल जाता है वैसेही, दंडरत्नके आघातसे दोनों किवाड़ खुल गए। (५४६-५६१) गुफाका दरवाजा खुलनेकी बात सेनापतिने चक्रवर्तीसे कही। इससे भरतने हाथीपर बैठ, उसके दाहिने कंधेपर ऊँची जगहपर मणिरत्न रख, गुफामें प्रवेश किया। भरत राजा अंधकारको नाश करने के लिए, तमिन्ना गुफाकी तरहही इस गुफामें भी कांकिणीरत्नसे मंडल बनाते जाते थे और सेना उनके पीछे पीछे चली जाती थी। जैसे दो सखियाँ तीसरी सखीसे मिलती है वैसेही इस गुफाकी पश्चिम दिशाकी दीवारमेंसे निकलकर पूर्व तरफकी दीवारके नीचे बहकर उन्मग्ना और निमग्ना नामकी दो नदियाँ गंगासे मिलती हैं। वहाँ पहुँचकर तमिस्रागुफाकी नदियों की ही तरह इन नदियोंपर पुल बनाकर, भरत चक्रवर्तीने सेना सहित उन नदियोंको पार किया। सेनाकी शूलसे घबराए हुए वैताच्यने प्रेरणा की हो इस तरह गुफाका दक्षिण-द्वार तत्काल अपने-आपही खुल गया । केसरी सिंहकी तरह नरकेसरी गुफाके बाहर निकले और गंगाके पश्चिम तटपर उन्होंने छावनी Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत डाली। (५६२-५६७) . वहाँ नवनिधियोंके उद्देश्यसे पृथ्वीपतिने, पहले किए हुए तपसे मिली हुई लब्धियों द्वारा होनेवाले लाभके मार्गको यतानेवाला, अट्ठम तप किया। अहमके अंतमें नौनिधियाँ प्रकट हुई और महाराजाके पास आई । हरेक निधि एक एक हजार यदों. से अधिष्ठित थी। उनके नाम थे-नैसर्प, पांडुक, पिंगल, सर्वरत्नक, महापद्म, काल, महाकाल, माणव और शंखक' । ये पाठ चक्रोंपर रखी हुई थीं। इनकी ऊँचाई आठ योजन, चौड़ाई नौ योजन और लंबाई दस योजन थी। वैडूर्यमणिके किवाड़ोंसे उनके मुंह ढके हुए थे। उनकी आकृति समान थी तथा वे सोने व रत्नोंसे भरे हुए थे। वे चंद्र और सूर्यके चिह्नवाले थे। निधियोंके नामके अनुसारही उनके नाम थे। पल्योपमकी आयुवाले नागकुमार जातिके देव उनके अधिष्ठायक थे। (५६८-५७३) उनमेंके नैसर्ग नामकी निधिसे छावनी, पुर (किला) गाँव खान, द्रोणमुख (४०० गाँवोंमें एक उत्तम गाँव), मंडप और पत्तन (नगर) वगैरा स्थानोंका निर्माण होता है। पांडुक नामकी निधिसे मान, उन्मान और प्रमाण इन सबका गणित होता है .और धान्य व बीज उत्पन्न होते हैं। पिंगल नामकी निधिसे नर, नारी, हाथी और घोड़ोंके सब तरहके आभूषणोंकी विधिमालूम १-हिंदूधर्मशास्त्रों में इन निधियों के नाम ये हैं-महापन, पद्म, शंख, मकर, कच्छर, मुकुंद, पुंद, नील और ग्वर्य । ये करके बनाने कहलाते हैं। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ । त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. होती है। सर्वरत्नक नामकी निधिसे चक्ररत्न वगैरा सात एकेंद्रिय और सात पंचेंद्रिय रत्न उत्पन्न होते हैं। महापद्म नामकी निधिसे सब तरहके शुद्ध व रंगीन वस्त्र होते हैं। काल नामकी निधिसे वर्तमान भूत और भविष्य तीनों कालोंका,कृषि वगैरा कमांका और दूसरे शिल्पादिका ज्ञान होता है। महाकाल नामकी निधिसे प्रवाल, चाँदी, सोना, मोती, लोहा तथा लोहादिककी खाने उत्पन्न होती हैं। माणव नामकी निधिसे योद्धा, आयुध और कवचकी संपत्तियाँ तथा युद्धनीति व दंडनीति उत्पन्न होती हैं । नवीं शंख नामकी महानिधिसे चार तरहके काव्यकी सिद्धि, नाट्य-नाटककी विधि और सब तरहके बाजे उत्पन्न होते हैं। इन गुणोंवाली नवों निधियाँ आकर कहने लगी, "हे महाभाग ! हम गंगाके मुखमें मगधतीर्थकी रहनेवाली हैं। तुम्हारे भाग्यसे हम तुम्हारे पास आई हैं। अपनी इच्छानुसार हमारा उपयोग करो-कराओ। शायद समुद्र क्षय हो जाए (सूख जाए) मगर हमारी शक्ति कभी क्षय नहीं होती।" यों कहकर सारी निधियाँ प्राज्ञाधारककी तरह खड़ी रहीं। ............. ___इससे निर्विकारी राजाने पारणा किया और फिर निधियोंके निमित्तसे अष्टाहिका उत्सव किया। सुषेण भी गंगाके दक्षिण प्रांतको, छोटे गाँवकी तरह, खेलही खेलमें जीतकर आगया ।. पूर्वापर समुद्रको लीलासे आक्रांत करनेवाले, मानों दूसरे वैताव्य हों ऐसे महाराज वहाँ बहुत समयतक रहे। (५७४-५८७). - एक दिन सारे भरतक्षेत्रके विजेता भरतपतिका चक्र अयोध्याकी तरफ चला। महाराज भी स्नान कर, कपड़े पहिन, बलिकर्म, प्रायश्चित्त और कौतुकमंगल कर इंद्रकी तरह गजेंद्र Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवतीका वृत्तांत [३३३ पर सवार हुए । मानों कल्पवृक्ष हों ऐसी नवनिधियोंसे भरेहुए भंडारवाले, सुमंगलाके चौदह स्वप्नोंके जुदा जुदा फल हों ऐसे चौदह रत्नोंसे सदा घिरे रहनेवाले, राजाओंकी कुललक्ष्मीके समान और असूर्यपश्या ( जिन्होंने कभी सूरज भी नहीं देखा ऐसी) अपनी विवाहिता बत्तीस हजार रानियोंसे युक्त, और बत्तीस हजार देशोंमेंसे व्याही हुई दूसरी बत्तीस हजार अप्सराओंसे समान सुंदर खियोंसे शोभित, मानों प्यादे हों ऐसे अपने आश्रित बत्तीस हजार राजाओंसे सेवित, विंध्यपर्वतके समान चौरासी लाख हाथियोंसे सुशोभित, और मानों सारी दुनियामेंसे चुन चुनकर लाए हों ऐसे चौरासी लाख घोड़ों, उतनेही (चौरासी लाख) रथों और भूमिको ढकनेवाले छियानवेकरोड़ सुभटोंसे घिरा हुआ चक्रवर्ती, अयोध्यासे निकला । उस दिनसे साठहजार वर्पके बाद, चक्रके मार्गका अनुसरण करता हुआ अयोध्याकी तरफ चला। (५७४-५६६) मार्गमें चलती हुई चक्रवर्तीकी सेनासे उड़ी हुई धूल लगने. से मलिन बने हुए खेचर (पक्षी) ऐसे मालूम होते थे, मानों वे जमीनपर लोटे हैं। पृथ्वीके मध्य-भागमें रहनेवाले भवनपति और व्यतरदेव इस शंकासे डर रहे थे कि चक्रवर्तीकी फौजके भारसे कहीं पृथ्वी न फट जाए। प्रत्येक गोकुल में (गोशालामें) विकसित नेत्रोंवाली गोपांगनाओं (महियारियों ) के द्वारा भेट किए हुए मक्खनरूपी अर्यको अमूल्य समझ, चक्री मानसहित स्वीकार करते थे। हरेक वनमें हाथियोंके कुंभस्थलोंसे मिले छए मोती वगैरहकी भेटें किरात लोग लाते थे, उन्हें महाराज प्रहण करते थे। अनेक बार हरेक पर्वतपर पर्वतगजायोंके द्वारा Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] त्रिषष्टि शलाका पुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. लाकर सामने रखे हुए रत्नों और सोनेकी खानके महान सारको राजा अंगीकार करते थे। गाँव गाँवमें, उत्कंठित वधुके समान, गाँवोंके वृद्धपुरुप उपायन (भेटें) लाते थे, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर चक्री उनको अनुग्रहीत करते थे। वे खेतोंमें घुसनेपाली गायोंकी तरह चारों तरफ गाँवों में फैले हुए सैनिकोंको अपने बानारूपी उपदंडसे रोक रखते थे। वे बंदरोंकी तरह वृक्षोंपर चढ़कर अपनेको श्रानंद सहित देखनेवाले गाँवोंके वालकोंको पिताकी तरह प्यारसे देखते थे। धन-धान्यसे पूर्ण और जीवनसे निरूपद्रवी गाँवोंकी सम्पत्तिको अपनी नीतिरूपी लताके फलकी तरह देखते थे। वे सरिताओंको पंकिल(कीचड़वाली ) करते थे, सरोवरोंको सुखाते थे और वापिकाओं तथा कृाको पाताल-विवर (हिंद्र) की तरह खाली करते थे। इस तरह, अविनयी शत्रुको दंड देनेवाले महाराज, मलयाचलके पवनकी तरह लोगोंको मुख देते हुए धीरे धीरे चलकर अयोध्याके पास पहुंचे । महारानाने अयोध्याके पासकी भूमिमें स्कंधवार (पढ़ाव ) डलवाया; वह मानों अयोध्याका अतिथिरूप सहोदर (सगा भाई) हो ऐसा नानपड़ता था। फिर राजशिरोमण भरतने राजधानीका मनमें ध्यान कर निरूपद्रवकी प्रतीति (विश्वास) करानेवालाअट्टम तप किया। अष्टममक्तके अंतमें पीपयशालासे बाहर निकल चक्रवर्तीने, दसरंराजाओं के साथ दिव्य भोजन से पारणा किया । (५६७-६१०) .. उघर अयोध्या, जगह जगह पर दिगतसे श्राइ हुई लक्ष्मी के लिए मूलनेके मूलही ऐसे, ऊँचे ऊँचे तोरण बाँधे जाने लगे। भगवानके जन्मके समय देवता से सुगंधित जलकी वर्षा करते Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [३३५ हैं ऐसेही, नगरके लोग हरेक रस्तेपर केसरके जलसे छिड़काव करने लगे। मानों निधियाँ अनेक रूप धारण करके पहलेहीसे आई हों ऐसे,मंच स्वर्ण-स्तंभोंसे बाँधे जाने लगे। उत्तरकुरुमें पाँच द्रहोंके दोनों तरफ खड़े हुए दस दस सोनेके पर्वत जैसे शोभते हैं वैसेही, मार्गके दोनों तरफ आमने-सामने बँधे हुए मंच शोभने लगे। हरेक मंचपर बँधे हुए रत्नमय तोरण इंद्रधनुपकी श्रेणीकी शोभाको पराभव करते थे, और गंधवाँकी सेना जैसे विमान में बैठती है उसी तरह, गायन करनेवाली खियाँ मृदंग और वीणाओंको बजानेयाले गंधवों के साथ उन मंचोंपर बैठने लगीं। उन मंचोपरके चंदोवोंके साथ बँधी हुई मोतीकी झालरें, लक्ष्मी के निवास घरकी तरह कांतिसे दिशाओंको प्रकाशित करने लगीं। मानों प्रमोद (आनंद) पाई हुई नगरदेवीके हास्य हों ऐसे, चबरोंसे , स्वर्गमंडनकी रचनावाले चित्रोंसे, कौतुकसे आए हुए नक्षत्र हों ऐसे दर्पणोंसे, खेचरोंके हाथके रूमाल हों ऐसे, सुंदर वस्त्रोंसे और. लक्ष्मीकी मेखलाके समान विचित्र मणिमालाओंसे नगर-जन, ऊँचे बाँधे हुए खंभोंसे दुकानोंकी शोभा बढ़ाने लगे। लोगोंके द्वारा बाँधी गई, धुंघरुओंवाली पताकाएँ सारस. पक्षीकी मधुरध्वनिवाली शरद ऋतुका समय बताने लगीं। व्यापारी दुकानों और मंदिरोंको यक्षकर्दमसे' पोतकर उनके ओंजनोंमें मोतियोंके स्वस्तिक पूरने लगे। स्थान स्थानपर रखे हुए अगर चंदनके चूर्णसे भरी हुई धूपदानियोंसे निकलकर जो धुओं ऊपर जाता था, ऐसा मालूम होता था, मानों वह स्वर्गको भी धूपित करना चाहता है। (६११-६२३) - १ कपूर,श्रगर, कस्तूरी और फकोलके चूर्णसे बनाया गया लेप । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४.. इस तरह सजाई हुई नगरी में प्रवेश करनेकी इच्छासे पृथ्वीके इंद्र चक्रवर्ती शुभ मुहूर्तमें मेयके समान गर्जना करनेवाले हाथीपर सवार हुए। जैसे आकाश चंद्रमंडलसे शोभता है वैसेही, कपूरचूर्णक समानसफेद छत्रोंसे वे शोमते थे। दो चामर दुल रहे थे, ऐसा मालूम होता था मानों गंगा और सिंधु भक्तिवश, अपने शरीर छोटे करके चामरोंके बहाने सेवा कर रही है। स्फटिकपर्वतकी शिलाओंका सार लेकर बनाए हुए हों ऐसे उनले, अति बारीक, कोमल और घने बुने हुए बत्रोंसे चे सुशोमित थे। मानों रत्नप्रभा पृथ्वीन, प्रेमसे अपना सार अर्पण किया होऐसे विचित्र रत्नालंकारांसे उनका सारा शरीर अलंकृत हो रहा था फनीपरमणियोंको धारण करनेवाले नागकुमारदेवोंसे घिरे हुए नागराजकी तरह वे माणिक्यमय मुकुटवाले राजाओं से सेवित थे। चारण देवता से इनके गुणगान करते हैं ऐसे, चारण-भाट जय जय शब्द बोलकर सबको आनंदित करतं हुए भरतके अद्भुत गुणोंका कीर्तन करते थे और ऐसा मालूम होता था कि मांगलिक बाजोंकी आवाजकी प्रतिध्वनिके बहाने आकाशभी उनका मंगल गान कर रहा था। तेजमें इंद्रके समान और पराक्रमके भंडार महाराजान रवाना होने के लिए गजेंद्रको आगे बढ़ाया। बहुत दिनोंसे लौट हुए अपने राजाको देखनेके लिए गाँवास और शहरोंसे इतने लोग आए थे मानां वे स्वर्गसे उतर श्राप है या जमीनसे फूट निकले हैं। महाराजकी सारी सेना और देवनको श्राप हुए लोगोंके समूहको निरखकर ऐसा मालूम होता था कि सारा मृत्युलोक एकही जगह जमा हो गया. है । इस समय चारों तरफ नरमुख दिखाई देते थे; एक तिल Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३३७ । रखनेको भी वहाँ जगह नहीं रही थी । हर्पसे उत्साहित बने हुए कई लोगभाटोंकी तरह महाराजकी स्तुति कर रहे थे; कई अपने वस्त्रांचलसे पवन डाल रहे थे, मानों वस्त्र चंचल चामर (पंखे) हों; कई हाथ जोड़, ललाटपर रख, सूर्यको नमस्कार करते हैं ऐसे, महाराजको नमस्कार करते थे; कई वागवानकी तरह फल और पुष्प अर्पण करते थे; कई कुलदेवताकी तरह वंदना करते थे और कई गोत्रके वृद्ध मनुष्यकी तरह असीस देते थे। (६२४-६३८) प्रजापति भरतने चार दरवाजोंवाले अपने नगरमें पूर्वके दरवाजेसे, इस तरह प्रवेश किया जिस तरह भगवान ऋपभदेव समवसरणमें प्रवेश करते हैं। शुभ लग्नकी घड़ीके समय जैसे एक साथ बड़े जोरोंसे बाजे वजते हैं वैसे, उस समय नगरमें बंधे हुए हरेक मंचपर संगीत होने लगा। महाराज आगे चले तब राजमार्गके मकानोंमें रही हुई नगरनारियाँ आनंदसे नजर की तरह लाजा (खीले) फेंक-फेंक कर उनका स्वागत करने लगीं। पुरजनोंने फूल बरसा-बरसा कर हाथीको चारों तरफसे ढक दिया, इससे वह हाथी पुष्पमय रथ जैसा हो गया। उत्कंठित लोगोंकी अकुंठ (न रुकनेवाली) उत्कंठा सहित चक्रवर्ती धीरे धीरे राजमार्गपर चलने लगे। लोग हाथीसे न डर कर महाराजाके समीप आने लगे और उनको फलादिक भेट करने लगे। कारण, "........'प्रमोदो बलवान् खलु । [आनंदही बलवान होता है।] राजा हस्तिको, अंकुश मार Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पव १. सर्ग ४. कर, हरेक मंचके पास खड़ा रखते थे। उस समय दोनों तरफके मंचोंपर आगे खड़ी हुईं सुंदर स्त्रियाँ, एक साथ, कपूरसे चक्रवर्तीकी आरती उतारती थीं। दोनों तरफ भारती उतरती थी .. इससे महाराज, दोनों तरफ जिसके सूरज और चाँद हैं ऐसे, ... मेरुपर्वतकी शोभा धारण करते थे। अक्षतोंकी तरह मोतियोंसे भरे थाल ऊँचे रख, चक्रवर्तीका स्वागत करनेके लिए, दुकानों के अगले भागों में खड़े हुए वणिकजन, दृष्टिसे उनका आलिंगन करते थे। राजमार्गपर स्थित हवेलियोंके दरवाजोंमें खड़ी हुईं कुलीन सुंदरियोंके किए हुए मांगलिकको, महाराज अपनी बहनोंके किए हुए मांगलिककी तरह स्वीकार करते थे। दर्शनकी इच्छासे भीड़में पिलते हुए लोगोंको देख, महाराजा अपना, अभयदाता हाथ ऊँचा कर छड़ीदारोंसे उनकी रक्षा करवाते थे। इस तरह अनुक्रमसे चलते हुए महाराजाने अपने पिताके सात मंजिले महलमें प्रवेश किया । (६३६-६५७) .. ____ उस राजमहलकी आगेकी जमीनपर दोनों तरफ दो हाथी बँधे हुए थे; वे राजलक्ष्मीके क्रीड़ापर्वतके समान मालूम होते थे। सोनेके कलशोंसे उसका बड़ा द्वार ऐसे शोभता था जैसे दो चक्रवाकोंसे ( चकवोंसे) सरिता शोभती है। आमके पत्तोंसे बने सुंदर तोरणसे वह महल ऐसा शोभता था जैसे इंद्रनीलमणिके कंठहारसे ग्रीवा शोभती है। उसमें किसी जगह मोतियोंके, किसी जगह कपूरके चूर्णके और किसी जगह चंद्रकांतमणियोंके स्वस्तिक-मंगल बने हुए थे। वह कहीं चीनांशुकों (रेशमी वस्त्रविशेषों)से, कहीं रेशमी वस्त्रोंसे और कहीं देवदूष्य (देवताओंके द्वारा लाए हुए) वस्त्रोंसे बनी पताकाओंकी श्रेणीसे . . Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३३६ - वह सुशोभित हो रहा था। उसके आँगनमें कहीं कपूरके पानी से, कहीं पुष्पोंके रससे और कहीं हाथियोंके मदजलसे छिड़काव किया गया था। उसके शिखर पर बँधा हुआ कलश ऐसा मालूम होता था मानो उसके बहाने सूरजने वहाँ आकर निवास किया है। ऐसे सजे हुए उस राजमहलके आँगनमें बनी हुई अग्रवेदी (हाथीसे उतरने के लिए वनी चबूतरी) पर पैर रख छड़ीदारके हाथका सहारा लेकर, महाराज हाथीसे नीचे उतरे। फिर उनने जैसे पहले प्राचार्यकी पूजा की जाती है वैसे, अपने अंगरक्षक सोलह हजार देवताओंको, उनकी पूजा कर विदा किया; इसी तरह बत्तीस हजार राजाओं, सेनापतियों, पुरोहितों, गृहपतियों और वर्द्धकीको विदा किया; हाथियोंको, जैसे आलानस्तंभपर बाँधनेकी याज्ञा दी जाती है वैसेही, तीन सौ तिरेसठ रसोइयोंको अपने अपने घर जाने की आज्ञा दी; उत्सव के अंत. में अतिथिकी तरह से ठोंको, अठारह श्रेणी प्रश्रेणीको,' दुर्गपालोंको और सार्थवाहोंको भी छुट्टी दी। फिर, इंद्राणी के साथ जैसे इंद्र जाता है ऐसे, खीरत्न सुभद्राके साथ, बत्तीस हजार राजकुलोंमें जन्मी हुई रानियोंके सात और उतनीही यानी बत्तीसहजार देशके नेताओंकी कन्याओंके साथ और बत्तीस-बत्तीस पत्तोंवाले उतनेही नाटकोंके साथ,मणिमय शिलाओंकी पंक्तिपर नजर डालते हुए महाराजाने यक्षपति कुरेर जैसे कैलाशमें जाता है १-नो तरह के कारीगर और नो तरहके, हल्की जातियों के लोग: ऐसे अठारह श्रेणियाँ हुई। हमको जातियोंको नयशायक कहते हैं। नव शायक-ग्याला, तेली, माली, जुनाहा. हलवाई, बदई, कुम्हार, फमकर और नाई। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] त्रिषष्टि शलांका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. वैसेही उत्सबके साथ राजमहल में प्रवेश किया। वहाँ कुछ देरके लिए पूर्वकी तरफ मुंहवाने सिंहासनपर बैट, सत्कथाएँ मुन, वे स्नानागारमें गाए। हाथी जैसे सरोवरमें स्नान करता है, वैसेही स्नान करके उन्होंने परिवारके साथ बैठ अनेक तरहके रसवाला भोजन किया । पीछे, बोगी से योगमें समय बिताता है वैसेही राजाने नवरस नाटक देखने और मनोहर संगीत सुननेमें झुछ काल बिताया (६५-६६८ ) एक बार मुर-ननि आकर विनती की, "ह महाराज ! थापन विद्याधरों सहित छःखंड पृथ्वीको जीत लिया है इसलिए हे इंद्रकं समान पराक्रमी महाराज ! हमें यात्रा दीजिए कि हम आपका महाराज्याभिषेक करें। महाराजाने श्राना दी, तब देवताओंने नगरके बाहर ईशानकोणमें, मुधर्मा समाका पक खंड हो गया मंडप बनाया। वे दद्रों, नदियों, समुद्रों और दूसरे नीयसि जल, औषधि और मिट्टी लाए। महाराजाने पापधशालामें जा अष्टम तप किया । कारण "गज्यं तपसाप्तमपि तपसैव हि निंदति ।" [ नपन्या द्वारा पाया हुया राज्य तपस्यासही मुखमय रहना है। ] अट्ठम तप पूरा होनेपर अंत:पुर (पत्नियों ) और परिवारकं लोगोंक साथ हाथीपर सवार हो चक्रवर्ती उस दिव्यमंडप गए। फिर.अंत:पुर और हजारों नाटकों के साथ उन्हान उत्तम प्रकारले बनाए हुए अभियक-मंडपमं प्रवेश किया। वहाँ व सिंह श्रासनवाल स्नानपाठपर बंट हा पसे मालूम होत मानों हाथी परनके शिखर पर चढ़ा है मानों इंद्रकी प्रीनिके लिए होम व पूर्व दिशाकी तरफ मह करके बैठमानो थोडस Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३४१ हों इस तरह बत्तीस हजार राजा उत्तर तरफकी सीढ़ियोंसे स्नानपीठपर चढ़े और चक्रवर्ती थोड़ी दूर भूमिपर, भद्रासनोंपर बैठे। वे विनयी राजा ऐसे हाथ जोड़कर बैठे जैसे देवता (इंद्रके सामने) बैठते हैं। सेनापति, गृहपति, वर्द्धकि (बढ़ई) पुरोहित और सेठ वगैरा दाहिनी तरफकी सीढ़ियोंसे स्नानपीठ पर चढ़े और अपने योग्य प्रासनोपर इस तरह हाथ जोड़कर बैठे मानों वे चक्रीसे कुछ विनती करना चाहते हों। फिर, आदिदेवका अभिषेक करनेके लिए जैसे इंद्र आते हैं वैसेही, इन नरदेवका अभिषेक करनेके लिए उनके आभियोगिक देवता आए । जलसे पूर्ण होनेसे मेषके समान, मुखभागपर कमल होनेसे चक्रवाक पक्षियोंके समान और अंदरसे पानी गिरनेसे आवाज होती है. इससे बाजेकी ध्वनिका अनुसरण करनेवाले शब्दोंवालोंके समान स्वाभाविक रत्नकलशोंसे वे आभियोगिक देव महाराजका अभिषेक करने लगे। फिर मानों अपने नेत्र हो ऐसे, जलसे भरे हुए कुंभोंसे बत्तीस हजार राजाषोंने शुभमुहूर्तमें उनका अभिषेक किया और अपने मस्तकपर कमलकोशके समान हाथ जोड़, "आपकी जय हो! आपकी जय हो!" बोलते हुए चक्रीको बधाई देने लगे (मुवारकवाद देने लगे)। उनके बाद सेठ वगैरह जलसे अभिषेक कर, उस जल के समानही उज्ज्वल वाक्योंसे स्तुति करने लगे। फिर उन्होंने पवित्र, रोयाँदार, कोमल और गंधकपायी वनसे माणिक्यकी तरह चक्रीके अंगको पोंछा तथा गेरु जैसे सोनेको चमक. दार बनाता है वैसेही महाराजके शरीरको(तेजस्वी-सुंदर बनानेके लिए) गोशीपचंदनके रसका लेप किया। देवताघोंने, इंद्रके Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पव १. सर्ग ३. द्वारा दिया गया ऋषभ स्वामीका मुकुट, उस अभिषिक्त और राजाओंके अग्रणी चक्रवर्तीके मस्तकपर रखा; उसके दोनों कानोंमें रत्नकुंडल पहनाए; वे चंद्रमाके पास रहनेवाले चित्रा और स्वाति नक्षत्र के समान मालूम होते थे धागेमें पिरोए बिना एक साथ हारके रूपमें एक मोतीही उत्पन्न हुआ हो ऐसे सीपके मोतीका एक हार उनके गले में पहनाया; मानो सभी अलंकारोंके हार रूप राजाका युवराज हो ऐसा एक सुंदर अर्धहार उनकी छातीपर आरोपण किया; उज्ज्वल व कांतिसे सुशोभित दो देवदूष्य वस्त्र राजाको पहनाए; ऐसा जान पड़ता था मानों वे कांतिमान अभ्रकके संपुट हों; एक सुंदर फूलोंकी माला महाराजाको गलेमें धारण कराई; ऐसा जान पड़ता था मानो वह लक्ष्मीके उरस्थलरूपी मंदिरका कांतिमान किला था। इस तरह कल्पवृक्षकी तरह अमूल्य वस्त्र और माणिक्यके आभूषण धारण करके महाराजाने, स्वगके खंडके समान उस मंडपको मंडित किया। फिर सर्व पुरुषोंमें अग्रणी और महान बुद्धिमान महाराजाने छड़ीदारके द्वारा सेवक पुरुषों को बुलाकर आज्ञा की, "हे अधिकारी पुरुषो ! तुम हाथियोंपर सवार होकर सारे नगरमें ढिंढोरा पिटवाकर बारह बरस तकके लिए विनितानगरीको मेहसूल (भूमिकर) जकात ( आयातकर ), दंड, कुदंड और भयसे मुक्त करके आनंदपूर्ण वनाओ।" अधिकारियोंने तत्कालही ढिंढोरा पिटवाकर राजाकी आज्ञापर अमल किया । कहा है "रत्नं पंचदशं ह्याज्ञा चक्रिणः कार्यसिद्धिषु ।" कामको सफल बनाने में चक्रवर्तीकी आज्ञा पंद्रहवें रत्न__के समान है। (६५८-७००) . .:.: .. . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३४३ ...फिर महाराज रत्नसिंहासनसे उठे, उनके साथही मानों उनके प्रतिबिंब हों वैसे सभी उठे। जैसे पर्वतपरसे उतरते हैं वैसेही भरतेश्वर स्नानपीठसे उसी मार्गसे नीचे उतरे जिसमार्गसे वे ऊपर चढ़े थे। दूसरे भी जिस मार्गसे वे आए थे उसी मार्गसे नीचे उतर गए। पीछे, मानों अपना असह्य प्रताप हो ऐसे उत्तम हाथीपर सवार होकर चक्री अपने महलमें गए। वहाँ स्नानगृहमें जा उत्तम जलसे स्नान कर अष्टमभक्त (अट्टम तप) का पारणा किया। इस तरह बारह बरसमें अभिपेकोत्सव पूर्ण हुआ, तब चक्रवर्तीने स्नान, पूजा, प्रायश्चित और कौतुक मंगल कर बाहरके सभास्थानमें आ, सोलह हजार आत्मरक्षक देवताओंका सत्कार कर उनको विदा किया। फिर विमानमें रहनेवाले इंद्रकी तरह महाराज अपने उत्तम महलमें रहकर विषय-सुख भोगने लगे। (७०१-७०७) महाराजाकी आयुधशालामें चक्र, खग, छत्र और दंड चार एकेंद्रिय रत्न थे; रोहणाचलमें माणिक्यकी तरह उनके लक्ष्मीगृहमें काँकिणीरत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न और नवनिधियों थीं; अपनेही नगर में जन्मे हुए सेनापति, गृहपति, पुरोहित और वर्द्धकि ये चार नररत्न थे; वैताट्य-पर्वतके मूलमें जन्मे हुए गजरत्न और अश्वरत्न थे और विद्याधरकी श्रेणी में जन्मा हुया एक स्त्रीरत्न था। नेत्रोंको आनंद देनेवाली मृर्तिसे वे चंद्रके समान शोभते थे दुःसह प्रतापसे सूर्य के समान लगते थे; पुरुपके रूपमें जन्मा हुआ समुद्र हो वैसे उनका मध्यभाग (हृदयका आशय ) जाना नहीं जाता था। कुबेरकी तरह उन्होंने मनुष्यका स्वामित्व प्राप्त किया था जंबूद्वीप जैसे गंगा और सिंधु Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. वगैरा नदियोंस शोभना है वैसेंही वे पूर्वोक्त चौदह रत्नोंसे शोभते थे। विहार करते समय जैसे ऋपमप्रभुके चरणोंके नीचे नी सोनेके कमल रहते हैं वैसेही उनके चरणोंके नीचे नौ निधियाँ रहती थीं । बहुत बड़ी कीमत चुका कर खरीदे हुए प्रात्मरक्षक हों से सोलह हजार पारिपाचक देवताओंसे चे विरे रहते थे। बत्तीस हजार राजकन्यायोंकी तरह बत्तीस हजार राजा निर्भर भक्तिसं उनकी उपासना करते थे। बत्तीस हजार नाटकोंकी तरह बत्तीस हजार देशकी दूसरी बत्तीस हजार कन्यायोंके साथ वं रमण करते थे। जगतमें वह श्रेष्ठ राजा तीनसौंतिरंसठ रसोइयोंसे ऐसे शोभताथाजैसे तीनसा तिरंसट दिनांसे वत्सर(बरस) शोमता है। अठारह लिपियाँ चलानेवाले ऋषभदेव भगवानकी तरह अठारह अंगी-प्रश्रेणी के द्वारा उन्होंने पृथ्वीपर व्यवहार चलाया थाविंचौरासी लाख हाथी,चौरासी लाग्न घोड़े, चारासी लाख रथ और छियानवे करोड़ गाँवोंसे तथा उतनही प्यादासे शोभते थे। वे बत्तीसहजार देशों और बहत्तरहलार बड़े नगरोंके' मालिक थे। निन्यानवे हमार द्रोणमुखों और अड़तालीम हतार जितवाने शहरोक वे ईश्वर थे। श्राईबरयुक्त लक्ष्मीवाले चोवीस नगर-जो परिखा (वाई) गोरों (दरवाजों)अटारी, कोट (किला) प्राकारने (चहारदीवारीसे) मुशामित हो, जिसमें अनेक भवन बने हुए हों, जिसमें तालाब और बगीचे हों, ना उत्तम स्थानपर बसा हुया हो, जिसके पानीका प्रवाह पूर्व-पश्चिम दिशाके बीचवाशी ईशान दिशाकी श्रार हो और जो प्रधान पुरुषकि रहनेकी जगह हो, उसे पुर या नगर कहते हैं। -द्रोणमुख-जो किमी नदी किनारे हो।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३४५ - - - हजार खर्वटों' और चौवीस हजार मंडवों और बीस हजार आकरोंके वे स्वामी थे। सोलह हजार खेटोंके४ वे शासनकर्ता थे। चौदह हजार संवाहोंके तथा छप्पन द्वीपों (टापुओं) के वे प्रभु थे और उनचास कुराज्योंके वे नायक थे। इस तरह सारे भरतक्षेत्रके वे शासनकर्ता-स्वामी थे। (७०८-७२७) अयोध्या नगरी में रहते हुए प्रखंड अधिकार चलानेवाले वे महाराज, अभिषेक उत्सव समाप्त हो जानेपर, एक दिन जब अपने संबंधियोंको याद करने लगे; तव अधिकारी पुरुपोंने, साठ १-खर्वट-जो पर्वतसे घिरा हो और जिसमें दोसी गाँव हो । २मंडव-जो पांच सौ गांवसे घिरा हो। -श्राकर-जहाँ सोने चाँदी श्रादिकी खाने हो । ४-खेट-जो नगर नदी और पर्वतीस घिग हो। ५-संवाह-जहाँ मस्तक पर्यंत ऊँचे ऊँचे धान्यके ढेर लगे हों। बस्तियाँक अन्य भेद भी माने गये हैं। वे यहाँ दिए जाते हैं । १. ग्राम-जिसमें बाड़ों से घिरे घर हो, खेत और तालाव हो और अधिकतर किसान और शूद्र रहते हो। (क) छोटा गाँव-जिसमें सो घर हो, और जिसकी सीमा एक कोसकी हो । (ख) बड़ा गाँव-निसमें पाँचसो घर हो, जिसकी मीमा दो कोसकी हो और जिनके किसान धनवान हो। २. पत्तन-जो समुद्र के किनारे हो अथवा जिसमें गांव के लोग नावांसे श्राते जाते हो । ३. राजधानी-एक राजधानी में श्राटसो गांव होते हैं । ४. संग्रह-दस गाँवों के बीच जो एक बड़ा गाँव होता है और जिसमें सभी वस्तुओंका संग्रह होता है । ५. घोपजी बहुतले घोष (अहीर ) रहते हैं। (अादिपुराय सोलहवां पर्य: श्लोक १६४ से १७०)] Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. हजार वर्षक विरहसे महाराजाके दर्शनोंको उत्सुक बने हुए सभी संबंधियोंको उनके सामने उपस्थित किया। उनमें सबसे पहले बाहुबलीके साथ जन्मी हुई गुणांसे सुंदर ऐसी मुंदरीका नामसहित परिचय कराया। वह मुंदरी गरमीके मौसमसे थाक्रांत हुई नदीकी तरह दुबली हो रही थी। हिमके संपर्कसे जैसे कमलिनी मुर्मा जाती है वैसेंही वह मुझाई हुई थी । हेमंत ऋतुके चंद्रमाकी कलाकी तरह उसका रूप-लावण्य नष्ट हो गया था और सूखे हुए पत्तांवाले कनकी तरह उसके गाल फीके श्रीर कृश हो गए थे। सुंदरीकी हालत इस तरह बदली हुई दंग्स महाराज गुस्से हुए और उन्होंने अपने अधिकारी पुस्यांसे कहा, "क्यॉजी ? क्या हमार चरम अच्छा अनाज नहीं है? लवण समुद्रम लवण (नमक) नहीं रहा ? पौष्टिक चीजें बनानवाने रसोइए नहीं है? या वे लापरवाह और भाजीविका तस्करके समान हो गए हैं ? दाखें और खजूर वगैरा खाने लायक मेवा अपने यहाँ नहीं है ? सोनके पर्वतम सोना नहीं है। बगीचोंमें वृक्षांन फल देना बंद क्रिया! नंदनवन में भी वृक्ष नहीं फलतं ? घडॉक समान थनावाली गाएँ क्या दृध नहीं देती ? कामधेनुकं स्तनका प्रवाह क्या सूख गया है ? अथवा सब चीजोंक होते हुए भी क्या मुंदरी बीमार हो गई थी इससे कुछ खाती न थी? अगर शरीरकी सुन्दरताको चुरानेवाला कोई रोग उसके शरीरमें हो गया था (उसको मिटानवाल वैद्य नहीं रहे?)क्या सभी वैद्य कथावशेष' . १-ऋथायमिं जिनके नाम यांत हाँ; मगर निनका शत्र अस्तित्व न रहा हो ऐमें। - - - Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांव [३४७ - हो गए हैं ? शायद अपने घरमें दवा समाप्त हो गई थी, तो क्या हिमाद्रि पर्वत भी औपधि-रहित हो गया है ? हे अधिकारियो, दरिद्रीकी लड़कीके समान सुंदरीको दुर्वल देखकर मुझे बड़ा दुःख होता है। तुमने मुझे शत्रुओंकी तरह धोखा दिया है ! (७२८.७४२) - भरतपतिकी ऐसी गुम्से भरी बातें सुन अधिकारी प्रणाम कर कहने लगे, "महाराज ! स्वगंपतिके जैसे आपके सदनमें सभी चीजें मौजूद है; परंतु जवसे आप दिग्विजय करनेको पधारे तवसे सुंदरी विल' तप कर रही हैं। सिर्फ प्राणोंको टिका कर रखनेहीके लिए थोड़ा खाती हैं। आप महाराजने इनको दीक्षा लेनेसे रोका, इसलिए ये भाव-दीक्षा लेकर समय विता रही हैं।" . यह बात सुनकर कल्याणकारी महाराजने सुंदरीकी तरफ देखकर पूछा, "हे कल्याणी ! क्या तुम दीक्षा लेना चाहती हो ?" सुंदरीने कहा, "हाँ महाराज ! ऐसाही है।" (७४३-७४६) यह सुनकर भरत राजा वोले, "अफसोस ! प्रमादसे या सरलतासे में अबतक इसके व्रतमें विघ्नकारी बना रहा हूँ। यह पुत्री तो अपने पिताके समान हुई और हम पुत्र हमेशा विषयमें आसक्त तथा राज्यमें अतृप्त रहनेवाले हुए। आयु जलतरंगके समान नाशवान है, तो भी विपयमें फंसे हुए लोग इस बातको नहीं समझते। (अंधेरैम) चलते नष्ट हो जानेवाली बिजलीकी चमकमें रस्ता देख लिया जाता है वैसेही इस गत्वर ( नाश होनेवाली) आयुसे साधुजनकी तरह मोक्षकी साधना कर १.-दिन भरमें फेवल एम.ही भान एक बार जानकार Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. me नाही योग्य है। मांस, विष्टा, मूत्र, मल, पमीना और रोगोंसे भरे हुए इस शरीरको सजाना घरकी मोरी सजाने के समान है। हे बहिन ! तुम धन्य हो कि इस शरीरसे मोक्षरूपी फल दनवाला वन ग्रहण करना चाहती हो। चतुर लोग लवणसमुद्रमेंसे भी रत्न ग्रहण करते हैं।" प्रसन्नचिन्न महाराजाने या कहकर मुंदरीको दीक्षाकी यात्रा दी। तपसे दुबली मुंदरी यह सुनकर अति प्रसन्न हुह, वह मानों पुष्ट हो ऐसी उत्साहामा जानपड़ी। (७१७-७५३) उसी अरसे में जगनरूपी मारकं लिए मेष समान भगवान ऋपमदेव विहार करत हए अष्टापद गिरिपर पाए। वहीं उनका समवसरण हुथा। रत्न, सोने और चाँदीके द्वितीय पर्वतके समान उस पर्वत पर देवताओंन समवसरगणकी रचना की। और उसमें बैठकर. प्रभु देशना न लगे। गिरिपालकॉन तत्कालही लाकरभरतपतिको इसकी सूचना दी। मेदिनीपतिको (जमीन मालिकको) यह मुनकर इननी बुशी हुई जितनी खुशी उसको छ:वंड पृथ्वी जीतनपर भी नहीं हुई थी। स्त्रामीक अानकी खबर देनवाले नौकरीको उसने साढ़े बारह करोड़ सोनयाँका इनाम दिया और मुंदरीम कहा, "तुम्हार मनोरयोंकी मूर्तिमान सिद्धि हाँ पसे, जगद्गुरु विहार करते हुए यहाँ श्राप है।" फिर दामियोंकी तरह अंत:पुरकी त्रियांसमुदरीका निष्कमगा• मिपंक' ऋगया। मुंदरीन स्नान करके पवित्र विलेपन किया। फिर मानों दूसरा विन्तयन क्रिया हो एसे पल्लंवाल मचल बन्न .१-घर छोड़कर जी बनने लिए, जानेमे पहन किया जानवाला स्नानादि ऋत्या - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३४६ और उत्तम रत्नालकार पढ़ने । यद्यपि उसने शीलरुपी अलंकार धारण किया था; तो भी व्यवहार सँभालने के लिए उसने दूसरे अलंकार स्वीकार किए। उस समय रूपसंपत्तिसे सुशोभित सुंदरीके सामने स्त्रीरत्न मुभद्रा दासी के समान लगती थी । शीन द्वारा यह सुंदर वाला, जंगम-चलती फिरती-कल्पलताकी तरह, याचकोंको जितनी (धन-दौलत) ये मांगते धे देती थी। हसिनी जैसे कमलिनीपर बैठती है वैसेहो वह कपूरकी रजके समान सफेद वस्त्रोंसे सुशोभित हो एक शिबिका (पालकी ) में बैठी। हाथियों, घुड़सवारों, यादों और रथोंसे पृथ्वीको ढकते हुए महाराज भरत, मरुदेवीकी तरह सुंदरीके पीछे पीछे चले । उसके दोनों तरफ चामर दुल रहे थे, मस्तकपर सफेद छत्र शोभता था और चारण-भाट, उसने संयमको जो दृढ़ श्राश्रय दिया था उसकी तारीफ करते थे। भाभियाँ दीक्षाके उत्सबके मांगलिक गीत गाती थीं और उत्तम स्त्रियाँ पद-पदपर लवण उतारती थीं। इस तरह साथ चलनेवाले अनेक पूर्ण पात्रोंसे शोभती, वह प्रभुके चरणोंसे पवित्र बनी हुई अष्टापद पर्वतकी भूमिपर पहुँची। चंद्रसहित उदयाचलकी तरह, प्रभु जिसपर विराजमान है. ऐसे पर्वतको देख भरत तथा सुंदरी बहुत खुश हुए। स्वर्ग और मोक्षमें जानेकी मानों सीढ़ी हो ऐसे विशाल शिलाभों वाले उस पर्वतपर वे दोनों चढ़े और संसारसे डरे हुए लोगोंके लिए शरणके समान, चार दरवाजों वाले और छोटी बनाई हुई जंबूद्वीपकी जगति (कोट) हो ऐसे, समवसरणके पास पहुंचे। उन्होंने उत्तरद्वारसे समवसरणमें यथाविधि प्रवेश किया। फिर हर्प और विनयसे भपने शरीरको उच्छ्वसित (चिंतामुक्त) तथा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग ४. . - संकुचित करते हुए प्रभुको तीन प्रदक्षिणा दे, पंचांगसे भूमिको स्पर्श कर, नमस्कार किया। उस समय, ऐसा मालूम होता था मानों ये भूतलमें गए हुए रत्न है जो प्रमुके विंबको देखना - चाहत है। फिर चक्रवतीन भक्तिसं पवित्र बनी हुई वारणा द्वारा प्रथम धर्मचक्री (तीर्थकर) की स्तुति करना प्रारंभ किया,-- (७५४-७७६) हे प्रमो! अमन-न होनेवाले गुणोंको भी ऋहनेवाले लोग दूसरे लोगोंकी न्तुनि कर सकते हैं, मगर मैं तो आपके जो गुण हैं उनको कहनमें भी असमर्थ हूँ, इससे मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ ? तो भी, जैसे दरिद्र श्रादमी भी जब वह लक्ष्मीवानके पास जाता है तब उसे कुछ भेट करता है ऐसेही, हे जगन्नाथ ! मैं भी आपकी स्तुति कलंगा। हे प्रभो! जैसे चाँदक्री किरणोंसे शेफाली जानिके वृक्षोंके पुष्प गल जाते हैं, ऐसेही, तुन्दारे चरणों के दर्शन मात्रसे मनुष्यों के अन्य जन्मामें किए छाए पाप नष्ट हो जाते हैं। हे प्रभो! सन्निपात रोग असाध्य (जिसकी कोई दवा नहीं ऐसा होता है परंतु यापकी अमृतरसके समान श्रीपचपी वाणी महामाहलमा सन्निपात बरको मिटा देती है। हे नाथ! वर्षाके जलकी तरह चक्रवर्ती और गरीव दोनॉपर समान भाव रखनेवाली श्रापकी दृष्टि, प्रीति. संपत्तिका एक कारणरूप होती है। स्वामी! कर कर्मरूपी घरफके गोलेको पिघला देनेनं सूर्यके समान श्राप हमारे सांक पुण्योदयसेही पृथ्वीपर विचरण करते हैं। हे प्रभो ! व्याकरणमें व्याप्त सक्षा मूत्रके जैली उत्पाद, व्यय और प्रौव्यमय, आपकी कही हुई त्रिपदी जयनी वर्तती है। हे भगवान! जो आपकी Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चाय का पत्तांत [ ३५१ स्तुति करते हैं उनके लिए यह भय प्रतिम होता है, तय जो थापकी सेवा-भक्ति करते हैं, आपका ध्यान करते है, उनकी तो घातही क्या कही जा सकती है ? (७७७-७८४ ) इस तरह भगवानकी स्तुति कर उनको नमस्कार कर भर. तेश्वर ईशान कोनमें अपने योग्य स्थानपर बैठा। फिर सुंदरी भगवान वृषभध्वजको वंदना कर, हाथ जोड़ गद्गद् अक्षरोंवाली वाणी में योली, "हे जगत्पति ! इतने काल तक मैं आपको मनसे देखती थी; मगर आज बड़े पुण्यसे और भाग्योदयसे आपके प्रत्यक्ष दर्शन हुए हैं। इस मृगतृष्णाके समान मिथ्या सुखवाले संसाररूपी मरदेशम (रेतीले प्रदेशमें ) अमृतके सरोवरके समान आप लोगोंको, उनके पुण्यसेही, प्राप्त हुए हैं । हे जगन्नाथ ! आप ममतारहित है, तो भी लोगोंपर आप वात्सल्य (प्रीति ) रखते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इस महान दुःखके समुद्रसे उनका उद्धार क्यों करते ? हे प्रभो ! मेरी बहन ब्राझी, मेरे भतीजे और उनके पुत्र, ये सभी आपके मार्गका अनुसरण कर कृतार्थ हुए है। भरतके आग्रहसे मैंने अबतक व्रत ग्रहण न किया इससे में खुदही ठगी गई हूँ। हे विश्वतारक ! अब मुझ दीनका निस्तार कीजिए ! निस्तार कीजिए ! सारे घरको प्रकाशित करनेवाला दीपक क्या घड़ेको प्रकाशित नहीं करता ? फरताही है। इसलिए हे विश्वकी रक्षा करनेमें वत्सल, आप प्रसन्न हूजिए और मुझे संसार समुद्रको पार करनेमें जहाजके समान दीक्षा दीजिए।" (७८५-७६३) सुंदरीके ऐसे वचन सुन "हे वत्से तू धन्य है !" कहकर सामायिक सूत्रोचार पूर्वक प्रभुने उसको दीक्षा दी। फिर उसे Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्रः पर्व १. सर्ग १. महात्रतल्पी वृक्षों वागमें अमृनकी धाराके समान शिक्षामय देशना दी। उसे सुनकर उसने माना कि उसको मोक्ष मिल गया है। फिर वह महामना माची, नाविमोंके समूहमें, उनके पीछे जाकर बैठी। प्रमुनी देशना मुन, उनके चरणकमलों में नमस्कार कर महाराजा भरत खुशी-खुशी अयोध्या नगरी में गए। (७६८-७) वहाँ अपने सभी स्वजनोंको देखनकी इच्छा रखनेवाने महाराजाले अधिकारियोंने आपलए संबंधियोंका परिचय कराया और लो नहीं पाए उनका स्मरण कराया। फिर अपने भाइयोंको-जो सबमें भी नहीं श्राप थे-त्रुलाने के लिए महाराजाने दूत मेजे। दृताने जाकर उनसे कहा, "यदि तुन्हें रायकी इच्छा हो तो मरतु-नानाकी सेवा करो। दूतोंकी बातें सुन, उन्होंन सोचविचारकर जवाब दिया, "पितानीने भरतको और हमको सुबको राज्य बाँट दिए हैं। अब भरतकी सेवा करने वह हमें अधिक क्या देगा ? क्या वह मौत थानेपर उसे रोक सकेगा? क्या बद्ददेहको पकड़नेवानी नरा-रानीको दंड दे सकंगा? क्या वह पीड़ा पहुंचानेवाल रोगपी व्यावाँको मार सक्नेगा या बह उत्तरोत्तर बढ्नवाली तृणाचा नाश कर मचेगा? अगर मेवाका इस तरहका फल, देनमें भरत असमर्थ होटोमर्व सामान्य मनुष्यता कौन किनके लिए संत्रा करने लायक है ? उसकं पास बहुन राज्य है तो भी, यदि उसे इतनेने संतोष न हो, और वह अपने बलसं हमारा राज्य लेना चाहता हो तो हम भी उसकेंही पिताके पुत्र हैं। इस लिए इंतो! इन पिताजी कई बगैर तुम्हारे स्वामीक साथ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [ ३५३ जो कि हमारा भी बड़ा भाई है, युद्ध करना नहीं चाहते।" . इस तरह दूतोंसे कह अपभदेवजीके - 5 पुत्र अष्टापद पर्वतपर समवसरण में विराजमान अटपभस्वामी के पास गए । वहाँ पहले तीन प्रदक्षिणा दे उन्होंने परमेश्वरको प्रणाम किया। फिर वे हाथ जोड़, मस्तकपर रख, इस तरह स्तुति करने लगे, (७६८-८०८) "हे प्रभो ! जब देवता भी अपने गुणोंको नहीं जान सकते है सब आपकी स्तुति करने में दूसरे कोन समर्थ हो सकते हैं ? तो भी, बालकके समान चपलतावाले, हम आपकी स्तुति करते है। जो हमेशा आपको नमस्कार करते हैं वे तपस्वियोंसे भी अधिक है और जो आपकी सेवा करते हैं वे योगियोंसे भी ज्यादा है। हे विश्वको प्रकाशित करनेवाले सूर्य ! प्रतिदिन नमस्कार करनेवाले जिन पुरुपोंके मस्तकोपर, आपके चरणों के नाखूनोंकी किरणें आभूपणके समान होती हैं, उन पुरुपोंको धन्य है। हे जगत्पति ! आप साम या बल किसी तरह भी किसीसे कुछ नहीं लेते, तो भी आप तीन लोकके चक्रवर्ती है। हे स्वामी ! जैसे सभी जलाशयोंके जलमें चंद्रका प्रतिबिंब रहता है ऐसेही, आप एकही सारे जगतके चित्तंमें निवास करते हैं। हे देव आपकी स्तुति करनेवाला पुरुप सबके लिए स्तुति करने योग्य बनता है; आपको पूजनेवाला सबके लिए पूज्य होता है। और आपको नमस्कार करनेवाला सबके लिए नमस्कार करने लायक होता है, इससे आपकी भक्ति महान फल देनेवाली कहलाती है। दुःखरूपी दावानलसे जलनेवाले पुरुपोंके लिए आप Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] त्रिषष्टि शलाका पुन चरित्रः पत्र १. मग १. मेयके समान है, और मोहांधकारसे नह बने हुए लोगों के लिए श्राप दीपक तुल्य है। माग छायावाले वृनकी तरह श्राप गरीव, अमीर, मन्त्र और गुगी-सवका उपकार करनेवाले है।" __इस तरह न्नुनि करने के बाद सभी एकत्र हो मौरकी नरह प्रमुक चराक्रमीम दृष्टि रख विनय करने लगे, "हे प्रभो! श्रायन इनको और भरतकी चोग्यता अनुसार श्रद्धा अलग राज्य बाँट दिए हैं, हम पाण्डए. राज्यान मंतुष्ट है कारण, स्वामी की बनाई हुई मर्यादा विना लोगों लिए अनुलंब्य होती है। परंतु हे भगवन ! हमार बड़े भाई भरत अपने राज्यसे और दूलगेन छीन हप गन्यांने भी जलमें बडवाननकी नरह, संतुष्ट नहीं हो रहे हैं। वे, जैसे उन्होंने दूमरॉक राज्य छीन लिए है. वही हमार गच्च भी छीन लेना चाइन हैं। भगत राजान दुलगेकी तरह हमारे पास भी दून मनकर हमस कहलाया है किया तो मेरी संवा कगे या गाव्यका त्याग करो। प्रमो. अपनको बड़ा माननवान भरनकवचनमानस हम, कायरकी नाह, पिनाक दिए हुए गन्यका त्याग कैसे कर सकते है ? इसी तरह हम अधिक ऋद्धिकी इच्यान नयनवाल मरतकी संवा मी क्यों करें जो मनुष्य अत्र होता है वही स्वमानका नाश करने वाली दुलगेकी सेवा अंगीकर, करते हैं। हमें न राज्य छोड़ना है और न संवाही करना है, नव युद्ध करनाही हमारे लिए स्वतः सिद्ध है तो भी हम पापस पूछे बिना कोई काम करना नहीं चाइना ( १- ५) पुत्रांकी यात सुनकर, जिनके निर्मल केवलबान में सारा नगन दिखाई देना है, ऐसे कृपालु भगवान श्रादीश्वरनाथने उन Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३५५ को यह आज्ञा दी, "हे वत्सो! पुरुप-व्रतधारी वीर पुरुपोंको तो अत्यंत द्रोह करनेवाले दुश्मनोंके साथही युद्ध करना चाहिए। राग, द्वेष, मोह और कपाम् जीवोंको, सैको जन्मोंमें भी नुकसान पहुँचानेवाले दुश्मन है। राग (स्नेह ) सद्गतिमें जानेसे रोकने के लिए लोहेकी ग्रेड़ी के समान बांधनेवाला है और द्वेष नरकवासमें निवास करानेकी बलवान जमानत है। मोह संसारसमुद्र के भंवरमें डाननेका पा (प्रतिक्षा) रूप है और कपाय आगकी तरह अपने आश्रित लोगोंको ही जलाती है, इसलिए पुरुपोंको चाहिए कि वे अविनाशी उन उन उपायरूपी अत्रोंसे निरंतर युद्ध करके बैरीको जीत और सत्य शरणभूत धर्मकी सेवा करें, जिससे शाश्वत श्रानंदमय पदकी प्राप्ति सुलभ हो। यह राज्यलक्ष्मी, अनेक योनियों में गिरानेवाली, अति पीड़ा पहुँचानेवाली, अभिमानरूप फल देनेवाली और नाशमान है। हे पुत्रो! पहले स्वर्गके सुखोंसे भी तुम्हारी तृष्णा पूरी नहीं हुई है, तो कोयले यनानेवालों की तरह मनुष्य संबंधी भोगोंसे तो वह फैसे पूर्ण हो सकती है ? कोयले बनानेवालेकी बात इस तरह है,-(२६-३४) कोई कोयले बनानेयाला पुरुष पानीकी मशक लेकर निर्जल जंगलमें, कोयले बनाने के लिए गया। वहाँ दुपहरकी धूपसे और अंगारोंकी गरमीसे उसे प्यास लगी। इससे वह घबराया और साथमें लाई हुई मशकका सारा पानी पी गया, फिर भी उसकी प्यास नहीं बुझी । इससे वह सो गया । सपने में मानों वह घर गया। वहाँ मटका, गागर और कलसा वगैराका सारा पानी पोगया, सो भी जैसे तेलसे अग्निकी तृपा शांत नहीं होती वैसे Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. ही, उसकी प्यास नहीं घुझी । तब उसने बावड़ी, कुए. और सरोवरोंको, उनका जल पीकर, सुखाया; तथा सरिता और. समुद्रका जल पीकर उनको भी मुरवाया, तो भी नारकी जीवों-.. की तृपा-वेदनाकी तरह उसकी प्यास नहीं बुझी । पश्चात मन देशके ( रेगिस्तानके ) कुएमें जाकर रस्सीसे वका पूला बाँध, जलके लिए उसमें डाला । कहा है __"किमातः कुरुते नहि ?" [दुखी आदमी क्या नहीं करता ? ] एमें जल बहुत गहरा था इसलिए, दर्भका पूला कूएमसे निकालते हुए वीचहीमें मर गया; तो भी दमक (भिखारी) जैसे तेलका पोता निचोड़ कर भी चूमता है वैसेही, वह उसे निचोड़कर पीने लगा, मगर. जो प्यास समुद्रके जलसे भी नहीं बुझी वह पूलेके जलसे कैसे वुम सकती थी? इसी तरह तुम्हारी तृष्णा-जो स्वर्गके मुखोंसे भी नहीं गई राज्यलक्ष्मीसे कैसे जाएगी ! इसलिए हे पुत्रो ! तुम विवेकियोंको चाहिए कि तुम अमंद आनंदके मरनेके समान और मोक्ष पानेके कारणम्प संयम-साम्राज्यको ग्रहण करो", (८३५-८४३) स्वामीके ऐसे वचन सुनकर उन अट्टानवे पुत्रोंके मनपर तत्कालही संबंगका रंग चढ़ा और उसी समय उन्होंने भगवानसे दीक्षा ले ली। "आश्चर्य है इनके धैर्यपर, सत्वपर और इनकी वैराग्य-बुद्धिपर !" इस तरह विचार करते हुए. दूतोंने आकर चक्रीको सारा हाल सुनाया; नव चक्रवर्तीने उन सबके राज्योंको इस तरह स्वीकार कर लिया जैसे चंद्रमा ताराओंकी Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [ ३५७ - - ज्योतिको स्वीकार करता है, जैसे सूरज अग्नियोंके तेजको स्वीकार करता है और जैसे समुद्र प्रवाहोंके-नदीनालोंके जलको स्वीकार करता है। (८४४-८४६) श्री हेमचंद्राचार्यविरचित त्रिपष्टिशलाका-पुरुपचरित्र . महाकाव्यके प्रथम पर्वका चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ। इसमें भरत चक्रोत्पत्ति,दिग्विजय, राज्याभिषेक और उसके ९८ भाइयोंका व्रत ग्रहण करना, वर्णन किया गया है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहर पाँचका भरत-पाहुबलीका वृत्तांत एक बार भरतेश्वर जिस समय सुखसे सभामें बैठे थे, उस समय सुपेण सेनापतिने श्राकर नमस्कार किया और कहा, "हे महाराज! आपने दिग्विजय कर लिया है तो भी आपका चक्र, जैसे मदोन्मत्त हाथी पालानस्तंभपर (हाथी बाँधनेके खमे पर) नहीं जाता है वैसेही, नगरमें नहीं पाता है।" भरतेश्वरने पूछा, "हे सेनापति ! इस छःखंड भरतक्षेत्रमें कोन ऐसा रहा है जो अब तक मेरी श्राझा नहीं मानता ?" उस समय मंत्रीने कहा, "हे स्वामी ! मैं जानता हूँ कि आप महारानने क्षुद्र हिमालय तक सारा भरतक्षेत्र जीत लिया है, आप दिग्विजय करके आए हैं, श्रापके जीतने लायक अय कौन शेष रह गया है ? कारण, "भ्रमद् घरट्टपतितास्तिष्टंति चणकाः किम् ।" [चलती चक्कीमें गिरा हुआ दाना क्या सावुत रह सकता है ?] तो भी चक्र शहरमें प्रवेश न कर यह सूचित करता है कि, अब तक कोई उन्मत्त पुरुष ऐसा है, जिसे आपको नीतना है । हे प्रभो ! ( मनुष्यों में तो क्या) देवताओंमें भी कोई पुरुष आपके जीतने लायक नहीं रहा है। मगर, हाँ! मुझे मालूम हुआ है कि दुनिया में एक दुर्जेयपुरुप रहाई, जो आपके जीतन योग्य है । वह है ऋषमस्वामीका पुत्र और आपका छोटा भाई Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुवलीफा पुशांत [ ३५६ बाहुबली । वह महा बलवान है और बलयान पुरुषों के बलको नाश करनेवाला है । जैसे, सभी शत्र एक तरफ और चक्र एक तरफ, उसी तरह सभी राजा एक तरफ और बाहुबली एक तरफ । जैसे श्राप अपभदेवजीके लोकोत्तर पुत्र है वैसेही, वे भी है। जबतक आप उनको नहीं जीतेंगे तब श्रापने फिसीको नहीं जीता,ऐसाही माना जाएगा । यद्यपि इस छःखंड भरतक्षेत्रमें आपके समान कोई नहीं दिखता, तथापि उनको जोतनेसे आप. फा अत्यंत उत्कर्ष होगा। बाहुवली जगतके मानने योग्य आपकी याज्ञाको नहीं मानते, इसलिए उनको नहीं जीतनेसे चक्र, मानों लजित हुआ हो ऐसे, नगरमें प्रवेश नहीं करता है। 'उपेक्षितव्यो न पर: स्वल्पोप्यामयवद्यतः ।" [ थोड़ेसे रोगकी तरह छोटेसे शत्रुकी उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। ] इसलिए देर किए बगैर उनको जीतनेका शीघ्र ही प्रयत्न करना चाहिए।" (१-१३) मंत्रीकी ये बातें सुनकर, दावानल और मेघकी वृष्टिसे पर्वतकी तरह, तत्कालही कोप और शांतिसे आशिष्ट होकर (अर्थात पहले क्रुद्ध और फिर शांत बनकर ) भरतेश्वरने कहा, "एक तरफ छोटा भाई श्राज्ञा नहीं मानता, यह शरमकी बात है और दूसरी तरफ छोटे भाई के साथ लड़ाई करना भी दुःखदायी है। जिसकी आज्ञा अपने घरमें नहीं चलती उसकी आज्ञा बाहर भी उपाहासास्पद (दिल्लगीके लायक ) होती है। इसी तरह छोटे भाईके अविनयको सहना भी अपवादरूप है । घमंड करनेवाले को सजा देना राजधर्म है, और भाइयों के साथ अच्छी तरह रहना चाहिए यह भी व्यवहार है; इस तरह अफसोस है कि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] त्रिपष्टि शन्ताका पुरुष-चरित्र: पर्व १. मर्ग ५. मैं एक संकटमें माया हूँ।" (22-१७) अमात्यने कहा, "हमहाराज! आपके इस संकटको श्रापहाक महत्व श्राप छोटे भाई, टालेंगे। कारण, सामान्य गृहत्या में भी यह व्यवहार है कि बड़े भाई श्रादा दें और छोटे भाई उसका पालन करें। इसलिए सामान्य गतिक अनुसार मंदेश पहुँचानवाला दूत मनकर, छोटे भाइको श्रादा कानिए। है देव! मरी-सिंह जिन नरह जीन बरदाश्त नहीं करना बंस ही, वीर अभिमानी श्रापका छोटा भाई अगर सारे जगतके लिए मान्य श्रापकी श्राहा न माने तो फिर इंद्रकं समान पराऋमी पाप उन्हें दंड दीजिए। इस तरह करनस लोकाचारका पालन होगा और आपको भी कोई दोष नहीं देगा । (१८२२) महाराजान मंत्रीकी यह बात मान ली ! कारण,"उपादया शास्त्रलोकव्यवहारानुगा हिं गी ।" [ शाब और लोकव्यवहार अनुसार जो बात हो उसे माननी चाहिय। फिर उन्होंने नीनिनीर वाचाल (वातचीन ऋग्नमें चतुर ) से मुवेग नामक दूतको मील देकर बाहुबली पास भेजा। अपने स्वामीकी श्रेष्ट सीन्त्रको, दूतपनकी दीनाकी नरह, अंगीकार कर, व्यौ सवार हो, सुवेग तशिला नगरकी तरफ चला । (२२-२२) मुबंग सारी सेना ले, वेगवान रथमें बैट, जब बिनीता नगरी बाहर निकला तत्र, पमा जान पड़ता था, मानां वह भरतपतिकी शरीरधारिणी यात्रा है। गन्नमें चलते समय शुरू‘मट्टी, मानों वह विधाताको विपरीत देखता हो इस तरह, बार. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांन [३६१ - - बार उसकी बाई आँख फड़कने लगी; अग्निमंडल के बीच में, फॅफ मारनेवाली नाड़ी (धोंकनी) में जैसे फूंक मारता है और धोकनी चलती है वैसेही, उसकी दाहिनी नाड़ी रोगके विनाही जल्दी जल्दी चलने लगी। तुतला बोलनेवाला आदमी जैसे संयुक्त अक्षर बोलनेमें भी अटकता है वैसेही उसका रथ सोधे मार्ग में भी बार बार मकने लगा। काला मृग, जिसे उसके घुड़सवारोंने आगे जाकर भगा दिया था तो भी, किसीका भेजा हुाहो ऐसे, उसकी दाहिनी तरफसे बाईं तरफको गया। कौश्रा सूखे हुए कॉटेदार वृक्षपर वैठकर चोंचरूपी शन्त्रको पत्थरकी तरह घिसता हुआ कटु स्वरमें,उसके आगे बोलने लगा। उसके प्रयाणको रोकने के लिए भाग्यने माना अर्गला डाली हो इस तरह, लंबा साँप उनके पागेसे गुजरा; मानों पश्चात विचार करने में विद्वान सुवेगको वापस लोटाता हो ऐसे, प्रतिकूल वायु, रज उड़ाकर उसकी आँखोंमें डालती हुई बहने लगी। आटेकी लुगदी लगाए विनाके या फूटेहुए मृदंगकी तरह विरस शब्द करता हुधा गधा उसकी दाहिनी तरफ रहकर रेंकने लगा। इन अपशकुनोंको सुवेग अच्छी तरह जानता था; तो भी वह आगे चला। कारण,"सभृत्याः स्वामिनः क्वापि कांडवत्प्रस्खलंति न।" [अच्छे नौकर स्वामीके काममें वाणकी तरह (सीधे जाते हैं, रस्ते में ) कभी नहीं रुकते।] अनेक गाँवों, नगरों, मंडियों और आकरों (खानों) से गुजरता हुआ, वहाँके निवासियोंको, थोड़ी देरके लिए वह आँधीके समान लगा। स्वामीके . कार्यमें लगे हुए आदमीके पीछे तोत्र (कोड़ा) होनेसे, जैसे वह Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] विषष्टि शलाका पुदय-चरित्र: पर्व १. सर्ग ५. निरंतर काम करता रहता है वैसही, सुवेश वृद्धा मुंडमें, सरोवर या सिंधुनट वगैरा स्थानाम भी विश्राम नहीं लेता था। इस तरह चलना था मानों यह मृत्युकी एकांत पनि भूमि हो में बीहड़ जगन्हमें पहुँचा। सदनांक जैसे, धनुष पढ़ाकर हाथियोंका निशाना बनानेवाले, और मुन जाति मृगांक चमड़ांक कवच बनाकर पहननवाज भोलास वह जंगल भरा हुआ था। मानों यमगनक यगोत्रीय हो पर चमुनमृगों, चीता, पाया, सिंहों और गरमा (अष्टापदी बगरा ऋर हिंसक पशुओंसुबह पन व्याप्त था । परम्पर लड़नवान्न सांपों और नशुलांक बिलां वह वन मयंकर लगता था। गीलों में व्यय छोटी छोटी मालनियाँ वहीं जिरती थीं मिस श्रापसमें लड़कर उस जंगल पुराने वृक्षांकी ताइत थे। शहद लेनेवाले श्रादमियों द्वारा उड़ाई हुई, शहदकी मत्रियोंस उस नंगलमें जाना कठिन हो रहा था। प्राचाय तक ऊँच पहुँच हुए वृदोंक समुहम वहाँ मुरत मी दिखाई नहीं देता था। पुण्यशन जैसे विपतियोंकी न्हायता है वैमही, बंगवान रथमें बैठा हा मुवेग लनु घोर जंगलको श्रासान से पार कर गया। (यहाँसे वह बहली देश में जा पहुँचा।) (२१-४३) उस देश मार्ग किनारे, वृक्षोंक नीचे, अन्नकार धारण कर श्रागन बैठी हुई नुसाजिराको वियों यह मूचित करनी थी कि, वहाँ मुराज्य है। हरेक गोचत गाँव में, पड़कि नीचे बैट हग, हपिन गोगल ऋषमत्रनित्र गाते थे। मानों मशाल बननेसे लाकर लगाए हो गस, मतदार और बहुत बड़ी संख्यात्रा सवन यजामसमी गाँव अलंत थे। वहाँ हरक गाँव और. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-पाहुघलीफा वृत्तांत [३६२ हरेक घरमें, दान देने में दीक्षित, गृहस्थ लोग यापकोंकी खोज करते थे। भरत राजासे सताए जाकर उत्तर भरतार्द्धमेंसे भाग कर पाए हों ऐसे, गरीब यवन लोग कई गाँवों में बसे हुए थे। यह भरतक्षेत्रसे एक अलग क्षेत्र ही मालूम होता था। वहाँ कोई भरत राजाकी आज्ञाको जानता-मानता न था। ऐसे उस पहली देशमें जाते हुए सुवेग, रास्तेमें मिलनेवाले लोगोंसे जो बाहुबली. के सिवा किसी दूसरे राजाको जानते न थे और जिन्हें वहाँ कोई दुःख नहीं था-वार चार बातचीत करता था। पर्वतोंमें फिरनेवाले दुर्मद और शिकारी जानवर भी उसे पंगु बनेसे मालूम होते थे। प्रजाके अनुराग-भरे वचनोंसे और महान समृद्धिसे वह बाहुबलीको नीतिको अद्वैत सुख देनेवाली मानने लगा। भरत राजाके छोटे भाई बाहुबलीके उत्कर्षकी बातें सुन सुनकर अचरजमें पड़ता हुआ और अपने स्वामीके संदेशेको याद करता हुआ सुवेश तक्षशिला नगरके पास पहुँचा । नगरके बाहरी भागमें रहनेवाले लोगोंने, आँख उठाकरमामूली तौरसे एक मुसाफिरकी तरह उसे देखा । खेलके मैदानमें धनुर्विद्याका खेल खेलनेवाले सुभटोंकी भुजाओंकी आवाजोंसे उसके घोड़े चमकने लगे। इधर-उधर शहरके लोगोंकी समृद्धि देखनेमें लगे हुए सारथीका मन अपने काममें न रहा, इससे उसका रथ किसी दूसरे रस्ते चलकर रुक गया। बाहरी बागोंके पास सुवेगने उत्तम हाथियोंको वधे देखा, उसे ऐसा जान पड़ा कि सभी द्वीपोंके, चक्रवर्तियोंके गजरत्न यहाँ लाकर जमा किए गए है। मानों ज्योतिष्क देवताओंके विमान छोड़कर आए हों ऐसे, उत्तम अश्वोंसे भरी हुई अश्वशालाएँ उसने देखीं । भरतके छोटे Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ) त्रिषष्टि शनाका पुरुप-चरित्रः पर्य १. सर्ग ५ - - माईके श्राश्चर्यकारक ऐश्वर्षको देखकर, सरमें दर्द हो गया हो से, बार बार सर धुनत हुए इतने तक्षशिलामें प्रवेश किया । माना अहमिंद्रहास, स्वच्छंद वृत्तिवाले और अपनी अपनी दुकानोंपर बैठे हुए धनिक व्यापारियोंको देखता हुया वह गज. द्वारपर पाया । (४४-६०) मानों सूरजकं तेजको छेदकर बनाए गए हाँ से चमकदार भाले हामि लिए प्यादांकी सेना लोग वहाँ बड़े थे। कई स्थानों में गोंके पत्तोंके अगले भागांनी तंज बरडियो लकर खड़े हुए सिपाही वीरनाम्पी वृक्ष पल्लवित हुए, हो, ऐसे जान पड़त थे। कहीं पत्थरोको फोड़ देनवाली लाहकी मजबून गुरजें लेकर ग्गड़े हुए मुमट एकदनी हाथियोंसे मालूम होत थे। कई स्थानोंपर नक्षत्रों तक वाण फेंकनवाले और शब्दबंधी निशाना मारनेवाले धनुर्धारी पुरुष, मात्र पीठपर बांध और हाथोंमें काल अनुप लिए, खड़े थे। मानों द्वारपाल हो एले दोनों तरफ सूई ऊँची उठाए खई हुए दोहाथियोंसे राज्यद्वार, दूरसे बहुत डराबना मालम होना था। इस नगमिष्ट (बाहुबली) का सिंहद्वार (महलोंमें घुमनेका मुख्य दरवाजा)देखकर सुवेगका मन विस्मित हुश्रा। अदर जानकी यात्रा पाने के लिए वह दरवाजेपर रुका; कारण, राजमहलोंका यही दस्तूर है। उसके कहनसे द्वारपालन अंदर नाकर बाहुबली से निवेदन किया कि अापकं बड़े भाईका मुवेग नामक एक दुत बाहर खड़ा है। राजान ले-श्रानकी श्रात्रा दी। छड़ीदार, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ट मुबंग नामक दूतको,सूर्यमंडल में सुधकी तरह, सभामं ला खड़ा किया। (६१-६९) .. वहाँ विम्मित्त सुवगने सिंहासनपर बैठे हुए तंजक देवताके Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [३६५ समान बाहुवलीको देखा । मानों आकाशसे सूर्य उतरकर आए हों ऐसे रत्नमय मुकुट धारण करनेवाले तेजस्वी राजा उसकी सेवा करते थे। अपने स्वामीकी विश्वास रूपी सर्वस्व-वलीके संतानरूपी मंडपके समान, और परीक्षा द्वारा शुद्ध पाए गए प्रधानोंका समूह उसके पास बैठा था। प्रदीप्त मुकुटोवाले और जगतके लिए असह्य हों ऐसे, नागकुमारोंके जैसे, राजकुमार उसके आस-पास उपस्थित थे। बाहर निकाली हुई जीभोवाले सपों के समान खुले हथियार हाथमें लेकर खड़े हुए हजारों शरीररक्षकोंसे वह मलयाचलकी तरह भयंकर मालूम होताथा | चमरीमृग जैसे हिमालय पर्वतको, वैसेही अति सुंदर वारांगनाएँ उसको चामर डुलाती थीं। विजली सहित शरऋतुके मेघकी तरह पवित्र बेपवाले और छड़ीवाले छड़ीदारोंसे वह शोभता था । सुवेगने शब्द करती हुई सोनेकी लंबी जंजीरवाले हाथीकी तरह ललाटसे पृथ्वीको स्पर्श कर बाहुबलीको प्रणाम किया। तत्कालही महाराजाके द्वारा आँखके इशारेसे मँगाकर (विछवाए हुए) आसनको प्रतिहारने उसे बताया। वह उसपर बैठा। फिर कृपारूपी अमृतसे धोईहुई उजली दृष्टिसे सुवेगकी तरफ देखते हुए राजा बाहुबली बोले, "हे सुवेग ! आर्य भरत सकुशल हैं ? पिताजीके द्वारा लालित-पालित अयोध्याकी सारी प्रजा सकुशल है ? कामादिक छः शत्रुओंकी' तरह छः खंडोंको भरत महाराजने निर्विघ्नरूपसे जीता है न ? साठ हजार वरस तक १-जीवके छ: शत्रु हैं; काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य । ये छ:चके नामसे भी पहचाने जाते हैं। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. मग ५. बड़े बड़े युद्ध करके सेनापति वगैरह सभी लोग सकुशल वापस पाए है न ? सिंदूरसे लाल किए हुए कुंमन्थलों द्वारा, आकाश को संध्याके समान बनाती हुई महाराजके हाथियोंकी घटा सकुशल है न ? हिमालय तक पृथ्वीको रोदकर पाए हुए. महाराजा के सभी उत्तम घोड़े स्वस्थ है न ? अन्ह पानावाले और समी रालाओं के द्वारा सेवित पार्य भरतकं दिन मुग्यसे बीत रहे हैं न?" (७०-८५.) ___इस तरह पूछकर वृपभात्मज बाहुबली जब मौन हुए, तब घबराहट-रहित हो, हाथ जोड़, सुवेग बोला, "सारी पृथ्वीको सकुशल ( मुम्बी ) बनानेवाले भरनगायकी कुशलता तो स्वतः सिही है। जिनकी रक्षा करनेवाले श्रापकं बड़े भाई हैं, उन नगरी, सेनापनि, हाथियों और घोड़ों वगैरहको तकलीफ पहुँचानकी शक्ति नो विधाता भी नहीं है। भरत राजासे अधिक या उनकें समानही दूसरा कौन है जो उनके छःखंड-विजयमें विघ्न डालना ? यद्यपि सभी गजा उनकी श्रान्नाका अखंड पालन करते है और उनकी सेवा करते है, तथापि महाराजाके मनम सुख नहीं है। कारण जो दरिद्र होते हुए भी अपने कुटुंबसे सेवित होता है वह ईश्वर है, मगर जिसकी कुटुंब सेवा नहीं करता उसको ऐश्वका मुख केस हो सकता है ? साठ हजार वर्षक अंतमें आए हुए आपके बड़े भाई उत्कंठासे अपने सभी छोटे भाइयोंके प्रानकी राह देखते थे। सभी संबंधी और मित्रादि यहाँ श्राप और उन्होंने उनका महाराज्याभिषेक किया। उस समय उनके पास इंद्रादि देव सभी आए थे मगर उनमें अपने छोटे माध्योको न देख महाराजा सुखी नहीं हुए। बारह परस Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-याहुमलीफा वृत्तांत dane तक राज्याभिषेक चला। उसमें अपने भाइयोंको न आते देख उन्होंने सबके पास दूत भेजे; कारण,-'उत्कंठा वलवान होती है। मगर वे न जाने क्या सोचकर, भरत महाराजके पास न आए और पिताजीके पास चले गए। वहीं उन्होंने दीक्षा ले ली। श्रव चे मोह-ममता रहित हो गए हैं। उनके लिए न कोई अपना है और न कोई पराया है, इसलिए उनसे महाराज भरतकी भाईसे प्रेम करनेकी इच्छा पूर्ण नहीं होती, अत: यदि आपके मनमें बंधुताका प्रेम हो तो आप वहाँ चलिए और महाराजके हृदयको प्रसन्न कीजिए । आपके बड़े भाई चिरकालके बाद घर लौटे हैं. तो भी आप बैठे हुए है ( उनसे मिलनेको नहीं गए), इससे मैं कल्पना करता हूँ कि आपका हृदय वनसे भो कठोर है। आप बड़े भाईकी अवज्ञा करते हैं, इससे जान पड़ता है कि आप निर्भीकसे भी निर्भीक है । नीतिमें कहा है कि__ "शूरैरपि वर्तितव्यं गुरौ हि समयैरिव ।" [शूर-वीरोंको भी चाहिए कि वे गुरुजनोंसे डरते रहें।] एक तरफ जगतको जीतनेवाला हो और दूसरी तरफ गुरुकी विनय करनेवाला हो,तो उनमेंसे किसकी प्रशंसा करनी चाहिए ? इसका विचार करनेकी पर्पदा (सभा) के लिए आवश्यकता नहीं है। कारण,-गुरुकी विनय करनेवालाही प्रशंसा करनेके योग्य होता है। आपकी ऐसी अविनय, सबकुछ सहनेवाले, महाराज सहन करेंगे; मगर पिशुन (निंदक ) लोगोंको बेरोक मौका मिलेगा; आपकी अविनयका प्रकाश करनेवाले, पिशुन लोगोंकी वाणीरूपी छाछके छींटे धीरे धीरे महाराजाके दूधके समान दिलको दूपित करेंगे। स्वामीके संबंधमें अपना छोटासा छिद्र हो, Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] त्रियष्टि शलाका पुनय-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. वह भी रक्षणीय है; कारण, "छिद्रंण लघुनाप्यंमः सेतुमुन्मूलयस्यहो।" [छोटसे छेदकं द्वारा भी पानी बाँधका नाश कर डालता है। श्राप सी शंका न कीजिए कि मैं अबतक नहीं गया. अब कस जासकता हूँ. ? श्राप चलिए । कारण, ... "मुस्वामी गृहाति सवलितं नदि।" [अच्छं स्वामी भूलका ग्रहगा नहीं करते हैं-उसकी उपेक्षा करते हैं।] श्राकाशमें सूर्योदय होनस जैस हिम (कुहरा) नष्ट हो जाता है वैसही, श्रापकं वहाँ जान पिशुन लोगोंक मनोरथ नष्ट हो नाग । पत्रंगी ( पूणिमा ) के दिन जंस नूरजसे चाँदको तेज मिलता है सही, उनले मिलने आपके तेजमें वृद्धि होगी। स्वामीकी नरह पाचरण करनेवाले अनेक बलवान पुरुष अपना संन्यपन छोड़कर महाराजका संवा कर देवताओंके लिए इंद्र सेव्य है सही, कृपा और सजा करनी ममयं चक्रवर्ती भी सभी गजायोंके लिए सेवा करने योग्य है। श्राप कंचल चक्रवतीपनका पक्ष लेकर ही उनकी सेवा करेंगे तो श्राप उमस अद्वितीय भातंप्रमको मा प्रकाशित करेंगे। शायद श्राप यह सोचकर कि तो मर माई है, वहाँ न लायें, तो यह भी उचित न होगा। कारण, श्रानाको मुख्य जाननेवाले राजा बानि-मावसे भी निग्रह करते हैं यानी नातिवालासें भी अपनी थाना पलवान है। लोहचुवकस लाहकी तरह उनके उत्कृष्ट तेज से लिंच छप देव, दावन और मनुष्य सभी मरनपतिके पास आत है। जब ईद मी, महागज भग्नको अपना प्राधा श्रासन Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत याहुयलीका वृत्तांत [३६६ - देकर इनका मित्र बन गया है, तब श्राप सिर्फ उनके पास आकर ही उनको अपने अनुकुल क्यों नहीं बना लेते है ? यदि श्राप धीरताके अभिमानसे महाराजका अपमान करेंगे तो, आप सेना-सहित उनके पराक्रमरूपी समुद्र में, मुट्ठीभर बिगड़े हुए धान्यकं श्राटेक समान, विलीन हो जाएंगे। मानों चलते-फिरते पर्वत हो ऐसे ऐगवतके समान उनके चौरासी लाख हाथियोंको प्राते हुए कौन सहन कर सकता है-रोक सकता है ? और प्रलय. के समुद्र के कल्लोलकी तरह सारी पृथ्वीको भिगोते हुए उतनेही यानी, चौरासी लाख घोड़ों और चौरासी लाख रथोंको रोकनेकी ताकत किसमें है ? छियानवे करोड़ गाँवों के मालिक महाराजाके छियानवे करोड़ प्यादे सिंहकी तरह किसको भयभीत नहीं कर देते हैं ? उनका मुंपण नामका एक सेनापतिही,अगर हाथमें दंड लेकर आता हो तो, देव या दानव भी उसका मुकाबला नहीं कर सकते हैं। सूर्यके लिए अँधेरा जैसे किसी गिनतीमें नहीं है गेसेही, चक्रधारी भरतचक्रोके लिए तीन लोक भी किसी गिनतीमें नहीं है। इसलिए हे बाहुवली ! तेज और वय दोनाम बड़े महाराजा, राज्य और जीवनकी इच्छा रखनेवाले आपके लिए सेव्य है ।" (८६-१२०). सुवेगकी बातें सुनकर अपने वलसे जगतकं बलको नाश करनेवाले बाहुबली, दुसरे समुद्र हों ऐसे, गंभीर वाणीमें बोले, "हे दूत तुम धन्य हो! तुम वातूनियोंमें अग्रणी हो इसीसे मेरे सामने ऐसे वचन बोलनेमें समर्थ हुए हो। बड़े भाई भरत हमारे पिताके समान हैं। वे बैबुसमागम-भाईसे मिलना चाहते हैं, यह बात उनके योग्यही है मगर हम इसलिए उनके पास नहीं २४ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. ] नियष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग ५. आए कि मुर, अनुर और राजाओंकी लक्ष्मीले ऋद्विवान बने दुए के,हम अल्प वैभववालसिलजिजन होंगे। साठ हजार बरस. तक दूसरों के गल्य लेनमें लगे रहे। यह बातही उनके लिए अपने छोटे भाइयोंका राज्य लेनेकी व्यग्रताका कारण है। अगर भ्रातृस्नेहका कारण होता तो वे अपने भाइयोंको एक एक दृत भेजकर यह बात क्यों कहलात कि गञ्च छोड़ो अर्थात हमारी सेवा स्वीकार करो या लड़ाई करो। लोभी मगर बड़ा भाई। उसके साथ कौन लड़ाई करें ? यह सोचकरही मेरे सत्वर्वत सभी छोटे भाई अपने पिनाके पदचिन्हों पर चले हैं। उनके राज्योंको ले लनस छिद्र देखनेवाले तुम्हारे स्वामीकी बकचेष्टा श्रव प्रगट हो गई है। इसी तरह और एसाही स्नेह बताने के लिए, भरनने तुम्हें वागीक प्रपंचमें विशेष चतुर समझकर, बहाँ भेजा है। उन छोटे भाइयोंने अपना राज्य दे, व्रत ग्रहण कर, जैसा श्रानन्द उसको दिया है वैसा आनंद क्या मेरे पानसे उस राज्य लोभीको होगा ? नहीं होगा । मैं वनसे भी कठोर हूँ, और थोड़े बैंमवत्राला हूँ, तोभी बड़े भाईका अपमान होगा इस हरसे उनकी सम्पत्ति लेना नहीं चाहता है। फूलोंमें भी कामल हैं. मगर मायाचारी है। इसलिए निंदासे डरकर व्रत ग्रहण करनेवाले अपने छोटे भाइयोंके राज्य उनने ले लिग है. हे वृत ! भाइयों के राज्य ले लेनवाले भरतक्री हमने उपेक्षा की, इसलिए हम सचमुची निर्मयोंसे भी निर्भय है और. "गुरौ प्रशस्यो बिनयो गुरुयदि गुरुमवेत । गुरी गुरुगुणहीन विनयोपि पास्पदम् ।।" Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [३७१ - - [गुरुका विनय करना अच्छी बात है अगर गुरु गुरु हों; मगर गुरु यदिगुणहीन हों तो उनका विनय करना लज्जाजनक है। गुम अगर अभिमानी हो, कार्य-अकार्यका जाननेवाला न हो और उलटे रस्ते चलनेवाला हो तो ऐसे गुमका त्याग फरनाही उचित है । तुम कहते हो कि भरत सर्वसह-सब कुछ सहनेवाला राजा है, मगर हमने क्या उसके अवादि छीन लिए है या उसके नगरोंको लूट लिया है, कि हमारे इस अविनयको उन्होंने सह लिया। हम तो दुर्जनोंका प्रतिकार करनेके लिए (भी) ऐसे काम नहीं करते; ( इसलिए कहा है कि )"विमृश्यकारिणः संतः किं दुष्यंते खलोक्तिभिः ।" [विचारपूर्वक काम करनेवाले सजन क्या दुष्ट लोगोके कहनेसे दूपित होते हैं ? ] इतने समयतक हम पाए नहीं थे। क्या वे कहीं निस्पृह होकर चले गए थे (सो लौटकर आए है) इसलिए अब हमें उनके पास जाना चाहिए। वे भूतकी तरह छिद्रको ढूँढ़नेवाले हैं तोभी हम सब जगह सावधान और निर्लोभ रहनेवालोंकी कौनसी भूलको ग्रहण करेंगे ? (अर्थात हमारी भूलकी उपेक्षा करेंगे ?) हमने भरतेश्वरसे न कोई देश लिया है और न कोई दूसरी चीजही ली है तब वे हमारे स्वामी कैसे होंगे ? जब हमारे और उनके भगवान ऋपभदेवहीस्वामी है, तव हमारे और उनके सेवक और स्वामीका संबंध कैसे संभव है ? मैं तेजका कारणरूप हूँ। मेरे वहाँ आनेसे उनका तेज कैसे रहेगा ? कारण, "तेजोऽम्युदितवत्य, तेजस्वी नहि पावकः ।" [तेजस्वी सूर्यके उदय होनेपर आगका तेज नहीं रहता है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्य १. सर्ग ५. असमर्थ राना ग्बुद स्वामी होते हुए भी उन्हें ( भरतको ) स्वामी मानकर उनकी सेवा करते हैं, कारण उन निर्बल राजायांको पुरस्कार देन या सला करने में मरन समर्थ है। यदि में प्रानुन्नेहके वश होकर उनकी सेवा कर तो भी उस सेवाका संबंध उनके चक्रवर्तीपनही लगाया जाएगा। कारण "....."यत् अवद्ध मुखो जनः ।" लोगोंक मुँह बंद नहीं किए जासकत में उनका निर्मय भाई हूँ शोर वं मुझ श्रादा करने योग्य हैं, मगर जातिस्नेहफा इसमें क्या काम है ? ....... वज्रेण न विदायते।" . विचका बन्नस नाश नहीं होता। वह भन्ने मुर, अमुर और नरोकी संवास प्रसन्न हो; मुझे इससे क्या मतलब है ? सजा हुआ रथ भी सीध रन्तपर ही चल सकता है। अगर यह वराव गन्तपर चलताहे तो टूट जाता है। इंद्र पिताजीका मत है, इसलिए मरनको पितानीका बड़ा लड़का सममकर अपने श्रावं यासनपर विद्याता है इसमें भरतके लिए अभिमान करनकी कोनसी बात है ? यह सच है कि मरतल्पी समुद्रम नुसरे गाना सेना सहित मुहीमर. सई अनान पाटेक समान हुए हैं, मगर मैं, असा तंजवान तो उस समुद्री बड़वानन्तके समान है। सूर्यके तंज में जैसे जमात्र लीन हो जाते हैं, उसी तरह भरत राजा अपने घोड़ा, हाथियों, ज्यादा और सेनापति सहित मुममें लय हो जाते हैं। बचपनमें हाथ की तरह मन अपने हाथ उनका पैर पकड़कर उन्हें Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [३७३ मिट्टीके ढेलेकी तरह आकाशमें उछाल दिया था। आकाशमें बहुत ऊँचे जानेपर फिर नीचे गिरकर मर न जाएँ इस खयालसे, नीचे आते समय मैंने उन्हें फूलकी तरह झेल लिया था; मगर इस समय उनके द्वारा जीते गए राजाओंके चाटु भाषणोंसे, मानों दूसरा जन्म पाए हों इस तरह, वे सभी बातें भूल गए हैं। परंतु वे सभी चाटुकार भग जाएँगे और उनको अकेलेही बाहुबलीकी भुजाओंसे होनेवाली वेदना सहनी पड़ेगी। हे दूत ! तुम यहाँसे चले जाओ। राज्य और जीवनको इच्छासे वे भले यहाँ श्रावें । मैं, पिताजीने जो राज्य दिया है उसीसे संतुष्ट हूँ। उनके राज्यकी मुझे इच्छा नहीं है; इसीलिए मैं वहाँ आनेकी जरूरत भी नहीं देखता।" (१२१-१५४) बाहुबलीके इस तरह कहनेसे, स्वामीके दृढ़ आज्ञारूपी बंधनमें बंधे हुए, चित्र-विचित्र शरीरवाले दूसरे राजा भी क्रोधसे आँखें लाल करके सुवेगको देखने लगे। राजकुमार गुस्सेसे 'मारो!मारो! कहते हुए और होठोंको हिलाते हुए एक अनोखेही ढंगसे उसको देखने लगे। अच्छी तरहसे कमर कसे और तलवारें हिलाते हुए अंग-रक्षक,मानों मार डालना चाहते हों इस तरह, आँखें तरेर कर सुवेगको देखने लगे; और मंत्री यह चिंता करने लगे, कि महाराजका कोई साहसी सिपाही इस दूतको मार न डाले। उसी समय छड़ीदारका कदम उठा और हाथ ऊँचा हुआ,ऐसा लगा मानों छड़ीदार दूतकी गरदन पकड़नेको उत्सुक है (मगर नहीं)छड़ीदारने उसे हाथ पकड़ आसनसे उठा दिया। इस व्यवहारसे सुवेगके मनमें क्षोभ हुआ, क्रोध आया मगर वह धैर्य धरकर सभासे बाहर निकला । कुपित बाहुबलीके कठोर शब्दों Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. के अनुमानसे राजद्वारपर खड़े हुए प्यादे क्षुब्ध हो उठे। उनमेंसे कई ढालें ऊँचीनीची करने लगे, कई तलवारें घुमाने लगे, कई फेंकने के लिए चक्र तैयार करने लगे,कई मुद्गरें उठाने लगे,कई त्रिशूलें झनझनाने लगे, कई भाथे बाँधने लगे, कई दंड ग्रहण करने लगे और कई परशुओंको आगे बढ़ाने लगे । सब प्यादोंको इस तरहकी चेष्टाएँ करते देख, चारों तरफ पद पदपर उसे अपनी मौत सामने दिखाई देने लगी। घबराहटसे उसके पैर सीधे नहीं पड़ते थे। इस तरह सुवेग नरसिंहके (बाहुवलीके ) सिंहद्वारसे बाहर निकला । वहाँसे रथमें बैठकर नगरके लोगोंकी आपसमें होती हुई नीचे लिखी वातचीत उसने सुनी। (१५५-१६४) -"रानद्वारमंसे यह नया श्रादमी कौन निकला ? -~-यह भरत राजाका दूत मालूम होता है। -च्या पृथ्वीपर बाहुबलीके सिवा दूसरा भी कोई राजा -~-हाँ, बाहुबलीके बड़े भाई भरत अयोध्या राजा हैं। इस दूतको उन्होंने यहाँ क्यों भेजा ? -अपने भाई राजा वाहुवलीको बुलाने। -~-इतने समयतक हमारे स्वामीके भाई राजा कहाँ गए थे? -भरतक्षेत्रके छःखंडको जीतने गए थे। -अभी उन्हें अपने भाईको बुलानेकी इच्छा क्यों हुई ? ~दूमरं मामूली राजाओंकी तरह सेवा कराने। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत याहुबलीका वृत्तांत [ ३७५ -सब राजाओंको जीतकर वह अब इस लोहेके कीलेपर (शूलीपर ) क्यों चढ़ना चाहता है ? -इसका कारण अखंड चक्रवर्तीपनका अभिमान है। -छोटे भाईसे हारा हुश्रा वह राजा अपना मुँह कैसे दिखा सकेगा। -सब जगह जीतनेवाला आदमी भावीमें होनेवाली हार. को नहीं जानता। -भरत राजाके मंत्रियोंमें क्या कोई चूहके समान भी नहीं है ? -उसके फुलक्रमसे बने हुए अनेक बुद्धिमान मंत्री हैं। -तब मंत्रियोंने भरतको सर्पका मस्तक खुजानेसे क्यों नहीं रोका ? - उन्होंने उसको रोका तो नहीं प्रत्युत उत्साहित किया है। होनहारही ऐसा है ।" (१६५-१७४) नगरनिवासियोंकी ऐसी बातें सुनता हुआ सुवेग नगरसे पाहर निकला। नगरद्वारके पास, मानों देवताओं ने फैलाई हो ऐंसे ऋषभदेवजीके पुत्रोंकी युद्धकथा उसे इतिहासकी तरह सुनाई दी। क्रोधके मारे सुवेग जैसे जैसे वेगसे आगे बढ़ने लगा पैसेही वैसे, मानों स्पर्धा करती हो ऐसे युद्धकथा भी बड़े वेगसे फैलने लगी। केवल बातें सुनकर ही, राजाकी आज्ञाकी तरह, हरेक गाँवमें और हरेक शहरमें वीर सुभट लड़ाई के लिए तैयार होने लगे। योगी जैसे शरीरको मजबूत बनाते हैं वैसेही, कई लड़ाईके रथ, शालाओं में से निकालकर उनमें नवीन धुरियाँ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ त्रिप्रष्टि शंशाका पुन्य चरित्र: पर्व १. सर्ग ५. वगैरह डालकर मजवृत बनाने लगे; कई अपने घोड़ोंको वुड़शालायामसे निकाल, घोड़ोंको सिलाने मैदान में लेजा, उनको पाँच तरह की गतियोंसे चला, रग योग्य बना उनका श्रम दूर करने लगे। कई, मानों प्रमुकी तेजोमय मूर्ति हों ऐसे,अपने खन वगैग प्रायुघाँको मान पर चढ़ा. तीक्ष्ण बनाने लगे। कई अच्छे मांग लगा नवीन नाँन बाँध यनराजकी शृकुटीक समान अपने धनुषाको तैयार करने लगे। कई प्रयाण के समय स्वर निकालते रहनस, मानों प्राणवान बाजे हों ऐसे, जंगली ऊँवोंको ऋत्रत्र वगैरा उठाकर जानके लिए लान थे। वार्किक पुनर जैसे सिद्धांत को चढ़ करते हैं ऐसे, कई अपने वाोंनो, कई वाणों भायात्रो, कई शिरस्त्राणों (लोदों या टोपों) को और कई कवचोंको, (वे मजबूत थे तो भी ) विशेष मजबूत बनाते थे। और कई गंधवाक भवन होंगसे, रखे हुए नंबुओं और कनातांको चौड़ कर देखने लगे थे। मानों एक दुसरंकी सद्धों करने होंगसे,बाहुबली राजा मन्ति रखनेवाले उस देशके लोग इस तरह युद्धक लिप नैयार हात थे। रानमतिकी इच्छा रखनेवाला कोई अदनी लड़ाइने जाने के लिए वैयार होता था, उसके किसी कुटुंबीने पाकर उसे रोका इमसें बहकुटुंबीपर इस तरह नाश हुश्रा, मानों वह उसका कोई नहीं है। अनुरागवंश अपने ग्राण देकर भी गजामा भला करनेची इच्छा रखनेवाल, लोगोंका यह योग रन्तं गुजरनवाल सुवेगन देवा । युद्धकी बातें मुनकर, लोगों में चलनी तैयारी देखकर, बाहुवलीमें पूर्ण मति रन्यनवा कई पर्वतोंराना मी बाहुबली के पास जान लगेगवालका शब्द सुनकर.जेन्सनाएँ दौड़ाती है ऐसही उन Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीफा वृत्तांत [ ३७७ राजाओंके बजाए हुए शृंगीकी आवाज सुनकर हजारों किरात निकुंजोंमसे निकल निकलकर जाने लगे। इन शूर-बीर किरातोंमेंसे कई वाघोंकी पूँछोंकी चमड़ियोंसे,कई मोरपंखोंसे और कई लताओंसे शीघ्रताके साथ अपने केश बाँधने लगे। कई साँपोंकी चमड़ियोंसे, कई वृक्षोंकी छालोंसे और कई गायोंकी त्वचाओसे,अपने शरीरपर लपेटे हुए मृगचर्मोको बाँधने लगे। बंदरोंकी तरह कूदते हुए वे अपने हाथों में पत्थर और धनुप लेकर स्वामी. भक्त श्वानकी तरह अपने स्वामीके आसपास आकर खड़े होने लगे। वे आपसमें कह रहे थे, कि हम भरतकी संपूर्ण सेनाका नाश कर अपने महाराज वाहुवलीकी कृपाका बदला चुकाएँगे। (१७५-१६३) इस तरहका उनका सकोप प्रारंभ देखकर, सुवेग विवेकधुद्धिसे मनमें सोचने लगा, "अहो ! ये बाहुबलीके वशमें रहे हुए उनके देशके लोग, ऐसी शीघ्रतासे लड़ाईकी तैयारियाँ कर रहे हैं, मानों उनके पिताका वैर लेना है। बाहुवलीकी सेनाके पहले, लड़ाईकी इच्छा रखनेवाले ये किरात लोग भी, इस तरफ आनेवाली हमारी सेनाका नाश करने के लिए उत्साहित हो रहे हैं। यहाँ मुझे एक भी ऐसा आदमी दिखाई नहीं देता जोलड़नेको तैयार न हो; और एक भी ऐसा नहीं दिखता जो बाहुबलीकी भक्ति न रखता हो। इस देशमें हल पकड़नेवाले किसान भी वीर और स्वामीभक्त हैं। यह इस भूमिका प्रभाव है या बाहुवलीके गुणका ? सामंत और प्यादे वगैरा तो खरीदे जा सकते हैं, मगर यह जमीन तो बाहुबलीके गुणोंसे खिंचकर, उसकी पत्नीसी हो गई है। मुझे ऐसा लगता है कि, बाहुबली Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग.. की सेना सामने चक्रीकी सेना, श्रागके सामने घासकी गंजीके समान है, बाहुबलीकी सेनाक सामने चक्रीकी सेना तुच्छ है, इन महावीर बाहुबली के सामने चक्रवनी पसे नान पड़ते हैं,मानों अष्टापदके सामने हाथीका बया; यद्यपि भूमिमें चक्रवर्ती और स्वर्गमें इंद्र बलवान माने जाते हैं, मगर मुझे नो भगवान ऋषभदेवजीका यह छोटा पुत्र बाहुबली दानाका अंतरवर्ती या दोनोंसे अर्द्धवर्ती-अधिक मालूम होता है; बाहुवली एक तमाचंके सामने चक्रीका चक्र और इंद्रका वन निष्फल है। इस बाहुचलीस विरोध करना माना गयको कानस या सर्पको मुट्टीमें पकड़ना है। बाय जैन एक मृगको पकड़कर संतुष्ट रहता है वैसेही, इतनसे भूमिभागको नकर संतोपसे बैठ हुए बाहुबलीको, अपमान करके, व्यर्थही शत्रु बनाया गया है । अनेक राजायोंकी संवायासे संतुष्ट न होकर बाहुबलीको, सेवाके लिए बुलाना, मानों कंसरीसिंहको सवारी के लिए बुलाना है। स्वामीके हितकी इच्छा रखनेवाले मंत्रियोंको श्रीर साथही मुझे भी धिकार है कि, हमने शत्रुकी तरह पाचरण किया। लोग मेरे लिए कहेंगे कि,मुवेगन जाकर बाहुबलीस लड़ाई कराई। श्रहो! गुणको दूषित करनेत्राने इस दून-क्रमको धिक्कार है !" रस्में इस तरहकं विचार करना हुया मुबंग कई दिनों के बाद अयोध्या श्रा पहचा । दरवान उसे समाम त गया। यह प्रगाम कर. हाथ जोड़ समामें बैठा, नव चक्रवर्तीन श्रादरक सहित उससे पूछा, (१६४-२१०) "ह मुबंग मेरे छोटे भाई बाहुबली सफुशल तो हैं ? तुम अल्दी पाए इसलिग मुक नाम हो रहा है. ? या बाहुपतीने Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [३७६ तुम्हारा अपमान किया है कि जिससे तुम जल्दी लौट आए हो ? मेरे बलवान भाईकी यह वीरवृत्ति दूषित होते हुए भी उसके योग्यही है।" (२११-२१२) सुवेग बोला, "हे देव ! आपके समानही अतुल पराक्रम रखनेवाले बाहुबलीको हानि पहुँचाने की शक्ति देवमें भी नहीं है। वे आपके छोटे भाई हैं यह सोचकर मैंने पहले उनको स्वामीकी सेवाके लिए प्रानके, हितकारी वचन, विनय सहित कहे। बादमें दबाकी तरह तीन मगर परिणाममें हितकारी ऐसे कठोर वचन कहे; मगर उन्होंने श्रापकी सेवा न मीठे वचनोंसे स्वीकार की और न कडुवे वचनोंसेही की। कारण,जव मनुप्यको सनिपातका रोग हो जाता है तब कोई दवा उसको फायदा नहीं पहुँचाती। बलवान बाहुवालीको इतना घमंड है कि, वे तीन लोकको तिनके समान समझते हैं और सिंहकी तरह किसीको अपना प्रतिद्वंदी नहीं मानते। जब मैंने आपके सुपेण सेनापतिका और आपका वर्णन किया तब "वे किस गिनतीमें है।" कहकर उन्होंने इसतरह नाक सिकोड़ी जैसे दुगंधसे सिकोड़ते हैं। जब मैंने बताया कि आपने छः खंड पृथ्वी जीती है तय, उसे पूरी तरहसे सुनते हुए अपने भुजदंडकी तरफ देखा और कहा, "हम पिताजीके दिए हुए राज्यसेही संतुष्ट होकर बैठे रहे, हमने दूसरी तरफ ध्यान नहीं दिया, इसीलिए भरत छः खंड पृथ्वी जीत सके हैं। सेवा करनेकी बात तो दूर रही उलटे चे तो आपको, निर्भय होकर, बाधनको दुहनेके लिए बुलाया जाता है ऐसे, आपको लड़ाई के लिए बुलाते हैं। आपके भाई ऐसे पराक्रमी, मानी और महाभुज (बलवान ) है कि वे गंधहस्तिकी Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०] त्रिषष्टि शलाका गुरुप-चरित्रः पत्र १. सर्ग५, t . . . . तरह असहा हैकिसी दूसरेकी वीरताको वे सह नहीं सकते हैं। उनकी समामें इंद्रके सामानिक देवनाओं की तरहद्दी, सामंत राजा भी महापराक्रमी है, इसलिए उनके अभिप्रायसे इनका अभिप्राय भिन्न नहीं है। उनके राजकुमार भी राजतेजके अत्यंत अमिमानी हैं। उनकी भुजाओं में लड़ाइकी वुजनी चल रही है, इसलिए मालूम होता है कि ये बाहुबलीसे भी दस गुन अधिक बलवान हैं। उनके अभिमानी मंत्री भी उन्हीं के समान विचार रखते हैं। कहा है कि "यादृशो भवति स्वामी परिवारोऽपि तादृशः" जैसे नामी होते हैं वैसाही उनका परिवार (कुटुंबी और संत्रक वगैरा ) भी होता है।] सनी त्रियाँ जैसे परपुरुपको सहन नहीं करती हैं वैसही, उनकी अनुरागी प्रजा भी यह नई जानती कि दुनिया में कोई दूसरा राजा भी है। कर देनेवाले, वेगार करनेवाले और देश दुसरे सभी लोग भी अपने राजा की भलाईके लिए प्राण तक देनची इच्छा रखते हैं। सिंहाक तरह बनाम और पर्चतमि रहनेवालवीर भीउनके वशम हैं श्री चाहते हैं कि उनके रानाका मान किसी तरह कम न हो। स्वामी! अधिक क्या कहूँ वे महावीर दर्शनकी इच्छास नई मगर बड़ाईकी इच्छा श्रापको देखना चाहते हैं। अब आप जैसा चाहे चैमा करें। कारण दृतलोग मंत्री नहीं होने के सिप सत्य संदेश पहुँचाने के लिएही होते हैं। (२१३-२३०) ये बातें सुन भरत राना, सूत्रधार (नट) की तरह एकई समयमें, अचरज,कोप, चना और हर्षका अभिनय कर, बोल "मैंने बचपन में खेलते समय यह अनुभव किया है कि बाहुबली Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुघलीका वृत्तांत [३८१ के समान जगतमें सुर, असुर या नर कोई नहीं है । तीन लोकके नाथका पुत्र और मेरा छोटा भाई बाहुवली तीनलोकको तिनकेके समान समझता है । यह उसकी (झूठी) तारीफ नहीं सत्य बात है। ऐसे छोटे भाईके कारण मैं भी प्रशंसा पाने योग्य हूँ; कारण एक हाथ छोटा हो और दूसरा बड़ा हो तो वे नहीं शोभते । यदि सिंह बंधनको स्वीकार करे और अष्टापद वशमें हो जाए तो वाहुबली भी वशमें आ जाए; अगर ये वशमें श्राजाएँ तो फिर कमी किस बातकी रहे ? उसके अविनयको मैं सहन करूँगा। ऐसा करनेसे शायद लोग मुझे कमजोर कहेंगे तो भले कहें। सभी चीजें पुरुषार्थसे या धनसे मिल सकती हैं। मगर भाई और खास करके ऐसा भाई किसी तरहसे भी नहीं मिल सकता। हे मंत्रियो ! ऐसा करना मेरे लिए योग्य है या नहीं ? तुम वैरागीकी तरह क्यों मौनधारे हो ? जो यथार्थ वात हो सो कहो।" (२३१-२३८) वाहुवलीके अविनयकी और अपने स्वामीकी ऐसी क्षमाकी बातें सुनकर, मानों वह प्रहारसे दुखी हुआ हो ऐसे, सेनापति सुपेण बोला, "ऋपभस्वामीके पुत्र भरतराजाके लिए क्षमा करना योग्य है; मगर वह करुणाके पात्र आदमीको करना योग्य है । जो जिसके गाँवमें रहता है वह उसके वशमें रहता है मगर बाहुबली एक देशका राज्य करते हुए भी वचनसे भी आपके वशमें नहीं है । प्राणोंका नाश करनेवाला होते हुए भी प्रतापको बढ़ानेवाला दुशमन अच्छा मगर अपने भाईके प्रतापका नाश करनेवाला भाई भी बुरा । राजा भंडार, सेना, मित्र, पुत्र और शरीरसे भी (यानी इनका बलिदान करके भी) अपने Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] त्रियष्टि शलाका पुरुष चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. - तेलकी रक्षा करते हैं। कारण, तेजही उनका जीवन होना है। आपके लिए अपना राज्य क्या कम था कि, आपने चावंड पृथ्वीको जीता ? यह निर्फ तन लिए था। जिस तरह एक बार शील रहित बनी हुई सनी भी असनिहीं कहलाती है, इसी तरह एक जगह नाश पाया हुआ तेज सभी जगह नष्ट हुधा ही समझा जाता है। गृहत्यांम द्रव्य समी माझ्याको समान दिया जाता है; मगर तेजको ग्रहण करनेवाले भाईकी दूसरे भाई कभी उपेक्षा नहीं करने । सारे भरतवंडको जीतने के बाद यहाँ श्रापका पराजय होना, समुद्रको पार करके गड्ढे में हवनके समान होगा । कहीं यह मुना या देखा गया है कि, कोई राजा चक्रवर्तीका प्रतिस्पर्दी होकर राज्य करता है ? हे प्रभो ! अविनयीके लिए भ्रातृस्नेहका संबंध रखना एक हायसे ताली बजाना है। वेश्याओंके समान स्तहरहित बाहुवली पर भरत राना स्नेह रखते हैं, यह बात कहनेस आप हमें मल रोक, मगर 'भव शत्रुओंको जीतने के बादट्टी में अंदर पाऊँगा' इस निश्चयके साथ नगरके बाहर खड़े हुए चक्रको श्राप कैसे समझाएँग ? भाईके वहान शत्रुमावसे रहनेवाले बाहुबलीकी उपना करना किसी तरहसे भी उचित नहीं है। इस संबंध श्राप दूसरे मंत्रियोंसे भी पूछिए।" (२३६-२५२) मुपेणकी बातें सुनने के बाद महाराजने दूसरे मंत्रियोंकी नरफ देखा इससे वाचन्यनिसमान मुख्य मंत्री बोला, "सेनापनिने जो कुछ कहा है वह योन्य है और ऐसा कदनका साहस किसी दूसरेमें कहाँ है ? जो पराक्रममें और प्रयत्नमें भीक होते है वही स्वामीकं तेलकी उपेक्षा करते हैं। स्वामी अपने तेजक Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुवलीका वृत्तांत . [३९३ mon लिए जय प्राज्ञा करते हैं तब अधिकारी प्रायः स्वार्थ के अनुसार उत्तर देते हैं और व्यसनको बढ़ाते हैं, मगर सेनापति तो, पवन जैसे आगको बढ़ाने के लिए होता है वैसेही, श्रापका तेज बढ़ाने के लिएही हैं। हे स्वामी ! सेनापति, चक्ररत्नकी तरह, बचे हुए . एक भी शत्रुको पराजित किए बगैर संतुष्ट नहीं होगा। इस. लिए अब देर न कीजिए। जैसे आपकी आज्ञासे हाथमें दंड लेकर सेनापति शत्रुका ताड़न करता है वैसेही, प्रयाण-भंभा ( रवाना होनेका वाजा ) बजवाइए । सुघोपा (देवताओंका एक वाजा) के वजनेसे जैसे देवता जमा हो जाते हैं वैसेही,भभाकी आवाजसे वाहनों और परिवारोंके साथ सैनिक लोग जमा हों और सूर्यकी तरह, उत्तर दिशामें रही हुई तक्षशिलाकी तरफ आप, तेजकी वृद्धिके लिए प्रयाण करें। आप खुद जाकर भाईका स्नेह देखिए और सुवेगके कहे हुए वचन सत्य है या मिथ्या इसकी जाँच कीजिए।" (२५३-२६१ ) ऐसाही हो।' कहकर भरतने मुख्य मंत्रीकी सलाह मान ली। कारण "युक्तं वचोऽपरस्यापि मन्यते हि मनीषिणः ।" [बुद्धिमान लोग युक्ति-संगत पराएके वचनको भी मानते हैं। ] फिर शुभ दिन और मुहूर्त देख, यात्रा-मंगल कर महाराज प्रयाण के लिए पर्वतके समान ऊँचे हाथीपर सवार हुए। मानों दूसरे राजाकी सेना हों ऐसे रथों, घोड़ों और हाथियोंपर सवार होकर हजारों सेवक विदाईके बाजे बजाने लगे। एक समान तालके शब्दसे संगीतकारोंकी तरह विदाईके वाजे सुनकर सारी फौज जमा हो गई। राजाओं, मंत्रियों, सामंतों और सेनापतियों Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] त्रिषष्टि शलाका पुरुषः चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. - - द्वारा घिर हुए. महाराजा, माना अनेक मूर्तियाँबान्ने हो एसे, नगरसे बाहर निकन्न । एक हजार यज्ञास अधिष्ठित चक्ररन, मानी मेनापनि होगम, सेनाकं श्राग चला । महाराजाक विदा होनकी बानको सूचिन करता हुश्रा धूलिका समूह उड़ उड़कर चारों तरफ फैल गया; गला मालूम होता था कि वह शत्रुओं-. का गुपचर-समूह है। उस समय लाम्बी हाथियों के चलने से ऐसा मालूम होना था कि, हाथियों को पैदा करनेवाली भूमिमें हाथी नहीं रहे हैं, और घोड़ों, री, वञ्चरों और ऊँटोंके समूहसे मान्नुम होना था कि पृथ्वीपर अब कहीं बाहन नहीं रहे हैं। समुद्र देखनेवालको जग नाग जगत जलमय मालूम होता है सही, प्यादोंकी सेना दबकर मारी पृथ्वी मनुष्यमय मालूम होती थी। रस्ने चलन छग महाराज हरेक शहरम, हरेक गाँव में और हरेक रम्नपर लोगाम हानी हुई इस नरहकी बातचीत मुनने लगे। इन गाजाने एक क्षेत्र (प्रदेश) की तरह सार भरतक्षेत्रको जीता है; और मुनि जैसे चौदह पूर्व प्राप्त करते हैं. ऐसेही इन्होंने चौदह रत्न पाप है। श्रायुधांकी तरह नव निधियों इनके वश हुई है। इतना होनेपरमा महाराज किस तरफ और क्यों जातं है ? शायद अपना देश देखनको जा रह हैं, मगर शत्रुओंको जीतनका कारगाउपचकारन इनके यांग श्राग क्यों चल रहा है ? मगर दिशा देग्यनस नो अनुमान होता है कि वे बाहुबली पर चढ़ाई करने जा रहे हैं। ठीकही कहा गया है कि "अहो अखंडप्रसराः कपाया महतामपि ।" [अहो ! महान पुरयांम मी.महान वेगवान कषाय होती हैं। सुना जाता है, कि बाहुबती देवनायों और असुरों के लिए भी Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत बाहुवलीका वृत्तांत [३८५ - अजेय है। इससे जान पड़ता है कि उसको जीतनेकी इच्छा करनेवाले ये राजा अँगुलीसे मेरुको धारण करनेकी इच्छा रखते हैं। इस काममें-छोटे भाई बड़े भाईको जीतेंगे तो भी और बड़े छोटेकोजीतेंगे तो भी दोनों तरहसे महाराजाफाही महान अपयश होगा।" (२६२-२७८) सेनासे उड़ती हुई धूलिके पूरसे, मानों विंध्यपर्वत घढ़ रहा हो ऐसे,चारों तरफ अंधकारको फैलाते, घोड़ोंके हिनहिनाने, हाथियों के चिंघाड़ने, रथोंकी ची ची और प्यादोंके खम ठोकनेइस तरह चार तरहकी सेनाके शब्दोंसे, आनक नामके बाजेकी तरह दिशाओंको गुंजाते, गरमीके मौसमके सूरजकी तरह रस्ते. की सरिताओंको सुखाते, जोरकी हवाकी तरह रस्तेके वृक्षोंको गिराते, सेनाकी ध्वजाओंके वस्त्रोंसे आकाशको बकमय बनाते, सेनाके भारसे तकलीफ पाती हुई पृथ्वीको हाथियोंके मदसे शांत करते और हर रोज चक्रके अनुसार चलते महाराज, सूर्य जैसे दूसरी राशिमें जाता है ऐसेही, वहली देशमें पहुंचे और देशकी सीमापर छावनी डाल समुद्र की तरह मर्यादा पना वहाँ रहे। (२७६-२८४) उस समय सुनंदाके पुत्र बाहुबलीने, राजनीतिरूपी घरके खंभेके समान जासूसोंसे चक्रीका आगमन जाना। इसलिए उसने भी रवाना होनेकी भंभा बजवाई; उसकी आवाज मानों स्वर्गको भभा-ध्वनिरूप बनाती हो ऐसी मालूम हुई। प्रस्थान. मंगल करके वह मूर्तिमान कल्याण होऐसे भद्र गजेंद्रपर उत्साहकी तरह सवार हुआ। बड़े बलवान, बड़े उत्साही, समान काम Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] त्रिषष्टि शलाका पुन्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. में लगनेवाले, दूसरोंसे अमेव मानों उसीके (बाहुवलीके) अंश हों ऐसे राजकुमारों, प्रधानों और वीर पुरुषांसे घिरा हुआ बाहु. बली देवताओंसे घिरे हुए इंद्रकं समान मुशोभित हुआ । मानों उसके मनमें बसे हुए हों ऐसे, कई हाथियोंपर सवार हो, कई घोड़ोंपर सवार हो, कई रथों में बैठ और कई पैदल-ऐसे लाखों योद्धा तत्काल एक साथ बाहर निकन्ते । अपने बढ़िया हथियारों सेनेस बलवान वीर पुन्यांसे मानों एक वीरमय पृथ्वी बनाते हों ऐसे, अचल निश्चयवाले बाहुबली रवाना हुए। हरेक चाहता था कि जीत में कोई दूसरा हिस्सेदार न हो इसलिए उसके वीर मुमट अापसमें कहने लगे, मैं अकेला हूँ तो भी सब शत्रुओंको जीत लूँगा।" रोहमाचलके सभी कर मणियाँ होते हैं, ऐसेही, सेनामें नाके वाजे बजानवाले भी अमिमानी वीर थे। चंद्रके समानक्रांतिवाने उसके मांडलिक राजाओंसे छत्रोंसे श्राकाश,श्वेत कमलबाला हो ऐसा दिखाई देने लगा। हरेक पराक्रमी राजाको देखते और उन्हें अपनी भुजाएं मानते वे आगे बढ़े। मागमें चलने हए बाहुबली मानों सेना भारसे पृथ्वीको और तीतके पाजोंक शब्दसि श्राकाशको फोड़ने लगे। उनके देशकी सीमा दूर थी, नो मी । तत्कालही वहाँ था पहुँचे । कारण "वायुतोऽपि भृशात समरोत्कंठिताः खलु ।" [युद्धकं लिए उत्सुक (वीर पुरुष ) वायुसे भी अधिक बंगवान होते है। बाहुवलीन जाकर गंगा तटपर ऐसी जगह छावनी डाली जोमरतकी छावनीसे बहुत दूर भी नहीं थी और बहुत पास भी नहीं थी। (२५-२६८) सरेही (दोनों तरफ ) चारणाभान अतिथिकी तरह Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [३८७ उन दोनों ऋषभ कुमारोंको, युद्धोत्सवके लिए आपसमें आमंत्रण दिया । रातको बाहुबलीने सभी राजाओंकी सलाहसे, अपने सिंहके समान बलवान पुत्र सिंहरथको सेनापति बनाया, और मस्त हाथीकी तरह उसके मस्तकपर मानों प्रकाशमान प्रताप हो ऐसा देदीप्यमान सोनेका एक रणपट्ट आरोपण किया। वह राजाको प्रणाम कर, रणका उपदेश पा, मानों पृथ्वी मिली हो ऐसे खुश खुश अपने डेरे पर गया। महाराज बाहुबलीने दूसरे राजाओंको भी युद्धके लिए आज्ञा दे विदा किया। वे खुदही लड़ाईकी इच्छा रखते थे तो भी, उन्होंने स्वामीकी आज्ञाको सत्काररूप माना । (२६६-३०४) उस तरफ भरत महाराजने भी रातहीको राजकुमारों, राजाओं और सामंतोंके मतसे श्रेष्ठ आचार्यकी तरह सुषेणको रणदीक्षा दी, यानी सेनापति बनाया। सिद्धि-मंत्रकी तरह स्वामीकी आज्ञा स्वीकार कर चकवेकी तरह सवेरेकी राह देखता हुआ सुषेण अपने डेरेपर गया। कुमारोंको, मुकुटधारी राजाओंको और सभी सामंतोंको बुलाकर भरत राजाने आज्ञा दी,"शूरवीरो! मेरे छोटे भाईके साथ होनेवाली लड़ाईमें, सावधानीके साथ मेरीमानते होवैसीही सुषेण सेनापतिकी भी आज्ञा मानना। हे पराक्रमी वीरो! जैसे महावत हाथियोंको वशमें करते हैं वैसे. ही तुमने अनेक पराक्रमी और दुर्मद राजाओंको वशमें किया है और वैताव्यपर्वतको लांघकर, जैसे देव असुरोंको जीतते हैं ऐसेही, दुर्जय किरातोंको तुमने अपने पराक्रमसे अच्छी तरह हराया है। मगर उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो तक्षशिलाके राजा बाहुबलीके प्यादेकी भी समानता कर सकता। बाहुबली Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] त्रिषष्टि शलाका पुन्प-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. .. का बड़ा पुत्र सोमयशा अकेलाही, सारी सेनाको दशों दिशाओंमें उड़ा देने में इस तरह समर्थ है जैसे हवा रुईको उड़ा देनमें समर्थ होती है। इसका कनिष्ट (छोटा) भाई सिंहस्य उम्रमें छोटा है मगर पराक्रममें अकनिष्ठ (श्रेष्ट) है। वह शत्रुओंकी. सेनामें दावानलके समान है। अधिक क्या कहा जाए उसके दूसरे पुत्रों और पौत्रोमेका हरेक एक एक अक्षौहिणी सेनामें मल्लके समान और यमराज दिलने भी भय पैदा करनेवाला है 1 उसके स्वामीभक्त नामंत मानों उसके प्रतिबिंब हों ऐसे बलमें उसकी समानता करनेवाले हैं। इसकी सेनाओं में से एक अग्रणी महाबलवान होता है मगर उसकी सेनामें समी महाबलवान हैं। लडाईमें महाबाहु बाढवला तो दूर रहा उसका एक सेनान्यूह भी अभेद्य होता है। इसलिए वर्षा ऋतुके मेयके साथ जैसे पूर्व दिशाकी हवा चलती है पद्दी युद्ध के लिए जाते हुए मुपेणके साथ तुम भी जानी।" (३०५-३१७) । अपने स्वामीकी अमृत समान बातों, मानों भर गए हॉ एल उनके शरीर पुलकावनीसे व्याप्त हो गए; अर्थात उन सबकेशरीर रोमांचित हो पाए। महाराजाने उनको विदा किया। वे सभी इस तरह अपने अपने हरोपर गए मानों के विरोधी वीरोंची जयलचनीको जीतने के लिए स्वयंवर-मंडप में जा रहे हो। दोनों ऋषमपुत्रोंक कृयाके ऋणल्पी समुद्रको तैरनेकी, यानी कृयाका जो ऋश है उसको त्रुानकी, इच्छा रखनेवाले दोनों तर वीर टयुद्धने लिए तैयार हुए अपने पारण, धनुष, मात्रा, गदा और शक्ति वगैरा आयुधोंको देवताओंकी तरह पूजन लगे । साहले नाचते हुए अपने चित्त के साथ मान्न Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरस-बाहुबलीका वृत्तांत [३८६ - दे रहे हों ऐसे, वे महावीर आयुधोंके सामने जोर जोरसे बाजे पजाने लगे। फिर मानों अपना निर्मल यश हो ऐसा नया और सुगंधित उपटन अपने शरीरपर मलने लगे। सर पर बाँधे हुए वीरपट्टके जैसीही कस्तूरीकी ललाटिका (बिंदु) अपने अपने मस्तकों पर करने लगे। दोनों दलोंमें लड़ाईकीही वातें हो रही . थी इसलिए शस्त्र संबंधी जागरण करनेवाले वीर भटोंको, मानों . . डर गई हो ऐसे, नींद आई ही नहीं । सवेरेही होनेवाले युद्ध में वीरता दिखानेका उत्साह रखनेवाले वीर सुभटोको वह तीनपहरकी रात सौ पहरवाली हो ऐसी मालूम हुई। उन्होंने जैसेतैसे वह रात विताई। (३१८-३२६) सवेरेही मानों ऋपभपुत्रोंकी रणक्रीडाका कुतूहल देखना चाहता हो वैसे सूर्य उदयाचलके शिग्वरपर आरूढ़ हुआ। इससे दोनों सेनाओंमें (सवेरा हुआ जान )लड़ाईके वाजे जोर जोरसे बजने लगे। वह आवाज, मंदराचलसे क्षोभ पाए हुए समुद्रके जलके समान यानी समुद्रको गर्जनाके समान, प्रलयकालके समय होनेवाले पुष्करावर्त मेघकी गर्जनाके समान अथवा वनके आघातसे पर्वतोंसे उठनेवाली आवाजके जैसी थी। लड़ाईके बाजोंकी फैलती हुई आवाजसे दिग्गजोंके हाथी घबराए और उनके कान खड़े हो गए; जलजंतु भयभ्रांत हो गए; समुद्र क्षुब्ध हो उठा, क्रूर प्राणी चारों तरफसे भाग कर गुफाओं में घुसने लगे, बड़े बड़े सर्प बाँबियोंमें जाने लगे; पर्वत काँपे और उनके शिखर टूट टूटकर गिरने लगे, पृथ्वीको उठाने वाले कूर्मराज भयभीत होकर अपने कंठ और चरणोंको समेटने लगे, आकाश वंस होने लगा और ऐसा जान पड़ने लगा मानों जमीन फटने Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५.] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पत्रं १. मग ५. लग रही है। गजाम दरबानकी नरह, लड़ाईक बाजोंस प्रेरित, दोनों तरफ सिपाही लड़ाइक लिप नैयार हो गए लड़ाइको उमंगसे शरीर में उत्साहमें फूलने लगे, इस कवाँक तार टूटने लंग और पीर सिपाही उन्हें निशान निकालकर, नए कवच पहनने लगे; कई ग्रीनिमें अपने घोड़ोंको बन्चतर पहनान लगे; कारणा"स्वनीपि यधिको रक्षा मटाः कुत्रंति पाइन ।" [चार पुरुष अपनस भी अधिक अपने वाहनांकी रक्षा करने है।कई अपने घोड़ोंकी परीक्षा करने के लिए मवार होकर उनको चलान नग, कारण"शिक्षितो उडानः शत्रवत्येव यादिनी ।" [गिदिन और बढ़ घाई अपन अवारकं लिए शत्रु समान हो जान हैं।ा बखतर, पहनने के बाद हिनहिनानेवाले घोड़ोंकी कई मुमट देवकी तरह पूजा करने लगे। कारगा "..'युद्ध हृपा हि जयसूचिनी ।" [लाइन इंया, यानी घोड़ांचा हिनहिनाना ही जयश्री मुचना करनेवाली होती है। किन्हींको बग्नर रहित घोड़ें मिले हमने अपने पत्र भी इनार तारकर, रवन लंगे क्योंकि पगकमी नयांका रगामें पलाही धीरटन होता है। कठ्यान अपने सारथियोंसे कहा, "ममुद्रमें मछलीकी तरह, गणमें भ्रमण करने हए एसी चतगह बताना किजिसस कहीं मकना न पड़े।" मुसाफिर, लोग रस्नेके लिए, जैसे पूरा पाय लेकर चलते हैं वैसेही कई वीर, यह सोचकर कि लड़ाई चहुत समय तक Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-याहुघलीका वृत्तांत [३६१ चलेगी, अपने रथोंको हथियारोंसे भरने लगे; कई दूरसेही पहचाने जासके इससे वे अपने चिह्नवाली ध्वजाओंके खंभोंको मजबूतीसे बाँधने लगे; कई अपने मजबूत धुरीवाले रथोंमें, शत्रुसेनारूपी समुद्र में रस्ता बनाने के लिए, जलकांत रत्नके' समान, घोड़े जोड़ने लगे; कई अपने सारथियों को मजबूत कवच देने लगे । कारण,"सरथ्या अपि हि रथा निःफलाः सारथिं विना ।" घोड़े जुड़ा हुआ रथ भी सारथीके बिना बेकार होता है। कई मजबूत लोहेके कंकणों की श्रेणीके संपर्कसे-यानी हाथियोंके दाँतोंमें लोहेकी चूड़ियाँ पहनाई जाती हैं इससे-कठोर बने हुए हाथियोंके दानोंको अपनी भुजाओंकी तरह पूजने लगे; कई मानों मिलनेवाली जयलक्ष्मीका निवास स्थान हो इस तरहके, ध्वजाओंवाले होदे हाथियोंपर वाँधने लगे; कई सुभट, हाथीके गंडस्थलसे, तत्कालही निकले हुए मदसे, 'यह शकुन है' कहकर, कस्तूरीकी तरह तिलक करने लगे; कई दूसरे हाथियोंके मदकी गंधसे भरी हुई हवा भी सहन नहीं करनेवाले, मनके समान महान दुर्धर हाथियोंपर चढ़ने लगे; और सभी महावत मानों रणोत्सवके श्रृंगारवस्त्र हों ऐसे, सोनेके कंटक ( कड़े ) हाथियोंको पहनाने लगे; कइयोंने हाथियोंकी सैंडोंसे ऊँची नालवाली, और नीलकमलकी लीलाको धारण करनेवाली, यानी नीलकमलके समान दिखाई देनेवाली, लोहेकी मुद्गरें भी हाथियोंके (दाँतोंपर ) बाँधी और कई महावत काले लोहे के तीक्ष्ण (कीलों वाले ) कोश (आच्छादन) हाथियोंके दाँतोंमें पहनाने १-ऐसा रत्न जो हवाकी तरह पानीको हटाता है। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पत्र १ मगं ५. लगे, वे यमराज दावोस जान पड़ने थे। (३२५-३४१) उन समय राजा अधिकारी याना देने लगे, "मनाक पीछे हथियागेर मरी गाड़ियों और लदे ॐ शीत्र जाओ, अन्यथा बड़ी तेजीने हथियार चन्द्रानेवाले वीगंक पास हथियार नहीं रहेगे; कवचों (बलरों) से लदे हम ॐ भी देजाओ; कारण लगातार युद्ध करत रहनवान्न मुमटोंके पहलेसे पहने हुए कवत्र हट जाएंगे, रवी पुनयोंकि पीछे दूसरे नैयारस्य ने जानो; कारण शत्रोंस रथ इसी तरह टूट जान लेने पर्वतन रथ टूट जान हैं। पहले घोई यक जाग नो सवार दूर थोडॉपर सवार होकर युद्ध चालू रख सके, इसके लिए सैकड़ों घोड़े सबागें पीछे जाने लिए तैयार ऋगे। हरेक मुकुटबंध राजाके पीछे नानके लिए हाथी नेवार खो; कारण एक हाथ से, लड़ाईमें उनका नाम नहीं चनंगा । निपाहियोंक पीछे पानी मेंजानेवाले मैंस नेचार लो; कारण लड़ाई के अमरूपी ग्रीन ऋतुसे नपकर यवराय हुप वारा लिए वे प्याओंका काम देगः श्रीपधिपति चंद्रमा मंडार जैसी और हिमगिरिक सार नेमी नाना परोहिणी (वाव मिटानेवाली दवाइयोन्त्री बोरियाँ उठाओ। इस नन्ह उनकोलाहलस लड़ाइड बाजों शब्दमयी महासमुनमें चार आगया। उस समय सारी दुनिया, चारों तुरस्त होनेवाली ऊँची आवाजोसे मानों शहनय मी यार. चमकते हुए इथियारोंसे मानों लोहनय हो ऐसी, माबुम होने लगी। मानों नित्र श्रॉन्वोंने देवा हो इस तरह प्राचीन पुरुषों के चरित्रोंका स्मरण गनेवा च्यामकी तरह रणनिवाहका चानी Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [३६३ - अच्छी तरह लड़ाई करनेका फल बतानेवाले, और नारद ऋषि. की तरह वीर सुभटोंको उत्साहित करनेके लिए, मुकाविलेमें भाए हुए शत्रु-वीरोंकी श्रादर सहित तारीफ करनेवाले, चारण . भाट हरेक हाथी, हरेक रथ और हरेक घोड़ेके पास पर्व दिनकी तरह जाने और उन्ध स्वर में प्रशंसाके गीत ऊँचे सुरमें गाते रणमें निर्भय होकर फिरने लगे। (३५२-३६३ ) इधर राजा बाहुवली स्नान करके देवपूजा करनेके लिए देवालयमें गया । कारण.........."गरीयांसः कार्ये मुह्यन्ति न क्वचित् ।" .. [महापुरुष कभी भी (कोई विशेष काम आनेपर) घबराते नहीं हैं। (अपना दैनिक आवश्यक धर्म क्रिया वगैरा करते. ही रहते हैं।)] देवमंदिरमें जाकर, जन्माभिपेकके समय इंद्र जैसे स्नान कराता है वैसे, उसने ऋपभस्वामीकी प्रतिमाको सुगंधित जलसे स्नान कराया। फिर कषाय रहित और परम श्राद्ध (श्रावक) बाहुबलीने, दिव्य गंधवाले काषाय वनसे, मनकी तरह श्रद्धा सहित, उस प्रतिमाको मार्जन किया (पोंछा ); दिव्य वस्त्रमय चोलक ( कवच ) की रचना करता हो ऐसे यक्षकर्दमका लेप किया और सुगंधसे देववृक्ष के फूलोंकी मालाकी सहोदरा (सगी बहन) हो ऐसी, विचित्र फूलों की मालासे प्रभुकी पूजा की। सोनेकी धूपदानीमें उसने दिव्य धूप किया। उसके धुएसे ऐसा मालूम हुआ मानों वह कमलमय पूजा कर रहा है। फिर उसने, मकरराशिमें सूर्य आया हो ऐसे, उत्तरीय वस्त्र कर, प्रकाशमान आरतीको, प्रतापकी तरह लेकर, प्रभुकी आरती उतारी। अंतमें हाथ जोड़, आदीश्वर भगवानको प्रणाम कर, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३६४] त्रिषष्टि शनाका पुरुप चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. उसने भक्तिपूर्वक इस तरह म्नुनि करना प्रारंभ किया, (३६४-३७०) ई. सर्वन ! मैं अपने अज्ञानको दूर कर आपकी स्तुति करता हूँ; कारण श्रापकी दुवार भक्ति मुझे वाचाल बनाती है। हे श्रादि नार्थश! श्रापकी जय हो ! श्रापक चरगांक नोंकी कांनि, समाररूपी शत्रुमे दुर्गा प्राणियों के लिए वनके पिंजरेके समान होती है। हे देव ! श्रापके चरणकमल को देखने के लिए, राजईसकी तरह, जो प्रागी दुरसे भी श्रान है धन्य है। सरदीमें पत्रगण हुए जीव जैसे सूरजकी शरण में जाते हैं, वैसेही इस भयंकर संसारक दुरवसे पीदिन विवकी पुरुष सदा एक श्राप होकी शरगामें यात है। हे भगवान! जो अपने अनिमेय नेत्रोंसे हर्ष सहित श्रापको देवत है उनके लिए परलोकमें अनिमेय. पन (देव होना ) दुलम नहीं है । हे देव ! जैसे काजलसे लगी हुई शामी बन्नकी मलिनना धसे धोनसे मिटती है वैसेही लीबोंका कर्ममल श्राप दंशनासपीजलसे जाता है। स्वामी ! सदा 'यमय' इस नामका जप किया जाता है तो वह नप समा सिद्धियाँको श्राकर्षण करनेवाले मंत्र समान होता है। है. प्रमो ! जो आपका भक्तिरूपी कवच धारण कर लेता है, उस मनुष्यको न बच भेद सकता है न त्रिशूलही छेद सकता है।" (३७१-३७६) ऐसे भगवानकी स्तुति कर पुलकित शरीरसे प्रमुको नम. स्कार कर वह नृपशिगेमगि देवगृहसे बाहर श्राया। (३८) फिर उसन, सोने-माणिक्यसे मढ़ा हुश्रा बचका कवच धारण क्रिया; वह विजयलक्ष्मीको व्याइनके लिए धारण किए, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-घाहुघलोका वृत्तांत [३६५ - हुए कंचुकके समान मालूम होता था। वह देदीप्यमान कवचसे ऐसा शोभता था जैसे घनविद्रुम (सघन प्रवालोंसे) समुद्र शोभता है। फिर उसने, पर्वतके शिखरपर वादलों के मंडलकी तरह शोभनेवाला, शिरखाण धारण किया; बड़े बड़े लोहेके बाणोंसे भरे हुए दो भाथे उसने पीठपर बाँधे, वे ऐसे जान पड़ते थे मानों सो से भरे पातालविवर (बड़ी बड़ी बाँबियाँ) हैं; और उसने अपने बाएँ हाथमें धनुष धारण किया, वह ऐसा जान पड़ता था.मानों प्रलयकालके समय उठाया हुआ यमराजका दंड है। इस तरहसे तैयार वाहुबली राजाको, स्वस्तिवाचक पुरुष "आपका कल्याण हो" ऐसा आशीर्वाद देने लगे; गोत्रकी बूढ़ी खियाँ "जीओं ! जीओ" कहने लगीं; बूढ़े कुटुंबी लोग कहने लगे, "खुश रहो ! खुश रहो!" और चारण-भाट "चिरजीवी हो! चिरजीवी हो!" ऐसे ऊँचे स्वरसे पुकारने लगे। ऐसे सबकी शुभ कामनाके शब्द सुनता हुआ महाभुज बाहुबली, आरोहकके ( सवार करानेवाले के ) हाथका सहारा लेकर इस तरह हाथीपर चढ़ा जैसे स्वर्गपति मेरुपर्वत पर चढ़ता है। (३८१-३८८) इस तरफ पुण्यबुद्धि भरत राजा भी शुभ लक्ष्मीके भांडारके समान अपने देवालयमें गया। वहाँ महामना भरत राजाने आदिनाथकी प्रतिमाको, दिग्विजयके समय लाए हुए पद्मद्रहादि तीर्थों के जलसे स्नान कराया। उत्तम कारीगर जैसे मणिका मार्जन करता है वैसे देवदूष्य पत्रसे उसने उस अप्रतिम प्रतिमाका मार्जन किया अपने निर्मल यशसे पृथ्वीकी तरह, हिमापल कुमार वगैरा देवोंके दिए हुए गोशीर्षचंदनसे उस प्रतिमा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १, सर्ग ५. पर लेप किया, लक्ष्मीके घरके समान खिले हुए कमलोंसे उसने पूजामें नेत्रम्तमनकी औषधिरूप श्राँगी रची; धुम्रवल्लीसे, मानों कस्तूरीकी पत्रावली चित्रित करते ही ऐसे, प्रतिमाके सामने उसने धूप किया, मानों सभी कर्मरूपी समिधाका, बड़ा अग्निकुंड हो ऐसे जलते हुए दीपकांकी भारती उठाकर प्रभुकी भारती की और हाथ जोड़, नमस्कार कर, अंजलि सरपर रख इस तरह स्तुति की,- (३८६-३६६) . ___"हे जगन्नाथ ! मैं अज्ञान हूँ तो भी मैं अपनेको युक्त (योग्य) मानकर श्रापकी स्तुति करता हूँ। कारण,"लल्ला अपि हि बालानां युक्ता एव गिरो गुरौ ।" [चालकोंकी नहीं समझमें आनेवाली वाणी भी गुरुजनोंफे सामने योग्यही होती है । हे देव ! जैसे सिद्धरसके छूनेसे लोहा सोना हो जाता है. ऐसेही श्रापका आश्रय लेनेवाला प्राणी भारी कमांगाला होनेपर भी सिद्ध हो जाता है। हे स्वामी ! वे प्राणीही धन्य है और अपने मन, वचन और कायका फल पाते है जो आपका ध्यान करते हैं, श्रापकी स्तुति करते है और श्रापकी पूजा करते हैं। हे प्रभो! पृथ्वीमें विहार करते समय अमीनपर पड़ी हुई श्रापकी चरणरज पुरुपोंके पापरूपी वृक्षाको उखाड़नेमें हाथीक समान पाचरण करती है। हे नाथ ! स्वाभाविक मोहसे जन्मांध बनेहए सांसारिक प्राणियोंको विवेकरूपी दृष्टि देने में एक प्रापही समर्थ है। जैसे मनके लिए मेरु पर्वत दूर नहीं है, वैसही आपके चरणकमलों में, भौरेकी तरह, _ . रहनेवाले लोगोंके लिए मोक्ष दूर नहीं है । हे देव ! जैसे मेघके तलसे जामुन पृक्षके फल गिर जाते हैं, ऐसेही, आपकी देशना. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुवलीफा वृत्तांत [३६७ रूपी वाणीसे प्राणियोंके कर्मरूप बंधन गिर जाते हैं । हे जगनाथ ! में बार बार प्रणाम करके आपसे इतनीही याचना करता हूँ कि आपकी कृपासे, समुद्रके जलकी तरह आपकी भक्ति सदा मेरे हृदयमें कायम रहे.।" इस तरह आदिनाथकी स्तुति की और तब उन्हें भक्ति सहित प्रणाम करके चक्रवर्ती देवगृहसे बाहर निकला । (३६७-४०५) . फिर बार वार साफ करके उज्ज्वल बनाया हुआ कवच चक्रोने अपने उत्साहित शरीरमें पहना । शरीरपर दिव्य और मणिमय कवच धारण करनेसे भरत ऐसा शोभने लगा जैसे माणिक्यकी पूजासे देवप्रतिमा शोभती है । बीचमेसे ऊँचा और छत्रकी तरहका गोल स्वर्ण-रत्नका शिरस्त्राण उसनेधारण किया; वह दूसरे मुकुटसा मालूम होता था। सर्पके समान अत्यंत तेज वाणोंसे भरे हुए दो भाथे उन्होंने अपनी पीठपर बाँधे और इंद्र जैसे ऋजुरोहित धनुप ग्रहण करता है, ऐसे उन्होंने शत्रुओंके लिए विषम ऐसे कालपृष्ठ धनुपको अपने बाएँ हाथमें लिया। फिर सूरजकी तरह दूसरे तेजस्वियोंके तेजको ग्रास करनेवाले, भद्र गजेंद्रकी तरह लीलासे कदम रखनेवाले, सिंहकी तरह शत्रुओंको तिनकेंके समान गिननेवाले, सर्पकी तरह दुःसह दृष्टिसे भयभीत बनानेवाले और इंद्रकी तरह चारणरूपी देवोंने जिनकी स्तुति की है ऐसे, भरत राजा निस्तंद्र ( ताजा दम ) गजेंद्रपर सवार हुए । (४०६-४१३) कल्पवृक्षकी तरह याचकोंको दान देते, हजार आँखोंवाले इंद्रकी तरह चारों तरफसे आई हुई अपनी सेनाको देखते, राजईस कमलनालको ग्रहण करता है ऐसे एफ एक बाण लेते, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८] त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्रः पर्व १. सर्ग ५. विलासी रतिवार्ता करता है ऐसे लड़ाईकी बातें करते, अाकाशमें आए हुए सूर्य के समान बड़े उत्साह और पराक्रमवाले दोनों ऋपमपुत्र अपनी अपनी सेनाके बीचमें आए। उस समय अपनी अपनी सेनाके बीचमें स्थित भरत और बाहुवली जंबूद्वीपके बीच में स्थित मेरुपर्वतकी शोभाको धारण करते थे। उन दोनों सेनाओंके बीचकी जमीन, निपध और नीलवंत पर्वतके बीच में आए हुए महाविदेह क्षेत्रकी जमीनके जैसी मालूम होती थी। कल्पांतकालके समयमें जैसे पूर्व और पश्चिम समुद्र अामने सामने बढ़ते है वैसेही, दोनों तरफकी सेनाएँ पंक्तिबद्ध होकर श्रामने-सामने चलने लगी । सेतुबंद जैसे जलके प्रवाहको इधर उधर नाते रोकता है वैसेही, द्वारपाल पंक्तिसे बाहर निकलकर इधर उधर जाते हुए सैनिकोंको रोकते थे। तालके द्वारा संगीतमें एक ही तालपर गानेवालोंकी सभी सुभट राजाकी आज्ञासे एकसे पैर रखकर चलते थे। वे शुरवीर अपने स्थानका उल्लंघन किए बगैर चलते थे, इससे दोनों तरफकी सेनाएँ एकही शरीरवाली हों ऐसे शोभती थीं। वीर मुभट भूमिको लोहवाले चक्रोंसे फाइते थे, लोइकी कुदाली जैसे, घोड़ोंके तेज खुरोंसे खोदते थे; लोहके अर्द्धचंद्र हों ऐसे ऊँटोंके सुरोंसे भेदते थे, प्यादोंके जोड़ोंके वनके समान नालासे बूंदते थे, सुरप्र' याणके जैसे भैसी और चलोंके खुरोंसे खंडन करते थे और मुद्गरके समान हाथियों के परोसे चूर्ण करते थे। अंधकारके समान रजसमूहसे वे आकाशको ढकते थे और सरजकी किरणों के समान चमकते हुए शस्त्रास्त्रोंसे चारों तरफ प्रकाश फैलाते थे। वे अपने १-घोड़े के खुरके प्राकारका वाग। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भरत-बाहुवलीफा वृत्तांत [३६४ अति भारसे कूर्म ( कछए) की पीठको तकलीफ पहुँचाते थे, महा वराहकी ऊँची डाढको झुकाते थे, और शेषनागके फरणके गर्वका खर्व करते थे। वे ऐसे मालूम होते थे मानों सभी दिग्ग. जोको कुज बना रहे हैं; वे सिंहनादसे ब्रह्मांडरूपी पात्रको ऊँची आवाजवाला करते थे, उनके ताल ठोकनेकी उच्च ध्वनिसे ब्रह्मांडको फोड़ते हों ऐसा मालूम होता था। प्रसिद्ध ध्वजाओंके चिह्नोंसे पहचानकर, पराक्रमी अपने प्रतिवीरका नाम लेकर उसका वर्णन करते थे और अभिमानी और शौर्यवान वीर आपसमें लड़ाईके लिए ललकारते थे। इस तरह दोनों सेनाओंके मुख्य मुख्य वीर मुख्य मुख्य वीरोंके सामने खड़े हुए। मगर जैसे मगरके सामने आता है वैसे हाथीवाले हाथीवालोंके सामने हुए, तरंगें जैसे तरंगोंकेसे टकराती हैं ऐसेही सवार सवारोंके सामने आए; वायु वायुकी तरह रथीपुरुष रथियोंके सामने आए और सींगवाले जैसे सींगवालोंके सामना करते हैं वैसे प्यादे प्यादोंके सामने हुए । इस तरह सभी वीर भाले, तलवारें, मुद्गर और दंड वगैरा आयुध आपस में मिलाकर क्रोध सहित एक दूसरेके सामने आए। (४१४-४३४) . उसी समय तीन लोकके नाशकी शंकासे डरे हुए देवता आकाशमें जमा हुए और उन्होंने सोचा, दो ऋषभ पुत्रोंकी अपने दोनों हाथोंकी तरह आपसहीमें लड़ाई क्यों हो रही है ?" फिर उन्होंने दोनों तरफके सैनिकोंसे कहा, "हम जबतक तुम्हारे मनस्वी स्वामियोंको उपदेश देते हैं तबतक तुम लोग लड़ाई न करो, अगर कोई करेगा तो उसे ऋषभदेवजीकी आन है, शपथ है।" देवोंने ऋषभदेवजीकी आन दिलाई इसलिए दोनों तरफ.. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.०) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ५. के उत्साही सैनिक चित्रलिखितसे हो रहे । वे सोचने लगे ये देवता बाहुबलीकी तरफके हैं या भरतके पक्षके। ऐसा कोई मार्ग निकालना चाहिए जिससे काम न बिगड़े और लोगोंका कल्याण हो।" यो सोचते हुए देवता पहले चक्रवर्तीके पास गए । वहाँ 'जय जय' शब्दोंके साथ आशीर्वाद देकर प्रियभापी देवता, मंत्रियोंकी तरह युक्ति सहित इस तरह योले,-(४३५-४४१) ... "हे नरदेव ! इंद्र जैसे पूर्वदेवोंको (दैत्योंको ) जीतता है वैसेही आपने छःखंड भरतक्षेत्रके सभी राजाओंको जीता है, यह आपने ठीकही किया है। हे राजेंद्र ! पराक्रम और तेजसे सभी राजारूपी मृगोंमें आप शरभ (अष्टापद) के समान है। श्रापका प्रतिस्पर्धी कोई नहीं है। घड़ेंमें पानीका मंथन करनेसे जैसे मक्खनकी श्रद्धापूरी नहीं होती अर्थात मक्खन नहीं मिलता उसी तरह आपकी रणकी इच्छा पूरी नहीं हुई, इसलिए आपने अपने भाईके साथ लड़ाई शुरू की है। मगर यह लड़ाई ऐसी है मानों अपने एक हाथसे दूसरे हाथको मारना बड़ा हाथी जैसे बड़े वृक्षसे अपना गंडस्थल खुजाता है; इसका कारण उसके गंडस्थलमें उठी हुई खुजली है, वैसेही भाईस युद्ध करनेका कारण लड़ाई के लिए चलती हुई आपके हाथकी खुजलीही है। वनके उन्मत्त हाथियों के तुफानसे जैसे वनका नाश होता हे ऐसेही आपके भुजाओंकी खुजलीसे जगतका नाश होगा। मांस खानेवाले लोग, से अपनी जीभके स्वादको तृप्त करनेके लिए (गरीय) पशु-पक्षियोंको मारते है एसेट्टी, आपने अपने खेलके लिए जगतका संहार करनेकी बात क्यों शुभ की है ? जैसे Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४०१ चंद्रमासे आग बरसना उचित नहीं है ऐसेही, जगत-त्रांता और · दयालु ऋपभदेव स्वामीके पुत्र के लिए भी भाईसे लड़ना उचित : नहीं है। हे पृथ्वीरमण ! जैसे संयमी पुरुष भोगोंसे मुख मोड़ लेता है ऐसेही, आप लड़ाईसे मुँह मोड़कर अपने स्थानपर वापस जाइए। आप यहाँ आए हैं, इसलिए आपका छोटा भाई बाहुबली भी सामने आया है। .........'कार्य हि खलु कारणात् ।" कारणसेही कार्य होता है।] जगतको नाश करनेके पापको रोकनेसे आपका कल्याण होगा; लड़ाई बंद होनेसे दोनों तरफकी सेनाओंका कुशल होगाआपकी सेनाके भारसे भूमिका कॉपना बंद होगा, इससे पृथ्वीके गर्भमें रहनेवाले भवनपति वगैरहको आराम मिलेगा; आपकी सेनाके द्वारा होनेवाले मर्दनके अभावमें पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, प्रजाजन और सभी प्राणियोंका डर दूर होगा और आपकी लड़ाईसे होनेवाले विश्वके नाशकी शंका मिट जानेसे सभी देवता सुखसे रहेंगे। (४४२-४५५) इस तरह कामकी बातें देवता कह चुके तव महाराजा भरत मेघके समान गंभीर वाणीमें बोले, 'हे देवताओ! आपके सिवा जगतकी भलाईकी बातें कौन कहे ? प्रायः लोग तमाशा देखनेके इच्छुक बनकर ऐसे कामोंसे उदास रहते हैं। आपने भलाई की इच्छासे लड़ाई के जिस कारणकी कल्पना की है वह वास्तविक नहीं है; कारण अलग है। किसी कार्यका मूल जाने बगैर यदि कोई बात कही जाती है, तो वह निष्फलही होती है, चाहे वह वृहस्पतिके वाराही क्यों न कही गई हो। मैं बलवान हूँ यह __समझकर मैंने सहसा लड़ाई करनेका निश्चय नहीं किया। कारण, २६ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ 7 नियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १ सर्ग ५.. अधिक तेल होनेसे वह पर्वतपर नहीं लगाया जाता । भरतखंड की छःखंड पृथ्वीके राजाओंको जीत लेनेसे मेरा कोई प्रतिस्पर्धी नहीं रहा ऐसा मैं नहीं मानता,कारण कि शत्रुके समान प्रतिस्पर्धी, और हार-जीतके कारणभूत बाहुबलीके और मेरे बीच भाग्यसे जातिभेद (विरोध) हुआ है। पहले निंदासे डरनेवाला, लज्जालु, विवेकी, विनयी और विद्वान बाहुबली मुझे पिताकी तरह मानता था; मगर साठ हजार वर्षके बाद मैं दिग्विजय करके आया तब मैंने देखा कि बाहुबली बहुत बदल गया है। अब वह दूसरा ही हो गया है। ऐसा होनेका कारण मेरे खयालसे इतने समयतक हमारा आपसमें नहीं मिलना है। बारह बरस तक राज्याभिषेकका उत्सव रहा, वह नहीं आया। मैंने समझा, आलस करके नहीं आया है। फिर उसको बुलानेके लिए दूत भेजा, तो भी वह नहीं आया। तब मैंने सोचा, इसमें मंत्रियोंके विचारका दोष होगा। मैं उसको कोपसे या लोभसे नहीं बुला रहा था; मगर चक्र उस समय तक शहरमें नहीं घुसता जबतक एक भी राजा चक्रवर्तीके आधीन हुए बिना रह जाता है । इसलिए मैं किंकर्तव्यमूढ़ हो रहा हूँ। इधर चक्र नगरमें नहीं घुसता और उधर बाहुबली नहीं झुकता। ऐसा जान पड़ता है मानों दोनों स्पा कर रहे हैं। मैं तो बड़े संकट में हूँ। मेरा मनस्वीभाई एक बार मेरे पास श्रावे और अतिथिकी तरह पूजा ग्रहण करे इच्छानुसार दूसरी भूमि मुझसे ले । चक्रके नगरप्रवेश न करनेहीसे मुझे लंड़ना पड़ रहा है। लड़ाईका दूसरा कोई कारण नहीं है। और उस न झुकनेवाले भाईसे मुझे किसी तरहका मान पानेकी इच्छा भी नहीं है।" (४५६-४७०)... . Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४०३ - - देवताओंने कहा, "राजन् ! लड़ाईका सबब कोई बड़ाही होगा, कारणं, आपके समान पुरुप छोटीसी बातके लिए कभी ऐसी प्रवृत्ति नहीं करते । अब हम बाहुबलीके पास जाकर उन• को उपदेश देंगे और युगके क्षयकी तरह इस होनेवाले जननाशकी रक्षा करेंगे। शायद वे भी आपकीही तरह लड़ाई के दूसरे कारण यताएँगे; तो भी आपको ऐसा अधम युद्ध नहींही करना चाहिए । महान पुरुषोंको तो दृष्टि, वाणी, बाहु और दंडादिकसे (आपसहीमें ) लड़ाई करनी चाहिए कि जिससे निरपराध हाथी ( व मनुष्य ) वगैरा प्राणियोंका नाश न हो।" (४७१-४७४) . : भरत चक्रवर्तीने देवताओंका यह कथन स्वीकार किया। तब वे दूसरी सेनामें बाहुवलीके पास गए और (उसे देखकर) आश्चर्यसे विचार करने लगे कि अहो ! यह बाहुबली तो दृढ़ गुणोंवाली मूर्तिहीसे अर्जित है; फिर कहने लगे हे ऋषभनंदन ! हे जगत-नेत्ररूपी चकोरके लिए श्रानंद देनेवाले चंद्र ! आप चिरकालतक विजयी हों और आनंदमें रहें। आप समुद्रकी तरह कभी मर्यादा नहीं छोड़ते और कायर 'आदमी, जैसे लड़ाईसे डरते हैं ऐसेही, आप अवर्णवाद (निंदा) से डरते हैं। आपको संपत्तिका अभिमान नहीं है, दूसरोंकी दौलतसे आपको ईर्षा नहीं है. दुर्विनीत आदमियोंको आप दंड देनेवाले हैं और जगतको अभय बनानेवाले ऋषभस्वामीके आप योग्य पुत्र हैं। इसलिए इन दूसरे लोगोंके नाश करनेका काम करना आपके लिए योग्य नहीं है। आपने अपने बड़े भाईसे भयंकर लड़ाई ठानी है। यह उचित नहीं है । और अमृतसे जैसे Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] त्रिषष्टि शम्हाका पुनप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. नौत नंमत्र नहीं है ऐसही, आपसे यह संभव भी नहीं है । अत्रनक भी कुछ बिगड़ा नहीं है, इसलिए दुष्ट पुस्पकी मित्रताके समान इस लड़ाइको छोड़ दीजिए। हे वीर ! वैसे मंत्रोंसे बड़े बड़े सर्प पीछे लौटाए जाते है ऐसही, अपनी बाबासे इन बीर पुन्योंको लडाइस वापस लौटाइए और अपने बड़े भाई भरतके पास जाकर उनी अनिता स्वीकार कीजिए। ऐसा करके आप ऐसी प्रशंसा पाएँगे कि शक्तिशाली होते हुए भी श्राप विनयी बने। भरनु राजा प्रामकिप हुए छन्वंह मरत क्षेत्रका आप अपने ज्यान लिप हुपक्षेत्री तरहही उपभोग कीजिए। कारण, श्राप दोनों में कोई अंतर नहीं है।" (१७५-४८५) एला कहकर वे जब वी तरह शांत हुए तब, बाहुबलीने कुछ, हैनचर गंभीर याणीने कहा, "ह देवताओ! हमारी लड़ाई नत्व जान कर आप अपने स्वच्छ मनसे यों कह रहे है। श्राप पिताजी भक्त है, हम उनके पुत्र है। इस तरह आपका और हमारा संबंध है, इसीलिए आप ऐसा कहते हैं। वह योग्यही है। नदीनाले समय पिताजीने से यात्राको सुवर्णादि दिया इसी तरह हमच्चो और भरतको राज्य बाँट दिए थे। पिताजीन मुले जो चुछ दिया उनीसे संतुष्ट कारण, कंत्रलयन लिए कोई किसी दशमनी क्या करें? परतु समें बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोको निगल जाती है वही भरतखंडनमा मुन्नबी नलियों समान रहनवा गजान बड़ी मछली मान मरत ला गया | खाऊ आदमी जिस वन्ह भोजन संतुष्ट नहीं होता वसं इतने राज्याको जीतने बाद भी वह संतुष्ट नहीं था और उसने अपने Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत बाहुबलीका वृत्तांत [ ४०५ भाइयोंके राज्य छीन लिए। अपने छोटे भाइयोंके राज्य छीन - कर अपनी गुरुता उन्होंने अपने आपही खो दी है। गुरुता सिर्फ उम्र से नहीं (गुरु तुल्य) आचरणसे मानी जाती है। भाइयोंको राज्यसे हटानाही क्या उनकी गुरुता है ! अबतक मैंने भ्रांति से, लोग जैसे पीतलको सोना और काचको मणि समझते हैं ऐसेही, भरत को अपना गुरुजन माना था। पिता के द्वारा दी गई या अपने वंशके किन्हीं पूर्वज द्वारा दी गई जमीन, अपने छोटोंसे कोई साधारण राजा भी उस समयतक नहीं छीनता जबतक वे कोई अपराध नहीं करते; तब भरतने ऐसा क्यों किया ? छोटे भाइयोंका राज्य छीननेकी शरम भरतमें नहीं है । इसीलिए उसने मेरा राज्य लेने के लिए मुझे भी बुलाया है । जहाज जैसे समुद्रको पारकर अंत में किसी किनारे के पर्वत से टकरा जाता है ऐसेही वह अब सारे भरतखंड के राजाओं को जीतकर मुसे टकराया है। लोभी, मर्यादाहीन और राक्षसके समान निर्दय उस भरतको मेरे भाइयोंने शरमसे नहीं माना, तब मैं उसके कौनसे गुणसे उसको मानूँ ? हे देवताओ ! आप सभासदकी तरह मध्यस्थ होकर कहिए । भरत यदि अपने बलसे मुकेशमें करना चाहता है तो भले करे | यह क्षत्रियों का स्वाधीन मार्ग है। इतना होनेपर भी विचारपूर्वक वापस चला जाना चाहता हो तो वह सकुशल जा सकता है। मैं उसके समान लोभी नहीं हूँ कि उस लौटते हुएको मैं किसी तरह कोई नुकसान पहुँचाऊँ । यह कैसे हो सकता है कि उसके दिए हुए सारे भरतक्षेत्रका मैं उपभोग करूँ ? क्या केसरीसिंह कभी किसीका दिया हुआ खाते हैं ? कभी नहीं । उसको भरतक्षेत्र जीतने में साठ हजार Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग. - बरस बीते हैं; मगर मैं लेना चाहूँ तो तत्कालही ले लूँ । मगर इतने वर्षोंकी मेहनतसे उसे मिले हुए भरतक्षेत्रके वैभवको, धनवाले के धनकी तरह मैं भाई होकर कैसे लूँ ? चंयेके फल खानेसे जैसे हाथी मदांध होजाता है वैसेही,भरत यदि छःखंडके राजाओंको जीतकर अंधा हो गया है तो वह सुखसे रहनेमें समर्थ नहीं है। मैं उसके वैभवको छीना हुआ ही देखता हूँ, मगर मैंने जानबूझकरही उसकी उपेक्षा की है। इस समय, मानों मुझे देनेको जामिन हों ऐसे, उसके मंत्री, उसके भंडार, हाथी, घोड़े आदि और यशको सेरे अर्पण करनेके लिएही, भरतको यहाँ लाए हैं । इसलिए हे देवताओ! यदि आप उसके हितैषी हों तो उसको युद्धसे रोकिए। अगर वह न लड़ेगा तो मैं भी हरगिज नहीं लडूंगा। (४८६-५०६) . मेघको गर्जनाके समान उसके इस तरह के उत्कट (अभिमानपूर्ण) वचन सुनकर देवता विस्मित हुए और वे पुन: उससे कहने लगे, "एक तरफ चक्रवर्ती अपने युद्धका कारण चक्रका शहरमें नहीं घुसना बताता है; इससे गुरु भी, न उसको रोक सकते हैं और न निरुत्तरही कर सकते हैं। दूसरी तरफ प्राप कहते हैं "मैं लड़ाई करनेवालेहीसे लडूंगा।" इससे इंद्र भी आपको युद्ध करनेसे रोकनेमें असमर्थ हैं। आप दोनों ऋषभस्वामीके दृढ़ संसर्गसे सुशोभित हैं, महाबुद्धिमान हैं, विवेकी हैं, जगतके रक्षक हैं और दयावान हैं; तो भी जगतके दुर्भाग्यसे यह लड़ाईका उत्पात प्राप्त हुआ है। फिर भी हे वीर ! श्राप प्रार्थना पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षके समान हैं, इसलिए आपसे प्रार्थना है कि, आपको उत्तम युद्ध करना चाहिए, अधम युद्ध Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुवलीका वृत्तांत :४०७ नहीं। कारण, आप दोनों बड़े तेजस्वी हैं इसलिए अधम युद्ध में अनेक लोगोंका नाश होनेसे असमयमेंही प्रलय हुआ है, ऐसा समझा जाएगा। इसलिए आपको चाहिए कि आप दोनों दृष्टियुद्ध वगैरा युद्ध करें। इससे आपके मानकी सिद्धि होगी और लोग नाशसे बच जाएँगे।" ( ५१०-५१७) बाहुबलीने देवताओं की बात स्वीकार की। इसलिए उनकी लड़ाई देखने के लिए, नगरजनोंकी तरह देवता भी उनके पासही खड़े रहे । (५१८) । ___ उसके बाद एक बलवा- छड़ीदार, बाहुबलीकी आज्ञासे गजपर सवार हो, गजकीसी गर्जना कर, बाहुबलीके सैनिकोंसे कहने लगा, "हे वीर सुभटो ! आप एक लंबे अरसेसे चाहते थे वह, स्वामीका काम, वाँछित पुत्रलाभकी तरह, मिला था; मगर तुम्हारे पुण्यकी कमोके कारण देवताओंने अपने राजासे भरतके साथ. द्वेद-युद्ध करनेकी प्रार्थना की; स्वामी खुद भी द्वंद-युद्ध चाहते हैं, ऊपरसे देवताओंने प्रार्थना की, फिर तो कहना ही क्या था ? इसलिए इंद्रके समान पराक्रमी महाराज बाहुबली तुमको लड़ाई न करनेकी आज्ञा देते हैं। देवताओंकी तरह तुम भी तटस्थ रहकर हस्ति-मल्ल (ऐरावत) के जैसे एकाँगमल्ल (महापराक्रमी) अपने स्वामीको युद्ध करते देखो और वक्र बने हुए ग्रहोंकी तरह तुम अपने रथों, घोड़ों और पराक्रमी हाथियों को वापस करदो। सर्प जैसे करंडिकाओंमें डाले जाते हैं वैसे. ही, तुम अपनी तलवारें न्यानोंमें डालो, केतुओंके समान अपने भालोंको उनके कोशोंमें डालो, हाथियोंकी सूंडोंके जैसे अपने मुद्गरोंको हाथों में न रखो, ललाटसे जैसे अकुटी उतारी जाती Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्य १. सर्ग ५. है वैसेही, अपने धनुपोंके चिल्लोंको उतार दो; भंडारोंमें धन डाला जाता है वैसेही अपने बाणोंको भाथोंसे डाल दो और विजली, जैसे मेघमें समा जाती है वैसेही, तुम अपने क्रोधको रोक लो।" (५१६-५२७) छड़ीदारकी बात वचकी थावाजके समान बाहुवलीके सैनिकोंने सुनीं । उनके मन भ्रमितसे होगए। वे आपसमें इस तरह बातें करने लगे, "ये देवता होनेवाले युद्धसे वनियोंकी तरह डर गए हैं।" "ऐसा जान पड़ता है कि इन्होंने भरतके सैनिकोंसे रिश्वत ली है।" "शायद ये हमारे पूर्वजन्मके बैरी है इसीलिए स्वामीसे प्रार्थना कर इन्होंने हमारा युद्धोत्सव रोक दिया है ।" "अरे ! भोजन करनेके लिए बैठे हुए आदमीके सामनेसे जैसे कोई परोसी हुई थाली उठाले, प्यार करनेको उद्यत मनुष्यकी गोदमेंसे जैसे कोई बालकको हटाले, कुँएमेसे निकलते हुए पुरुपके हाथमेंसे जैसे कोई, सहारेके लिए डाली हुई रस्सी खींच ले वैसेही श्राप हुए हमारे रणोत्सवको देवोंने बंद कर दिया।" "भरत राजाके जैसा दूसरा कौनसा शत्रु मिलेगा कि जिसके साथ युद्ध करके हम अपने वाहवली महाराजका ऋण चुका सकेंगे !" "दायादों यानी सगोत्री भाई-बंधुओं, चोरों और पिताके घर रहनेवाली पुत्रवती स्त्रीकी तरह हमने व्यर्थही बाहुबली महाराजसे धन लिया।" हमारी भुजाओंकी शक्ति ऐसेही व्यर्थ गई जैसे जंगल के वृक्षके फलोंकी सुगंध व्यर्थ जाती है।" "नपुंसक आदमीके द्वारा एकत्र की गई त्रियोंके यौवनकी तरह हमारा शस्त्रसंग्रह वेकार गया।" "शुक (तोते ) के किए हुए शाखाभ्यासकी तरह हमारा शख सीखना व्यर्थे हुआ.।" . Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुवलीका वृत्तांत . [ ४०६ "तपस्वियोंका प्राप्त किया गया कामशास्त्रका ज्ञान जैसे निष्फल होता है वैसेही, हमारा सैनिक वनना निष्फल हुआ। हम अज्ञानी थे कि, हमने हाथियोंको माराभ्यास ( लड़ाई में स्थिर रहनेका अभ्यास) और घोड़ोंको श्रम जीतनेका अभ्यास कराया, कारण इनका उपयोग नहीं हुआ।" "शरद ऋतुके मेघोंकी तरह हमने व्यर्थ गर्जना की।" "महिपियोंकी तरह हमने व्यर्थ ही विकट कटाक्ष किए।" "सामग्री बतानेवालों की तरह हमारी तैयारियों वेकार दुई।" और युद्धदोहद ( युद्धकी इच्छा) पूर्ण नहीं हुआ इसलिए हमारा अहंकार करना धूलमें मिल गया।" ( ५२८-५४०) . इस तरह सोचते विचारते ( कहते-सुनते) दुःखरूपी जहरसे घुटते, साँपोंके फूत्कारकी तरह निःश्वास डालते सैनिक वापस चले। क्षात्रव्रतरूपी धनवाले भरत राजाने भी, जैसे समुद्रका पानी भाटा आनेसे लौटता है ऐसेही, अपनी सेनाको वापस लौटाया। पराक्रमी चक्रवर्तीके द्वारा वापस लौटाए गए सैनिक पद पद पर जमा होकर विचार करके लगे, "अपने स्वामी भरतने मंत्री के बहाने वैरीके जैसे किस मंत्रीकी सलाहसे दो भुजाओंसे होनेवाला द्वंद्वयुद्धही स्वीकार किया ? मटेके भोजनकी तरह स्वामोने इस तरहकी लड़ाई मंजूर करली तब हमारी जरूरतही क्या रह गई ? छःखंड पृथ्वीके राजाओंमेंसे हमने कौनसे राजाको परास्त नहीं किया कि जिससे भरत राजा हमको युद्धसे रोकते हैं। जम अपने बहादुर भाग जाएँ, हार जाएँ या मर जाएँ तभी स्वामीको.युद्ध करना चाहिए । कारण, लड़ाईकी गति विचित्र होती है। यदि बाहुबलीके सिवा कोई दूसरा शत्रु होता Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पव १. सग ५. तो हमें अपने स्वामीके द्वंद्व युद्ध में जीतनेके बारेमें कोई शंका नहीं होती; मगर बालवान बाहुबाले बाहुबली के साथ (द्वंद्व) युद्ध में जीतने की इंद्रको भी शंका रहती है, तो दूसरोंकी तो वात ही क्या है ? बड़ी नदीके पूरकी तरह दुःसह वेगवाले वाहुबलीके साथ पहले युद्ध करना स्वामीके लिए योग्य नहीं है । पहले हम लड़ लें, उसके वादही स्वामीके लिए लड़ाई में जाना ठीक है। कारण "पूर्वमश्वमेदांते वाजिनीवाधिरोहणम् ।" [पहले अश्वम यानी चाबुक सवार घोड़ोंको दमन करते हैं, उसके बादही उनपर सवारी की जाती है। ] इस तरह बातें करते और सोचते वीरोंके इशारोसे उनके भावोंको चक्रवर्तीने समझा, इसलिए उनको बुलाकर कहा, "हे वीर पुरुषो ! जैसे अवरका नाश करने के लिए सूरजकी किरणें आगे चलनेवाली होती है वैसेही, शत्रुओंका नाश करने में तुम मेरे अग्रेसर हो। गहरी खाई में गिरकर जैसे कोई हाथी किलेतक नहीं पहुँच सकता वैसेही तुन्दारं उपस्थित रहने से कभी कोई भी शत्रु मुमतक नहीं पहुँचा । पहले तुमने कभी मेरा युद्ध नहीं देखा, इसीलिए तुम्हारे मनमें व्यर्थकी शंकाएं हो रही है। कारण, "......"भक्तिमुपदेपीक्ष्यते भयम् ।" . . . [भक्तिजहाँशंकाका कारण नहीं होता वहाँ भी शंका पैदा करती है। इसलिए वीर सुभटो ! तुम सब एकत्र होकर मेरी मनाओका बल भी देखो, जिससे रोगके क्षय होनेसे जैसे दवाके गुणकी शंका होती है वह मिट जाती है वैसेही, तुम्हारी Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत पाहुघलीका वृत्तांत [४११ (मेरे जीतने के बारेमें जो शंका है वह ) शका मिट जाएगी।" (५४१-५५६) इसके बाद चक्रवर्तीने सेवकोंसे एक बहुत लंबा, चौड़ा और गहरा खड़ा खुदवाया। दक्षिण समुद्रके तीरपर जैसे सह्य (सह्याद्रि ) समर्थ पर्वत रहता है वैसे उस खडेके किनारे भरतेश्वर बैठे और वटवृक्षकी लटकती हुई लंबी लंबी जटाओंकी तरह, भरतेश्वरने अपने बाएँ हाथपर, एकके ऊपर एक, मजवून साँकलें बँधवाईं। किरणोंसे जैसे सूर्य शोभता है और लताओंसे जैसे वृक्ष शोभता है वैसेही एक हजार साँकलोंसे महाराज शोभने लगे। उसके बाद उन्होंने सैनिकोंसे कहा, "हे वीरो! जैसे बैल गाडीको खींचते हैं वैसेही तुम मुझे अपने वल और वाहनसे निर्भय होकर खींचो। तुम सब अपने एकत्रित वलसे खींचकर मुझे इस खडेमें डाल दो। स्वामीकी भुजाओंकी परीक्षामें स्वामीका अपमान होगा यह सोचकर छल न करना। मैंने ऐसा बुरा सपना देखा है, इससे तुम उसका नाश करो। कारण, "स हि मोधीभवेदेव चरितार्थी कृतः स्वयम् ।" [जिसे सपना आता है वह खुदही यदि सपनेको सार्थक करता है अर्थात वैसा आचरण कर लेता है तो फिर सपना निष्फल होता है। चक्रीने इस तरह बार बार कहा तब सैनिकोंने बड़ी कठिनतासे उसकी यह बात मानी (माननी पड़ी) कारण " "स्वाम्याज्ञा हि बलीयसी ।" (स्थामीकी आज्ञा घलवान होती है। फिर देवों और Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग ५. - - असुरोंने जैसे पर्वतके नेत्र (मथानीमें लगाई जानेवाली रस्सी) के समान बने हुए सर्पको (शेषनागको ) खींचा था वैसेही, चक्रीके हाथमें बँधी हुई साँकलोंको पकड़कर सैनिक खींचने लगे। चक्रीकी भुजाके साथ बँधी हुए साँकलों को पकड़नेसे सैनिक ऐसे मालूम होते थे जैसे ऊँचे वृक्षकी शाखाओंपर बैठे हुए बंदर हो । पर्वतको भेदनेकी कोशिश करनेवाले हाथियोंकी (जैसे पर्वत उपेक्षा करता है उसी ) तरह अपनेको खींचनेवाले सैनिकोंकी चक्रीने थोड़ी देर उपेक्षा की। फिर उन्होंने अपने सामने किया हुया हाथ खींचकर छातीसे लगा लिया इससे सभी सैनिक इस तरह गिर पड़े जिस तरह पंक्ति में एक साथ बाँधे हुए घड़े (ग्विचनेसे) गिर पड़ते हैं। उस समय चक्रवर्तीका हाथ लटकते हुए सैनिकोंसे ऐसे शोभने लगा जैसे खजूरका पेड़ खजूरके फलोंसे शोभता है। अपने स्वामीके ऐसे बलको देखकर सैनिक आनंदित हुए और उन्होंने पहले जो कुशंका की थी उसे और उसीकी तरह भुजाकी साँकलोंको भी तुरंत खोल दिया। (५५७-५७०) फिर गायन करनेवाला जिस स्वरमें गायन प्रारंभ करता है, उसी स्वरको पुन: पकड़ता है ऐसेही चक्रवर्ती हाथीपर सवार होकर रणभूमिमें पाया । गंगा और यमुनाके वीचमें जैसे वेदि. प्रदेश (दो आवा ) शोभता है वैसेही दोनों तरफकी सेनाओंके बीचकी भूमि शोभती थी। जगतका संहार रुक जानेसे जैसे किसीने प्रेरणा की हो ऐसे पवन पृथ्वीकी रजको धीरे धीरे दूर करने लगा। देवता समवसरणकी भूमिकी तरहही उस रणभूमिमें सुगंधित जलकी वृष्टिसे छिड़काव करने लगे और मांत्रिक Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४१३ - (मंत्र जाननेवाले ) पुरुष जैसे मंडलकी भूमिमें (मंत्री हुई जमीनमें)फूल बरसाते हैं ऐसेही.देवोंने रणभूमिमें फूल बरसाए। फिर कुंजरकी तरह गर्जना करते हुए दोनों राजकुंजरोंने, हाथियोंसे उतर कर, रणभूमिमें प्रवेश किया। महा बलवान और लीलासे चलनेवाले वे पद-पद पर कूर्मेंद्र को, उसके प्राणोंकी शंकामें डालने लगे। (५७१-५७७) पहले उन्होंने दृष्टि-युद्ध करनेकी प्रतिज्ञा की; और मानो दूसरे इंद्र और ईशानेंद्र हों इस तरह अनिमेष नेत्रोंसे एक दूसरेको देखते हुए खड़े रहे। लाल आँखोंवाले दोनों वीर आमने सामने खड़े हुए एक दूसरेका मुंह देख रहे थे वे उस समय, आमने सामने खड़े हुए, सूरज और चाँदकी तरह शोभते थे। वे ध्यान करनेवाले योगियोंकी तरह, निश्चल नेत्रोंसे, बहुत देरतक स्थिर खड़े रहे। अंतमें, सूरजकी किरणोंसे आक्रांत नीलकमलकी तरह, ऋपभस्वामी के बड़े पुत्र भरतकी आँखें बंद हो गई, ऐसा मालूम हुआ मानो छःखंड भरतद्वीपको जीतनेसे जो कीर्ति महाराज भरतको मिली थी उसे, उनकी आँखोंने पानी देनेके बहाने अश्रुजलके द्वारा मिटा दिया। सवेरेही जैसे वृक्ष हिलते हैं वैसे देवताओंने उस समय सर धुने और महाराज बाहुबली पर फूल बरसाए । सूर्योदयके समय पक्षियोंकी तरह, वाहुबलीकी जीत होनेसे सोमप्रभा आदि ने हर्पध्वनि की। कीर्तिरूपी नर्तकीने जैसे नाचना शुरू किया हो ऐसे वाहुबलीके सैनिकोंने जीतके वाजे बजाए। भरत राजाके सुभट ऐसे शिथिल हो गए मानो वे मूर्छित हो गए हों, सो गए हों या बीमार हों। अंधकार और प्रकाशवाले मेरुपर्वतकी दोनों घाजुभोंकी तरह Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] विषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व है. मर्ग ५. दोनों सेनानि अफसोम और प्रानंदादिम्याई दिए । उस समय बाहुबली ने कहा, गोसा न कहना कि काकतानीय न्यायमें जीत गण हो अगर ऐसा हो तो वाला-युद्ध भी कर लो। बाहुबलीकी यह बात सुनकर परोसे कुचने पसपंकी दरह चक्रीन गुन्ससे कहा, "इस युद्ध में भी मनं तुम विजयी बनो।" (५५- ) जि.जैसे ईशानंदकाल नाद करना है, चाधर्मद्रका हाथी गर्जना करता है, और बनिन ( गजेना) करता है सही, भरत गजान बड़ा सिंहनाद क्रिया। वह सिंहनाद श्राकाशन चारों तरजी व्यान हो गया जसं बड़ी नदी दोनों किनारोंपर बाढ़ नियर पानी फैल जाता है। मालूम होता था, मानों वह नहाई दन्दन श्राप हुए देवनानां विमान गिराता हो; श्राकाशसंग्रह-नत्र व तारायांची भ्रष्ट करता हो, पर्वतोंके ऊन शिवरावाहिता हा थोर समुहका जल उछालता हा। उस सिंहनादची मुनका बुद्धिवाल पुन्य गुनकी पाना न मानत होनसे रथ घाई रशिम ( लगाम ) की संज्ञा करने ला; चार में सवाणा (प्रदेश ) को नहीं मानते ऐसही, हाथी यांची न मानने लग कप भोगी जैकह पदार्थ नहीं जानत लेक, बाई लगाम नगिनत लगः विट (बश्याग्रेनी) जैसे नाज-शरम नहीं गिनत पसंदी, ऊँ नाकी डोरीको १-अचानक नेताहनहीं मिलतामार की रिहाना है,पादितं चार हानकी मंजारना नहीं इंदनगर. कमी हो जाता है, उनमें वह काबाता है किन्दाहीय न्याय यह आम हो गया। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत mome नहीं गिनने लगे; भूताविष्ट (जिनको भूत-बाधा हुई है ऐसे ) लोगोंकी तरह खच्चर चाबुकोंकी मारकी अवज्ञा करने लगे। इस तरह भरत चक्रवर्तीके सिंहनादसे घबराकर कोई भी स्थिर न रह सका । (५६०-५६६) . उसके बाद बाहुबलीने सिंहनाद किया । सोने वह आवाज सुनी । उन्होंने समझा गरुड़ नीचे उतर रहा है और वह उसके पंखोंकी आवाज है। इसलिए वे पातालसे भी पातालमें घुस जाना चाहते हों ऐसे हो गए। समुद्र के जलजंतुओंने इस . सिंहनादकी आवाजको, मंदराचलको समुद्र में डालकर समुद्र मंथन करनेकी आवाज समझा। इससे वे भयभीत हो गए। कुलपर्वत' उस आवाजको सुनकर इंद्रके वनके शब्दकी भ्रांतिसे अपने नाशकी आशंका कर बार बार काँपने लगे। मृत्युलोकमें रहनेवाले सभी मनुष्य उस शब्दको सुन, पुष्करावतें नामक मेघकी छोड़ी हुई विद्युत्ध्वनि ( बिजलीकी आवाज ) के भ्रमसे पृथ्वीपर इधर-उधर लोटने लगे। देवताओंको उस दुःश्रव (कणकटु) शब्दको सुनकर, भ्रम हुआ कि असमयमेंही दैत्योंका उपद्रव आरंभ हुआ है, उसीका यह कोलाहल है; इससे वे घबरा उठे। यह दुःश्रव सिंहनाद-शब्द मानों लोकनलिकाके साथ स्पर्धा करता हो ऐसे क्रमशः बढ़ने लगा। (५६७-६०२) बाहुबलीका सिंहनाद सुनकर भरतने फिरसे ऐसा सिंहनाद : भारतवर्षमें ७ प्रधान पर्वत हैं। वे सब या उनमेसे एक । नाम ये हैं महेंद, मलय, सह्य. शुक्ति,ऋन्त, विध्य और पारियात्र । साधाः रणतया ये 'कुलाचल' कहलाते हैं। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ । त्रिषष्टि शलाका पुरुष-परित्रः पर्व १ सर्ग ५. किया कि उसे मुनफर देवताओंकी खियाँ हरिणीकी तरह भयमीत हो गई। मानो मध्यलोकको क्रीडाद्वारा भयमीत करने वालेहाँ ऐसे चक्री और बाहुबलीन क्रमशः सिंहनाद किए। ऐसा करने करने वायत्री मुंडनी तन्ह और सपने शरीरकी तरह मरत राजाके सिंहनादकी श्राबाज क्रमशः कम होती गई और नदीके प्रवाही तरह पर्व मनके लंबकी तरह बाहुबलीका सिंहनाद अधिकाधिक बढ़ता गया। इस तरह शान्नार्थक यादमें जैसे वादी प्रतिवादीको जीतना हवेसट्टी वायुद्ध में भी बाहुबलीने भरत राजाको जीत लिया! (३१-६०७) फिर दोनों भाई, बद्धकन्न (साँकलोंने ब) हाथियोंकी तह, बाह-युद्ध के लिए बद्धपरिकर हुए (कमर कमी) । उस समय उचन्नने हुए नमुलकी नन्ह गर्जना करता बाहुबलीका, मानकी छड़ी धारण करनेवाला, मुन्थ्य बड़ीदार बोला, "है पृथ्वी ! वन कीनों जैसे पर्वतों को पकड़ और अपना सारा बल जमाकर थिर हो । नागरान! चारों तरफसे पवन ग्रहण कर, उसे रोक, पर्वतकी तरह हो पृथ्वीको ममाल । हे महावराइ ! समुद्रके श्रीचने नोट, पहलेको यचानको मिटा, वाजा हो पृथ्वी गोद में रखा ईकमल! अपने व समान अंगको चारों तरसे निचोड़पाठकोमजबूत बना पृथ्वीकोला! है दिगगनो पहलेची तरह प्रभादसे या सदसे नमकियों न लो,सब तरह से सावधान हो बमुवाको धारण करो। कारण,यह बचमार पाहुबली, बसार मुनायास क्रीक साय मल्लयुद्ध करनेको खड़ा होता है। (३०८-६१५) पिदोनों महान वा टोकी। इननी भापान ऐसा Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुवलीका वृत्तांत [४१७ मालूम हुई जैसी तत्काल पर्वतपर बिजली गिरनेसे होती हैं। लीलासे पदन्यास करते ( कदम रखते) और बुडलको (अपने आसपास की जमीनको ) कंपित करते दोनों आमनेसामने चलने लगे; उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो वे धातकी खंडसे आए हुए, दोनों तरफ जिनके सूरज और चाँद हों ऐसे, छोटे मेरुपर्वत हैं। बलवान हाथी मदमें आकर जैसे अपने दाँत आमने-सामने टकराते हैं ऐसेही वे अपने हाथ आपसमें टकराने लगे। क्षणमें एक साथ होते और क्षणमें अलग होते वे दोनों वीर ऐसे मालूम होते थे, मानो महान पवनके द्वारा प्रेरित दो बड़े पेड़ हों। दुर्दिनमें उन्मत्त हुए समुद्रके पानीको तरह वे क्षणमें उछलते व क्षणमें नीचे गिरते थे। मानो स्नेहसे भेटते हों ऐसे क्रोधसे दौड़कर दोनों महाभुज एक एक अंगसे एक दूसरेको दवाते और आलिंगन करते थे और कर्मके वशसे जीवोंकी तरह, युद्ध-विज्ञानके वश वे कभी नीचे और कभी ऊँचे जाते थे। जल में मछलीकी तरह वेगसे वार बार बदलते रहनेसे उनको देखनेवाले लोग यह नहीं जान सकते थे कि कौन ऊपर है और कौन नीचे है। बड़े सर्पकी तरह एक दूसरेके लिए बंधनरूप होते थे और चपल बंदरोंकी तरह तत्कालही अलग हो जाते थे। चार बार पृथ्वीपर लोटनेसे दोनों धूलिधूसर हो गए थे, इससे ऐसे जान पड़ते थे, मानो धूलिमदवाले हाथी हों। चलते हुए पर्वतके समान उनका भार सहन करनेमें असमर्थ होकर पृथ्वी, उनके पदाघातके बहाने मानो चिल्ला रही हो, ऐसी मालूम होती थी। अंतमें क्रोधमें आए हुए और महान पराक्रम २७ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पब ?, मग ५. वाले बाहुवलीन शरम (अष्टापद प) जैसे हाथ को उठा लेना है ऐसही मातको अपने हाथोंम उठा लिया और, हाथी जैसे (किसी छोट) जानवरको अपनी मुंडले अाकारा में उछाल देना है ऐसही, उसे श्राकाशमें उछाल दिया ! - "अहो निरवधिः मा बलिनी बलिनामपि ।" [बलवानाने मी बलवानोंकी उत्पनि निरवधि है। श्रर्थान महाबलवान भी कोई अधिक बलवान पैदा होता ही है।] धनुषसे छू हुए बागाछी नाह या यंत्रम फेंक गए पत्थरकी तरह मत गना आकाराने बट्टन दूर मक गए ! इंद्रक चलाए हुप बन्धकी नाह, नीचे गिरते हुए चक्रीका देवकर, लड़ाई देवनको श्राप हप नमी नेत्ररमाग गया यार उस समय दोनों सेनायामें हाहाबार छा गया। कारण "कथ्य दुखाकरो न ज्यान्महतां ह्यापदागमः।" [जब महायुम्यांपर श्रापनि पानी है नब किसे दुःख नहीं होता है ?] (३१६-३३१) ( डा. भरतको श्राकारामें देख) बाहुबली सोचन लगे, "अं! (मैन वह क्या क्रिया) र दलको विकार है ! बाहुको विश्कार ! महसा काम करनेवालको चित्रकार है। श्रीर से ऋामकी अंना ऋग्नधान्न मंत्रियोंको भी विकार है! अथवा इन समय पट्टी निंदा करनेत्री क्या उन्हान है ? मगर क्यों नहीं मैं अपने बड़े भाईको,पाकाशसे पृथ्वीपर गिरकर टुकड़े टुकड़े हो जाए. इस पहलही, अपने हायपर मलल पला विचार कर बाहुवतीन अपनी दोनों मुनाएँ शैवाकी नाह फैला दी। ॐ हाय करके रह हुए वती Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत . [४१६ पुरुषकी तरह, ऊँचे हाथ करके खड़े हुए बाहुबली, क्षणभर सूर्यकी तरफ देखते रहनेवाले तपस्वीकी तरह, भरतकी तरफ देखते रहे। मानो उड़ना चाहते हों ऐसे रूपमें पंजॉपर खड़े होकर उसने गिरते हुए भरतको गेंदकी तरह झेल लिया । उस समय दोनों सेनाओंको उत्सर्ग और अपवादकी तरह, चक्रीके ऊपर उछाले जानेसे खेद और उसकी रक्षासे हर्ष हुआ । ऋषभदेवजीके पुत्रने भाईकी रक्षा करनेका जो विवेक दिखाया उससे लोग उसके विद्या, शील और गुणकी तरह पराक्रमकी भी तारीफ करने लगे। देवता ऊपरसे फूल बरसाने लगे। मगर वीरव्रत धारण करनेवाले पुरुषको उससे क्या ? उस समय, धुएँ और ज्वालासे जैसे आग जुड़ जाती है ऐसेही, भरत राजा इस घटनाके कारण खेद और क्रोधसे युक्त हो गया। (६३२-६४०) उस समय लज्जासे अपने मुखकमलको नीचे झुका भाईका खेद मिटानेके विचारसे बाहुबली गद्गद स्वरमें बोले, "हे जगतपति ! हे महावीर्य ! हे महाभुज ! आप अफसोस न करें। कभी कभी विजयी पुरुषोंको भी दूसरा जीत लेता है; मगर इस कृतिसे मैंने न आपको जीता है और न मैं विजयीही हुआ हूँ। मैं मानता हूँ कि यह वात 'घुणाक्षर न्याय के समान हो गई है। हे भुवनेश्वर ! अब तक आप एकही वीर हैं। कारण 'अमरैर्मथितोप्यन्धिरब्धिरेव न दीर्घिका ।" १-जो बात बगैर प्रयासके सरलतासे हो जाती है उसे धुणाक्षर न्याय' कहते हैं। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] त्रिषष्टि शलाका पुनुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. देवताओं मयन करनेपर भी समुद्र समुनही रहा, वह वारिका न बना 1] फाल (छलांग) से गिरे हुए व्यावकी तरह श्राप खड़े क्यों है ? लाइक लिए तैयार होइए। (६४१-६४५) "यह मेरा भुनदंड मुन्को तैयार कर अपने दोषको मिटाएगा। इस तरह का, फणीश्वर सर्प फन फैलाता है ऐसे मुही बाँध, गुन्यये श्रावं लाल कर, चक्रवर्ती तत्कालही बाहु. वतीकी तरफ दौड़ा और, हाथी से अपने दाँतास किवाड़ॉपर श्राघात करता है वैसही, उसने बाहुबलीकी छातीपर मुट्ठीका प्रहार किया। जैसे ऊसर जमीनमें बारिश, बहरे पुरुष कानम निवा, चुगलखोरका सत्कार, असतयात्रमें दान, अरण्यमें संगीत और बरफके समूहमें अग्नि बंकार होनी है वैसेंही,बाहुइलीकी छानी में किया गया वह मुष्टिप्रहार बेकार हुया । उसके बाद "यह क्या हमसे नाराज हुया है?" ऐसी आशंकासे देववायां द्वारा देखा गया सुनंदापुत्र मुट्टी बांधकर भरतकी तरफ चला और उसने चक्रीकी छाती में इस तरह मुक्का मारा जैस महावर अंकुशसं हाथ क उमस्थलपर प्रहार करता है। बचके पर्वतपर हुए प्रहारकी तरह के प्रहारसे घबराकर भरतपति भूछिन होजमीनयर गिया पति गिरनस ऋतांगनाक्री तरह, मस्तकें गिरने पृथ्वी काँप की और भाई गिरनेस भाईक्री नरह, पर्वत चलित हो ! ( ६४६-४४) अपन भाइको, इस तरह भूच्छित हो गिरते देख, बाह्रबली मनमें विचार करने लग,"क्षत्रियोंक वीरवतश्राग्रहमें यह यात बहन वर्ग है कि, जिम कारगास अपने भाईकी भी ज्ञान Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४२१ ले लेने तककी लड़ाई होती है। अगर यह मेरा बड़ा भाई जीवित न रहे तो फिर मेरा जीना भी व्यर्थ है।" इस तरह सोचते, नेत्रजलसे उसका सिंचन करते बाहुबली अपने उत्तरीय वखसे पंखेकी तरह भरतरायपर हवा करने लगे। ठीकही कहा ..........'योचंधुबंधुरेव सः।" [भाई आखिर भाईही होता है। थोड़ी देरमें सोके उठेहुए आदमीकी तरह चक्रवर्ती होशमें आया, और वह उठ बैठा। उसने देखा कि उसका छोटा भाई बाहुबली दासकी तरह सामने खड़ा है। उस समय दोनों सिर झुकाए रहे। - ___"पराजयो जयश्चापि लज्जायै महतामहो।" | अहो । महापुरुषोंके लिए जीत और हार दोनोंही लज्जाका कारण होती हैं। फिर चक्र जरा पीछे हटे, कारण युद्धकी इच्छा रखनेवाले पुरुपोंका यह लक्षण है। बाहुबलीने सोचा, अव भी आर्य भरत किसी तरहका युद्ध करना चाहते हैं। कारण "नोझंती मानिनो मानं यावज्जीवं मनागपि ।" [स्वाभिमानी रुष, जबतक जीवित रहते हैं तबतक, अपने अभिमानको थोडासा भी नहीं छोड़ते हैं। परंतु भाईकी हत्यासे मेरी बहुत बदनामी होगी; और वह अंततक शांत नहीं होगी। इस तरह बाहुबली सोचही रहा था कि चक्रवर्तीने यमराजकी तरह दंड ग्रहण किया। (६५५-६६३) . शिखरसे जैसे पर्वत शोभता है और छायापथ (आकाश Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १, सर्ग ५. गंगा)से जैसे आकाश शोभता है वैसेही, उठाए हुए दंडसे चक्रवर्ती शोभने लगा। धूमकेतुका भ्रम पैदा करनेवाले उस दंडको राजा भरतने एक पलके लिए आकाशमें घुमाया, फिर जवान सिंह जैसे अपनी पूंछ जमीनपर पछाड़ता है वैसेही, उसे वाहुवलीके सरपर दे मारा। उस दंढके प्रहारसे ऐसे जोरका शब्द पैदा हुआ जैसे सह्याद्रि पर्वतसे समुद्रकी वेला (ज्वारके समय उठती तरंगे) टकरानेसे होता है; ऐरन पर रखा हुआ लोहा, जैसे लोहेके घनके आघातसे चूर्ण हो जाता है वैसेही, बाहुवलीके मस्तकपर रखा हुआ मुकुट दंडके श्राघातसे चूर्ण हो गया; और पवनके हिलानेसे जैसे पेड़ोंकी टहनियोंसे फूल गिरते हैं वैसेही, मुकुटके रत्न-खंड जमीनपर गिर पड़े। उसके प्रहारसे क्षणभरके लिए बाहुबलीकी प्रास्त्रे मिच गई और उसकी भयंकर पावानसे लोकसमूह भी, वैसाही हो गया यानी लोगोंकी आँखें भी मुंद गई। फिर पाखें खोलकर बाहुबलीने संग्रामके हाथीकी तरह लोहका उदंट दंड उठाया। उस समय आकाशका शंका हुई कि क्या यह मुझे गिरा देगा ? और जमीनको शंका हुई किक्या यह मुझे उखाड़ देगा ? पर्वतके अगले भागकी बाँबीमें रहे हुए सर्पकी तरह बाहुबलीकी मुट्ठीमें वह विशाल इंढ शोभने लगा। दूरसे बुलाने के लिए मानों झंडा हो ऐसे, लोहदंडको बाहुबली वुमाने लगा। लकड़ीस बीजानकी तरह बहलीपतिने उस दंडसे चक्रीकी छातीपर निर्दयतापूर्वक आवात किया। चक्रीका कवच बहुत मजबूत था तो भी, उस आघातसे मिट्टीक घड़की तरह चूर चूर हो गया। कवच रहित चक्री वादलहीन सूरज और धूत्र रहिन अग्निकी नरह मालुम होने लगे। सातवीं Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४२३ मदावस्थाको प्राप्त हाथीकी तरह राजा भरत क्षणभरके लिए घबरा गए; वे कुछ भी न सोच सके। थोड़ी देरके बाद प्रियमित्रकी तरह अपनी भुजाओंके वलका सहारा लेकर फिरसे दंड उठा वे बाहुबलीकी तरफ दौड़े। दाँतोंसे ओंठ पीस, भ्रकुटी चढ़ा भयंकर बने हुए भरतने, वडवानल के आवर्त (चक्र) की तरह, दंडको खूब घुमाया, और कल्पांत (प्रलय) के समय मेघ जैसे विद्युतदंडसे (विजलीके डंडेसे ) पर्वतपर प्रहार करता है वैसे ही, उसका बाहुवलीके सरपर आघात किया। लोहेकी ऐरनमें वज्ञमणिकी तरह उस आघातसे बाहुबली घुटनों तक जमीनमें घुस गया। मानों अपने अपराधसे भयभीत हुआ हो ऐसे चक्रीका दंड वज्त्रसारके समान बाहुबलीपर प्रहार करके विशीर्ण (टुकड़े टुकड़े) हो गया। घुटनोंतक जमीनमें घुसे हुए बाहुबली, पर्वतमें स्थिर पर्वतके समान और जमीनसे बाहर निकलनेके लिए, अवशेष शेषनागकी तरह शोभने लगे। मानो बड़े भाईके पराक्रमसे अंत:करणमें चमत्कार पाए हों ऐसे, उस आपातकी वेदनासे बाहुवली सर धुनने लगे और आत्माराम योगीकी तरह क्षणभर उन्होंने कुछ नहीं सुना। फिर नदीके किनारे सूखे हुए कीचड़मेंसे जैसे हाथी निकलता है वैसेही, बाहुबली जमीनमेंसे बाहर निकले; और लाक्षारस ( लाख ) के समान दृष्टिसे, मानो अपनी भुजाओंका तिरस्कार करते हों ऐसे, वे क्रोधियोंमें अग्रणी अपने भुजदंड व दंडको देखने लगे। फिर तक्षशिलापति बाहुबली,तक्षक नागके समान दुःप्रेक्ष्य(जिसपर नजर नहीं ठहरती ऐसे ) दंडको एक हाथसे घुमाने लगे । अतिवेगसे बाहुबलीके द्वारा घुमाया गया वह दंड राधावेधमें फिरते चक्रकी Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४] त्रिषष्टि शनाका पुरुप चरित्रः पर्ष १. सर्ग ५. शामाको धारण करना था। प्रलयकाल के समुद्रके श्रावतम फिरते हुए मत्स्यायनारी विप्राकी नरह, फिरते हुए उस देशको देव, देखनवाल लोगोंकी आँखाम भी भ्रम हो जाता था। उस समय सेनाके सभी लोग और देवता शंका करने लगे कि अगर बाहुबलीकं हाथसे गिरकर दंढ उड़ेगा तो वह सूरजको काँसके बरतनकी नरह तोड़ देगा; चंद्रमंडलको भरंट पत्नीक अंडेकी तरह चूगा कर दंगा, तारोको आंवलोंक फलोंकी तरह गिरा देगा; वैमानिक देवताओंके विमानोंको पक्षियोंक घोसलोंकी तरह छिन्न कर देगा, पर्वतीक शिवराको वल्मीक (दीगोंके रहनकी जगह) की तरह भंग कर देगा, बड़े बड़े पडाको छोटी कुंजीकी बानकी नगह मल देगा, और पृथ्वीको ऋची मिट्टीक गोलेकी तरह चूर्ण कर दंगा। इस तरह शंका नजरोस देखे गए उस दंडको बाहुवलीन चक्रीक सरपर मारा। उस दंडके श्राघातसे चक्री, धनकं श्राघातसे टुके हुग कीलकी नरह, पृथ्वी में गलेतक घुस गया और उसके साथ उसके सैनिक भी, दुखी होकर जमीनपर गिर गएः मानां वे ग्रह याचना कर रहे थे कि, हमारे स्वामीको दिया हुआ विवर (बिल) हमें भी दो। गहुकं द्वारा प्रसित मूर्यक्री तरह जब चक्री भूमिमें घूम गया तब आसमानमें देवताओंका और अमीनपर मनुध्यांका कोलाहल नुनाई दिया। जिसकी माँग्ने मुंद गई और मुंह श्याम हो गया है ऐसा भरतपति माना ललित हुश्रा हो इस तरह थोड़ी देर जमीनमें स्थिर रहा, श्रीर फिर, तत्कालही वह, इस तरह जमीनमंसे बाहर निकला में रान के अंत में सूरज वैदीप्यमान और तीव्र होकर बाहर निकलता है। ( ६६१-५०१) Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत- बाहुबलीका वृत्तांत [ ४२५ उस समय चक्री विश्वार करने लगा, "जैसे अंधा जुधारी हरेक तरहके जुए में हार जाता है उसी तरह मैं बाहुबली से हरेक युद्धमें हार गया हूँ, इससे गाय जैसे घास-दाना खाती है और उससे होनेवाला दूध गाय दुहनेवाले के उपयोग में आता है उसी तरह मेरे जीते हुए भरतक्षेत्रका उपभोग क्या यह बाहुबली करेगा ? एक म्यानमें दो तलवारोंकी तरह इस भरत क्षेत्र में एकही समयमें दो चक्रवर्ती किसीने न कभी देखे हैं और न सुनेही हैं । गधे सींगकी तरह, देवताओंसे इंद्रा और राजाओंसे चक्रवर्तीका जीता जाना पहले कभी नहीं सुना गया। तब बाहुबली के द्वारा पराजित मैं क्या चक्रवर्ती नहीं बनूँगा ? और मेरे द्वारा न जीता गया और दुनियासे भी न जीता जा सके ऐसा बाहुबली चक्रवर्ती बनेगा ?' (७०२ - ७०६ ) चक्रवर्ती इस तरह सोच रहा था तत्र चिंतामणिरत्नके समान यक्ष राजाओंोंने चक्र लाकर उके हाथमें दिया । उससे भरतको विश्वास हुआ कि मैं चक्रवर्तीड़ी हूँ और वह, चवंडर जैसे आकाशमें धूलको घुमाता है इस तरह, चक्रको आकाशमें घुमाने लगा । ज्वालाओं के जालसे विकराल बना हुआ चक्र ऐसा जान पड़ा मानों वह अकालमें कालाग्नि हो; मानों वह दूसरा वडवानल हो; मानो वह अकस्मात पैदा हुआ वज्ञाग्नि हो; मानों वह ऊँचा विजलीका पुंज हो; मानो वह गिरता हुआ सूरजका यित्र हो; मानों वह विजलीका गोला हो। चक्रवर्तीने प्रहार करनेके लिए घुमाए हुए चक्रको देखकर मनस्त्री बाहुबली अपने मनमें सोचने लगे, "अपनेको पिताका ऋपभस्वामीकापुत्र माननेवाले भरत राजाको धिक्कार है ! और उसके क्षात्र Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ : त्रिषष्टि शलाका पुत्य-चरित्रः पर्व १ सर्ग ५. धर्मको भी धिक्कार है कि मैंने दंड-यायुध लिया है और उसने चक्र लिया है। उसने देवताओंके सामने उत्तम युद्ध करनेकी प्रतिज्ञा कीथी: नगर इस तरहका व्यवहार करके उसने वालककी तरह प्रतिज्ञा तोड़ी है। इससे उसे धिक्कार है ! तपती जेने तमोश्या (का भय बताता है वही गुस्से होकर, उसने चक्र बताकर जैसे सारे विश्व उराया था उसी तरह मुन्ने मी हराना चाहता है नगर जिस तरह से अपने भुजदंडकी शक्ति मालूम हो गई उसी त अव उसके चक्रकी शक्ति भी उसे मान हो जाएगी!" जब बलशाली बाहुवली इस तरह के विचार कर रहा था तब भरतने अपने पूरं वलसे उसपर चक्र चलाया। (७०७-७१६) चक्रको अपनी तरफ आते देख तनशिलापति विचार करने लगा, "जीणे वलनकी नरह में इसका चूर्ण कर डाल ? गेंदके खेलकी नरह इलयर आघात करके इस कहूँ? खेल पत्यरके दुकाईकी तरह इसे श्राकाश चाल हूँ ? अथवा शिशुनाल की तरह इसे जनीनमें गाड़ दूँ ? वा चपल चिड़िया बबेकी तरह इस पकडया ववके लायक अपराधीकी तरह इस दूहाल छोड़ है? या क्वीने पड़े हुए वानकी तरह इसके अविष्टायन देवाको दबने शीनही पास बा ? अथवा ये सब बाने या होंगी, पहने इसका बल दो जान लू?" वह इस तरह सोच रहा था तब चरन भाकर,निध्य गुनसो देता है इसी तरह भरतके प्रदक्षिणावी, कारण क्रीका चक्र सामान्य सगात्री मनुष्यार भी पायान नहीं कर सकता है, तब घरमशगरा सगोत्रीपर-तो उसका असर हो ही न्यासकता था। इसलिए Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुवलीफा वृत्तांत [४२७ - पक्षी जैसे घोंसलेमें आता है और अश्व जैसे घुड़सालमें आता · है वैसेही चक्र लौटकर भरतके हाथमें आगया। (७१७-७२४) ... "मारनेकी क्रियामें विषधारी सर्पके विषयके समान अमोघ अस्त्र एक चक्रही भरतके पास था। अब इसके समान दूसरा कोई अस्त्र भरतके पास नहीं है, इसलिए चक्र चला कर अन्याय करनेवाले इस भरतको तथा इसके चक्रको मुष्टिप्रहार कर कुचल डालूँ।" इस तरह गुस्सेसे सोचते हुए सुनंदाके पुत्र बाहुबली यमराजकी तरह भयंकर मुट्ठी ऊँची कर चक्रीकी तरफ दौड़े। सूंडमें मुद्गरवाले हाथीकी तरह मुक्केवाले करसे दौड़ते हुए बाहुवली भरतके पास पहुँचे; मगर समुद्र जैसे मर्यादाभूमिमें रहता है ऐसेही, वे महासत्व (महान शक्तिशाली) कुछ कदम पर खड़े रह गए और सोचने लगे, "अहो ! इस चक्रवर्तीकी तरह मैं भी राज्यका लोभी होकर अपने बड़े भाईका वध करनेको तैयार हुआ हूँ, इसलिए मैं शिकारीसे भी विशेष पापी हूँ। जिसमें पहले भाई-भतीजोंको मार डालना पड़े, ऐसे शाकिनीमंत्रीकी तरह राज्यके लिए कौन कोशिश करे ? राजाको राज्यश्री मिलती है। इच्छाके अनुसार उसका उपभोग करता है तो भी, जैसे शराबीको कभी शराबसे संतोष नहीं होता, उसी तरह राजाओंको (प्राप्त) राज्यलक्ष्मीसे संतोप नहीं होता। आराधना पूजा करते हुए भी छोटासा छिद्र देखकर ही, दुष्ट देवताकी तरह राज्यलक्ष्मी क्षणभरमें मुँह मोड़ लेती है। अमावसकी रातकी तरह वह गाढ़ अंधकारवाली है। (इसीलिए पिताजीने इसका त्याग किया है। ) अगर ऐसा न होता तो पिताजी इसको क्यों Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष- चरित्र: पर्व ९. सर्ग . छोड़ने ? मैं उन्हीं पिताका पुत्र हूँ तो भी बहुत समय बाद मैंने इसको पहचाना है, तब दूसरा कौन इसे ऐसे रूपमें जान सकना है ? इसलिए यह राज्य सर्वथा त्याग करने लायकही हैं।" ऐसा विचार कर बड़े दिवाने बाहुने चक्रवर्तीसे कहा, " जमानाय ! हे भाई ! केवल राज्यके लिए मैंने शत्रु की तरह आपको सताया जमा कीजिए। इस संसाररूपी बड़े सरोवर सेवात्तचे तंतुओं के पाशकी तरह भाई, पुत्र और दि तयैव राज्यसे मुझे कोई मनन्त नहीं है। मैं तीन जगत के स्वामी और जान देने वाले पिताजी नागपांथ (साफिर की तरह चलूँगा । ( ७२५-७३६) यों कहकर साहसी पुनर्योनिं श्रमणी महा सत्यवान्ते बहुतीने हुई ही अपने मन केशोंका लोच कर डाला। उस समय देवताओंने 'साधु ! साधु ।" कहकर उसपर फूल बरसाए। फिर पांच महाव्रत धारण कर वे सनमें सोचने "मैं भी पिताजी नहीं जाऊँगा । कारण यदि मैं इस समय जाऊँगा तो मेरे छोटे भाइयोंमें, जिन्होंन सुमसे पहले लिया है और जो ज्ञानी है, मैं लघु माना जाऊँगा, इसलिए भी मैं यहीं रहकर ज्ञानरूपी अग्नि जलाऊँगा और जवानी कमका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करूंगा तब स्वामीकी पर्याने जाऊँगा ।" हाथ इस तरहका निश्रय का मनस्वी बाहुबली अपने दोनों करना की तरह वहीं कायोत्सर्ग करके रहे । अपने भाइकी इस स्थितिको देख भरत राजा नेमका विचार कर मानों पृथ्वीमेंस जाना चाहता हो इस तरह सर Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४२६ मुकाए खड़ा रहा। फिर मानो मूर्तिमान शांत-रस हों ऐसे अपने भाईको, थोड़े गरम आँसुओंसे, मानो बाकी रहे हुए क्रोधको भी बहा देता हो ऐसे, भरत राजाने प्रणाम किया। प्रणाम करते समय बाहुबलीके नखरूपी दर्पणोंमें उसके प्रतिविंब दिखाई देते थे, वे ऐसे जान पड़ते थे मानो भरतने अधिक उपासना करनेकी इच्छासे अनेक रूप धारण किए हैं। फिर भरत बाहुवलीके गुणस्तवन और अपवादरूपी रोगकी दवाके समान आत्मनिंदा करने लगा:--- ___ " (हे भाई !) तुमको धन्य है कि तुमने मुझपर अनुकंपा (दया) करके राज भी छोड़ दिया। मैं पापी और दुर्मद हूँ कि, मेने असंतुष्ट होकर तुमको इस तरह सताया। जो अपनी शक्तिसे अजान है, जो अन्यायी है और जो लोभके वशमें हैं उनमें मैं धुरंधर (मुख्य) हूँ। जो पुरुष इस राज्यको संसाररूपी वृक्षका वीज नहीं समझते वे अधम हैं। मैं उनसे भी अधिक अधम हूँ; कारण यह जानते हुए भी मैं इस राज्यको नहीं छोड़ता। तुम पिताजीके सच्चे पुत्र हो कि, तुमने उन्हींका मार्ग अंगीकार किया। यदि मैं भी तुम्हारे समान वनूँ तो पिताजीका वास्तविक पुत्र कहलाऊँ।" . इस तरह पश्चात्तापरूपी जलसे विपादरूपी कीचड़को धो, भरत राजाने बाहुबलीके पुत्र चंद्रयशाको राजगद्दीपर बिठाया। उन्हींसे चंद्रवंश शुरू हुआ और उसकी सैकड़ों शाखाएँ फैली। वह ऐसे पुरुषरत्नोंकी उत्पत्तिका हेतुरूप हो गया। (७४०-७५५) फिर भरत राजा बाहुबली मुनिको नमस्कार कर अपने Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पत्र १. सग ५. परिवार सहिन न्वर्ग गन्यलक्ष्मीकी सहोदरा समान अपनी अयोध्या नगरी में गया । (७५६) भगवान बाहुबली मानों पृथ्वीमसे निकले हो अथवा श्राकाशसं उतर ही ऐसे वहाँ अकन्नही कायोत्सर्ग ध्यानमें रहे। व्यानमें लीन बाहुबलीकी दानां प्रान्त नासिका अन-मागपर स्थिर थीं और मानों दिशाओंको साधनका ( वश में करनका ) शंकु (न्तम ) हो ऐसे स्थिर खड़े हुए व महात्मा मुनि शोमतं थे। श्रागकी चिनगारियों नमान गरमाता कन्याल गरमाके मौसमक्री प्राधियांका ,वनयनकी नरह सहन थे। अग्निकुंडकं समान दुपहरीका मुरज उनकं मगपर तपना था, तो भी व्यानन्धी अमृनमें लीन उन महात्मापर, उसका कोई असर नहीं होना था। सरन पर न लगी लि पमीन कीचड़के समान हो रही थी। इससे व कीचड्स निकले हुए बगहके समान शोमते थे।वानुम यानीकी नाड़ियांवाली हवाम,और वृक्षोंको ऋपित करनेवाली मूसलाधार बारिशम भी, व विचलिन नहीं हुए थे; पर्वतकी तरह स्थिर रहे थे। पर्वनोंक शिल्लरोको फैया देनेवाली भयंकर आवाज साथ निरनी थी, ना मी व कायोत्सर्गन यानी ध्यानसे विचलित नहीं होन थे। जंगलको वापिकाकी सीढ़ियां पर जैसे काई जम जाती है पसेही, उनके पैरोंपर वहन हुए पानीमें काई जम गई थी। सरदीक मौसममें, नदीका पानी जम गया था, इससे वह नहीं मनुध्यांका नाश करनेवाली हो उठी थी मगर ध्यानल्या अग्नि कर्मन्पी ईवनको जलानेकी कोशिश करते हुए बाहुवली वहाँ अागमस न्नड़े थे। बरफले वृक्षाको जलानबाली हमन ऋतुओंकी गतान भी, बाहुबलीका धर्मध्यान, Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४३१ कुंद (कनेर) के फूलों की तरह बढ़ता था। बनैले भैंसे बड़े पेड़के तनेकी तरह, उनके ध्यानमग्न शरीरपर टक्कर मारते थे और इससे शरीरको घिसकर अपनी खुजली मिटाते थे। बाधिनें,उनके शरीरको पर्वतकी तलहटीका निचला भाग समझकर, उसके सहारे सुखसे रातें बिताती थीं । वनके हाथी, सल्लकी (चीड़) वृक्षोंकी डालोंकी भ्रांतिसे उन महात्माके हाथ-पैर खींचते थे मगर वे खिंचते नहीं थे। इससे हाथी वैलक्ष्य (लजित) होकर चले जाते थे। चमरी गाएँ निर्भय होकर वहाँ आती थीं और ऊँचा मुँह कर, करवतके समान अपनी काँटोंदार भयंकर जीभों से उन महात्माके शरीरको चाटती थीं। उनके शरीरपर सैकड़ों शाखाओंवाली लताएँ इस तरह लिपट रही थीं, जिस तरह मृदंग पर चमड़े के पट्टे लिपटे रहते हैं। उनके शरीरपर चारों तरफ सरकंडे के तंब (पौधे ) उगे हुए थे, वे ऐसे शोभते थे मानों पूर्वस्नेहके कारण आए हुए बाणोंवाले भाथे हों। वर्षाऋतुके कीचड़ में डूबे हुए उनके चरणोंको वेधकर चलती हुई, सौ पैरोंवाली साभकी शूलें उग आई थीं। बेलोंसे भरे हुए उनके शरीरमें वाजों और चिड़ियोंने, अविरोध भावसे, घोंसले बनाए थे। उनके मोरोंकी आवाजोंसे घबराए हुए हजारों मोर वेलोंसे गहन बने हुए उन महात्माके शरीरपर चढ़ रहे थे। शरीरपर चढ़कर लटकते हुए सो से महात्मा बाहुवली हजार हाथोंवाले मालूम होते थे। उनके चरणोंपर बनी हुई वांवियोंसे निकलकर पैरोंमें लिपटे हुए सर्प कड़ोंसे मालूग होते थे। (७५७-७७७ ) .. इस तरह ध्यानमें लीन बाहुबलीको आहारके बिना, एक बरस तक विहार करनेवाले भगवान ऋषभदेवकी तरह, एक Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. 1 त्रिषष्टि शनाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग, बरस बीत गया। नव वर्ष पुरा हुश्रा नब विधवत्सल ऋषम. स्वामीन ब्राझी और मुंदरीको बुलाकर कहा, "इस समय बाह्रवती अपने बहुत कमाको पाकर शुक्लपकी चौदसक्री तरह अंधकाररहित हुए हैं, परंतु परदे पीछे रग्बाहुआ पदार्थ जैसे दिन्लाई नहीं देना सही मोहनीय क्रर्मक ग्रंशप मानसं उसको कंवलदान नहीं हो रहा है। अब तुम दोनोंक वचन मुनकर वह अपना मान छोड़ दंगा, इमलिए तुम उपदेश देने के लिए उसके पास जाओ 1 उपदेश देनश्च यह योन्य समय है।" (७ - २) प्रमुकी उस श्रानाको सरपर चढ़ा, उनके चरणोंम नमस्कार कर ब्राझी और मुंदरी बाहुवीके पास जानेको खाना हुई। महाप्रभु ऋषभदेवजी पहनही बाहुवतीक मानको जानते थे, दो भी एक परम नक उन्होंने उसकी उपेक्षा की थी । कारण "अमृहलक्ष्या अतः समये युपदेशकाः ॥" [श्रन अमृद ( स्थिर.) लक्ष्यवान होते हैं, इसलिए वे समय पर ही अदश इत है। ] (७३-७-2) श्राचा वासी और सुंदरी उन दशमें गई: मगर धूलिसे दुक हुए स्नत्री नरट्ट अनेक लजायोंमें वष्टिन ( लपेटे हुए) महामुनि उनको दिन्वाई नहीं दिए। बहुत इंढ-योन बाद श्राबाओंन तक समान बने हुए उन महात्माको किसी तरह पहचाना। बहुत ऋतुगमाय उनको अच्छी तरह जानकर दानों पायात्रान महामुनि बाहयतीको नीन प्रदक्षिणा देवंदना की और इस तरह कहा, हष्ट पार्य! अपने पिता भगवान नयमनन हमारे द्वारा श्रापको कहलाया.कि Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत बाहुवलीका वृत्तांत [ ४३३ - "हस्तिस्कंधाडिरूढानामुत्येत न केवलम् ।" [हाथीपर सवार पुरुषोंको केवलज्ञान कभी नहीं होता।] (७८५-७८८) इतना कहकर दोनों भगवतियाँ जैसे आई थीं वैसेही चली गईं। इस वचनसे महात्मा बाहुवलीके मनमें अचरज हुआ और वे इस तरह सोचने लगे, "मैंने सभी सावद्ययोगोंका त्याग किया है। मैं वृक्षकी तरह कायोत्सर्ग करके वनमें खड़ा हूँ। फिर मेरे लिएं हाथीकी सवारी कैसी ? ये दोनों आर्याएँ भगवानकी शिष्याएँ हैं। ये कभी झूठ नहीं बोल सकती,तब इसका मतलब क्या है ? अरे हाँ, अब बहुत दिनों के बाद मेरी समझमें आया है कि मैं सोचता रहा हूँ कि जो व्रतमें बड़े होते हुए भी उम्रमें मुझसे छोटे हैं मैं उनको नमस्कार कैसे करूँ ? यह मेरा अभिमान है; यहीहाथी है। इसीपर मैं निर्भय होकर सवार हूँ। मैंने तीन लोकके स्वामीकी चिरकालतक सेवा की; तो भी मुझे विवेकज्ञान इसी तरह नहीं हुआ जिस तरह पानीमें रहनेवाले कर्कट ( केकड़े ) को तैरना नहीं आता है। और इसीलिए मुझसे पहले व्रत ग्रहण करनेवाले महात्मा भाइयोंको 'ये छोटे हैं सोचकर' वंदना करनेकी इच्छा नहीं हुई। अब मैं इसी समय जाकर उन महामुनियोंको वंदना करूँगा । (७८६-७६५) इतना सोचकर उन महासत्व (महाशक्तिशाली ) बाहुबलीने अपना कदम उठाया; उस समय उनके शरीरसे जैसे लताएँ टूटने लगीं ऐसेही उनके घातिकर्म भी नाश होने लगे और उसी समय उनको केवलज्ञान हो गया। हुआ है केवल Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. - दर्शन और कंवलज्ञान जिनको गम सौम्य दर्शनवाल महात्मा बावली चद्र जैसे मूरजकं पान जाना है सही, ऋषभम्बामी. के पास गए । नार्थंकरको प्रदक्षिणा दे और नीर्थको नमस्कार. कर, जगत्पूज्य बाहुबली मुनि प्रतिनाको तर कर केंवलियोंकी पपदामें जा बैठे। ( ७६-७८ ) आचार्य श्री हमचंद्रविरचित, त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरित्र महाकाव्यक प्रथम पर्वका, बाहुबलीसंग्राम, दीक्षा-केवलज्ञान कीर्तन नामका पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था छहा भगवान ऋपभनाथका वृत्तांत त्रिदंडी ( परिव्राजक ) साधुओंकी उत्पति भगवान ऋपभदेवका शिष्य अपने नामकी तरह ग्यारहअंगोंका पढ़नेवाला, साधुओंके गुणोंसे युक्त और हस्तिपतिके साथ जैसे कलम (हाथीका बच्चा) रहता है वैसे निरंतर स्वामीके साथ विचरण करनेवाला भरत-पुत्र मरीचि गरमीके मौसममें स्वामीके साथ विहार करता था। एक दिन दुपहरका समय था, चारों तरफ मार्गकी रज सूर्यकी किरणोंसे ऐसी गरम हो रही थी, मानो लोहारोंने धोकनीसे धोककर उसे गरम किया हो, मानो अदृश्य अग्निकी ज्वाला हो,ऐसे बहुत गरम ववंडरसे मार्ग कीलित हो गए थे ( रुक गए थे), उस समय अग्निसे तपे हुए जरा गीले ईंधनकी तरह उसका शरीर सरसे पैरतक पसीनेकी धाराओंसे भर गया था। जलसे छींटे हुए सूखे चमड़ेकी गंधकी तर पसीनेसे भीगे हुए वस्त्रों के कारण उसके शरीरके मलसे दुःसह दुगंध आ रही थी। उसके पैर जल रहे थे, इससे उसकी स्थिति तपे हुए भागमें स्थित नकुलके जैसी मालूम होती थी और गरमीके कारण वह प्यासके मारे घबरा रहा था। उस समय मरीचि व्याकुल होकर सोचने लगा, (७) ____ "अहो ! केवलज्ञान और केवलदर्शनरूपी सूर्य और चंद्रके द्वारा मेरुपर्वतके समान और तीन लोकके गुरु ऋपभ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६] त्रिष्टि शलाका पुन्प-चरित्रः पर्व १ सर्ग इ. त्रामीका मैं पीत्र है और अखंड, छःखंड सहित पृथ्वीमंडलक इंद्र और विवेक अद्वितीय निधिल्प भरत गजाका मैं पुत्र हूँ। चतुर्विध संघ सामने अपमात्रामीके पासस पंच महावतांक ञ्चारणपूर्वक मैंन दीक्षा ली है। इसलिए लैंस लड़ाई मेसे भाग जाना वीर पुरुष के लिए उचित नहीं है बैंसही इस स्थानसे हटकर घर जाना भी उचित नहीं है, लनान्सद है। परंतु बड़े पर्वतकी तरह भारी कठिननास उठान लायक इम चारित्ररूपी भारको एक पलक लिए भी उठाने में असमर्थ हूँ। मेरे लिए व्रत पालना कठिन है और उसे छोड़कर घर जानले कुल मलिन होगा, इसमें एक तरफ नदी और दूसरी तरफ सिंह इस न्याय. में मैं श्रा पड़ा मगर न मालूम हुआ है कि,पर्वतपर चढ़ने के लिए नैस पगडंडी होती है वैदही, इन ऋठिन मार्गमें भी एक भुगम माग है। (८-१2) मात्रु मनदंड, बचनड और कायदंडको जीतनेवाले हैं और मैं तो इनसे जीना गया है, इसलिए में त्रिदंडी बनूंगा। थे श्रमण इंद्रियों को जीतकर और केशांकालोच कर मुंडित होकर रहते हैं। मैं मुंडन ऋगऊँगा और शिया रगा। ये स्थूल और मुन्न दोनों तरह प्राणियोंक वयस विरक्त हुए हैं और में कंवल स्थूल प्राणियोंकि वयस विरत हूँगा। य अकिंचन रद्द हैं और में स्वर्गमुद्रादिक वगा। इन्होंने उपानहका (तांका) त्याग किंया है और में उखानह धारण कगा। ये अठारह हजार शानक अंगोंको धारनेले अति सुगंधवान हैं; मैं उनमें रहित होनसे दुगंधणं है, इसलिए चंदन आदि ग्रहण काँगा! ग्रं अगगा मोहनहिन हैं और मैं मोहसे घिरा हुआ है। हम चिह Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [४३७ स्वरूप छत्र मस्तकपर धारण करूँगा। ये कषाय रहित होनेसे (क्रोध, मान, माया, लोभसे रहित होनेसे) सफेद कपड़े पहनते है और मैं कषायसे कलुषित हूँ; उसकी स्मृतिके लिए काषाय (गेरुआ) वस्त्र धारण करूँगा। इन मुनियोंने पापसे डरकर बहुत जीवोंवाले सचित्त जलका त्याग किया है, पर मेरे लिए तो परिमित जलसे स्नान और पान होगा।” (१४-२२) ___ इस तरह अपनी बुद्धिसे अपने वेषकी कल्पना कर मरीचि ऋषभस्वामीके साथ विहार करने लगा। खच्चर जैसे घोड़ा या गधा नहीं कहलाता मगर दोनोंके अंशोंसे उत्पन्न होता है वैसेही मरीचि भी न मुनि था न गृहस्थ, वह दोनोंके अंशवाला नवीन वेषधारी हुआ । हंसोंमें कौएकी तरह, साधुओंमें विकृत साधुको देख बहुतसे लोग कौतुकसे उससे धर्म पूछते थे। उसके उत्तरमें वह मूल और उत्तरगुणोंवाले साधु-धर्मकाही उपदेश देता था ! अगर कोई पूछता कि तुम इसके अनुसार क्यों नहीं चलते हो, तो वह उत्तर देता था कि मैं असमर्थ हूँ। इस तरह उपदेश देनेसे अगर कोई भव्यजीव दीक्षा लेनेकी इच्छा करता था तो वह उसे प्रभुके पास भेज देता था और उससे प्रतिबोध पाकर आनेवाले भव्य प्राणियोंको, निष्कारण उपकार करनेवाले बंधुके समान, भगवान खुद दीक्षा देते थे। (२३-२८) इस तरह प्रभु के साथ विहार करते हुए मरीचिके शरीर में, एक दिन, लकड़ीमें जैसे घुन लगता है ऐसे, बहुत बड़ा रोग उत्पन्न हुआ। यूथभ्रष्ट कपिकी तरह व्रतभ्रष्ट मरीचिका उनके साथके साधुओंने प्रतिपालन नहीं किया। गन्नेका खेत जैसे विना रक्षकके शूकरादि पशुओं द्वारा अधिक खराव किया जाता है Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग इ. बैंसही इलाज के बिना मरीचि लिए यह रोग अधिक दुःखदायी हुया। बड़े जंगल में नहायताहीन पुस्पकी तरह घोर रोगमें पड़ा हुआ मरीचि अपने मनमें विचार करने लगा, "अहो ! मेरे इस भवमही किसी अशुभकर्मका उदय हुआ है, इसलिए, अपने साधु भी पराएकी तरह मरी पंक्षा करते हैं, परंतु उल्लू जैसे दिनमें नहीं देख सकना, इलमें प्रकाश करनेवाले सूर्यका कोई दोष नहीं है वैसेंही, मर चार में भी, अनातिका आचरण करनवान्त इन लाधुग्रांका कुछ भी दोय नहीं है। कारण, जैस उत्तम कुलवाल मलेच्छकी संवा नहीं करने ऐसही, पापक्रमांक त्यानी साधु: मुन्न पापकर्म करनेवालकी लेवा कैसे करेंगे ? और उनसे सेवा कराना भी मेरे लिए योग्य नहीं है। कारण, व्रतमंग करनेसे मुझे जो पाप लगा है, उनस सेवा करनेसे उसमें वृद्धिही होगी। नुम अपने इलाके लिए किसी अपने समान मंद धर्मवान्त पुन्यकीही नलाश करनी चाहिए, कारण कि मृग साय मृगहीका मत हालकना है। इस तरह विचार करता ह्रश्रा कुछ समय बाद मरीचि रोगमुक्त हुआ। कहा है, कालादनूपरन्त्रं हि वजत्यूपरभृरपि । [असर जमीन भी किसी ममय यापही उपजाऊहो जाती है। ] (२-३८) एक समय प्रमुपमन्त्रामी, विधका उपकार करने में वपा. शतक मयसमान, देशना दहथे। वहाँ कपिल नामका काई दूर-मन्य राजकुमार पाया और उसने धम चुना। उस भगवानका बताया हुया धर्म इसी तरह अच्छा नहीं लगा जिस तरह चक्रवाकको चाँदनी, मलको दिन,माग्यहीन रोगीको दवा,बातराग Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४३६ वालेको शीतल पदार्थ और बकरेको बादल अच्छे नहीं लगते हैं। दूसरी तरहका धर्म सुननेकी इच्छासे कपिलने इधर-उधर देखा । उसे स्वामीके शिष्यों में अनोखे वेषवाला मरीचि दिखाई दिया। वस्तु खरीद करनेकी इच्छा रखनेवाला बालक जैसे बड़ी दुकानसे छोटी दुकानपर जाता है ऐसेही, दूसरा धर्म सुननेकी इच्छा रखनेवाला कपिल स्वामीके पाससे उठकर मरीचिके पास गया। उसने मरीचिसे धर्मका मार्ग पूछा। मरीचिने जवाब दिया, "मेरे पास धर्म नहीं है। यदि धर्म चाहते हो तो स्वामीकाही आश्रय ग्रहण करो।" मरीचिकी बात सुनकर कपिल वापिस प्रभुके पास आया और पहिलेकी तरहही धर्मोपदेश सुनने लगा। उसके जानेके बाद मरीचिने विचार किया, "अहो ! स्वकर्मदूषित. इस पुरुषको स्वामीका धर्म अच्छा नहीं लगा। गरीब चातकको संपूर्ण सरोवरसे भी क्या लाभ ? (३६-४७) थोड़ी देरके बाद कपिल पुनः मरीचिके पास आया और बोला, "क्या तुम्हारे पास जैसा-तैसा धर्म भी नहीं है ? अगर धर्म न हो तो व्रत कैसे हो सकता है ?" मरीचिने सोचा, “देवयोगसे यह भी मेरेही समान मालूम होता है ! बहुत कालके बाद समान विचारवालोंका मेल हुआ है। इसलिए मुझ असहायका यह सहायक हो।" फिर वह बोला, “ वहाँ भी धर्म है और यहाँ भी धर्म है।" उसने अपने इस एक दुर्भापणसे ( उत्सूत्र भाषणसे ) कोट्यानुकोटि सागरोपम प्रमाणका उत्कट संसार बढ़ाया। फिर उसने कपिलको दीक्षा देकर अपना सहायक बनाया। तभीसे परित्राजकपनका पाखंड शुरू हुआ। (४८-५२) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४०] त्रिषष्टि शलाका घुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६ विश्वोपकारी भगवान ऋषभदेवज ग्राम, आकर,पुर, द्रोणमुख, खर्वट, पत्तन मंडप, याश्रम और खेट आदिसे भरी हुई भूमिपर विहार करते थे। तीर्थकरोंके कुछ अतिशय विहारके समयमें (१) अपनी चारों दिशाओं में सवासी योजन तक लोगोंकी व्याधियोंको मिटाकर, वर्षाऋतुके मेधकी तरह जगतके जीवोंको शांति देते थे; (6) राजा जैसे अनीति मिटाकर प्रजाको सुग्व देता है ऐसेही पतंग (टिट्टी), चूहे और शुक वगैरा उपद्रव करनेवाले प्राणियोंकी प्रवृत्तिको रोककर सबकी रक्षा करते थे; (३) सूर्य जैसे अंधकारका नाश कर प्राणियोंको मुख पहुँचाता है ऐसेही वे प्राणियोंकि किसी कारणवश जन्मे हुए अथवा शाश्वत बैरको मिटाकर सबको प्रसन्न करते थे; (४) पहले जैसे सबको सुख पहुँचानेवाली व्यवहार प्रवृत्तिसे लोगोंको आनंदित किया था वैसेही अव विहारकी प्रवृत्तिसे सबको आनंदित करते थे; (५) दवासे जैसे अजीर्ण या अति क्षुधा मिटती है ऐसेही वे अतिवृष्टि और अनावृष्टिके उपद्रयों को मिटाते थे; (६) अंतःशल्य (हृदयकी शूल ) की तरह इनके पानेसे स्त्रचक्र और परचक्रका डर तत्कालही दूर होता था, इससे मुखी लोग बड़े उत्साहके साथ इनका स्वागतोत्सव करते थे; और (७) मांत्रिक पुरुष जैसे भूतों और राक्षसोंसे रक्षा करते हैं ऐसेही वे संहारकारक घोर दुर्भिक्षसे सबकी रक्षा करते थे। ऐसे उपकारोंसे सभी लोग इन महात्माकी स्तुति करते थे। (८) अंदर न समा सकनेसे बाहर आई हुई अनंत ज्योति हो ऐसा और सूर्यमंडलको जीतनेवाला भामंडल उन्होंने धारण Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४४१ किया था। (8) आगे चलते हुए चक्रसे जैसे चक्रवर्ती शोभता है वैसेही आकाशमें उनके आगे चलते हुए धर्मचक्रसे वे शोभते थे। (१०) सब कर्मोंको जीतनेसे ऊँचे जयस्तंभके जैसा छोटीछोटी हजारों ध्वजाओंवाला एक धर्मध्वज उनके आगे चलता था। (११) मानो उनका प्रयाणोचित कल्याण मंगल करता हो ऐसा अपने आपही महान शब्द करता हुआ दिव्य दुदुभि उनके आगे बजता था; (१२) वे मानों अपना यश हो ऐसे, आकाशमें स्थित, पादपीठ सहित स्फटिक रत्नके सिंहासनसे शोभते थे (१३) देवताओंके बिछाए हुए सोनेके कमलोपर राजहंसकी तरह वे लीलासे चरण-न्यास करते थे ( कदम रखते थे); (१४) उनके भयसे मानों रसातलमें घुस जाना चाहते हों ऐसे, नीचे मुखवाले तीक्ष्ण दंडरूप काँटोंसे उनका परिवार (साधु-साध्वियाँ) आश्लिष्ट नहीं होता था। (यानी साधु-साध्वियोंको काँटे नहीं चुभते थे।); (१५) छहों ऋतुएँ एकही समयमें उनकी उपासना करती थीं, मानों उन्होंने कामदेवको सहायता देनेका जो पाप किया था उसका वे प्रायश्चित्त करती हैं; (१६) मार्गके चारों तरफसे नीचे झुकते हुए वृक्ष, यद्यपि वे संज्ञारहित हैं तथापि, ऐसे जान पड़ते थे मानों वे प्रभुको नमस्कार करते हैं; (१७) पंखेके पवनकी तरह मृदु, शीतल और अनुकूल पवन उनकी सेवा निरंतर करता था; (१८) स्वामीके प्रतिकूल चलने वालोंका कल्याण नहीं होता है, यह सोचकर पक्षी नीचे उतर उनकी प्रदक्षिणा दे दाहिनी तरफसे जाते थे; (१९) चपलतरंगोंसे जैसे सागर शोभता है वैसे, आने जानेवाले जघन्यसे (कमसे कम) करोड़ जितनी संख्यावाले सुरों और असुरोंसे वे शोभते थे; Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. (२०) भक्तिवश हो दिन में भी प्रभा सहित चंद्रमा स्थित हो ऐसे आकाशमें रहे हुए छत्रमे वे शामन थे; (२१) और मानो चंद्रके जुदा किए हुए सर्वत्व किरणोंक कोश हों ऐसे, गंगाकी नरंगोंके समान सफेद चामर उनपर दुलत थे। (२२) तपसे प्रदीप्त और मौन्य लाखों उत्तम माधुओंसे प्रमुएसे शोमते थे जैसे तारोंसे चंद्रमाशोमता है; (२३) जैसे सूरजहरक सागर और सरोवरके कैवलोको प्रबोध (प्रकुलित ) करता है एसेही महात्मा हरेक गाँव और शहरके भव्य जनाको प्रतिबोध (उपदेश) देते थे।' भगवानका अष्टापद पर्वतपर पहुँचना ___इस तरह विचरण करते हुए भगवान ऋषभदेव एक बार अष्टापद पवंतपर पहुँचे । (५३-७७ ) । ___ वह पर्वन एला मान्नुम होता था, मानो अत्यंत सफेदीके कारण शरदचनुक बावलांका एक जगहपर लगा हुआ ढेर हो; या क्षीरसमुद्रकी जमकर, बरफ बनी हुइ तरंग-राशिका लाकर रखा हुया ढेर हो अथवा प्रमुके जन्माभिषकके समय इंडके १-तीयकर जिन स्थानपर होते है (१) उसके चारों तरफ नवा मी चाहनातक गंग नहीं हांत: प्रागियोंकि यामी वरका नाश होता है; (बान्यादि न्यानकी त्री नाग करनेवाले नंतु नहीं होत; (४) मग कांग गंग नहीं होत; ( अनिवृधि नहीं होती; (६) अनावृष्टि नहीं होनी; (७) दुकान नहीं बना; (5) न्यचक्र या परचतका भय नहीं रहता; और (B) प्रक्रीछ, मानंडल रहता है। ये प्रभुका फेयनशान होने बाद मान्न होनेवाले. अतिशयोमके, देवकृत एनिमय है। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४४३ - - वैक्रिय किए हुए (बनाए हुए ) चार वृषभों (बैलों ) मेंका ऊँचे शृंगवाला एक वृषभ हो और वह पर्वत ऐसा शोभता था मानो नंदीश्वर द्वीपकी बावड़ियोंमें स्थित दधिमुख पर्वतोंमेंका आया हुआ एक पर्वत हो; जंबूद्वीपरूपी कमलकी एक नाल हो; या पृथ्वीका श्वेत रत्नमय मुकुट हो। वह निर्मल तथा प्रकाशवाला था, इससे ऐसा जान पड़ता था कि मानों देवता उसे हमेशा स्नान कराते हों और वस्त्रोंसे उसे पोंछते हों। वायुके द्वारा उड़ाए गए कमलकी रेणुसे उसके निर्मल स्फटिक मणिके तटको स्त्रियों नदीके जलके समान देखती थीं। उसके शिखरोंके अग्रभागपर विश्राम लेनेकेलिए बैठी हुई विद्याधरोंकी स्त्रियोंको वह वैताव्य और क्षुद्र हिमालय पर्वतका स्मरण कराता था। ऐसा जान पड़ता था मानों वह स्वर्गभूमिका दर्पण हो; दिशाओंका अतुल हास्य हो या ग्रह-नक्षत्रोंको निर्माण करनेकी मिट्टीका अक्षय स्थल हो । उसके शिखरोंके मध्यभागमें क्रीडासे थके हुए मृग बैठे थे, उनसे वह अनेक मृगलांछनों (चंद्रों.) का भ्रम पैदा करता था। निर्भरणोंकी पंक्तियोंसे ऐसा शोभता था मानों वह निर्मल अर्द्ध वनको छोड़ देता हो या मानों सूर्यकांत मणियोंकी फैलती हुई किरणोंसे ऊँची पताकाओंवाला हो। उसके ऊँचे शिखरके अगले भागमें सूर्यका संक्रमण होता था, इससे वह सिद्ध लोगोंकी मुग्ध स्त्रियोंको उदयाचलका भ्रम कराता था। मानो मयूरपंखोंसे बनाए हुए बड़े छत्र हों ऐसे अति आर्द्रपत्रों ( हरे पत्तों ) वाले वृक्षोंसे उसपर निरंतर छाया रहती थी। खेचरोंकी स्त्रियों कौतुकसे मृगोंके बच्चोंका लालन-पालन Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 ] त्रिषष्टि शन्ताका पुरुष-चरित्रः पर्व १. मर्ग ६. करती थीं. उससे हरिगियोंक मारनं हा दधले उसका साग लतावन सिंचित होता था। शन्नोंक पत्नोंक प्राध बन्नोंवाली शवरियोंका नाच देखने के लिए यहाँ नगरकी वियों नेत्रांकी अंगी करके रहती थी (अथात एक टक नाच देखती थीं। रनिस थकी हुई मर्पिणियाँ वहाँ बनका मंद मंद पवन पीती थीं। उस लतावनको पवनपी नट कीड़ा नचाता था। किनकी त्रियाँ रनिक धारभन्ने उसकी गुमायाको मंदिरम्प बनानी श्री श्रीरश्रमगयों स्नान करने समयकी कल्लोलास सरोवरका जल नरंगित हो रहा था। यन्न कहीं चोपड़-पासा खेल रहे थे: कहीं पानगोष्टी कर रहे थे (शराब पी रह थे ?) और कहीं बाजी चल रहे थे। इससे उसका मञ्चमान कोलाहलपूर्ण हो रहा था। उस पर्वतयर किसी जगह किनकी त्रियाँ, किसी जगह भीलोंकी त्रियों और किसी जगह विद्याधरांची त्रियाँ क्रीडा गीत गा रही थीं। किसी जगह पर पकी हुई दान्त्रीके फल लाकर उन्मत्त बन गुण शुक्र पक्षी ऋतरब करते थे, किसी स्यानपर. श्रामों अंकुर खाकर, उन्मत्त बनी हुई कोचिलाएँ पंचम स्वरमें अन्नाप नही श्री; किसी स्थानपर कमलतंतुयांक स्वादसे मन्न बने हुए हंस मधुर शब्दकर रह थ; किसी सरिताके नटपर मदमन बन हुए क्रांत्र पक्षी कार शन्द कर रहे थे। किमी नगढ़ पर निकटमें रह हुए भव उन्मत्त होकर मार कारख कर रहे थे और किसी जगह अगेवर फिरत हुए भारस पक्षियों शब्द सुनाई देतः इनसे बह गिरि मनोहर मालूम होना था। यह पर्वत किसी जगह लात अशोक वृक्षक पनाल माना कवी बन्नवाला हो एमाः किसी जगह नमान्त, Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४४५ ताल और हिंतालके वृक्षोंसे मानो श्याम वनवाला हो ऐसा; किसी जगह सुंदर पुष्पवाले ढाकके वृक्षोंसे मानो पीले वस्त्रवाला हो ऐसा और किसी जगह मालती और मल्लिकाके समूहसे मानो श्वेत वस्त्रवाला हो ऐसा मालूम होता था। उसकी ऊँचाई पाठ योजन होनेसे वह आकाश तक ऊँचा मालूम होता था। ऐसे उस अष्टापद पर्वतपर, गिरिके समान गरिष्ठ (सबसे सम्मानित ) जगतगुरु आरूढ़ हुए। पवनसे गिरते हुए फूलों और निर्भरणों के जलसे ऐसा मालूम होता था कि पर्वत प्रभुको अर्घ्यपाद दे रहा है। प्रभुके चरणोंसे पवित्र बना हुआ वह पर्वत, प्रभुके जन्मस्नात्रसे पवित्र बने हुए मेरसे अपनेको न्यून न मानता था। हर्षित कोकिलादिकके शब्दोंके बहाने मानो वह पर्वत जगतपतिके गुण गा रहा हो ऐसा मालूम होता था। (७८-१०४) __ झाडू लगानेवाले सेवकोंकी तरह वायुकुमार देवोंने उस पर्वतपर एक योजन भूमिके तृण-काष्ठादि दूर किए । मेघकुमार देवोंने पानी लेजानेवाले भैंसोंके समान बादल बनाकर सुगंधित जलसे उस जमीनपर छिड़काव किया। फिर देवताओंने बड़ी बड़ी स्वर्णरत्नोंकी शिलाओंसे, उस जमीनको जड़कर दर्पणतलके समान समतल बना दिया। व्यंतर देवोंने उस जमीनपर इंद्रधनुषके खंडके समान पाँच वर्णके फूल इतने बरसाए कि उनमें घुटनोंतक पैर धंस जाएँ; जमना नदीकी तरंगोंकी शोभाको धारण करनेवाले वृक्षोंके आईपत्रोंके चारों दिशाओं में तोरण बाँधे; चारों तरफ स्तंभोंपर बाँधे हुए मकराकृति तोरण सिंधुके दोनों किनारे रहे हुए मगरोंकी शोभाको धारण करते थे। उस Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. के बीचमें मानों चारों दिशाओंकी देवियों के रूपके दर्पण हों ऐसे चार छत्र थे और आकाशगंगाकी चपल तरंगोंकी भ्रांति उत्पन्न करनेवाली, पवनके द्वारा फर्राई हुई ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही थीं। उन तोरणों के नीचे बनाए हुए मोतियोंके स्वस्तिक 'सब जगतका यहाँ कल्याण है। ऐसी चित्रलिपिका भ्रम पैदा करते थे। वैमानिक देवताओंने बाँधे हुए भूमितलपर रत्नाकरकी शोभाके सर्वस्त्र समान, रत्नमय गढ़ बनाया और उस गढ़पर मानुषोत्तर पर्वतकी सीमापर स्थित चाँद सूरजकी किरणोंकी माला जैसी माणिक्यके कंगूरोंकी मालाएं बनाईं। फिर ज्योतिष देवोंने, वलयाकार (परिधिवाला) बनाया हुआ हेमाद्रि पर्वतका शिखर हो ऐसा, निर्मल स्वर्णका मध्यम गढ़ बनाया; और उसपर रत्नमय कंगूरे बनाए। वे कंगूरे उनमें प्रतिबिंब पड़नेसे, चित्रवाले हों ऐसे मालूम होते थे। उसके बाद भुवनपतियोंने, कुंडलाकार बने हुए शेषनागके शरीरका भ्रम पैदा करनेवाला चाँदीकी अंतिम गढ़ बनाया और उसपर, क्षीरसागरके जलके किनारेपर रही हुई गरुड़ोंकी श्रेणी हो ऐसी, सोनेके कंगूरोंकी श्रेणी बनाई। फिर जैसे अयोध्या नगरीके गढ़में बनाए थे वैसेही, यक्षोंने हरेक गढ़में चार चार दरवाजे बनाए और उन दरवाजोंपर माणिक्योंके तोरण बाँधे; अपनी फैलती हुई किरणोंसे, वे तोरण सौगुने हों ऐसे मालूम होतेथे। व्यंतरोंने हरेक दरवाजेपर आँख की रेखामें रही हुई काजलकी रेखाकी तरह मालूम होती धूएँरूपी ऊर्मियोंको धारण करनेवाली, धूपदानियाँ रखी थीं। विचले गढ़की ईशान दिशामें, घरमें देवालयके जैसा, प्रभुके विश्राम करने के लिए एक देवछंद बनाया। व्यंतरोने, जहाजके Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४४७ - बीचमें जैसे कूपक (मस्तूल) होता है ऐसा, समवसरणके बीच में तीन कोस ऊँचा चैत्यवृक्ष बनाया । उस चैत्यवृक्षके नीचे अपनी किरणोंसे मानो वृक्षको मूलसेही पल्लवित करती हो ऐसी, एक रत्नोंकी पीठ बनाई और उस पीठपर चैत्यवृक्षकी शाखाओंके अंतके पत्तोंसे बार बार साफ होता हो ऐसा,एक रत्नछंद बनाया। उसके वीचमें पूर्वकी तरफ विकसित कमलकोशके मध्यमें, कर्णिका (करनफूल) के जैसा, पादपीठ सहित एक रत्नसिंहासन बनाया और उसपर, मानो गंगाकी श्रावृत्ति किए हुए तीन प्रवाह हों ऐसे, तीन छत्र बनाए । इस तरह, मानो वह पहलेहीसे कहीं तैयार रखा हो और उसे वहाँसे उठाकर यहाँ लाकर रख दिया हो ऐसे, क्षणभरमें देव और असुगेने मिलकर वहाँ समवसरण की रचना की। (१०५-१२६) जगतपतिने, भव्यजनोंके हृदयकी तरह मोक्षद्वार रूप उस समवसरणमें पूर्वद्वारसे प्रवेश किया। तत्काल जिसकी शाखाओंके प्रांतपल्लव (अंतिम पत्तें) उसके आभूपणरूप होते थे ऐसे, अशोक वृक्षकी उन्होंने प्रदक्षिणा दी। फिर प्रभु पूर्व दिशाकी तरफ आ, 'नमस्तीर्थाय' कह, राजहंस जैसे कमलपर बैठता है ऐसेही, सिंहासनपर विराजमान हुए। व्यंतर देवोंने तत्कालही, शेप तीन दिशाओंके सिंहासनोंपर भगवानके तीन रूप बनाए। फिर साधु,साध्वी और वैमानिकदेवोंकी स्त्रियोंने पूर्वद्वारसे प्रवेश कर भक्ति सहित जिनेश्वर और तीर्थको नमस्कार किया। प्रथम गढ़में, प्रथम धर्मरूपी उद्यानके वृक्षरूपी साधु पूर्व और दक्षिण दिशाके मध्यमें बैठे । उनकी पिछली तरफ वैमानिक देवताओंकी स्त्रियाँ खड़ी रही और उनके पीछे उसी तरह साध्वियोंका Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग. समूह बड़ा रहा। भुवनपनि, ज्योतिषी और व्यंतरोंकी बियाँ दक्षिण द्वारसे प्रवेश कर, पूर्व विधिकं अनुसार प्रदक्षिणा और नमस्कार कर, नैऋत्य दिशा में बैठी और तीनों जातियोंके देव, पश्चिम द्वारसे प्रवेश कर, उसी तरह नमस्कार कर, अनुक्रमसे वायव्य दिशा में बैठे। इसतरह प्रभुको समवसरणमें विराजमान हुए जान, अपने विमानों के समूहसे श्राफाशको ढकता हुआ इंद्र शीवही वहाँ आया और उसने उत्तर द्वारसे समवसरगामें प्रवेश किया। भक्विान इंद्रस्वामीको तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर इस नरह स्तुति करने लगा,-(१३०-१४०) ह भगवान ! जब आप गुणांको सब नरहसे जानने में उत्तम योगी भी असमर्थ है, नब श्राप न्तुति करने लायक गुण कहाँ और निन्य प्रमादी स्तुनि करनेवाला मैं कहाँ ? तो मी हे नाथ ! मैं यथाशक्ति आप गुणांका लबन कन्गा क्या लँगड़े मनुष्यको मार्गपर चलनेसे कोई रोकता है ? हे प्रभो! इस समारपी गरमास पवगण हुप प्राणियोंके लिए आपके चरणोंकी छाया जैसे छत्रकी छायाका काम करती है, वैसही आप हमारी भी रक्षा कीजिए। ई नाय ! सुरजनेस परोपकारके लिए उगना है वैसही, श्राप लोक-कल्याण लिएडी विहार करते हैं। श्राप धन्य है ! कृतार्थ है ! मन्याहक सूर्यसे जैसे देहकी छाया संकुचित हो जाती है वैसही, श्राप उदय प्राणियाँ कर्म चारों तगमे नुऋड़ जाने हैं। वे पशु भी धन्य है जो सदा श्रापके दर्शन करते हैं ! और वे स्वर्गक देवता भी अधन्य है तो आपके दर्शन नहीं पाते हैं। हनीन लोक नाथ ! जिनके यरूपी योन श्राप अघिदवना विराजमान हैं, व मन्य Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४४६ - - जीव उत्कृष्टोंमें भी उत्कृष्ट हैं । मेरी आपसे एकही प्रार्थना है कि, गाँव गाँव और नगर नगर विहार करते हुए भी आप मेरे हृदय (सिंहासन) का कभी त्याग न करें।" ( १४१-१४८) इस तरह स्वर्गपति इंद्र प्रभुकी स्तुति कर, पंचांगसे भूमिस्पर्शके साथ प्रभुको प्रणाम कर पूर्व और उत्तर दिशाके मध्यमें बैठा । प्रभु अष्टापद पर्वतपर पधारे हैं, यह समाचार शैलरक्षक पुरुपोंने तत्कालही जाकर चक्रीको सुनाया; कारण वे लोग इसी कामके लिए वहाँ रखे गए थे। दाता चक्रीने भगवानके आनेकी. वधाई देनेवाले पुरुपोंको, साढ़े बारह कोटिका सोना दिया। ऐसे प्रसंगोंमें जो कुछ दिया जाता है वह कमही है। फिर महाराज सिंहासनसे उठे और उन्होंने सात-आठ कदम अष्टापदकी दिशाकी तरफ चलकर प्रभुके उद्देशसे प्रणाम किया। उसके बाद वे पुन: जाकर अपने सिंहासनपर बैठे। उन्होंने, प्रभुको वंदना करने जानेके लिए, अपने सैनिकोंको बुलाया । भरतकी आज्ञासे चारों तरफके राजा श्राकर, इस तरह अयोध्यामें जमा हुए जिस तरह समुद्रके किनारे तरंगें आती हैं। उच्च स्वरसे हाथी गर्जने और घोड़े हिनहिनाने लगे; ऐसा मालूम होता था कि वे अपने सवारोंसे जल्दी चलनेको कह रहे हैं। पुलकित अंगवाले रथी और पैदल लोग बड़े आनंदसे तत्कालही चलने लगे। कारण, भगवानके पास जाने में राजाकी आज्ञा उनके लिए सोने. में सुगंधके समान हो पड़ी थी। जैसे बाढ़का पानी बड़ी नदीमें भी नहीं समाता है ऐसेही, अयोध्या और अष्टापदके वीचमें वह सेना समाती न थी। आकाशमें, सफेद छत्र और मयूर छत्रके २६. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० । त्रिषष्टि शनाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. एक साथ होनेसे, गंगा जमुनाके संगमसी शोभा हो रही थी। सवारोंके हाथोंके भालोंकी चमकती किरणोंसे ऐसा जान पड़ता . . था मानो उन्होंने (भालोंने ) दूसरे भाले ऊँचे कर रखे हैं। हाथियोंके ऊपर सवार वीर कुंजर हर्षसे उच्च स्वरमें गर्जना कर रहे थे; ऐसा जान पड़ता था मानो हाथियोंपर दूसरे हाथी सवार हैं। सारे सैनिक जगतपतिको नमस्कार करनेके लिए भरतसे भी अधिक उत्सुक हो रहे थे। कारण, "असिकोशस्तदसितो नितांतं निशितोऽभवत्" तलवारका म्यान तलवारसे भी अधिक तीक्ष्ण होता है।] उन सबके कोलाहलने द्वारपालकी तरह, मध्यमें स्थित भरत राजासे निवेदन किया कि, सभी सैनिक जमा हो उए हैं। फिर मुनीश्वर जैसे राग-द्वेषको जीतकर मनको पवित्र बनाते हैं वैसेही, महाराजाने स्नान करके अंगको स्वच्छ किया और, प्रायश्चित्त तथा कौतुक-मंगल करके अपने चरित्रके समान, उजले वस्त्र पहने । मस्तकपर रहे हुए सफेद छत्रसे और दोनों तरफके श्वेत चामरोंसे सुशोभित महाराज अपने मंदिर (महल) के बाहरके चबूतरे पर गए और वहाँसे वे इस तरह हाथीपर सवार हुए जिस तरह सूर्य आकाशमें आता है। भेरी, शंख और आनक (ढोल विशेष) वगैरा उत्तम बाजोंकी ऊँची आवाजोंसे, फव्वारेके पानीकी तरह, आकाशको व्याप्त करते, मेघकी तरह हाथियों के मदजलसे दिशाओंको भरते, तरंगोंसे सागरकी तरह, तुरंगोंसे पृथ्वीको ढकते और कल्पवृक्षसे जुड़े हुए युगलियोंकी तरह हर्ष और शीघ्रतासे युक्त महाराज अपने अंत:पुर और परिवार सहित, थोड़ेही समयमें अष्टापद पर जा पहुंचे। (१४६-१६६) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४५१ संयम लेनेकी इच्छा रखनेवाला पुरुप जैसे गृहस्थ धर्मसे उतरकर ऊँचे चारित्रधर्मपर आरूढ़ होता है वैसेही, महाराजा भरत महागजसे उतरकर महागिरि पर चढ़े। उत्तर दिशाके द्वारसे उन्होंने समवसरणमें प्रवेश किया। वहाँ आनंदरूप अंकुरको उत्पन्न करनेमें मेघके समान प्रभु उनको दिखाई दिए। भरतने प्रभुको तीन प्रदक्षिणा दे, उनके चरणों में नमस्कार कर, मस्तकपर अंजली रख, इस तरह स्तुति की, "हे प्रभो ! मेरे जैसोंका तुम्हारी स्तुति करना मानो घड़ेसे समुद्रको पीनेका प्रयत्न करना है; तथापि मैं स्तुति करूँगा । कारण,-मैं भक्तिसे निरंकुश हो गया हूँ। हे प्रभो ! दीपके संपर्कसे जैसे वत्ती भी दीपकपनको प्राप्त होती है वैसेही, तुम्हारे आश्रित भविक जन भी तुम्हारेही समान हो जाते हैं। हे स्वामी! मदमत्त बने हुए इंद्रियरूपी हाथियोंको निर्मद वनानेमें औषधरूप और (भूलेभटकोंको) मार्ग बतानेवाला आपका शासन विजयी होता है। हे तीन भुवनके ईश्वर ! आप चार घाति कर्मों का नाश कर बाकीके चार कर्मोंकी उपेक्षा कर रहे हैं। इसका कारण मेरे खयालसे आपकी लोककल्याणकी भावनाही है । हे प्रभो ! जैसे गरुड़के पंखोंमें रहा हुआ पुरुप समुद्रका उल्लंघन करता है वैसेही आपके चरणोंमें लीन भव्यजन इस संसार-समुद्रको लाँघ जाते हैं। हे नाथ ! अनंतकल्याणरूपी वृक्षको प्रफुल्लित करने में दोहद रूप और विश्वको मोहरूपी महानिद्रासे जगानेवाले प्रातःकालके समान आपके दर्शनका (तत्त्वज्ञानका ) जयजयकार होता है। आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे प्राणियोंके कर्मोका नाश हो जाता है। कारण,-चाँदकी कोमल किरणोंसे भी हाथीके दाँत Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __१५२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. फूटने हैं। हे नाथ ! मेव-वृष्टिकी नरह और चंद्रकी चंद्रिकाके समान, श्रापकी कृपा सबपर एकसी रहती है।" (१७-१८०) इस तरह प्रमुकी नुनि कर, उनको नमस्कार कर भरखपनि सामानिक देवनाओंकी तरह इंद्रके पीछे लाकर बैठा। देवताओंके पीछे सभी पुरुप बैठ और पुरुषोंक पीछे सभी त्रियों खड़ी रही। प्रमुकं निर्दोष शासनमें स चतुर्विध धर्म रहता है वैसही, समयमरणकं प्रथम किनमें इस तरह चतुर्विध मंच बैठा। दुसरं प्राकाग्में (परकोटमें), सब नियंच परस्पर विरोधी स्वभाववाले हान हुए भी नवान्न सहोदर हो ऐसे, श्रानंद सहित बैठे। समवसरणार नीमर परकोटमें श्रागन राजाओंके समी बाइन हाथी-घोड़ बांग) देशना सुनने के लिए ऊँचे कान करके खड़े रहे। फिर त्रिभुवनपनिन, सभी भाषाओवाले समझ जाएं ऐसी भाषा और मेयकं समान नीर वाणी में देशना देनी श्रारंभ की । देशना नुनत हुप नियंच, मनुष्य और देवता ऐसे दृर्षिन हुए, मानो ये अति अघिच बोमसे छुटकारा पा गए हैं। मानो वे इष्टपदको पा गए हैं। मानो उन्ढोंने कल्याण अभिषेक किया है, मानो वे ध्यान में लीन है, मानो उन्होंने अहमिद्रपद पाया है। मानो उन्होंने परब्रमको पाया है। देशना समाप्त होनपर महावनका पालन करनवान अपने भाइयों को देख, मनम दुखी हो, मगन इस तरह विचार करने लगा। (१८१-१८) ____ अफसोस ! मैंन यह क्या किया? मैं सदा श्रागकी तरह अनुन मनवाला हूँ, इसीलिए मैन माइयाँका राज्य ले लिया। अब यह भोग-पलवानी लक्ष्मी, दूसरीको दे देना मेरे लिए इसी तरह निम्मत है जिस तरह किमी मन्त्रका रामचम घी होमना निष्फत Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४५३ होता है। कौए भी दूसरे कौओंको बुलाकर अन्नादिक भक्षण करते हैं; मगर मैं अपने भाइयोंके बिना भोग भोग रहा हूँ, इसलिए कौओंसे भी हीन हूँ। मासक्षपणक (एक महिनेका उपवास करनेवाले) जैसे किसी दिन भिक्षा ग्रहण करते हैं वैसे अगर मैं भोग्य संपत्ति अपने भाइयोंको दूं तो क्या वे मेरे पुण्यसे उसे ग्रहण करेंगे ?" इस तरह सोच, प्रभुके चरणों में बैठ भरतने हाथ जोड़ अपने भाइयोंको भोग भोगनेके लिए आमंत्रण दिया। (१९०-१९४) उस समय प्रभुने कहा, "हे सरल अंत:करणवाले राजा! ये तेरे बंधु महासत्ववाले हैं और इन्होंने महाव्रत पालनेकी प्रतिज्ञा की है, इसलिए ये संसारकी असारता जानकर पहले त्यागे हुए भोगोंको वमन किए हुए अन्नकी तरह वापिस ग्रहण नहीं करेंगे।" इस तरह भोगसे संबंध रखनेवाले आमंत्रणका जब प्रभुने निषेध किया, तब पश्चाताप युक्त चक्रीने सोचा, "ये मेरे त्यागी बंधु भोग कभी नहीं भोगेंगे, फिर भी प्राणधारण 'करने के लिए आहार तो लेंगेही।" ऐसा सोचकर उन्होंने पाँचसौ बड़ी बड़ी बैलगाड़ियाँ भरकर आहार मँगवाया और अपने अनुज बंधुओंको पूर्वकी तरहही आहार लेनेका आमंत्रण दिया। . तब प्रभुने कहा, "हे भरतपति ! वह आधाकमी (मुनियोंके लिए बनाकर लाया गया आहार ) आहार मुनियोंके लिए ग्राह्य नहीं है।" इसप्रकार प्रभुके निषेध करनेपर उन्होंने अकृत और अकारित(न मुनियोंके लिए तैयार किए हुए न तैयार कराए हुए) अन्नके लिए मुनियोंको आमंत्रण दिया, क्योंकि ...... शोभते सर्वमार्जवे ।" Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. [सरलतामें सब शोभा देता है। उस समय "हे राजेंद्र ! मुनियोंके लिए रानपिंड ग्राह्य नहीं है। ऐसा कहकर धर्मचक्री प्रभुने चक्रवर्तीको फिरसे रोका । प्रभुने सब तरहसे मुझे मना क्रिया, यों सोचकर,चंद्र जैसे राहसे दुखी होता है वैसेही, महा राजा भरत पश्चातापसे दुखी होने लगे। भरतको इस प्रकार उलझनमें पड़े हुए देखकर इंद्रने प्रभुसे पूछा, "हे स्वामी ! अबग्रह (रहने व फिरनेके लिए पाना लेनी पड़े ऐसे स्थान) कितने प्रकारके हैं" प्रमुने कहा, "इंद्र संबंधी, चक्री संबंधी, राजा संबंधी, गृहस्थ संबंधी और साधु संबंधी-ऐसे पाँच प्रकारकं अवग्रह होते हैं। ये अवग्रह उत्तरोत्तर पूर्व पूर्वके बाधक होते हैं। उनमें पूर्वोक्त और परोक्त विधियों में पूर्वोक्त विधि बलवान है।" इंद्रने कहा, "ह देव ! जो मुनि मेरे अवग्रहमें विहार करते हैं उन्हें मैंने मेरे अवग्रहकी श्राक्षा की है।" इंद्र ऐसा कह, प्रमुक चरण-क्रमलोंमें प्रगाम कर खड़ा रहा । यह मुन भरत राजाने पुनः सोचा "यद्यपि उन मुनियोंने मेरे अन्नादिकका आदर नहीं किया, तथापि अवग्रहकं अनुग्रहकी श्रानासे तो में धन्य हो सकता है।" ऐसा विचारकर श्रेष्ट हृदयवाले चक्रीन इंद्रकी तरहही प्रभुकेचरगणों के पास जाकर अपने अवग्रहकी भी याना की। फिर उसने अपने सहधर्मी इंद्रसे पूछा, "अभी यहाँ लाण हुए अन्नादिकका अब मुझे क्या करना चाहिए " इंद्रन कहा, "वह सब विशेष गुगावाले पुरुपोंको दे दो।" भरतन सोचा, साधुयांक सिवा दसर विशेष गुगावान Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४५५ पुरुष कौन हो सकते हैं ? हाँ ! अब मेरी समझमें आया। निरपेक्ष (वैराग्यवाले) श्रावक भी ऐसेही गुणवान होते हैं, इसलिए यह सब उन्हेंही दे देना योग्य है।" ( १६५-२१३) ऐसा निश्चय करनेके बाद चक्रीने स्वर्गपति इंद्रके प्रकाशमान और मनोहर आकृतिवाले रूपको देखकर आश्चर्यसे पूछा, "हे देवपति ! क्या आप स्वर्गमें भी इसी रूपमें रहते हैं या किसी दूसरे रूपमें ? क्योंकि देवता तो कामरूपी (इच्छित रूप बना. नेवाले ) कहलाते हैं।" इंद्रने कहा, "राजन् ! स्वर्गमें हमारा रूप ऐसा नहीं होता, वहाँ जो रूप होता है उसे तो मनुष्य देख भी नहीं सकते।" भरतने कहा, "आपके उस रूपको देखनेकी मेरी प्रबल इच्छा है, इसलिए हे स्वर्गपति ! चंद्र जैसे चकोरको प्रसन्न करता है, वैसेही आप, अपनी दिव्य आकृतिसे दर्शन देकर मेरे नेत्रोंको प्रसन्न कीजिए।" इंद्रने कहा, "हे राजा ! तुम उत्तम पुरुष हो, तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ न होनी चाहिए, इसलिए मैं तुम्हें मेरे एक अंगका दर्शन कराऊँगा।" फिर इंद्रने उचित अलंकारोंसे सुशोभित और जगतरूपी मंदिरमें एक दीपके समान अपनी एक उँगली भरतराजाको बताई। प्रकाशित तथा कांतिमान उस उँगलीको देखकर, पूर्णिमाको देखकर जैसे समुद्र उल्लसित होता है वैसेही मेदिनीपति भरत भी उल्लसित हुए। इसप्रकार भरतराजाका मान रखकर, भगवानको प्रणाम कर, संध्याके बादलकी तरह इंद्र तत्काल अंतर्धान हो गए। चक्रवर्ती भी स्वामीको नमस्कार कर, करने के कार्योंका Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] त्रिषष्टि शनाका पुभय-चरित्रः पत्र १. मग है. मनमचिंतन कर इंद्री नरबही अपनी अयोध्या नगरी में आए। रावको उन्होंने इंदकी उंगलीकी स्थापना कर वहाँ अष्टाहिता उत्सब किया । कहा है "मती स्नेह च सतां ऋतंव्यं तुभ्यमेव हि ।" [सन्ननोंका कन्व्य मनि और न्नेह दोनोंहीमें रहता है। नमीसे लोगोंने इतनम गेपकर, सर्वत्र शोत्सव करना प्रारंभ किया। वह अब भी प्रचलित है।। २82-२५) दुर्च जैसे एक न्यानसे दमा न्यानपर जाना है वैसही भन्यजनयी कमलोंका प्रचार करनेके लिए भगवान को पमन्वामीने अमापद पर्वतसे दूसरी जगह विहार किया। (२) ब्राह्मगोंको उत्पत्ति घर अयोध्या मरल राजाने समी श्रावकोंको वृत्ताकर कहा, "आप लोग सभी भोजन करने निगमेरे घर सदा श्रानकी कृपा कीजिए, ऋषि काम छोड़िए और निरंतरत्राध्यायमें लीन रहकर अपूर्व दान प्रदा करनमें तत्पर रहिए। भोजन कर हर गेज मेरे पान पाइए और इस तरह बोलिए"जिनो मत्रान् बद्धते मीप्तस्मान्मा हन मा इन !" [आप हारे हुए है, भय बना है इसलिए, 'मत मारिये मन मारिय (अर्थात श्रात्मगुणोंका नाश मन कीजिए।)]. (२२७-२८) ऋकीकी यह बात मानकर व मुद्रा वक्रीक घराने लगे और हररोज भोजन करके ऊपर बनाए हुए वचन बड़ी तत्पर ताके साथ स्त्राच्यायकी नरद्द बोलने लगे। देवताओंकी रह रविमें मान और प्रमादी चक्रवर्ती उन शब्दोंको नुनकर इस Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४५७ तरह विचार करता, "अरे ! मैं किससे हारा हूँ मेरे लिए किस का भय बढ़ रहा है ? हाँ, समझा,- मैं कषायोंसे पराजित हुआ हूँ और कषायोंका भय ही मेरे लिए बढ़ रहा है। इसलिए ये विवेकी मुझे नित्य याद दिला रहे हैं कि आत्माका हनन न करो, न करो ! तो भी मैं कैसा प्रमादी और विषय-लोलुप हूँ ! मेरी धर्मके प्रति कैसी उदासीनता है ! इस संसारपर मेरा कितना मोह है ! और महापुरुषके योग्य मेरे इस आचारमें कैसा विपर्यय है ! (कैसी गड़बड़ी है !)" इस तरहके विचारोंसे उस प्रमादी राजाका हृदय, गंगाके प्रवाहकी तरह, थोड़ी देरके लिए धर्मध्यानमें प्रवेश करता, परंतु पुनः वह शब्दादिक इंद्रियार्थमें आसक्त हो जाता । कारण, "कर्मभोगफलं कोऽपि नान्यथा कर्तुमीश्वरः ।" [कर्मके भोगफलको मिटानेमें कोई भी समर्थ नहीं है। (२३०-२३६) : एक दिन रसोइयोंके मुखियेने आकर महाराजसे विनती की, "आजकल भोजन करनेवालोंकी संख्या बहुत अधिक हो गई है इसलिए यह जानना कठिन हो गया है कि, कौन श्रावक है और कौन नहीं है ।" यह सुनकर भरतने कहा, "तुम भी श्रावक हो, इसलिए आजसे तुम परीक्षा करके भोजन दिया करो।" इसके बाद रसोइयोंका मुखिया भोजन करनेके लिए आनेवालोंसे पूछने लगा, "तुम कौन हो ? और कितने व्रत पालते हो ?" जो कहते कि हम श्रावक हैं और पाँच अणुव्रतों तथा सात शिक्षातोंका पालन करते हैं उनको वह भरत राजाके पास ले जाता तब महाराजा भरत ज्ञान, दर्शन और चारित्र Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. के चिह्नवाली तीन रेखाएँ, कांकिणीरत्नसे वैकक्ष' की तरह, उनकी शुद्धि बतानेवाली, बनाने लगे। इसी तरह हर छठे महिने श्रावकोंकी परीक्षा की जाती थी और कांकिणीरत्नसे (उनकी छातीपर) रेखाएँ बनाई जाती थीं। उस चिह्नसे वे भोजन पाते थे और उच्च स्वरसे जितो भवान्' इत्यादि (वाक्य) बोलते थे। इससे वे 'महान' नामसे प्रसिद्ध हुए। वे अपने बालक साधुओंको देने लगे। उनमसे कई विरक्त होकर स्वेच्छासे व्रत ग्रहण करने लगे और कई परिसह सहन करनेमें असमर्थ होनेसे श्रावक बनने लगे। कांकिणीरत्नसे चिह्नित उनको भी निरंतर भोजन मिलने लगा । राजा इन्हें भोजन कराता था, इससे दूसरे लोग भी इनको भोजन कराने लगे। कारण "पूजितः पूजितो यस्मात्केन केन न पूज्यते।" [पूच्च पुरुप जिसको पूजते हैं उसको कौन कौन नहीं पूजता है ? अर्थात सभी उसको पूजते हैं।] उनके स्वाध्यायके लिए चक्रीने अहंतोंकी न्तुति मुनियों तथा श्रावकोंकी समाचारीसे पवित्र ऐसे चार वेद रचे । क्रमशः वे 'भाइना' के बदले ब्राह्मणा' इस नामसे प्रसिद्ध हुए और कांकिणी रत्नसे जो रेखाएँ बनाई जाती थीं वे यज्ञोपवीतके रूपमें पहिचानी जाने लगी । भरत राजाकी जगह जब उनका पुत्र 'सूर्ययशा' गद्दीपर बैठा तब उसके पास कांकिणी रत्न न रहा, इसलिए उसने (तीन तारोंवाला) नोनेका यज्ञोपवीत बनवाकर देना प्रारंभ १-लनेककी तरहका एक हार । चक्रवर्तीक पानही रहता है। -कांकिणी रन केवल Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत - [४५६ किया। सूर्ययशाके बाद महायशा वगैरा राजा हुए उन्होंने चाँदीके यज्ञोपवीत बनवाए। उनके बाद दूसरोंने पट्टसूत्रमय (रेशमके धागोंके) यज्ञोपवीत वनवाए और अंतमें रुईके सूतके (धागोंके) यज्ञोपवीत बनवाए जाने लगे। ( २२६-२५०) भरत सूर्ययशा,महायशा.अतिबल,बलभद्र,बलवीर्य, कीर्तिवीर्य, जलवीर्य और दंडवीर्य-ऐसे क्रमशः आठ पुरुषों तक ऐसा ही आचार रहा। इन्होंने इस भरतार्द्धके राज्यका उपभोग किया और इंद्रके बनाए हुए राज्यमुकुटको भी धारण किया। फिर दूसरे राजा हुए; मगर मुकुट महाप्राण (बहुत बजनदार) होनेसे वे उसे धारण नहीं कर सके । कारण,__"हस्तिभिर्हस्तिभारो हि वोढुं शक्येत नापरैः।" [हाथीका वजन हाथीही उठा सकते हैं, दूसरे नहीं उठा सकते । नवें और दसवें तीर्थंकरोंके बीचमें साधुओंका विच्छेद हुआ और उसी तरह उनके बादमें सात तीर्थंकरोंके अंतरमें शासनका विच्छेद हुआ। उस समयमें अहंतकी स्तुति और यतियों तथा श्रावकोंके धर्ममय वेद-जिनकी भरत चक्रवर्तीने रचना की थी-बदले गए। उसके बाद सुलभा और याज्ञवल्क्य आदिके द्वारा अनार्य वेद रचे गए।" (२५१-२५६) भावी तीर्थकर, चक्री आदिका वर्णन चक्रधारी भरत राजा श्रावकोंको दान देते और कामक्रीड़ा संबंधी विनोद करते हुए दिन बिताने लगे। एक बार चंद्र जैसे आकाशको पवित्र करता है वैसेही अपने चरणोंसे पृथ्वीको पवित्र करते हुए भगवान आदीश्वर अष्टापद पर्वतपर पधारे । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६.] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पत्र १ सर्ग ६. देवताओंने तत्कालही वहाँ समवसरणकी रचना की श्रीर भगयान उसमें बैठकर धर्मदेशना देने लगे। अधिकारी पुरुयान, पवनवेगसे श्राकर, भरतको प्रभुकं पधारनेके समाचार दिए। भरतने पहलके जितनाही इनाम उन पुम्पोंको दिया । कहा है. कि "दिने दिने कल्पतरुदानो न हि हीयते " [कल्पवृक्ष प्रति दिन देना रहे तो भी क्षीण नहीं होता।] फिर भरत, अष्टापद पर्वतपर समोसरे (पधारे) हुए प्रभुके पास श्रा, प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर, स्तुति करने लगा। ____ "हे जगत्पति ! मैं अन हूँ तो मी, आपके प्रभावसे श्रापकी स्तुति करता है। कारण, "शशिनं पश्यतां दृष्टिमंदापि हि पटूयते ।" [चंद्रको देखनेवाले पुरुपकी मंष्टि भी सामर्थ्यवान होती है।] हे स्वामी ! मोहरूपी अंधकारमें हवे हुए इस जगतको प्रकाश देने में दीपक समान और श्राकाशकी तरह अनंत श्रापका केवलज्ञान सदा विजयी है। हे नाथ ! प्रमादरूपी निद्रामें मग्न मेरे जैसे पुरुपोंके कार्यके लिए श्राप सूर्यकी तरह बार बार. गमनागमन करते हैं। जैसे समय पाकर पत्थरकी तरह जमा हुया घी श्रागसे पिघल जाता है वैसेही लाखों जन्मोंमें उपार्जन किए हुए कर्म श्रापके दर्शनोंसे नाश हो जाते हैं। - हे प्रभो ! एकांत मुपमकाल (दुसरं पार) से मुपम दुःखम काल (तीसरापारा ) अच्छा है कि जिस कालमें कल्पवृक्षसे भी अधिक फल देनेवाले श्राप उत्पन्न हुए है। ६ सर्वभुवनोंके Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म० ऋषभनाथका वृत्तांत [४६१ स्वामी ! जैसे राजा गाँवों और भुवनोंसे अपनी नगरीको उन्नत करता है वैसेही आप इस भुवनको (भरतखंडको) भूषित करते हैं । जैसा हित पिता, माता, गुरु और स्वामी सब मिलकर भी नहीं कर सकते, वैसा हित आप एक होते हुए भी अनेककी तरह करते हैं। जैसे चाँदसे रात शोभती है, हंसोंसे सरोवर शोभता है और तिलकसे मुख शोभता है वैसेही आपसे यह भुवन शोभता है।" इस तरह यथाविधि भगवानकी स्तुति करके विनयी भरत राजा अपने योग्य स्थानपर बैठा । (२५७-२७१) फिर भगवानने एक योजनतक सुनाई देनेवाली और सभी भाषाओं में समझी जा सके ऐसी, विश्वके उपकारके लिए देशना दी। देशना समाप्त होनेपर भरत राजाने प्रभुको नमस्कार कर रोमांचित हो, हाथ जोड़ निवेदन किया, "हे नाथ ! इस भरत खंडमें जैसे आप विश्वके हितकारी हैं वैसे दूसरे कितने धर्मचक्री होंगे ? और कितने चक्रवर्ती होंगे ? हे प्रभो ! उनके नगर, गोत्र, माता-पिताके नाम, आयु, वणे, शरीरका मान, परस्पर अंतर, दीक्षा-पर्याय और गति,ये सब वाते श्राप बताइए।" (२७२-२७५) भगवानने कहा, १- "हे चक्री ! इस भरतखंडमें मेरे बाद दूसरे तेईस तीर्थंकर होंगे और तुम्हारे बाद दूसरे ग्यारह चक्रवर्ती होंगे। उनमेंसे वीसवें और बाईसवें तीर्थंकर गौतम गोत्री होंगे और दूसरे कश्यप गोत्री होंगे। वे सभी मोक्षगामी होंगे। २-अयोध्या जितशत्रु राजा और विजया रानीके पुत्र दूसरे अजित नामके तीर्थकर होंगे। उनकी आयु बहत्तरलाख पूर्वकी, Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष- चरित्रः पर्व १. सर्ग દુ - कांति सोने के जैसी, काया साढ़े चार सौ धनुष ऊँची और दीक्षापर्याय एक पूर्वाग ( चौरासी लाख वर्ष ) कम एक लाख पूर्व होगी । मेरे और अजितनाथ के निर्वाणकालमें पचास लाख कोटि सागरोपमका अंतर होगा । (२७६-२८० ) - ३- जितारी राजा और सेना रानी के पुत्र तीसरे संभव नामके तीर्थंकर होंगे। उनकी क्रांति सोने जैसी, श्रायु साठ लाख पूर्वकी, काया चार सौ धनुप ऊँची और दीक्षा- पर्याय चार पूर्वांग (तीन सौ छत्तिस लाख वर्ष) कम एक लाख पूर्व होगी । और अजितनाथ तथा उनके निर्वाण के बीच में तीस लाख करोड़ सागरोपमका अंतर होगा । (२८१-२८२ ) · १ - विनीतापुरी (अयोध्या में संवर राजा और सिद्धार्था रानीके पुत्र अभिनंदन नामक चौथे तीर्थंकर होंगे । उनकी श्रायु पचास लाख पूर्वकी काया सोनेके रंग जैसी, साढ़े तीन सौ धनुपकी; और दीक्षा-पर्याय आठ पुत्रांग (६ करोड ७२ लाख वर्षे) कम एक लाख पूर्वकी होगी। संभवनाथ और अभिनंदन - नाथके निर्वाणके बीच में इस लाख करोड़ सागरोपमका अंतर होगा । (२८३ - २८१ ) : ५- अयोध्या में मेघ राजा और मंगला रानीके पुत्र सुमति नामके पाँचवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति सुवर्णके जैसी; श्रायु चालीस लाख पूर्वकी काया तीन सौ धनुषकी और दीक्षापर्याय द्वादश पूर्वाग (दस करोड़ आठ लाख वर्ष) कम एक लाख पूर्वकी होगी । श्रभिनंदननाथ और सुमतिनाथके निर्वाणकालका अंतर नौ लाख कोटि सागरोपमका होगा । ( २८५ - २८६ ) Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४६३ ६- कोशांबी नगरी में धर राजा और सुसीमादेवीके पुत्र पद्मप्रभ नामक छठे तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति लाल, आयु तीस लाख पूर्वकी, काया ढाईसौ धनुषकी और व्रत पर्याय सोलह पूर्वांग ( तेरह करोड़ चवालीस लाख बरस ) कम एक लाख पूर्वकी होगी । सुमतिनाथ और पद्मप्रभके निर्वाणकालका अंतर नव्ये हजार कोटि सागरोपमका होगा । ( २८७ - २८८ ) ७ - वाराणसी (बनारस) नगरीमें प्रतिष्ठ राजा और पृथ्वी रानीके पुत्र सुपार्श्व नामक सातवें तीर्थंकर होंगे । उनकी कांति सोनेके जैसी, आयु बीस लाख पूर्वकी, काया दो सौ धनुषकी और दीक्षा पर्याय बीस पूर्वांग ( १६ करोड़ ८० लाख बरस) कम एक लाख पूर्व होगी । पद्मप्रभके और सुपार्श्वनाथके निर्वाणकालका अन्तर नौ हजार कोटि सागरोपमका होगा । ( २८६--१० ) = -चंद्रानन नगर में महासेन राजा और लक्ष्मण देवी के पुत्र चंद्रप्रभ नामक आठवें तीर्थकर होंगे। उनकी कांति सफेद, आयु दस लाख पूर्व, काया डेढ़ सौ धनुष और व्रतपर्याय चौबीस पूर्वाग ( दो करोड़ सोलह लाख बरस) कम एक लाख पूर्व होगी। सुपार्श्वनाथ और चंद्रप्रभुके निर्वाणकालका अंतर नौ सौ कोटि सागरोपमका होगा । ( २६१-२६२ ) ६- काकँदी नगरी में सुग्रीव राजा और रामादेवीके पुत्र सुविधि नामक नवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति श्वेत, आयु दो लाख पूर्व, काया एक सौ धनुष और व्रतपर्याय अठाईस पूर्वाग ( तेईस करोड़ बावन लाख बरस ) कम एक लाख पूर्व Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] त्रिषष्टि शताका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग, होगी। चंद्रप्रमुके और मुविधिनायके निर्वाणकालका अंतर नव्चे कोटि सागरोपमका होगा। (२६३-२६४) ___ १० महिलपुरमें हद्धरथ राजा और नंदादेवीक पुत्र शीतल नामक दसवें तीर्थकर होंगे। उनका वर्ण सोनके जैसा और शरीर नन्चे धनुषका होगा । उनको श्रायु एक लान्त्र पूर्व और दीनापाय पचीस हजार पूर्व होगी। विधिनायके और शीतलनाथ के निर्माणका अंतर नौ कोटि सागरोपमका होगा। (२१५-२६६) ११-विप्रापुरी में विष्णु नामक राजा और विष्णुदेवी नामकी गनीके चांस नामक पुत्र ग्यारहवें तीर्थकर होंगे। उनकी श्रायु चौरासी लाख वर्षकी और व्रतपर्याय इक्कीस लाख वर्षकी होगी। उनका वर्ग मानके लेसा, शरीर अली धनुयका और शीतलनाथ और श्रेयांसनायक निर्माणकालका अन्तर बत्तीस हजार कासठ लान्य नया मोनागरोपम कम, एक करोड़ सागरापनका होगा । (२१७-२६६) १२-चंपापुरीमें बमुख्य राजा और जयादेवी रानी बालुञ्च नामक पुत्र बारहवें तीर्थकर होंगे। उनकी क्रांति लाल, श्रायु बहत्तर लान्त्र बरसकी, काबा सत्तर धनुष प्रमाणकी और दानापर्याय चीवन लान्न वपनी होगी। धेयांसनाथ ओर वामपन्य निर्माणकालका अन्तर चौवन मागरोपमका होगा। (३००-३०१) १३-कपिल नानक नगर में कृतवमा राजा और श्यामादेवीके विमन्त नामक पुत्र नरहवें नीर्थकर होंगे ! उनकी आयु साठ A Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४६५ ___ लाख वर्षकी, कांति सोनेके जैसी, काया साठ धनुषकी और व्रत पर्याय पंद्रह लाख वर्षकी होगी। वासुपूज्य और विमलनाथके निर्वाणकालका अंतर तीस सागरोपमका होगा । (३०२-३०३) १४-अयोध्या सिंहसेन राजा और सुयशादेवीके अनंत नामक पुत्र चौदहवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति सुवर्ण के समान, आयु तीस लाख वर्ष, काया पचास धनुष प्रमाण, और व्रतपर्याय साढ़े सात लाख वर्ष होगी। विमलनाथके और अनंतनाथके निर्वाणकालका अंतर नौ सागरोपमका होगा। (३०४-३०५) — १५-रत्नपुरमें भानु राजा और सुव्रतादेवीके धर्म नामक पुत्र पंद्रहवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति स्वर्णके समान, आयु दस लाख वर्षकी, काया पैंतालीस धनुषकी और व्रतपर्याय ढाई लाख वर्षकी होगी । अनंतनाथ और सुव्रतनाथके निर्वाणकालका अंतर चार सागरोपमका होगा। (३०६-३०७) १६-गजपुर नगरमें विश्वसेन राजा और अचिरादेवीके शांति नामक पुत्र सोलहवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति सुवर्णके समान, श्रायु आठ लाख बरसकी, काया चालीस धनुषकी और व्रतपर्याय पच्चीस हजार बरसकी होगी। धर्मनाथ और शांतिनाथके निर्वाणकालका अंतर पौन पल्योपम कम तीन सागरोपमका होगा । (३०८-३०६) १७-गजपुरमें शूर राजा और श्रीदेवी रानीके कंथु नामक पुत्र सत्रहवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति सुवर्ण के समान, काया पैंतीस धनुष प्रमाणकी, आयु पचानवे हजार बरसकी और Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. दीक्षापर्याय तेईस हजार साढ़े सात सौ बरसकी होगी। शांतिनाथ और कुंथुनाथके निर्वाणकालका अन्तर श्राधे पल्योपमका होगा । (३१०-३११) १८-उसी गजपुरमें सुदर्शन राजा और देवी रानीके अर नामक पुत्र अठारहवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति सुवर्णके समान, आयु चौरासी हजार बरसकी, काया तीस धनुपकी और व्रतपर्याय इक्कीस हजार बरसकी होगी। कुंथुनाथ और अरनाथके निर्वाणकालमें एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्योपमके चौथे भागका अन्तर होगा। (३१२-३१३) १६-मिथिला नगरी में कुंभ राजा और प्रभावती देवीके मल्लीनाथ नामकी पुत्री उन्नीसवीं तीर्थकर होंगी । उनकी कांति नीलवर्णकी, श्रायु पचानवे हजार बरसकी, काया पञ्चीस धनुषकी और व्रतपर्याय बीस हजार नौ सौ बरसकी होगी। अरनाथ और मल्लीनाथके निर्वाणकालका अंतर एक हजार कोटि वरस. का होगा । (३१४-३१५) __२०-राजगृह नगरमें सुमित्र राजा और पद्मादेवीके सुव्रत नामक बीसवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति कृष्णवणकी, आयु तीस हजार वरसकी, काया वीस धनुपकी और दीक्षापयोय साढ़े सात हजार बरसकी होगी। मल्लीनाथ और सुव्रतनाथके निर्वाणकालका अंतर चौवनलाख बरसका होगा । (३१६-३१७) २१-मिथिला नगरीमें विजय राजा और वप्रादेवी रानीके नमि नामक पुत्र इकोसवें तीर्थकर होंगे। उनकी कांतिसुवर्णके समान, आयु दस हजार बरस, काया पंद्रह धनुष और Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४६७ प्रतपर्याय ढाई हजार बरस होगी। मुनिसुव्रत स्वामी और नमिनाथके निर्वाणकालका अंतर छःलाख वर्ष होगा। (३१८-३१६) २२-शौर्यपुरमें समुद्रविजय राजा और शिवादेवी रानीके नेमि नामक पुत्र बाईसवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति श्यामवर्णकी, श्रायु हजार बरसकी, काया दस धनुषकी और दीक्षापर्याय सात सौ वरसकी होगी। नमिनाथ और नेमिनाथके निर्वाणकालका अंतर पाँच लाख बरसका होगा। (३२०-३२१) २३-वाराणसी ( काशी) नगरीमें अश्वसेन राजा और यामादेवी रानीके पार्श्वनाथ नामक पुत्र तेईसवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति नीलवर्णकी, आयु सौ बरसकी, काया नौ हाथकी और व्रतपर्याय सत्तर बरसकी होगी। नेमिनाथ और पार्श्वनाथके निर्वाणकालका अंतर तिरासी हजार साढे सात सौ बरसका होगा । ( ३२२-३२३) २४-क्षत्रियकुंड गाँवमें सिद्धार्थ राजा और त्रिशलादेवी रानीके पुत्र वर्द्धमान अपर नाम महावीर नामक चौवीसवें तीर्थंकर होंगे। उनकी कांति सुवर्णके जैसी, आयु वहत्तर बरसकी, काया सात हाथकी और व्रतपर्याय बयालीस वरसकी होगी। पार्श्वनाथ और महावीर स्वामीके निर्वाणकालका अंतर ढाईसौ बरस का होगा । (३२४-३२५) चक्रवर्ती चक्रवर्ती सभी कश्यप गोत्रके होंगे। उनकी कांति सोनेके समान होगी। उनमेंसे आठ मोक्षमें जाएँगे, दो स्वर्गमें जाएंगे Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्र: पर्व ९. सर्ग ६. ४६८ ] और दो नरक जाएँगे। १- तुम ( पहले चक्रवती ) मेरे समय हुए हो । २-अयोध्या नगरी में अजितनाथ नीर्थकरके समय सुगर नामक दूसरा चक्रवर्ती होगा । वह सुमित्र राजा और यशोमतीरातीका पुत्र होगा। उसकी काया लाई चार सौ धनुषकी और घायु बहत्तर लाख पूर्वकी होगी । ३- श्रावस्ती नगरी समुद्रविजयराजा और महा रानी के सवा नामक पुत्र तीसरी होंगे। उनकी काया साढ़ेचालीस धनुषकी और आयु पाँच लाख बरसकी होगी । --- 2- हस्तिनापुर अश्वसेन राजा और सहदेवी रानीक सनत्कुमार नामक पुत्र च होंगे। उनकी काया साईउनचालीस धनुष प्रमागाची और घायु तीन लाख बरसकी होगी | ये दोनों चक्रवर्ती धर्मनाथ और शांतिनाथ के अंतर होंगे और तीसरे देवलोक जाएँगे। ४, ६, ७-शांति, कुँयु और घर, ये तीन तीर्थकर, चक्रवर्ती श्री होंगे। -उनके बाद हस्तिनापुर छतवीर्य राजा और तारारानीके पुत्र सुमोम नामक आठवें चक्रवर्ती होंगे। उनका साठ हजार बरसकी और काया अठाईस धनुपकी होगी । व श्ररनाथ और मल्लीनाथकं समय में होंगे और सातवें नरक में जाएँगे । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत ४६६ - - ह-वाराणसीमें ('बनारसमें ) पद्मोतर राजा और ज्वाला रानीक पद्म नामक पुत्र नवें चक्रवती होंगे। उनकी आयु तीसहजार बरसकी और काया वीस धनुषकी होगी। १०- कांपिल्य नगरमें महाहरि राजा और मेरादेवीके पुत्र हरिषेण नामक दसवें चक्रवर्ती होंगे। उनकी आयु दस हजारबरसकी और काया पंद्रह धनुषकी होगी। ये दोनों (पद्म और हरिषेण ) चक्रवर्ती मुनिसुव्रत और नमिनाथ अहंतके समयमें होंगे। ११-राजगृह नगरमें विजय राजा और वप्रादेवीके जय ' नामक पुत्र ग्यारहवें चक्रवर्ती होंगे। उनकी आयु तीन हजारवरसकी और काया बारह धनुषकी होगी। वे नमिनाथ और नेमिनाथके अंतरमें होंगे। वे तीनों (पद्म, हरिषेण और जय) चक्री मोक्षमें जाएँगे। १२-क्रांपिल्य नगरमें ब्रह्म राजा और चुलनी रानीके ब्रह्मदत्त नामक पुत्र बारहवें चक्रवर्ती होंगे। उनकी आयु सातसौ बरसकी और काया सात धनुषकी होगी। वे नेमिनाथ और पार्श्वनाथके अंतरमें होंगे और रौद्र ध्यानमें मरकर सातवीं नरकभूमिमें जाएँगे। (३२६-३३७) ___ वासुदेव और बलदेव ऊपर कहे अनुसार तीर्थंकरों और चक्रवर्तियोंकी बातें कहकर प्रभुने, भरतके न पूछनेपर भी, कहा-"चक्रवर्तियोंसे आधे पराक्रमवाले और तीन खंड पृथ्वीका उपभोग करनेवाले Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७.] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. नौ वासुदेव कृष्णवर्णवाले होंगे। उनमेंसे एक, आठवें वासुदेव कश्यपगोत्री और बाकीके आठ गौतमगोत्री होंगे । उनके सापत्न भ्राता(सतिले भाई)भी नौहोंगे । उनके वर्ण श्वेत होंगे। वे बलदेव कहलाएंगे। १-पोतनपुर नगरमें प्रजापति राजा और मृगावती रानीके त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव होंगे। उनका शरीर अस्सी धनुषका होगा। जब श्रेयांम जिनेश्वर पृथ्वीपर विचरण करते होंगे तब वे (त्रिपृष्ठ) चौरासी लाख बरसकी आयु पूर्ण कर अंतिम नरक जाएंगे। २-द्वारका नगरीमें ब्रह्म राजा और पद्मावती देवीके द्विपृष्ट नामक पुत्र दूसरे वासुदेव होंगे । उनकी सत्तर धनुपकी काया और बहत्तर लाग्न वर्षकी श्रायु होगी। वे वासुपूज्य जिनेश्वरके विहारके समयमें होंगे और अंतमें छठी नरकभूमिमें जाएँगे। ३-द्वारकामें भद्र राजा और पृथ्वीदेवीके पुत्र स्वयंभू नामक तीसरे चामुद्देव होंगे। उनकी आयु साठ लाख बरसकी और काया साठ धनुपकी होगी। वे विमल प्रभुको वंदना करनेवाले (अर्थात विमलनाथ तीर्थंकरके समयमें) होंगे। वे अंतम आयु पूर्ण कर छठी नरकभूमिमें जाएँगे। ४-उसी नगरीमें यानी द्वारकम सोम राजा और सीतादेवीके पुरुषोत्तम नामक पुत्र चौथे वासुदेव होंगे। उनकी काया पचास धनुषकी और उम्र तीस लाख बरसकी होगी। वे अनंतनाथ प्रभुके समयमें होंगे और मरकर छठी नरकभूमिमें जाएंगे। ५-अश्वपुर नगरमें शिवराज राना और अमृतादेवी रानी. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४७१ के पुरुषसिंह नामक पुत्र पाँचवें वासुदेव होंगे । उनकी काया चालीस धनुषकी और आयु दस लाख बरसकी होगी। वे धर्मनाथ जिनेश्वर के समयमें होंगे और आयु पूर्ण कर छठी नरकभूमिमें जाएँगे । ६ - चक्रपुरी नगरी में महाशिर राजा और लक्ष्मीवती रानी के पुरुषपुंडरीक नामक पुत्र छठे वासुदेव होंगे । उनकी काया उन्तीस धनुषकी और आयु पैंसठ हजार बरसकी होगी। वे अरनाथ और मझीनाथके अंतर में होंगे और आयु पूर्ण कर छठी नरकभूमिमें जाएँगे । ७ - काशी नगरी में अग्निसिंह राजा और शेपवती रानीके दत्त नामक पुत्र सातवें वासुदेव होंगे । उनकी काया छत्रीस धनुषकी और आयु छप्पन हजार बरसकी होगी। वे भी अरनाथ व मल्लीनाथ स्वामीके मध्यवर्ती समयमेंही होंगे और आयु पूर्ण कर पाँचवीं नरकभूमिमें जाएँगे । ८- अयोध्या में दशरथ राजा और सुमित्रा रानीके नारायण नामसे प्रसिद्ध लक्ष्मण नामक पुत्र आठवें वासुदेव होंगे । उनकी काया सोलह धनुषकी और आयु बारह हजार बरसकी होगी। वे मुनिसुव्रत और नमि तीर्थंकरके मध्यवर्ती समय में होंगे और आयु पूर्ण कर चौथी नरकभूमिमें जाएँगे । ६- मथुरा नगरी में वसुदेव राजा और देवकी रानीके कृष्ण नामक नर्वे वासुदेव होंगे। उनकी काया दस धनुपकी और श्रायु एक हजार बरसकी होगी । नेमिनाथके समय में होंगे और मरकर तीसरी नरकभूमिमें जाएँगे । ( ३३८-३५७ ) Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सग ६. [ नीचे बलभद्रकि चरित्र दिए गए हैं। उनके पिताओंके नाम. उनकी कायाका प्रमागा और उनके उत्पन्न होने के नगर सत्र वासुदेवोंके समानही होने हैं। इसलिए यहाँ नहीं दिए गए है । हरेक बलदेव क्रमश: वासुदेवके समयमही हुए हैं।] १-मद्रा नामकी माना अचल नामक पुत्र पहले बलदेव हाँग । उनकी श्रायु पचासी लाग्य बरसकी होगी। २-सुभद्रा मानाके विजय नामक पुत्र दूसर बलदेव होंगे। उनकी श्रायु पचहत्तर लाख बरसकी होगी। ३-सुप्रभा मानाकं भद्र नामक तीसरे बलदेव होंगे। उनकी श्रायु पैसठ लाग्न घरसकी होगी। ४-मुदर्शना माता मुप्रभ नामक चौथे बलदेव होंगे। उनकी श्रायु पत्रपन लाग्य बरसकी होगी। ५-विजया मानाके मुदर्शन नामक पाँच बलव होंगे। उनकी आयु सत्ता लान बरसकी होगी। ६-वैजयंती माताके श्रानंद नामक पुत्र छट बलदेव होंगे। उनकी आयु पचासी हजार बरसकी होगी। -जयंती माना नंदन नामक सातवें बलदेव होंगे। उनकी श्रायु पचास हजार बरसकी होगी। . ___-अपराजिता (प्रसिद्ध नाम कौशल्या) माताके पद्म (प्रसिद्ध नाम गमचंद्र) नामक पुत्र पाठवें बलदेव होंगे । टनकी श्रायु पंद्रह हजार बरसकी होगी। . . . . . ____-रोहिणी माताके राम (प्रसिद्ध नाम बलभद्र) नामक Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... भ० ऋषभनाथका वृत्तांत - [४७३ नवें वलदेव होंगे। उनकी आयु बारह सौ बरसकी होगी। (३५८-३६६) ... इनमें से आठ बलदेव मोक्षमें जाएँगे और नवें बलदेव पाँचवें देवलोकमें जाएंगे और वहाँसे आगामी उत्सर्पिणी में इसी ..भरतक्षेत्र में उत्पन्न होकर कृष्ण नामक तीर्थंकरके तीर्थमें सिद्ध होंगे । (३६७) . अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधु, निष्कुंभ, बलि, प्रह्लाद, रावण, और मगधेश्वर (प्रसिद्ध नाम जरासंध ) ये नौ प्रतिवासुदेव' होंगे। वे चक्रसे प्रहार करनेवाले यानी चक्रके शस्त्रवाले होंगे और उनको उन्हींके चकसे वासुदेव मार डालेंगे। (३६८-३६६ ) ... इस तरह प्रभुकी बातें सुनकर और भव्य जीवोंसे भरी हुई सभाको देख, आनंदित हो भरतपतिने प्रभुसे पूछा,"हे जग. पति! मानो तीनों लोक जमा हुए हों इस तरह इस तियंच, नर और देवमय सभामें कोई ऐसा आत्मा भी है जो आप भगवानकी तरहही तीर्थकी स्थापना कर, इस भरतक्षेत्रको पवित्र करेगा। (३७०-३७२ ) प्रभुने कहा, "यह तुम्हारा मरीचि नामक पुत्र-जो प्रथम परिव्राजक (त्रिदंडी) हुआ है-आर्त और रौद्रध्यानसे रहित हो, सम्यक्त्वसे सुशोभित हो, चतुर्विध धर्मध्यानका एकांत में ध्यान करके रहता है। इसका जीत्र कीचड़से रेशमी वस्त्रकी तरह और नि:श्वाससे. दर्पणकी तरह अवतक कर्मसे मलिन है। १-प्रतिवासुदेव नरकमेंही जाते हैं। . Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४७४ | त्रिपष्टि शलाका पुरुष - चरित्रः पर्व १ सर्ग ६. --- यही जीव श्रग्निसंयोग' से स्वच्छ हुए चम्बकी तरह या जातिव्रत (उत्तम) सोनेकी तरह शुक्लध्यानरूपी अग्निके संयोगसे क्रमशः शुद्ध होगा । यह पहले तो इसी भरत क्षेत्र में पोतनपुर नामके नगर में त्रिपृष्ट नामका प्रथम वासुदेव होगा। फिर अनुक्रम• से पश्चिम महा विदेहमें धनंजय और धारणी नामक दंपतिका पुत्र, प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा । फिर चिरकालतक संसारमें भ्रमण करके इसी भरतक्षेत्र में महावीर नामक चौबीसवाँ तीर्थकर होगा । ( ३७३-३७६ ) यह सुन स्वामीकी आज्ञाले भरतेश भगवानकी तरह मरीचिको भी चंदना करने गए। वहाँ जा चंदना करते हुए भरतने कहा, "आप त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव और महाविदेद्दक्षेत्र में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होंगे; मगर मैं न आपके वासुदेवपनको वंदना करता हूँ और न चक्रवर्तीपनको ही । इसी तरह आपकी इस परिबाजकताको भी बंदना नहीं करता। मैं वंदना इसलिए करता हूँ कि आप भविष्य में चौबीसवें तीर्थकर होंगे।" यों कह तीन प्रदक्षिणा दे, मस्तकपर अंजलि जोड़ भरतेश्वरने मरीचिको वंदना की । पश्चात पुनः जगत्पतिको वंदना कर, सर्पराज जैसे भोगवतीमें जाता है वैसेही, भरतेश्वर अयोध्या में गया । (३०-३८४ ) मरीचिका कुलमद और नीच गोत्रका बंध भरतेश्वरके जाने के बाद, उनके वचनोंसे हर्षित हो मरीचिने तीन बार ताली बजा, श्रानंदकी अधिकता से इस तरह १- यहाँ 'अग्निसंयोग से अभिप्राय रेशमी वस्त्र माफ करने के लिए की जानेवाली क्रिया से है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४७५ बोलना आरंभ किया, "अहो ! मैं सर्व वासुदेवों में पहला वासुदेव हूँगा, विदेहमें चक्रवर्ती हूँगा और ( भरतमें) अंतिम तीर्थंकर वनूँगा । मेरे सभी ( मनोरथ) पूर्ण हुए। सभी तीर्थकरों में मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर हैं, चक्रवर्तियों में मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं और वासुदेवों में मैं पहला वासुदेव हूँगा । इससे मेरा कुल श्रेष्ठ है। हाथियोंमें जैसे ऐरावत हाथी श्रेष्ठ है, सभी ग्रहों में जैसे सूर्य श्रेष्ठ है और सभी तारोंमें जैसे चंद्र श्रेष्ठ है वैसेही सभी कुलोंमें एक मेरा कुलही श्रेष्ठ है ।" मकड़ी जैसे अपनी लारसे तार निकाल कर जाला बनाती है और फिर स्वयंही उसमें फँस जाती है वैसेही मरीचिने अपने कुलका मद करके नीच गोत्र बाँधा । ( ३८५ - ३६० ) भगवान ऋषभस्वामी गणधरों सहित विहारके बहाने पृथ्वीको पवित्र करने के लिए वहाँसे रवाना हुए। कोशल देशके लोगोंको पुत्रकी तरह कृपासे धर्ममें कुशल करते हुए, मानो परिचित हों ऐसे मगध देशके लोगोंको तपमें प्रवीण बनाते हुए, कमलके कोशको जैसे सूर्य विकसित करता है वैसेही काशी देश के लोगों को प्रबोध देते हुए, समुद्रको चंद्रमाकी तरह, दशार्ण देशको आनंदित करते हुए, मूच्छितों (अज्ञानमें बेहोश पड़े हुओं) को सावधान करते हों ऐसे चेदी देशको सचेत करते, बड़े वत्सों ( बैलों ) की तरह मालव देशसे धर्मधुराको वहन कराते, देवताओंकी तरह गुर्जर देशको पापरहित श्राशयवाला बनाते और वैद्यकी तरह सौराष्ट्र देशवासियोंको पटु (चतुर ) मनाते महात्मा ऋषभदेव शत्रुंजय पर्वतपर पधारे। ( ३६१-३६५ ) Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४७६ ] त्रियष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सगं ६. - शत्रुजय गिरि चाँदीकं शिवम मानो विदेशमें आया हुआ बताध्यपर्वन हो. कई सोनके शिखगेंस मानो मम शिवर वहाँ श्राप हो, रत्नांकी बवानांसे मानो दुसरा गन्नाचल हो, और औषध समूह से मानो दूसरी जगह पाकर रहा हुआ हिमाचन्न पर्वत हो, ऐसा यह शत्रुजय पर्वत मालुम होता था। श्रासक्त होते हुए (बिलकुल पास आए हुए) बादलोसे मानो उसने सफेद बन्न घारगा क्रिप हो, और निकम्गक जलले मानो उसके कंधोपर अधोवस्त्र लटकत होगमा वह सुशोभिन होता था। दिन में निकट श्राप हुए मुरजसे मानो उसने ऊँचा मुकुट पहना हो और रातम पासमं याग हरा चाँदस मानो उसने चंदनरसका तिलक शिवा हो ऐसा यह जान पड़ता था। गगनको रोकनेवाले शिखरोसे मानो अनेक मन्नकोवाला हो, और नाइके वृक्षांस मानो अनेक मुजदंडवाला हो एसा यह मालूम होता था। वहाँ नारियलोंक चनों, उनके पक्रन पीनी पड़ी हुई लुवोंमें (गुच्छोंमें) अपने . बचोंके भ्रमसे बंद के मुंड इधरस उधर दौड़त थे और त्रामा के फलों को नोइनके कानमें लगी हुई मौराष्ट्रदेशकी वियों - मीट गायनाको मृग ऊँचे कान करके उनत थे। ऊपरी भागकी भूमि, ऊँची नोंक बहाने केतकीके पलिन (सफेद) ऊस श्राप हो वैसे, केतकीके जीगां वृक्षोंने परिपूर्ण थी। हर जगह श्रीखंड (चंदन) वृक्षक रसकी नरह पन्ति पड़े हुए सिंदुवार (निर्गुडी) के वृक्षांसे मानो उसने लार शरीरपर मांगलिक निलक किंप हो पसा वह पवन मान्नुम होता था। वहाँ शाखाओं में बैठे हुए बंदरांकी पटाने गुथ हर इमलीक वृत्त, पीपल और वट वृक्षों Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४७७ जैसे मालूम होते थे । अपनी विशालताकी सम्पत्तिसे, मानो हर्षित हुए हों ऐसे निरंतर फलते हुए पनसके वृक्षों से वह पर्वत शोभता था । अमावसकी रात्रि के अंधकार के समान श्रेष्मांतक वृक्षोंसे ( लिसोड़ों के पेड़ों से ), मानो अंजनाचलकी चूलिकाएँ (शिखर) वहाँ आई हों ऐसा, वह मालूम होता था । तोतेकी चोंचके समान लाल फूलोंवाले किंशुक ( पलास) के वृक्षों से वह, कुंकुमके तिलकोंवाले बड़े हाथी के समान, शोभता था । किसी जगह दाखकी शराब, किसी जगह खजूर की शराब और किसी जगह ताल (ताड़) की शराब पीती हुई भील लोगोंकी स्त्रियाँ, उस पर्वत पर पान गोष्ठियाँ ( शराबियोंकी मंडलियाँ) बनाती थीं । सूर्य के अस्खलित किरणरूपी बाणोंसे भी अभेद्य, ऐसे तांबूलों की लताओं के मंडपोंसे वह ऐसा मालूम होता था मानो उसने कवच धारण किया हो । वहाँ हरी भरी दूबके अंकुरों के स्वाद से आनंदित, मृगोंके मंडल बड़े बड़े वृक्षोंके नीचे बैठकर रोमंथ (जुगाली) करते थे । जातिवंत वैडूर्यमरिण हों ऐसे, आम्रफलों के स्वादमें, जिनकी चोंचें मग्न हैं ऐसे, शुकपक्षियों से वह पर्वत मनोहर लगता था । केतकी, चमेली, अशोक, कदंब और वोरसलीके वृक्षोंमेंसे पत्रनके द्वारा उड़ाए हुए परागसे उसकी शिलाएँ रजोमय (धूलवाली) हो रही थीं और मुसाफिरोंके द्वारा फोड़े हुए नारियलोंके पानीसे उसकी उपत्यका (तराई) पंकिल ( की चवाली) हो रही थी । भद्रशाल आदि वनों का कोई एक वन वहाँ लाया गया हो, ऐसी विशालतासे सुशोभित अनेक वृक्षोंवाले वनसे वह वन सुंदर लगता था । मूलमें पचास योजन, शिखर में दस योजन और ऊँचाई में आठ योजन ऐसे उस शजय Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. पर्वतपर भगवान ऋषभदेव आरूढ़ हुए-चढ़े । (३६६-४१६) ___ वहाँ देवताओं के द्वारा बनाए गए समवसरणमें सर्वहितकारी प्रभु बैंठे और देशना देने लगे। गंभीर गिरासे देशना देते हुए प्रभुकी वाणीसे उस गिरिमेंसे प्रतिध्वनि होती थी, उससे ऐसा जान पड़ता था कि वह पर्वत प्रभुके पीछे अपनी गुफामें बैठा हुआ चोल रहा है। चौमासेके अंतमें मेघ जैसे वर्षासे विराम पाता है वैसेही, प्रथम पौरुपी पूर्ण होनेके बाद प्रभु देशनासे विराम पाए और वहाँसे उठकर मध्यगढ़में देवोंके द्वारा बनाए गए देवछंदमें जाकर बैठे। फिर मांडलिक राजाके पास जैसे युवराज बैठना है वैसेही, सभी गणघरों में मुख्य श्री पुंडरीक गणधर स्वामीके मूलसिंहासन के नीचेकी पादपीठपर बैठे और पूर्वकी तरहही सारी सभा बैठी। तब वे (पुंडरीक) भगवानकी तरहही धर्मदेशना देने लगे। प्रात:कालमें जैसे पवन ओसरूपी अमृतका सिंचन करता है वैसेही दूसरी पोरसी (पहर) समाप्त होने तक उन महात्मा गणधरने देशना दी। प्राणियों के उपकारके लिए इसी तरह देशना देते हुए प्रभु श्रष्टापदकी तरह कुछ समय तक वहीं रहे। एक बार विहार करनेकी इच्छासे जगद्गुमने गणधरोंमें पुंडरीक (कमल) के समान पुंडरीकको आज्ञा दी, "हे महामुनि ! हम यहाँसे दूसरी जगह विहार करेंगे और तुम कोटि मुनियों के साथ यहीं रहो। इस क्षेत्रके प्रभावसे, परिवार सहित तुमको थोड़ेही समयमें केवलज्ञान होगा। और शैलेशी ध्यान करते हुए तुम परिवार सहित इसी पर्वतपर मोक्ष पाओगे।" प्रमुकी आज्ञा अंगीकार कर, प्रणाम कर पुंडरीक गणघर कोटि मुनियों के साथ वहीं रहे। जैसे उद्वेल ( मर्यादासे अधिक Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४७६ ज्वारवाला ) समुद्र किनारोंके खड्डोंमें रत्न समूहको डालकर चला जाता है वैसेही प्रभु, पुंडरीकादिको घहीं छोड़कर,परिवार सहित दूसरी जगह विहार कर गए। जैसे उदयाचल पर्वतपर नक्षत्रों के साथ चंद्रमा रहता है वैसेही दूसरे मुनियों के साथ पुंडरीक गणधर उसी पर्वतपर रहे। फिर अतिसंवेगवान (परम त्यागी)वे प्रभुके समान मधुर वाणीसे दूसरे श्रमणोंसे इस तरह कहने लगे,- (४१७-४३२) "हे मुनियो ! जयकी इच्छा रखनेवालोंको जैसे सीमावर्ती किला ( सहायक होता है) वैसेही मोक्षकी इच्छा रखनेवालोंको यह पर्वत क्षेत्रके प्रभावसे सिद्धि देनेवाला है; तव हमें अव मुक्तिकी, दूसरी साधनाके समान संलेखना करनी चाहिए । यह संलेखना द्रव्य और भाव, ऐसे दो तरहकी है। साधुओंका सब तरहके उन्मादों और महारोगोंके कारणोंका नाश करना द्रव्य संलेखना है, और राग-द्वेप, मोह और सभी कषाय-रूपी स्वाभाविक शत्रुओंका विच्छेद करना भाव संलेखना है।" इस तरह कहकर पुंडरीक गणधरने कोटि श्रमणों के साथ पहले सव तरहके सूक्ष्म और बादर अतिचारोंकी आलोचना की और फिर अति शुद्धिके लिए फिरसे महाव्रतका आरोपण किया । कारण"क्षोमस्य क्षालितं द्विस्त्रियतिनैमल्यकारणम् ।" वस्त्रको दो तीन बार धोना जैसे निर्मलताका कारण है (वैसेही अतिचार लेकर पुनः साधुताका उच्चारण करना-विशुद्ध होना विशेष निर्मलताका कारण है।)] फिर उन्होंने Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ६. "जीवाः क्षाम्यंतु सर्वे मे तेषां च क्षांतवानहम् ।। मंत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् ॥" . [मुझे सभी जीव क्षमा करें; में सबको क्षमा करता हूँ। मेरी सभी जीवोंसे मित्रता है। मेरा किसीसे वैर नहीं है।] इस तरह कहकर श्रागार (ट) रहित और दुष्कर ऐसा भवचरिम (इस जीवनका अंतिम ) अनशन व्रत, उन्होंने सब अमगांके साथ ग्रहण किया। ज्ञपक श्रेणी में चढ़े हुए उन पराक्रमी पुंडरीक गणधरकं सभी याति कर्म, जीर्ण डोरीकी तरह चारों तरफसे क्षय हो गए। दूसरे, कोटि साधुओंके कर्म भी तत्कालही तय हो गए । कारण १६. सर्वसाधारणं तपः1" [तप सबके लिए साधारण होता है। एक महीनेकी संनेखना अंतमें चैत्र महीने की पूर्णिमाके दिन प्रथम पुंडरीक गणघरको केवलज्ञान हुआ । और फिर दूसरे सभी साधुओंको भी केवलनान हुवा। शुक्लव्यानके चौथे पाएमें स्थित उन अयोगी केवलियोंने बाकी बचे हुए अयाति काँका नाश कर, मोक्षपद . पाया । उस समय स्वर्गसे पाकर देवताओंन मनदेवी माताकी नरह भक्ति सहित उन सबकं मोक्ष नानेका उत्सव किया। भगवान ऋषभदेव जैसे प्रथम तीर्थकर हुए उसी तरह यह पर्वत मी उसी समय से प्रथम तीर्थरूप हुश्रा । जहाँ एक साधु सिद्ध होते हैं वह स्थान भी जब पवित्र तीर्थ माना जाता है तब जहाँ (कोटिं) मुनि सिद्ध हुए है वहाँकी पवित्रताकी उत्कृष्टताके संबंध-' में नो ऋहनाही क्या है ? (४३३-१४७) Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [४८१ भरत राजाने इस श→जय गिरिपर, मेरुपर्वतके शिखरकी स्पर्धा करनेवाला रत्नशिलामय एक चैत्य बनवाया; और उसमें, अंत:करणमें जैसे चेतना रहती है ऐसे, पुंडरीक गणधरकी प्रतिमा सहित भगवान ऋषभस्वामीकी प्रतिमा स्थापन की। (४४८-४४६) भगवानका निर्माण भगवान ऋषभदेव जुदा जुदा देशोंमें विहार करके, जैसे अंधोंको आँखें दी जाती है वैसेही, भव्यजीवोंको बोधिबीजके ( सम्यक्त्वके) दानका अनुग्रह करते थे। प्रभुको केवलज्ञान हुआ तबसे लेकर प्रभुके परिवारमें चौरासी हजार साधु, तीन लाख साध्वियाँ, तीन लाख पचास हजार श्रावक और पाँच लाख चौवन हजार श्राविकाएँ; चार हजार सात सौ पचास चौदह पूर्वी, नौ हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार केवलज्ञानी, छः सौ वैक्रिय लब्धिवाले, बारह हजार छः सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी, उतनेही वादी और वाईस हजार अनुत्तर विमानवासी महात्मा हुए। प्रभुने जैसे व्यवहार में प्रजाकी स्थापना की थी वैसेही, धर्ममार्गमें इस तरह चतुर्विध संघकी स्थापना की। दीक्षा समयसे एक लाख पूर्व बीता तब, इन महात्माने अपना मोक्षकाल निकट जान अष्टापदकी तरफ विहार किया। उस पर्वतके पास आए हुए प्रभु, परिवार सहित मोतरूपी महलकी सीढ़ीके समान, उस पर्वतपर चढ़े। वहाँ दस हजार मुनियों के साथ भगवानने चतुर्दश तप (छः उपवास) करके पादपोपगमन' १-पादप वृत्त; उपगमन प्राप्त करना । अर्थात वृक्षकी तरह स्थिर रहकर अनशन किया। - - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] विषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व ९. सगं ६ अनशन किया। (22=-२६१ ) नेपालकोने, प्रभुको इस तरह रहते देख, तत्काली ये समाचार भारतको दिए। प्रभुने चनुर्विध श्राहारका त्याग किया है, यह बात सुनकर भरनेशकी ऐसा दुख हुआ जैसा शूल चुमसे होना है, जैसे वृक्ष जलबिंदु छोड़ने हैं वैसी यति शोकसे पीड़ित के आँसू गिराने लगे। फिर वे दुबार दुःखसे पीडित परिवार सहित दही की तरफ चले । उरस्नेके कठोर कंकरोंकी भी उन्होंने परवाह नहीं की। कारण:व शुत्रापि वत् ।" "वेद्य वदनाने [ की तरह शोक भी नकलीफ मालूम नहीं होनी ।] पैरोसे करेके चुनने के कारण उक्त उपने लगा; उससे उनके पैंक चिह्न जमीनपर इस तरह बन गए जिस तरह तना के निशान होने हैं। पवनपर चढ़ने की गनिमें लेशमात्र भी कमी न हो, इस ग्वालसे वे सामने थाने हुए लोगों की भी परवाह किए बगैर आगे बढ़ने जाने थे। उनके सरपर छ था तो भी, चलते हुए उनको बहुत गरमी मालुम हो रही थी। कारण "न तापों मानी जातु सुधावृष्ट्यापि शाम्यति ।" [ मनकी चिनाका नाप की वर्षा भी शांत नहीं होना | ] ती हाका सहारा देनेवाले सेवकनेवाले वृत्तीकी शास्त्रार्थी को भी, भागक तरह एक तरफ हटाने थे। नदियां हुई नौका जैसे किनारे पेड़ों की पीछे छोड़ती हुई धागे बढ़ती है वैसे भर १ श्री ने लगाया जानेवाला एक तरहका शाह रंग | Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४८३ आगे चलते हुए छड़ीदारोंको वेगसे पीछे हटाते थे। चित्तके वेगकी तरह चलनेमें उत्सुक भरतेश, पद पदपर पिछड़ जाने.वाली, चामरधारिणियोंकी राह भी नहीं देखते थे। वेगसे चलने के कारण उछल उछलकर छातीसे टकरानेके कारण टूटे हुए मोतियोंके हारकी भी उनको खबर न थी। उनका मन प्रभुके ध्यानमें था, इसलिए वे पासके गिरिपालकोंको छड़ीदारोंसे, वार . वार बुलाते थे और उनसे प्रभुके समाचार पूछते थे। ध्यानमें लीन योगीकी तरह भरतेश न कुछ देखते थे और न किसीकी बातही सुनते थे; वे केवल प्रभुका ध्यानही करते थे। वेगने मानो मार्गको कम कर दिया हो ऐसे, वे क्षणभरमें अष्टापदके पास जा पहुँचे। साधारण आदमीकी तरह पादचारी होते हुए भी परिश्रमकी परवाह न करनेवाले चक्री अष्टापद पर्वतपर चढ़े। शोक .और हर्षसे व्याकुल उन्होंने पर्यंकासनमें बैठे जगत्पतिको देखा। प्रभुको प्रदक्षिणा दे, वंदना कर, देहकी छायाकी तरह पासमें वैठ, चक्रवर्ती उपासना करने लगा। (४६२-४७६) - प्रभुका ऐसा प्रभाव है तो भी इंद्र हमपर कैसे बैठा हुआ है ?" मानो यह सोचकर इंद्रोंके आसन कॉपे। अवधिज्ञानसे आसनोंके काँपनेका कारण जान चौसठों इंद्र उस समय प्रभुके पास आए । जगत्पतिको प्रदक्षिणा दे, दुखी हो वे प्रभुके पास इस तरह निश्चल बैठे मानो चित्रलिखित (पुतले) हों। (४८०-४८२) उस दिन इस अवसर्पिणीके तीसरे आरेके निन्यानवे पक्ष बाकी रहे.थे; माघ महीनेकी बढ़ी.१३ का दिन था; पूर्वाह्नका' १- सवेरेसे दोपहर तक के समयको पूर्वान करते हैं। . . AA Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १: सर्ग६. समय था; अभिचि नक्षत्र में चंद्रका योग आया था, उस समय पर्यकासनमें बैठे उन प्रभुने बादरकाययोगमें रह, बादरकाययोग और बादरवचनयोगको रोका। फिर सूक्ष्मकाययोगका आश्रय कर बादरकाययोग, सूक्ष्ममनोयोग तथा सूक्ष्मवचनयोगको रोका। अंतमें सूक्ष्मकाययोगको भी समाप्त कर सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यानके तीसरे पाएके अंतमें प्राप्त हुए । उसके बाद उच्छिन्नक्रिय नामक शुक्लध्यानके चौथे पाएका, जिसका काल पाँच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण जितनाही है, आश्रय लिया। फिर केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, सर्व दुःखोंसे रहित, आठ कोंको क्षीण कर सर्व अर्थको निष्ठित (सिद्ध) करनेवाले, अनंत वीर्य, अनंत सुख और अनंत ऋद्धिवाले प्रभु, बंधके अभावसे ऐरंड फलके बीजकी तरह, ऊर्ध्वगतिवाले होकर, स्वाभाविक सरल मार्गके द्वारा लोकाग्रको (मोक्षको) प्राप्त हुए। दस हजार श्रमणोंको भी, अनशन व्रत ले क्षपकश्रेणीमें चढ़नेपर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ; और मन, वचन और कायके योगोंको सब तरहसे रोककर, वे भी स्वामीकी तरह तत्कालही परमपदको पाए-मोक्ष गए । (४८२-४६२) प्रभुके निर्वाण-कल्याणकके समय, सुखका लेश भी नहीं जाननेवाले, नारकियोंकी दुःखाग्नि भी क्षणभरके लिए शांत हुई। उस समय महाशोकसे आक्रांत चक्रवर्ती, वनसे पर्वतकी तरह, तत्कालही मूञ्छित होकर पृथ्वीपर गिरे । भगवानके विरहका महादुःख आ पड़ा; मगर उस समय दुःखको शिथिल करनेके कारणरूप रुदनको कोई जानता न था; इसलिए चक्रवर्तीने इस बातको बताने के लिए, तथा उसके हृदयका भार कम. Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४८५ करनेके लिए, इंद्रने चक्रीके पास बैठकर बड़े जोरसे रोना शुरू किया। इंद्रके साथ सब देवोंने भी रोना प्रारंभ किया। कारण,"समा हि समदुःखानी चेष्टा भवति देहिनाम् ।" [समान दुःखवाले प्राणियोंकी चेष्टाएँ एकसीही होती हैं।] इन सबका रोना सुन, होशमें श्रा, चक्रीने भी मानो ब्रह्मांडको फोड़ डालते हों ऐसे ऊँचे स्वरसे रोना शुरू किया। बड़े प्रवाहके वेगसे जैसे पालीबंध (बाँधकी पाल), टूट जाता है वैसेही, उस रुदनसे महाराजाकी बड़ी शोकग्रंथी भी टूट गई। उस समय देवों, असुरों और मनुष्योंके रुदनसे ऐसा मालूम होता था कि तीनों लोकोंमें करुणारसका एकछत्र राज्य है। उस समयसे जगतमें प्राणियोंके शोकसे जन्मे हुए शल्य (शूल) को विशल्य करनेवाले ( शोककी शूलको निकालनेवाले-दुःख मिटानेवाले) रुदनका प्रचार हुआ । भरत राजा स्वाभाविक धैर्यका भी त्याग कर, दुःखी हो, तिथंचोंको भी रुलाते हुए इस तरह विलाप करने लगे, __ हे तात ! हे जगवंथु ! हे कृपारससागर ! हम अज्ञानियोंको इस संसाररूपी अरण्यमें कैसे छोड़ दिया ? दीपकके बगैर जैसे अंधकारमें रहा नहीं जा सकता वैसेही, केवलज्ञानसे सग जगह प्रकाश करनेवाले आपके सिवा हम इस संसारमें कैसे रह सकेंगे ? हे परमेश्वर ! आपने छवास्थ प्राणीकी तरह मौन कैसे धारण किया है ? मौनको छोड़कर देशना दीजिए। अब देशना देकर क्यामनुष्योंपर कृपा नहीं करेंगे? हे भगवान! भाप मोक्ष जा रहे हैं, इसलिए नहीं बोलते हैं। मगर मुझे दुखी Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६] त्रिषष्टि शन्ताका पुनए-चरित्र: पत्र १. मग, नानकर मी मर व यंत्रु सुनसे क्यों नहीं बोलने हैं? हाँ ! हाँ! मैं लमना। ये ना स्वामीकही अनुगामी है। जब स्त्रामीही नहीं बोलते हैं तो ये मी ने बोलेंगे ? अहो ! मेरे सिवा दूसँग कोई गला नहीं है जो प्रापन्न अनुयायी नहीं हुआ हो । तीन लोककी रक्षा करनेवान्न श्राप, बाहुबली वगैग मेरे छोटे भाई, ब्राझी और सुंदरी बहन, पुंडरीक बगैरा मेंरे पुत्र, अंबांन वगैग मेर, पौत्र, चं नमी क्रमयी शत्रुओं का नाश कर मांच गए हैं। मगर में अब भी इन जीवनको प्रिय मानना हुया निंदा।" (४६३-५०) में शोकने निद (बैंगन्यवान ) मानो मरनेको नैयार होगेसी दशा चक्राची देखकर इंद्रन उसे मनमाना प्रारंभ किया, हमहामन्त्र मग्नु पन चन्तामन्त्रि संसार समुद्र को नैर है और इमरॉकी भी इन्दनि नारा है। किनारे के द्वारा महानदी की नरह, इनकं चलाए हुप शासन (धन) द्वारा मंसारी जीव संमार-समुद्रको नैगे। ये प्रमु बुद्र चनऋत्य हुए हैं और दूसरे लोगों को अनार्य करने के लिए लक्ष पूर्व तक दीवावस्था में रहे हैं। राजा! सब लोगोंपर अनुग्रह करके मान गए हुए इन जगत्पनि लिग, तुम शोक क्यों करतं हो ? शोक उनके लिए करना चाहिए जो मरकानहान्त्रिकबरलय चौरासी लान्त्र योनियोंने अनेक बार भ्रमण करते हैं, मगर मोजन्यान जानबालों के लिए शांक करना किसी भी तरह योग्य नहीं है। ई. राजा मायारा मनुष्यकी नरह प्रमुके लिए शोक करते तुन्द, तान क्यों नहीं पानी? शोक करनेवाल नुमकी और.शोचनीय (जिनके लिए मोक्र क्रिया नाय गले प्रयको शोक करना Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४८७ किसी भी तरह उचित नहीं है। जो एक बार प्रभुकी देशना सुन लेता है वह हर्ष या शोक किसीसे भी पराभूत नहीं होता है; तब तुमने तो कई बार प्रभुकी देशना सुनी है, फिर भी तुम कैसे शोकके वशमें हो रहे हो ? जैसे बड़े समुद्र के लिए क्षोभ, मेरुपर्वतके लिए कंप, पृथ्वीके लिए उद्वर्तन ( उड़ना), वनके लिए कुंठत्व (मोथरापन), अमृतके लिए विरसता और चंद्रके लिए उष्णता असंभव है, वैसेही तुम्हारे लिए रुदन करना भी असंभव है (असंभव होना चाहिए।) हे धराधिपति ! तुम धीरज धारण करो और अपने प्रात्माको जानो; तुम तीन जगतके स्वामी और धैर्यवान भगवानके पुत्र हो।" इस तरह गोत्रके वृद्ध मनुष्यकी तरह इंद्रने भरत राजाको प्रबोध दिया इससे, जल जैसे शीतल होता है वैसेही, भरतने अपना स्वाभाविक धैर्य धारण किया । (५१०-५२१) फिर इंद्रने तत्कालही, प्रभुके अंगका संस्कार करने के लिए साधन लानेकी श्राभियोगिक देवोंको आज्ञा की। वे नंदनवनमेंसे गोशीर्षचंदनकी लकड़ी ले आए। इंद्रके श्रादेशसे देवता ओंने पूर्व दिशामें, गोशीपचंदनकी, प्रभुके शरीरके लिए एक गोलाकार चिता वनाई, इक्ष्वाकुवंशमें जन्मे हुए दूसरे महर्षियोंके लिए दक्षिण दिशामें दूसरी त्रिकोणाकार चिता रची और दूसरे साधुओंके लिए पश्चिम दिशामें तीसरी चौरस चिता चुनी। फिर मानो पुष्करावर्त मेघ हों ऐसे देवताओंके पाससे इंद्रने शीघ्रही क्षीर समुद्रका जल मँगवाया । उस जलसे प्रभुके शरीरको स्नान कराया और गोशीचंदनके रसका उसपर लेप किया, पीछे इस लक्षणयाले (सफेद) देवदुण्य वस्त्रोंसे Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सग६. . . परमेश्वरके शरीरको ढका और दिव्य माणिक्यके श्राभूषणोंसे देवाग्रणी इंद्रन र चारों तरफसे विभूषित किया। दूसरे देवताऑने, दूसर मुनियों के शरीरोंकी इंद्रकी तरहट्ठी भक्तिसे स्ना. नादिक सभी क्रियाएं की। फिर देवनाओंने मानो अलग अलग लाग ड्रॉ ऐसे नीन जगन के सार-सार रत्नांस, हजार पुरुष उठाकर ले जा सकेंपली, नीन शिविकार तैयार की। इंद्रने प्रमुके चरणों में प्रणाम कर, स्वामीके शरीरको मस्तकपर उठा शिविकामें रग्बा । दुलर देवताओंन दुसरी शिविकाम, मोक्षमार्गके अनिथिल्प, इन्वानुवंशकं मुनियोंको, मन्तकपर उठाकर रखा और अन्य ममी साधुग्रांक शरीगेको तीसरी शिविकामे रखा। प्रभुकं शरीरवानी शिविकाको इंद्रने खुद उठाया और दूसरी शिविकायाको देवनायान उठाया। उस समय अप्सराएं, एक तरफ नालक नाथ राम कर रही थी और दूसरी तरफ मधुर न्वर गान कर रही थी। शिविकायां आगे देव, धूपदानियाँ लेकर चल रहे थे। पदानियां एक वदान प्रानो वे गेने होंगेल मालन होत थे। कई देवता शिविकाओंए: फूल डालने थे और कई प्रसादकी तरह उन फूलांको ले लेते थे। कई भागका तरफ देवदृष्य नोरण वनात थे और कई यनकर्दमसे आगे भाग छिड़काव करत जान थे। कई गोफनसे फेंके हुए पत्थरकी नगढ़ शिविक्राकं आग लोटने थे और कई मानो मोहचूर्णसे मारे गए वो ऐसे पीछ दौड़त थे। कई "ह नाय ! ई नाथ !" गले शब्द पुकारते थे और कई "अर! हम अमागे मार गए।" पसा कहकर अात्मनिंदा करते थे। कई याचना करते थे, "हे नाथ ! हमें शिक्षा दीजिए।" और कई ऋहत थे, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४] - - "हे प्रभो! अब हमारे धर्मसंशयोंको कौन मिटाएगा ?" कई "हम अंधोंकी तरह अब कहाँजाएँगे ?" कहकर पश्चात्ताप करते थे। और कई कहते थे, "हे पृथ्वी ! हमें मार्ग बता। हम तुझमें समा जाएँ।" ( ५२२-५४४ ) इस तरह व्यवहार करते और बाजे बजाते हुए देवता व इंद्र शिविकाओंको चिताओंके पास लाए। वहाँ कृतज्ञ इंद्रने, पुत्र जैसे पिताके शरीरको रखता है वैसे, प्रभुके शरीरको धीरे धीरे पूर्व दिशाकी चितापर रखा; दूसरे देवताओंने, सहोदरकी तरह इक्ष्वाकु कुलके मुनियोंके शरीरोंको दक्षिण दिशाकी चितापर रखा और योग्य बात जाननेवाले दूसरे देवताओंने, अन्य मुनियों के शरीरोंको पश्चिम दिशाकी चितामें रखा। फिर इंद्रकी आज्ञासे अग्निकुमार देवोंने उन चिताओंमें आग लगाई और वायुकुमार देवोंने हवा चलाई। इससे चारों तरफसे आग उठी और (चिताएँ) जलने लगीं। देव चिताओंमें घड़े भर भरके घी, शहद और कपूर डालने लगे। जव अस्थियोंके सिवा बाकी सभी धातु जल गई तब मेघकुमार देवोंने, क्षीरसमुद्रके जलसे चिताकी आगको ठंडा किया। सौधर्मेद्रने अपने विमानमें प्रतिमाकी तरह पूजा करने के लिए प्रभुकी ऊपरकी दाहिनी डाढ़ ग्रहण की, ईशानेंद्रने प्रभुकी अपरकी वाई डाढ़ ग्रहण की; चमरेंद्रने निचली दाहिनी डाढ़ ली और बलींद्रने नीचेकी बाई डाढ़ ली; दूसरे इंद्राने प्रभुके दूसरे दौत ग्रहण किए और अन्य देवाने प्रभुकी अस्थियां लीं। उस समय जो श्रावक आग माँगते थे उनको देवताओंने तीन कुंडोंकी आग दी। उस आगको लेनेवाले (श्रावक) अग्निहोत्र ब्राह्मण हुए। वे अपने घर जाफर Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४६०] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सग ६. प्रभुकी चिताग्निको सदा पूजने लगे और धनपति जैसे निर्वात प्रदेशमें (जहाँ हवा न हो ऐसी जगहमें। लक्षदीपकी रक्षा करते हैं वैसे वे उस आगकी रक्षा करने लगे । इक्ष्वाकुवंशके मुनियोंकी चिताग्नि यदि शांत होने लगती थी तो उसे स्वामीकी चिताग्निसे जलाते थे और दूसरे साधुनोंकी चिताग्निको, अगर ठंडी होती थी नो, इक्ष्वाकुवंशके माधुओंकी चिताग्निसे जलाते थे, मगर वे दूसरे साधुओंकी चिताग्निका, दो (प्रमुकी और इन्चायुकुल के मुनियोंकी) चिताग्नियोंके माथ, संक्रमण नहीं करते थे। यह विधि ब्राह्मणों में अब भी चल रही है। कई प्रभुकी चिताग्निकी राख लेकर उसको भनि सहित बंदना करते थे और शरीरपर लगान थे। तभीसे भन्मभूयणचारी तापस हुए। (५४५-५६१) फिर मानो अष्टापद गिरि नए नीन शिखर हों ऐसे, उन चिताओंके स्थान में, देवताओंन रत्नकें तीन स्तूप बनाए । वहाँसे उन्होंने नंदीश्वरद्वीप जाकर, साधन प्रतिमा के समीप अष्टाह्निका उत्सव क्रिया और फिर इंद्र सहित सभी देवता अपने अपने न्यानोपर गए। वहाँ वे अपने अपने विमानों में सुधर्मा सभा ओंके अंदर माणवक लंमपर वन्नमय गोल डिब्बाम प्रभुकी डाढ़े रखकर प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगे। इसके प्रभावसे उनके लिए हमेशा विजयमंगल होने लगे। (५६२-५३५) . . . भरतका अष्टापदपर मंदिर बनवाना . मरन गलाने प्रभुक संस्कारके समीपकी भूमिपर तीन कोस ऊंचायोरमानामोक्षमंदिरकी वैदिकाहो ऐसा सिंहनिपद्या' Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४६१ (सिंहोंकीसी बैठकवाला) नामका प्रासाद ( मंदिर ) रत्नमय पाषाणसे, वार्द्धकि रत्नके पाससे वनवाया। उसकी चारों तरफ, प्रभुके समवसरणकी तरह, स्फटिक रत्नके चार रमणीक द्वार बनवाए और हरेक द्वारके दोनों तरफ शिवलक्ष्मीके भंडारके . . जैसे रत्नचंदनके सोलह कलश बनवाए। हरेक द्वारपर मानो साक्षात पुण्यवल्ली हो ऐसे सोलह सोलह रत्नमय तोरण वनवाए। प्रशस्ति लिपिके जैसी अष्टमंगलकी सोलह सोलह पंक्तियाँ रची, और मानो चार दिग्पालोंकी सभाओंको वहाँ लाए हों ऐसे विशाल मुख्य मंडप करवाए। उन चार मुख्य मंडपोंके आगे चलते हुए श्रीवल्ली मंडपके अंदर चार प्रेक्षासदन (नाटकगृह ) मंडप कराए। उन प्रेक्षामंडपोंके बीच में सूर्यधिवका उपहास करनेवाले वनमय अक्षवाट (जूआ खेलनेके स्थान ) बनवाए । और हरेक अक्षवाटके बीच में कमलमें कर्णिका (करनफूल) की तरह एक एक मनोहर सिंहासन बनवाया। प्रक्षामंडपके आगे एक एक मणिपीठिका रचाई। उनपर रत्नोंके मनोहर चैत्यस्तूप वनवाए । हरेक चैत्यम्तूपमें आकाशको प्रकाशित करनेवाली, हरेक दिशामें, बड़ी मणिपीठिकाएँ रची। उन मणिपीठिकाओंके ऊपर, चैत्यस्तूपके सामने, पाँच सौ धनुप प्रमाणवाली रत्ननिर्मित अंगोंवाली ऋपमानन, वर्द्धमान, चंद्रानन, व वारिपेण इन चार शाश्वत नामांकी जिनप्रतिमाएं स्थापन कीं; पर्यकासनमें बैठी, मनोहर, नेत्ररूपी कमलिनीके लिए चंद्रिकाके समान वे प्रतिमाएँ ऐसी थी जैसी नंदीश्वर महाद्वीपके चैत्यके अंदर है। हरेक चैत्यस्तूपके आगे अमूल्य, माणिक्यमय, विशाल, . सुदर पीठिका (चबूतरी ) बनवाई । हरेक पीठिकापर एक एक - - - Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष १. सर्ग ६. चैत्यवृक्ष बनवाया। हरेक चैत्यवृक्षके पास दूसरी एक एक मणिपीठिका बनवाई; और प्रत्येकपर एक एक ईध्वज वनवाया। वे इंद्रध्वज ऐसे जान पड़ते थेमानो हरेक दिशाम धर्मने अपने जयस्तंन रोपे हो। हरेक इंदचजके आगे तीन सीढ़ियों और तोरणांवाली नंदा नामक पुष्करिणी (बावड़ी) बनवाई। स्वच्छ, शीनल जलसे भरी हुई और विचित्र कमलोंसे मुशोमित वे बावड़ियाँ दृषिमुन्न पर्वतकी आधारभूत पुष्करिणी के समान मनोहर मालूम होती थीं 1 (५६६-५८५) उस सिंहनिषद्या नामक महाचैत्यके मध्यमागमें बड़ी मणिपीठिका वनवाई और समवसरणकी तरहही उसके मध्यभागमें विचित्र रत्नमय एक देवछंदक रचा। उसपर अनेक तरहके रंगोंक बन्नका चंदोत्रा बनवाया। वह असमयमें भी संध्या समयके बादलोंकी शोभा उत्पन्न करता था। उस चंदोवेके अंदर और बाजूने भी वचमय अंश बनवाए थे; तो भी चंद्रोवेकी शोमा तो निरंकुश हो रही थी। उन ग्रंकुशाम कुंभके समान गोल आँवलेके फल जैसे मोटे मोतियोंके, अमृतधाराके जैसे, हार लटक रहे थे। उन हारों के प्रांत (अगले ) भागोंमें निर्मल मणिमालिकाएँ बनाई थी; मणियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो वे तीन लोकमें रही हुई मणियोंकी खानामसे नमूनेके लिए लाई हुई हो। मणिमालिकाओंके अगले भागों में रही हुई निर्मल वन्नमालिकाएँ, सखियोंकी तरह, अपनी कांतिरूपी भुजाओंसे, परस्सर आलिंगन करती हो ऐसी मालूम होती थीं। इस चैत्यकी दीवारों में विचित्र मणिमय गवान (मरोखें) बनवाए थे। उनकी प्रभापटलस (प्रकाशसमूहसें) ऐसा मालम Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४३ होता था मानो उनमेंसे यवनिकाएँ (परदे ) उत्पन्न हुई हैं। उनमें जलते हुए अगरके धूपके धूंएके समूह, उन पर्वतपर नई बनी हुई नीलचूलिकाका भ्रम कराते थे। (५८६-५६४) पूर्वोक्त मध्य देवछंदके ऊपर शैलेशी ध्यान में रत हों ऐसी हरेक प्रभुके अपने अपने देहके प्रमाण जितनी,अपने अपने देहके वर्णवाली, मानो हरेक प्रभु आपही विराजमान हों ऐसी ऋषभस्वामी वगैरा चौबीस अहंतोंकी निर्मल रत्नमय प्रतिमाएँ बनवाकर स्थापन की गईं। उनमें सोलह प्रतिमाएँ रत्नकी, दो प्रतिमाएँ राजवर्त रत्नकी (श्याम ), दो स्फटिक रत्नकी (श्वेत), दो वैडूर्य मणिकी ( नीली) और दो शोणमणिकी (लाल ) थीं। उन सब प्रतिमाओंके रोहिताक्ष मणिके ( लाल ) आभासवाले अंकरत्नमय ( सफेद ) नख थे और नाभि, केशके मूल, जीभ, तालु, श्रीवत्स, स्तनभाग तथा हाथ-पैरोंके तलुए, ये स्वर्णके (लाल) थे; बरौनी (पलकोंके केश, ) आँख की पुतलियों, रोम, भौंहें और मस्तकके केश रीष्टरत्नमय (श्याम) थे। ओंठ प्रवालमय (लाल) थे, दाँत स्फटिक रत्नमय । सफेद ) थे, मस्तकका भाग यज्ञमय था और नासिका अंदरसे रोहिताश मणि (लाल) के प्रतिसेक (आभास) वाली-स्वर्णकी थी। प्रतिमाओंकी आँखें लोहिताक्ष मणिके प्रांतभागवाली और अकमणिसे बनी हुई थीं। इस तरह अनेक प्रकारकी मणियोंसे बनी हुई वे प्रतिमाएँ अत्यंत शोभती थीं। (५६५-६०२) हरेक प्रतिमाके पोछे, यथायोग्य मानवाली (प्रमाणके अनुसार) छत्रधारिणी, रत्नमय एक एक पुनली थी। हरेक Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष - चरित्र: पर्व ९. सूर्य ६. पुतलीके हाथमें कुरंटकः पुष्पों की नालाचोंसे युक्त मोतियों नया प्रवालोंसे गुँया हुआ और स्फटिकमणिके दंडवाला सफेद छत्र था । हरेक प्रतिमाकी दोनों तरफ रत्नकी, चामरधारिणी, दो दो पुतलियाँ थीं; और सामने नाग, यज्ञ, भूत और कुंडबारिणी दो दो पुनलियाँ थीं। हाथ जोड़के खड़ी हुई और सारे शरीरमें उजली वे नागादिक देवोंकी रत्नमय पुनलियाँ ऐसी शोभती थीं, मानो नागादि देवही वहां बैठे हो । (६०३-६०७ ) देवके ऊपर उनके रत्नों के चौबीस घंटे, संक्षिप्त किए हुए सूर्यचित्र के जैसे माणिक्योंके दर्पण, उनके पास योग्य स्थानोंपर रखी हुई सोने की दीवडे, रत्नों के करंडिए, नदीमें उठनेवाली भँवरीके समान गोलाकार फूलोंकी चोरियाँ, उत्तम अंगोछे, आभूषणों की पेटियाँ, सोनेकी धूपदानियाँ व आरनियाँ, रत्नों के मंगलदीपक, रत्नों की मारियाँ, मनोहर रत्नमय थाल, सोनेके पात्र, रत्नोंके चंद्रकलश, रत्नोंके सिंहासन, रत्नोंके अष्टसंगलीक, तेल के सोने के गोल डिब्बे, धूप रखने के लिए सोनेके पात्र, और सोने के उन्नत्तहस्तक', ये सारी चीजें चौबीसों श्रतोंकी प्रतिमाओं के पास प्रत्येक प्रतिमाके पास ये सभी सत्रह सत्रह चीजें रखी थीं। इस तरह, तरह तरहके रत्नोंका तीन लोकमं श्रति सुंदर चैत्य,भरत चक्रीकी चाज्ञा होते ही, सब तरहकी कलाओंको जाननेत्रान्ते वर्द्धकी बहनने, तत्कालही विधिके अनुसार बना दिया । मानो मूर्तिमान धर्म हो ऐसे चंद्रकांत मणिके गढ़से, तथा दीवारों पर चित्रित किए गए ईहामृगों (भेड़ियों), बैलों, मगरों, १–कुरंडक या कूरंडिका एक पीले फूलोंवाला पौधा । इसे कटसरैया भी कहते हैं । २- सोने कनक बने हुए करवाल । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४६५ घोड़ों, मनुष्यों, किन्नरों, पक्षियों, बालकों, रुरुमृगों (काले हिरनों ), अष्टापदों, चमरीमृगों (सुरा गायों), हाथियों, वनलताओं और कमलों के चित्रोंसे, विचित्र और अद्भुत रचनावाला, वह चैत्य घने वृक्षोंवाले उद्यानके समान शोभता था । उसके आस पास रत्नोंके खंभे थे । मानो आकाशगंगाकी तरंगें हों ऐसी पताकाओं से वह चैत्य मनोहर लगता था । ऊँचे सोने के ध्वजदंडों से वह उन्नत मालूम होता था । निरंतर प्रसरती (हवा में उड़ती ) पताकाओं की घुघरियोंकी आवाज विद्याधरोंकी कटि-मेखलाओं (कंदोरों) की ध्वनिका अनुसरण करती थीं। उसके ऊपर विशाल कांतिवाले, पद्मराग मणिके डोसे वह चैत्य . माणिक्य जड़ी हुई मुद्रिकावाला हो ऐसा शोभता था । किसी जगह वह पल्लवित हो, किसी जगह वह बखतरवाला हो और - किसी जगह वह रोमांचित हो और कहीं किरणोंसे लिप्त हो ऐसा मालूम होता था । गोरुचंदन के रसमय तिलकों से वह चिह्निन किया गया था। उसकी चुनाईका हरेक जोड़ ऐसा मिला हुआ था कि वह चैत्य एकही पत्थरका बना हुआासा मालूम होता था । उस चैत्यके नितंबभागपर विचित्र हाव-भाव से मनोहर दिखाई देती माणिक्यकी पुतलियाँ रखी थीं, उनसे वह अप्सराओं से अधिष्ठित मेरुपर्वतके जैसा शोभता था । उसके द्वारके दोनों तरफ चंदनरस से पुते हुए दो कुंभ रखे थे; उनसे वह द्वारपर खिले हुए दो श्वेतकमलोंसे अंकित हो ऐसा मालूम होता था । धूपित करके तिरली बाँधी हुई, लटकती मालाओं से वह रमणीक (सुंदर) जान पड़ता था । पाँच रंगों के फूलोंसे उसके तलभागपर, सुंदर प्रकर ( गुलदस्ते ) बने हुए थे । यमुना नदीसे जैसे Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. कलिंदपर्वत प्लावित (भीगा हुआ) रहता है वैसेही कपूर,अगर और कस्तुरीसे बनाए गए घपके धुंएसे वह सदा व्याप्त ( भरा) रहता था। अगली दोनों तरफ और पीछे सुंदर चैत्यवृक्ष तथा माणिक्यकी पीठिकाएँ रची हुई थीं; उनसे वह आभूषणोंकी तरह सुशोभित होता था। और अष्टापद पर्वतके शिखरपर, मानो मस्तकके मुकुटका माणिक्यभूषण हो तथा नंदीश्वरादि चैत्योंकी मानो स्पद्धा करता हो ऐसा वह पवित्र जान पड़ता था। (६०८-६२६) उस चैत्यमें भरत राजाने अपने निन्यावे भाइयोंकी दिव्य रत्नमय प्रतिमाएँ भी बैंठाई और प्रभुकी सेवा करती हुई एक अपनी प्रतिमा भी वहाँ स्थापित की। यह भीभक्तिम अतृप्तिकाएक चिह्न है। चैत्यके बाहर भगवानका एक स्तूप (चरणपादुकाका छोटासा मंदिर) बनवाया। उसके पासही अपने निन्यानवे भाइयोंके स्तूप भी बनवाए। वहाँ आने जानेवाले पुरुप उनकी आसातना न करें यह सोचकर लोहेके यंत्रमय आरक्षक (चौकीदार) पुरुप वहाँ खड़े किए। उन लोहेके यंत्रमय पुरुपोंके कारण वह स्थान मृत्युलोकसे बाहर हो ऐसे मनुष्योंके लिए अगम्य हो गया। फिर चक्रवर्तीने डरत्नसे उस पर्वतके दंदाने-दाँत बना दिए, इसलिए वह पर्वत सीधा और ऊँचा खंभेसा हो गया; और लोगोंके चढ़ने जैसा न रहा। फिर चक्रवर्तीने उस पर्वतके चारों तरफ मेखलाके समान और मनुष्य जिनको न लाँघ सके ऐसे, एक एक योजनके अंतरसे आठ सोपान जीने) बनाए । तभीसे उस पर्वतका नाम अष्टापद प्रसिद्ध हुआ। अन्य लोग उसे हराद्रि (महादेवका पर्वत), कैलाश और स्फटिकाद्रिके नामसे भी जानने लगे। (३३०-६३७) Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४६७ ...... इस तरह चैत्यनिर्माण करा, उसमें प्रतिष्ठा करा, चंद्र जैसे बादलोंमें प्रवेश करता है वैसेही, चक्रवर्तीने सफेद वस्त्र . धारण कर, उसमें प्रवेश किया। परिवार सहित प्रदक्षिणा दे .. महाराजाने उन प्रतिमाओंको, सुगंधित जलसे स्नान कराया और देवदुष्य वनसे पोंछा; इससे वे प्रतिमाएँ रत्नके आदर्शकी तरह अधिक उज्ज्वल हुई। फिर उसने चंद्रिकाके समूहसे निर्मलगा और सुगंधितगोरुचंदनके रससे प्रतिमाओंपर विलेपन किया और विचित्र रत्नोंके आभूषणों, दिव्य मालाओं और देवदुष्य पत्रोंसे उनकी अर्चना की। घंटा बजाते हुए धूप दिया जिसके धुएँकी श्रेणियोंसे उस चैत्यका अंतर्भाग, मानो नीलवल्लीसे अंकित हो ऐसामालूम होने लगा। उसके बाद, मानो संसाररूपी शीतके भयसे डरे हुए मनुष्यके लिए जलता अग्निकुंड हो ऐसी कपूरकी आरती उतारी। (६३८-६४४) _ इस तरह पूजा कर, ऋषभस्वामीको नमस्कार कर, शोक और भयसे आक्रांत हो (अर्थात अति शोक और भयभीत हो) चक्रवर्तीने इस तरह स्तुति की, "हे जगत्सुखाकर ! हे तीन लोकके नाथ ! पाँच कल्याणकोंसे नारकियोंको भी सुख देनेवाले! श्रापको मैं नमस्कार करता हूँ। सूर्यकी तरह विश्वका हित करनेवाले हे स्वामी! आपने हमेशा विहार करके इस चरा. चर जगतके ऊपर अनुग्रह किया है। आर्य और अनार्य इन .दोनोंपर प्रीति होनेसे आप सदा विहार करते थे, इससे (जान पड़ता है कि ) पवनकी और आपकी गति परोपकारके लिए ही है।हे प्रभो ! इस लोकमें मनुष्योंका उपकार करने के लिए आपने ३२ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. बहुत समयतक विहार किया था, मगर मुक्तिमें किसका उपकार करनेके लिए आप गए हैं ? आप जिस लोकाग्रमें गए हैं वह सचमुचही लोकाग्र (मोक्ष) हुआ है। और आपने जिसे छोड़ दिया है वह मर्त्यलोक वास्तव में मर्त्यलोक (मर जाने योग्य) हुआ है। हे नाथ ! जो विश्वका उपकार करनेवाली आपकी देशनाको याद करते हैं वे भव्य प्राणी अब भी आपको साक्षातसामनेही देखते है और जो श्रापका रुपस्थ (आकृतिका) ध्यान करते हैं उन महात्माओंके लिए भी आप प्रत्यक्ष ही है । हे पर. मेश्वर ! जैसे आपने ममता-रहित होकर सारे संसारका त्याग किया है उसी तरह अब मेरे मनका त्याग कभी न कीजिए।" (६४५-६५३) १-इस तरह श्रादीश्वर भगवानकी स्तुति करनेके बाद हरेक जिनंद्रकीभी, उनकोवंदना कर करके इस तरह स्तुति की। २-विपय-कपायोंसे अजित, विजयामाताकी कोखमें माणिक्यरूप और जित राजाके पुत्र हे जगतके स्वामी अजितनाथ ! आपकी जय हो! ३.संसाररूपी आकाशका अतिक्रमण करनेम (लाँघनेम) सूर्यरूप, श्रीसनादेवीके गर्मात्पन्न जितारि रानाके पुत्र हे संभवनाथ ! में आपको नमस्कार करता हूँ। -संवर राजाके वंशमें ग्रामपणरूप, सिद्धाथा देवीरूपी पूर्व दिशामें सूर्यके समान और विश्वके लिए आनंददायी हे अभिनंदन स्वामी! आप हमको पवित्र कीजिए। ५-मेघराजाके वंशरूपी वनमें मेषके समान और मंगला - Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४६६ - - - - - मातारूपी मेघमालामें मोतीरूप हे सुमतिनाथ ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। ६-धर राजारूपी समुद्रके लिए चंद्रमाके समान और सुसीमादेवीरूपी गंगा नदीमें कमलके समान हे पद्मप्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। ७-श्रीप्रतिष्ठ राजाके कुलरूपी घरके प्रतिष्ठास्तंभरूप और पृथ्वी मातारूपी मलयाचलमें चंदनके समान हे सुपार्श्वनाथ ! मेरी रक्षा कीजिए। -महसेन राजाके वंशरूपी आकाशमें चंद्रमाके समान और लक्ष्मादेवीकी कोखरूपी सरोवरमें हंसके समान हे चंद्रप्रभो! आप हमारी रक्षा कीजिए। -सुग्रीव राजाके पुत्र और श्रीरामादेवीरूप नंदनयनकी भूमिमें कल्पवृक्षरूप हे सुविधिनाथ ! हमारा कल्याण शीघ्र कीजिए। १०-दृढरथ राजाके पुत्र, नंदादेवीके हृदयफे आनंदरूप और जगतको अह्लादित करने में चंद्रमाके समान हे शीतलत्वामी! आप हमारे लिए आनंददायी हजिए। ११-श्रीविष्णुदेवीके पुत्र, विष्णु राजाके वंशमें मोतीके समान और मोक्षरूपी लक्ष्मीके भार हे श्रेयांसप्रभो! आप हमारे कल्याणका कारण बनिए । १२-वसुपूज्य राजाके पुत्र, जयादेवी रूपी विदुर पर्वतकी भूमिमें रत्नरूप और जगतके लिए पूज्य हे वासुपूज्य ! प्राप मोक्षलक्ष्मी दीजिए। - - Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.०] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग६. - १३-कृतवर्म राजाके पुत्र और श्यामादेवीरूप शमीवृक्षमेंसे प्रकटी हुई अग्निके समान हे विमलस्वामी! आप हमारा मन निर्मल कीजिए। १४-सिंहसेन राजाक कुलमें मंगलदीपक और सुयशादेवीके पुत्र हे अनंतभगवान ! आप हमें अनंत सुख दीलिए । १५-मुत्रतादेवीरूप उन्याचलकी तटी (नदी में सूर्यरूप और भानु राजाके पुत्र हे धर्मनाथ प्रभो ! मेरी बुद्धिको धर्ममें स्थापन कीजिए। १६-विश्वसेन राजाकं कुलमें आभूषणरूप और अचिरादेवीके पुत्र हे शांतिनाथ भगवान ! आप हमारे कमांकी शांतिका कारण बनिए। १७- शूर राजाके वंशरूप आकाशमें सूर्यके समान, श्रीदेवीके उदरसे जन्मे हुए और कामदेवका उन्मन (वध ) करनेवाले हे जगत्पति कुंथुनाथ ! आपकी जय हो। १८-सुदर्शन राजाके पुत्र और देवी-मातारूप शरदलक्ष्मीमें कुमुदके समान हे अरनाथ ! आप मुझे संसार पार करनेरूप वैभव दीजिए १६-कुंमग़जाप समुद्रमें अमृतकुंमके समान और कोका तय करनेको महामल्लके समान प्रभावती देवीसे जन्मे हुए है मल्लिनाथ ! आप मोक्षलक्ष्मी दीजिए। २०-मुमित्र राजारूपी हिमाचल में पद्महक समान और पद्मावती देवी पुत्र हे मुनिमुत्रत प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ५.०१ २१ - वप्रादेवीरूप व नानकी पृथ्वी में वष्त्रके समान, विजय राजा के पुत्र और जिनके चरणकमल जगत के लिए पूज्य हैं ऐसे हे नमि प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । २२- समुद्र (विजय) को आनंदित करने में चंद्रमा के समान, शिवा देवीके पुत्र और परम दयालु, मोक्षगामी हे श्ररिष्टनेमि भगवान ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । २३- अश्वसेन राजा के कुल में चूड़ामणिरूप और वामादेवी - पुत्र हे पार्श्वनाथ ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ । के २४ - सिद्धार्थ राजा के पुत्र, त्रिशला माता के हृदय के श्राश्रासनरूप और सिद्धिप्राप्तिकं अर्थको सिद्ध करनेवाले हे महावीर प्रभो ! मैं आपको वंदना करता हूँ । ( ६५४ - ६७७ ) 1 इस तरह प्रत्येक तीर्थंकरको स्तुतिपूर्वक नमस्कार करके महाराजा भरत उस सिंहनिपया चैत्यसे बाहर निकले और प्रिय मित्र की तरह उस सुंदर चैत्यको पीछे फिर फिरकर देखते हुए पद पर्वतसे नीचे उतरे। उनका मन उस पर्वत में लगा हुआ था इसलिए, मानो वस्त्रका पल्ला कहीं अटक गया हो ऐसे अयोध्यापति मंदगति से अयोध्या की तरफ चले । शोकके पूरकी तरह सेना से उड़ी हुई रजके द्वारा दिशाओंको प्राकुल करते हुए, शोकार्त चक्रवर्ती प्रयोध्या के पास पहुँचे । मानो चक्रीके सहोदर हों ऐसे, उनके दुःखसे अत्यंत दुःखी बने हुए नगरजनों की सूभरी से सन्मानित महाराज विनीता नगरीमें पहुँचे। फिर भगवानको याद कर-करके वर्षा के बाद शेष बचे हुए मेघकी तरह, अश्रुबिंदु टालते हुए वे अपने राजमहल में Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] त्रिषष्टि शताका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. गए। जिसका द्रव्य लुट जाना है वह मनुष्य गतदिन जैसे धनकाही ध्यान क्रिया करता हैएस ही प्रगुरुपी धनके चले जानसे वे उटन-चठन, चलने-फिरन, सात-जागन, और बाहर-अंदर रात-दिन प्रभुका हीध्यान करने लगे। किसी भी कारणले अष्टापद पवतकी तरफले यानवान पुरुयाँको, मानो व प्रभुकं कुट समाचार देन श्राप होगसे, पहले ही की तरह सन्मान करने लगे । (६५-६८५) इस नरह, महाराजको शोकाष्ठत दन्त मंत्री उनसे कहन लंग, 'हे नहागना ! अापक पिता श्रीलयमदेव प्रमुन पहले गृहवास में रहकर, मी, मायोकलमान अज्ञानी लोगोंको व्यव. हारनीतिमें चलाया, उसके बाद दीक्षा ली और थोड़े ही काल बाद कंवलज्ञानी हुप । बलहान पाकर इस जगत के लोगोंका, भवसमत नहार. करन लिए, उन्हें धर्म लगाया। श्रतम स्वयं जनार्थ हो आँगको ताय कर परमपदको पाए। ऐसे परम प्रनुका श्राप शोर क्यों करन है ।" इसतरह ने सलाह पाप हप चक्रवर्ती धारधार गजकं कामकाज करने लगे। (६५६-६८६) गहन मुक्त चंद्रमाक्री तरह घार घार शोकमुक्त बने हुए मरन चक्री वाहर विहारममिमें विचरण करने लगे। विध्याचलको याद करनेवान गजेंद्रकी तरह प्रमुक चरणोंका स्मरण कर करक विषाद ऋरनवाल महाराजापाल श्राकर रिश्तेदार उन्हें मृदा प्रसन्न करने लगे। इनसे कई बार परिवारकं श्राग्रह विनोद उत्पन्न करनेवाली ज्यानमुनि जान लगार यहाँ मानो त्रियांना ही राज्य हो पने मुंदर मियाँक समूहके साथ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [५८३ लतामंडपकी रमणीक शय्याओंमें रमण करने लगे। वहाँ कुसुम हरण करनेवाले विद्याधरोंकी तरह युवान पुरुपोंकी पुष्पचयनकी क्रीड़ाको वे कौतुकसे देखने लगे; कामदेवकी पूजा करती हों ऐसे, वारांगनाएँ फूलोंकी पोशाकें गूंथ गूंथकर महाराजको भेट करने लगी; मानो उनकी उपासना करने के लिए असंख्य श्रुतियाँ एकत्रित हुई हों ऐसे, नगरनारियों सारे शरीरमें फूलोंके गहने पहन कर उनके आसपास क्रीड़ा करने लगी, और ऋतुदेव. ताओं के एक अधिदेवता (रक्षक) हों ऐसे सारे शरीरपर फूलोंके आभूषण पहनकर, उन सबके बीचमें महाराजा भरत शोभने लगे। (६६०-६६७) कभी कभी वे अपने स्त्रीवर्गको साथ साथ लेकर राजहंसकी तरह कीढ़ावापीमें,स्वेच्छासे क्रीड़ा करने के लिए जाने लगे। हाथी जैसे नर्मदा नदी में हथिनियों के साथ क्रीड़ा करताहै वैसेही वहाँ वे सुंदरियोंके साथ जलक्रीड़ा करने लगे। जलकी तरंगें, मानो उन्होंने सुंदरियोंसे शिक्षा ली हो ऐसे, क्षणमें कंठमें, क्षणमें भुजामें और क्षणमें हृदयमें, उनका आलिंगन करने लगीं; इससे उस समय, कमलके करणाभरण और मोतियों के कुंडल धारण करनेवाले महाराजा, मानो साक्षात वरुणदेव हों ऐसे जलमें शोभने लगे; मानो लीलाविलासके राज्यपर महा. राजाका अभिषेक करती हों ऐसे, "में पहली ! में पहली !" सोचती हुई स्त्रियों उनपर जलका सिंचन करने लगी। मानो अप्सराएँ हों, मानो जलदेवियाँ हो, ऐसे चारों तरफ रही हुई और जलक्रीसामें तत्पर ऐसी उन रमणियों के साथ चकीने बहुत समयतक क्रीड़ा की। अपनी स्पर्दा करनेवाले कमलाक Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ । त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १ सर्ग ६. दर्शनसे मानो गुस्से हुईं हों ऐसे मृगाक्षियोंकी आँखें लाल हो गई, और अंगनाओंके अंगोंसे गल गलके उतरे गाढ़े अंगरागसे कीचड़वाला बना हुआ वह जल यक्षकर्दमसा हो गया। इसी तरह चक्रवर्ती बार बार क्रीड़ा करते थे। (६६७-७०५).. " ___एक बार इसी तरह जलक्रीड़ा करके महाराजा भरत इंद्रकी तरह संगीत कराने के लिए विलासमंडपमें गए। वहाँ वेणु बजानेवाले उत्तम पुरुष मंत्रोंमें ॐकारकी तरह संगीत कर्ममें प्रथम ऐसे मधुर स्वर वेणुमें भरने लगे। वीणा बजानेवाले, कानोंको सुख देनेवाले और व्यंजन धातुओंसे स्पृष्ट ऐसे पुष्पादिक स्वरों द्वारा ग्यारह तरहकी वीणा बजाने लगे। सूत्रधार अपने कविपनका अनुसरण करते हुए, नृत्य तथा अभिनयकी माताके समान प्रस्तार-सुंदर नामकी ताल देने लगे। मृदंग और प्रणव नामके बाजे बजानेवाले, प्रियमित्रकी तरह परस्पर थोड़ासा भी संबंध छोड़े वगैर अपने वाद्य बजानेलगे। 'हा हा' और 'हू हू' नामक देवताओंके गंधोंका अहंकार मिटानेवाले गायक स्वरगीतिसे सुंदर ऐसे नई नई शैलियों (तजों) के रागोंको गाने लगे। नृत्य और तांडव में चतुर नटियाँ विचित्र । प्रकारके अंगविक्षेपोंसे सबको अचरजमें डालती हुई नाचने । लगीं। महाराजा भरतने ये देखने योग्य नाटक निर्विघ्नरूपसे देखे । कारण, समर्थ पुरुष चाहे कैसाही व्यवहार करें उनको कौन रोक सकता है ? इस तरह संसारका सुख भोगते हुए भरतेश्वरने प्रभुके मोक्ष जाने के बाद पाँच लाख पूर्व बिताए । (७०६-७१४) ..भरतका वैराग्य, केवलज्ञान व मोक्ष एक दिन भरतेश्वर स्नान कर, बलिकर्मकी कल्पना कर, Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ५०५ देवदूष्य वखसे शरीरको साफ कर, केशोंमें पुष्पमाला गूंथ, गोशीर्षचंदनका सारे शरीरमें लेप कर, अमूल्य और व्य रत्नोंके आभूषण सारे शरीर में धारण कर, अंतःपुरकी अनेक स्त्रियों के साथ, छड़ीदार के बताए हुए मार्ग से अंतःपुर के अंदर के रत्नमय आदर्शगृहमें गए। वहाँ आकाश और स्फटिकमणिके जैसे निर्मल तथा अपने सारे अंगका प्रतिबिंब देखा जा सके ऐसे मनुष्यकी आकृति के जितने बड़े दर्पण में अपने स्वरूपको देखते हुए महाराजाकी अँगुलीमेंसे मुद्रिका निकल पड़ी। जैसे कला करते समय मोरका एकाध पंख गिर पड़े और उसे पता भी न चले वैसे ही महाराजाको, उनकी अँगुली से गिरी हुई अँगूठी का पता न चला। धीरे धीरे शरीर के सारे भागको देखते हुए, उन्होंने दिनमें चंद्रिका बिनाकी चंद्रकलाकी तरह अपनी अँगूठीरहित अँगुलीको कांतिहीन देखा । "अरे ! यह अँगुली शोभार हित कैसे है ?" यो सोचते हुए भरत राजाने जमीनपर पड़ी हुई मुद्रिका देखी । वे विचार करने लगे, "क्या दूसरे अंग भी विना आभूपणोंके इसी तरह शोभाहीन मालूम होते होंगे ?" फिर उन्होंने धीरे धीरे दूसरे आभूषण भी उतारने आरंभ किए । (७१५-२४२३) पहले मस्तक से माणिक्यका मुकुट उतारा इससे मस्तक रत्नविनाकी मुद्रिका जैसा दिखाई दिया। फानोंसे माणिक्य के कुंडल उतारे, इससे दोनों फान चौद और सूरजहीन पूर्व और पश्चिम दिशाओं के समान मालूम होने लगे । कंठाभूषण हटानेसे उनका गला जल बिनाकी नदीके समान शोभाहीन मालम Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] त्रिषष्टि शलाका पुत्प-चरित्रः पत्र १. सर्ग६. होने लगा। वक्षस्थल (छाती ) से हार हटा दिया, इससे वह तारोंरहित आकाशसा शून्य दिखने लगा। भुजबंध निकालनेसे दोनों हाथ लताके वेष्टनसे रहित दो सालवृक्षोंके समान मालूम होने लगे। हाथोंके मूलमेंसे कड़े निकाल डाले, इससे वे आमलसारक विनाके प्रासादकी तरह मालुम होने लगे। दूसरी सभी अँगुलियाँस अँगूठियाँ निकाल डाली,इससे वे मणिरहित सपके फनके जैसी मालूम होने लगी। पावाँसे पादकटक' निश्चल दिए, इससे पैर राजहस्तिके स्त्रणकंकड़ोंरहित दाँतोंके समान दिखने लगे। सभीआभूषण निकाल देनेसे उनका शरीर पत्रहीन वृक्षकी तरह दिखने लगा। इस तरह अपने शरीरको शोभाहीन देखकर महाराजा विचार करने लगे, "अहो ! इस शरीरको धिक्कार है! जैसे चित्र बनाकर दीवारकी कृत्रिम शोमा कीजाती है, ऐसेही शरीरकी भी आभूषणोंसे कृत्रिम शोभा की जाती है। अंदर विष्टादिके मलसे और बाहर मूत्रादि के प्रवाहसे मलिन इस शरीरमें, विचार करनेसे, कुछ भी शोभनीय नहीं मालूम होता। खारी जमीन जैसे वर्षाके तलको दूषित करनी है वैसेही यह शरीर, विलेपन किए हुए कपूर और कस्तरी वगैराको भीषित करता है। जो विषयोंका त्याग कर मोक्षफल देनवाला तप तपते हैं वे तत्वके जानकार पुल्पही इस शरीरका फल ग्रहण करते है। इस तरह विचार करते हुए सम्यक प्रकारसे अपूर्वकरणके अनुक्रमसे आपकश्रेणीमें अल्ड हुए और शुक्लव्यानको पाए हुए उन महाराजको, जैसे बादलों ?-रीका एक श्राभूषण। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [५०७ के मिटनेसे सूर्य प्रकाशित होता है वैसेही, घातिकर्मों के नाशसे केवलज्ञान प्रकट हुआ। (७२३-७३८) उस समय तत्कालही इंद्रका आसन काँपा। कारण,'महद्भ्यो महतामृद्धिमपि शंसंत्यचेतनाः ॥" [अचेतन वस्तुएँ भी महान पुरुषोंकी महान समृद्धि घता देती हैं।] अवधिज्ञानसे जानकर इंद्र भरत राजाके पास आया। भक्त पुरुप स्वामीकी तरह स्वामीके पुत्रकी भी सेवा करते हैं; मगर जब पुत्रको भी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया तब वे क्या न करें ? इंद्रने वहाँ आकर कहा," हे केवलज्ञानी ! श्राप द्रव्यलिंग स्वीकार कीजिए जिससे मैं आपको वंदना कद और आपका निष्क्रमण ( गृहत्याग ) उत्सव कर।" भरतने भी उसी समय बाहुबलीकी तरह पाँच मुट्ठी केशलोचन रूप दीक्षाका लक्षण अंगीकार किया और देवताओंके द्वारा दिए गए रजोहरण वगैरा उपकरणोंको स्वीकार किया। उसके बाद इंद्रने उनको चंदना की। कारण,"न जातु वंद्यते प्राप्तकेवलोपि ह्यदीक्षितः ।" (७४४) [केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी प्रदीक्षित पुरुषको वंदना नहीं की जाती। उसी समय भरत चमोके आश्रित दस हजार राजाओंने भी दीक्षा ली। कारण, वैसे स्वानीकी सेवा परलोकमें भी सुख देनेवाली होती है । ( 16-७४५) फिर पृथ्वीका भार सहन करनेवाले भरत चमावर्ती के पुत्र मादित्ययशाफा इंद्रने राज्याभिषेक किया। (७४६ ) Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] त्रिषष्टि शलाका पुन्य-चरित्र: पर्व १. मग६. केवलज्ञान होनेके बाद महात्मा भरत मुनिने, ऋषभन्वामी की तरह, गाँवों, खानों, नगरों, अरण्यों, गिरियों, द्रोणमुखों, वगैरामें धर्मदेशनाले भव्य प्राणियोंको प्रनिबोध करते हुए साधुपरिवार सहित एक लाग्न,पूर्व तक विहार किया। अंत उन्द्रान भी श्रष्टापद पर्वतपर जाकर विधिनहित चनुर्विध अाहारका प्रत्याग्वान किया। एक मासके अंतमें चंद्र जब श्रवण नक्षत्रका था तब अनंत चतुरक (अनंत वान,अनंत दशन, अनंत चारित्र और अन बीय) प्राप्त हुए हैं जिनको मेस मर्यि भरत निद्धिक्षेत्र (मोन ) को ग्राम हुए। (७१७-७५०) इस नन्ह भग्नेश्वरने जनहाना पूर्व लन्न राजकुमारकी तरह विताय । उस समय भगवान ऋषमंदवनी पृथ्वीका पालन करने थे। भगवान दीक्षा लेकर छान्यावन्या एक हजार बरसनक रहे, पसे उन्होंने (मरनने) एक हजार वप मांडलिक राजाकी तरह विनापाक हजार वर्ष कम छःलान्ट पूर्व तक वे चक्रवती रहे । केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद विश्ववर उपकार करनेके लिए दिनमें मुरजकी नरह उन्होंने एक पूर्वक पृथ्वीपर विहार किया। इस तरह चांगसी पूर्व लाख पाएका अमोग कर. महात्मा भरत मोन गए। उस समय तत्कालही हर्थित देवताकि साथ स्वर्गपति इंने उनका मोन-गमनोत्सव किया। (७५१-७५५.) इस प्रथम पर्वमें, श्री ऋषभदेव प्रमुळे पूर्वमत्रका वर्णन, कुलकरकी उत्पत्ति, प्रमुकाजन्म, विवाह, व्यवहार दर्शन, राज्य, व्रत और केवलनान, मरत राजाका चक्रवर्तीपन, प्रमुका और Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत [ ५६ चक्रीका मोक्षगमन-ये बातें, जो क्रमशः वर्णन की गई है, तुम्हारे सभी पदों ( उत्सवों) का विस्तार करें। (अर्थात तुम्हारे लिए सदा कल्याणकारी हों।) ['आचार्य श्री हेमचंद्राचार्य विरचित 'त्रिपष्टिशलाका पुरुष चरित्र' नामक महाकाव्यके प्रथम पर्व में, मरीचिभव, भावी शलाका पुरुप भगवनिर्वाण-वर्णन नामका, छठा सर्ग समाप्त हुआ। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदहते नमः श्री चिपष्ट्रि शलाका पुरूष्क चरित्र पर्व दूसरा श्री अजितनाथ-चरित्र जयंत्यजितनाथस्य, जितगोणमणिश्रियः । नरेंद्रवदनादर्शाः पादपद्मद्वयीनखाः ॥१॥ [लाल मणियोंकी शोभाको जीननेवाले और नमस्कार करते हुए इंद्रोंके मुखोंके लिए दर्पणके समान श्री अजितनाथके दोनों चरण-कमलोंके नखोंकी (सदा) जय होती है।] कर्माहिपाशनिर्नाश-जांगुलिमंत्रसन्निमम् । अजितस्यामिदेवस्य चरितं प्रस्तवीम्यतः ॥२|| [अव (यानी ऋषभदेवस्वामीका चरित्र लिखनेके बाद ) में (हेमचंद्राचार्य) कर्मरूपी पाशका नाश करने में जांगुलीमंत्रक समान भगवान अनितनाथस्वामीके चरित्रका वर्णन करता है।] Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भव सव द्वीपोंके वीचमें नामिके समान बूद्वीपके मध्यभागमें, जहाँ दुःपमसुपमा नामक चतुर्थ श्रारा निरंतर रहता है, महाविदेद नामका क्षेत्र है। उस क्षेत्रमें सीता नामकी महानदीके दक्षिण किनारे पर बहुत समृद्धिवान वत्स नामका देश है। स्वर्गप्रदेशका एक भाग पृथ्वीमें स्थित हो ऐसी अद्भुत सुंदरनाको धारण करता हुआ वह देश सुशोभित होता है। उसमें गाँवपर गाँव और शहरपर शहर बसे हुए होनेकी वजहसे शुन्यतासिर्फ आकाशमेंही थी ।गाँवों और शहरों में संपत्ति समान होनेसे उनमें भेद मात्र राजाके आश्रयसेही मालूम होता था । वहाँ, जगह जगह, मानो क्षीर समुद्र से निकलकर आती हुई धाराओंसे भर गई हो ऐमी, स्वच्छ और मीठे जलकी वापिकाएँ थी; महात्माओंके अंत:करणांके जैसे स्वच्छ, विशाल और जिनके मध्य-भागोंकी गहनता जानी न जा सके ऐसे तालाब थे, और पृथ्वी रूपी देवीके पत्रवल्लीके। विलासको विस्तृत बनानेघाले,हरी लताओचाले बगीचे स्थित थे। गाँव गोयग मुसाफिरों की तृपाको मिटानेवाले गन्ने के खेत, रमापी जलके घड़ों जैसे, गनोंसे शोभित थे। प्रत्येक गोयुलमें मानों शरीरधारिणी दृघकी नदियों हो ऐसी, दूधका झरना बहानेवाली गाएँ पृथ्वीको भिगोती थीं और प्रत्येक मार्गपर जैसे जुगलिए लोगोंसे कुर - - - १-मुखपर रेल-यूटे शादि, फेसर वदन वगंगले बनाना । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सगै १. देशक कल्पवृक्ष शोभित होन है उसी प्रकार, नीचे बैठे हुए मुसा. फिरोसे फलवाले वृत मुशोभित हो रहे थे। (३-१३) उस देशमें पृथ्वीक तिलकरूप और दौलतके भंडाररूप, यथा नाम तथा गुण वाली, मुसीमा नामकी नगरी थी। अमाधारा समृद्धिसे मानो पृथ्वी मध्यभागमें कोई अमुरदेवोंका नगर प्रगट हुया होगमा यह नगररत्न मुशोभित था। उस नगरीके घमं यद्यपि त्रिपा अकली फिरती थीं तथापि रत्नमय दीवारोंमें उनके प्रतिबिंब पड़त थे इससे एमा जान पड़ता था कि वे अपनी सखियोंके साथ हैं। उनके चारों तरफ समुद्रके समान वाईवाला और विचित्र रत्नमय शिलाओंसे युक्त, जगतीक कोट समान किला शोमता था। मदनल बरसाते हए. हाथियोंके फिरनेसे शहरकं रम्तोंकी धूलि, वर्षाऋतुके जलके गिरनसे जैसे शांत हो जाती है वैसही, शांत रहती थी । कुलथान त्रियांक घटीम सुरजकी किरणं इसी तरह प्रवेश नहीं कर पाती थी जैसे वे कमलिनीक कोशमं नहीं जा :कती है। वहाँ चैत्योंक ऊपर. फर्गती हुई पताकाएँ मानों हाथोंके इशारोंसे सूर्यको कह रही थी कि तू प्रभुकं मंदिरपर होकर मत ना । श्राकाशको श्याम करनेवाले और पृथ्वीको जलस पूरनेवाने । उद्यान, नमीनपर श्राप हुए बादलांक समान जान पड़त थे। आकाश तक ऊँच शिखरबान्त स्वर्ण और रत्नमय हजारों क्रीडापर्वत मेरू पर्वतकं कुमारकं समान शोभत थे। वह नगर ऐसा शोमता था मानो धर्मअर्थ और कामन क्रीड़ा करने के लिए एक ऊँचे प्रकारका संकेतस्थान बनाया हो। ऊपर और नीचेश्राकाश और पातालमं स्थित अमरावती और.भोगारतीके मन्य Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५१३ में रही हुई यह नगरी, अतुल संपत्तिवाली उनकी सहोदरा ( सगी बहन) हो ऐसी मालूम होती थी। (१४-२४) उस नगरमें चंद्रमाके समान निर्मल और गुणरूपी किरणोंसे विमल आत्मावाला विमलवाहन नामका राजा राज्य करता था। वह राजा, प्रजाको अपनी संतानके समान पालता था, पोसता था, उनकी उन्नति करता था और उनको गुणवान बनाता था। वह राजा अपनेसे हुए अन्यायको भी सहन नहीं करता था। कारण, "चिकित्स्यते हि निपुणैरंगोद्भवमपि त्रणम् ।" [चतुर लोग अपने शरीरमें हुए फोड़ेकी भी चिकित्सा करते हैं। वह राजा महापराक्रमी था। अपने आस-पासके राजाओं के मस्तकोंको लीलामात्रहीमें इस तरह मुका देता था जिस तरह हवा वृक्षोंकी डालियोंको मुकाती है । तपोधन महास्मा जैसे अनेक तरहके प्राणियोंकी रक्षा करते हैं उसी तरह, वह परस्पर अबाधित रूपसे त्रिवर्गका (धर्म, अर्थ और कामका ) पालन करता था। वृक्ष जैसे पागको सुशोभित करते है वैसेही; उदारता, धीरज, गभीरता और क्षमा वगैरा गुण उसे सुशोभित करते थे। सौभाग्य धुरंधर और फैलते हुए उसके गुण, बहुत समयके बाद आए हुए मित्रकी तरह, सबसे गले मिलते थे। पवनकी गतिकी तरह पराक्रमी उस राजाका शासन पर्वतों, जंगलों और दुर्गादि प्रदेशों में भी रुकना न था। सभी दिशाओं. को आकांन कर, जिसका तेज पल रहा है से, उस राजाक चरण, सूर्यकी तरह, सभी राजाओंके मस्तकापर टकराने थे। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग?. जैसे सबंध भगवान उसके एकमात्र स्वामी थे उसी तरह, सभी राजाओंका वह एकमात्र स्वामी था। इंद्रकी तरह शत्रुओंकी शक्तिकानाश करनेवाला वह पराक्रमी राजा अपना मन्तक मात्र माघ पुन्योंके सामनेही काना था। उस विवेकी गजाकीशक्ति, जैसे बाहरके शत्रुओंको जीतनेमें अनुज्ञ श्री वेसही, काम-क्रोधादि अंतरंग शत्रुओंको जीतने में भी अतुल थी। अपने बलसे वह, जैसे उन्मार्गगामी (सीचे रस्त न चलनेवाले) और दुर्मद हाथी, घोड़ा वगैराका दमन करता था वैसही, उन्मार्गगामिनी अपनी इंद्रियोंका भी दमन करता था। पात्रको दिया हुया दान सीपमें पड़े हुए मेवजन्तकी तरह बहुत फलदायी होता है। यह सोचकर वह दानशील राजा यथाविधि पात्रकोही दान देता था। जैसे परपुरमें सावधानी के साथ प्रवेश करता हो ऐसे बह घमात्मा राना अब जगह मजाक लोगांका घमंमागपही चलाता था। चंदन वृन जैसे मलयाचनकी पृथ्वीको सुगंधमय बनाव है उनी तरह वह अपने पवित्र चरित्रसे सारे जगतको सुवासित करता था। शत्रुओंको जीतनेस, पीड़ित प्राणियोंकी रक्षा करनेसे, और याचकोंको प्रसन्न करने वह गाजा युद्धवीर, दयावीर और दानवीर कहलाता था। इस तरह वह, राजवनम रह, वृद्धिको स्थिर स्त्र,प्रसादको छोड़,सर्पराज से अमृतकी रक्षा करना है वैसेही, पृथ्वीकी रक्षा करता था । (२५-१२) कार्य और अकार्यको जाननेवाले और सार व प्रसारको खोजनेवान्न उस राजा मनमें एक दिन संसारकं वैराग्यका बांत उत्पन्न हुई और वह इस तरह सोचने लगा, "अहो! लाखा योनिल्यो महान मँवरों में गिरने के क्लेशसे भयंकर इस संसार Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . : श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५१५ समुद्रको धिक्कार है ! यह बात कैसे खेदकी है कि संसारमें स्वप्नजालकी तरह क्षणमें दिखाई देने और क्षणमें नाश होनेवाले पदार्थों से सभी जंतु मोहित होते हैं। यौवन हवाके द्वारा हिलाए हुए, पताकाके पल्लेकी तरह चंचल है और आयु कुशके पत्तेपर. रहे हुए जलविंदुकी तरह नाशमान है। इस आयुका बहुतसा भाग, गर्भावासमें, नरकावासकी तरह, दुःखमें बीतता है; और उस स्थितिके महीने पल्योपमके समान लंबे मालूम होते हैं। जन्म होने के बाद आयुका बहुतसाभाग, बचपनमें अंधेकी तरह, पराधीनतामेंही चला जाता है; जवानीमें प्रायुका बहुतसा भाग, इंद्रियोंको आनंद देनेवाले स्वादिष्ट पदार्थाका उपभोग करने में और ( विपयं सेवनमें ) उन्मत्त आदमीकी तरह व्यर्थ जाता है; और वृद्धावस्थामें त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ व काम) की साधना करने में अशक्त बने हुए शरीरवाले प्राणीकी बाकी आयु सोते हुए मनुष्यकी तरह बेकार जाती है। विषय के स्वादसे लपट बना हुप्रा मनुष्य रोगीकी तरह रोगके लिए ही कल्पित किया जाता है, यह जानते हुए भी संसारी जीव संसारमें भ्रमण करनेके लिएही कोशिश करते हैं। प्रादगी जवानी में जैसे विषयसेवनके लिए यत्न करता है वैसेही, वह अगर मुनिके लिए प्रयत्न करे तो ( उसके लिए) किस चीजकी कमी रह सकती है? अहो ! मकड़ी जैसे अपनीही लारके तुत्रोंसे बने हुए जालमें फँस जाती है वैसेही, प्राणी भी अपनेही फर्मा से बनाया जालमें फंस जाते हैं । समुद्रमें युगशमिला प्रवेश' न्यायको तराः - - - rintere - - - १-लभूमग समुद्र मे अंदर शलग रग दिशा मान दूरोपर एक पुरा और उसमें डालने वाले जाएँ और यम. Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १...... प्राणी पुण्यके योगसे बहुत मेहनत करनेके बाद मनुष्यजन्म पाता है; उसमें भी प्रार्यदेशमें जन्म, अच्छे कुलकी प्राप्ति और गुरुकुलसेवा ( सद्गुरुओंकी सेवा ) जैसे कठिनतासे मिलनेवाले साधन पाकर भी जो प्राणी अपना कल्याण करनेकी कोशिश नहीं करता है वह रसोई तैयार होनेपर भी भूखा बैठे रहनेवाले मनुष्यके समान है। ऊर्ध्वगति (स्वर्ग वगैरा ) या अधोगति (नरकादि) पाना अपनेही बसमें हैं; तो भी जड्बुद्धिवाले प्राणी पानीकी तरह नीचेकी तरफही जाते हैं। "मैं समय आएगा तब धर्मके काम करूँगा" ऐसा विचार करनेवाले प्राणीको यमराजके दूत इसी तरह ले जाते हैं, जैसे जंगल में लुटेरे (असहाय) आदमीको लूट ले जाते हैं। पाप करके भी जिनका पालन-पोपण किया था उन सभी परिवारके लोगोंके सामनेही काल, रकके समान असहाय प्राणीको आकर ले जाता है। फिर नरकगतिमें गया हुआ प्राणी वहाँ अनंत दुःख उठाता है । कारण कर्जकी तरह कर्म भी जन्म जन्ममें प्राणीके साथ जानेवाले हैं। यह मेरी माँ है ! ये मेरे पिता है ! यह मेरी पत्नी है ! यह मेरा पुत्र है ! इस तरहकी जो ममतावुद्धि है वह मिथ्या है। कारण, (जब) यह शरीर भी अपना नहीं है (तब दूसरोंकी तो वातही क्या है ?) जुदी जुदी गतियोंसे आए हाए माता पिता आदिको हालत उन पक्षियोंके जैसी है जो अलग अलग दिशाओं और स्थानोंसे आकर एक वृक्षपर बैठते हैं (और सवेरा होनेपर से टकराते हुए देवयोगसे बहुत समय के बाद एक साथ या जाएँ और उसमें खोले अपने पापही पिरोए जाएँ, इस न्यायको युगशमिला न्याय' कहते हैं। है ! इस तरहको ज नहीं है (तब दूसरा आदिकी Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [५१७ - अलग अलग दिशाओं में उड़ जाते हैं ।) अथवा उन गुसाफिरोंके जैसी है जो अलग अलग दिशाओं से आकर एक स्थानपर (मुसाफिरखानेमें) रहते हैं और सवेरे अलग अलग स्थानोंपर ले जानेवाले रास्तोंपर चल पड़ते हैं। इसी तरह मातापिता भी जुदी जुदी गतियोंमें चले जाते हैं। कुँएके रहँटकी तरह इस संसारमें जाने आनेवाले प्राणियोंके लिए अपना या पराया कोई नहीं है। इसलिए कुटुंबादिका जो त्याग करने लायक है, पहले. हीसे त्याग करना चाहिए और स्वार्थ के लिए (प्रात्महितके लिए ) प्रयत्न करना चाहिए । कहा है .......... स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता।" [स्वार्थसे भ्रष्ट होनेका नामही मूर्खता है। ] निर्वाण (मोक्ष) लक्षणवाला यह स्वार्थ एकांत और अनेक सुग्योंका देने. वाला है और वह मूलोत्तर' गुणों के द्वारा सूर्यकी किरणोंकी तरह प्रकट होता है।" (४३-६६) राजा इस तरह विचार कर रहा था, उसी समय निंतामणि रत्रके समान श्रीमान अरिंदम नामक सूरि महाराज उद्यानमें आए। उनके आने की बात सुनकर उसको अमृतका चूंट पीनेमें जितना आनंद हुआ। तत्कालाही, मयूरपत्रोंके छत्री. से मानो आकाशको मेघयुक्त पनाता हो ऐसे, बाद मूरिजी महाराजको नंदना करने चला । मानो लक्ष्मीदेवीके दो कटान हो -गोलकी प्रालिले पक्ष मूलगुगवनमारमादि फोर दार. गुण शिविशुद्धि वगैरा और सूर्यकिरणको सि. में मोर उत्तरा नक्षत्रा Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] त्रिषष्टि शन्ताका पुनप-चरित्रः पर्व .सर्ग १. - एवं दो चामर उसके दोनों तरफ डुलने लगे। नानके कवचबान्त होनस मानो मोनकी पायांवाल हॉस,और गतिक द्वारा पवनको जीतनयान बंगवान बोड़ोस वह सभी दिशाओंको मरने लगा। मानो अंजनाचलके चलत-फिरत शिवर. ही ऐसे बड़े हाथियोंक मारसे वह पृथ्वीको मुकाने लगा। अपने स्वामी के मनकी बान जानने उनको मनःपर्ययज्ञानहुया हो ऐसे सामन कसाय हा लिए। बंदी (चारण) लोगों के कोलाहलकी माना म्पदा करत हो गस, अाकाशमें फैलते हुए मंगल नूयं ( तुरही ) के शब्द दूरहीय उसके आगमनकी सूचना दन हो। इपिनियोंपर बंटी हुई गंगाररसकी नायिका न्य हजारों वागंगना उसके साथ थीं। इस तरह हाथीपर सवार उस राजाकी सवारी लोकन्यानप नंदनवन समान उद्यानके पास पहुँची। फिर गजायाम जरके समान उस राजान, हाथीने उतरकर, सिंह जैन पवनकी गुफामें प्रवेश करता है ऐसे ही, उद्यान में प्रवेश किया। (६५-५७) ___यहाँ उसने दूरहीने, बन्च कवचकी तरह कामदेव बागोंद अयद्य, रागनी गंगमें दया ममान, द्वेषरुपी शत्रुके लिए द्विपनप (शत्रयांको नपानवाल) के समान क्रोवढपी अग्नि लिए.नवीन मेघ ममान,मानन्यायनिक लिए गजके समान, मायापी सर्पिणीक दिए गनड़ समान, लोमन्पी पर्वतक लिए बनके समान, मोहन अंधकारके लिए सूर्य समान, नपल्पी अग्निके लिए अगि समान, क्षमा पृथ्वी के समान और बोधिधाननपी नलकी एक धारा समान, श्रात्माराम महामुनि श्राचार्य अरिंदमको देखा । उन श्रामपास साधुओं Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [५१६ - का समुदाय बैठा था । कई उत्कटिक आसनसे, कई वीरासनसे. कई वज्रासनसे, कई पद्मासनसे, कई गोदोहिक आसनसे, कई भद्रासनसे, कई दंडासनसे कई वल्गुलिक आसनसे, कई क्रौंचपक्षी आसनसे, कई इंसासनसे, कई पर्यकासनसे, कई उष्ट्रासनसे, कई गरुड़ासनसे, कई कपालीकरण आसनसे, कई आम्रकुजासनसे, कई स्वस्तिकासनसे, कई दंड पद्मासनसे, कई सोपाश्रय आसनसे, कई कायोत्सर्ग आसनसे और कई वृपभा. सनसे बैठे थे। रणभूमिके सुभटीकी तरह विविध उपसगोंको सहन करते हुए वे अपने शरीरकी भी परवाह न करके, निज प्रतिश्रव (अंगीकार किए हुए संयम) का निर्वाह करते थे, अंत. रंग शत्रुओंको जीतते थे, परिसहोंको सहते थे और तप-ध्यानमें समर्थ थे। (७८-८) राजाने श्राचार्यके पास आकर वंदना की। उसका शरीर 'आनंदसे रोमांचित हो गया। रोमांचके बहाने अंकुरित भक्तिको धारण करता हो ऐसा वह मालूम होने लगा। भाचार्य महाराजने मुखके पास मुग्ययन्त्रिका(मुंहपत्ती) रखकर सर्व कल्याणकी मातारूप 'धर्मलाभ ऐसी असीस दी। फिर राजा कछुएकी तरह शरीरको सिकोड़, अयग्रह भूमिको छोड, हाथ जोड़, गुन महाराजके सामने बैठा। उसने ध्यानपूर्वक, इंद्र जैसे तीर्थ. करकी देशना सुनता है वैसे ही, आचार्य महाराजको देशना सुनी। जैसे शरद मातुसे चंद्रमा विशेष जायल होता है, सही, प्राचार्य महाराजकी देशनासे राजाको अधिक वैराग्य इमा। फिर आचार्य महाराजकी चरण वंदना कर, हाथ जोर, विनय. युम वाणी में राजाने फाहा:- (८t-2) Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२०] त्रिषष्टि शन्नाका पुरुप-चरित्र; पर्व २. सर्ग १. गई. भगवन ! मनुष्यको मसाररूपी विषवृक्षके अनंत दुबपी फलोंका अनुभव करते हुए भी, वैराग्य नहीं होता, मगर. श्रापको त्रैगन्य हुश्रा और श्रायने दुनियाका त्याग कर दिया। इसका कोई कारण होना चाहिए, कृपा करके बनाइए।" (१५-१६) राजा इस तरह पूछनेपर, अपने दाँतोंकी किरणोंकी चंद्रिका प्राचारानलको इन्चल करते हुए श्राचार्य महाराज प्रसन्न होकर बान्त, "हे गजा इस दुनिया सभी कार्य, बुद्धिमानके लिए बैंगन्यही कारण होते हैं। उनमेंसे कोई एक संसारका त्याग करने के लिए अन्य होता है। मैं पहल गृहवाममें था नत्र एक बार हाथी, घोड़, रथ और प्याकि साथ दिग्विजब करने के लिए रवाना हुया । मार्गमें चलते हुए एक बहुतही सुंदर बगीचा मेन देखा। युद्धांकी धनी छायाम मनोहर वह चीचा, जगनमें भ्रमण करने की हुई लक्ष्मीका विश्रामम्यान या मान्नुम होना था। वह कंकाल वृद्धोक चंचल पल्लवोंसे मानो नाचना हो, मल्लिका विऋमित पुण्यगुच्छांस मानो हसना हो, बिन हम ऋदेवपुष्योंके अमृहसे मानो रोमांचित हुश्रा हो, ल हुए कतुकीक पुष्परूपी नेत्रोंसे माना देवता हो, शान और. बाह क्षॉम्पी ऊँची भुजाओस मानी दूरहीसे सूर्यक्री नी हई किरणोंको यहाँ गिरन रोकता हो, वृक्षांस मानो मुमाफिगेको गुप्त स्थान बताता हो, नालास मानों पद पदपर पाद्य (पैर धोनका पानी) तयार करता हो, भरत पानीके रहटन्यत्रोंस मानो पारिताको शृन्खलाबद्ध करता हो, गुंजार करते हुए मैत्रगेम मानी पथिकोंको बुलाना हो और तमाल, Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५२१ ताल, हिंताल और चंदन के वृत्तोंसे मानो सूर्यकिरणोंके त्राससे अंधकारने उसका आश्रय लिया हो ऐसा मालूम होता था। श्राम, चमेली, नागकेसर और केशरके वृक्षोंसे सुगंध-लक्ष्मीके एकछत्र राज्यका वह विस्तार करता हो; तांबूल, चिरोंजी और द्राक्षकी चेलों के प्रति विस्तारसे वह तरुण पथिकोंके लिए वगैर. ही यत्नके रतिमंडपोंका विस्तार करता हो; और मेरुपर्वतकी तलहटीसे मानो भद्रशाल वन यहाँ आया हो ऐसा उस समय वह वन अत्यंत सुंदर मालूम होता था। (६७-१०६) बहुत समय के बाद जब में सेना सहित दिग्विजय फरके लौटकर उस बगीचे के पास पाया और कौतुकके साथ वाहनसे उतरकर उस बगीचे के अंदर सपरिवार गया तब उस बगीचेको मैंने अलगही रूपमें देया । मैं सोचने लगा, क्याम भ्रमसे दूसरे बगीचे में प्रागया हूँ ? या यह बगीचा विलकुलही बदल गया है ? यह इंद्रजाल तो नहीं है ? कहाँ सूर्यकी किरणोंको रोकने. वाली वह पत्रलता और कहाँ तापकी यह एकछत्ररूप अपत्रता (पत्तोंका अभाव ) ? कहाँ युजोंके अंदर विश्राम करनेवाली रमणियों की रमणीयता और गहों निद्रित पड़े हुए अजगरोंकी दारुणता ? कहाँ मोरों और कोकिलाओंका वा मधुर पालाप और कहाँ चपल कीयोंके कर्णकटु शब्दोंसे बड़ी हुई व्याकुलता? कहा वह लये लटकते और भीगे हुए बल्लल बोकी सरनता और माहाँ इन मूखी हुई शान्याओंपर लटकने हुए मुजंग? फड़ो सुगंधित पुष्पोंमें बनाई हुई ये विशाग और कारी चिड़ियां, कोए, कपोत प्रादि पतियोंकी पीटसे दुगंधमय पना दुमा यह स्थान ? को पुष्परसके मरनीले हितकार कोई Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १. वह भूमि और कहाँ जलती हुई भट्टीपर सेकी हुई रेतीवाली संतापकारी यह भूमि ? कहाँ फलोंके भारसे मुके हुए वे वृक्ष और कहाँ दीमकके खानेसे खोखले बने हुए ये वृक्ष ? कहाँ अनेक लताओंके वलयों (घेरों) से सुंदर बनी हुई वे वाड़ें और कहाँ सपों के द्वारा छोड़ी हुई कंचुलियोंके घेरोंसे भयंकर बनी हुई ये बाई ? कहाँ वृक्षोंके नीचे लगा हुआ फूलोका वह ढेर और कहाँ उगे हुए काँटोंका यह समूह ? इस तरह उस बगीचेको असुंदर देखकर में सोचने लगा, जैसे यह बगीचा इस समय भिन्नही प्रकारका (असुंदर ) हो गया है वैसेही सभी संसारी जीवोंकी भी स्थिति है । जो मनुष्य अपनी सुंदरतासे कामदेवके समान लगता है वही मनुष्य जब भयंकर रोगग्रस्त होता है तब बहुत कुरूप मालूम होता है। जो मनुष्य छटादार वाणीसे बृहस्पतिके समान उत्तम भापण कर सकता है वही जीम रुक जानेसे मर्वथा गूंगा बन जाता है; जो आदमी अपनी सुंदर चाल और गतिसे जातिवान घोड़ेसा आचरण करता है वहीं कभी वायु वगैरा रोगोंसे पीड़ित होकर सर्वथा पंगु बन जाता है जो आदमी अपने पराक्रमी हाथोंसे हस्तिमनके समान काम करता है वही आदमी रोगादिस हाथोंकी शक्ति खोकर टूठा बन जाता है; जो श्रादमी कभी गीध समान दूरकी चीजें देखनेकी नेत्रशक्ति रखता है वही आँखोंकी बीनाई खोकर दूसरोको देखनेमें असमर्थ-अंधा बन जाता है। ग्रहो ! प्राणियोंके शरीर क्षणमें सुंदर, क्षणमें अमुंदर, क्षणमें समर्थ, क्षणमें असमर्थ, क्षम हष्ट (देखा) और क्षणमें अष्ट (न देखा) हो जाता है। इस तरह विचार करते हुए मुम, जप करनेवालेको मंत्रशक्ति Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [ ५२३ की तरह, संसार वैराग्य धाराधिरूढ़ हुआ-प्राप्त हुथा। फिर मैंने महामुनिके पाससे, तृणके लिए पागके समान और निर्वाण प्राप्तिके लिए चिंतामणि रत्नकं समान, महावत ग्रहण कियामुनिदीक्षा ली ।" ( ११०-१३०) उनकी बातें सुनकर फिरसे प्राचार्यचर्य अरिंदमको प्रणाम करके विवेकी और भक्तिवान राजा बोला, "निरीह और ममताद्दीन श्रापके समान पूज्य सत्पुरुप हमारे जैसौके पुण्यसेही इस पृथ्वीपर विहार करते हैं । सबन तृणोंसे ढके हुए अंधकूपमें जैसे पशु गिरते हैं वैसेही लोग इस अति घोर संसारक विषय-सुखोंमें गिरते हैं; (और दुग्न उठाते हैं) उन दुखांसे बचानेहीके लिए श्राप दयालु भगवान प्रतिदिन, घोपणाकी तरह देशना देते हैं। इस असार संसारमें गुरुकी वाणीही परम सार है; अति प्रिय स्त्री,पुत्र और बंधु साररूप नहीं हैं। अब मुझे विजलीके समान चंचल लक्ष्मी, सेवनमें सुखदायक मगर परिणाममें भयंकर विपके समान विपय और केवल इस भवके लिएही मित्र के समान स्त्री-पुत्रोंकी जरूरत नहीं है। इसलिए हे भगवान ! मुमपर कृपा कीजिए और संसारसमुद्रको तैरनमें नौकाके समान दीक्षा मुझे दीजिए । में नगरमें जाऊँ व अपने पुत्रको राज्य सौंपकर पाऊँ तबतक आप दयालु, पूज्यपाद इसी स्थानको अलंकृत करें (ऐसी मेरी प्रार्थना है।) (१३१-१३८) . प्राचार्यश्रीने उत्साहवर्द्धक वाणीमें कहा, "हे राजन! तुम्हारी इच्छा उत्तम है। पूर्वजन्मके संस्कारोंके कारण तुम पहलेहीसे तत्त्वांको जाननेवाले हो, इसलिए तुमको देशना देना, रढ़ मनुष्यको हाथका सहारा देनके समान, हेतुमात्र है। गोपा Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___५२४ | त्रियष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २ सर्ग १. - लककी विशेषतासे जैसे गाय कामधेनु के समान होती है वैसेही तुम्हारे समान मनुष्योंके द्वारा ग्रहण की हुई दीक्षा तीर्थकरपद' तक्रके फलको देती हैं। तुम्हारी इच्छा पूर्ण करनेके लिए हम यही रहेंगे। कारण, मुनि भव्यजनोंके उपकारके लिएही विचरण करते हैं।" नव, प्राचार्य महाराजकी वाणी सुनकर राजाओंमें सूर्यके समान वह राजा उनको प्रणाम करके खड़ा हुआ। •कारण............"निश्चिते कार्य नालसंति मनस्विनः ।" [मनस्त्री पुरुप निश्चित कार्यमें आलस्य नहीं करते।] यद्यपि राजाका चित्त आचार्यके चरणकमलोंमें लगा हुआ था तो भी वह, जैसे कोई जबर्दस्ती दुर्भगा बीके पास जाता है वैसेही, अपने महल में गया। वहाँ उसने सिंहासनपर बैठ अपने राज्यरूपी भवनकं स्तंभ समान मंत्रियोंको बुलाया और उनसे कहा, (१३६-१४५) हे मंत्रियो ! आम्नायसे (परंपरासे) जैसे इस राज्यरूपी घरमं हम राजा है बसेही, स्वामीक हितके लिए एक महानत. वाले तुम मंत्री हो। तुम्हारे मंत्रबलसही मैंने पृथ्वी जीती है। इसमें हमारी भुजाओंके बलका उपक्रम (तैयारी) तो निमित्तमात्र है। भूमिका भार जैसे धनवात, घनोदधि और तनुवातने धारण कर रखा है सही तुमने मेरे राज्यका भार धारण कर रखा है। मैं तो देवताकी तरह प्रमादी होकर, रातदिन विषयोमही विविध क्रीड़ायोंके रसमेही लीन रहा हूँ। रातके समय जैसे दीपकसे खड्डा दिखाई देता है वैसेही, अनंत भवामि दुख देनवाला यह प्रमाद, गुरुकी कृपारूपी दीपकसे मुझे दिखाई दिया Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५२५ है। मैंने अज्ञानके कारण चिरकालतक इस आत्माको आत्मासेही वंचित रखा है; कारण-फैलते हुए गाढ़ अंधकारमें आँखोंवाला पुरुष भी क्या कर सकता है ? अहो! इतने समय तक ये दुर्दम इंद्रियाँ तूफानी घोड़ेकी तरह मुझे उन्मार्गपर ले गई थी। मैं दुष्टबुद्धि विभितक ( भिलावेके) पेड़की छायाके सेवनकी तरह परिणाममें अनर्थ करनेवाली विषयवासनाकी सेवा अबतक करता रहा हूँ। गंधहस्ति जैसे दूसरे हाथियोंको मारता है वैसेही, दूसरोंके पराक्रमको नहीं सहन करनेवाले मैंने, दिग्विजयमें अनेक निरपराधी राजाओंको मारा है। मैं दूसरे राजाओंके साथ संधि आदि छःगुणोंको निरंतर जोड़नेवाला हूँ मगर उसमें ताड़वृक्षकी छायाकी तरह सत्यवाणी कितनी है ? अर्थात बिलकुल नहीं है। मैंने जन्मसेही दूसरे राजाओंके राज्यको छीनलेनेमें अदत्तादान-ग्रहणकाही आचरण किया है। मुझ रतिसागरमें डूबेहुएने, कामदेवका शिष्य होऊँ इस तरह निरंतर अब्रह्मचर्यकाही सेवन किया है। मैं प्राप्त अर्थों से अतृप्त था और अप्राप्त अर्थोंको पानेकी इच्छा रखता था, इससे अबतक महान मूर्छावश था। जैसे कोई भी चांडाल, स्पर्श करनेसे स्पृश्यता पैदा करता है वैसेही, हिंसा आदि पाप कार्यों में से एक भी कार्य दुर्गतिका कारण होता है। इसलिए आज मैं वैराग्यके द्वारा प्राणातिपात (हिंसा) वगैरा पाँचों पापोंका गुरुके समक्ष त्याग करूँगा (और गुरुसे पाँच महाव्रत ग्रहण करूँगा!) साँझके समय सूरज जैसे अपना तेज अग्निमें आरोपण करता है वैसेही, मैं अपना राज्यकारभार कवचहरकुमारपर आरोपण करूँगा (राजकुमारको राज्य दूंगा।) तुम इस कुमारके साथ भी भक्ति Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २ सर्ग १. - - भावका व्यवहार करना । अथवा तुम्हें ऐसी सलाह देनेकी जरूरतही नहीं है; कारण, फुलवानोंका तो ऐसा स्वभावही होता है। (१४६-१६२) मंत्रियोंने कहा, "हे स्वामी ! दूरमोक्ष (जिनके मोक्ष जानेका समय अभी दूर है ऐसे ) प्राणियोंके मनमें कभी ऐसे भाव पैदा नहीं होते । आपके पूर्वज, इंद्रके समान अपने पराक्रमसे, जन्महीसे अखंड शासन द्वारा पृथ्वीको अपने वशमें रखते थे; मगर जब ये अनिश्चित शक्तिवाले होते थे तब वे यूँककी तरह इस राज्यको छोड़कर नीन रत्नोंसे पवित्र बने हुए व्रतको ग्रहण करते थे। श्राप महाराज इस पृथ्वीको अपन भुजवलसे धारण किए हुए हैं। इसमें हम तो सिर्फ, घरमें कलेके स्तंभकी तरह, शोभाके समान हैं। यह साम्राज्य जैसे आपको कुल परंपरासे मिला है वैसेही, अवदान (पराक्रम ) सहित और निदान (कारण) रहित व्रतको ग्रहण करना भी आपको परंपरासे प्राप्त है। आपका दूसरा चैतन्य हो इस तरह यह राज्यकुमार पृथ्वीके भारको कमलकी तरह सरलतासे, उठानेमें समर्थ है। आप मोक्षफल देनेवाली दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं तो प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण कीजिए। आप स्वामी उच्च प्रकारकी उन्नति करें, हमारे लिए तो यही यात बड़े आनंदकी है। पूर्ण न्याय-निष्टावाले और सत्व तथा पराक्रमसे मुशोभित इन कुमारके द्वारा, आपकी तरहही, यह पृथ्वी राजावाली बने।" (१६३-१७०) ऐसे उनकं आज्ञापालकताके वचन सुनकर पृथ्वीपति प्रसन्न हुआ और छड़ीदार के द्वारा उसने राजकुमारको बुलाया। मानो मूर्तिमान कामदेव हो ऐसा वह राजकुमार राजहंसकी Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५२७ तरह कदम रखता हुआ वहाँ आया। साधारण प्यादेकी तरह उसने भक्तिभावसे राजाको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर वह उचित स्थानपर बैठा। अमृतरसके समान सारदृष्टिसे मानो सिंचित करते हों ऐसे आनंद सहित कुमारको देखते हुए राजा बोला,-( १७१-१७४) । - "हे वत्स! अपने वंशके पहलेके राजा, दयाबुद्धिसे लोभ रहित होकर वनमें अकेली रही हुई गायकी तरह इस पृथ्वीका पालन करते थे। जब उनके पुत्र समर्थ होते थे तब वे उनपर इसी तरह पृथ्वीको पालनेका भार रख देते थे जैसे बैलपर धुरा खींचनेकां रखा जाता है और खुद तीनों लोकोंमें रही हुई वस्तु ओंका, अनित्य समझ, उनका त्याग कर शाश्वतपद (मोक्ष) के लिए तैयार होतेथे, अपने कोई पूर्वज इतने समय तक गृहवासमें नहीं रहे जितने समय तक मैं रहा हूँ। यह मेरा कितना बड़ा प्रमाद है । हे पुत्र ! अव तू इस राज्यभारको ग्रहण कर तू मेरा भार लेलेगा तब मैं व्रत ग्रहणकर, संसारसमुद्रको पार करूँगा।" (१७४-१७६) - राजाकी बात सुनकर कुमार इसी तरह कुम्हला गया जैसे कमल हिमसे कुम्हलाता है। वह अपने नेत्रकमलोंमें पानी भर कर बोला, "हे देव ! मेरा ऐसा कौनसा अपराध हुआ है कि जिससे आप मुझपर इस तरह नाराज हुए हैं; आप अपने आत्माके प्रतिबिंबको-आपके प्यादेके समान पुत्रको इस तरहकी आज्ञा करते हैं ? अथवा इस पृथ्वीने कोई ऐसा अपराध किया है कि जिसको आप इसको-जिसका अबतक आप पालन करते थे तिनकेकी तरह छोड़ रहे हैं। आप पूज्य पिताके विना मैं यह Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १. राज्य नहीं चाहता; कारण, यदि सरोवर जलसे भरा हो, मगर उसमें कमल न होतो यह भँवरोंके लिए किस कामका है ? हाय ! अाज देव मेरे लिए प्रतिकूल हुआ है। मेरा दुर्भाग्य श्राज प्रकट हुआ है। इसी लिए पत्थरके टुकड़ेकी तरह मेरा त्याग करके पिताजी मुझे इस तरहकी आज्ञा कर रहे हैं। मैं किसी भी तरह इस पृथ्वीको ग्रहण नहीं करूंगा। और इस तरह गुरुजनोंकी आज्ञा उल्लंघन करनेका जो अपराध होगा उसके लिए प्रायश्चित करूँगा।" (१८०-१५) पुत्रकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली,मगर सत्त्व और स्नेहपूर्ण वाणी सुनकर राजादुखी भी हुआ व प्रसन्न भी हुआ । वह वोला, "तू मेरा पुत्र है, साथही समर्थ, विद्वान और विवेकी भी है, फिर भी स्नेहमूल अज्ञानके कारण वे-सोचे इस तरह क्यों बोल रहा है ? कुलीन पुत्रोंके लिए गुरुजनोंकी आज्ञा विचार करने लायक नहीं होती ( मानने लायकद्दी होती है); तव मेरा कथन तो युक्तिसंगत है, इसलिए तु विचार करके भी इसको स्त्रीकार कर। नत्र पुत्र योग्य होता है तब वह पिताका बोझा उठाताही है; सिंहनी अपने पुत्रके कुछ बड़ा होतेही निर्भय होकर मुखसे सोती है। हे वत्ल ! तेरी इच्छाके बगैर भी में मोक्षकी प्राप्तिके लिए इस पृथ्वीका त्याग कर दूंगा। में तेरा बंधा हुआ नहीं है, तब तुमे इस बिलखती हुई पृथ्वीका स्वीकार तो करनाही पड़ेगा; मगर साथही मेरी आज्ञाका उल्लंघन करनेके पापका भार भी उठाना पड़ेगा। इसलिए हे पुत्र ! मुममें भक्ति रखनेवाले तुझे विचार करकं या बगैर विचार किएही मुझ सुखी बनानेवाली, मेरी यह बात माननीही पड़ेगी।" . (१८६-१६२) . सुमा Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्री अजितनाथ चरित्र [५२६ - मंत्रियोंने कहा, "हे कुमार ! आप स्वभावसे ही विवेकी हैं। आपका कथन यद्यपि योग्य है तथापि, पिताने जो आज्ञा दी है उसे आपको स्वीकार करनाही चाहिए । कारण, "गुर्वाज्ञाकरणं सर्वगुणेभ्यो ह्यतिरिच्यते ।" .. [गुरुकी आज्ञा माननेका गुण दूसरे सभी गुणोंसे श्रेष्ठ है। 1 आपके पिताने भी उनके पिताका वचन माना था। यह यात हम जानते हैं। जिसकी आज्ञा पालनीही चाहिए ऐसा, पिताके सिवा इस लोकमें दूसरा कौन है ?" ( १६३-१६५) . पिताके तथा मंत्रियोंके वचन सुनकर राजकुमारने सर झुका लिया और गद्गद् वाणीमें कहा, "मुझे स्वामीकी आज्ञा अंगीकार है। उस समय राजा अपनी आज्ञा माननेवाले पुत्रसे इसतरह खुश हुआ, जिस तरह चंद्रमासे कुमुद और मेघसे मोर प्रसन्न होता है । इसतरह प्रसन्न बनेहुए राजाने अभिषेक करने योग्य अपने कुमारको निज हाथोंसे सिंहासनपर बैठाया । फिर उनकी आज्ञासे सेवक लोग, मेघकी तरह तीर्थों के पवित्र जल लाए। मंगलवाद्य बजने लगे और राजाने तीर्थजलसे कुमारके मस्तकपर अभिषेक किया। उस समय दूसरे सामंत राजा भी आकर अभिषेक करने लगे और भक्तिभावसे नवीन उगे हुए सूरजकी तरह उसे नमस्कार करने लगे। पिताकी आज्ञासे उसने सफेद वस्त्र धारण किए। उनसे वह ऐसा शोभने लगा,जैसे शरद ऋतुके सफेद बादलोंसे पर्वत शोभता है। फिर वारांगनाओंने आकर, चंद्रिकाके पूरके समान गोशीर्ष चंदनका, उसके सारे शरीरपर लेप किया। उसने मोतियों के आभूषण धारण ३४ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष- चरित्रः पर्व २. सर्ग १. फिर वे ऐसे जान पड़तं थे, मानों श्राकाशसे तारोंको लाकर धागोंमें पिरोकर, आभूपण बनाए गए हैं। राजाने मानो अपना महाप्रचंड प्रताप हो ऐसा, माणिक्योंके तेनसे चमकता हुआ मुकुट उसके मस्तकपर रखा; और क्षण-मात्रहीमें मानो यश प्रकट हुआ हो ऐसा, निर्मल छत्र उसके मस्तकके ऊपर रखा गया। दोनों तरफ वारांगनाएँ मानो राज्यसंपत्ति रूपी लताके पुष्पोंको सूचित करते हों ऐसे चमर डुलाने लगी। फिर महाराजाने अपने हाथोंसे उसके ललाटमें, उदयाचलकी चूलिकापर रहे हुए चंद्रके समान, चंदनका तिलक किया । इसतरह रानाने कुमारको बड़े अानंदसे राज्यगहीपर विठाकरलक्ष्मीकी रक्षाका मानो मंत्र हो ऐसा यह उपदेश दिया, (१६६-२०६) "हे वत्स! अव तू पृथ्वीका आधार हुआहै। तेरा प्राधार कोई नहीं है, इसलिए प्रमाद छोड़कर अपने प्रात्मासे उसको धारण करना । अाधार शिथिल होनेसे आधेय (जिसे आधार दिया जाता है वह) भ्रष्ट होता है, इसलिए विषयोंके अतिसेवनसे होनेवाली शिथिलतासे तू अपनी रक्षा करना । कारण,-. "यौवनं विमत्रो रूपं स्वाम्यमेकैकमप्यतः । प्रमादकारणं विद्धि बुद्धिमत्कार्यसिद्धिमित् ॥" [यौवन, धन, रूप और स्वामीपन, इनमें एक एक भी प्रमादके कारण हैं और बुद्धिमानकी कार्यसिद्धिका नाश करने वाले हैं, यह समझना । ] कुलपरंपरासे आई होनेपर भी दुराराध्य (कठिनतासे प्रसन्न होनेवाली) और छिद्र ढूँढनेवाली यह लक्ष्मी राक्षसीकी तरह, प्रमादी पुरुषोंको दगा देती है। बहुत Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र . [५३१ पुराना स्नेह भी इस लक्ष्मीकी स्थिरताका कारण नहीं होता, इसलिए इसे जब अवसर मिलता है तभी, सारिका(मैना की तरह यह तत्कालही अन्यत्र जली जाती है । इसे कुलटा नारीकी तरह बदनामीका डर भी नहीं होता। यह कुलटाकी तरह जागते हुए भी प्रमादमें पड़े हुए पतिको छोड़ जाती है । लक्ष्मीको कभी इस वातका विचार नहीं आता कि मेरी चिरकालसे यहाँ रक्षा हुई है। यह तो मौका पातेही वंदरीकी तरह कूदकर चली जाती है। निर्लजता, चपलता और स्नेहहीनताके सिवा दूसरे भी अनेक दोप इसमें है । और जलकी तरह नीचकी तरफ जाना तो इसका स्वभावही है। ऐसे, लक्ष्मी सव दुर्गुणोंवाली है तो भी, सभी लोग इसको पानेकी कोशिश करते हैं। इंद्र भी लक्ष्मीमें आसक्त है. तब दूसरोंकी तो वातही क्या है ? उसको स्थिर रखने के लिए तू चौकीदारकी तरह नीति और पराक्रमसे सम्पन्न होफर सदा सावधान रहना । लक्ष्मीकी इच्छा रखते हुए भी अलुब्ध (निर्मोही) की तरह सदा इसका पालन करना। कारण,-- लक्ष्म्यः सुभगस्येव योषितः।" [स्त्रियाँ जैसे सुंदर पुरुपकी अनुगामिनी होती है वैसेही लक्ष्मी सदा निर्लोभीके पीछे चलती है। ] गरमीके सूरजकी तरह अति प्रचंड होकर कभी दुःसह करके भारसे पृथ्वीको पीड़ित मत करना । जैसे उत्तम वस्त्र,जरासा जलनेपर भी, छोड़ दिया आता है वैसेही, थोड़ासा अन्याय करनेवाले पुरुपको भी अपने पास मत रखना। शिकार, जूआ और शरावको तू सर्वथा बंद करना । कारण, Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पच २. सग १. "....''पापानां नृयो भागी तपस्त्रितपसामिर ।" [जैसे राजा तपस्वीके तपका हिस्सेदार होता है वैसेही प्रजाके सभी पापोंका भी वह हिस्सेदार होता है। ] तू काम. क्रोधादि अंतरंग शत्रुओंको जीतना; कारण, इनको जीते वगैर बाहरी शत्रुओंको जीतना या न जीतना समान है। दक्षिण (चतुर) नायक जैसे अनेक पत्नियोंका यथासमय सेवन करता है वैसेही नू धर्म, अर्थ और कामका यथाअवसर सेवन करना, एकको दुसरेका बाधक न होने देना । इन तीनोंकी साधना इस तरह करना क्रि, जिससे चौथे पुरुपार्थ-मोक्षकी साधनामें कोई विन्न न श्रावे तेरा उत्साह भंग न हो।" (२१०-२२६) . गू कहकर राजा विमलवाहन जब चुप रहा तब कुमारने ऐसाही होगा' कहकर उस उपदेशको अंगीकार किया। फिर कुमारने सिंहासनसे उठकर, त्रत ग्रहण करनेके लिए तैयार होते हए अपने पिताको हाथका सहारा दिया। इस तरह छड़ीदारस भी अपनेको छोटा माननेवाले पुत्रके हायका सहारा लिए हुए राजाने अनेक कलशांसे भूषित स्नानगृहमें प्रवेश किया । वहाँ उसने मगरके मुखवाली सोनेकी मारियोंसे निकलते हुए, मेघकी धाराके समान जल से स्नान किया, कोमल रेशमी वनसे शरीरको पोंछा और उसपर गोशीर्ष चंदनका लेप किया । गुथना जाननेवाले पुरुषोंने, नील कमलके समान श्याम और पुष्पगमेके जैसे,राजाके केशपाशको चंद्रगर्भित मेघकी तरह सुशोभित किया। विशाल, निर्मल,स्वच्छ और अपने समान उत्तम गुगणवाले, दिव्य और मांगलिक दो वन राजाने.धारण किए। फिर सब रानाओम मुकुटके समान उस रानाने, युमारके द्वारा Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .... श्री अजितनाथ-चरित्र [५३३ - लाए गए स्वर्ण और माणिक्यके मुफुटको मस्तकपर धारण किया। - गुणरूपी आभूषणोंको धारण करनेवाले उस राजाने हार, भुजबंध और कुंडल वगैरा दूसरे आभूषण पहने । मानो दूसरा कल्पवृक्ष हो इस तरह उस राजाने रत्न, सोना, चाँदी, वस्त्र और दूसरी जो चीजें याचकोंने माँगी, वे दी। फिर कुबेर जैसे पुष्पक विमानमें बैठता है वैसे नरकुंजर (मनुष्यों में हाथीके समान) विमलवाहन राजा, सौ पुरुपोंसे उठाई जा सके ऐसी शिविकामें बैठा । साक्षात तीन रत्न (दर्शन, ज्ञान और चारित्र) आकर उसकी सेवा करते हों ऐसे, दो चामर और एक छत्र उसकी सेवा करने लगे। मानो मिले हुए दो मित्र हों ऐसे, चारण-भाटोका कोलाहल और बाजोंका तार शब्द पुरुषोंको प्रसन्न करने लगा । ग्रहोंसे जैसे ग्रहपति (सूर्य-चंद्र) शोभता है वैसेही, आगे, पीछे और आसपासमें चलते हुए श्रीमानों और सामंतोंसे वह सुशोभित होने लगा। झुके हुए वृंत (बौंडी) वाले कमलकी तरह, झुके हुए सरवाले और आज्ञा चाहनेवाले द्वारपालकी तरह राजकुमार आगे चलने लगा। भरे हुए घड़ेको प्रहण करनेवाली नगरकी स्त्रियाँ, कदम कदमपर मंगल कर, क्रमसे उसे देखने लगी। विचित्र प्रकारके मंचोंसे व्याप्त, पताकाओंकी पंक्तियोंसे भारवाले और यक्षकर्दमसे पंकिल (कीचवाले) बने हुए राजमागोंको पवित्र करता हुआ वह चलने लगा। ....... . 'हरेक मंचपरसे, गंधर्व वर्गके समान गीत गाती हुई। पनिताएँ आरती उतार उसार कर जो मंगल करती थीं उनको Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] त्रियष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १. वह स्वीकार करता था। मानो चित्रोंमें चित्रित होऐसे आनंदित और निश्चल नेत्रोंसे नगरकं नर-नारी दूरहीसे अष्टपूर्व (पहले कभी न देखा हो ऐसे) की नरह उसे देख रहे थे। मानो मंत्रबलसे आकर्षित हुए हों, या जादूसे हुए हों ऐसे, लोग उसके पीछे पीछे चल रहे थे। इस तरह पुण्यके वामरूप वह राजा जब अरिंदम आचार्य चरणोंस पवित्र बने हुए, उद्यानके समीप पाया तब, वह शिविकासे नीचे उतरा और तपस्वियोंके मनकी नरट्ट उद्यान में घुसा। उस राजाने, भुजाओंसे पृथ्वीके भारकी तरह समी आभूषणोंको शरीरसे उतार दिया । कामदेव. के शासनकी नरह, उसने मस्तकपर चिरकालसे धारण की हुई माला निकाल दी। फिर उसने प्राचार्यकी वाई तरफ रह, चैत्यचंदन कर प्राचार्य दिपहुए रजाहरणादिमुनिचिहाँकोत्वीकार किया । "मैं सभी सावध रोगांका प्रत्याख्यान करता है। यों कहकर उसने पंचमुष्टिसे केशलोच किया। वह बड़े मनवाला राजा सत्काल ग्रहण किए हुए व्रतलिंगसे ऐसा शोमने लगा मानो वह बचपनहींसे व्रतधारी हो। पश्चात उसने गुनको तीन प्रद. क्षिणा देकर वंदना की और गुमने धर्मदेशना देना प्रारंभ किया,-(२२५-२५४) "इस अपार संसार में, समुद्र के अंदर दक्षिणावर्त शंखको तरह, मनुष्यजन्म ऋठिनतासे मिलता है। यदि मनुष्यजन्म मिल जाता है तो बोधिधीज (सन्यक्त्व) मिलना बहुत कठिन है। यदि वह मिल जाए तो भी महावत (चारित्र) का योग तो पुण्ययोगसेही प्राप्त होता है। जहाँ तक वर्षाऋतुके मेघ नहीं . १-मैं उन सी कामोको छोड्ढा हु जिनसे हिंसा होती है। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५३५ पाते तभी तक, पृथ्वीपर सूरजका संताप रहता है। जहाँ तक केसरीसिंह नहीं आता तभी तक हाथी वनको नष्ट-भ्रष्ट करते हैं; जहाँ तक सूरज नहीं उगता तभी तक जगत अंधकारसे अंधा रहता है। जहाँ तक पक्षियोंका राजा गरुड़ नहीं आता तभी तक प्राणियोंको सर्पका डर लगता है और जब तक कल्पवृक्ष नहीं मिलता तभी तक प्राणी दरिद्री रहते हैं। इसी तरह जब तक महाव्रत प्राप्त नहीं होता तभी तक प्राणियोंको संसारका भय लगता है। आरोग्य, रूप, लावण्य, दीर्घ श्रायु, महान समृद्धि, हुकूमत, ऐश्वर्य प्रताप, साम्राज्य, चक्रवर्तीपन, देवपन, सामानिक देवपन, इंद्रपन, अहमिंद्रपन, सिद्धपन और तीर्थंकरपन, ये सभी बातें इस महाव्रतकेही फल हैं। एक दिनके लिए भी अगर कोई मनुष्य निर्मोही बनकर व्रतका पालन करता है तो वह, अगर उसी भवमें, मोक्ष में नहीं जाता है तो स्वर्गमें तो जरूर जाता है; तब जो भाग्यवान लक्ष्मीको तिनकेके समान छोड़कर दीक्षा ग्रहण करता है और चिरकाल तक चारित्र पालता है उसकी तो बातही क्या है ?" (२५५-२६३) . . इस तरह देशना देकर, अरिंदम महामुनि अन्यत्र विहार कर गए । कारण, मुनि एक स्थानपर नहीं रहते। विमलवाहन मुनिने भी ग्राम,शहर, आकर, द्रोणमुख' आदि स्थानोंमें गुरुके साथ छायाकी तरह विहार किया। .. . पाँच समितियाँ १-ईया समिति:-सूर्यका प्रकाश चारों तरफ फैल जाने रिदम महामुनि सुनिने भी मारण, मुनि एक १-चार सौ गांवोंके बीच में एक बड़ा शहर । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग १. पर जीयरक्षाके लिए युग मात्र (चार हाथ नीचे रस्तेपर) नजर रख ईयर्याविचक्षण(हरेक चीजमें पूरी तरह ध्यान देनेमें सावधान) वे ऋपि विहार करते थे। २-भापा समितिः-में चतुर व मुनि निरवद्य (जिससे किसीको दुःख न हो), मित (मर्यादित ) और सभी लोगोंका हित करनेवाली वागी बोलते थे। ३-एपगा समिनि:-एपणानिपुरण' वे महामुनि वयालीस दोपोंको टालकर पारनेके दिन आहार-पानी ग्रहण करते थे। ४-पादाननिनेपण समिति:-ग्रहण करनेमें चतुर वे मुनि श्रासन वगैराको देखकर सावधानीसे उसकी प्रतिलेखना करके रखते या उठाते थे। ५-परिष्टापनिका समितिः-सर्व प्राणियोपर दया रखनेवाले वे महामुनि कफ,मूत्र और मल निर्जीव पृथ्वीपर डालते थे। तीन गुप्तियाँ १-मन गुनि:-कल्पनाजालसे मुक्त और समता भावोंमें रहे हए. उन महामुनिने अपने मनको गुणरूपी वृक्षोवाले आराम (बगीचे) में आत्माराम किया था (आत्मध्यानमें लगाया था)। २-वचन गुप्तिः-प्राय: वे मौन रहते थे। इशारोंसे भी वात नहीं करते थे । यदि कभी किसी अनुग्राह्य ( जिसपर कृपा करनी चाहिए ऐसे पुरुयके श्राग्रहसे कुछ बोलते थे तो मित ___ . वचनही बोलते थे। . . . १-च्छी तरह देख-माल करना। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... .. श्री अंजितनाथ-चरित्र [५३७ . ३-काय गुप्तिः-(जब वे कायोत्सर्ग कर ध्यानमें खड़े होते थे तव ) महिष वगैरा पशु, कंधे या शरीरकी खुजली मिटानेके लिए मुनिको खंभा समझकर उनके शरीरसे अपने शरीरको घिसते थे तो भी वे कायोत्सर्गको छोड़ते न थे। आसन डालनेमें, उठाने में और संक्रमण (विहार करने) के स्थानोंमें चेष्टारहित .. होकर नियम करते.थे। . इसतरह वे महामुनि चारित्ररूपी शरीरको उत्पन्न करने में, उसकी रक्षा करनेमें और शोधन करने में (दोष मिटानेमें) माताके समान पाँच समिति और तीन गुप्तिरूपी आठ प्रवचन-माताको धारण करते थे। (२६४-२७५) . . बाईस परिसह १-क्षुधा परिसहः-भूखसे पीड़ित होनेपर भी शक्तिवान बनकर एषणाको लाँघे बगैर अदीन और व्याकुल हुए बगैर वे विद्वान मुनि संयम यात्राके लिए उद्यम करते हुए विचरण करते - - थे। २-तृषा परिसहः-रस्ते चलते हुए प्यास लगती थी तो भी वे तत्ववेत्ता मुनि दीन बनकर कच्चा पानी पीनेकी इच्छा न कर प्रासुक जल पीनेकीही इच्छा करते थे। ३-शीत परिसहः-सरदीसे तकलीफ पाते हुए और चमडीके रक्षण-रहित होते हुए भी वे महात्मा अकल्प्य (ग्रहण न फरने लायक) वन लेते न थे और न आग जलाते थे, न जलती हुई श्रागसे तापतेही थे। '४-उष्ण परिसहः-गरमियोंमें धूपसे तपते हुए भी वे मुनि Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १. . न धूपकी निंदा करते थे और न छायाकी ही याद करते थे; न किसी समय पंखेका उपयोग करते थे, न कमी स्नान या (चंदन थादिका) विलेपनही करते थे। ५-ईस-मशक परिसहः-डाँस और मच्छर वगैरा काटते थे तो भी वे महात्मा सबकी भोजनलोलुपताको जानते थे इससे उनपर न नाराज होते थे, न उनको उड़ाते थे और न उनको निराशही करते थे। वे उपेक्षा करके रहते थे। ६-अचेलक परिसहः--न वे यह सोचते थे कि वन नहीं है और न वे यही विचारते थे कि यह बन्न ग्वराव है। वे दोनों . तरहसे वस्त्रकी उपेक्षा करते थे। वे लाभालाभकी विचित्रताको जानते थे। वे कभी समाधि (ध्यान) में बाधा नहीं पड़ने देते थे। __-अरति परिसहः-धर्मरूपी श्राराम (बगीचे) में प्रीति रखनेवाले वे महामुनि कमी अरति (असंतोप)न करते थे। घे चलते, खड़े रहते या बैठते हुए सदा संतुष्टही रहते थे। ८-स्त्रीपरिसहः-जिनका, संगतिरूपी कीचक्रमी धोया न जा सके ऐसा होता है, और जो मोक्षरूपी दरवाजेकी अर्गलाके समान होती हैं उन त्रियोंका वे कभी विचार भी नहीं करते थे। कारण, उनका विचार भी धर्मनाशका कारणही होता है। t-चर्या परिसहः-प्रामादिम नियमित रूपसे नहीं रहनेपाले, इससे स्थानबंधसे वर्जित वे मुनि महाराज दो प्रकारके अभिग्रह सहित अकेलेही विचरण करते थे। . १०-निषद्या परिसहः-स्त्रीरूपी फटकसे रहित श्रासनादि Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र - [५३१ - . पर बैठनेवाले वे इष्ट और अनिष्ट उपसगोंको निःस्पृह और निर्भय होकर सहन करते थे। ११-शय्या परिसहः-यह संथारा (विस्तर)सबेरेही छोड़. ना पड़ेगा यह सोचकर वे मुनि अच्छे-बुरे संथारेमें, सुख-दुःख न मानते, रागद्वेष छोड़कर सोते थे। १२-आक्रोश परिसह-अपनी क्षमाश्रमणताको जानने वाले वे मुनि, गुस्सा करके बुरा भला कहनेवाले पर भी गुस्सा नहीं करते थे, वरन वे उसका उपकार मानते थे। १३-वध-बंधन परिसह-उनको कोई मारता था (बाँधता था) तो भी जीवका नाश न करने के कारणसे, क्रोधकी दुष्टता जाननेसे, क्षमावान होनेसे और गुणोंके उपार्जनसे वे किसीपर हाथ नहीं उठाते थे-किसीको नहीं मारते थे। - १४-याचना परिसह-दूसरोंके द्वारा दिए गए पदार्थ पर जीवननिर्वाह करनेवाले यतियोंको याचना करनेपर भी यदि कुछ न मिले तो क्रोध न करना चाहिए, यह समझकर वेन याचना-दुःखकी परवाह करते थे, न (वापस) गृहस्थ बन जानेकी ही इच्छा रखते थे। १५-अलाभ परिसह–वे अपने लिए और दूसरेके लिए भी अन्नादिक पदार्थ पाते थे कभी नहीं भी पाते थे, परंतु वेन तो पानेपर प्रसन्न होते थे और न न पानेपर अप्रसन्नही होते थे। लाभ होनेपर न मद करते थे और न अलाभ होनेपर अपनी या पराई निंदाही करते थे। . १६-रोग परिसह-वे न रोगसे घबराते थे और न इलाज Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग १. करानेकीही इच्छा करते थे। वे शरीरसे आत्माको भिन्न समझ अदीन हृदयसे रोगके दुःखको सहन करते थे। १७-तृणस्पर्श परिसह-थोड़े और बारीक वस्त्र विछानेसे विछे हुए विस्तर से तृणादिक पाने और चुमते थे; उस चुभनका दुःख वे सहते थे; मगर कभी मुलायम (या मोटे) विस्तरकी इच्छा नहीं करते थे। १८-मल परिसह-गरमियोंके तापसे सारे शरीरका मल भीग जाता था तो भी, वे न स्नान करनेकी इच्छा करते थे, न उद्वर्तन (लेप वगैरा करके मल निकालना ) ही चाहते थे। १६-सत्कार परिसह-(मुनिके आनेपर) सामने खड़े होना, (मुनिकी) पूजा करना और (मुनिको) दान देना आदि सत्कार-क्रियाओंकी वे चाह नहीं करते थे। वे न सत्कारके अभावमें दुखी होते थे और न सत्कार होनेपर प्रसन्नताही दिखाते थे। २०-प्रज्ञा परिसह-चेन नानीकाज्ञान और अपना अज्ञान देखकर दुखी होते थे, न अपने ज्ञानकी उत्कर्पता देखकर अभिमान ही करने थे। ... २१-अज्ञान परिसह-ज्ञान और चारित्रसे युक्त होनेपर भी अब तक मैं छद्मस्थही हूँ, इस भावनासे उत्पन्न होनेवाले दुःखको वे यह सोचकर सहते थे कि ज्ञानकी प्राप्ति धीरे धीरेही.. होती है। २२-सम्यक्त्व परिसह-जिनेश्वर, उनका कहा हुश्रा शास्त्र, जीव, धर्म, अधर्म और भवांतर, ये परोक्ष हैं तो भी धे Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र . [५४१ शुद्धदर्शनी (सम्यक्त्वी) मुनि उनको मिथ्या नहीं मानते थे। . इस तरह मन, वचन और कायाको वशमें रखनेवाले थे मुनि अपने आप पैदा हुए या दूसरोंके द्वारा किए गए शारीरिक और मानसिक सभी परिसहोंको सहन करते थे। (२७६-२६८) श्रीमान श्रहंत स्वामीके ध्यानमें निरंतर लीन रहकर उन मुनिने अपने चित्तको चैत्यवत (मूर्तिकी तरह) स्थिर बना लिया। सिद्ध, गुरु, बहुश्रुत, स्थविर,तपस्वी, श्रुतज्ञान और संघपर उनके मनमें भक्ति थी, इससे उन स्थानकोंका तथा दूसरे भी तीर्थकर नामकर्म उपार्जन करानेवाले स्थानकोंका-जिनकी आराधना करना महान आत्माओंके बिना दूसरोंके लिए दुर्लभ है-उन्होंने सेवन किया और एकावली, कनकावली, रत्नावली और ज्येष्ठ किंवा कनिष्ठित सिंहनिष्क्रीडित वगैरा उत्तम तप उन्होंने किए। कोंकी निर्जरा करने के लिए उन्होंने मासोपवाससे आरंभ कर अष्टमासोपवास तकके तप किए। समताधारी उन महात्माओंने इसतरह महान तप कर अंतमें दो तरहकी संलेखना तथा अनशन करके, तत्परतासहित पंचपरमेष्ठीका स्मण करते हुए अपने शरीरका इस तरह त्याग कर दिया जिस तरह मुसाफिर विश्रामस्थानका त्याग कर देते हैं। (२६६-३:५) दूसरा भव वहाँसे उनका जीव विजय नामक अनुत्तर विमानमें तेतीस सागरोपमकी आयुवाला देवता हुआ। उस विमानके देवताओंका शरीर एक हाथ प्रमाणका और चंद्रमाकी किरणों के समान Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग १. - पुजला होता है । श्रहंकाररहित, सुंदर श्राभूषणोंसे भूपित और अहमेंद्र के समान वे देवता सदा प्रतिकाररहित होकर सुखशय्या में सोते रहते हैं। शक्ति होते हुए भी उत्तरवैक्रिय निर्माण करके किसी दूसरे स्थानपर नहीं जाते। अपनी अवधिज्ञानकी संपत्तिसेवेसारी लोकनालिकाका अवलोकन किया करते हैं। उनको श्रायुक सागरोपमकी संख्या नितन पक्षांसे बानी तेतीस पक्षोंके बाद एक बार श्वास लेनापड़ता है और उतने हलार वर्षके यानी तेतीस हजार वर्ष बाद भोजनकी इच्छा होती है। इस तरहका उत्तम सुख देनेवाले उस विमानमें उत्पन्न होनेसे वे निर्वाण-मुम्बके समान उत्तम मुखका अनुभव करते थे। इस तरह रहते हुए जब श्रायुकं च महीने बाकी रहे तब दूसरे देवोंकी तरह उनको मोह न हुया, मगर पुण्योदय निकट पानसे उनका तेज बढ़ा। अमृतक सरोवर में इसकी तरह अद्वैत मुखके विस्तारमं मग्न उस देवन उस स्थानपर तेतीस सागरोपम प्रमाण की आयु एक दिनकी तरह पूर्ण की (३०६-३१२) आचार्य श्री हेमचंद्राचार्य विरचित त्रिपष्टिशलाका पुरुष चरित्र नामक महाकाव्यके दूसरे पर्वमें, श्री अजितस्वामीके पूर्वमत्र-वर्णन नामको प्रथम सर्ग समाप्त । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५४३ सर्ग दूसरा तीसरा भव-तीर्थकर पर्याय इसी जंबूद्वीपके भरत क्षेत्रमें, मानो पृथ्वीकी सिरमौर ' हो ऐसी विनीता (अयोध्या ) नामकी नगरी थी। उसमें तीन जगतके स्वामी आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजीके मोक्षकालके बाद, उनके इक्ष्वाकुवंशमें असंख्य राजा हुए। वे अपने शुभ भावों द्वारा सिद्धिपदको पाए या सर्वार्थसिद्धि विमानमें गए। उनके बाद जितशत्रु नामका राजा हुआ । इक्ष्वाकुवंशमें फैलाए हुए छत्रके समान वह राजा विश्वके संतापको हरनेवाला था। फैले हुए उज्ज्वल यशसे, उसके उत्साहादि गुण, चंद्रसे नक्षत्रोंकी तरह, सनाथता पाए थे। वह समुद्रकी तरह गंभीर, चंद्रकी तरह सुखकारी, शरणार्थीके लिए वनके घरके समान, और लक्ष्मीरूपी लताका मंडप था। सभी मनुष्यों और देवोंके दिलोंमें जगह बनानेवाला वह राजा, समुद्र में चंद्रमाकी तरह, एक होते हुए भी अनेकके समान मालूम होता था। दिशाओंके चक्रको आक्रांत करनेवाले (घेरनेवाले ) अपने दुःसह तेजसे वह मध्याह्नके सूर्यकी तरह सारे जगतके ऊपर तप रहा था । पृथ्वीपर राज्य करनेवाले उस राजाके शासनको, सभी राजा मुकुटकी तरह मस्तकपर धारण करते थे। मेघ जैसे पृथ्वीपरसे (समुद्रमेंसे) जल ग्रहण करके वापस पृथ्वीको देता है वैसेही वह पृथ्वी. मेंसे द्रव्य ग्रहण करके दुनियाकी भलाई के लिए वापस दे देता था। नित्य वह धर्मका विचार करता था, धर्मके लिए वोलता था और धर्मके लिए ही कार्य करता था। इस तरह मन, वचन Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्रः पर्व २. सर्ग २. और कायामें उसको धर्मके लिएही बंधन थे। उसके सुमित्र विजय नामका एक छोटा भाई था । वह असाधारण पराक्रमी था । बही युवराज भी था । (९-१२) उसके विजयादेवी नामकी रानी थी। वह पृथ्वीपर श्राई हुई सानो देवी थी। दो हाथों, दो नेत्रों और मुखसे मानो विकास पाए हुए कमलके, खंडमच भागों से बनी हो वैसे वह देवी शोभती थी । वह पृथ्वीका आभूषण थी और उसका श्राभूषण शील था। उसके शरीरपर आभूषणों का भार था, वह केवल प्रक्रिया (व्यवहार) के लिए ही था। वह सभी कक्षाओंोंको जानती थी और सारे संसार में शोभनी थी, इससे ऐसा मालूम होता था कि मानी सरस्वती या लक्ष्मी पृथ्वीपर निवास करनेके लिए श्राई है । राजा सर्वपुरुषों में उत्तम था और रानी सर्व त्रियाने उत्तम थी, इसलिए उन दोनोंका ने गंगा और सागरके संगम सा उत्तर था । ( १३-१७ ) विमलवाहन राजाका जीव विजय नामक विमानसे य ऋर, रत्नकी खानके समान विजयादेवीके गर्ममें, वैशाख सुदी १३ के दिन, चंद्रका योग रोहिणी नत्र में आया था तत्र, चीन ज्ञानको (मति, श्रुति और अवधि) धारण करनेवाले पुत्ररूपमें, आया । उनके गर्भवासमें धानसे एक नग लिए नारकी जीवोंको भी सुख हुआ। उस रातके प्रति पवित्र चौथे परमें विजयादेवीने चौदह सपने देखें । 1 नीर्थंकरकी माता के चौदह स्वप्न १- हस्ति- पहले सपने उस की सुगंध भरोंका Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५४५ ..समूह जिसपर भ्रमण कर रहा था ऐसा, गर्जनासे मेघको भी लाँघ जानेवाला और ऐरावतके समान एक हाथी देखा। . . २-वृषभ-दूसरे सपने में उसने ऊँचे सींगोंके कारण सुंदर, शरद ऋतुके मेघके समान सफेद और सुंदर पैरोंवाला मानो चलता-फिरता कैलाश पर्वत हो ऐसा वृषभ (बैल) देखा। .. ३-केसरीसिंह-तीसरे सपने में उसने चंद्रकलाके जैसा वक्र, नाखूनोंसे तथा कुंकुम और केसरके रंगको लाँघ जानेवाली केशर (अयाल) से प्रकाशित जवान केसरीसिंह देखा। ४-लक्ष्मीदेवी-चौथे सपनेमें उसने, दो हाथियों द्वारा दोनों तरफ दो पूर्ण कुंभोंको ऊँचा कर, जिसपर अभिषेक किया जा रहा है ऐसी और कमलके आसनवाली लक्ष्मीदेवी देखी। . .५-फूलोंकी माला-पाँचवें सपनेमें उसने खिले हुए फूलोंकी सुगंध द्वारा दिशाओंके भागको सुगंधमय बनानेवाली, आकाशमें रही हुई, मानो आकाशका ग्रैवेयक आभूपण हो ऐसी फूलोंकी माला देखी। . : ६-चंद्रमा-छठे सपने में उसने संपूर्ण मंडलवाला होनेसे असमयमेंही पूर्णिमाको बतानेवाला और किरणोंसे आकाशको तरंगित करनेवाला चंद्रमा देखा। . ७-सूर्य-सातवें सपनेमें उसने फैलती हुई किरणोंसे अंधकारके समूहको नाश करता हुआ और रातमें भी दिवसका विस्तार करता हुआ सूरज देखा। ८-ध्वज-आठवें सपने में उसने कल्पवृक्षकी शाखा हो ३५ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ५४६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग २. ऐसी और रत्नगिरिका मानो शिखर हो ऐसी आकाशगामिनी पताकासे अंकित रत्नमय ध्वज देखा। ___-पूर्णकुंभ- नवें सपनेमें उसने, खिले हुए कमलोंसे जिसका मुख ढका हुआ है ऐसा, मंगल-गृहके समान सुंदर पूर्णकुंभ देखा। १०-पद्मसरोवर-दसवें सपने में उसने लक्ष्मीदेवीके मानो आसन हों ऐसे, कमलोंसे चारों तरफ मुशोभित, स्वच्छ जलकी तरंगोंसे मनोहर पद्मसरोवर देखा। ११-समुद्र-ग्यारहवें सपने में उसने उछलती हुई तरंगोंसे और एकके बाद एक उठती हुई लहरोंसे मानो आकाशमें स्थित चंद्रमाका आलिंगन करना चाहता हो ऐसा समुद्र देखा। १२-विमान- बारहवें सपने में उसने मानो अनुत्तर देवलोकके विमानोंमेंसे उतरकर आया हो ऐसा, एक रत्नमय विचित्र विमान देखा। १३-रत्नपुंज-तेरहवें सपनेमें उसने रत्नगर्भा (पृथ्वी) ने मानो रत्नोंके सर्वस्त्रको जन्म दिया हो ऐसा, बहुत कांतिके समूहवाला उन्नत रत्नपुंज देखा। १४-निर्धम अग्नि-चौदहवें सपनेमें उसने तीनलोकमें रहे हुए सभी तेजस्वी पदार्थाका मानो तेजपुंज जमा किया हो ऐसी, निधूम अग्नि (जिसमें धुआँ न उठता हो ऐसी भाग) देवी। इस तरहसे परिपाटीके अनुसार इन चौदह सपनाका क्रमशः अपने मुखकमलम भ्रमरोंकी तरह प्रवेश करते हुए Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . श्री अजितनाथ-चरित्र [५४७ - विजयादेवीने देखा । (१८-३६) इंद्रका आगमन उस समय इंद्रका आसन काँपा, इससे उसने हजार आँखोंसे भी अधिक नेत्ररूपी अवधिज्ञानसे देखा । देखनेसे उसे तीर्थंकर महाराजका गर्भप्रवेश मालूम हुआ। इससे रोमांचित शरीरवाला इंद्र विचार करने लगा कि जगतके लिए आनंदके हेतुरूप परमेश्वर विजय नामके दूसरे अनुत्तर विमानसे च्यव कर, अभी जंबूद्वीपके दक्षिणार्द्ध भरतखंडके मध्यभागमें आई हुई विनीतापुरीमें जितशत्र राजाकी विजयादेवी नामक रानीके गर्भमें आए हैं। इस अवसर्पिणीमें, करुणारसके समुद्रके समान, ये दूसरे तीर्थंकर होंगे। यों सोच , आदरके साथ, सिंहासन, पादपीठ, और पादुकाओंका त्याग कर, खड़े हुए। फिर तीर्थकरकी दिशाकी तरफ सात-आठ कदम चल, उत्तरासंग(उत्तरीय वन) धारण कर, दाहिना घुटना जमीन पर रख, वायाँ घुटना जरा झुका, मस्तक और हाथसे जमीनको छू उसने भगवानको नमस्कार किया। फिर शकस्तत्र पूर्वक जिनवंदन कर वह सौधर्मेंद्र, विनीता नगरीमें जितशत्र राजाके घर आए। दूसरे इंद्र भी आसनोंके काँपनेसे अहंतके अवतारको जानकर भक्तिसे तत्कालही वहाँ आए । वे शक्रादि इंद्र, कल्याणकारी भक्तियाले होकर, स्वामिनी श्री विजयादेवीके शयनगृहमें आए। ... उस समय उस शयनगृहके आँगनमें आँवलोंके जैसे मोटे समवर्तुल ( एकसे गोल) निर्मल और अमूल्य मोतियोंके स्वस्तिक ( साँथिए) बने हुए थे। नीलमणिकी पुतलियोंसे अंकित स्वर्णके स्तंभोंसे और मर्कतमणिके पत्रोंसे, उसके द्वार . . . . Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. पर तोरण रचे हुए थे। बारीक तारोंवाले, पचरंगी, अखंड दिव्य वोंका, संध्यामेघसे श्राकाशकी तरह, चारोंतरफ उल्लोच . (चंदोवा) बंधा हुआ था। उसके चारों तरफ, स्थापित यष्टियों (खंभों) के समान, सोनेकी धूपदानियोंमेंसेधएकी घटाएँ निकल रही थीं। उस घरमें, दोनों तरफ ऊँची, वीचके भागमें जरा नीची, इसकी रोमलताकी रूईसे भरी हुई, तकियोंसे सुशोभित और उज्ज्वल चद्दरेवाली मुंदर शय्या थी । उसपर विजयादेवी, गंगाके तीरपर बैठी हुई हंसिनीके समान शोभती थीं। उन्ह इंद्रोंने देखा । उन्होंने, अपना परिचय दे, देवीको नमस्कार कर, तीर्थकरके जन्मकी सूचना देनेवाला सपनोंका फल बताया। फिर सौधर्मेंद्रने कुवेरको श्राज्ञा दी "जिस तरह ऋपभदेवके राज्यके आदिमें तुमने रत्नादिसे इस नगरीको पूर्ण किया था वैसेही; वसंत मास जैसे नए पल्लवादिसे उद्यानको नया वना देता है वैसेही, नए घरों वगैरासे इस नगरीको नया बनाओ और मेघ जैसे जलसे पृथ्वीको पूर्ण करता है वैसेही, सोना, धन, धान्य और वनोंसे इस नगरीको चारों तरफसे भर दो। यों कह शक्र और दूसरे इंद्र नंदीश्वरद्वीप गए। वहाँ उन्होंने शाश्वत जिन-प्रतिमाओंका अष्टाहिका उत्सव किया। फिर वहाँसे वे अपने स्थानोंपर गए। कुबेर भी इंद्रकी आज्ञानुसार विनीता नगरीको बना अपनी अलकापुरीमें गया ।मानो मेरुपर्वतके शिखर हों ऐसे ऊँचे सोनेके ढेरोंसे, मानो घेतान्य पर्वतके शिखर हों ऐसी चाँदीकी राशियोंसे. मानो रत्नाकरक सर्वस्व हों ऐसे रत्नोंके समूहोंसे, मानो जगतके हर्षे हों ऐसे सबह तरह के धान्योंसे, मानो सभी कल्पवृक्षोंसे लाए गए हों Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५४६ ऐसे वस्त्रोंसे, मानो ज्योतिष्क देवताओंके रथ हों ऐसे अति सुंदर वाहनोंसे; इसी तरह हरेक घर, हरेक दुकान और हरेक चौक नया बनाया गया था। इससे धन देकर पूर्ण की गई वह नगरी अलकापुरीके समान सुशोभित होने लगी। (३७-६४) . . चक्रवर्तीकी माताके चौदह स्वप्न . उसी रातको सुमित्रकी स्त्री वैजयंतीने-जिसका दूसरा नाम यशोमती भी था, वेही चौदह सपने देखे। कुमुदिनीकी तरह अधिक हर्ष धारण करती हुई उन विजया और वैजयंतीने वाकी रात जागते हुएही विताई । सवेरेही स्वामिनी विजयाने सपनेकी बात , जितशत्रु राजासे कही और वैजयंतीने सुमित्रविजयसे कही । विजयादेवीके उन सपनोंका सरल मनसे विचार कर उनका फल राजा जितशत्रु इसतरह कहने लगे, "महादेवी ! गुणोंसे जैसे यशकी वृद्धि होती है, शास्त्रोंका अभ्यास करनेसे जैसे विशेष ज्ञानकी सम्पत्ति मिलती है और सूरजकी किरणोंसे जैसे जगतमें प्रकाश फैलता है वैसेही,इन सपनोंसे तुम्हारे एक उत्तम पुत्ररत्न पैदा होगा।" ( ६५-७०) . इस तरह राजा जब सपनोंका फल कह रहे थे तभी प्रतिहारी (छड़ीदार) ने आकर सुमित्रविजयके आनेके समाचार दिए । सुमित्रविजय वहाँ आ पंचांगसे जमीन छू, राजाको देवता की तरह नमस्कार कर, यथायोग्य स्थानपर बैठा। थोड़ी देरके बाद पुनः भक्ति सहित हाथ जोड़, वह कुमार इस तरह कहने लगा, "आजरातके अंतिम प्रहर में आपकी वहू वैजयंतीने, मुखमें प्रवेश करते हुए चौदह सपने देखे हैं। वे इस प्रकार है, Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. - - (१) गर्जनासे दिग्गजोंको भी जीतनेवाला हाथी । (२) ऊँची ककुद् और उजली (व मुंदर) आकृतिवाला वृषभ । (३) ऊँची केशावलीकी पंक्तिसे प्रकाशित मुखवाला केसरी। (४) दोनों तरफ जिनकें दो हाथी अभिषेक कर रहे हैं ऐसी लक्ष्मी। (५) इंद्रधनुयके समान पत्ररंगी फूलोंकी माला । (६) अमृतकुंडके जैसा संपूर्ण मंडलवाला चंद्रमा । (७) सारे विश्वकै प्रतापको एकत्र किया हो ऐसा प्रतापवाला सूर्य। (5) झूलती पाताकाओंवाला दिव्य रत्नमय महावन । () नए सफेद कमलोंसे जिसका मुख ढका हुआ है ऐसा पूर्णकुंभ । (१०) मानो हजारों आँखोंवाला हो ऐसा, विकसित कमलोस शोभता पद्मसरोवर । (१२) तरंगोंसे मानो आकाशको डुवाना चाहता हो ऐसासमुद्र । (१३) मानो रत्नाचलका सार हो ऐसी, लकलक करती हुई कांतिवाला रत्नपुंज और (१४) अपनी शिखानोंसे पल्लवित करती हुई निघूम अन्नि । ऐसे चौदह सपने उसने देखे हैं। उनके फलतत्वको आप जानते हैं और उनको पानेवाले भी आपही हैं।" स्वमोंका फल राजाने कहा, "देवी विनयाने भी ये ही सपने रात्रिके अंतिम प्रहरमें, साफ तौरस देखे हैं। यद्यपि चे महा सपने साधारण रीतिसे मी महान फल देनेवाले और चाँदकी किरणोंके समान आनंददायक है तथापि सपनांके विशेष फलोंको जाननवाले पंहितोंसे इन सपनोंका फल पूछना चाहिए। कारणचंद्रमा Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५५१ की कांतिकी तरह इन विद्वानों में कुवलयको' आनंद देनेके गुण होते हैं।" कुमारके हाँ कहनेपर राजाने आदर सहित स्वपनशास्त्र जाननेवाले पंडितोंको बुला लाने के लिए प्रतिहारको भेजा। (८३-८६) फिर प्रतिहारने जिनके आनेके समाचार दिए हैं ऐसे, व (स्वप्न शास्त्रको जाननेवाले) साक्षात ज्ञानशास्त्रके रहस्य हों ऐसे नैमित्तिक उस राजाके सामने आए। स्नानसे उनकी कांति निर्मल थी और उन्होंने धोए हुए स्वच्छ वस्त्र पहने थे; इससे वे पर्वणी (पूर्णिमा) के चाँदकी कांतिसे आच्छादित तारे हों ऐसे लगते थे। मस्तकपर दूर्वाके अंकुर डाले थे इससे मानो मुकुट धारण करते हों ऐसे और केशोंमें फूल थे इससे वे मानो हंस और कमलों सहित नदियोंका समूह हों ऐसे मालूम होते थे। ललाटपर उन्होंने गोरोचनके चूर्णसे तिलक किया था इससे वे अम्लान (पूर्ण तेजवाली ) ज्ञानरूपी दीपशिखाओंसे शोभते थे और अमूल्य और थोड़े आभूपण उनके शरीरपर थे उनसे वे सुगंधित और थोड़े थोड़े फलोंवाले चैत्रमुखदुमों के समान शोभते थे। उन्होंने राजाके पास आकर, (राजा व कुमारको) भिन्न भिन्न और एक साथ भी आर्यवेदोक्त मंत्रोंसे आशीर्वाद दिया; और राजापर कल्याणकारी दूर्वा, अक्षतादि इस तरह १-चाँदके पक्ष में 'कुवलय' का अर्थ है चंद्रमासे विकसित होनेवाला कमल और दूसरे पक्ष में कुवलयका अर्थ है पृथ्वोका वलय ( मंडल ) २-चैत्र मास यानी वसंत ऋतु प्रारंभ होनेके पहले खिले हुए थोड़े फूलोंवाले वृत्त । ३-संस्कृत त्रिपटि श० पु० च० में टिप्पणमें इसका अथ 'जैनवेदोक्त' दिया है। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ ] त्रिषष्टि शलाका पुनय-चरित्र: पर्व २. सर्ग २. हाल जिम नरह बगीचोम पत्रन फल निगते हैं, फिर वे प्रति हारकं द्वारा बनाए गए मद्रासनापर इस तरह बैट जिस तरह हम कमलिनीके पन्नोंपर बैठते हैं। राजान अपनी रानीको और पुत्रवधूको परदे अंदर इस तरह बैठाया जिसनरह मेघोंके अंदर चंद्रलेखा रहनी है और नवमानों मानात स्वप्नफल हों ऐसे पुष्प और फल अंजलीम लेकर अपनी गनी व पुत्रवधुके सुपने उन नैमित्तिकोंको बताए। उन्होंने अापसमें, वहीं एकांतमें विचारविमर्श-सलाह-मशवरा करकं स्वप्नशान्त्र अनुसार सपनोंका अभिप्राय इन नरह कहना प्रारंभ क्रिया,-(८-१७) "६ देव स्वप्नशान्त्रमें बहत्तर सपन बनाए गए हैं। उनमें ज्योनिष्क देवांमें ग्रहकी तरह तीस सपने उत्कृष्ट कह गए है। उन तीम सपनों में भी इन चौदह सपनांको उस शात्रके चतुर विद्वान महास्वप्न कहते हैं। जब नीर्थकर अथवा चक्रवर्ती गर्ममें याने है नत्र उनकी माता रानक चौथ पहरम अनुक्रमसे इन सपनोंको देखती हैं। इनमसे सानु सपने वासुदेवकी मदादेखती है, चार सपने बलमद्रकी माना ग्वती है और एक सपना मंह लश्वरकी माना देखनी है । एक साथ (एकही माना ) दो तीर्थकर. या दो चक्रवर्ती नहीं होते। एक माताक पुत्र तीर्थकर और दूसरी मातार पुत्र चक्रवर्ती होते है। ऋषभदेवके समयमें भरत चक्रवर्ती हुए हैं और अजितनाथके समयमें मुमित्रके पुत्र मगर गजा चक्रवर्ती होगी जितशत्र गजाके पुत्र दुसरे तीर्थकर हाँग । उनका नाम अजितनाथ होगा। यह बात हमने अर्हत श्रागनसे (निनमापिन शान्त्रस) जानी है। इससे विनयादेवी पुत्र तीर्थकर हॉग और वैजयंती के पुत्र पटखंड भरतके Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र अधिपति चक्रवर्ती होंगे।" __ इस तरह सपनोंका फल सुनकर राजा संतुष्ट हुआ और उसने नैमित्तिकोंको गाँव, जागीर, अलंकार और वस्त्र उपहारमें दिए। "महापुमांसो गर्भस्था अपि लोकोपकारिणः ।" [महापुरुष गर्भावासमें भी लोगोंके लिए उपकारकर्ता होते हैं । ] कारण, स्वप्नशास्त्रके जानकारोंने महापुरुषोंके जन्मकी बात कही,इसीसे उनकी दरिद्रता उनके जीवनभरके लिए नष्ट हो गई। कल्पवृक्षोंकी तरह वस्त्रालंकारोंसे सुशोभित वे राजाकी आज्ञासे अपने अपने घर गए । गंगा और सिंधु जैसे समुद्रमें जाती हैं वैसेही विजया और वैजयंती भी खुश खुश अपने अपने महलोंमें गई । (१८-१०८) फिर इंद्रकी आज्ञासे देवों (वैमानिक देवों) और असुरों (भुवनपति देवों) की स्त्रियोंने विजयादेवीकी सेवा करना आरंभ किया। वायुकुमार देवोंकी रमणियाँ हर रोज आकर उनके घरसे रज (धूलि), तिनके और काष्ठ श्रादि दूर करने लगीं; मेघकुमारकी देवियाँ दासियोंकी तरह उनके आँगनकी जमीनको गंधोदकसे छिड़कने लगीं; छः ऋतुओंकी अधिष्ठाता देवियाँ, मानो गर्भस्थ प्रभुको अर्घ्य देनेके लिए तैयार हुई हों ऐसे हमेशा पाँच रंगोंके फूलोंकी वारिश करने लगीं; महादेवीके भावोंको जाननेवाली ज्योतिष्क देवियों समयके अनुकूल और सुखकर मालूम हो ऐसा प्रकाश करने लगी; वनदेवियाँ दासियोंकी तरह तोरणादिक रचने लगी और दूसरी देवियों चारण-भाटोंकी स्त्रियोंकी तरह विजयादेवीकी स्तुति करने लगीं। इस तरह सभी Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] त्रियष्टि शलाका पुन्य-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. देवियाँ अपने अधिदेवता (रक्षक, ईश्वर) की तरह विजयादेवी: की, अधिक अधिक सेवा करने लगीं। मेघघटा जैसे सूर्यके विवको और पृथ्वी जैसे निधान (धनके खजाने ) को धारण करती है वैसेट्टी, विजया देवी और वैजयंती देवी गर्भको धारण करने लगी । जलसे मरी हुई नलाई स बीचमें उगे हुए स्वर्णकमलसे अधिक शोमनी है वैसेही स्वाभाविक मुंदरतावाली वें देवियाँ गर्म धारण करने अधिक शोमन लगी। स्वर्णकी निके समान उनके गोरे मुन्वक्रमन्त, हार्थी दाँतकं छेदनेसे होनेवाली कांतिके जैसे पीलापनको धारण करने लगे। कुदरती तारनेही कानोंतक फैले हुए उनके नेत्र, शरद ऋतुक कमलकी तरक अधिक विकसित होने लगे। तुरत चोकर उजाली हुई सोनकी शलाकार समान उनकी सुंदरता अधिकाधिक होने लगी। सदा मंथरगति (धीमी चाल ) से चलनवाली देवियाँ मदसें बालसीवनी इराजहंसिनीकी तरह बहुत आहिस्ताबाहिस्ता चलने लगीं। दोनों मुखदायक गम, नदीमें उगे हुए कमलनालकी तरह और सीपोंमें पैदा हुए मौक्तिक रत्नकी तरह अति गृढ रीति से बढ़ने लगे। (१०-१२२) जन्म इस तरह नौ महीने और साढ़े आठ दिन बीत तब माघ महीनेकी मुदि आठम दिन, शुभ मुहूर्त में, सभी गृह उच्चन्यानमें श्राप थे तब रोहिणी नक्षत्र में, सत्य और प्रिय वाणी जैसे पुण्यको जन्म देती है उसी नरह विजयादेवीन गज लक्षावाले एक पुत्रको जन्म दिया। देवीको या पुत्रको किलीको-प्रसवसंबंधी कोई दुःख नहीं हुआ। कारण, तीर्थंकरोंका यह न्वा Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र भाविक प्रभाव है। उस समय असमयमें उद्भूत ( जन्मे हुए) मेघ विनाकी बिजलीके प्रकाशकी तरह क्षणभरके लिए तीनों लोकमें प्रकाश हुआ। शरद ऋतुमें पथिकोंको बादलोंकी छायाका जैसा सुख मिलता है वैसाही सुख क्षणभरके लिए नारकियोंको भी हुआ। शरद ऋतुमें जलकी तरह सर्व दिशाओं में प्रसन्नता फैल गई; और प्रातःकालमें कमलोंकी तरह सभी लोगोंके मन खिल उठे। भूमिमें फैलता हुआ दक्षिण पवन, मानो भूतलमेंसे उत्पन्न हुआ हो ऐसे, अनुकूल हो मंद-मंद वहने लगा। चारों तरफ शुभसूचक शकुन होने लगे; कारण महात्माओंके जन्मसे सभी बातें अच्छीही होती हैं । (१२३-१३०) - छप्पन दिक्कुमारियों का आना। उस समय प्रभुके पास जानेकी इच्छासे मानो उत्सुक हुए ___ हों ऐसे, दिक्कुमारियोंके आसन कंपित हुए । सुंदर मुकुटमणि की कांतिके प्रसारके बहाने उन्होंने उज्ज्वल कसूवी वखके बुरखे डाले हों ऐसे वे दिशाकुमारियाँ शोभने लगीं। अमृत ऊर्मियोंसे उभरते मानो सुधाकुंड हों ऐसे, अपनेही प्रभावसे पूरी तरहसे भरे हुए मोतियोंके कुंडल उन्होंने पहने थे कुंडलाकार होनेसे इंद्रधनुषकी शोभाका अनुसरण करनेवाले और विचित्र मणियोंसे रचे हुए कंठाभरण (गलेके जेवर ) उन्होंने धारण किए थे; रत्नगिरिके शिखरसे गिरते हुए निर्भरणोंकी शोभाको हरनेवाले, स्तनपर स्थित मोतियों के हारोंसे वे मनोहर मालूम होती थीं; कामदेवके रखे हुए मानो सुंदर भाथे हों ऐसे माणिक्यके कंकणोंसे उनकी भुजवल्लियाँ (भुजारूपी वेलें) शोभती थीं; जगतको जीतनेकी इच्छा करनेवाले कामदेवके लिए मानो चिल्ला Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ५५६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग २. वैयार किया हो ऐसी अमूल्य रत्नोंस बनी हुई कटिमेखलाण उन्दोंन पहनी थीं; उनके शरीरकी किरगाांक द्वारा जीवं गए सभी ज्योतिष्क देवोंकी किरणे मानों उनके चरणकमलोंमें श्राकर पड़ी ही ऐसे रत्नोंके नूपुसि व शोमती थीं। उनमसे किन्हीके शरीरकी कांनि प्रियंगु (काली कंगनी) के समान श्याम थी, कई बालसूर्यके समान अपनी कांति फैलानी थीं, कई चाँदनीके समान अपनी क्रांनिसे अपनी आत्माको स्नान कराती थी, कई अपनी कांनिसे दिशाओंको कनकसूत्र देती थीं और कई मानो वयमगिकी पुतलियाँ ही गमी कांतिमान मालूम होनी थीं। गोलाकार स्तनास मानो वे चकचकी लोड़ी सहित नदियाँ हो, लीलायुक्त गतिसे मानो , राजहंसिनियाँ हो, कोमल हाथोंस मानों में पत्नीसहित लताएँ हो, मुंदर, आँखोंसे मानो वे विक्रमित पन्नवाली पद्मिनियाँ हो. नंदरता परस सानो वे जलमहिन वापिकाएं, हो और लावण्यस मानो व कामदेवकी अधिदेवता देव) हां, एसी शोमती थीं। इस तरहका रुप धारण करनेवाली उन यापन दिशाकमारियान, अपन यासनको कॉपने देख, अवविज्ञान तुरत मालम किया कि विनयादेवीकी कोबसे तीर्थकरका पवित्र जन्म हया है। उन्होंने लाना कि, इस जंयुट्टीप दक्षिगा भरताडके मध्य भागमें विनीता नगरीके अंदर, इत्या अलका राजा है। उसका नाम जितशत्रु है। उसकी धमपत्नीका नाम विजयादेवी है। उन्हींकी कोखसे, इस अवसर्पिणी में तीन बानको धारण करनेवान श्रीमान दूसरे तीर्थकर भगवान पैदा हुए हैं। यह जान ग्रामनसे उठ, हर्ष Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अजितनाथ-चरित्र [५५७ सहित आठ-दस कदम तीर्थंकरकी दिशाकी तरफ चल, मानो मनको आगे किया हो ऐसे, प्रभुको नमस्कार कर, सबने शकस्तवसे भक्तिपूर्वक वंदना की। फिर सबने निज निज सिंहासनोंपर बैठकर अपने अपने आभियोगिक देवताओंको इस तरह आज्ञा की-(१३१-१५२) "हे देवताओ ! दक्षिण भरतार्धमें दूसरे तीर्थंकरका जन्म हुआ है। आज हमें उनका सूतिका-कर्म करनेके लिए वहाँ जाना है। इसलिए बहुत बड़े लंबे चौड़े विविध रत्नोंके विमान हमारे लिए तैयार करो।" उनकी यह आज्ञा सुनकर महान शक्तिशाली उन देवताओंने तत्काल विमानोंकी रचना कर उनको बतलाया। वे विमान हजारों स्वर्णकुंभोंसे उन्नत थे; पताकाओंसे वैमानिक देवताओंके, मानों वे पल्लव हों ऐसे मालूम होते थे; तांडवश्रमसे थकी हुई नर्तकियोंके मानो समूह हों ऐसी पुतलियोंवाले मणिस्तंभोंसे वे सुंदर लगते थे; घंटाओंके घोपके आडंबरसे वे हाथियोंका अनुसरण करते थे; आवाज करती हुई घुघरियोंके समूहसे वे वाचाल मालूम होते थे; मानो लक्ष्मीके आसन हों ऐसी वनवेदिकाओंसे वे सुशोभित थे और उनसे फैलती हुई हजारों किरणोंसे वे ऐसे मालूम होते थे मानो सूर्यबिंब हों; उनकी, चारों तरफकी, दीवारों और खंभोंपर रत्नमय ईहामृग (भेड़िए), बैल, घोड़े, पुरुप, रुरुमृग (काले मृग), मगर, हंस, शरंभ (अष्टापद), चामर, हाथी, किन्नर, बनलता और पद्मलताके समूह बने हुए थे। (१५३-१६१) प्रथम अधोलोकमें बसनेवाली, देवदुण्यवस्त्र धारण करनेवाली और जिनके केशपाश पुष्पोंसे अलंकृत हैं ऐसी-भोगकरा, - Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. - भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधारा,विचित्रा, पुष्पमाला, और अनिदिना ये पाठ दिक्कुमारिकाएँ विमानोंमें सवार हुई। हरेकके साथ चार चार हजार सामानिक देवियों, चार महत्तग देवियों, सात महा अनीकें (फोजें), सात सेनापति, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवियाँ,अनक व्यंतर देवता तथा बड़ी ऋद्धिवाली देवियाँ थीं। वे सब मनोहर गीत-नाच कर रही थीं। उनका विमान ईशान दिशाकी तरफ चला। अव उन्हान क्रिय समुद्वान करके असंख्य योजनका एक दंड बनाया । वडुर्यरत्न, बजरत्न, लोहिन, अंक, अंजन, अंजन घुलक,पुलक,व्योतिरस, सोगंधिक,अरिष्ट, नफटिक, जातप और हमगर्म वगैरा अनेक तरहक उत्तम रत्नकि नया प्रसारगल्ल वगैग़ मणियोंकि स्थल पुद्गलोकोदर करके उनमंस सुक्ष्म पुदगल ग्रहण किए. पार उनसे अपना उत्तर वैक्रिय रूप बनाया। कहा है "देवतानां जन्मसिद्धाः खलु बैंक्रियलब्धयः ।" [देवताओंको जन्मसेही बैंक्रियलब्धि सिद्ध होती है।] फिर उत्कृष्ट, त्वरित, चल, प्रचंड, सिंह, उद्धत,यतना, छंक और दिव्य ऐसी देवगतियोंसे, सर्व ऋद्धि तथा सर्व बल सहित वे अयोध्या,जितशत्रु राजाके सदन में था पहुंची । ज्योतिष्क देव अपने बड़े विमानोंस मेक पर्वतको प्रदक्षिणा देत है बसही उन्होंने तीर्थकर मूनिकागृहको तीन प्रदक्षिणा दी और फिर विमानोंको पृथ्वीसे चार अंगुल ऊँचे, जमीनको न छुएं ऐसे ईशान फोनमें खड़ा किया । फिर. (विमानोंसे उतरकर) ३ सूतिकागृह १-वहियब्धिवाले इच्छानुसार अपने शरीरको बदल सकते हैं। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्री अजितनाथ-चरित्र [५५६ में जा, जिनेंद्र और जिनमाताको तीन प्रदक्षिणा दे, हाथ जोड़, इस तरह कहने लगीं,-(१६२-१७७) - "सर्व षियों में श्रेष्ठ, उदर में रत्नको धारण करनेवाली, और जगतमें दीपकके समान पुत्र को जन्म देनेवाली हे जग'न्माता ! हम आपको नमस्कार करते हैं। श्राप जगतमें धन्य हैं ! पवित्र है ! उत्तम हैं ! इस मनुष्यलोकमें आपका जन्म सफल है। कारण, पुरुषोंमें रत्नरूप, दयाके समुद्र,तीन लोकमें वंदनीय, तीन लोकके स्वामी, धर्मचक्रवर्ती, जगतगुरु, जगतबंधु, विश्वपर कृपा करनेवाले और इस अवसर्पिणीमें जन्मे हुए दूसरे तीर्थकरकी आप जननी हैं। हे माता! हम अधोलोकमें रहनेवाली दिशाकुमारियाँ हैं और तीर्थंकरका जन्मोत्सव करनेके लिए यहाँ आईं हैं। आप हमसे भयभीत न हों।" यों कह, प्रणाम कर, वे ईशान दिशाकी तरफ गई और __उन्होंने वैक्रिय-समुद्धातके द्वारा, अपनी शक्तिरूपी संपत्तिसे, क्षणभरमें संवर्तक नामकी वायुको उत्पन्न किया। सर्व ऋतुओंके पुष्पोंकी सर्वस्व सुगंधको वहन करनेवाले सुखकारी, मृदु, शीतल और तिरछा बहनेवाले उस पवनने सूतिकागृहकी चारों तरफ एक योजन तक तृणादि दूर कर भूमितलको साफ किया। फिर वे कुमारिकाएँ भगवान और उनकी माताके समीप गीत .गाती हुई हर्पसहित खड़ी रहीं। (१७८-१८७) फिर ऊर्द्धरुचकमें स्थितिवाली, नंदनवनके कूटपर रहनेवाली और दिव्य अलंकारोंको धारण करनेवाली मेघंकरा, · मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, वारिपेणा और बलाहका नामक आठ दिशाकुमारियाँ, पहलेके अनुसारही - Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग २. महत्तरा, सामानिक, अंगरक्षिका, सेना और सेनापतियोंके सहित वहाँ आई। उन्होंने स्वामीके जन्मसे पवित्र बने हुए सुनिकागृहमें जाकर जिनेंद्र और जिनमाताको तीन बार प्रदक्षिणा दी और पहलेकी देवियोंकी तरह ही अपना परिचय दे, विजयादेवीको प्रणाम, नथा स्तुति कर मेवको विकृर्वित किया। (यानी श्राकाशमं बादल बनाए।) उसने भगवानके जन्मस्थानसे (चारों तरफ) एक एक योजन तक-न कम न ज्यादानांधोदककी वर्षा की । तपसे जैसे पापकी शांति होती है और पूर्णिमाकी चाँदनीसे से अंधकार मिटता है वैसेही, नत्कालही उस वर्षासे रजकी शांनि हो गई। यानी धूल उड़नी बंद हो गई ।) उसके बाद उन्होंने रंगभूमिमें रंगाचायकी नरह,तत्कालही त्रिकसित, और विचित्र पुष्प वहाँ फैला दिए इसी तरह कपूर तथा अगरकी धूपसे, मानो लक्ष्मीका निवासगृह हो ऐसे, उस भूमिको मुर्गधिन बना दिया। फिर वे तीर्थंकर और उनकी मातासे थोड़ी दूरीपर भगवान के निर्मल गुणोंका गायन करती हुई खड़ी रहीं। (१८८-१९७) ___इसके बाद नंदा, नंदोतरा, आनंदा, आनंदवर्टना, बिलया, वैजयंती, जयंती और अपराजिता नामकी पूर्वन्चकाद्रिमें निवास करनेवाली पाठ दिवमारियाँ अपनी सर्व ऋद्धि, और अपने पूर्ण बल सहित वहाँ पाई। पूर्वकी तरह वे परिवार सहित सुतिकागृहमें गई और स्वामी नथा उनकी माताको प्रणाम कर, तीन प्रदक्षिणा कर स्वामीको अपना परिचय दे, पूर्ववत नमन व म्तुनि कर, रत्नके दर्षगा हाथमें ले गायन करती हुई पूर्व दिशामें खड़ी रहीं। (१६८-२०१) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६१ .. दक्षिण रुचकादिमें रहनेवाली, सुंदर आभूपण, दिव्य वस्त्र और मालाएँ धारण करनेवाली समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेपवती, चित्रगुप्ता तथा वसुंधरा नामोंको धारण करनेवाली और पूर्ववत परिवारवाली आठ दिक्कुमारियाँ प्रभुके मंदिरमें आई और स्वामिनीको प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार कर, अपना परिचय दे, भगवान और उनकी माताके दक्षिण तरफ, मधुर शब्दों द्वारा मंगलगीत गाती हुई हाथोंमें कलश लेकर खड़ी रहीं। (२०२-२०५) पश्चिम रुचकादिमें बसनेवाली आठ दिशाकुमारियों उतनाही परिवार लेकर वहाँ आई। उनके नाम इलादेवी, सुरादेवी, पृथ्वी, पद्मावती, एकनासा, नवमिका, भद्रा और सीता हैं । वे पूर्ववत अपना परिचय दे, प्रदक्षिणा कर, जिन और जिनमाताके पश्चिम तरफ अपने हाथोंमें सुंदर पंखे लिए गायन करती हुईं खड़ी रहीं । ( २०६-२०८) उत्तर रुचकाद्रि में निवास करनेवाली अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुंडरीका, वारुणी, हासा, सर्वप्रभावा, श्री और ही नामकी आठ दिक्कुमारियाँ पूर्ववत परिवार सहित वहाँ आई और अपना परिचय दे, प्रदक्षिणापूर्वक भगवान और उनकी माताको नमस्कार कर, हाथमें सुंदर चमर ले, गायन करती हुई उत्तर दिशाकी तरफ खड़ी रहीं।। (२०६-२११) विदिकम्चकाद्रिमें रहनेवाली चित्रा, चित्रकनका, सुतेग और सौत्रागणी नामकी चार कुमारियों वहाँ आई और प्रदक्षि. ___ ३६ - - - - - Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२] त्रिषष्टि शनाका पुरुप चरित्र: पत्र २. सग २. शापत्रक जिनवर और उनकी माताको नमस्कार कर, अपना परिचय , नोंक विद्युल गुणोंका गायन करती हुई, हाथों दीपिका ले, ईशान कानमें न्यही नहीं 1 (२१२-२१४) न्त्रक पिकं मध्यमें रहनेवाली नपा, पांशिका, मुरूपा और यकायती नामकी चार अमारियाँ भी हरक पूर्वकी तरहही परिवार सहित बड़ विमानमें सवार होईन जन्मनगरमें आई। पहले चन्द्रनि विमानों सहित घरकी प्रददिशा दी व विमानोंको योग्य न्यानपरत्राफिर व पंदल चलकर जन्मगृहमें श्राई और भगवान तथा उनकी माताको, भक्तिसहित प्रदक्षिणापूर्वक प्रणाम करके, इस तरह कहने लगी-"विश्वको श्रानंद देनेवाली है जगन्माता ! श्रापकी जय हो ! श्राप चिरजीवी हो । श्राप दान धान हमारे अच्छा मुहूर्त हुआ है। रत्नाकर, नशेत श्रीर लामा-मत्र निरर्थक नामधारी है। गन्नमृमि तो श्राप पकड़ी । क्योंकि यापन (इन रत्नों अंट) पुत्ररत्नको जन्म दिया है। हम नत्रऋद्वीप मध्यमें रहने वानी विष्कुमारिला है, श्रहंत जन्मत्य करने लिए हम अहाँ पाई है. इसलिए श्राप हमसे जरा भी भयभीत न हो।" याँ कहकर उन्होंने प्रमुचा नामिनाल चार अंगुल रखा और बाकी काट दिया। फिर उस कंटे वग नालको, भूमि बट्टा बोकर निधिनी नरह गया और रत्न नथा हीगने खई. को पर दिया । नकाल उत्पन्न हुई दुवाले उन नपर. पीठिका बाँध ली। देवनायांप्रमावसे नन्कालही वर्माचा भी बननादा है। फिर उन्द्रनि मुनिकागृहकी तीनों दिशानि, इमरम लबीके गृहन्म नीन ऋदलीगृह वार किए। उनसे हरेकके Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५६३ बीचमें चतुःशाल ( चबूतरा ) बना उनके बीचमें एक एक बड़ा रत्नसिंहासन रचा। फिर वे कुमारियाँ प्रभुको हाथोंमें और माताको भुजाओंपर उठाकर दक्षिण कदलीगृहमें गईं। वहाँ चतुःशालके अंदर उत्तम रत्नसिंहासनपर स्वामीको और माताको आरामसे विठाया और खुद मालिश करनेवाली वनफर शतपाकादि तेलसे दोनोंके, धीरे धीरे मालिश की; सुगंधी द्रव्य और बारीक उवटनसे क्षणभरमें रत्नदर्पणकी तरह उन दोनोंके शरीरका मैल निकाल दिया। फिर वहाँसे वे उनको पूर्ववत पूर्व दिशाके कदलीगृह में ले गई। वहाँ चतुःशाल में रत्नके उत्तम सिंहासनपर प्रभुको और माताको, आरामसे बिठाकर गंधोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदकसे उन्होंने, मानो जन्महीसे वे ( इस काममें ) तालीम पाई हुई हों ऐसे, स्नान कराया। चिरकालके वाद उपयोगमें आई हुई अपनी शक्तिसे कृतार्थताका अनुभव करती हुई उन्होंने उनको विचित्र रत्नोंके अलंकार पहनाए । फिर पहलेकीही तरह उनको लेकर वे उत्तर-दिशाके मनोहर कदलीगृहमें गईं। वहाँ उन्होंने उनको चतुःशालके सिंहासनपर विठाया। उस समय वे दोनों पर्वतपर बैठी हुई सिंहिनी और उसके पुत्रकी शोभाको धारण करते थे। वहाँ कुमारियोंने आभियोगिक देवोंसे, क्षणभरमें, क्षुद्रहिमाचलपरसे, गोशीर्षचंदनकी लकड़ियाँ मँगवाई। फिर अरणीकी लकड़ीको घिसकर आग पैदा की। चंदनकी लकड़ियोंको घिसनेसे भी आग पैदा होती है। चारों तरफसे गोशीपचंदनके समिध करके, उन देवियोंने अाहिताग्नि ( अग्निहोत्री) की तरह उस भागको प्रज्वलित किया । उस अग्निके होमसे भूतिकर्म (जन्मसंस्कार) Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. करकं, मनिसे उन्नत बनी हुई उन देवियोंने, निनंद्रको रक्षाबंधन बाँधा और उन कानोंमें "तुम पर्वतकं समान आयुवान हो" कहकर आपस में रहनपापाणके दो गोले टकराए। फिर वे प्रमुको हाथांपर और विजयादीको भुजाओंपर उठाकर मुतिकागृहमें ले गई और वहाँ उन्होंने उनको शेयापर लिटा दिया। फिर वे स्वामी और उनकी माता सन्चल गुणोंका अच्छी तरहसे गान करती हुई थोड़ी दूरीपर, खड़ी रहीं।। (२१५-२४३) इंद्रोंका आना माधमदेवलोक शकेंद्र अपने सिंहासनपर कटा था। वह महा वैभवशाली था। कोटि देवना और कोटि अप्सराएँ उसकी सेवामें थीं; कोटि चारण उसकी स्तुति कर रहे थे, गंधर्व अनेक नरहस उसके गुणसमूहका गान कर रहे थे वारांगनाएं उसकी दोनों नरक खड़ी होकर उसपर चमर दुला रही थी; मन्तऋक ऊपर रहे हम सफेद छत्रसे वह मुशामिन हो रहा था और मुघना समान उसका सुन्तकारी सिंहासन था। उस समय (भगवानका नन्म हुया उस समय ) उसका सिंहासन कापा । सिंहासनक काँपन वद्द गुन्के मार चंचल हो उठा। उनके पाठ काँपने लगे, इनसे बह हिलती हुई चालावाली आग हो ऐसा मालूम होने लगा, उसकी चट्टी हुई प्रचंड अश्रुटिसे बह मतुवाला श्राकाश हो गया भयंकर मालूम होने लगा, मदमस्त हाथोकी तरह उसका मुंह नौबंगला हो गया और इतने हप तरंगवान्न समुद्रकी तन्ह उसका ललाट त्रिवली अंकित हो गया। इस विनिमें उसने अपने शत्रनाशकवचकीतरफ देखा। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६५ . उसको इस तरह गुस्सेमें देखकर उसका नैगमिपी नामक सेनापति खड़ा हुआ और वह हाथ जोड़कर कहने लगा, "हे स्वामी ! मैं आपका आज्ञाकारी हाजिर हूँ, तो भी आपका यह आवेश किसपर है ? सुर, असुर और मनुष्योंमें न कोई आपसे बढ़कर है, न कोई आपके समानही है । आपके आसनकंपका जो हेतु हुआ हो उसका विचार करके आप उसे अपने इस दंडकारी सेवकको बताइए।" (२४४-२५३) सेनापतिकी यह बात सुनकर इंद्रने अवधान करके (ध्यान लगाकर) तत्कालही अवधिज्ञानसे देखा तो उसे दूसरे तीर्थंकरका जन्म होना इसी तरह मालूम हो गया जिस तरह जैन प्रवचनसे धर्म और दीपकसे अँधेरेमें वस्तु मालूम हो जाती है। वह सोचने लगा, "जंबूद्वीपके भारतवर्षमें विनीता नामकी नगरी है। उसमें जितराजाकी रानी विजयादेवीके गर्भसे इस छावस. पिणी कालमें दूसरे तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं। इसीसे मेरा यह आसन कौंपा है। मुझे धिक्कार है कि, मैंने उलटी बात सोची। मैंने ऐश्वर्यसे मत्त होकर दुष्कृत किया है, वह मिथ्या हो।" (२५४-२५८) इस तरह विचार कर वह अपना सिंहासन, पादपीठ और पादुकाका त्याग कर खड़ा हुआ। शीघ्रतासे उसने, तीर्थकरकी दिशाकी तरफ, मानो प्रस्थान करता हो इस तरह, कई कदम रखे; फिर जमीनपर दाहिना घुटना रख, बायाँ घुटना जरा झुका, हाथ और सरसे भूमिको बू, स्वामीको नमस्कार किया। वह शक्रस्तवसे वंदना कर, वेलातटसे (भाटेकी तरह किनारेसे ) लौटे हुए समुद्रकी तरह वापस जाकर अपने सिंहा Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पत्र २. सग २. सनपर बैठा। फिर गृहत्य मनुष्य जैसे स्वजनोंको बताता है वैसेही, तीर्थकरके जन्मकी वान सब देवताओंको बतलानके और उनको उत्सबमें बुलाने के लिए, मानो मृर्तिमान हर्ष हो ऐसा रोमांचित शरीरबान इंद्रन अपने नगमेपी सनापतिको अाज्ञा दी। उसने इंद्रकी यात्राको इसी तरह सादर शिरोधार्य क्रिया जिस तरह प्यासा मनुष्य जल ग्रहण करता है। यह वहाँसे रवाना हुया और मुधर्मा समान्पी गाय गर्नका घंटा हो एम, योजन-मंडलवाल मुबाधा नागक घंटको उसने तीन बार बजाया। मथन किए जानवान्त समुद्र से उठनेवाली थावाज. की नरह, उसको बजानेसे उससे, सार विश्वकै कानोंके लिए अतिथिक समान, महानाद स्पन्न हुथा। इससे एक कम बन्नीस लाख चं, तत्कालही इसी तरह बन उठें जिस तरह गाय बोलने के बाद बछड़ बोलत है। उन घंटोंके महानादसे लाग सोधम कल्प शब्दानमय' हो गया। बत्तीस लाख विमानामक नित्य प्रमादी ऐसे देवता भी उस नादको सुननेसे, गुफाओं में सोते हुए सिंहॉकी नरह जाग्रत हुए। इनकी श्रान्नासे किसी देवन, घोषणापी नाटक नांदील्पर इस सुघोपा घंटको बनाया है. इस लिप इंदकी श्राना बतानेवाली घोपणाको अवश्य सुनना चाहिए यह सोचकर सभी देवता कान देकर गुननको तत्पर हुए । घंटाकी श्रावाज बंद हुई तब इंद्रके सेनापदिने बुलंद श्रावाजमें इस तरह कहना श्रारंभ किया,-" मोधर्म वनवासी देवतायों मुनी स्त्रिापनि इंद्र तुमकोआना १-शम्द-यात्रा के दिया यहाँ और कुछ नहीं रहा। २-त्रधारक माना Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६७ देता है कि, जंबूद्वीपमें भरतखंडके अंदर, अयोध्या नगरीके जितशत्रु राजाकी विजया रानीकी कोखसे, जगतके गुरु और विश्वपर कृपा करनेवाले दूसरे तीर्थंकरका,दुनियाके भाग्योदयसे, आज जन्म हुआ है। अपने आत्माको पवित्र करनेके लिए प्रभुका जन्माभिषेक करने के निमित्त हमें परिवार सहित वहाँ जाना चाहिए। इसलिए तुम सब, अपनी ऋद्धि और अपने बल सहित मेरे साथ चलनेके लिए, तत्कालही यहाँ आओ।" मेघ-गर्जनासे जैसे मोर प्रसन्न होता है वैसेही, यह घोपणा सुनकर सभी देव बहुत प्रसन्न हुए । तत्काल मानो स्वर्गीय प्रवहण (जहाज ) हों ऐसे, विमानों में बैठ बैठकर आकाशसमुद्रको पार करते हुए वे सभी इंद्रके पास आ पहुँचे। (२५६-२८०) इंद्रने अपने पालक नामके आभियोगिकदेवताको श्राज्ञा दी कि "स्वामी के पास जाने के लिए एक विमान वनायो।" इससे उसने एकलाख योजनलंबा-चौड़ा, मानो दूसराजंबूद्वीप हो ऐसा, और पाँच सौ योजन ऊँचा एक विमान बनाया। उसके अंदरकी रत्नमय दीवारोंसे मानो वह उछलते हुए प्रवालोंवाला समुद्र हो, सोनेके कलशोसे मानो वह खिलेहुए कमलोंवाला समुद्र हो, लंबी ध्वजा ओं के कपड़ोंसे मानो वह शरीरमें तिलक लगाए हुए हो, विचित्र रत्नशिखरोंसे मानो वह अनेक मुकुटोवाला हो, अनेक रत्नमय स्तंभोंसे मानो वह लक्ष्मीकी हथिनीका आलानन्तभवाला हो, और रमणीक पुतलियोंसे मानो वह दूसरी अप्सराओंवाला हो ऐसा मालूम होता था। वह तालको ग्रहण करनेवाले नटकी तरह किंफिणीजालसे मंडित था, नक्षत्र सहित आकाशकी तरह वह Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्य २. सर्ग २. मोतियोंके माँधियोंसे अकिन था और ईहामृग, अश्व, बैल, नर, किन्नर, हाथी, हम, वनलता थोर पदालताओंके चित्रोंसे यह सजा हुया था। मानो महागिरिसे उतरते और विस्तृत होते हुए निर्भरणों की तरंगें हो ऐसी, विमानमें तीन तरफ सोपानपंक्तियाँ (सीढ़ियाँ) थीं । सोपानपंक्तियों के आगे इंदके अखंड धनुपकी श्रेणीक मानो सहोदर ही ऐसे, तोरण थे। उसका निचला भाग आपस में मिले हुए पुष्करमुख ( कमलमुख ) और उत्तम दीपक श्रेणी के जैसा समानतलवाला (फर्शवाला) और कोमल था। मुस्पर्शवाले और कोमल कांतिबाले पंचवर्णी चित्रोंसे विचित्र बना हुआ वह भूमिभाग, मानो मोरके पंखोंसे छाया हुआ हो ऐसा शोभना था। उसके मध्यभागमें मानो लक्ष्मीका क्रीड़ागृह हो और नगरी में मानो राजगृह हो ऐसा, प्रेक्षा-गृह-मंडप (नाटक घर ) था। उसके बीच में लंबाई और विस्तार में पाठ योजन प्रमाणवाली और ऊँचाईमें चार योजन प्रमागण्वाली एक मणिपीठिका थी। उसपर, अंगूठी में जड़े हुए बड़े माणिक समान, एक उसम सिंहासन था। उस सिंहासनपर, स्थिर हुई.शरद ऋतुकीचंद्रिका प्रसारका भ्रम पैदा करने. वाला चाँदीके जैसा उजाला उल्लोच (चंदोवा)था। उस उल्लोचके बीजमें एक बज्नमय अंकुश लटकता था। उसके पास एक मोतियोंकी हॉडियोका हार लटकता था और उसके चारों कोनोंपर, मानो छोटी बहनें हों ऐसी, उससे श्राधे श्राकारवाली मोतियोंकी हॉडियोंके चार हार लटक रहे थे। मंद पवनसे हार धीरे धीरे हिल रहे थे, मानो इंद्रकी लक्ष्मीके खेलनेके भूलेकी शोभाको चुरा रहे थे। इंद्रके मुन्न्य सिंहासनके ईशान कोनमें, Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६६ उत्तर दिशामें और वायव्य कोनमें चौरासी हजार सामानिक देवोंके चौरासी हजार सुंदर रत्नमयभद्रासन विछे हुए थे। पूर्वमें इंद्रकी आठ इंद्राणियोंके आसन थे। वे ऐसे शोभते थे मानो लक्ष्मीके क्रीड़ा करनेकी माणिक्य वेदिकाएँ (खुले मंडप) हों। अग्निकोनमें अभ्यंतर पर्पदाके (सभाके) वारह हजार देवताओंके आसन थे, दक्षिण दिशामें मध्य पर्पदाके चौदह हजार देवताओंके आसन थे, नैऋत्य कोनमें बाह्य पर्पदाके सोलह हजार देवताओंके आसन थे, इंद्रके सिंहासनके पश्चिममें सात सेनापतियोंके सात आसन जरा ॐजाईपर थे और आसपास चारों दिशाओं में चौरासी चौरासी हजार आत्मरक्षक देवताओंके सिंहासन थे (२८९-३०६) इंद्रकी आज्ञासे तत्कालही इस तरहका विमान तैयार किया गया। "निष्पाते सुमनसां मनसा हीष्टसिद्धयः ।" [मनसे ही देवताओंकी इष्टसिद्धि होती है; अर्थान देवताओंकी इच्छा होते ही, उनकी इच्छा पूरी हो जाती है।] प्रभुके सामने जानेको उत्सुक बने हुए शकेंद्रने तत्कालही विचित्र आभूपण धारण करनेवाला उत्तर वैक्रिय रूप बनाया। फिर सुंदरतारूपी अमृतकी बेलोंके समान अपनी पाठ इंद्राणियोंके साथ और बड़ी नाट्यसेना और गंधर्वसेना के साथ आनंदम लीन इंद्र विमानकी प्रदक्षिणा देकर पूर्व तरफकी रत्नमय सीढ़ियोंसे विमानपर चढ़ा और वीचके रत्नसिंहासनपर पूर्वकी तरफ मुंह करके, सिंह जैसे पर्वतके शिखरको शिलापर बैठता है वैसे, बैठा। कमलिनियोंके पत्तोपर जैसे हंसिनियों Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सग २. बैठती है वैसेही, इंद्राणियाँ अनुक्रमसे अपने अपने आसनोपर बैठीं। (३०७-३१२) चौरासी हजार सामानिक देव, उत्तर दिशाकी सीढ़ीसे, विमानपर चढ़े और अपने अपने भद्रासनोपर बैठे। वे रूपसे इंद्रके प्रतिबिंबसे जान पड़ते थे। दूसरे देवी-देवता भी दक्षिण तरफकी सीढ़ीसे चढ़कर अपने अपने योग्य स्थानोंपर बैठे। सिंहासनपर बैठे हुए इंद्रके श्रागे, मानो एक एक इंद्राणीने मंगल किए हों ऐसे, आठ मांगलिक चले। उनके बाद छत्र, भारी और पूर्ण कुंभादिक चले, कारण ये स्वर्गराजके चिह्न हैं और छायाकी तरह उसके सहचारी है। उनके आगे हजार योजन ऊँचा महाध्वज चला। सैकड़ों छोटी छोटी पताकाओंसे वह, पत्तोंसे वृक्ष शोभता है वैसे; शोभता था। इनके आगे इंद्रके पांच सेनापति और अधिकारमें (अपने काममें ) कभी प्रमाद - नहीं करनेवाले श्राभियोगिक देवता चले। (३१३-३१६) इस तरह असंख्य महान ऋद्वियोवाले देवता जिसकी सेवामें हैं ऐसा, चारणगण जिसकी ऋद्धियोंकी स्तुति कर रहा है ऐसा, जिसके सामने नाट्यसेना,गंधर्वसेना, नाट्य, गीत और नृत्य कर रहे हैं ऐसा, पाँच सेनाओंने जिसके आगे महाध्वज चलाया है ऐसा और उसके यागे बजनेवाले वाजॉसे मानो वह ब्रह्मांडको फोड़ता हो ऐसा मालूम होता हुआ इंद्र, सौधर्म देवलोककी उत्तर तरफ, तिरछे रस्तेसे, पालक विमानके द्वारा, पृथ्वीपर उतरनेकी इच्छासे, रवाना हुया। कोटि देवोंसे परिपूर्ण चलता हुआ पालक विमान, मानो चलता हुआ सीधर्म कल्प हो ऐसा, सशोभित होने लगा। उसका वेग मनको गति भी अधिक 'an Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र . [५७१ था। वह असंख्य द्वीप-समुद्रोंको लाँधकर, मानो सौधर्मकल्प हो ऐसा, देवताओं के लिए क्रीडा करनेके स्थान रूप नंदीश्वर द्वीप पहुँचा। वहाँ उसने, अग्निकोनमें रहे हुए रतिकर नामके पर्वतपर जाकर, विमानको छोटा बनाया। फिर वह वहाँसे विदा होकर विमानको अनुक्रमसे छोटा करते हुए जंबूद्वीपमें, भरतखंडकी विनीता नगरीमें आया और वहाँ उसने विमान सहित, स्वामीकी परिक्रमा देते हैं ऐसे, सूतिकाग्रहकी तीन बार परिक्रमा दी। कारण ......"स्वामिवत्स्वामिभूभ्यपि ।" [ स्वामीके समान स्वामीकी (जहाँ स्वामी निवास करते हैं वह भूमि भी वंदनीय होती है। फिर, सामंत जैसे राजाके महलमें प्रवेश करते समय अपनी सवारी एक तरफ खड़ी करता है वैसेही, उसने अपना विमान ईशान कोनमें खड़ा किया और कुलीन नौकरकी तरह अपने शरीरको संकुचित करके भक्ति सहित सूतिकागृहमें प्रवेश किया। (३२०-३३१) अपनी आँखोंको धन्य माननेवाले इंद्रने तीर्थंकर और उनकी माताको, देखतेही प्रणाम किया। फिर दोनों की तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार सहित वंदना कर हाथ जोड़, वह इस तरह बोला, "अपने उदरमें रत्न धारण करनेवाली, विश्वको पवित्र करनेवाली और जगत-दीपक ( जगत के लिए दीपकके समान पुत्र ) को देनेवाली हे जगन्माता ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे माता! आपही धन्य है कि, जिन्होंने, कल्पवृत्तको उत्पन्न करनेवाली पृथ्वीकी तरह, दूसरे तीर्थंकरको जन्म दिया है। हे माता! मैं सौधर्म देवलोकका स्वामी है और प्रभुका Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ] त्रिपष्टि शनाका पुरुष-चरित्रः पत्र २. सर्ग २. जन्मोत्सव करने के लिए यहाँ आया है। इससे आपको मुमत्से इरनकी जहरत नहीं है ।" (३३२-३३६) यो कद्द, मानाको अवस्वापिनी निद्रामं मुला, तीर्थकरका दुसरा रूप बना, उसे मानाकी बगल में बुला, उसने अपने पाँच सुप बनाए । कामरूप देव एक हात हए भी अनेक रूप धारण कर सकते हैं। उनमें एकन पुलकित हो, मन्तिसे मनकी नम्ह शरीरस भी शुद्ध हो, नमस्कार कर, भगवन ! यात्रा दीजिएर यो कद गोशायरस लिम अपने हाथों में प्रभुको ग्रहण किया। दूसर इंद्रन पीछे रहकर पर्वतकं शिवरपर रहे हए पागामा चाँद्रका भ्रम पैदा करनेवाला मुंदर छत्र प्रमुपर रखा दो इंद्रांन दोनों नरफ रहकर साक्षात पुण्य के समूह हों पसंदा चवर दायाम लिए श्रीर. एक इंद्र प्रतिहार की तरह वचको उछालना और अपनी गरदन जरा टही कर बार बार प्रमुका देखना, श्राग चन्ता । जैस मौर, कमलको घर लेने हैं नही, सामानिक पपंद्राके देव, बायन्त्रिश देव और दुसर सभी देव प्रमुकं श्रामपाल जमा हो गए। फिर इंद्र जन्मोत्सव करनेकी इच्छासे, प्रभुको अन्नपूर्वक हाथ पर उठाए, मेक पर्वतकी तरफ चला । नाईक पीछ मृगांकी नरह, परम्पर टकराते हुए देवता प्रमुकं पीछे अहर्षिका (होड़) में दौड़ने लंग। प्रगुको दुरस देखनवालोंक वृष्टिपानस, साग श्राकाश, बित हुए नीलकमलसि मग बन हो ऐसा मालुम होने लगा। धनवान जैन अपने धनको देखना है वैसही, देवना बार बार श्राकर प्रमुका देवन नगा माइमें एक दृसन पर गिरते हुए और आपसमें टकराते हुए देवता पने मान्नुम होते थे, मानो श्रापसमें Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५७३ समुद्रकी तरंगें टकरा रही हैं। आकाशमें इंद्र रूपी वाहनपर सवार होकर जाते हुए प्रभुके आगे चलते हुए ग्रह, नक्षत्र और तारे पुष्प-समूहताको प्राप्त होने लगे । एक मुहूर्तमें इंद्र मेरु पर्वत के शिखरकी दक्षिण दिशामें रही हुई, अतिपांडुकवला नामकी शिलाके पास आया और वहाँ प्रभुको गोदमें लेकर, पूर्वकी तरफ मुख करके रत्नसिंहासन पर बैठा । ( ३३७-३५२) ___उसी समय ईशान देवलोकके इंद्रका आसन काँपा। उसने अवधिज्ञानसे श्रीमान सर्वज्ञका जन्म जाना । उसने भी पहले इद्रकी तरह सिंहासन छोड़, पाँच सात कदम प्रभुके सूतिकागृहकी तरफ चल, प्रभुको नमस्कार किया। उसकी आज्ञासे लघुपराक्रम नामके सेनापतिने ऊँचे स्वरवाले महाघोप नामका घंटा बजाया। उसकी आवाजसे, अट्ठाईस लाख विमान इसी तरह भर गए जैसे, हवासे उछलते हुए और बढ़ते हुए समुद्रकी आवाजसे किनारेके पर्वतकी गुफा भर जाती है । सवेरे बजने. वाले शखकी आवाजसे जैसे सोते हुए राजा जागते हैं वैसेही, उन विमानोंके देवता जाग गए। महायोपा घंटेकी आवाज जत्र शांत हुई तब सेनापतिने मेघके समान गंभीर आवाजमें यह घोपणा की,-"जंबूद्वीपमें भरत खंडके अंदर विनीतापुरी (अयोध्या ) में जितशत्रु राजाकी विजया नामकी रानीसे दूसरे तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं। उनके जन्माभिषेकके लिए तुम्हारे स्वामी इंद्र मेरु पर्वतपर जाएँगे इसलिए हे देवताओ! आप लोग सभी स्वामीके साथ चलने के लिए तैयार हो।" यह घोषणा सुनकर सभी देव इस तरह ईशानपतिके पास पहुँच गए, जिस तरह मंत्रसे आकर्पित प्रारमी पहुँचते हैं। फिर हायमें त्रिशूल लेफर, Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __५७४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पव २ सर्ग २. अनेक रनके आभूषणोंसे वह चलते हुए रनके पर्वतके समान, सफेद वनवाला, पुष्पमाला धारण किए हुए, बड़े वनोंका वाहनवाला, सामानिक वगैरे करोड़ों देवताओंसे सेवित उत्तरार्द्ध स्वर्गका स्वामी. पुष्पक नामके विमानमें बैठकर, दक्षिण तरफके ईशान कल्पके रन्ते परिवार सहित विदा हुआ। थोड़ेही समयमै असंख्य द्वीप समुद्रांको लाँधकर वह नंदीश्वर महाद्वीप पहुँचा। वहाँ उसने ईशान कोणके रतिकर पर्वतपर, अपने विमानको हेमंत ऋतुके दिनकी तरह छोटा किया। बहाँसे वह समय स्रोए वगैरकमसे विमानको छोटा बनाताहा मेद पर्वतपर, शिष्यके समान (नम्र होकर ) प्रभुके पास आया। (३५३-३६७) __ दूसरे सनत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र और प्राणतके इंद्रोंने भी सुघोषा घंटा बजवाकर नेगमेपीके द्वारा देवताओंको कहलाया। देवता श्राए। उनके साथ विमानमें बैंठकर वेशद्रकी तरह उत्तर दिशा भागलेनीवर दीप आए और वहाँ अग्निकोणके रतिकर पर्वतपर अपने विमानोंको छोटा बनाकर वहाँसे तत्काल ही मेन्पर्वत पर, इंद्रकी गोद में विराजमान, प्रमुके पास आए, और चन्द्र के पास नक्षत्रांची तरह खड़े रहे। (३६-३७२) । ___ माहेद, लांतक, सहन्नार और अच्युत नामके इंद्रोंने भी महाघोषाघंटा बजवाकर लघुपराक्रम सेनापतिद्वारा देवताओंको बुलाया। इनके साथ वे विमानोंमें सवार होकर ईशान इंद्रकी तरह, दक्षिण मार्गसे, नंदीश्वर द्वीप आप; और वहाँ ईशान दिशाके रतिकर पर्वतपाअयन विमानोंको छोटा बनाकर, मुलाफिर लोग जैसे वन फले-ले वृक्षोंकी तरफ जाते है वैसेही, व मेरु पर्वतके शिवरपर स्वामीके पास पहुंचे। (३७१-३७३) Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५७५ - - - उसी समय दक्षिण श्रेणीके आभूपणरूप चरमचंचा पुरीमें 'सुधर्मा सभाके अंदर चमरेंद्रका आसन काँपा। उसने अवधिज्ञानसे तीर्थंकरका पवित्र जन्म जाना। उसने सिंहासनसे उठ सात आठ कदम (तीर्थकरके जन्मस्थानकी दिशामें) सामने चलकर वंदना की। उसकी आज्ञासे तत्कालही, द्रुम नामके -पैदल (सेनाके ) सेनापतिने सुस्वरवाला श्रोधस्वर नामक घंटा बजाया। उसका स्वर शांत होनेपर पूर्ववत ( ईशान देवलोकके सेनापतिकी तरह दुमने ) घोषणा की। इससे पक्षी संध्याके ममय जैसे वृक्षके पास आते हैं वैसेही सभी देव चमरेंद्र के पास आए। इंद्रकी याज्ञासे उसके अभियोगिक देवताने आधे लाग्न योजन प्रमाणवाला एक विमान बनाया। पाँच सौ योजन ऊँचे इंद्रध्वजसे सुशोभित वह विमान, कूपक ( मस्तूल ) सहित, जहाजके समान मालूम होता था। चौसठ हजार सामानिक देवता, तेतीस त्रायस्त्रिंश देवता, चार लोकपाल, तीन पदाएँ, सात बड़ी सेनाओंके सात सेनापतियों, सामानिक देवोंसे चौगुने (अर्थात् २५६०००) आत्मरक्षकों, दूसरे असुरकुमार देवों व देवियों, पाँच महिपियों और अन्य परिवार सहित चमरेंद्र उस विमानमें सवार हया। क्षणभरमें वह नंदीश्वर द्वीप पहुँचा; यहाँ उसने अपने रतिकर पर्वतपर शकेंद्रकी तरह विमानको छोटा बनाया, और पूर्व समुद्रमें जैसे गंगाका प्रवाह पहुँचता है. उसी तरह के वेगसे वह मेरुपर्वतके शिखर पर प्रभुचरणके समीप पहुँचा । ( ३७४-३८४) उत्तर श्रेणी के आभूपणाप बलिचंचा नामक नगरी है। असमें बलि नामका इंद्र राज्य करता है। उसका सिंहासन कौंपा - - Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.७६ ) त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सग २. इससे, उसने अवधिनानकं द्वारा बहतका जन्म जाना । उसने महनुम नामक ज्यादा सेनाके सेनापतिको पाना दी। उसने पानानुसार महीधस्वर नामका घंटा तीन बार बनाया। घंटकी श्राबान बंद होनेपर उसने असुरों के कानोंके लिए अमृतप्रबाइक समान (दुसरे तीर्थकरके जन्मकी) बात सुनाई। उसको सुनकर सभी देवता, मेघकी गर्जना सुनकर हंस जैसे मानसरोवर पर जाते हैं वैसे बलीद्र पास आए । साठ हजार सामानिक देवां, इनसे चार गुन (२४८०००) यात्मरक्षक देवों और दुसरं चमरेंद्र के साथ जितने देवताओं और परिवारकी संग्ख्या थी उतनी देवताओं व परिवारकी संख्याके साथ, चमरेंद्रके समानही बड़े और सभी साधनवाले विमानमें बैठकर वह नंदीश्वरदीप रतिकर, पवनपर अपने विमानको छोटा बनाकर मेरुपर्वतके शिन्वरपर (प्रभुचरणोंमें ) अाया। (३८-३६०) __ उसके बाद नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वायुकुमार, मेवकुमार, उदधिक्रुमार, द्वीपकुमार और दिशाकुमार नामक दक्षिणा श्रेणी में रह हा देवलोकोंके क्रमशः स्वामी धरणींद्र, हरि, वणुदेव, अग्निशिस्त्र, वलंब, मुघोप, जलकांत, पूर्ण; और अमित नामके इंद्रनि तथा उत्तर श्रेणीके भूतानंद, हरिशिग्व, वंगुदारी, अग्निभाणवं, प्रभजन, महाघोप, जलप्रभ, अवशिष्ट और अमितवाहन इंद्राने श्रासनकंपसे अवधिज्ञान द्वारा पहन जन्म जाना । घरगींद्रादिकका घंटा भद्रसेन नाग सेनापतिन बजाया और भूतानंदादिकका घंटा दक्ष नामक सेनापतिने बजाया। इससे दोनों श्रेणियोंक - - - - - Mamta AMAR Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र { g৩৩ मेघस्वर, क्रौंचस्वर, हंसस्वर, मंजुम्वर, नंदीस्वर, नंदीघोप, सुस्वर, मधुस्वर और मंजुघोप नामके घंटे वजे । घंटोंकी श्रावाज सुनकर उन उन भुवनपतियोंके दोनों श्रेणियोंके देवता, इसी तरह अपने अपने इंद्रोंके पास चले पाए जिस तरह घोड़े अपने अपने स्थानों में चले जाते हैं। इंद्रोंकी आज्ञाओंसे उनके आभियोगिक देवतायोंने रत्नों और स्वर्णसे विचित्र पचीसहजार योजन विस्तारवाले विमान और ढाई सौ योजन ऊँचे इंद्रध्वज वनाए। हरेक इंद्र छः महिपियों, छःहजार सामानिक देवताओं, इनसे चौगुने ( २४००० हजार ) अंगरक्षकों और चमरेंद्रकी तरह दूसरे त्रायविंशादिक देवोंके साथ, अपने विमानमें वैठ, मेरु पर्वतपर प्रभुके पास आए । (४६१-४०२) पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस. किन्नर किंपुरुप, महोरंग और गंधवों के अधिपति काल, स्वरूप, पूर्णभद्र, भीम, किन्नर, सत्पु. रुप, अतिकाय और गीतरति इन नामोंके दक्षिण श्रेणी में रहने वाले तथा महाकाल, प्रतिरूप, माणिभद्र, महाभीम, किंपुरुप, महापुरुप, महाकाय और गीतयशा उत्तर श्रेणी में रहनेवाले,ऐसे दोनों श्रेणियोंके स्वामियोंने अपने प्रासनोंके कंपसे स्वागीका जन्म जाना । उन्होंने अपने अपने सेनापतियाँस मंजुस्वर और मंजुघोप नामके घंटे बजयाए । घंटोंकी आवाजोंके बंद होनेपर सेनापतियोंने प्रभुके जन्मकी घोषणा की। इससे पिशाच वगैरा निकाय (समूहों ) के व्यंतर अपने अपने इंद्रोंके पास पाए । उन इंद्रों के साथ वायस्त्रिंश और लोकपाल नागके देवता नहीं थे। कारण, उनके पास सूर्य और चंद्रकी तरह त्रायविंश और ३७ - - Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८] ब्रिटिशालामा पुरुष चरित्रः पर्व २. मग ३. लोपाल नामदेवता नहीं होतं । प्रत्येक इंद्र अपने चार हजार मानानि देवों और लोलह हजार श्रामगड देवोंके माय, प्राभियोगिक देवताओं द्वारा बनाया विमानों में बैठकर मन्तवनगर प्रभु नाम श्राप (१-३-212) उसी नन्द इनिग अंगी और उदरणी में रहनेवाले प्रणालिकादिक वालव्यागेकी पाट पाठ निकायों मोलह छन मी, विशावादिकं इंडोत्री नन्ह, श्रासनों अपनेल, अवविहान द्वारा मानना जन्म जाना। उन्दीन अपने अपने सेनानियॉन मंजुबरारमयोप नाम बजवाड, और (प्रभु इन्नी ) बोपन करवाई। फिर वे श्राभियोगिक देवनाराज द्वारा बना हम बिनानीने, ने अपने व्यंदरों और पूवंचन परियारसदिन, काभग पर्वतपर अनुचे पान भाय। (११२-१५) अन्य चंद्र और मज भी अपने अपने परिवारांच माथपुत्र जैन पिना पास जान हैं वैस, प्रभु या! भार । समी स्वतंत्र मलिक कारणा परतंकी नरह, अनुबन्ना. सब मनानक नियनकातर श्राप । (११६-25) इंद्रोशा नात्रोत्सूत्र करना अब ग्यारहवें और बारहवें देवलो अच्युत नामक ने नात्र ऋग्लायन (लांनी अभियोगिक देवताओंकी श्राहादी। उन्दन यान विधानमा छ प्रचारका वक्रिय मानकर,माननादानांनानादिलोन-गानोंक चांदीमत्तान, मोना-चांदी वल्ली, और मिट्टी प्रत्यक Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: श्री अजितनाथ-चरित्र [५७६ तरहके एक हजार आठ कलश बनाए ( अर्थात सब मिलाकर आठ हजार चौसठ कलश बनाए )। इनके साथही इतनीही भारियाँ, दर्पण, कटोरे, कटोरियाँ, डिच्चे, रत्नकी करडिकाएँ और पुष्पोंकी चगेरियाँ तत्कालही वनाई। ऐमा जान पड़ता था कि ये सब चीजें भंडारमें रखी थीं सो निकाल ली है । वे निरालसी देव, कलश लेकर इसी तरह क्षीरसागरपर गए जिस तरह पनिहारियाँ सरोवरपर जाती हैं। वहाँसे उन्होंने, मानो मंगलशब्द करते हों ऐसे बुदबुद शब्द करते हुए कुंभोंमें क्षीरोदक भरा । इसी तरह पुंडरीक, पद्म, कुमुद, उत्पल, सहस्रपत्र और शतपत्र जातिके कमल भी उन्होंने लिए। वहाँसे वे पुष्करवर समुद्रपर गए । वहाँसे उन्होंने, यात्री द्वीपमेंसे जैसे ग्रहण करते हैं वैसे, पुष्कर (नील कमल ) आदि ग्रहण किए; भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके मगधादि तीर्थोका जल वगैरा ग्रहण किया; और तपे हुए पथिकोंकी तरह, गंगादिक नदियोंसे तथा पद्मादिक द्रहोंसे उन्होंने मिट्टी, जल और कमल ग्रहण किए। सभी कुल-पर्वतोंसे, सभी वैतात्योंसे, सभी विजयोंसे, सभी वक्षारा (मध्यवर्ती) पर्वतोंसे, देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंसे, सुमेरुकी परिधिके भागमें रहे हुए भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुक बनोंसे, इसी तरह मलय, ददुरादि पर्वतोंसे, श्रेष्ठ श्रेष्ठ औपधियों, गंध, पुष्प और सिद्धार्थादि (सरसों आदि ) ग्रहण किए। वैद्य जैसे दवाएँ जमा करता है और गंधी जैसे सुगंधित पदार्थ एकत्रित करता है वैसेही देवताओंने सभी चीजें जमा की। आदर सहित सभी चीजें लेकर वे इतने वेगसे स्वामीफे पास आए मानो वे अच्युतेंद्र के मनके साथ स्पर्धा कर रहे हैं। (४१८-४३४) Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. फिर अच्युतेंद्र दस हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंश देवों, सात सेनाओं, इनके सात सेनापतियों और चालीस हजार आत्मरक्षक देवोंके साथ उत्तरीय वस्त्र धारण कर, प्रभुके पास श्रा, पुष्पांजलि रख, चंदनसे चर्चित और विकसित कमलोंसे आच्छादित मुखवाले एक हजार आठ कुंभ अच्युतेंद्रने उठाए; फिर भक्तिके उत्कर्षसे अपनीही तरह झुकाए हुए मुखवाले कुंभोंसे प्रभुका अभिषेक आरंभ किया। यद्यपि वह जल पवित्र था तथापि सोनेके श्राभूषणोंमें जैसे मणि अधिक प्रकाशित होती है वैसेही, प्रभुके संगसे जल अधिक पवित्र हुआ। जलधाराकी ध्वनिसे कलशोंसे आवाज निकल रही थी; ऐसा जान पड़ता था मानो वे प्रभुकी स्नानविधिमें मंत्रपाठ कर रहे है । कुंभोंमेंसे गिरता हुआ जलका प्रवाह प्रभुकी लावण्यसरितामें मिलकर, त्रिवेणी-संगमकी छटा दिखा रहा था। प्रभुके सोने के समान गोरे अंगमें फैलता हुआ वह पानी, स्वर्णमय हेमवंत पर्वतके कमलखंडमें फैलते हुए गंगाके जलके समान शोभता था। सारे शरीरमें फैलते हुए उस मनोहर और निर्मल जलके द्वारा प्रभु वस्त्र धारण किए हुए हों ऐसे मालूम होते थे। वहाँ भक्तिभावके भारसे आकुल बने हुए देवता-कई स्नान कराते हुए इंद्र और देवोंके हाथसे कुंभ खींच लेते थे, कई प्रभु पर छत्र धरते थे, कई चमर डुलाते थे, कई धूपदान लेकर खड़े थे, कई पुष्पगंध धारण करते थे, कई स्नात्रविधि बोल रहे थे, कई जय जय शब्द कर रहे थे, कई हाथों में डंडे लेकर नगारे वजा रहे थे, कई शंख वजा रहे थे-इससे उनके गाल और मुंह फूल रहे थे, कई काँसेकी ताल (झाँझ) वजा रहे थे, कई अखंडित Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५८१ रत्नडंडोंसे झालरें बजा रहे थे, कई डमरू बजा रहे थे, कई डिंडिम (डुगडुगी) पीट रहे थे, कई नर्तककी तरह ताल-स्वरके साथ ऊँचे प्रकारका नाच कर रहे थे, कई विट (धूर्त ) और चेट ( भाँड ) की तरह हँसानेके लिए विचित्र प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे थे, कई व्यवस्थित रूपसे गवैयोंकी तरह गायन गा रहे थे, कई गवालोंकी तरह गले फाड़ फाड़कर गा रहे थे, कई वत्तीस पात्रोंसे नाटकके अभिनय बताते थे, कई गिरते थे, कई कूदते थे, कई रत्नोंकी बारिश करते थे, कई सोना बरसाते थे, कई आभूपण बरसा रहे थे, कई चूर्ण ( कपूर, चंदन इत्यादिका चूरा ) उछाल रहे थे, कई मालाएँ, फूल और फल वरसा रहे थे, कई चतुराईसे चल रहे थे, कई सिंहनाद कर रहे थे, कई घोड़ों की तरह हिन-हिना रहे थे, कई हाथियोंकी तरह गर्ज रहे थे, कई रथ-घोप (चलते हुए रथकी आवाजके समान आवाज) कर रहे थे, कई तीन नाद (हस्त्र, दीर्घ और प्लुतका शब्द) कर रहे थे, कई पाद-प्रहारसे मंदराचलको हिला रहे थे, कई चपेटे ( तमाचे ) से पृथ्वीको चूर्ण कर रहे थे, कई अानंदकी अधिकतासे बार बार कोलाहल कर रहे थे, कई मंडल बनाफर रास कर रहे थे, कई बनावटी रूपसे जल जाते थे, कई कौतुक. से आवाज करते थे, कई मेघके समान घड़े जोरोंसे गर्जना करते थे और कई बिजलीकी तरह चमकते थे। इस तरह देवता आनंदके साथ अनेक तरहकी चेष्टाएँ कर रहे थे। उस समय अच्युतेंद्रने बड़े आनंदके साथ भगवानका अभिषेक किया। (४३५-४५६) फिर निष्कपट भक्तिवाले उस इंद्रने, मस्तकपर मुफुटके Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सर्ग २. - समान दोनों हाथोंने अंजली बनाकर बड़े लोरोसे जय जय शब्दका उच्चारण किया; फिर चतुर संवाहक (स्नान करानेपाले सेवक ) की तरह, सुखपश हाथम, देवदूज्य बन्न द्वारा प्रभुका शरीर पांछा। नट जैस नाटक करता है सही, उसने भी, देवनाओं के साथ, प्रमुक लामनं अभिनय किया। पश्चात प्रारणाच्युन कल्पक इंद्रन गोशीयं चंदनकं रमन प्रगुका बिलपन किया; दिव्य और भूमि उदभून फूलोंसे प्रमुक्री पूना की; चाँदीक स्वच्छ और अवंड अक्षता । नाकं चावलों) से प्रमुके आगे कुंभ, भद्रासन, दर्पा, श्रीवल्ल, स्वस्तिक, नंद्यावत, वर्षमान और मल्ययुग-अष्ट मंगल बनाए; और संध्याके श्राकाशकी कणिका (बूट) के समान पाँच वग्गों के फूलोंका ढेर प्रमुक सामन लगाया। वह दर युटनातक पहुचे इतना था। धुपकी रेखायोंमें मानो स्वर्गको दोरगावाला बनाता हो ऐसे उसने घृषकी अग्निको धूपित किया। उपदानीको ऊँचा करत समय देवता बाजे बजान थे; उन बाजोंकी आवाज ऐसी मालूम होनी थी मानो उसने बुलंद आवाजबाले महायोष नामक घंट को भी छोटा बना दिया है। फिर ज्योतिमंडलकी लक्ष्मीका अनुसरण करनेवाली और ऊँचे शिलामंडलवाली भारती उतार, सात-पाठ कदम पीछे हट, प्रयास कर, रोमांचित शरीरवाल अच्युतेंद्रने, इस तरह स्तुति की,-(४६१-४७०) __"हे प्रभो ! खर सोनेके छेद (हुकई ) के समान छबिसे आकाशके भागको ढकनेवाले, और प्रक्षालनके बिना पवित्र तुम्हारी काया किमपर श्राक्षेप न करें ? (श्रयात दूसरी सभी चीनोंकी तुलना में श्रापका शरीर सुंदर और पवित्र है 1) मुर्ग Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५८३ पित पदार्थों का विलेपन किए बगैरही आपका शरीर नित्य - सुगंधित रहता है। उसमें मंदारकी' मालाकी तरह, देवताओं की स्त्रियों के नेत्र भ्रमरपनको पाते हैं। (अर्थात जैसे मंदार. पुष्पोंफी मालापर भौरे मंडराते हैं उसी तरह देवांगनाओंफी आँखें आपके शरीरपर फिरा करती हैं-आपकोही देखा करती हैं।) हे नाथ ! दिव्य अमृतरसके स्वाद के पोपणसे मानो नष्ट हो चुके हों ऐसे रोगरूपी सपों के समूह आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। (अर्थात आपके शरीरपर किसी रोगका असर नहीं होता।) दर्पण-तल में लीन हुए प्रतिबिंबके समान भापके शरीर में, झरते हुए पसीनेकी लीनताकी बात कैसे संभव हो सकती है ? (अर्थात आपके शरीरमें कभी पसीना नहीं आता।) हे वीतराग ! आपका केवल अंतःकरणही रागरहित नहीं है, मगर आपके शरीरका खून भी दूधको धाराके जैसा सफेद है । आपमें दूसरी भी (कई बातें) दुनियासे अनोखी हैं। यह यात हम कह सकते हैं। कारण,-आपका मांस भी अच्छा है, अवीभत्स है और सफेद है । जल और स्थलमें उत्पन्न होने. वाले फूलोंकी मालाओंको छोड़कर भौंरे आपके निःश्वासकी सुगंधका अनुसरण करते हैं। आपकी संसार स्थिति भी लोकोत्तर चमत्कार करनेवाली है। कारण,-आपका आहार (भोजन फरना) और नीहार (टट्टी और पेशाब करना) आँखोंसे दिखाई नहीं देता है।" (४७१-४७८) १-स्वर्गका एक पेड़ तथा उसके फूल । [एनना-इस स्तवन में, अरिएंतोके चौतीस अतिशयोमेसे भारंभ. - Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___५८४ त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पव २. सर्ग २. - -- _ इस तरह इंद्रने उनकी, अतिशयगर्भित, स्तुति की। फिर वह थोड़ा पीछे हटा और हाथ जोड़कर प्रभुकी भक्ति करनेवाला वह इंद्र सुश्रपा करनेको तत्पर होकर रहा। तब दूसरे वासठ इंद्राने भी, अपने परिवार सहित, अच्युतेंद्रकी तरह, प्रभुका अभिषेक किया । अभिपेकके बाद स्तुति-नमस्कार कर जरा पीछे हुटं, हाथ जोड़, दासकी तरह तैयार होकर, वे प्रभुकी उपासना करने लगे। (१७६-४८१) फिर सौधर्म देवलोकके इंद्रकी तरह, ईशान कल्पके इंद्रने अति भक्ति सहित अपने शरीरके पाँच रुप बनाए । फिर वह अपने एक रूपसे अर्धचंद्रके समान आकृतिवाली, अतिपांडुकबला नामकी शिलापर ईशान कल्पकी तरह, सिंहासनपर बैठा। जिनभक्तिमें प्रयत्नवान उसने, प्रभुको शकेंद्रकी गोदसे इसी तरह अपनी गोद लिया जिस तरह किसीको एक रथसे दूसरे रथमें लेते हैं। दूसरे रूपसे, उसने प्रभुके मस्तकपर छत्र घरा, तीसरे और चौथे रूपोसे, वह प्रभुके दोनों तरफ चमर लेकर खड़ा रहा और पाँचवं रूपसे, वह हाथमें त्रिशूल लेकर जगतपतिके सामने खड़ा रहा । उस समय उदार आकारवाला, - के चार जन्मजात होते हैं उनकी बात कही गई है। वे ये हैं १-तीर्थकर अति सुंदर होते हैं और उनके शरीर में पीना न मंल नहीं होता। २-उनका लोह-मास दुगंधहीन और दूधसा सफेद होता है। ३-उनके श्रादार और निहार खिोंसे नहीं दिखते। ४-उनके श्वासोच्छ्वासमें कमलके समान सुगंध होती है।] Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६५ प्रतिहारीकी तरह, वह बड़ा सुंदर लगता था। फिर उस सौधर्म कल्पके इंद्रने अपने आभियोगिक देवतासे तत्कालही अभिपेकके उपकरण मँगवाए। उसने भगवानके चारों तरफ, मानो स्फटिकमणिके दूसरे पर्वत हों ऐसे, स्फटिकमय चार वैल बनाए। उन चार वैलोंके आठ सींगोंसे, जलकी चंद्रमाकी उज्ज्वल किरणोंके समान, आठ धाराएँ निकली। वे ऊपरकी ऊपरही मिलकर, जगतपतिके समुद्र के समान मस्तक पर गिरने लगीं। उसने इस तरह अलगही तरहसे प्रभुका अभिषेक किया। कारण, "भग्यंतरेण कवियत् शक्ताः स्वं ज्ञापयंति हि ।" [शक्तिवान पुरुप, कवियों के समान, तरह तरहकी रचनाप्रोसे-भावभंगियोंसे अपने आपको प्रकट करते हैं। अच्युतेंद्रकी तरहही उसने भी मार्जन, विलेपन, पूजा, अष्टमंगलका पालेखन और आरती-ये सब काम विधिपूर्वक किए; फिर शक्रस्तबसे जगतपतिको वंदना-नमस्कार कर हर्पभरे गद्गद म्वरमें इस तरह स्तुति की-(४५२-४६३) - हे त्रिभुवनके नाथ ! विस्वैकवत्सल ! (सारी दुनियाकी हितकामना करनेवाले और जगतके जीवोंपर स्नेह रखनेवाले!) पुण्यलताको उत्पन्न करने में नवीन मेघके समान हे जगतप्रभो! आपकी जय हो! हे स्वामी ! जैसे पर्वतसे सरिताकी धारा निकलती है वैसेही, आप दुनियाको खुश करने के लिए विजय नामके विमानसे आए हैं। मोक्षरूपी वृक्षके मानो चीज हो ऐसे, उजले तीन ज्ञान ( मति, श्रुति और अवधि ज्ञान ), जैसे जलमें ठंडक होती हैं ऐसे, आपको जन्महीसे प्राप्त है। हे तीन भुवनक अधीश्वर ! दर्पणके सामने प्रतिबिंवकी तरह जो लोग श्रापको Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. हृदयमें धारण करते हैं उनके सामने सब तरहकी लक्ष्मी सदा खड़ी रहती है । भयंकर कर्मरूपी रोगसे पीड़ित प्राणियोंको रोगसे छुड़ाने के लिए, उनके भाग्योदयसे, आप वैद्यक समान उत्पन्न हुए हैं। हे स्वामी! मरुस्थल (रेगिस्तान) के मुसाफिरकी सरह, आपके दर्शनरूपी अमृतके उत्तम स्वादसे, हमें जरासी भी तृप्ति नहीं होती है। हे प्रभो! साग्थीसे जैसे रथ (सीधा चलता है ) और कर्णधार (माँझी) से जैसे नौका (सीधी चलती है) वैसेही, आपके समान नायकके उत्पन्न होनेसे जगतके लोग सन्मार्गपर चलें । हे भगवन ! आपके चरण-क्रमलकी सेवा हमें मिली, इससे हमारा ऐश्वर्य अब कृतार्थ हुआ है।" (४६४-५०१) __इसी तरहके (भावोंवाले) एक सौ आठ श्लोकोंसे उसने स्तुति की। इंद्रने पहलेहीकी तरह अपने पाँच रूप बनाए । उसने एकरूपसे प्रभुको हायमें उठाया,दूसरे रूपसे प्रभुके मस्तकपर छत्र रखा, तीसरे और चौथे रूपोंसे हाथोंमें चमर लिए, और पाँचवें रूपसे वह वन्च लेकर प्रभुकं सामने खड़ा रहा। फिर अपनी इच्छाके अनुसार वह नम्रात्मा यथायोग्य परिवार सहित विनीता नगरीमें जितशत्रु राजाके घर आया। वहाँ उसने पहले विजयादेवी माताके पास रखे हुए तीर्थकरके प्रति विवको उठा लिया और तीर्थकरको मुला दिया। उसने प्रभुके सिरहाने सूर्य-चंद्रके समान उज्ज्वल कुंडलकी जोड़ी और कोमल तथा शीतल देवदूप्य वन्न रखे । उल्लोचम, आकाशसे उतरती हुई किरणोंके समान चमकदार मोनेकी बगड़ीवाला, सुसन्निस १-चंदोवा। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र श्रीदामगंड (फूलोंकी मालाओंका गुच्छा) वाँधा; प्रभुकी आँखोंको आनंदित करनेके लिए मणिरत्न-सहित हार और अर्धहार वहाँ लटकाए। फिर, चंद्रमा जैसे कुमुदिनीकी और सूर्य जैसे पद्मिनीकी निद्रा हर लेते हैं वैसेही, उसने विजयादेवीको दी हुई निद्रा हर ली। इंद्रकी आज्ञासे कुवेरकी सूचनानुसार भक जातिके देवताओंने जितशत्रु राजाके घरमें उस समय बत्तीस फोटि (मूल्य वाले) सोने, चाँदी और रत्नोंकी अलग अलग वर्षा की; बत्तीस नंदभद्रासन (सिंहासन-विशेष ) वरसाए; मण्यंग' कल्पवृक्षोंकी तरह उन्होंने आभूपणोंकी वर्षा की; अनग्न कल्पवृक्षोंकी तरह वस्त्रोंकी वर्षा की और भद्रशालिक वनमेंसे चुन चुन कर लाए हुए हों ऐसे, पत्तों, पुप्पों और फलोंकी चारों तरफ वृष्टि की। चित्रांग नामके कल्पवृक्षकी तरह उन्होंने विचित्र वोंकी फूलमालाओंकी वर्षा की; ऐलादिक चूर्णको उड़ानेवाले दक्षिण पवनकी तरह गंधवृष्टि और पवित्र चूर्ण-वृष्टि की । इसी तरह पुष्करावर्त मेघ जैसे जलधार वर. साता है वैसेही अति उदार वसुधारा-वृष्टि की। फिर शकेंद्र. की आज्ञासे उसके श्राभियोगिक देषोंने यह उद्घोषणा कीढिंढोरा पीटा,____ "हे वैमानिक,भुवनपति, ज्योतिष्क और ब्यंतर देवताओ! तुम सब सावधान होकर सुनो। जो अहंत और उनकी माताफा अशुभ करनेका विचार करेगा उसका मस्तक अर्जकर की मंजरीकी तरह सात तरहसे छेदा जाएगा।" (५०२-५१) १-जेवर देनेवाले कल वृत । २-वस्त्र देनेवाले फल यच। ३-धनकी वृष्टि। ४-तुलसी। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पत्र २, सर्ग २. उधर दूसरे सभी इंद्र देवताओंके साथ, अानंदपूर्ण हृदय सहित मेरुपर्वतसे नंदीश्वर द्वीप गए । मौधमेंद्र भी, भगवानको नमस्कार कर. जितशत्रु गजाके घर निकन कर, तत्काल ही नंदीश्वर द्वीप पहुँचे । उसने दक्षिगा अंजनाद्रिक शाश्वत चैत्यमें शाश्वन अहतोकी प्रनिमाके पास अष्टाद्रिका उत्सव किया; और. उसके चार लोकपालान, अंजनादिक चारा नरफ चार दधि. मुख पर्वतों पर चैत्यों में दर्षके साथ उत्सव किया। ईशानंद्रने उत्तरके अंजनाद्रि पर्वत पर शाश्चन चैत्यमें शाश्वत जिनप्रतिमाका अष्टाहिका उत्सव किया। उसके चार लोकपालाने अंजनाद्रिके चारों तरफ चार दधिमुम्ब पर्वनापरकं चैत्यों में ऋषमादि. की प्रतिमाका उत्सव किया। चमरेंद्रने पूर्व अंजनादिपर श्रीर बलीद्रन पश्चिम अंजनाचलपर. अष्टादिका उत्सव किया। चमरंदकं लोकपालनि पूर्वक अंजनादिके चारों तरफ चार दधिमुग्न पर्वतांपर और बलीदक लोकपालान पश्चिम अंजनाचलके चारों तरफ चार दधिमुग्य पर्वतोपर, चैत्यों में प्रतिमाओंका उत्सव किया। फिर तकन-स्थानकी तरह उस द्वीपसे सभी मुरव श्रनुर अपनको कनकस्य मानते हुए अपने अपने स्थानाको गए। (५२-५२८) . सगरका जन्म .. इसी रानको प्रमुक नन्मकं वादही वैजयंतीने मी गंगा जैसे स्वर्ण-कमलको पैदा करनी है बैंसड़ी, मुन्नपूर्वक एक पुत्रको जन्म दिया। ... राज्य में पुत्रजन्मका उत्सव पत्नी और वधू-गेसे विजया और जयंती परिवारने, Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५८६ जितशत्रु राजाको पुत्रोत्पत्तिकी बधाई दी। इसे सुनकर राजाने उनको ऐसा इनाम दिया कि जिससे उनके कुलमें भी लक्ष्मी; कामधेनुकी तरह, अविच्छिन्न हुई। इस समाचारसे उसका शरीर ऐसा. प्रफुल्लित हुआ जैसे घनके आगमनसे सिंधु नदी और चंद्रमाके आगमनसे समुद्र होता है। उस समय राजाने पृथ्वीके साथ उच्छवास,' आकाशके साथ प्रसन्नता और पवन के साथ तृप्ति प्राप्त की। उसने उसी समय अपने जेलखाने खोल दिए, अपने शत्रुओंको भी मुक्त कर दिया। इससे बंधन केवल हाथी वगैरहके ही रहे। इंद्र जैसे शास्वत जिनविबोंकी पूजा करते हैं वैसेही, राजाने चैत्योंमें जिनवित्रोंकी अदभुत पूजा की। याचकोंको, अपने-पराएका खयाल न करके, धनसे प्रसन्न किया.। कारण "सर्वसाधारणी वृष्टिारिदस्योद्यतस्य हि ।" [ उद्यत हुए (अर्थात आकाशमें आए हुए ) मेघकी वृष्टि सबके लिए समानही होती है।] खूटेसे छूटे हुए बछड़ोंकी तरह उछलते-कूदते विद्यार्थियोंके साथ, उपाध्याय (अध्यापक) सूत. मातृकाका पाठ करते हुए वहाँ आए। किसी जगह ब्राहमणोंकी वेदोदित मंत्रोंकी बड़ी ध्वनि होने लगी; किसी जगह लग्नादिके विचारसे सारवाली मुहूर्त संबंधिनी उक्तियों होने लगी; किसी जगह कुलीन कांताओंके, मुंडके झंड, हर्प पैदा करनेवाली ध्वनिसे गीत गाने लगी; किसी जगह वारांगनाओंकी मांगलिक गीत ध्वनियों सुनाई देने लगी, किसी जगह बंदियोंका (भाटोंका) - १-दाढस। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___yko ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २ सर्ग२. कल्याण-कल्पनाके समान बड़ा कोलाहल होने लगा, किसी जगह चारणोंकी सुंदर द्विपथक असीसें सुनाई देने लगीं; किसी जगह चेटक (सेवक) हर्पके साथ ऊँचे स्वर में बोलने लगे और किसी जगह याचकोंको बुलानेसे उग्र बने हुए छड़ीदारोंका कोलाहल होने लगा। इस तरह. वर्षाऋतुके मेघोंसे भरे हुए आकाशमें होती हुई गर्जनाकी तरह, राजगृहके आँगनमें तरह तरहके शन्द फैलने लगे। (५२६-५४२) नगरजन कहीं कुंकुमादिका लेप करने लगे, कहीं रेशमी यस्न पहनने लगे, कहीं दिव्य मालाओंके श्राभूपणोंसे अलंकृत होने लगे, कहीं कपूर डाले हुए पानोंसे प्रसन्न होने लगे; कहीं घरोंके आँगनोंमें. वम छिड़कने लगे, कहीं नीलकमलके समान मोतियोंसे स्वस्तिक बनाने लगे, कहीं नए केलोंके स्तंभोंसे वंदनवार बनाने लगे और कहीं बंदनवारोंके दोनों तरफ सोनेके कुंभ रख रहे थे। उसी समय, मानो साचात ऋतुकी लक्ष्मी हों ऐसी, फूलोंसे गूंथी हुई वेणियोंवाली, पुष्पमालाओंसे मस्तकको लपेटनेवाली और गलोंमें लटकती हुई मालाओंवाली, नगरकी गंधर्वसुंदरियाँ देवांगनाओंकी तरह ताल-स्वर के साथ गायन गाने लगी। रत्नोंके कानोंके गहनों,भुनबंधों, निष्कों,' कंकणों,और नूपुरोंसेवे रत्न-पर्वतकी देवियोंके समान शोभती थीं और दोनों तरफ लटकते और हिलते हुए उत्तरीय वनोंके पल्लासे और श्रेणीबद्ध परिकर से वे मानो कल्पवृक्षकी लताएँ हों ऐसी मालूमहोती थीं। उस समय नगरकी कुलवानबियाँ भी, पवित्र देवा सहित पूर्ण पात्रोंको हाथमें लेकर वहाँ श्राने लगी। १-निष्क गलेमें पहननेका श्राभूषण । २-समूहसे । ३-दूव । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अजितनाथ-चरित्र [५६१ उन्होंने कराँबेसे रंगे हुए सुंदर उत्तरीय वस्त्रों के बुरखे डाले थे, इससे वे संध्याके बादलोंसे ढकी हुई पूर्व दिशाके मुखकी लक्ष्मीकी शोभाको हरती थीं। चुकुमके अंगरागसे शरीरकी शोभाको अधिक बढ़ानेवालीवे विकसित कमलवन के परागसे जैसे नदियाँ शोभतीहैं वैसे शोभती थीं। उनके सर झुके हुए और औरखें जमीनकी तरफ थीं इससे ऐसा जान पड़ता था कि वे ईर्यासमिति पालती थीं और निर्मल वस्त्रोंसे वे निर्मल शीलवान मालूम होती थीं। (५४३-५५४) __ कई सामंत अक्षतकी तरह सुंदर मोतियोंसे भरे पात्र, राजाके मंगलके लिए गजाके पास लाने लगे। महद्धिक देव जैसे इंद्रके पास आते हैं वैसेही, परम ऋद्धिवाले कई सामंत राजा, रत्नोंके आभूषणोंका समूह लेकर जितशत्रु राजाके पास आने लगे; कई, मानो केले के रेशोंसे अथवा कमलनालके रेशोंसे चुने हुए हों ऐसे, महामूल्यवान वस्त्र लेकर राजाके पास आए; कईयोंने, जृभक देवताओं द्वारा बरसाई गई वसुधाराके जैसी, सुवर्णराशि राजाके भेट की; कइयोंने, मानो दिग्गजोंके युवराज हों ऐसे,शौर्यवाले मदमस्त हाथीराजाक भेट किए और कइयोंने, मानो उच्चैश्रवाके बंधु हों और सूर्याश्वके अनुज हों ऐसे, उत्तम घोड़े लाकर अर्पण किए। हर्षसे भरे हृदयकी तरह राजाके महलोंका मैदान बड़ा था, तो भी अनेक राजाओंद्वारा भेट किए गए वाहनोंके कारण वह छोटा मालूम हुश्रा। राजाने सबको प्रसन्न रखने के लिए सबकी भेटें स्वीकार की; अन्यथा जिसका पुत्र देवोंका भी देव हो उसके घरमें किस चीजकी कमी हो १-उच्चश्वा इंद्रका पोहा। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पब २. सग २. सकती है ? (५५५-५६२) राजाके आदेशसे नगर में स्थान स्थानपर, देवताओं के विमान हाँ ऐसे, मंच बनाए गए । हरेक घर और हवेलीमें रत्नोंके वासनोंके तोरण बाँध गए, वे ऐसे मालूम होते थे मानो आए हुए देवके लिए कौतुकसे व्योतिष्क देवता आकर रहे हो । हरेक मांगमें, धूल न उड़े इसके लिए कंसरके जलका छिड़काव किया गया; बह ऐसा मालूम होता था मानो वह मार्गमें भूमिका मंगलसूचक विलेपन हो। नगर में जगह जगह नाटक, संगीत और बालोंकी आवाजें सुनाई देने लगी।राजान, दस दिन तकके लिए उस नगरका, कर और दंड बंद करके और सुभटांका थाना रोकके उत्सवको पूर्ण बना दिया । (५६३-५६७) फिर उन महाराजन पुत्र और भतीजका नामकरणउत्सव मनानेकी अपने सेवकों को पाना दी। उन्होंने मोटे और अनेक तहोवाले कपड़ोंका एक मंडप बनाया। (उसमें सूरजकी किरण नहीं जा सकती थीं) एसा मालूम होता था मानो उसने राजा. के ढरसे सूर्यकिरणों को अपने अंदर नहीं आने दिया है। उसक हरेक खेमकं पास अनेक कलांक व शोभते थे, वे मानो पुष्पाकी कलियोंसे श्राकाशमं पद्मखंडका विस्तार करतं हों ऐसे जान पड़ते थे। वहाँ विचित्र पुष्पांसे पुष्पगृह बनाए गए, वे ऐसे मालूम होते थे, मानो रक्त बनी हुई मधुकरी हो ऐसी सक्ष्मीन वहाँ आश्रय लिया है। हंसोंक रोमोंसे गूंथे हुए और रईसे भरेः हुए काष्ठमय बासनासे वह मंडप, नक्षत्रांसं आकाशकी तरह, सनाय बना हुआ था। इस तरह जैसे इंद्रका विमान आभिया १-कमलना Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६३ गिक देवता तैयार करते हैं वैसे, सेवकोंने तत्कालही राजाका मंडप तैयार किया। फिर मंगलद्रव्य हाथमें लेकर हर्प सहित वहाँ श्रानेवाले स्त्री पुरुपोंको. छडीदारने यथायोग्य स्थानपर बिठाया और अधिकारियोंने कुंकुमकै अंगरागसे', तांबूलोंसे और फूलोंसे अपने वंधुकी तरह उनका सम्मान किया। उस समय मंगल वाजे मधुर स्वरमें वजने लगे। कुलीन कांताएँ मंगलगीत गाने लगीं। ब्राह्मण पवित्र मंत्रोच्चार करने लगे और गंधर्कने वर्द्धमानादिक गायन गाने श्रारंभ किए । चारण भाटोंने वगैर ताल. केही जय जय शब्द किया, उनकी उच्च प्रतिध्वनिसे ऐसा मालूम होने लगा मानो मंडप बोल रहा है। गर्भ में यह बालक पाया उसके बाद इसकी माँको कभी पासोंके खेलमें मैं न हरा सका यह सोचकर राजाने उसका नाम अजित रखा । अपने भाई के पुत्र. का 'संगर' ऐसा पवित्र नाम रखा। सैकड़ों उत्तम लक्षणोंसे पहचाने जानेवाले, पृथ्वीका उद्धार करने की शक्तिवाले और मानो. अपनी दो भुजाएँ हों ऐसे उन दोनों कुमारीको देखता हुआ वह राजा ऐसा अखंड सुख पाया मानो वह अमृतपानमें मग्न हुआ है। (५६८-५८१) आचार्य श्री हेमचंद्राचार्य विरचित त्रिपटिशलाका पुरुषचरित्र महाकाव्यके दूसरे पर्वमें अजितस्वामी-दूसरे तीर्थकर और सगर नामक दूसरे चक्रवर्तीके जन्मों___ का वर्णन नामका दूसरा सर्ग समाप्त । १- सुगंधित लेर या उपटन। - Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर तीसरा अजितकुमार और सगरकुमारका वृत्तांत इंद्रकी आज्ञासे श्राई हुई पाँच धाएँ, प्रभुकी और राजाकी श्राज्ञासे आई हुई धाएँ सगरकुमारका लालन-पालन करने लगी । इंद्रने अजित प्रभुके हस्तकमलके अंगूठेमें अमृतका संचार किया था। वे उसको पीते थे। कारण,-तीर्थकर स्तनपान नहीं करते। बागके पेड़ जैसे नहरका पानी पीते हैं वैसेही सगर कुमार धायका अनिदित स्तनपान करते थे। पढ़की दो शाखाओंकी तरहबाहाथीके दो दाँतोंकी तरह,दोनों राजकुमार प्रति दिनबढ़ने लगे। पर्वतपर से सिंहके बच्चे चढ़ते हैं वैसेही, दोनों राजकुमार बढ़ते हुए राजाकी गोदमें चढ़ने लगे। उनकी मुग्ध करने वाली इसीसे माता-पिता खुश होते और उनकी वीरतादर्शक चालसे अचरज करते। केसरी सिंहके-कुमार से पिंजरेमें नहीं पड़े रहते वैसेही, दोनों राजकुमार भी धाएँ बार बार पकड़कर उनको अपनी गोदमें बिठाती थी; मगर वे निकलकर भाग जातं थे। वे स्वच्छंदतापूर्वक इधर उधर दीढ़ते थे। घाएँ उनके पीछे, दौड़ती थीं और थक लाती थीं। कारण, ___ "चयो गौणं महात्मनाम् । [महात्माओंके वयकी बात गौण होती है। वेगमें वायुकुमारको पीछे छोड़नेवाले, दोनों रालकृमार खेलनेके लिए दौड़ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र कर तोता और मोर वगैरा पंखियोंको पकड़ लेते थे। अच्छे हाथीके वच्चेकी तरह स्वच्छंदतासे फिरते-दौड़ते अलग अलग तरहकी चतुराइयोंसे धायोंको भुलावेमें डालते थे। उनके चरणकमलों में पड़े हुए आभूपणोंके झनझनाहट करते हुए घुघरू (गुरियाँ) भौरोंकी तरह शोभते थे। उनके गलेमें पड़ी और छातीपर लटकती हुई सोने और रत्नकी ललंतिकाएँ' आकाशमें लटकती हुई विजलीकी तरह शोभती थीं। अपनी इच्छाके अनुसार खेलते हुए उन कुमारोंके कानोंमें पहनाए हुए सोनेके नाजुक कुंडल,जल में संक्रमण करते हुए-पानी में दिखाई देते हुए सूर्यके विलासको धारण करते थे। उनके चलनेसे हिलती हुई सरकी चोटियाँ वाल-मयूरोंके नाचसी मालूम होती थीं। जैसे उत्ताल तरंगें राजहंसोंको एक पद्मसे दूसरे पद्मपर ले जाती हैं वैसेही, राजा उनको एक गोदसे दुसरी गोद में लेता था। जितशत्रु राजा रत्नके आभूपणकी तरह उन दोनों कुमारोंको गोदमें, छातीपर, हाथों में, कंधोंपर और सरपर बार बार विठाता था। भौंरा जैसे कमलको सूंघता है वैसे ही, वह प्रीतिवश उनके मस्तकोंको बार बार झूचना था, और तृप्त होता था । राजाकी उँगलियों. को पफड़कर दोनों तरफ चलते हुए दोनों राजकुमार मेरु पर्वतके दोनों तरफ चलते हुए दो सूया से मालूम होते थे। योगी जैसे आत्मा और परमात्माका ध्यान करते है वैसेही, जितशव राजा परम आनंद के साथ दोनों कुमारोंका ध्यान करते थे-दोनोंको याद करते थे। अपने घर में जन्मे हुए कल्पवृक्षकी तरह राजा चार बार उनको देखता था और चतुर शुक्रकी तरह बार बार १--गलेमें पहननेता एम प्राभूषण-विशेष। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. उनको बलाता था। राजाके पानंद के साथ और इक्ष्वाक कुलकी लक्ष्मीके साथ वे दोनों कुमार क्रमशः अधिकाधिक वृद्धि पान लगे। (१-२१) अजितजमारका विद्या प्राप्त करना महात्मा अजितकुमार सभी कलाएँ, न्याय और शब्दशान्न वगैरा सभी विद्याएँ अपने पापही सीख गए । कारण, ......"त्रिज्ञाना हि स्वतो जिनाः ।" [जिनेश्वर स्वतः अर्थात जन्मके समयसेही तीन ज्ञानके (मति, श्रुति और अवधि ज्ञानके ) धारक होते हैं।] सगरकुमारका उपाध्यायसे विद्या प्राप्त करना अच्छा मुहूर्व देवकर, दिन भर उत्सव किया गया और सुगरकुमारको रानाकी यानासे उपाध्यायके पास पढ़ने के लिए बिठाया गया। समुद्र जैसे नदियांका पान करता है वैसेही, सगरकुमारने भी थोड़ेही दिनाम शब्दशाबका पान किया। दीपक जैसे दुसरे दीपकोंसे व्योति ग्रहण करता है वैसेही, सुमित्राके पुत्र सगरकुमारन भी उपाध्यायसे, बिनाही प्रयासक साहित्यशालका ज्ञान ग्रहण किया। साहित्यरूपी बेलके पुष्प समान और कानोंके लिए रसायनके समान अपने वनाए हुए नवीन काव्यों द्वाग, वीतराग प्रमुकास्तवन करके, उसने अपनी वाणीको कृतार्य किया। युद्धिकी प्रतिमाके समुद्र समान ऐसे प्रमाण-शानोंको उसने, खुदने रखी हुई सम्पतिकी तरह, सत्कालही ग्रहण किया। जितशत्र राजाने से अमोघ वारणोंसे शत्रुओंको जीत लिया पैसेही, सगरकुमारने भी स्याद्वाद सिद्धांत Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६७ से सभी प्रतिवादियोंको जीत लिया। छः गुण, चार उपाय, और तीन शक्तियाँ इत्यादि प्रयोगरूपी तरंगोंसे श्राकुल' और दुर्गाह ऐसे अर्थशास्त्ररूपी बड़े समुद्रका उसने अच्छी तरहसे अवगाहन' किया। औपध, रस, वीर्य और उसके विपाफसे संबंध रखनेवाले ज्ञानके दीपकके समान अष्टांग आयुर्वेदका उसने विना कष्टके अध्ययन किया। चार तरहसे वजनेवाला, चार तरहकी वृत्तिवाला, चार तरहके अभिनयवाला और तीन प्रकारके तूर्यज्ञानका निदानरूप वाद्यशास्त्र भी उसने ग्रहण किया। दंतवात, मदावस्था. अंगलक्षण और चिकित्सासे पूर्ण ऐसा गजलक्षण ज्ञान भी उसने विना उपदेशकेही ग्रहण किया । वाहनविधि और चिकित्सा सहित अश्वलक्षणशास्त्र उसने अनुभवसे और पाठसे हृदयंगम' किया। धनुर्वेद और दूसरे शास्त्रोंके लक्षण भी केवल सुननेहीसे, खेलही खेलमें. अपने नामकी तरह उसने हृदयमें धारण कर लिए। धनुष, पलक', असि, छुरी, शल्य. परशु, भाला, भिदिपाल, गदा, कपण, दंड, शक्ति, शूल, हल. मृसल. यष्टि, पट्टिस. दुम्फोट, मुफ्ढी, गोफणा, फणय, त्रिशूल, शंकु और दूसरे शत्रोंसे वह मगरकुमार शास्त्र के अनुमान सहित युद्धकलामें निपुण हुआ। पर्वणीके' चंद्रकी तरह वह सभी कलाओंमें पुशल हुआ और आभूपोंकी तरह विनयादिक गुणोंसे शोभने लगा । (२९-३८) श्रीमान अजितनाथ प्रगुकी, भतिवान इंद्रादिदेव पाकर, १-परेशान यरनेवाला -निममें कठिनताले प्रवेश किया जा सके ऐसा -कानीन। ४-मुर, नरन, मृदंग । ५-नीद जिया | ६-ढाल |७-पूणिमा। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सग ३. समय समयपर सेवा करने लगे। कई देवता अजितनाथ प्रभुकी लीलाएँ देखने के लिए उनके समान उम्रवाले बनकर उनके साथ क्रीड़ाएँ करने लगे। प्रभु वाणीरूपी अमृतके रसका पान करने की इच्छासे कई देवना विचित्र नोक्तवास और खुशामद के वचनोंसे प्रभु साथ बातचीत करने लगे-प्रभुको बुलाने लगे। आना नहीं देनेवान्ने प्रमुकी श्राज्ञा पाने के उद्देश्यसे क्रीडा-द्युतमें दाव लगाकर, प्रभुके श्रादेशसे क देवना अपना धन हार जाते थे। कई प्रमुके छड़ीदार बनने थे, कई मंत्री बनते थे, कई उपानधारी और कई वेजते हुए प्रमुके पास अस्त्रधारी होते थे। (३६-१३) सगरमारने भी शान्त्रीक अभ्यास करके नियोगी' पुन्यकी तरह अपनी संवाएँ अपंग की। अच्छी बुद्धिवाला मगर उन सभी संशयाँको-जिन्दै उपाध्याय नहीं मिटा सके थे, अजित वामाले पूछना था। भरत चक्रवर्ती भी इसी तरह भगवान ऋषभदेवसे पूछकर अपने संशय मिटाताया। अजितकुमार मनि, अति और अवधिनान द्वारा सगर संदेहाँको इसी तरह मिटा देते थे जिस तरह, नरज अंधकारको मिटाता है। तीन तास दवाकर श्रासनको बढ़ कर अपना बल कामम लाकर सगर, मदमत्त तुफानी हाधीको अपने वश में कर प्रभुको अपनी शनिका परिचय कराता था। सवारीके या सवारीके काम नहीं श्रानवान्न घोड़ोंको वह पाँच घाराओंसे, प्रमुके १-कोमल बातनि। -जूने उठानेवाल।३-सेवाके लिए रखे गए। ४-हाथीको वश में करने तीन वरहक प्रयत्न-विशेष। ५-बाडांशी चलानेकी चाल। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [YE आगे चलाता था। वह वाणसे राधावेध, शब्दवेध, जलके अंदर रखा हुआ लक्ष्यवेध और चक्रवेध करके, प्रभुको अपनी वाणविद्याकी निपुणता बताता था। ढाल और तलवार धारण करने वाला वह आकाशके मध्यभागमें रहे हुए चंद्रमाकी तरह, फलकमें प्रवेश कर (यानी रंगभूमिके तख्तेपर चढ़कर), अपनी पादगति बताता था (यानी ढाल तलवारके साथ पैंतरे दिखाता था।) वह आसमानमें चमकती हुई बिजलीकी रेखाका भ्रम पैदा करनेवाले भाला, शक्ति और शर्वला' को वेगके साथ फेरता था। नर्तक पुरुप जैसे नाच बताता है वैसेही सर्वचारीमें (सभी विपयोंमें) निपुण सगरने अनेक तरहसे छुरी चलानेकी विद्या भी बताई। इसी तरह दूसरे शत्रोंको चलानेकी चतुराई भी उसने गुरुभक्तिसे और उपदेश ग्रहण करनेकी इच्छासे, अजित स्वामीको वताई। फिर अजित स्वामीने, सगरफुमारको, ये सब यातें बताईं जिनकी उसकी कलामें कमी थी । वैसे उत्तम पुरुपोंके शिक्षक भी वैसेही उत्तम होते हैं । (४४-५५) कुमारोंकी युवावस्था इस तरह दोनों कुमारोंने अपने योग्य वेल कूद करते हुए मुसाफिर जैसे गांव की सीमाको पार करता है वैसही, बालवय. को समाप्त किया। सम चौरस संस्थान' और वनवृषभनाराच. संहनन' से सुशोभित, सोनेके समान कांतियाले, सादे पार १-तीमा-एक प्राचीन हगिपार जिसमें लकड़ी में लाई. का फल लगा रहता था। २-शरीरकी शाकसि-विशेष:-ar. का गटन-निशेष। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६००त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. सौ धनुष ऊँचाईवाले, श्रीवत्स चिह्रसे जिनका यक्षस्थल', सुशोमित है ऐसे और मुंदर मुकुटसे मुशोभित मस्तकवाले दोनों फुमार शरीरसंपत्तिको बढ़ानेवाली यौवनावस्था ऐसेही पाए जैसे सूरज और चाँद कतिको अधिक करने वाली शरद ऋतु पाते है: यमुना नदीको तरंगों के समान कुटिल और श्याम कंशोसे, व अष्टमीकं चंद्रमाके समान ललाटसे ये विशेष शोभने लगे। उनके दोनों गाल ऐसे शोभते थे मानो सोनेके दो दर्पण हो। स्निग्ध और मधुर ऐसे उनके नेत्र नीलकमलके पत्र के समान चमकने लगे। उनकी सुंदर नासिकाएँ इष्टिरूपी छोटे सरोवरोंके बीच पालके समान दिखने लगी। और उनके दो जोड़ी होठ ऐसे शोभने लगे मानो दो जोड़ी विवफल हो । उनके सुंदर श्रावर्तवाले कान सीपोंके समान मनोहर मालूम होते थे। तीस रेखाओंसे पवित्र बने हुए कंठरूपी दल' शंखसे शोभते थे। हाथीके कुमस्थलकी तरह उनके स्कंघट उन्नथे। लंबी श्रीर पुष्ट भुजाण सर्परानके समान मालुम होती थीं। छातियाँ सोनके पर्वतकी शिलायोंके समान शोभती थीं। नामियाँ मनकी तरह बहुत गंभीर मालूम होती थीं। कमरका भाग वज्ञक निचले भागके समान कृश था.बई हाथीकी सुंडकं समान उन. की जाँच सरल और कोमल थीं । मृगीकी जाँघोंके समान उनकी जंघार (पिंडलियों) शोमती थीं। उनके चरण सरल और ट्रगलियोरूपी पत्तास स्थलकमलका अनुसरण करते थे। स्वभाव. सेही मुंदर दोनों राजकुमार, बीजनप्रिय चगीचे जैसे वसंत . १-छाती। २-पानीका मैंवर । ३-केलेके माइका ऊपरी माग| ४-कंचे। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र ८६० - ऋतुमें अधिक सुंदर लगते है वैसेही, यौवनसे अधिक सुंदर लगते थे। अपने रूप और पराक्रमादि गुणोंसे सगरकुमार, देवताओंमें इंद्रकी तरह, सभी मनुष्योंमें ऊँचा स्थान पाता था; और सारे पर्वतोंसे मेरु पर्वत जैसे अधिकता पाया हुआ है वैसेही, देवलोकवासी, प्रैवेयकवासी और अनुत्तर विमानपासी देवोंसे तथा आहारक शरीरसे भी अजित स्वामी रूपके कारण अधिकता पाए हुए थे। अर्थात वे सबसे अधिक सुंदर थे। (५६-७१) कुमारोंका व्याह एक दिन जितशत्रु राजाने और इंद्रने रागरहित ऐसे अजितनाथ स्वामीसे विवाह के लिए कहा। इनने उन दोनोंफे 'श्राग्रहसे और अपने भोगफलको जानकर विवाहकी घात मान ली। जितशत्र राजाने, मानो लक्ष्मीकी प्रतिमूर्तियों हों ऐसी सफड़ों म्ययवरा राजकन्याओंके साथ, अजितनाथ स्वामीका व्याह, बड़ी धूम-धामके साथ किया । पुत्र विवाहसे अतृप्त राजा. ने सगरपुमारका व्याह भी. देवकन्याओंके समान, अनेक राजफुमारियों के साथ किया। इद्रियोंसे अपराजित अजितनाथ प्रभु, अपने मोग-फर्माका नाश करने के लिए रामानोंक (नियोक) साथ रमते थे। कारण "यथाव्याधि हि भेषजम् ।" जैसा रोग होता है वैसीही दवा दी जाती है 1] सगर. कुमार भी दधिनियों के साथ जैसे हाथी मांडा फरता दे दी त्रियों के साथ, अनेक मीस्थानोंमे, तरह तरस मीठाएं फारसा था। (७२-७७) Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. अजितकुमारका राज्यारोहण ___ एक दिन अपने छोटे भाई सहित, संसारसे विरक्त वने हुए जितशत्रु राजा, अठारह पूर्व लाख की आयुको पहुँचे हुए अपने पुत्रोंसे कहने लगे, "हे पुत्रो ! अपने सभी पूर्वज कई बरसों तक विधिसहित पृथ्वीकी रक्षा करके, पृथ्वी अपने पुत्रोंको सौंपते थे और मोक्षके साधनरूप व्रतको ग्रहण करते थे। कारण "तदेव हि निजं कार्य, परकार्यमतः परं ।" [बही-मुक्तिका साधनहीं-अपना कार्य है, इससे दूसरा जो कार्य है वह पराया है। इसलिए हे कुमारो! अब हम व्रत ग्रहण करेंगे। यही हमारे कार्यका हेतु है (यानी हमारे जीवनका उद्देश्य है) और यही अपने वंशका क्रम है । हमारीही तरह तुम दोनों इस राज्यमें राजा और युवराज बनो और हमें दीक्षा लेने की आज्ञा दो (७ अजितनाथने कहा, "हे तात ! यह आपके लिए योग्य है। भोगकर्मरूप विन्न न हो तो मेरे लिए भी यह ग्रहण करने योग्य है। विवेकी पुरुप व्रत ग्रहण करने में जब किसी के लिए भी विघ्नकतो नहीं होते तत्र समयके अनुसार सब काम करनेवाले आप, पूज्य पिताके लिए तो मैं विघ्नकर्ता होही कैसे सकता हूँ? जो पुत्र भक्तिके वश होकर भी, अपने पिताके लिए, चौथापुरुपार्थ यानी-मोक्ष साधन करनेमें, विघ्नकर्ता होता है वह पुत्र, पुत्रके बहाने शत्रु उत्पन्न हुआ है या समझना चाहिए। तो भी मैं इतनी प्रार्थना करता हूँ कि मेरे छोटे पिता (काका ) राज्य. गहीपर बैठें। कारण,-आपके चे विनयी छोटे भाई हमसे Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [६.३ अधिक (राजके हकदार) हैं। (८३-८६) ___ यह सुनकर सुमित्र ने कहा, "राज्य लेनेके लिए मैं स्वामीके चरण नहीं छोडूंगा। कारण, थोड़े लाभके लिए अधिक लाभ कौन छोड़ता है ? विद्वान राज्यसे, साम्राज्यसे, चक्रवर्तीपनसे और देवपनसे भी अधिक गुरुसेवाको मानते हैं। (८७-८८) अजितकुमारने कहा, "श्राप, यदि राज्य लेना नहीं चाहते हैं तो, हमारे सुखके लिए, भाव-यति होकर घरहीमें रहिए।" (८९) उस समय राजाने कहा, "हे बंधो ! तुम आग्रह करनेवाले पुत्र की बात मानो । कारण ........."भावतोऽपि यतिर्यतिः।" [भावसे जो साधु होता है वह भी साधु ही होता है। ] और ये साक्षात तीर्थकर है। इनके तीर्थमें तुम्हारी इच्छा सफल होनेवाली है,इसलिए हे भाई ! तुम इसकी राह देखो और यहीं रहो। जल्दी न करो। एक पुत्रको तीर्थंकर पद और दूसरेको चक्रवर्ती पद पाप्त होते देखकर तुम्हें सभी सुखोंसे अधिक मुख मिलेगा। (३६-६२) यदापि सुमित्र दीक्षा लेने को बहुत उत्सुक था तथापि उनकी थात उसने स्वीकार की। कारण, "सता हालंध्या गुर्वाज्ञा मर्यादोदन्वतामिव ।" [समुद्र-मर्यादाी तरह गुरकी श्राशा, मापुरुषों के लिए भलध्य होती है। अर्थात समुद्र से अपनी मर्यादा नही योदता Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. वैसेही श्रेष्ठ पुरुष भी गुरुजनोंकी आज्ञाको नहीं मोड़ते।] (६३) अजित स्वामीका राज्याभिषेक और संगरको युवराज-पद मिलना फिर प्रसन्नचित्त जितशत्रु राजाने, बड़ी धूम-धामके साथ, निज हाथोंसे अजित स्वामीका गज्याभिषेक किया। उनके राज्याभिपेकसे सारी पृथ्वी प्रसन्न हुई। "विश्वत्राणक्षमे नेतर्याप्ते का प्रीयते न हि ।" [दुनियाकी रक्षा करने में समर्थ नेता मिलनेपर कौन खुश नहीं होता है? अर्थात सभी खुश होते हैं। फिर अजित म्वामीने सगरको युवराज पदपर स्थापित किया। इससे उन (अपने माईके साथ ) अधिक प्रीति रम्बनेवाले अजित स्वामीको ऐसा मालूम हुआ मानो, उन्होंने अपनीही दूसरी मूर्ति वहाँ स्थापित की है। (६४-६६) अब अजितनाथने बड़ी धूम-धामले जितशत्रु राजाका निष्क्रमणोत्सव किया। इन्होंने ऋपभ स्वामीके तीर्थ वर्तमान स्थविर महाराजासे, मुक्तिकी मातारूप दीक्षा ग्रहण की। बाहरी शत्रओंकी तरह अंतरंग शत्रुओंको जीतनेवाले उन राजषिने राज्यकी तरह ही अखंड व्रतका पालन किया । अनुक्रमसे केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर शैलेशीध्यान में स्थित वे महात्माआठ कमांका नाश कर परमपदको प्राप्त हुए-मोक्ष गए । (१७-१००) इधर अजितनाथ स्वामी सब तरहकी ऋद्धियोंसे, लीला. सहित अपनी संतान की तरह पृथ्वीका पालन करने लगे। वे दंडादिके विनाही सभीकी रक्षा करते थे, इससे प्रजा इस तरह Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६०५ - - - सन्मार्ग पर चलने लगी जिस तरह अच्छे मारधीसे घोड़े मार्गपर सीधे चलते हैं। प्रारूपो मयूरीके लिए मेवके समान और उसका मनोरथ पूर्ण करनेके लिए कल्पवृक्ष के समान अजित महाराजके राज्य-शासनमें, चूर्ण अनाजका ही होता था, बंधन पशुओंके लिएही था, वेध मणिय मेंही होता था,ताड़न बाजोपर. ही होता था, संताप ( भट्टीमें डालकर तपाने का काम ) सोनेके लिए ही था, तेज(शाणपर चढ़ाना) शस्त्रही किए जाते थे, उत्खनन (खोदना)शाली धानकाही किया जाता था, वक्रता (टेढा. पन) त्रियोंकी भौंहोंमही थी, मार शब्दका उपयोग चौपड़ खेलते समय सारको पीटते वक्तही होता था, विदारण (काटना) खेतकाही होता था, कैद पक्षियोंको लकड़ीके पिंजरेमें बंद करनेके रूपमेंही थी, निग्रह (रोक-थाम ) रोगकाही होता था. जहदशा कमलोंके लिएही थी,दहन अगझकाही होता था, घर्पण (रगड़ना) श्रीखंड (चंदन) काही होता था, मंथन दहीकाही होता था, पेला गन्नाही जाता था, गधुपान भौरेही करतथे, मत्त हाथीही पनते थे, कलह स्नेहप्राप्ति के लिगही होता था, डर निशाहीकाथा, लोभ गुणों को संग्रह करनेहीका था और अक्षमा दोषोंके लिएड़ी धी। अभिमानी राजा भी अपने आपको एक प्यादेके समान सम अजित स्वामीकी सेवा करते थे। कारण, "दासंति धन्यमणयः सर्वे चिंतामणेः पुरः।" [अन्य सारी मरिणयों निंतामणिके पास दामीरूपमें ही रहती है। उन्होंने नीति नहीं पलाई थी। इतनाही ग्यों? उन्होंने कभी गौंह भी देदी नहीं की थी। इतना होते हुए भी सारी प्राइम तराइ उनके परामें थी जिस सरद भाग्यशाली Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-परित्र: पर्व २. सर्ग३. - पुरुपची स्त्री उसके वशमें रहती है। सूर्य जैसे अपनी तेज किराये सरोवरके जलको खींचता है वैसेही, उन्होंने अपने प्रयल प्रतापसे राजाओंकी लक्ष्मीको श्रापित किया था। उनके आँगनकी भूमि, राजाओं द्वारा भेट किए गार हाथियों के मदललसे सदा पंफिल (कीचड़वाली) रहती थी। उन महाराजके, चतुराईपूर्ण चालासं चलते, घोड़ोंसे दिशाओंका, वाह्यानी (घोड़ोंके लिए बनी हुई सड़की) भूमिकी तरह संक्रमण (प्रवेश) होता था। [अर्थात उनके घोड़े सभी दिशाओंमें सरलतासे जा सकते थे; सभी दिशाओंमें रहनेवाले उनके अधीन थे। समुद्र की तरंगोंकी जैसे कोई गिनती नहीं कर सकता है वैसही, उनकी सेनाके प्यादे और रथादिकी गणना करने में कोई समर्थ नहीं था । गजारोही, अधारोही (घुड़सवार), रथी और पंदलसेनासभी अपनी भुजाओंके बलम मुशोभित उन महाराजके लिएकेवल साधनमात्र थे। उनके पास ऐसा ऐश्वर्य या दो भी उनके मनमें थोडासा अभिमान भी न था; अतुल भुजबल रखते हुए मी गर्व उनको छूकर नहीं गया था: अनुपम रूपवान होते हुए भी वे अपने शरीरको मुंदर नहीं सममतं यः विपुल लाम होत हुए भी उनमें उन्माद नहीं आता था और दूसरे भी उन्मत्त बनानवाल अनेक कारणोंक दोन हुए भी उनके मनमें मद न था। वे इन सबको, अनित्य जानते थे इसलिए, तृणक समान सममते थे। इस तरह रायका पालन करते हुए अजितनाथ महाराजन झुमारावस्थासे प्रारंम करके तिरपन लाख पूर्वका समय मुखसे विताया ।(१०१-१२०) .. एक बार सभी विसर्जन कर एकांतमें बैठे हुए, तीन ज्ञान Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ६०० (मति, श्रुति और अवधिज्ञान ) के धारी अजितनाथ स्वामी अपने श्राप विचारने लगे,"आज तक मेरे प्रायः, वास्तविक भोगफल, कर्म भोगे जा चुके हैं; अब मुझे, घरमें रहकर, अपने स्वकार्य (आत्मकार्य) से विमुख नहीं होना चाहिए । कारणमुझे इस देशकी रक्षा करनी चाहिए, मुझे इस शहरको संभालना चाहिए, मुझे ये गाँव आबाद करने चाहिए, मुझे इन लोगोंका पालन करना चाहिए, मुझे हाथी बढ़ाने चाहिए, मुझे घोड़ोंकी देखभाल करनी चाहिए, मुझे इन नौकरोंका भरगा-पोपण करना चाहिए, इन याचकोंको संतुष्ट करना चाहिए, इन सेवकोंका पोपण करना चाहिए, इन शरणागतोंकी रक्षा करनी चाहिए, इन पंडितोंका मान करना चाहिए इन मित्रोंका सत्कार करना चाहिए, इन मंत्रियोंपर अनुग्रह करना चाहिए, इन बंधुओंका उद्धार करना चाहिए, इन नियोंको खुश करना चाहिए और इन पुत्रोंका लालन-पालन करना चाहिए-ऐसे परकायों में लगा हुश्रा प्राणी अपने सारे मनुष्य-जीवनको निप्पल खो देता है; इन सब कामों में व्यस्त प्राणी युक्त-अयुगका विचार नहीं करता; मूर्खतासे पशुकी तरह अनेक तरहके पाप करता है। मोहमें फंसा हुआ पुरुप जब मौतके मार्गपर आगे बढ़ता तय जिनके लिए उसने पाप किए थे उनमें से एक भी उसका साथ नहीं देता। वे सब यहीं रहते हैं। उनकी बात छोड़ो, मगर उसका यह शरीर भी, एक कदम भी उसके साथ नहीं पलना। अफसोस ! फिर भी यह यात्मा इम हप्न शरीर के लिए व्यर्थ हो पापकर्म करता ६। इस संसारमें प्राणी अमलादी जन्मता, अमे.लाही मरता है और भयांतरने पौधे हा कामाका फल अफेलादो भोगना है। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. वह पापकर्म करके लिस द्रव्यको कमाता है उसे उसके सगेसंबंधी इकट्ठे होकर भोगते है और वह अकेला नरकमें पड़ा हुआ पापक्रमांका फल-दुःख भोगता है,दुःखरूपी दावानल से भयंकर घने हुए संसाररूपी महावन में, यह कर्म के वश होकर अफेलाही मटकता है। संसारसे संबंध रखने वाले दुःखसे छुटकारा पानेपर उमसे जो सुख होता है उसे भी वही भोगता है, उसमें भी कोई उसका हिम्सेदार नहीं होता। जैसे समुद्रमें पड़े हुए प्राणियोंअसे जो अपनेहायों, पैरों,बुद्धि और मनका उपयोग नहीं करता वह समुद्रमें डूब जाता है और जो उपयोग करता है वह तैर लाता है वैसेही, जो धन और देहादिक परिग्रहसे विमुख होकर उनका सदुपयोग करता है और निज आत्मस्वरूपमें लीन होता. है वह समारसमुद्रको तैर जाता है। (१२१-१३७ ) संसारसे जिनका मन उदास हो गया है ऐसे अजितनाथ स्वामीको इस तरहकी चिंता करतं देख सारस्वतादिक लोकांतिक देवता उनके पास आए और कहने लगे, "हे भगवन! आप स्वयंयुद्ध' है इसलिए हम आपको बोष देने योग्य नहीं है, तो भी हम इतना निवेदन करना चाहते हैं कि, अव धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति प्रारंभ कीजिए।" ( १३८-१३६) इस तरह विनती और प्रमुके चरणों में वंदना करके वे अपने ब्रह्मलोकमें इसी तरह चले गए जिस तरह पक्षी संध्याक समय अपने घोंसलोंमें चले जाते हैं। अपने विचारों के अनुकूल १-निनको बिना किसीक उपदेशक ज्ञान-वैराग्य होता है उन्हें मर्यबुद्ध कहते हैं। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्री अजितनाथ-चरित्र [६६ - - - देवोंकी बातें सुनकर उनका संसार वैराग्य इसी तरह बढ़ा जिस तरह पूर्व दिशाके पवनसे मेघ वढ़ते हैं । (१४०-१४१) सगरका राज्यारोहण उन्होंने तत्कालही सगरकुमारको बुलाया और कहा, "मेरी इच्छा संसार-सागरको तैरनेकी है, इसलिए तुम मेरे इस राज्य. भारको ग्रहण करो।" (६४२) प्रमुकी ऐसी आज्ञा सुनकर सगरकुमारका मुख काला पड़ गया। बूंद बूंद करके बरसते मेघकी तरह उनकी आँखोंसे औंसू गिरने लगे। वे हाथ जोड़कर बोले, "हे देव ! मैंने आपकी ऐसी कौनसी अभक्ति की है कि, जिससे आप मुझे अपनेसे अलग होनेकी आज्ञा करते हैं ? यदि कोई अपराध हो गया हो तो भी आपको मुझपर अप्रसन्न नहीं होना चाहिए । कारण "पूज्पैरभक्तोऽपि शिशुः शिष्यते न तु हीयते ।" [पूज्य अपने अभक्त शिशुको दंड देते हैं, इसका त्याग नहीं करते। हे प्रभो! आकाशसे ऊँचे मगर बगैर छायाके वृक्षकी तरह, आकाशमें उत्पन्न हुए, मगर नहीं घरसनेवाले, मेघकी तरह, निमर रहित बड़े पर्वतकी तरह सुंदर प्राकृति. वाले मगर लावण्यविहीन शरीरकी तरह और पिले हुए मगर सुगंधहीन पुष्पकी तरह आपके बिना यह राज्य मेरे फिस काम. का है ? हे प्रभो! आप निर्मग है ! नि:स्पद : मुमुक्ष तो भी में आपके चरणों की सेवाका त्याग नाही फगा, फिर राज्य anterwasnrn F-नाई सानोमाने इलाहाने माना। ३१ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१.] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. लेनेकी तो बातही क्या है ? में गव्य, पुत्र, कलत्र, मित्र और सारा परिवार छोड़ सकता हूँ, मगर अापके चरणोंकी सेवाका त्याग नहीं कर सकता। हे नाथ ! जैसे श्राप राजा बने ये तत्र मैं युवराज हुआ था वैसेही अव श्राप व्रतधारी होंगे तब मैं आपका शिष्य बनूंगा। रातदिन गुरुके घरणकी उपासनामें तत्पर रहनेवाले शिष्यके लिए भिक्षा माँगना साम्राज्य ( का उपभोग करने ) से भी अधिक (सुखदाता) है। मैं अज्ञानी हूँ तो भी, जैसे गवालेका बालक गायकी पूंछ पकड़ कर नदीको पार कर जाता हे वसेही, में भी श्रापके चरणकमलाका सहारा लेकर संसार-सागरको पार करुंगा। मैं आपके साथ दीक्षा लूँगा, आपके साथ विहार करूँगा, आपके साथ दुःसह परिषद सहूँगा और श्रापके साथही उपसर्ग भी सहूँगा; मगर मैं यहाँ कदापि नहीं रहूँगा; इसलिए, हे जगद्गुरो ! श्राप प्रसन्न हुजिए.' (१४३-१५५) इस तरह जिसने सेवा करनेकी प्रतिक्षा ली है ऐसे सगरफुमारसे अजितनाथ स्वामी अमृतके समान मधुर वाणीमें कहने लगे, "हे वत्स ! संयम ग्रहण करनेका तुम्हारा यह आग्रह योग्य है; मगर अबतक तुम्हारा भोगफलकर्म क्षय नहीं हुया है, इसलिए तुम मेरीही तरह भोगफलकर्मको भोगकर. योग्य समयपर मोचका साधक व्रत ग्रहण करना। हे युवराज! क्रमसे श्राप हुए इस राज्यको तुम स्वीकार करो और में संयमरूपी साम्राज्यको ग्रहण काँगा।" (१५६-२५६) . प्रमुकी यह बात सुनकर सगरफुमार मनमें सोचने लगे, "मुझे, एफ तरफ प्रमुफे वियोगका भय और दूसरी तरफ इन Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-धरित्र [ ६११ - की आक्षा भंग होनेका भय सता रहा है। स्वामीफा विरह और उनकी आज्ञाका न मानना दोनों बातें मेरे लिए दुःखकी कारण हो रही हैं। फिर भी विचार करनेपर गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन करनाही श्रेष्ठ मालूम होता है।" इस तरह मोचकर महामति सगरकुमारने गद्गद स्वरमें कहा, "प्रभो ! आपकी पाशा सर आँखापर ।" (१६०-१६२) फिर राजाओंमें श्रेष्ठ अजित स्वामीने महात्मा सगरफा राज्याभिषेक करने के लिए तीर्थजल श्रादि सामग्री लानेकी नौकरोंफो आज्ञा दी । मानो छोटे छोटे द्रह हों ऐसे, कमलोसे ढके हुए. मुखवाले कुंभ, स्नान करने योग्य तीर्थके जलसे भरकर, सेयफ लोग वहाँ लाए। जैसे राजाभेटें लाते हैं वैसेही, व्यापारी अभिपेकके दूसरे साधन भी, तत्कालही वहाँ ले आए। फिर वहाँ मानो मूर्तिमान प्रताप हो ऐसे अनेक राजा राज्याभिषेक करने के लिए आप अपने मंत्रसे (यानी सलाहसे) इंद्र के मंत्रीका भी उल्लंघन करनेवाले मंत्री हाजिर हुए मानो दिग्पाल होगस सेनापति आए; इर्षसे जिनका हृदय भरा हुआ है ऐसे बंधु चौधष एफत्र हुए और मानो एकाही घरगसे आप हों ऐसे हाथी, घोड़े और अन्य साधनों के अध्यन भी तत्कालही श्रा पारे। उस समय नादसे शिखरोंको गुंजाते हुए शव यशने लगे; मेपफे समान मृदंग बजने लगेः दुदुभि और टोलोंकी पनि गूंजने लगीऐसा जान पड़ता था मानो अनियनिसे मार्ग दिशाओंको मंगल सिखानेवाले सध्यापक है। समुद्री नरंगोही सरह मोफ पाने लगे, मालरोकी गनगनाइट पारों नरक सुनाई देने लगी। कई बाजे फोंसे बनाए जा रहे थे. फापर था पर Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. रही थीं और कई हिलाकर वजाए जा रहे थे। गंधर्व सुंदर स्वरोंसे शुद्ध गीत गा रहे थे, व चारण-भाट और ब्राह्मण वगैरा असीसें दे रहे थे। इस तरह महोत्सबके साथ, अजित स्वामी की आज्ञासे कल्याणकारी पूर्वोक्त अधिकारियोंने, विधि सहित सगर राजाका राज्याभिषेक किया। उसके बाद, मांडलिक राजाओंने, सामंतोंने और मंत्रियोंने हाथ जोड़कर उगते हुए सूर्यकी तरह सगर राजाको प्रणाम किया। नगरके मुख्य मनुष्य, हाथों में उत्तम भेटें ले लेकर सगरके पास आए। उन्होंने नवीन चंद्रकी तरह सगर राजाको,सामने भेटें रख रखकर प्रणाम किया। प्रजा. जन यह सोचकर प्रसन्न हुए कि स्वामीने अपनी प्रतिमूर्तिके समान मगरको राज्यगद्दीपर बिठाया है। हमारा त्याग नहीं किया है । (१६३-१७७) ___ अजितनाथकी दीक्षा उसके बाद दयाकं समुद्ररूप अजित स्वामीने इस तरह दान देना प्रारंभ किया जिस तरह वर्षा ऋतुका पानी बरसना प्रारंभ करता है। उस समय तिर्यक्रजभक देवताओंने इंद्रकी आज्ञा ओर कुवेरकी प्रेरणा पाकर, नष्टःभ्रष्ट हए. स्वामी विनाके, चिह्न विनाके, पर्वतकी गुफाओंमें रहे हुए, श्मशानमें या अन्य स्थानों में गड़े हुए धनको ला लाकर, चौराहेमें, चौकमें, तिमुहानेमें और आने जानेकी जमीनपर रखा। फिर अजित स्वामीने सारं नगर (और राज्य ) में हिंढोरा पिटवा दिया कि "जिसको धन चाहिए वह आए और इच्छानुसार ले जाए। फिर सूर्योदयसे भोजन के समय तक अजित स्वामी दान देने वैठते थे और जो जितना धन चाहता था उसे उतनाही धन-दान देते Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भजितनाथ-चरित्र ६73 - थे। हर रोज एक करोड़ और आठ लाख स्वर्णमुहरें दानमें देते ये। सालभरमें उन्होंने तीन सौ अठासी करोद और अल्ली लाख स्वर्णमुद्राएँ दी। कालके अनुभाव (सामर्थ्य ) से और प्रभुके प्रभावसे याचकोंको इच्छित धन दिया जाता था; किंतु वे भाग्यसे अधिक ले नहीं सकते थे। अचिंत्य महिमावाले और दयारूपी धनवाले प्रभुने एक वर्ष तक पृथ्वीको (पृथ्वीके लोगोंको) चिंता. मणिरत्नकी तरह धनसे तृप्त किया । (१७-१८) वार्षिक दानके अंतमें इंद्रका श्रासन काँपा। इससे उसने अवधिज्ञानसे प्रभुका दीक्षा समय जाना। यह भगवानका निष्क मणोत्सव करने के लिए अपने सामानिकादि देवोंके साथ प्रभुके पास जानेको रवाना हुया। उस समय इंद्र, ऐसा मालूम होता था मानो, वह दिशामि विमानसि चलने हुए मंडप बना रहा था, हाथियोंसे उड़ते हुए, पर्वत बना रहा था, तरंगांसे समुद्रकी तरह आकाशपर आक्रमण कर रहा था, अत्यलिन गनिवाले रथोंको सूर्य रयसे टकरा रहा था और बुधमाकी मालाके भारवाले, दिग्गजोंके कर्णतालका ( कानोंके हिलनेसे होनेवाली आषाजका) अनुकरण करते हुए ध्वजांकुशांसे श्राकाशको निलकित कर रहा था। कई देवता गांधार स्वरसे आम गायन गाते थे; फई देयता नवीन यनाए हुए काव्योंसे उसकी स्तुनि पास थः कई देवता गुन्यपर वस्त्र रम्यक (धीर चीन) उसमें पाराचीन फरते थे और कई देवता उसे यके तीर्थकरी पारितोषागार करावे थे। (Pt-१५) इस सरहद्र. ज्यामीक परामलोस पनि पनी अयोध्या नगरीको स्वर्गसे भी अपनी मानता पायोडगमगय. Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१2 ] त्रिषष्टि शशाचा पुग्य-चरित्र: पर्व २. सर्ग३. में वहाँ आ पहुँचा । उस समय दूसरे सुरेंद्र और अमुरेंद्र भी, प्रमुछा दीनामहोत्सव जान, वहाँ श्राप। वहाँ अच्युत आदि सुरेन और सगर आदि नरेंद्रॉन अनुक्रमसे प्रमुका दीक्षामिषेक किया। शिरमणिकार. जैस माणिक्यको साफ करता है वैसही इंद्रने, स्नान जनसे मीन हुए प्रभुके शरीरको देवदूट्य बन्न मार्जन किया-बॉछा और गंधकार की तरह अपने. हासि सुंदर अंगराग (यटन द्वारा प्रभुको चर्चित कियाप्रमुके शरीरपर उबटन लगाया। धर्मभावनाल्पी धनवाने इंडने, प्रमुळे शरीरमें पवित्र देवदृश्य बन्न पहनाए । उसने मुकुट, इंडन, हार, बाजूबंद, कंकग और दूसरे अनेक अलंकार प्रभुको धारण करापालांकी दिव्य मालाओंने जिनके केश सुशो. भिन्न हो रहे हैं। दीन नेत्र समान तिलकसे जिनका ललाट शोभायमान है। देवी, दानवी और मानवी त्रियाँ विचित्र भाषामें जिनके मधुर नंगलगान कर रही है; चारण-माटोंकी तरह सुरेंद्र, अमुरेंद्र और नरेंद्र जिनकी नुति कर रहे हैं। सोनकी धूपदानियाँ लेकर व्यंतर देवता जिनके सामने धूप कर रहे हैं: पचन्हमें हिमवत पर्वतकी नरह मस्तकपर रहं हुए श्वेत छत्रसे लो मुशामिन है, चमर धारण करनेवाले देवता दोनों तरफ. जिनके कमर डुला रहे है, नत्र छड़ादारकी तरह इंद्रने जिनको. हायका सहारा दिया है और हय तथा शोको मूह बने हुए. सुगर राना, अनुकूल पवनसे न्नमर नरमर बरसती हुई वाकी तरह, आँसू बहात हुए जिनके पीछे चल रहे हैं, ऐसे प्रभु स्यलकमलके समान चरणों द्वारा चारों तरफ पृथ्वीको पवित्र करत हप, हजार पुल्यों के द्वारा उठाई जाने योग्य सुप्रमा नाम Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र [६१५ की शिविकामें आरूढ़ हुए । उस शिविकाको पहले नरोने, फिर विद्याधरोंने और फिर देवताओंने उठाया.इससे वह श्राफाशमें भ्रमण करते हुए ग्रहोंका भ्रम कराने लगी। ऊपर उठाई हुई, और जिसमें जरासा भी धक्का नहीं लगता था ऐसे चलती हुई, वह शियिका समुद्रमें चलते हुए जहाजके समान शोभती थी। शिविका आगे चली तब उसमें सिंहासन पर विराजमान प्रभु पर ईशानेंद्र और सौधर्मेंद्र चमर डुलाने लगे। दूल्हा जैसे दुलहिनका पाणिग्रहण करनेको उत्सुक होता है वैसेही, दीक्षा ग्रहण करने को उत्सुक बने हुए जगतपति वनिता नगरीके मध्य मार्गपर चलने लगे। उस समय चलनेसे जिनके कानों के आभूपण हिल रहे थे,छाती के हार मूल रहे थे, और यस फल. फड़ कर रहे थे ऐसे शिविका उठानेवाले पुरुप चलते-फिरते कल्पवृक्षके समान जान पड़ते थे। ( १६६-२१४) उस समय नगरकी स्त्रियाँ भक्तिसे पवित्र मनवाली होकर प्रभुको देखने आई। उनमेंसे कई अपनी सहेलियों के पीछे छोड़ पाई थी , कइयों के छातीपर लटकते, हार टूट रहे थे, फागों के कंधोंसे उत्तरीय वन खिसक रहे थे, कई अपने घरोंके दरवाजे पद किए बगैर चली खाई थी और फई परदेशसे आए हुए मेहमानोंको पर बिठा आई थीं, फई परपर तत्कालके जन्ने हुए पुत्र का जन्मोत्सव मनाना छोड़कर, दौर पाई थीं, कागोंका सत्कालही लग्नमुहूर्त था, परंतु उसकी उपेक्षा करके खा गई थी, फई स्नान करनेको जाती हुई नाम फरमा बोलकर इधर, पली आई थी, फई भोजन फर हुए पाचही में भागमा फरक भाई भी, फस्यों सा शरीर पटनला माशा, Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____६१६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २ सर्ग ३. श्राधे जेवर पहनकर और प्राधे छोड़कर चली श्राई थी, कई भगवानक निष्क्रमणकी वान सुनकर जैसे खड़ी थी बसही दौड़ पड़ी थी, कहयोन बेणियों में फूलोकी श्राधी मालाएँ बाँधी थीं, कहयोंके ललाटोपराध निलकाय,कई घरकं काम अधुरे योदकर चली आई थीं,ऋहयान नित्यकर्म अधूरे छोईथे और कहयों बाइन खड़े थे, फिर भी वे पैदलही चल पड़ी थी। यूथपतिके चागे नरफ फिरनेवाले छोटे साथियोंकी तरह नगरजन कमी प्रमुके आगे, कमी पीछ और. कमी दोनों तरफ श्रा श्राकर बड़े होने थे। कई प्रमुक दर्शन अच्छी नहस करने के लिए अपने घरोंकी छनोपर चढ़नथे,कह दीवारोंपर चढ़त थे, कई हवेलियोंकी छनोपर, चढ्न थे, कई मंचकं अगले मागपर चढ़त थे, कई गढ़के कंगूरोपर चढ़न थे, कई वृक्षांक ऊपरी भाग तक चढ़े थे और कई हाथियों होदापर खड़े हो रहे थे। श्रागत श्रानंदित त्रियों में कई अपने कपड़ों पलं चमरोंकी तरह डुला रही थी, कई मानो पृथ्वी में धर्मवीज बोती ही एमे धाणीसे प्रमुको वघा रही थी,कई अग्निकी तरह सात शिवाओंवाली भारतियाँ उनार रही थी, कई मानो मूर्तिमान यश हो ऐसे पूर्ण पात्रोंको प्रमुक पागे रख रही थीं, कई मंगलनिधानके समान पूगा झुमा. को घारगा कर रही थी, कई संध्याके बादतांक समान बत्रास श्राकाशको अवतीर्ण (श्राच्यादित ) कर रही थीं, कई नाच करती थी, कई मंगलगीन गानी थी और कई प्रसन्न होकर मुंदर हास्य करती थीं । ( २१५-२३०) उस समय इधर उधर दौड़ते हुए, मानो गगड़कि समूह घासे, भक्तियान विद्याधरी, देवों और मुरीसे श्राकाश भर. Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [ ६१७ गया । आत्माको धन्य मानती हुई चौसठ इंद्रोंकी नाटयसेना स्वामी के सामने अनेक तरहके नाटक करने लगी । सगर राजाके अनुजीवी (सेवक ) नाचनेवाले देवोंकी स्पर्द्धासे विचित्र पात्रों द्वारा जगह जगह पर नाटक करने लगे और अयोध्या नगरीके मंडनरूप गंधर्वराज व रमणीगण विश्वकी दृष्टिको बाँधने वाले प्रेक्षणीय (देखने योग्य ) प्रयोग (खेल) करने लगे । उस समय काश और पृथ्वीपर होनेवाले नाटय संगीतके स्वरोंसे, पृथ्वी और आकाशके मध्यभागको भरदे ऐसी, महाध्वनि उत्पन्न हुई । वहाँ ( भीड़ में) फिरते हुए अनेक राजाओं, सामंतों और साहूकारों के गलेमें पड़े हुए हारोंके टूटनेसे जमीनपर मोती बिखर गए । इससे वह जमीन मोतियोंके कंकरोंवाली हो गई । स्वर्ग और पृथ्वीके मदमत्त हाथियों के मदजलसे राजमार्ग पंकिल (कीचड़वाले ) हो गए। प्रभुके पास एकत्रित सभी सुरों, असुरों और मनुष्योंसे तीन लोक, एक अधिपति की सत्ता में होनेसे, एक लोकके समान शोभने लगा । ( २३१-२३६ ) ज्ञानवान प्रभु यद्यपि नि:स्पृह थे तथापि, लोगोंकी प्रसनता के लिए, उनके मंगलोपचारको पद पदपर स्वीकार करते थे । इसी तरह एक साथ चलते हुए देवताओं और मनुष्योंपर समान कृपादृष्टिसे एकसा अनुग्रह करते थे । इस तरह, सुरों, असुरों और मनुष्योंने जिनका उत्सव किया था वे प्रभु अनुक्रमसेः सहसाम्रवन नामके उद्यान में पहुँचे । उस उद्यानके चारों तरफ फूलोंकी सुगंध से उन्मत्त बने हुए भौंरोंकी पंक्तियोंसे जिसका अंदरूनी भाग दुःसंचार था ऐसी सघन केतकीके वृक्षोंकी बाड़ बनी हुई थीं; मानो बेगारी हों इस तरह नगर के बड़े बड़े Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. साहूकारोंके पुत्रोंने खेलने की इच्छासे, उस वनकी लताओं और वृक्षों के बीचकी जमीन साफ की थी; नगरकी त्रियाँ क्रीड़ा करनेके लिए वहाँ श्राकर कुम्बक (एक तरहके पुष्पोंका वृक्ष), बकुल, अशोक इत्यादि वृक्षोंके दोहद पूरे करती थीं; विद्याधरोंके कुमार कौतुकसे मुसाफिरोंकी तरह बैठकर मरनोंका मधुर लन पीते थे; जिनकी चोटियाँ मानो आकाशको छू रही हों ऐसे, ऊँचे वृक्षोंपर खेचरोंकी जोड़ियाँ आकर क्रीड़ाके लिए बैठती थीं; वे जोड़ियाँ हंसोको जोड़ियोंसी लान पड़ती थी; दिव्य कपूर और कस्तुरीके चूर्णके समान, घुटनों तक पड़े हुए कोमल पराग से उस वनकी जमीन चारों तरफ रेतीली जान पड़ती थी; उद्यान पालिकाएँ (मालिने), खिरणी, नारंगी और करनोंके वृक्षोंके नीचेके आलबालों (बालों ) को दूधसे भरती थी; मालिनॉकी लड़कियाँ विचित्रथनके काममें सही कर सुंदर फूलोंकी मालाएँ बनाती थीं। अनेक मनुष्य, उत्तम शव्या, आसन और बरतनोंके होते हुए भी केलोंके पत्तोंमें शयन, श्रासन और भोजन करते थे; लंबी लंबी शास्त्राओंवाले, फलोंके भारसे झुके हुए, तरह नरहके वृक्ष पृथ्वीको स्पर्श करते थे; श्रामकी बोराके स्वादस उस वनकी कोकिलाओंका मद उतरता न था दाडिमके स्वादस उन्मत्त बने हुए शुक पक्षियोंके कोलाहलसे वह वन भर रहा था और वर्षा ऋतुके बादलोंकी तरह फैल हए वृक्षोंसे वह उद्यान एक छायावाला जान पड़ता था। ऐसे मुंदर उद्यानमें अजित स्वामीने प्रवेश किया । (२४०-२५४) फिर रथी जैसे रथसे उतरता है वैसेही, संसारसिंधुको पार करने के लिए जगद्गुरु भगवान बुद शिधिकारत्नसे नीचे Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६१६ उतरे तव देवताओंके लिए भी दुर्लभ ऐसे तीन रत्नों? को ग्रहण करनेकी इच्छा रखनेवाले प्रभुने सभी वस्त्र व रत्नालंकार उतार दिए और इंद्र के द्वारा दिया गया अदूपित देवदूष्य वस्त्र, उपधि' सहित धर्मको वतानेके लिए (अर्थात् बाह्य साधनोंसे धर्मका परिचय कराने के लिए) ग्रहण किया। ( २५५-२५७) . माघ सुदी १ का दिन था, चंद्रमा रोहिणी नक्षत्रमें आया था ।भगवानने अहमतपकिया था,सार्यकालका समय था,सप्त.. च्छद वृक्ष के नीचे प्रभुने स्वयंही, रागादिककी तरह, मस्तकके केशोंका भी पाँच मुष्ठीसे लोच कर डाला। सौधर्मेंद्रने उन केशोंको, अपने उत्तरीय वस्त्रके पल्लेमें, प्रसादकी तरह मिले हुए अर्थकी तरह ग्रहण किया और तत्कालही उन्हें लेजाकर इस तरह क्षीर समुद्रमें डाल दिया जिस तरह जहाजसे मुसाफिरी करनेवाले मुसाफिर, समुद्र में पूजाकी सामग्री डालते हैं। वहाँ सुर, असुर और मनुष्य आनंद कोलाहल कर रहे थे, उसको, इंद्रने शीघ्रही श्रा, हाथका संकेत कर, चंद किया। तब प्रभु, सिद्धोंको नमस्कार कर सामायिकका उच्चारण करते हुए मोक्ष मार्ग पर चलने के लिए वाहन के समान चारित्ररूपी रथपर आरूढ़ हुए। दीक्षाका सहोदर हो इस तरह, साथही जन्मा हो, इस तरह चौथा मन:पर्यय ज्ञान उसी समय प्रभुको उत्पन्न हुआ। उस.समय क्षणभरके लिए नारकी जीव भी सुखी हुए और तीनों लोकमें बिजलीके प्रकाशके जैसा प्रकाश हुआ। प्रभुके साथही दूसरे एक हजार राजाओंने भी दीक्षा ली । कारण, १-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र-ये तीन रत्न हैं। २-धर्मके आवश्यक उपकरण । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पत्र २. सग ३. "स्वामिपादानुगमनवतानामुचितं यदः ॥" जिन्होंने न्वामीकचराँका अनुगमन करनेचान लिया था उनके लिए यही-दीना नेना ही- उचिन था।] इंद्रकुन स्तुति फिर जगनपतिको प्रदक्षिणा दे, प्रणाम कर, अच्युनादि इंद्र, इस तरह न्नुनि करने लगे। (२५-२६५) ____ह प्रभु ! आपने पूर्व पद अभ्यासक श्रादरसे (अर्थात श्रापको पूर्व अवसही चारित्र पालनेका अभ्यास है हम ) बैंगन्यत्री हम नग्ह ग्रहण किया है कि वह इस जन्ममें जन्म माय ही एकात्ममात्र हो गया है। मोन्न-पावनमें प्रवीण नाय ! श्रापका मुम्बकं (शरीगदि सुन्नक) इंतु इष्टसंयोगादिमें जैसा कम्बल बैंगन्य है बेसाही व हेतु इष्टवियोगादिमें है। ई प्रमु ! आपने विकल्पी मान पर चढ़ाकर बैंगन्यरूपी शम्मको ऐसा चमकाया है कि मोन प्रान करने में भी उसका पराक्रम लुटित गतिमें उपयोग में श्रा रहा है। नाय ! अब श्राप देखा और गजायोंकी लक्ष्मीका उपयोग करतं नव भी श्रापका यानंद नो गन्यमय ही था। काम नित्य विन्ति रन्ननवान श्रापको जब प्रांड वैराग्य उत्पन्न हुया तव श्रापन सोचा, "काममोग अब बंदा और श्रापन योग स्वीकार कर लिया-दीनाले ली। नत्र श्राप मुन्त्रमें, हमें,संसारमें श्रीर मोक्षमें उदायीनताका मात्र बम्बन है, तब श्रापको तो अविच्छिन्न वैराग्यही है। आपको किनमें वैराग्य नहीं है? दूसरे जीव तो दुःखगर्मित और मोहगर्मिन बैराग्यवाले होते हैं, परंतु आपके Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६२१ - हृदयमें तो एकमात्र ज्ञानगर्भित वैराग्यही स्थान पाए हुए है। हमेशा उदासीनता रखते हुए भी जगतका उपकार करनेवाले, सारे वैराग्यका आधार और शरण्य (शरणमें आएकी रक्षा करनेवाले ) हे परमात्मा ! हम आपको नमस्कार करते हैं।" (२६८-२७५) ___ इस तरह जगद्गुरुकी स्तुति करके और उनको नमस्कार __ करके इंद्र देवताओंके साथ नंदीश्वर द्वीपको गए। वहाँ अंजना चलादिक पर्वतोंपर शक्रादि इंद्रोंने जन्माभिषेकके कल्याणकी तरह ही शाश्वत अर्हत्प्रतिमाओंका अष्टाह्निका उत्सव किया और यह विचार करते हुए वे देवों सहित अपने अपने स्थानोंको गए कि अब फिर कत्र हम प्रभुको देखेंगे । (२७६-२७८) सगरकृत स्तुति सगर राजा भी, प्रभुको प्रणाम कर, हाथ जोड़, गद्गद स्वरमें विनती करने लगा, "तीन लोक रूपी पद्मिनीखंडको विकसित करनेमें सूर्यके समान हे जगतगुरु अजितनाथ भगवान ! आपकी जय हो। हे नाथ ! मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानसे आप इसी तरह शोभते हैं जैसे चार महान समुद्रोंसे पृथ्वी शोभती है। हे प्रभो! आप लीलामात्रमें कर्मोंका नाश कर सकते हैं। आपका अह जो परिकर' है वह लोगोंको मार्ग बतानेके लिए है.। हे भगवान ! मैं मानता हूँ कि आप सब प्राणियोंके एक अंतरा. १-कमलिनी समूह । सूर्य कमलखंडको विकसित करनेवाला माना जाता है। २-साधुताके साधन । .. Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३ - स्मा है। अगर ऐसा न होता तो उनके अद्वितीय मुखके लिए आप क्यों प्रयत्न करते ? श्राप दयारूपी जलसे भरे हुए है। श्राप मलकी तरह कयायोंको छोड़कर कमलकी तरह निलंप और शुद्ध श्रात्मावाले हुए हैं। जब श्राप राज्य करते थे, तब भी न्यायाधीशकी तरह आपके लिए, अपन या पराएका भेद नहीं था; तो अभी मान्यका अवसर प्राप्त होनेपर श्रापमें तो समनाभाव पाए है उनके लिए कहा ही क्या जा सकता है ? हे भगवान ! पापका नो वर्षीदान है वह नीन लोकको अभयदान देनके बड़े नाटककी प्रस्तावना है; एसा मेरा तर्क है । वे देश, वे नगर, व कसबे और वे गाँव धन्य होंगे कि जिनमें, मलयानिलकी तरह प्रसन्न करनेवाले, श्राप विचरण करेंगे।" (२७६-२८०) .. इस तरह प्रमुकी स्तुति करके तथा भक्ति सहित नमस्कार करके यामुयोंसे भरी आँखांबाला सगर राना धीरे धीरे पलके अपने शहर में श्राया। प्रभुका बिहार दूसरे दिन प्रमुने, राजा ब्रह्मदत्तके घर खारसे छहतपका पारना किया। तत्कालही देवान ब्रह्मदत्त राजाके घर साढ़ेवारह करोड़ स्वर्णमुद्रायोंकी वर्षा की और हवासे हिलाए हुए लताओंके पल्लवोंकी शोभाको हरनेवाले बढ़िया वबॉकी वर्षा की ! आकाशमें उन्होंने ऐसा गंभीर द्वंदमिनाद क्रिया जैसा चारक समयमें समुद्रका नाद होता है। उन्होंन चारों तरफ फिरते हुए प्रमुके यशरूपी स्वेदजलका भ्रम करानवाला सुगंधित जल वर साया और चारों तरफ मित्रोंकी तरह मारोसे विरे हुए पाँच Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६२३ रंगके फूलोंकी दृष्टि की। फिर अहो दान ! अहो दान ! ऐसे शब्दोंका उच्चारण करते हुए आनंदित मनवाले देवता उच्च प्रकारके जय जय शन्दोंके साथ श्राकाशमें बोलने लगे, "इन प्रभुको दिए गए श्रेष्ठ दानका फल देखो। इसके प्रभावसे दाता तत्कालही अतुल्य वैभववाला तो होताही है; परंतु इससे भी बढ़कर कोई इसी भवमें मुक्त होता है, कोई दूसरे भवमें मुक्त होता है, कोई तीसरे भवमें मुक्त होता है अथवा कल्पातीत' कल्पोंमें उत्पन्न होता है। जो प्रभुको दी जानेवाली भिक्षा देखते हैं वे भी देवताभोंकी तरह नीरोग शरीरवाले होते हैं । (२८८-२६८) - हाथी जैसे पानी पीकर सरोवरमेंसे निकलता है वैसेही, प्रभु पारना करके ब्रह्मदत्त राजाके घरसे बाहर निकले। तव ब्रह्मदत्तराजाने यह सोचकर कि कोई प्रभुके खड़े रहनेकी जगहको न लौधे, जहाँ प्रभु खड़े रहे थे, वहाँ रत्नोंकी एक पीठ बनवा दी। प्रभु वहाँ विराजमान हैं यह मानता हुआ ब्रह्मदत्त पुप्पादिसे उस पीठकी पूजा करने लगा। चंदन पुष्प और वखादि द्वारा जब तक पीठकी पूजा न कर लेता था तब तक वह, यह सोचकर भोजन नहीं करता था कि अब तक स्वामी भूखे हैं। (२६६-३०२) हवाकी तरह वेरोक्र भ्रमण करनेवाले भगवान अजित स्वामी, अखंड ईयर्यासमितिका पालन करते हुए, दूसरी जगह विहार कर गए। मार्गमें कई जगह ये प्रासुकर, पायसान्न', -ग्रंवेयक और अनुत्तर विमान कल्यातीत कल्प कहलाते हैं। २.-दोष रहित। ३-दूध पना भोजन । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग ३, वगैरासे प्रतिलाभित' होते थे, किसी जगह सुंदर विलेपनसे उनके चरणकमल चर्चित होने थे, कहीं श्रावकोंक बंदना करनेवाले बालक राह देखने थे, कहीं दर्शनमें अतृप्त लोग उनके पीछे पीछे चलते थे, कहीं लोग उनका चन्द्रोंस उत्तारण मंगल करत थे। कहीं लोग दही, दूर्वा और अनतादिसे उनको अर्थ देत थे, कहीं लोग अपने घर जाने के लिए उनको रस्त में रोकनें थे, कहीं उनके चरणाम पृथ्वीपर लोटत हुए लोगोंसे उनका मार्ग सकता था, कहीं श्रावक अपने मस्तक बालोस उनके चरणोंकी धूलि साफ करते थे और कहीं मुग्धबुद्धिक लोग उनका श्रादेश माँगते थे। इस तरह निग्रंथ, निर्मम और निःह प्रभु अपने संसर्गम गाँवों और शहरोको नार्थक समान बनाते हुए वमुधापर, विहार करने लगे। (३.३-३४) लो मल्ल पक्षियोंके धुतकार शब्दोंसे भयंकर है, जिसमें सियार अत्यंत प्रकार कर रहे हैं, जो सपोंकी फुकारसे भया. बना हो रहा है, जिसमें मनवान बिलाव उन्लोश कर रहे हैं, उनके शब्द वाघोंसे भी विकरात मालूम होने हैं, जिसमें चमुरु मृग करताका बरनाव कर रहे हैं, जो केसरी सिंहॉकी गर्जनासे प्रतिञ्चनिन हो रहा है, जिसमें बड़े हाथियोंके द्वारा तोड़े गए ज्ञॉस उई हप काक पक्षियोंकी काँ को हो रही है, सिंहॉकी पूँछोंकी फटकारसे जिसकी पापागामय भूमि भी हटा करती है, नहाँक मागे,अष्टापदोंक द्वारा वर्ग किए गए हाथियोंकी हड़ियाँसे भरे हुए है, जहाँ शिकारक उत्सकमालो धनुषांकी टंकारोंकी प्रतिश्चनियाँ सुनाई देती है,जहाँ गंछोंके कान लेने के लिए, १-मितता था। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६२५ भीलोंके थालक अधीर हो रहे हैं और जिसमें वृक्षोंकी शाखोंके अग्रभागोंके संघर्पसे आग उछल रही है, ऐसे पर्वतों और महान अरण्योंमें, इसी तरह गाँवों और शहरोंमें अजितनाथ स्वामी स्थिर मनके साथ इच्छानुसार विहार करते थे। किसी समय पृथ्वीकी तरफ देखनेसे चक्कर आजाएँ ऐसे ऊँचे पर्वतके शिखरपर मानो दूसरे शिखर हों ऐसे प्रभु कायोत्सर्ग करके स्थिर रहते थे, कभी ऊँची कुलौंचें भरते कपियोंके झंडोंने जिसकी अस्थिसंधियोंको (कगारोंको) तोड़ डाला है ऐसे महासमुद्रके तटपर वृक्षकी तरह स्थिर रहते थे, कभी क्रीड़ा करते हुए उत्ताल वेतालों, पिशाचों और प्रेतोंसे भरे हुए और जिसमें बवंडरसे धूलि उड़ रही है ऐसे मसानमें कायोत्सर्ग करके रहते थे। इनके सिवा और भी अधिक भयंकर स्थानोंमें स्वभावसे धीर प्रभु लीलामात्रसे, कायोत्सर्ग करके रहते थे। आर्य देशोंमें विहार करते हुए अक्षीण शक्तिवाले भगवान अजितनाथ, कभी चतुर्थ तप करते थे,कभी छह तप करते थे और कभी अहम तप करते थे, कभी दशम तप, कभी द्वादश तप, कभी चतुर्दश तप, कभी षोडश तप, कभी अष्टादश तप, कभी मासिक तप, कभी द्विमासिक तप, कभी त्रिमासिक तप, कभी चतुर्मासिक तप, कभी पंचमासिक तप, कभी षटमासिक तप, कभी सप्तमासिक तप और कभी अष्टमासिक तप करते थे। कपालको तपा देनेवाले सूर्यके आतापवाली ग्रीष्म ऋतुमें भी देहमें स्पृहान रखनेवाले प्रभु कभी वृक्षच्छायाकी इच्छा नहीं करते थे, गिरते हिमसमूहसे, जिसमें वृक्षोंका समूह दग्ध होजाता था ऐसी, हेमंत ऋतुमें भी Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. प्रभु अधिक पित्तवाले पुरुपकी तरह कभी धूप नहीं चाहते थे और वर्षाऋतुमें पवन के वेगसे भी बढ़कर मेघोंकी मूसलधार वोंसे प्रभु जलचारी हाथीकी तरह जरासा भी घबराते न थे। पृथ्वीकी तरह सवको सहन करनेवाले और पृथ्वीके तिलकरूप प्रभु दूसरे भी अनेक दुःसह परीपहोंको सहते थे। इस तरह विविध प्रकारके उग्र तपोंसे और विविध प्रकारके अभिग्रहोंसे परीपहोंको सहन करते हुए प्रभुने बारह बरस विताए । (३१०-३२८) स्वामी अजितनाथको केवलज्ञानकी प्राप्ति उसके बाद गेंडे की तरह पृथ्वीपर नहीं बैठनेवाले; गेंढेके सींगकी तरह अकेले विचरण करनेवाले, सुमेरु पर्वतकी तरह कपरहित; सिंहकीतरह निर्भया पवनकी तरह अप्रतिवद्धविहारी; सर्पकी तरह एकष्टिवाले; अग्निसे सोना जैसे अधिक कांति. वाला होता है वैसेही. तपसे अधिक कांतिवान; वृतिसे' सुंदर वृक्षकी तरह तीन गुप्तियोंसे घिरे हए; पाँच वाणोंसे कामदेवकी तरह पाँच समितियोंको धारण करनेवाले, आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानका चितवन करनेसे चार प्रकारके ध्येयका भ्यान करनेवाले और ध्येयरूप-ऐसे प्रभु प्रत्येक गाँव, शहर और वनमें भ्रमण करते हुए सहसाम्रवन नामके उद्यानमें आए। वहाँ छत्रकी तरह रहे हुए सप्तच्छद वृक्षके नीचे प्रभुने, तनेकी तरह अकंप होकर कायोत्सर्ग किया। उस समय प्रभु अप्रमत . १-चारों तरफ, गोलाकार बना हुया लकड़ी यादिका घेरा, बाढ़। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी अजितनाथ-चरित्र . [ ६२७ संयत नामके सातवें गुणस्थानसे अपूर्वकरण नामक पाठवें गुणस्थानमें पाए । श्रौत अर्थसे शब्दको तरक जाते और अर्थसे शब्दमें जाते हुए प्रभु नानाप्रकारके श्रुत विचारवाले शुक्लध्यानके पहले पाएको प्राप्त हुए। फिर जिसमें सभी जीवोंके समान परिणामहोते हैं उस 'अनिवृत्तिबादर' नामके नवें गुणस्थानमें आरूढ हुए। उसके बाद लोभरूपी कपायके सूक्ष्म खंड करनेसे सूक्ष्मसंपराय नामके दसवें गुणस्थानको प्राप्त हुए। उसके बाद तीन लोकके सभी जीवोंके कम खपानेमें समथ ऐसे वीर्यवाले प्रभु मोहका नाश करके क्षणमोह नामके बारहवें गुणस्थानमें पहुँचे। इस बारहवें गुणस्थानके अंतिम समयमें प्रभु एकत्वश्रुतप्रविचार नामक शुक्लध्यानके दूसरे पाएको प्राप्त हुए। इस ध्यानसे तीनों लोकके विषयों में रहे हुए अपने मनको इस तरह एक परमाणुपर स्थिर किया जिस तरह सप-मंत्रसे सारे शरीरमें फैला हुआ विष सर्पदेशके स्थानमें आ जाता है। ईंधन के समूहको हटानेसे थोड़े इनमें रही हुई आग जैसे आपही बुझ जानी है वैसेही, उनका मनभी सर्वथा निवृत्त हो गया। फिर प्रभुकी ध्यानरूपी आग जलनेसे, आगसे बरफकी तरह, उनके सभी घातिकर्म नष्ट हो गए, और उनको उज्ज्वल केवलज्ञान प्राप्त हुआ । उस दिन, प्रभुको छट्टका तप था, पोस मासकी एकादशी थी और चंद्र रोहिणी नक्षत्र में आया था। (३२४-३४४) . ___ उस ज्ञानके उत्पन्न होनेसे तीन लोकमें रहे हुए तीनों फालोंके सभी भावोंको, घे इस तरह देखने लगे जिस तरह हाथमें रखी हुई चीज दिखती है। जिस समय.प्रभुको केवल. ज्ञान हुभा उस समय, मानो प्रभुकी अवज्ञाके भयसे कपित Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग३. .... हुआ हो ऐसे, सौधर्म देवलोकके इंद्रका सिंहासन कॉपा । जलाशयके जलकी गहराई जानने के लिए जैसे मनुष्य पानी में (नाएके चिलवाली) रम्सी डालता है वैसेही सौधर्मद्रने सिंहासन फौंपनेका कारण जानने के लिए, अवविज्ञानका उपयोग किया। दीपकके प्रकाशसे जैसे चीजें दिखती है वैसेही, सौधर्मेद्रको अवधिज्ञानमे मालूम हुया कि भगवानको केवलज्ञान हुश्रा है। वह तत्कालही रत्नसिंहासन और रत्नकी पटुकाएँ छोड़ फर खड़ा हुया । कारण ....'बलवत् स्वाभ्यबन्नाभयं सताम् ।" [सलनोंके लिए स्वामीकी अवज्ञाका भय बलवान होता है। गीतार्थ गुरुका शिष्य जैसे गुरुकी बनाई हुई अवग्रह (अनुकूल ) भूमिपर कदम रखना है सही, उसने अरिहंतकी दिशाकी नरफ सात पाठ कदम रखें व अपने बाएँ घुटनेको कुछ मुकाकर, दाहिना घुटना, दोनों हाथ और मस्तकको पृथ्वीसे छया कर, प्रमुको नमस्कार किया। फिर खड़े हो, पीछे फिर, उसने सिंहासनको इस तरह अलंकन क्रिया निस तरह केसरी सिंह पर्वतके शिखरको अलकन करता है। पश्चात तत्कालहा समी देवताओंको बुलाकर, बड़ी मुद्धिकं साथ भक्तिसहित वह प्रमुके पास आया। दूसरे समी ईट भी, श्रासनकपसे स्वामीको केवलज्ञान हुआ है, यह बात जानकर, अहपूर्विकासे प्रभुके पास थापा (२४५-३५४) १- परले जाऊँ, में पहले नाऊँ इस सर्दा से। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___.. श्री अजितनाथ-चरित्र [.६२६ समवसरण फिर कार्यों के अधिकारी आए। वायुकुमार देवोंने एक योजन प्रमाण भूमिमेंसे ककर वगैरा दूर किए। उसपर मेघफुमार देवोंने, शरदऋतुकी वर्षा जैसे सारी रजको शांत करती है ऐसेही, सुगंधित जलकी वर्षा से वहाँकी रज शाँत की। दूसरे भ्यंतर देवोंने, चैत्यके मध्यभागकी तरह, कोमल स्वर्णरत्नोंकी शिलाओंसे उस जमीनका फर्श बनाया। प्रात:कालके पवनोंकी तरह, ऋतुकी अधिष्ठायिका देवियोंने जानुनक खिले हुए फूलोंकी वर्षा की। भवनपति देवोंने अंदर मणिस्तूप बना उसके चारों तरफ सोनेके कंगूगेवाला चाँदीका कोट बनाया। ज्योतिष्क देवोंने उसके अंदर रत्नोंके कंगूरोंवाला और मानो अपनी ज्योति एकत्र की हो ऐसा, कांचनमय दूसरा कोट बनाया। उसके अंदर वैमानिक देवोंने माणिक्यके कगूरोंवाला रत्नोंका तीसरा कोट बनाया। प्रत्येक कोटमें जंबूद्वीपकी जगतीकी (जमीनकी) सरह, मनको विश्राम देनेके धामरूप चार चार सुंदर दरवाजे बनाए । प्रत्येक दरवाजे पर मरकतमणिमय पत्रोंके तोरण बाँधे, तोरणोंके दोनों तरफ मुखोंपर कमलोंवाले श्रेणीबद्ध कुंभ रखे, वे सायकालको समुद्रकी चारों तरफ रहनेवाले चक्रवाकोंके समान मालूम होते थे। हरेक द्वारपर स्वर्णमय कमलोंसे सुशोमित, स्वच्छ और स्वादिष्ट जलसे भरी हुई मंगलकलशोंके समान एक एक वापिका बनाई गई। द्वार द्वारपर देवताओंने सोनेकी धूपदानियाँ रखी थी, वे धुएँसे मरकतमणियोंके तोरणोंका विस्तार करती हुईसी जान पड़ती थीं। बीचके कोटके अंदर, ईशान कोनमें देवताओं ने प्रभुके लिए विश्राम करने Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३. को एक देवच्छंद बनाया। नीसरे कोट के बीचमें व्यतर देवोंने एककोस और चौदहमी धनुय ऊँचाचैत्य वृक्ष बनाया। व्यंतरोंनेही उसके नीचे प्रभु बैठनका सिंहासन, देवच्छेदक, दो दो चवर और छत्रत्रया भी बनाए। इस तरह देवताओने, सभी आपत्तियों को हरनेवाले और ममारसे घबराए हुए पुरुषोंके लिए आश्रय समान समवसरणकी रचना की। (३४५-३७०) फिर मानो चारगा हो गसे, जय जय शब्द करते हुए, देवताओंके द्वारा चारों नरकसे घिरे हुए, और देवताओंके द्वारा बनाए हुप सोन नवीन कमलोंपर श्रनुक्रमसे चरणकमल रखते हुए प्रमुने पूर्वद्वारले प्रबंश कर चैत्यगृहकी प्रदक्षिणा की। ....."आवश्यविधिलिंव्यो महतामपि।" [महान पुरुष भी श्रावश्यक विधिका उलंघन नहीं करते है।] फिर 'नाथाय नमः' इस बाक्यस तीर्थको नमस्कार कर प्रभु पूर्वकी तरफ मुम्ब करके सिंहासन मध्यभागमें बैठे। उस समय शेषकर्म अधिकारी व्यंतरदेवान बाकी तीनों दिशाश्रामें प्रमुके प्रतिबिंध बनाए। स्वामी प्रमावसे वे प्रतिबिंब प्रमुझे लपके समानही हुए, अन्यथा वे प्रभु के समान प्रतिबिंब बनाने में समर्थ नहीं हैं। उस समय पीछेक भागमें भामंडल, आंग धर्मचक्र और वन्यन तथा प्राकाश ददुमि-नाद प्रकट हए। फिर साधु-साध्वियों और चैमानिकदेवोंकी देवियाँ-ये तीन पर्षदाएँ-यूद्वार प्रवेश कर, प्रमुको तीन प्रदक्षिणा सहित प्रणाम कर, अग्निकांनमें पाई । साधु आगे बैठ गए है-एक पर दूसरा और दूसरे पर नोटरा । Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र [३१ और उनके पीछे देवियाँ व देवियों के पीछे साध्धियाँ खड़ी रहीं। भुवनपति, ज्योतिष्क और व्यंतरोंकी देवियाँ, दक्षिण द्वारसे प्रवेश कर, प्रभुको प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार कर, अनुक्रमसे नैऋत्य दिशामें खड़ी रहीं। भवनपति, ज्योतिष्क और व्यंतर देव, पश्चिम दिशासे प्रवेश कर, प्रभुको प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार कर, अनुक्रमसे वायव्य दिशामें बैठे। इंद्रसहित वैमानिकदेव, उत्तर द्वारसे प्रवेश कर, प्रभुको प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार कर, ईशान दिशामें अनुक्रमसे बैठे। उस समय इंद्रका शरीर भक्तिसे रोमांचित हो पाया। उसने पुनः हाथ जोड़, नमस्कार कर, इस तरह विनती की,-(३७०-३५३) ____ "हे नाथ ! आप तीर्थकर नामकर्मसे सबके अभिमुख हैंमुखिया हैं। और हमेशा सन्मुग्ध होकर अनुकूल बनकर आप सारी प्रजाको आनंदित करते हैं। आपके एक योजन प्रमाणवाले धर्मदेशनाके मंदिर में ( समवसरणमें ) करोड़ों तिर्यंच, मनुष्य और देवता समाजाते हैं। एक भाषामें बोले गए, मगर सबको अपनी अपनी भाषामें समझमें आनेवाले, सबको प्रिय लगनेवाले और धर्मबोध देनेवाले आपकं वचन भी तीर्थंकर नामकर्मकाही प्रभाव हैं। आपकी विहारभूमिके चारों तरफ, सवा सवा सौ योजन तक, पहले आए हुए रोगरूपी बादल, आपके विहाररूपी पवनके झपेटोंसे, विनाही प्रयत्न के, नष्ट हो जाते हैं। और (नेक) राजाओं के द्वारा नष्ट कीगईं अनीतियोंकी तरह,आप नहाँ विहार करते हैं वहाँ-उस जमीनमें-चूहे,टिड़ियाँ और तोते वगैराकी उत्पत्तिरूप दुर्भिक्ष आदि ईतियाँ प्रकट नहीं होती हैं। आपके कपारूपी पुष्करावर्तकी वर्षासे पृथ्वीपर बी, Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ 1 त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. क्षेत्र और द्रव्यादि कारणोंसे जन्मी हुई वैररूपी श्राग भी शांत हो जाती है। हे नाथ ! अकल्याणका नाश करनेमें ढिंढोरेके समान अापका प्रभाव पृथ्वीपर भ्रमण करता रहता है, इसलिए मनुष्यलोकके शत्रुरूप महामारी वगैरा रोग उत्पन्न नहीं होत हैं। विश्वके वत्सल और लोगोंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले आपके विचरण करते रहने से उत्पात करनेवाली अतिवृष्टि या अनावृष्टि भी नहीं होती। आपके प्रभावसे,सिंहनादसे हाथियोंकी तरह, स्वराज्य और परराज्य संबंधी क्षुद्र उपद्रव तत्कालही नष्ट हो जाते हैं। सब तरहके अद्भुत प्रभाववाले और जंगम कल्पवृक्षके समान श्राप जिधर जाते हैं उधर अकाल मिट जाता है। आपके मस्तकके पिछले भागमें जो भामंडल है वह सूरजके तेजको जीतनेवाला है; वह इसलिए पिंडाकारमें बना जान पड़ता है कि आपका शरीर लोगोंके लिए द्वरालोक न हो जाय। हे भगवान ! घातिकमाका क्षय होनेसे आपके इस योगसाम्राज्यकीमहिमा विश्वमें प्रख्यात हुई है। यह बात किसके लिए श्राश्चर्यका कारण न होगी ! तुम्हारे सिवा दूसरा कौन अनंत कर्मरूपी तृणोंको सब तरहसे जड़मूलसे उखाड़कर भस्म कर सकता है। क्रियाकी अधिकतासे आप इस तरहके प्रयत्नों में लगे हुए हैं, कि आपके इच्छा न करनेपर भी लक्ष्मी आपका आश्रय लेती है। मंत्री(प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ चार भावनाओ)के पवित्र मंत्रा-समान धर्मवालोंसे मित्रता करना-करनेकी भावना रखना । (२) प्रमोद-गुणियोंसे प्रसन्नताका व्यवहार करनाकरनेकी भावना रखना। (३) करुणा-दुखी जीवांपर दया करनाकरनेकी भावना रखना। (४) माध्यस्थ-विरोधियों की उपेक्षा करनाकरने की भावना रखना। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-धरित्र [६५ पात्ररूप, मुदित-श्रामोदशाली (सदा आनंदित मनवाले) और रुपा तथा उपेक्षा करनेवालोंमें मुख्य ( ऐसे सव श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त) हे योगात्मा, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। (३८४-३६८) . उधर उद्यानपालकोंने सगरचक्रीके पास जाकर निवेदन किया कि उद्यानमें अजितनाथ स्वामीका समवसरण हुआ है। प्रभुके समवसरणकी बात सुनकर सगरको इतना हर्प हुआ कि, जितना चक्रकी प्राप्तिके समाचारसे भी नहीं हुआ था। संतुष्टचित्त सगर चक्रवर्तीने उद्यानपालकोंको साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ इनाममें दी। फिर स्नान तथा प्रायश्चित्त कौतुक मंगलादिक कर, इंद्रकी तरह उदार आकृतिवाले रत्नोंके आभूपण धारण कर, कंधेपर दृढ़तासे हार रख अपने हाथसे अंकुशको नचाते हुए सगर राजा उत्तम हाथीपर, अगले आसनपर बैठे। हाथीके ऊँचे कुंभस्थलसे जिनका आधा शरीर ढक गया है ऐसे चक्री आधे उगे हुए सूर्यके समान शोभते थे। शंखों और नगारोकि शब्द दिशाओके मुग्बम फेलनेसे, सगर राजाके सैनिक इसी तरह एकत्रित हो गए जिस तरह सुघोपादि घंटोंकी आवाजसे देवता जमा हो जाते हैं। उस समय मुकुटधारी हजारों राजाओंके परिवारसे चक्री ऐसा दिखता था, मानो उसने अपने अनेक रूप बनाए हैं। मस्तकपर अभिषिक्त हुए राजाओंमें मुकुटके समान चक्री, मस्तकके ऊपर आकाशगंगाके प्रवर्तका.भ्रम पैदा करनेवाले श्वेत छत्रसे सुशोभित हो रहा था। और दोनों तरफ डुलाए जानेवाले चमरोंसे वह ऐसा शोभता था जैसे दोनों तरफ स्थित चंद्रबियोंसे मेरुपर्वत शोभता Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] विपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सर्ग३.. है। मानो स्वर्णके पंखोंवाले पक्षी हों ऐसे स्वर्णके कवचवाले अश्वोंसे, पाल चढ़ाए हुए कृपन्तंभोंवाले' जहाज हों ऐसे ऊँची ध्वजाओंके खंभोंवाले रथोंसे, झरनोंवाले पर्वत हों ऐसे मद भरते उत्तम हाथियोंसे, और मानो सर्पसहित सिंधुकी तरंगें हों ऐसे ऊँचे हथियारोवाले प्यादोंसे पृथ्वीको चारों तरफसे आच्छादित करता हुआ सगरचक्री सहस्राम्रवन नामक उपवनके समीप आया। फिर,महामुनि जैसे मानसे उतरते हैं उसी तरह, सगर राजा उद्यानके दरवाजे की स्वर्णवेदीपर हाथीसे उतरा। उसने अपने छत्र, चमर इत्यादि राज्यचिह्न भी वहीं छोड़ दिए । कारण, विनयी पुरुपोंकी ऐसीही मर्यादा होती है। उसने विनयके कारण पैरोंसे जूते निकाल दिए। छड़ीदारके द्वारा दिए गए हाथके सहारेकी भी उपेक्षाकी-हाथका सहारा नहीं लिया और वह राजा नगरके नानारियों के साथ पैदल चलकर समव. सरणके पास पहुँचा। फिर, मकरसंक्रांतिके दिन सूर्य जैसे आकाशके आँगनमें प्रवेश करता है ऐसेही, सगर राजाने उत्तर द्वारसे समवसरण में प्रवेश किया। वहाँ उसने जगद्गुरुको तीन प्रदक्षिणा सहित नमस्कार करके अमृतकं समान मधुरवाणीम स्तुति करना प्रारंभ किया, (३६-४१७) . ___ "हे प्रभो ! मिथ्यानष्टि के लिए कल्लांतकालके सूर्य के समान और सम्यक्त्व दृष्टिके लिए अमृत के अंजनके समान और तीर्थकरपनकी लक्ष्म के लिए तिलकरूप यह चक्र आपके सामने बढ़ा है। "इस जगतमें तुम अकेलेहो स्वामी हो।" यह कहनेव लिए इंद्रने मानो इंद्रध्वजके वहानेसे अपनी तर्जनी उँगुली ऊँची १-नौका बांधनेके स्वमा Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र . [६३५ की है। जब आपके चरण कदम रखते हैं तव सुर और असुर कमल बनाने के बहाने कमलमें बसनेवाली लक्ष्मीका विस्तार करते हैं। मैं मानता है कि दान, शील, तप और भाव चार तरहके इस धर्मको एक साथ कहने के लिए आप चार मुखवाले हुए हैं। तीन लोककी तीन दोषोंसे बचानेकी प्रवृत्ति कर रहे हैं, इसीलिए मालूम होता है कि देवताओंने ये तीन कोट बनाए हैं। आप पृथ्वीपर विचरते हैं तब कॉटे अधोमुख हो जाते हैं। मगर इसमें कोई अचरजकी बात नहीं है। कारण-जब सूरज उगता है तब अँधेरा कभी सामने नहीं आता है-नहीं आ सकता है। केश, रोम, नस,डाढ़ी और मूंछे बड़े नहीं हैं; जैसे थे वैसेही है। (यह योगकी महिमा है) इस तरहकी बाहरी योगमहिमा, तीर्थकरोंके सिवा दूसरोंको नहीं मिली। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पश नामके पाँच इंद्रियोंके विषय, आपके सामने, तार्किक लोगों की तरह प्रतिकूलता नहीं करते। सभी ऋतुएँ, असमयमें की हुई कामदेवकी सहायताके भयसे हों ऐसे, एक साथ आपके चरणोंकी सेवा करती हैं। भविष्यमें आपके चरणोंका स्पर्श होनेवाला है यह सोचकर, देवता सुगंधित जलवर्षासे और दिव्य पुष्पोंकी वृष्टिसे पृथ्वीकी पूजा करते हैं। हे जगतपूज्य ! जब पक्षी भी चारों तरफसे आपकी परिक्रमा करते हैं और आपके विपरीत नहीं चलते हैं तव, जो मनुष्य होकर तुमसे विमुख वृत्ति रखते हैं और जगतमें बड़े होकर फिरते हैं उनकी क्या गति होगी.? जब आपके पास आकर एकेंद्रिय पवन भी प्रति. कूलताका त्याग करता है तब पंचेंद्रिय तो दुःशील हो ही कैसे सकता है आपके माहात्म्यसे.चमत्कार पाए हुए वृक्ष भी मस्तक Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. मुका कर आपको नमस्कार करते हैं; इससे उनके मस्तक कृतार्थ होते हैं मगर जिनके मस्तक आपके सामने नहीं झुकते हैं उन मिथ्याष्टियोंके मस्तक अकृतार्थ हैं व्यर्थ हैं-कमसे कम करोड़ों सुरासुर आपकी सेवा करते हैं। कारण-मूर्ख और श्रालसी पुरुष भी भाग्यके योगसे मिले हुए अर्थके प्रति उदासीनता नहीं 'दिखाते हैं।" (४१८-४३१) इस तरह भगवानकी स्तुति करके विनय सहित जरा पीछे हटकर सगर चक्री इंद्रके पीछे बैठा और नरनारियोंका समूह उसके पीछे बैठा। इस तरह समवसरणके अंतिम ऊँचे गढ़के अंदर भक्ति के द्वारा मानो ध्यानमें स्थित रहा हो इस तरह चतु. विध संघ आकर बैठा। दूसरे गढ़में सर्प और नफुल वगैरा तिर्यंच जाति वैरका भी त्याग करके आपसमें मित्रोंकी तरह बैठे। तीसरे गढ़में प्रभुकी सेवाके लिए आए हुए सुरासुर और मनुष्यों के वाहन थे। इस तरह सबके बैठने के बाद एक योजन तक सुनाई देनेवाली और सभी भाषाओं में समझी जानेवाली मधुर गिरासे भगवान अजित स्त्रामीने धर्मदेशना देना प्रारंभ किया। (४३२--४३६) प्रभुकी देशना .[इस देशनामें धर्मध्यानका वर्णन है; इसीमें तीनों लोकका वर्णन आ गया है। .. "अहो ! उन मुग्धबुद्धि लोगोंको धिक्कार है जो कांचको वैडूर्यमणि और असार संसारको सारवाला जानते हैं। प्रतिक्षण बँधते हुए विविध कर्मों से प्राणियों के लिए यह संसार इसी Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र - [६३७ तरह बढ़ता है जिस तरह दोहदों से वृक्ष फलते हैं। कर्मके अभाव. : से संसारका अभाव होता है। इसलिए विद्वानोंको कर्मका नाश करने के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए। शुभ ध्यानसे कर्मका नाश होता है। वह ध्यान-श्राज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानचितवन नामसे-चार तरहका है। (३३७-४४०) - (१) आज्ञा-आप्त-सर्वज्ञके वचनोंको आज्ञा कहते हैं। वह दो प्रकारकी होती है । आगम आज्ञा और हेतुवाद आज्ञा । जो शब्दोंसे पदार्थों का प्रतिपादन करता है उसे आगम आज्ञा कहते हैं। दूसग, प्रमाणोंकी चर्चासे जो पदार्थोंका प्रतिपादन करता है उसे हेतुवाद आज्ञा कहते हैं। इन दोनोंका समान होना प्रमाण है। दोषरहित कारण के प्रारंभके लक्षणसे प्रमाण होता है। राग, द्वेष और मोहको दोप कहते हैं। ये दोप अहंतोंमें नहीं होते। इसलिए दोपरहित कारणोंसे संभूत ( यानी पैदा हुआ या बोला गया) अहं तोंका वचन प्रमाण है । वह वचन नय और प्रमाणोंसे सिद्ध, पूर्वापर विरोध रहित, दूसरे बलवान शासनोंसे भी अप्रतिक्षेप्य- अकाटय, अंगोपांग, प्रकीर्ण इत्यादि बहुशास्त्ररूपी नदियोंका समुद्ररूप, अनेक अतिशयोंकी साम्राज्य लक्ष्मीसे सुशोभित, दूरभव्य पुरुषोंके लिए दुर्लभ, भव्य पुरुषोंके लिए शीघ्र-सुलभ, गणिपिटकपनसे रहा हुआ और देवों - - . १- प्राचीन कालसे कवियोंकी यह मान्यता चली थाई है कि सुंदर त्रिके स्पर्शसे प्रियंगु, पानकी पीकथूकनेसे मौलसिरी, पैरोंके श्राघात. से अशोक, देखनेसे तिलक, मधुर गानसे शाम और नाचनेसे कचनार श्रादि बन्न फूलते हैं। इन्ही क्रियाओंको दोहद कहते हैं। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८] निषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३. - और मानवोंके लिए नित्य न्तुति करने लायक है । ऐसे आगम यचोंकी श्रानाका पार्लवन करके स्यावाद न्यायके योगसे इन्यपर्यायरूपसे. नित्यानित्य वस्तुओंम इसी तरह स्वरूप और. पररूपसे सत असतपनसे रहे हुए पदायों में नो स्थिर विश्वास करना है उसे पानाविचय ध्यान कहते हैं । (४४१ ४४६) (२) अपाय विचय-"जिन्होंने जिनमार्गका स्पर्श नहीं किया, जिन्होंने परमात्माको नहीं जाना और जिन्होंने अपने आगामी काल-यानी भविष्य का विचार नहीं किया ऐसे पुरुपौ. को हजारों अपाय ( बिन्न ) आते हैं। माया और मोहरूपी अंधकारसे जिसका चित्त परवश है (यानी जो अंधकारके कारण देख नहीं सकता है। वह प्राणी कौन कौनसे पाप नहीं करता है और उनसे उसको कौन कौनसे कष्ट नहीं होते हैं ! ऐसे प्राणीको विचार करना चाहिए कि, नारकी, तिथंच श्रीर. मनुष्य भवाम मन जो जो दुःख भोगे है उन सवका कारण मेरा दुष्ट प्रमादही है । परम बोधिवीजको पाकर भी मन, वचन और काया द्वारा की गई चेष्टायांस मैनही अपने मस्तकपर श्राग जलाई है। मुक्तिमार्गपर चलना मेरे हाथम था; मगर में कुमागे. को हूँढ उसपर चला और इस तरह मैंनही अपने प्रात्माको कष्ट में डाला। जैसे अच्या रान मिलनपर भी मुखं मनुष्य भीख माँगता फिरता है सही, मोक्षसाम्राज्य मेरे अधिकारमें होते हुए भी मैं अपने प्रात्माको संसारमें भ्रमण कराता हूँ। इस तरह.राग द्वेप और मोहसे उत्पन्न होनेवाले उपायोंका विचार करना अपायविचय नामक दूसरा धर्मध्यान कहलाता है। (४५०-४५६) Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-परित्र [६३६ - . (३) विपाकविचय-"कर्मके फलको विपाक कहते हैं। वह विपाक शुभ और अशुभ ऐसे दो तरहका है । दुव्य, क्षेत्रादि. की सामग्री द्वारा विचित्र प्रकारसे उसका अनुभव होता है । स्त्री, फूलों की माला और खाद्य द्रव्योंके उपभोगको शुभ विपाक कहते हैं और सर्प, शन, आग और जहर वगैरा पदार्थोंका जो अनुभव होता है उसे अशुभ विपाक कहते हैं । (ये शुभाशुभ विपाक द्रव्यविपाकके नामसे पहचाने जाते हैं ।) "महल, विमान, बाग बगीचे इत्यादि स्थानों में निवास करना शुभविपाक है; और मसान, जंगल वगैरामें रहना अशुभविपाक है । ( ये शुभाशुभ विपाक क्षेत्र विपाक हैं।) ... "सरदी-गरमी रहित वसंतादिक ऋतुओंमें फिरना शुभविपाक है; और सरदी और गरमीकी हेमंत और ग्रीष्म ऋतु ओंमें भ्रमण करना अशुभविपाक है। (इनको कालविपाक कहते हैं।) ___"मनकी प्रसन्नता और संतोषकी भावना शुभ विपाक है और क्रोध, अहंकार और रौद्रताकी भावना अशुभ विपाक है। (इनको भावविपाक कहते हैं ।) कहा गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवको प्राप्त कर काँका उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम होता है। इस तरह द्रव्यादि सामग्रीके योगसे प्राणियों को उनके कर्म अपना अपना फल देते हैं। कर्मके मुख्य आठ भेद हैं। ..(१) ज्ञानावरणीय-कपड़ेकी पट्टी बाँधनेसे जैसे आँख नहीं देख सकती वैसेही, जिस कमके उदयसे सर्वज्ञ स्वरूपवाले. : - Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____६०] विषष्टि शलाका पुन्य-परित्रः पर्व २. सर्ग ३. - जीवका ज्ञान व जाता है उसे द्रानावरणीय कर्म कहते हैं। हान मति, मृत, अवधि, मनःपयाय और केवल-चे पाँच मेह है। इन पाँचांकी नसबानवरणीयक मापी अनं. मार पाँच भेद होने हैं। ( मनिद्रानवरणीय, अन नानावरणीय, अववि ज्ञानावरणीय,मनःपाय दानावरणीय और केवल द्राना: वणीच 1) __(२) दर्शनावरणीय-पाँच निद्राएँ. (निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला श्रीर. म्यानगृद्धि) और चार दर्शन ( चक्षुदर्शन, प्रदर्शन, अवधिदर्शन और कंबलदर्शन) इनको जो दृकता है उस दर्शनावरणीयक्रम ऋत है। ये राजाको देखनकी इच्छा रखनेवाला चौकीदार रोकनेसे राजाको नहीं देख सकता है सही, जिस क्रम उदयस श्रात्मदर्शन नहीं होन है उसे दशनावरणीय कर्म कहत है। (३) बंदनीय-बङ्गकी धारा अग्रमागपर मनु लगा हो और उसका (जीमले चाटकर)बाद लेनमें जो मुन्ट और हुन्न होता है, उसी समान वंदनीयक्रम है। यह मुस्र और. हुन्न अनुमत्रप स्वभावबान्ता होने से वो नरहका है (बाना चंदनीय और अनातावंदनीय)। (2) मोहनीयकर्म-ज्ञानी पुरुषांन मोहनीयकर्मको मदिरा पनि समान बताया। कारण इस कर्मक उदयस माइ पाया हुया (मतवादा ना हया) थारमा अन्य आर. अहत्यको नहीं समनः सकता है। उसमें निध्याट्रिपनक विपाक्रमा करनेत्रान्ता दर्शन मोहनीय कर्म कहलाता है, और. - Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [ ६४१ विरति - वैराग्यको रोकने वाला चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है । (র(2) आयुकर्म - मनुष्य, तिर्यंच, नारकी और देवता के भेदसे चार तरहका है । वह प्राणियोंको अपने अपने भवमें जेल - खाने की तरह कैद रखता है । " (६) नामकर्म - गति, जाति वगैराकी विचित्रता करनेवाला नामकर्म चित्रकारके समान है । इसका विपाक प्राणियोंको शरीर में प्राप्त होता है । " (७) गोत्रकर्म - उच्च और नीच भेदसे दो तरहका है । इससे प्राणियों को उच्च और नीच गोत्रकी प्राप्ति होती है । यह क्षीरपात्र और मदिरा पात्रका भेद करनेवाले कुंभकार के जैसा है । (5) अंतरायकर्म --- जिससे लाचार होकर दानादि लब्धियाँ सफल नहीं होतीं, वह अंतरायकर्म है। इसका स्वभाव भंडारी के समान है । C "इस तरह मूल प्रकृतियों के उस तरह के विपाक - परिणामका विचार करना 'विपाक विचय' नामका धर्मध्यान कहलाता । ( ४५७ - ४७६ ) " ( ४ ) संस्थान विचय — जिसमें उत्पत्ति, स्थिति और लयरूप आदि - अंतरहित लोककी प्रकृतिका विचार किया जाता है उसे संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं । यह लोक कमरपर हाथ रख, पैरोंको चौड़े कर खड़े हुए पुरुषकी आकृति के जैसा है; और वह उत्पत्ति, स्थिति और नाशमान पर्यायोंवाले द्रव्योंसे भरा हुआ है। यह नीचे वेत्रासन जैसी, मध्यमें झालर जैसी और ४१ : Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. ऊपरसे मृदंग जैसी आकृतिवाला है। यह लोक तीन जगतसे व्याप्त है। इसमें नीचेकी सात भूमियों महाबलवान घनांभोधि, धनवात और तनुवातसे घिरी हुई हैं। अधोलोक, तिर्यगलोक और अर्चलोकके भेदसे यह तीन जगत कहलाता है। ये तीन लोकके विभाग रुचकप्रदेशकी अपेक्षासे होते हैं। मेरु पर्वतके अंदरमध्यमें गाय के थनके याकारवाले, आकाशप्रदेशोंको रोकनेवाले चार नीचे और आकाशप्रदेशोंको रोकनेवाले चार अपर, इस तरह अठरुचकप्रदेश हैं। उन रुचक्रप्रदेशों के ऊपर और नीचे नौ सौ, नौ सौ योजन नकका भाग तिर्यगलोक कहलाता है। उस तिर्यगलोकके नीचे अधोलोक है। वह नौ सौ योजन कम सात रज्जुप्रमाणका है। अधोलोकमें एक एकके नीचे अनुक्रमसे सात भूमियाँ हैं। इनमें नपुंसक वेदवाले नारकियोंके भयंकर निवासस्थान है। नरकोंके नाम | नरकोंकी मोटाई नरकावासा रत्नप्रभा एकलाख अस्मीहजार योजन तीस लाख शर्कराप्रभा " वत्तीस ,,, पचीस लाख वालुकाप्रमा , अट्ठाईस,,, पंद्रह लाख पंकप्रभा : वास "" दस लाख धूमप्रभा " अठारह ,, तीन लाख तम:प्रमा |, सोलह ,, पाँच कम एकलास्त्र महातम.प्रमा एकलाख पाठ हजार योजन पाँच "इन रत्नप्रभादि सातों भूमियोंके, हरेकके नीचे मध्यमें Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र बीस हजार योजना मोटाईमें घनाब्धि है, घनाधिके नीचे मध्यमें असंख्य योजन तक धनवात है, धनवातके नीचे असंख्य योजन तक तनुवात है और तनुवातसे असंख्य योजन तक आकाश है। ये मध्यकी मोटाईसे क्रमशः कम होते होते घनाब्धि वगैराका आकार अंतमें कंकणकासा हो गया है। रत्नप्रभा भूमिके अंतिम भागमें परिधिकी तरह चारों तरफ घनाब्धि है। इसका विस्तार छः योजनका है। उसके चारों तरफ महावातका मंडल साढ़े चार योजनका है। उसके चारों तरफ तनुवातका मंडल डेढ़ योजनका है। इस तरह रत्नप्रभाके चारों तरफके मंडल के प्रमाणके सिवा, शर्कराप्रभा भूमिके चारों तरफ घनाधिमें एक योजनका तीसरा भाग अधिक है, घनवातमें एक कोस अधिक है और तनुवातमें एक कोसका तीसरा भाग अधिक है । शर्कराप्रभाके वलयके प्रमाणके सिवातीसरी बालुका भूमिके चारों तरफ भी इसी तरहकी अधिकता होती है। इस तरह पूर्वके वलयके प्रमाणसे, पीछेके वलयोंके प्रमाणमें सातवीं भूमिके वलय तक वृद्धि होती रहती है। इन धनाब्धि, महावांत और तनुवातके मंडलोंकी ऊंचाई अपनी अपनी पृथ्वीकी ऊँचाईके समानही है। इस तरह इन सात पृथ्वियोंको घना. ब्धि वगैराने धारण किया है। और इन्हींमें पापकोंको भोगने. के स्थान नरकावासा हैं। इन नरकभूमियोंमें, जैसे जैसे नीचे जाते हैं वैसेही वैसे, यातना, रोग, शरीर, आयु. लेश्या, दुःख :१-इस तरह वृद्धि होनेसे सातवीं पृथ्वीके. अंतिमभागमें पलथा. कारसे, घनोदधि श्राठ पोजन, धनवात छह योजन और तनुवात दो पोजन है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४] त्रिषष्टि शताफा पुरुप-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३. __ और भयादि क्रमश: बढ़ते जाते हैं। यह बात निश्चयपूर्वक · समझना चाहिए (४७७-५२३) __ "रत्नप्रभा मृमिकी मोटाई एक लाख अम्सी हजार योजन है। उसमेंस एक एक हजार योजन ऊपर और नीचे छोड़ देनेसे बाकी जो माग है उसमें भवनपति देवोंके भवन है। वहाँ उत्तर और दक्षिण दिशाओं में, जैसे राजमार्गके दोनों तरफ सिलसिलेवार मकान होन है वैसेही, भवनपनियोंके भवन है और उन्हीं में वे रहते हैं। उनमें मुकुटमणि चिह्नवाले अमुरकुमार भवनपनि है, जिनके चिवाले नागकुमार भवनपति है, वचके चिवाले विशुन्झुमार हैं. गमड़क चिह्ववान सुपर्णकुमार है, घटक चिहान्न अग्निकुमार है, अन्य चिह्नवाले वायुकुमार है, बढेमानके। चिवाले स्तनितकुमार हैं, मकरके चिह्नवाले उदधिकुमार है, कसरीनिहक चिह्ववाने द्वीपकुमार है, और हाथीके चियान्न दिकुमार हैं। उनमें अमुरकुमारोंके चमर और बली नामक दो इंद्र हैं। नागकुमारी धरण और भूतानंद नामके दो इंद्र है। विद्यकुमारोंके हरि और हरिसह नामके दो इंद्र है। सुपर्णकुमारोंक वणुदेव और वेणुदारी नामक दो इंद्र हैं। अग्निकुमारोंके अग्निशिख और अग्निमाणब नामके दो इंद्र है। वायुकुमारक बलंब और प्रभंजन नामके दो इंद्र हैं। स्तनितकुमारोंके मुघोष और महाघोष नामक दो इंद्र हैं। अग्नि -शुगवनपुट ( शराब युगल ) तत्वार्यत्र पेत्र १६२ ( मुखजालना ऋन टीकायाजा) शगवका अथं मिट्टीका रद होता Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 'श्री अजितनाथ परित्र [६४५ - कुमारोंके जलकाँत और जलप्रभ नामके दो इंद्र है। द्वीपकुमारों के पूर्ण और अवशिष्ट नामके दो इंद्र हैं। और दिपकुमारोंके अमित और अमितवाहन नामके दो इंद्र है । (५०४-५१४) रत्नप्रभा भूमिमें छोड़े हुए हजार योजनमें ऊपर और नीचे सौ सौ योजन छोड़नेके बाद बीचके पाठ सौ योजनमें दक्षिणोत्तर श्रेणीके अंदर आठ तरहके व्यंतरोंकी निकाय वसती है। उनमें पिशाच व्यतर' कदंबवृक्षके चिह्नवाले हैं, 'भूतव्यतर' सुलसवृक्षके चिह्नवाले हैं, 'यक्ष व्यंतर' वट वृक्षके चिह्नवाले हैं, 'राक्षस व्यंतर' खद्वांगके' चिह्नवाले हैं, 'किन्नर व्यंतर' अशोकवृक्षके चिह्नवाले हैं, 'किंपुरुष व्यंतर' चंपक वृक्षके चिह्नवाले हैं, 'महोरग व्यंतर' नाग वृक्षके चिह्नवाले हैं और गंधर्व व्यंतर तुबरू वृक्षके चिह्नवाले हैं। उनमें पिशाच व्यतरोंके काल और महाकाल नामके इंद्र है। भूत व्यतरोंके सुम्प और प्रतिरूप नामके इंद्र हैं । यक्ष व्यतरोंके पूर्णभद्र और मणिभद्र नामके इंद्र है। राक्षस व्यंतरोंके भीम और महाभीम नामके इंद्र है। किन्नर व्यंतरोंके किन्नर और किंपुरुप नामके इंद्र है। किंपुरुप व्यतरोंके सत्पुरुष और महापुरुप नामके इंद्र है। महोरग व्यंतरोंके अतिकाय और महाकाय नामके इंद्र है। और गंधर्व व्यंतरोंके गातरति और गीतयशा नामके इंद्र हैं। इस तरह व्यतरोंके सोलह इंद्र हैं। ...... .. .. (५१५-५२३). "रत्नप्रभा भूमिके छूटे हुए सौ योजनमेंसे ऊपर और नीचे '१-शिमका अस्त्रविशेष । - - - - Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशक्षाका पुरुप परिन: पर्व २. सर्ग ३. Amante दस योजन छोड़ देने के बाद बचे हुए वीचके अस्सी योजनमें व्यंतरोंकी दूसरी आठ निकायें-जातियाँ हैं । उनके नाम हैंश्रप्रज्ञप्ति, पंच प्रज्ञप्ति, ऋषिवादित, भूतवादित, कंदित, महाकंद्रित, कुष्मांड और पचक । हरेकके दो दो इंद्र हैं। उनके क्रमसे नाम हैं: - संनिहित और समान; धातृ और विधातृक; ऋषि और ऋषिपाल ईश्वर और महेश्वरः सुत्रत्सक और विशाल; हास और हासरति; श्वेत और महाश्वेत; पचन और पचकाधिप । ( ५२४-५२८ ) "रत्नप्रभाके तलके ऊपर इस कम आठ सौ योजन जानेपर ज्योतिष्क मंडल आता है । प्रथम तारे हैं। उनसे दस योजन ऊपर सूरज है। सूरजसे अस्सी योचन ऊपर चाँद है। चाँदसे बीस योजन ऊपर ग्रह हैं । इस तरह एक सौ इस योजन विस्तार में ज्योतिर्लोक है । जंबूद्वीपके मध्य में मेरुपर्वतसे ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर मेरु पवतको नहीं छूता हुआ, मंडलाकारमें, सभी दिशाओं में व्याप्त ज्योतिष चक्र फिरा करता है । केवल एक धुत्रका तारा निश्चल रहता है। वह ज्योतिषचक्रलोकके अंतिम भागसे ग्यारह सौ ग्यारह योजन, लोकांतको स्पर्श न करते हुए मंडलाकार में स्थित है । नक्षत्रोंमें सबसे ऊपर स्वाति नक्षत्र है और सबसे नीचे भरणी नक्षत्र है। सबसे दक्षिणमें मूल नक्षत्र है और सबसे उत्तर में अभिजित नक्षत्र है । ६४६ ] ' "इस जंबूद्वीपमें दो चाँद और दो सूरज हैं । कालोदधिमें बयालीस चाँद और बयालीस सूरज हैं । पुष्कारार्द्धमें बहत्तर चाँद और बहत्तर सूरज हैं। इस तरह ढाई द्वीपमें एक सौ बत्तीस चाँद और एक सौ बीस सूरज हैं। उनमें से हरेक चाँद Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजिसनाथ-चरित्र . [ ६४७ - के अट्ठासी ग्रह, अट्ठासी नक्षत्र और छासठ हजार नौ सौ पच- हत्तर कोटा-कोटि ताराओंका परिवार है। चाँदके विमानकी चौड़ाई और लंबाई एक योजनके . इकसठ भाग करके उनमेंके छप्पन भाग जितने प्रमागाकी है। () सूर्यका विमान योजनके इकसठ भागों के अड़तालीस भाग जितना है । (६) ग्रहोंके विमान आधे योजनके हैं, और नक्षत्रों के विमान एक एक कोस जितने हैं। सबसे उत्कृष्ट प्रायवाले तारेका विमान आधे कोसका है और सबसे जघन्य युवालेका विमान पाँच सौ धनुषका है। उन विमानोंकी ऊँचाई मर्त्य-क्षेत्र के ऊपरके भागमें (पैंतालीस लाख योजनमें) लंबाईसे आधी है। उन सब विमानोंमें नीचे पूर्वकी तरफ सिंह है, दक्षिणकी तरफ हाथी हैं, पश्चिमकी तरफ वैल हैं और उत्तरकी तरफ घोड़े हैं। वे चंद्रादिक विमानों के वाहन हैं। उनमें सूरज व चंद्रके वाहनभूत सोलह हजार आभियोगिक देव है, ग्रहके आठ हजार है, नक्षत्रके चार हजार हैं और तारेके दो हजार है। चंद्रादिक विमान अपने स्वभावहीसे गतिशील हैं तो भी विमानोंके नीचे आभियोगिक देवता, आभियोग्य (सेवानामकर्म) से निरंतर वाहनरूप होकर - रहते हैं । मानुषोत्तर पर्वतके बाहर पचास पचास हजार योजना के अंतरले सूरज और चाँद स्थिर होकर रहते हैं । उनके विमान मनुष्यक्षेत्र के चंद्रसूर्यके प्रमाणसे आधे प्रमाणवाले हैं। क्रमशः द्वीपोंकी परिधिकी वृद्धिसे उनकी संख्या बढ़ती जाती है। सारी लेश्यावाले और ग्रह, नक्षत्र तथा तारोंसे परिचारित (सेवित) १-सिंह वगैराका रूप धारण करके उनके वाहनभूत आभि. योगिक देवता रहते हैं। २-धेरा। . Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३. असंख्य सूर्य और चंद्र घटाके श्राकारमें सुंदर मालूम हो इस तरह रहे हुए हैं। स्वयंभूग्मण समुद्र उनकी सीमा है और एक एक लाख योजनके अंतरसे वे अपनी अपनी पक्तियों में सदा स्थिर है। (५२९-५५१) ___"मध्यलोकमें,जबूद्वीप और लवणसमुद्र वगैरा अच्छे अच्छे नामवाले और एक दूसरेसे दुगने दुगने विस्तारवाले, असंख्य द्वीप और समुद्र हैं । हरेक द्वीपको समुद्र धेरै हुए है इसलिए वे गोलाकारवाले हैं। उनमें स्वयंभू नामका महोदधि अंतिम है। (५५२-५५३) ___ "जबूद्वीपके मध्य में सोनेके थाल जैसा गोल मेरुपर्वत है। वह पृथ्वीतलमें एक हजार योजन गहरा है और निन्यानवे हजार योजन ऊँचा है । पृथ्वीतल में उसका विस्तार दस हजार योजन है और ऊपर उसका विस्तार एक हजार योजन है। तीन लोक और तीन कांडसे यह पर्वत विभक्त है। मुमेह पर्वतका पहला कांड शुद्ध पृथ्वी, पत्थर,हीरे और श है। इसका प्रमाण एक हजार योजन है। इसके बाद उसका दुमरा कांड तिरसठहजार योजन तक जातिवान चाँदी, स्फटिक, श्रकरत्न और स्वर्णसे भरा है। मेनका तीसरा कांड छत्तीस हजार योजनका है। वह स्वर्ण शिलामय है और उसपर बेडूयरत्नकी चूलिका है, उसकी ऊँचाई चालीस योजन है। मूलमें उसका विस्तार बारह योजन है, मध्यमें पाठ योजन है और ऊपर १- भूमि में हजार योजन कहा गया है। इससे मालूम होता है कि मी योजन अवानाकमें, नौ सौ नीचेके लोकमें, नौ सौ करके तिथंग लोकम और शेष ८१०० योजन मज़लोकमें है। २-माग । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी अजितनाथ-चरित्र [६४६ चार योजन है। मेरु पर्वतके तलमें एक भद्रशाल नामका वन है।उसका श्राकारगोल है। भद्रशाल वनसे जब पाँच सौ योजन ऊँचे जाते हैं तब मेरु पर्वतकी पहली मेखला आती है। इसपर पाँच सौ योजन विस्तारवाला गोलाकृति नदन वन है। इससे ऊपर साढ़े वासठ हजार योजन जानेपर दूसरी मेग्वला पाती है। इसके ऊपर इतनेही प्रमाणका यानी पाँच सौ योजन विस्तार. वाला सौमनस नामक तीसरा वन है। इस वनसे ऊपर छत्तीस हजार योजन जानेपर तीसरी मेखला आती है। यह मेरुका शिखर है। इसपर पांडुक नामका चौथा सुंदर वन है। वह चार सौ चौरानवे योजन विस्तारवाला है। उसका आकार वलयाकृति है। यानी गोल कंकणके समान है। (५५४-५६५) "इस जंबूद्वीपमें सात खंड है। उनके नाम है-(१) भरत, (२) हेमवत, (३) हरिवर्प, (४) महाविदेह, (५) रम्यक, (६) हैरण्यवृन और (७) ऐरवत । दक्षिण और उत्तर में इन क्षेत्रोंको जुदा करनेवाले वर्षधर पवत हैं। उनके नाम हैं--(१) हिमवान, (२) महाहिमवान, (३) निषध, (४) नीलवंत, (५) रुक्मी, और (B) शिखरी । उन पर्वतोंका विस्तार मूलमें और शिखरपर समान है। उनमेंसे प्रथम पृथ्वीके अंदर पच्चीस योजन गहरा स्वर्णमय हिमत्रान नामका पर्वत है। वह सौ योजन ऊँचा है। दूसरा महाहिमवान पर्वत गहराई में और ऊँचाईमें हिमवानसे दुगना है और वह अर्जुन जातिके स्वर्णका है। तीसरा निषध नामका पर्वत है । वह गहराई और ऊँचाईमें दूसरेसे दुगना है। उसका वण स्वर्णके समान है। चौथा नीलवंत पर्वत प्रमाणमें निपधके समान है और वह वैडूर्यमणिका है। पाँचवाँ रुक्मी Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३. - नामका पर्वत रौप्यमय है और प्रमाणमें महाहिमवंतके समान है! छठा शिग्री पर्वत स्वर्णमय है और प्रमाणमें हिमवंतके समान हैं। उन सब पवंतांक पाश्वभाग विचित्र प्रकारकी मणियोंसे मुशोमिन हैं। क्षुद्र हिमवन पर्वतपर एक हजार योजन लंबा और पाँच सौ योजन चौड़ा पद्म नामका एक बड़ा सरोवर है। महाहिमवंत पवनपर महापन नामका सरोवर है। वह लंबाई चौड़ाई में पनसरोवरसे दुगना है। नियध पर्वतपर तिगंछी नामका सरोवर है वह महापनसे दुगना है। नीलवंत गिरिपर केसरी नामका सरोवर है । वह निगछाके समान लंबा, चौड़ा है। कमी पर्वतपर महापुंडरीक सरोवर है। वह महापद्मके समान लंबा चौड़ा है। शिखरी पर्वतपर पुंडरीक सरोवर है। वह पन सरोवरके समान लंबा चौड़ा है। इन पद्मादिक सरोवरोंमें जल के अंदर दस योजन गहर विकसित ऋमल हैं। इन छहॉ सरोवमि क्रमश: श्री, ह्री, वृति, कीर्ति वृद्धि और लक्ष्मी नामकी देवियाँ रहती हैं। उनकी आयु पल्योपमकी है। उन देवियों के पास सामानिक देव तीन, पर्षदायांक देव,आत्मरक्षकदेव और सेना है। (५६-५७) "भरतक्षेत्रमें गंगा और सिंधु नामकी दो बड़ी नदियाँ हैं। हेमवंत क्षेत्रमें रोहिता और रोहिताशा नामकी दो नदियाँ हैं: हरित्रप क्षेत्रमें हरिसलिला और हरिकांना नामकी दो नदियाँ हैं; महाविदेह क्षेत्रमें सीता और सीतोदा नामकी दो बड़ी नदियाँ है, रम्यक क्षेत्रमें नरकांता और नारीकांता नामकी दो नदियाँ है। हरण्यवन क्षेत्रमें स्वणकला और रौप्यकूता नामकी दोनदियाँ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र [ १ है; और ऐरवत क्षेत्रमें रक्ता और रक्तावती नामकी दो नदियाँ हैं; उनमेंकी पहली संख्यावाली नदियों पूर्व समुद्र में जाकर मिलती है और दूसरी संख्यावाली नदियाँ पश्चिम समुद्रमें जाकर मिलती हैं। उनमें गंगा और सिंधु नदियोंमें से प्रत्येकमें चौदह हजार नदी-नाले मिलते हैं। सीता और सीतोदाके सिवा दूसरी नदियोंके प्रत्येक युगल में पहलेसे दुगने नदी-नाले हैं। (यानी पहलेसे तीसरे युगलमें दुगने, चौथेमें तीसरेसे दुगने इत्यादि) उत्तरकी नदियां भी दक्षिणकी नदियों के समानही परिवारवाली हैं। सीता और सीतोदा नदियाँ पाँच लाख बत्तीस हजार नदियों के परिवारवाली हैं। (५७६-५८५) ____ "भरत क्षेत्रकी चौड़ाई पाँच सौ छब्बीस योजन और योजनके उन्नीसभाग करनेपर उनमेंके छह भाग जितनी है (यानी ५२६१ योजन)। अनुक्रमसे दुगने दुगने विस्तारवाले पर्वत और क्षेत्र महाविदेह क्षेत्र तक हैं। उत्तर तरफके वर्षधर पर्वत और क्षेत्र दक्षिण के वषधर पर्वत और क्षेत्रोंके समानही प्रमाणवाले हैं। इस तरह सभी वर्पधर पर्वतों और खंडोंका परिमाण समझना चाहिए। निपधाद्रिसे उत्तरकी तरफ और मेरुसे दक्षिणकी तरफ विद्युत्प्रभ और सौमनस नामोंके दो पर्वत पूर्व और पश्चिममें है। उनकी आकृति हाथीके दाँत जैसी है। उनके अंतिम हिस्से मेरुपर्वतसे जरा दूर है। इसको स्पर्श नहीं करते। इन दोनोंके बीच में देवकुरु नामका युगलियोंका क्षेत्र है । उसका विष्कम (विस्तार) ग्यारह हजार आठ सौ बयालीस योजन है। उस देवकुरु क्षेत्रमें सीतोदा नदीके अगल-बगल में पाँच द्रह है। उन पाँचों द्रहोंके दोनों तरफ दस दस सोनेके पर्वत है। इन Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष- चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. सबको जोड़ने से सोनेके सो पर्वत होते हैं। उसी देवकुरुमें सीतोदा नदीके पूर्व और पश्चिम किनारेपर चित्रकूट और विचित्रकूट नामक दो पर्वत हैं। उनकी हरेककी ऊँचाई एक हजार योजन है, उनकी जमीनकी चौड़ाई भी एक हजार योजन और शिवरपरका विस्तार प्राधा यानी पाँच सौ योजन है । मेरुके उत्तरमें और नीलवंत गिरिकं दक्षिण में गंधमादन और माल्यवान नामक दो पर्वत हैं। उनका आकार हाथीदाँत के जैसा है। उन दो पर्वतोंके अंदर सीतानदी से भिन्न पाँच ग्रह हैं । उनके दोनों तरफ भी इस इस सोनेके पर्वत होने से कुल एकसौ सोनके पर्वत हैं। इससे उत्तरकुरुक्षेत्र बहुत ही सुंदर लगता | सीता नदी के दोनों किनारोंपर यमक नामक सोनेके दो पर्वत हैं। उनका प्रमाण चित्रकूट और विचित्रकूटकं समान ही है । देवकुरु और उत्तरकुरुकं पूर्वमें पूर्वविदेह है और पश्चिम में परविदेह है। वे परस्पर क्षेत्रांतर की तरह हैं। दोनों विभाग में परस्पर संचार रहित, ( आवागमन रहित ) और नदियों तथा पर्वतों से विभाजित, चक्रवर्तीक जीतने योग्य सोलह विजय प्रांत) हैं । उनमें से कच्छ, महाकच्छ, सुकच्छ, कच्छवान a. मंगला, पुष्कलं और पुष्कलावती ये आठ विजय पूर्व महाविदेहमें उत्तर की तरफ हैं । वत्स, सुवत्स, महावत्स, रन्य- . थान, रम्य, रम्यक, रमणीय और मंगलावती ये आठ विजय दक्षिणकी तरफ हैं । पद्म, सुपद्म, महापद्म पद्मावती, शस्त्र, कुमुद्र, नलिन और नलिनावती ये आठ विजय पश्चिम महाविदेहमें दक्षिणकी तरफ हैं और वप्र, सुबत्र, महावप्र, वप्रावती, Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [ ६५ ३ वलगु, सुवलगु, गंधिल और गंधिलावती ये आठ विजय उत्तरकी तरफ हैं । ( ५८६-६०४ ) "भरत खंडके मध्य में दक्षिणार्द्ध और उत्ततार्द्धको जुदा करनेवाला वैताढ्य पर्वत है । वह पवत पूर्व और पश्चिम में समुद्र तक फैला हुआ है । वह छह योजन और एक कोस पृथ्वीमें गहरा है । उसका विस्तार पचास योजन और ऊँचाई पच्चीस योजन है । पृथ्वीसे दस योजन ऊपर की तरफ जानेपर, ऊपर दक्षिण और उत्तर में दस दस योजन विस्तारवाली विद्याधरों की दो श्रेणियाँ हैं । उनमें से दक्षिण श्रेणी में विद्याधरोंके राष्ट्रसहित - पचास नगर हैं और उत्तर श्रेणी में साठ नगर हैं । उन विद्याधरोंकी श्रेणी के ऊपर दस योजन जानेपर उतनेही विस्तारवाली व्यंतरोंके निवास से सुशोभित दोनों तरफ दो श्रेणियां हैं। उन व्यंतरोंकी श्रेणियोंसे ऊपर, पाँच योजन जानेपर, नौ कूट" हैं । इसी तरह ऐरवत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत है । ( ६०५- ६१० ) I "जबूद्वीप के चारों तरफ किले के समान आठ योजन ऊँची वज्त्रमयी जगती' है । वह जगती मूलमें बारह योजन चौड़ी है, मध्य भागमें आठ योजन है और ऊपर चार योजन है । उसपर जालकटक है । वह दो कोस ऊँचा है। वहाँ विद्याधरोंका अद्वितीय मनोहर क्रीड़ा स्थान है । उस जालकटकके ऊपर भी देवताओंकी भोगभूमि रूप 'पद्मवरा' नामकी एक सुंदर वेदिका है। उस जगतीकी पूर्वादि दिशाओं में अनुक्रम से विजय, १ - शिखरः । २ -- जमीन ( प्रसंगसे इसका अर्थ दीवार जान - पड़ता है ।) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. वैजयंत, जयंत और अपराजित नामके चार द्वार हैं। . (६११-६१५-) __ "शुद्र हिमवान और महाहिमवान पर्वतोंके मध्य में यानी हिमवंत क्षेत्रमें शब्दापाती नामक वृत्तवैताव्य पर्वत है; शिवरी और रुक्मी पर्वतोंके बीचमें विकटापानी नामका वृत्तवैताव्य पर्वत है; महाहिमवान और निषध पर्वतोंके मध्यमें गंधापाती नामका वृत्तवैनाढ्य पर्वत है और नीलवन तथा नवमी पर्वतोंके बीच में माल्यवान नामका वृत्त ताठ्य पर्वत है। वे व वैताव्य पर्वत पल्या कृति' वाले और एक हजार योजन ऊँचे हैं। (६१६-६१८) ___ "जबूद्वीपके चारों तरफ लवगण समुद्र है। उसका विस्तार संवृद्वीप तिगुना है। बीच में एक हजार योजन गहरा है।दोनों तरफको लगतीसे क्रमशः उतरते हुए पचानवे योजन लाएँ तब तक गहराई में और ऊंचाईमें उमका जल बढ़ता जाता है। मध्यमें दस हजार योजनमें सोलह हजार योजन ऊँची इस लवण समुहके पानीकी शिखा है। उसपर दिन में दो बार बार. माटा होता है। बारका पानी दो कोस तक चढ़ना है। उस लवण समुद्र के बीच में पूर्वादि दिशाके क्रमसे बडवामुत्र, केयूप, यूप और ईश्वर नामक बड़े मटके के कारके चार पातालकलश हैं। उन प्रत्येकका विचला भाग एकलाख योजन चौड़ा है, उनकी गहराई एक लाख योजनकी है। उनकी वचरत्नकी -गुजराती में इसका अर्थ पाला किया गया है। इसका श्रमि. प्राथ नाज मरनेका बरतन होता है। 2-किनारेले। . . Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ६५५ ठीकरी एक हजार योजन मोटी है । वे नीचे और ऊपरसे दस हजार योजन चौड़े हैं। उनमें तीन भागोंमेंसे एक भागमें वायु है और दो भागोंमें जल है। उनका आकार कोठे विनाके बड़े मटकोसा है। उन कलशों में काल, महाकाल, वेलंच और प्रभजन नामके देवतः अनुक्रमसे अपने अपने क्रीड़ास्थानों में रहते हैं। [इन' चार पातालकलशोंके अंतरमें-एक कलशसे दूसरे कलशकी दूरीके बीच में-सात हजार आठ सौ चौरासी छोटे कलश है। वे एक हजार योजन भूमिमें गहरे तथा बीचमें चौड़े हैं। उनकी ठीकरी दस योजन मोटा है । उनका ऊपरका व नीचेका भाग एक एक सौ योजन चौड़ा है। उनके मध्यभागका वायुमिश्रजल वायुसे उछलता है। इस समुद्र की अंदरूनी लहरोंको धारण करनेवाले बयानोम हजार नागकुमार देवता, रक्षककी तरह, हमेशा वहाँ रहते हैं। बाहरी लहरोंको धारण करनेवाले बहत्तर हजार देवता हैं और मध्यमें शिखापरकी दो कोस तक उछलती हुई लहरोंको रोकनेवाले साठ हजार देव हैं। उस लवण समुद्रमें गोस्तूप, उदकाभास, शंख और उदकसीम, इन नामोंके अनुक्रमसे सुवर्ण, अंकरत्न, रूपा और म्फटिकके चार वेलंधर पर्वत हैं। उनमें गोस्तूप, शिवक, शंख और मनोहृद नामके चार - - - १-कोष्ठकमें दिए हुए कलशोंकी संख्या गुजराती अनुवाद में है; मगर श्री नधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित, सं० १९६१ की संस्कृत श्रावृत्तिमें इस श्राशयका श्लोक नहीं है ! जान पड़ता है कि छट गया है। गुजराती अनुवाद भी जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर, नेही प्रकाशित किया है। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. . देवता रहते हैं। समुद्र में बयालीस हजार योजन जानेपर चारों दिशाओं में वे चार हैं। इसी तरह चारों विदिशाओंमें कर्कोटक, कार्दमक, कैलाश और अरुणप्रभ नामके चार सुंदर अनुवेलंधर पर्वत हैं, वे सभी रत्नमय है। उन पर्वतोपर कर्कोटक, विद्युजिह्व, कैलाश और अरुणप्रभ नामके देव, उनके स्वामी, निरंतर वहाँ बसते हैं। वे सभी पर्वत हरेक एक हजार सात सौ इक्कीस योजन ऊँचे हैं। वे मूलमें एक हजार योजन चौड़े हैं, और शिखरपर चार सौ चौबास योजन चौड़े हैं। उन सभी पर्वतोपर उनके स्वामी देवताओंके सुंदर प्रासाद-महल हैं। फिर बारह हजार योजन समुद्र की तरफ जानेपर पूर्वदिशासे संबंधित दो विदिशाओं में दो चंद्रद्वीप हैं। वे विस्तारमें और चौड़ाईमें पूर्व के अनुसार हैं; और उतनेही प्रमाणवाले दो सूर्यद्वीप पश्चिम दिशासे संबंधित दो विदिशाओं में हैं; और सुस्थित देवताओंका आश्रयभूत गौतमद्वीप उन दोनोंके बीच में है। उपरांत लवण समुद्र संबंधी शिखाकी इस तरफ व वाहरकी तरफ चलनेवाले चंद्रमाओं और सूर्यों के आश्रयरूप द्वीप हैं और उनपर उनके प्रासाद बने हुए हैं । वह लवण समुद्र लवण रसवाला है। ..." (६१६-३३६) "लवण समुद्रके चारों तरफ उससे दुगने विस्तारवाला धातकी खंड है। जंबूद्वीपमें जितने मेरुपर्वत, क्षेत्र और वर्षधर पर्वत कहे गए हैं उनसे दुगने, उन्हीं नामोंके धातकी खंडमें हैं। अधिक-उत्तर और दक्षिणमें धातकी खंडकी चौड़ाईके अनुसार दो इष्वाकार (धनुषके आकार के) पर्वत हैं। उनके द्वारा विभाजित पूर्वाध और पश्चिमार्धमें हरेकमें जंबूद्वीपके समान संख्या Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६५७ वाले क्षेत्र और पर्वत है । उस धातकी खंडमें.चक्रके आरेके जैसे श्राकारवाले और निपधपर्वतके जितने ऊँचे तथा कालोदधि और लवण समुद्रको छूते हुए वर्षधर और इप्वाकार पर्वत है और पारेके अंतर जितने क्षेत्र हैं। (६४०-६४३) "धातकी खंडके चारों तरफ कालोदधि समुद्र है। उसका विस्तार आठ लाख योजन है। उसके चारों तरफ पुष्करवर द्वीपार्ध उतनेही प्रमाणवाला है। धातकी खंडमें इण्याकार पर्वतों सहित मेरु वगैराकी संख्याओंसे संबंध रखनेवाला जो नियम बताया गया है, वही नियम पुष्करार्धमें भी है। और पुष्करार्धमें क्षेत्रादिके प्रमाणका नियम धातकी खंडके क्षेत्रादि विभागसे दुगना है। धातकी खंड और पुष्करार्धमें मिलकर चार छोटे मेरुपर्वत है.। वे जंबूद्वीपके मेरुसे पंद्रह हजार योजन कम ऊँचे और छह सौ योजन कम विस्तारवाले हैं। उसका प्रथम कांड' महामेरुके जितनाही है। दूसरा कांड सात हजार योजन कम और तीसरा कांड पाठ हजार योजन कम है। उनमें भद्रशाल वन और नंदन वन मुख्य मेरुके समानही हैं । नंदनवनसे साढ़े पच. पन हजार योजन जानेपर सौमनस नामका वन आता है। वह पाँच सौ योजन बड़ा है। उससे आगे अट्ठाईस हजार योजन जानेपर पांडक वन है। वह मध्यकी चूलिकाके चारों तरफ चार सौ चौरानवे योजन विस्तारवाला है। उसका ऊपर और नीचेका विस्तार और अवगाहन महामेरुके समानही है, इसी तरह १--ये चार मेरु जमीनसे ८४००० योजन ऊँचे और जमीनपर १४०० योजन विस्तार में हैं। २-भाग। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. मुख्य मेरुके समानही प्रमाणवाली चूलिका मध्य मेस्में है। (६४४-६५२) ____ "इस तरह मनुष्य क्षेत्रमें ढाई द्वीप,दो समुद्र, पैतीस क्षेत्र, पाँच मेग, तीस वर्षधर पर्वत, पांच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु और एक सौ साठ विजय हैं। पुष्कराध द्वीपके चारों तरफ मानुपोत्तर नामका पर्वत है। वह मनुष्यलोकके बाहर शहरके कोटकी तरह गोलाकार है। वह सोनेका है और शेष पुष्करार्धम सत्रह सौ इक्कीस योजन ऊँचा है, चार सौ तीस योजन पृथ्वीमें है, उसका एक हजार बाईस योजन नीचेका विस्तार है, सात सौ तेईस योजन मध्य भागका विस्तार है और चार सौ चौवीस योजन ऊपरका विस्तार है। उस मानुपोत्तर पर्वतके वाहर मनुष्यों का जन्म-मरण नहीं होता । उसके बाहर गए हुए चारण मुनि श्रादि भी मरण नहीं पाते; इसीलिए उसका नाम मानुपोत्तर है। इसके बाहरकी भूमिपर बादराग्नि,मेघ, विद्युत, नदी और काल वगैरह नहीं है । उस मानुपोत्तर पर्वन के अदरकी तरफ ५६ अंतींप और ३५ क्षेत्र हैं। उन्हीं में मनुष्य पैदा होते हैं । कई संहार-विद्याके बलसे या लब्धिके योगसे मेरुपर्वत वगैराके शिखरोंपर, ढाई द्वीपमें और दोनों समुद्रोंमें मनुष्य पाए नाते हैं। उनके भरन संबंधो, संवद्वीप संबंधी, और लवण समुद्र संबंधी-ऐसे सभी क्षेत्र, द्वीप और समुद्र संबंधी-संज्ञाओं के भेदसे जुदा जुदा विभाग कहलाते हैं। यानी भरत, जंबूद्वीप . १-अंतरद्वीपांका वर्णन श्लोक ६५४ से श्रागे ७०० श्लोक तक देखो। २-मरत ५, ऐरवत ५, हिमवंत ५. हिरण्यवंत ५, हरिवर्ष ५, रम्यक ५, महाविदेहः ५, सब ३५ हुए। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ १५६ और लवणसमुद्रसे संबंध रखनेवाले सभी नाम, क्षेत्र, द्वीप और समुद्रके विभागोंसे हैं। ( ६५३-६६३) __ "मनुष्यों के दो भेद है-आर्य और म्लेच्छ । क्षेत्र,जाति, कुल, कर्म, शिल्प और भाषाके भेदसे आर्य छ:, तरहके हैं । क्षेत्र आर्य पंद्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं. उनमेंसे इस भरतक्षेत्र. के साढ़े पच्चीस देशोंमें जन्मे हुए आर्य कहलाते हैं । ये आर्यदेश अपनी नगरियोंसे इस तरह पहचाने जाते हैं । (१) राजगृही नगरीसे मगधदेश । (२) चंपानगरीसे अंगदेश । (३) ताम्रलिप्तिसे बंगदेश । (४) वाराणसीसे काशीदेश। (५) कांचनपुरीसे कलिंगदेश । (६) साकेतपुरीसे कोशलदेश। (७) हस्तिनापुरसे कुरुदेश । (८) शौर्यपुरीसे कुशादेश । (E) काँपिल्यपुरीसे पंचालदेश । (१०) अहिच्छत्रापुरीसे जाँगलदेश। (११) मिथिलापुरीसे विदेहदेश । (१२) द्वारावतीपुरीसे सौराष्ट्रदेश । (१३) कौशांबीपुरीसे वत्सदेश । (१४) भद्रिलपुरीसे मलयदेश । (१५) नांदीपुरीसे संदर्भदेश। (१६) पुनरुच्छापुरीसे वरुणदेश । (१७) वैराटनगरीसे मत्स्यदेश। (१८) शुक्तिमती नगरीसे चेदीदेश । (१६) मृत्तिकावती नगरीसे दशाणदेश । (२०) वीतभयपुरीसे सिंधुदेश। (२१) मथुरापुरीसे सौवीरदेश । (२२) अपापापुरीसे सूरसेनदेश । (२३) भंगीपुरीसे मासपुरीवतदेश । (२४) श्रावस्तिपुरीसे कुणालदेश। (२५) कोटिवर्षपुरीसे लाटदेश। और (२६) श्वेतांबीपुरीसे केतकार्धदेश। इस तरह साढ़े पच्चीस देश इन नगरियों के नामोंसे पहचाने जाते हैं। तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, वासुदेवों और वलभद्रोंके जन्म इन्हीं देशों में होते हैं । इक्ष्वाकुवंश, - - - Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-परित्रः पर्व २. सर्ग ३. - - ज्ञातवंश, विदेहवंश, कुलवंश, उग्रवंश, भोजवंश और राजन्यवंश वगैग कुलों में जन्मे हुए मनुष्य जानिबार्य कहलाते हैं। कुलकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलभद्र तथा उनकी तीसरी, पाँचवर्वी या सातवीं पीढीमं श्राप हुप शुद्ध वंशम जन्मे हुए मनुष्य कुलार्य कहलाते हैं। पूजन करना और कराना, शान्त्र पढ़ना और पढ़ाना-इनमें या दूसर गुम प्रयोगोंसे-कामोंसे जो श्राजी. विका करते हैं वे कमार्य कहलाते हैं । थोड़ पाप व्यापारवाले, कपड़ा बुननेवाले, दरजा, कुमार, नाई और पुनारी वगैरा शिल्यायं कहलाते हैं। जो उच्च भाषाके नियमवाले वर्षों से पूर्वापांचों प्रकारके प्रायों के व्यवहारको बताते हैं वे भाषाार्य कहलाते हैं। (३१४-६५८) ___"शाक, यवन, शवर, वर्वर, काया, मुंड, उड्र, गोड, पत्कणक, अरपाक, हूण, गेमक, पारसी, खस, नासिक, डोंब. लिक, लक्कुस, मिल्ल, अंध्र, बुक्कस, पुलिंद, कौंचक, भ्रमरकत, कुंच, चीन, बंचुक, मालव, द्रविड. कुलन. किरात, कैकय, इयमुन्य, गजमुख, तुरगमुम्ब, अजमुम्ब, हृयकर्ण, गजकरणं प्रार दूमर मी अनायाँ के भेद है। जो 'घमं इन अक्षरों तकको नहीं जानते, इमी तरह जो धर्म और अधर्मको अलग नहीं समझते वे सभी म्लेच्छ कहलाते हैं। (६७-६८३) । दूसरे अंतरद्वीपोंमें भी मनुष्य हैं। वे भी धर्म-अधर्मको नहीं समन्ते । कारण वेयुगलिचे हैं। ये अंतरद्वीप छप्पन है। उनमेंसे अट्ठाइस द्वीप, क्षुद्रहिमालय पर्वतके, पूर्व और पश्चिम नरफके अंतमें ईशानकोण वगैरा चार विदिशाओंमें लवण समुद्रमें निकली हुई डाढोंपर स्थित हैं। उनमें ईशानकोणसे Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६६१ जबूद्वीपकी जगतीसे तीन सौ योजन लवण समुद्र में जानेपर वहाँ उतनाही लंबा और चौड़ा एकोरु नामका पहला अंतरद्वीप है । इस द्वीपमें उस द्वीपके नामसे पहचाने जानेवाले सभी अंगोपांगोंसे सुंदर मनुष्य रहते हैं। सिर्फ एकोरु द्वीपमेंही नहीं, मगर दुसरे सभी अंतरद्वीपोंमें भी उन द्वीपोंके नामोंसे ही पहचाने जानेवाले मनुष्य रहते हैं। यह समझना चाहिए । अग्निकोण आदिकी शेप तीन विदिशाओंमें उतनीही ऊँचाई पर, उतनेही लंबे और चौड़े अाभापिक, लांगुलिक और वैपाणिक-इन नामोंके क्रमशः द्वीप हैं। उसके बाद जगतीसे चार सौ योजन लवण समुद्र में जानेपर वहाँ उतनीही लंबाई और उतनेही विस्तारवाली ईशान इत्यादि विदिशाओं में हुयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलीकर्ण-इन नामोंके क्रमसे अतरद्वीप है। उसके बाद जगतीसे पाँच सौ योजन दूर उतनी ही लंबाई और चौड़ाईवाले चार अंतरद्वीप ईशान वगैरा विदिशाओमें, आदर्शमुख, मेषमुग्व, यमुख और गजमुख नामके क्रमसे हैं। फिर छह सौ योजन दूर इतनीही लंबाई-चौड़ाई वाले प्रशमन्व. हन्तिमुख, सिंहमुग्व और व्याघ्रमुम्ब नाम के अंतरर्द्वीप है। फिर सात सौ योजन दूर इतनी ही लंबाई-चौड़ाई वाले अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, हस्तिकर्ण और कर्णप्रावरण नामके अंतरद्वीप हैं। उसके बाद आठ सौ योजन दूर इतनीही लंबाई-चौड़ाई वाले उल्कामुख, विद्युतजिह्व, मेषमुग्य और विद्युतदंत नामके चार द्वीप ईशान वगैरा विदिशाओंमें अनुक्रमसे हैं। उसके बाद जगतीसे लवणोदधिमें नौ सौ योजन जानेपर इतनी ही लंबाई-चौड़ाईवाले Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व ३. सर्ग ३. गूढईत, धनदंत, श्रेष्टदंत और शुद्धत नामके चार अंतरद्वीप इंशान वगैरा त्रिदिशाओंके क्रमसे हैं । इसी तरह शिखरी पर्वत पर भी अट्ठाईस द्वीप हैं। इस तरह सब मिलाकर छप्पन अंतरद्वीप हैं। (६४-७०) मानुपोत्तर पर्वतके बाद दूसरा पुष्कराध है । पुष्कराके चारों तरफ सारे द्वीपोंसे दुगना पुष्करोदक समुद्र है। उसके बाद धारणीवर नामक द्वीप और समुद्र हैं, उनके बाद क्षीरवर नामक द्वीप और समुद्र हैं। उनके वाद घृतवर नामक द्वीप और समुद्र हैं। उनके वाद इक्षुबर नामक द्वीप और समुद्र है। उनके बाद आठवाँ, स्वर्गक समान, नंदीश्वर नामक द्वीप है। यह गोलाई और विस्तारमें एक सौ तिरंसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। वह द्वीप अनेक तरहके उद्यानोंवाला और देवताओंके लिए उपभोगकी भूमिके समान है। प्रभुकी पूजामें उत्साह रखनेवाले देवताओं के आवागमनसे ( वह और भी अधिक सुंदर है। इसके मध्य प्रदेशमें पूर्वादि दिशाओंमें अनुक्रमसे अंजनके समान वर्णवाले चार अंजन पर्वत हैं । वे पर्वत नीचेसे दस हजार योजनसे कुछ अधिक विस्तारवाले हैं और ऊपरसे एकहजार योजन विस्तारवाल हैं। इसी तरह क्षुद्र मेरुके समान (यानी पचासी हजार योजन) ऊँचे हैं। उसके पूर्वम देवरमण नामका, दक्षिणमें नित्योद्योत नामका, पश्चिममें स्वयंप्रभ नामचा और उत्तरमें रमणीय नामका-इस तरह चार अंजनाचल हैं। उन पर्वतोपर- प्रत्येकपर सौ योजन लंबे, पचास योजनचाहे और वहत्तर चोजन ऊँचे अहंत भगवानके चेत्य है । हरेक चैत्यमें चार चार दरवाजे हैं। वे प्रत्येक सोलह योजन Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६६३ ऊँचे हैं। प्रवेशमें आठ योजन और विस्तारमें भी आठ योजन है। वे द्वार वैमानिक, असुरकुमार,नागकुमार और सुवर्णकुमारके आश्रयरूप हैं और उनके नामोंहीसे वे प्रसिद्ध हैं । उन चार द्वारोंके मध्यमें सोलह योजन लंबी, उतनीही चौड़ी और आठ योजन ऊँची एक मणिपीठिका है। उस पीठिका पर सभी रत्नमय देव छदक हैं, वे पीठिकासे विस्तारमें और ऊँचाई में अधिक हैं। हरेक देवच्छंदकके ऊपर ऋषभ, वर्धमान, चंद्रानन और वारिषेण इन चार नामोंवाली पर्यकासनपर बैठी हुई, अपने परिवार सहित रत्नमय, शाश्वत अहंतोंकी एक सौ पाठ सुंदर प्रतिमाएँ हैं । हरेक प्रतिमाके साथ परिवारके समान दो दो नाग, यक्ष, भून और कुंडधारी देवोंकी प्रतिमाएँ हैं। दोनों तरफ दो चमरधारिणी प्रतिमाएँ हैं और हरेक प्रतिमाके पिछले भागपर एक एक छत्रधारिणी प्रतिमा है। हरेक प्रतिमाके सामने धूपदानी, माला, घंटा, अष्टमांगलिक, ध्वज, छत्र, तोरण, चंगेरी, अनेक पुष्पपात्र, आसन, सोलह पूर्ण कलश और दूसरे अलंकार हैं। वहाँकी नीचेकी जमीनों में स्वर्णकी सुंदर रजवाली रेत है । आयतन (मंदिर) के समानही उनके सामने सुंदर मुख्यमंडप, प्रेक्षार्थमंडप (नाटकघर ) अक्षवाटिकाएँ और मणिपीठिकाएँ हैं। वहाँ रमणीक स्तूप प्रतिमाएँ हैं, सुंदर चैत्यवृक्ष है, इंद्रध्वज हैं और अनुक्रमसे दिव्य वापिकाएँ हैं। प्रत्येक अंजनाद्रिकी चारों दिशाओं में लाख लाख योजनके प्रमाणवाली यापिका है ( यानी कुल सोलह वापिकाएँ हैं)। उनके नाम हैंनंदीषेणा, अमोघा, गोस्तूपा, सुदर्शना, नंदोत्तरा, नंदा, सुनंदा, नंदिवर्धना, भद्रा, विशाला, कुमुदा, पुंडरी किणिका, विजया, Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. वैजयंती, जयंती और अपराजिता। उनके-प्रत्येक वापिकासे पाँच सौ योजन दूर अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र इन नामोंवाले बड़े उद्यान हैं। उनकी चौड़ाई पाँच सौ योजन और लंबाई एक लाख योजन है। हरेक वापिकाके मध्यमें स्फटिक. मणिके, पल्याकृतिवाले और सुंदर वेदिकाओं व उद्यानोंसे सुशोभित दधिसुख पर्वत हैं। उनमेंका हरेक पर्वत चौंसठ हजार योजन ऊँचा, एक हजार योजन गहरा और दस हजार योजन ऊपर और दस हजार योजननीचे विस्तारवालाहै। वापिकाओंके बीचकी जगहोंमें दो दो रतिकर पर्वत हैं ! इस तरह सब बत्तीस रतिकर पर्वत हैं। दधिमुख पर्वतों व रतिकर पर्वतोपर अंजनगिरिकी तरह शाश्वत अर्हतोंके चैत्य हैं। उन द्वीपोंकी विदिशाओं में दूसरे चार रतिकर पर्वत हैं। उनमेंका हरेक दस हजार योजन लंबा-चौड़ा, एक हजार योजन ऊँचा, सुशोभित सर्व रत्नमय, दिव्य और झल्लरीके आकारवाला है। उनके दक्षिणमें सौधर्मेंद्र के दो रतिकर पर्वत हैं और उत्तरमें ईशानेंद्रके दो रतिकर पर्वत हैं। उनमेंसे हरेककी आठों दिशा विदिशाओंमें हरेक इंद्रकी आठ आठ महादेवियोंकी आठ आठ राजधानियाँ हैं। इस तरह कुल बत्तीस राजधानियाँ हैं। वे रतिकरसे एक लाख योजनं दूर, एक लाख योजन लंबी चौड़ी और जिनालयोंसे विभूषित हैं। उनके नाम हैं,-सुजाता, सौमनसा, अर्चिमाली, प्रभाकरा, पद्मा, शिवा, शुची, व्यंजना, भूता, भूतवतंसिका, गोस्तूपा,सुदर्शना,अम्ला,अप्सरा,रोहिणी,नवमी,रत्ना,रत्नोचया सर्वरत्ना, रत्नसंचया, वसु, वसुमित्रिका, वसुभागा, वसुंधरा, नदोत्तरा, नंदा, उत्तरकुरु, देवकुरु, कृष्णा, कृष्णराजी, रामा Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [६६५ और रामरक्षिता। ये नाम पूर्व दिशाके क्रमसे समझने चाहिए। इस नंदीश्वर द्वीपमेंके जिनचैत्योंमें सभी तरहकी ऋद्धिवाले देवता परिवार सहित श्रीमत् अहंतोंकी कल्याणक तिथियोंपर अष्टाह्निका उत्सव करते हैं। (७०१-७३८) नंदीश्वर द्वीपके चारों तरफ नंदीश्वर समुद्र है। उसके बाद अरुण द्वीप है.और उसके चारों तरफ अरुणोदधि समुद्र है। उसके बाद अरुणवर द्वीप और अरुणवर समुद्र है; उनके बाद अरुणाभास द्वीप और अरुणाभास समुद्र हैं। उनके बाद कुंडल द्वीप और कुंडलोदधि नामक समुद्र हैं, और उनके बाद रुचक नामक द्वीप और रुचक नामका समुद्र है। इस तरह प्रशस्त नामवाले और पिछलोंसे अगले दुगने दुगने प्रमाणवाले द्वीप और समुद्र अनुक्रमसे हैं। उन सबके अंतमें स्वयंभूरमण नामका अंतिम समुद्र है। (७३६-७४२) ___पूर्वोक्त ढाई द्वीपोंमें देवकुरु और उत्तरकुरुके समान भागोंके बिना पाँच महाविदेह, पाँच भरत और पाँच ऐरावत ये पंद्रह कर्मभूमियाँ हैं । कालोदधि, पुष्करोदधि और स्वयंभूरमण ये तीन समुद्र मीठे पानीके हैं; लवणसमुद्र खारे पानीका है, तथा वरुणोदधिका पानी विचित्र प्रकारकी मनोहर मदिराके जैसा है। क्षीरोदधि शक्कर मिश्रित घीका चौथा भाग जिसमें होता है ऐसे गायके दूध के समान पानीवाला है। धृतवर समुद्र गरम किए हुए गायके घीके जैसा है और दूसरे समुद्र तज, इलायची, केशर और कालीमिर्चके चूर्ण मिश्रित चौथे भाग. वाले गन्ने के रसके समान है। लवणोदधि, कालोदधि और स्वयंभूरमण ये तीन समुद्र मछलियों और कछुओंसे संकुल है (यानी Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग३. भरे हुए हैं।) दुसरं नहीं है।" (७४३-७४७) "जीपमें जयन्यस ( यानी कमसे कम ) तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलदेव चार चार होत है और उसे (यानी अधिकसे अधिक) चीनील' जिन और नीम पार्थिव (यानी चक्रवर्ती या वासुदेव ) होते हैं। बावक्री खंड और पुष्कगढ़में इनसे दुगन होने हैं। (928-026) ____ "इन नियंगलोक पर नौ सा बोजन कम सात रन्जु प्रमाणु और महान ऋद्धिवाला अबलोक है। उसमें नौवन, ईशान, सनमार, माइंद, ब्रह्म, लांतक, गुफा, महन्त्रार, श्रानत, प्रागान श्रारण और अच्चुन इन नामों बारह कन्य (यानी देवलोक) और सुदर्शन, सुप्रबुद्ध, मनोगम, सर्वमन, मुविशाल, सुमन, सौमनस, प्रॉनिकर. और अादित्य नाम नौ ग्रेवयक है। उनके बाद पाँच अनुन्तर बिमान हैं। उन नाम है-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजिनु और सत्रार्थसिद्ध। उनमे पहले चार. पूर्व दिशाके कमान चारों दिशामि है और सायमिद्ध, विमान सब बीच है। उसके बाद बारह योजनकी ऊँचाई पर निशिता है। उसकी लंबाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन है। उसपर तीन कोसके बाद चीय क्रांस छठं भाग लोकाय नक सिद्धांत जीव हैं । यह संमृनता पृथ्वीस सौधर्म और ईशानकन्छ न ड गाजलीक है, मननकुमार और माइंद्र लोक नक ढाई गजलीक है, महन्तार देवलोक तक पाँचवाँ रानलोक है, -महाविदह देवनाम विजयन (यानी प्रतिक्विीटमें एक परत तथा वन एक एक मिलाकर करम चाँतीन नीकर केंद्र है। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र - [६६७ अच्युत देवलोक तक छठा राजलोक है, और लोकांतक तक सातवाँ राजलोक है । सौधर्म कल्प और ईशान कल्प चंद्रमंडलके समान वर्तुलाकार हैं। सौधर्मकल्प दक्षिणा में और ईशान कल्प उत्तरार्द्ध में है। सनतकुमार और माहेंद्र देवलोक भी उनके समान आकृतियोंवाले हैं । सनतकुमार देवलोक दक्षिणार्धमें है और माहेंद्र देवलोक उत्तरार्द्ध में है। लोक पुरुषकी कोनीवाले भागमें और अवलोकके मध्यभागमें ब्रह्म देवलोक है । इसका स्वामी ब्रौद्र है। इस देवलोकके अंतिम भागमें सारस्वत, आदित्य, अग्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अन्याबाध, मरुत और रिष्ट इन नौ जातियोंके लोकांतिक देव है। उसके ऊपर लांतक कल्प है। वहाँके इंद्रका नाम तेज है। उसपर महाशुक्र देवलोक है। उसके इंद्रका नाम भी तेज है। उसके ऊपर सहस्रार देवलोक है। वहाँ भी तेज नाम ही का इंद्र है। उसके ऊपर सौधर्म और ईशान देवलोकके समान आकृतिवाले आनत और प्राणत देवलोक है। उनमें प्राणत कल्पमें रहनेवाला प्राणत नामका इंद्र है। वह दोनों देवलोकोंका स्वामी है। उसके ऊपर वैसी ही आकृतिवाले पारण व अच्युत नामके दो देवलोक है। अच्युत देवलोकमें रहनेवाला अच्युत नामका इंद्र उन दोनों देवलोकोंका स्वामी है । अवेयक और अनुत्तरोंमें अहमिंद्र नामके देव हैं । पहले दो देवलोक धनोदधिके आधारपर रहे हुए हैं। उनके बाद के तीन देवलोक वायुके आधारपर टिके हुए हैं। उनके बादके तीन देवलोक धनवात और तनवातके आधारपर हैं और उनके ऊपरके सभी देवलोक आकाशके श्राधारपर रहे हुए हैं। उनमें इंद्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पार्षद, अंगरक्षक, लोकपाल, Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २ सर्ग ३, अनीक, प्रक्रीणं, श्रामियोगिक और किल्विपिक नामक इस प्रकार के देवता रहते हैं । सानानिक वगैरा देवताओं के नो अधिपनि है वे समी इंद्र कहलाने हैं। इंद्र के समान ऋद्धिवाने होते हुए भी तो इंद्रपनसे रहित है व सामानिक देवना कहलाते हैं। नो ईवक मंत्री और पुरोहिना समान है व त्रायविंश देवता कहलाने हैं। जो इंद्र के मित्रों के समान है । पापद्य देवता ऋहलाते हैं। इंद्रकी रक्षा करनेवाले श्रात्मरक्षक देव कहलात है। देवलोककी रक्षा करन लिए रक्षक बनकर फिरनवान्त लोकपाल कहलाने हैं। सैनिकका काम करनेवाले लोकपाल देव कहलाते हैं। प्रजावगंक समान जो देव है वे प्रवीण देवता कहलाते हैं। नों नौगांका काम करनवाल है व श्रमियोगिक देव कहलाते हैं। जो चाहाल जातिक समान है ये किन्विष देव कहलाते हैं। ज्योनिक और व्यंतर देवाने त्रायचिश और लोकपाल देव नहीं हो । (23-06) ___ "सौधर्मकन्यमें बीस लान्त्र विमान हैं, ईशान देवलोकमें अट्ठाइस लाख विमान है. मननमारम बारह लाख विमान है, माद में पाठ लाग्य विमान है, ब्रह्मदेवलोक चार लाग्य है, लानक देवलोक पचास हजार है. शुक्र देवलोकमें चालीस हजार, सहन्नार देवतांकने छः हजार है, नवें श्रीर दसवें लांक मिलाकर चारसी और धारण तथा अच्युत देवलोक्रके मिलाकर तीन मी विमान है। प्रारंमत्र तीन वयकोंमें एक सोन्यारह विमान है. मध्य नीन ग्रंयकामें एक सी सात विमान है और अंत नीन याममा विमान हैं। अनुत्तर विमान पांच ही है। इस नुवह सब मिलाकर चौरासी लान्त्र Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [६६६ सत्तानबे हजार तेइस विमान हैं।" अनुत्तर, विमान में चार विजयादिक विमानों में द्विचरिम' देवता हैं और पाँचवें सर्वार्थमिंद विमानमें एक चरिम' देवता हैं। सौधर्म कल्पमें सर्वार्थसिद्ध विमान तक देवतायोंकी स्थिति, क्रांति, प्रभाव, लेश्या-विशुद्धि, मुब, इंद्रियांक विषय और अवधिज्ञानमें पूर्व पूर्वकी अपेक्षा उत्तर उत्तरके अधिक अधिक है; और. परिग्रह ( परिवारादि), अभिमान, शरीर और गमन क्रिया अनुक्रमसे कम कम हैं। सबसे जघन्य स्थितिबाल देवताओंको सात स्तोकक अंतरसे साँस पाती है, और चोयमक्व (यानी एक रात दिन के अंतरसे वे भोजन करते हैं। पल्लोषमकी स्थितिवाले देवताओंको एक दिन अंतरसे साँस आती है और पृथक्त दिनकं (यानी दो से नी दिनके अंतरसे वे भोजन करते हैं। इनके बाद जिन देवता ओंकी जितन सागरोपमकी स्थिति है उन देवताओंको उतनेही पक्षके बाद साँस पाती है और उतनही हजार बरसके बाद वे भोजन करते है। अर्थात तनीस सागरोपमकी श्रायुवाले सर्वार्थमिद्धिक देवताओंको प्रति तेतीस पक्षक अंतरस वासोवास श्राता है और प्रति ततीस हजार वर्ष के बाद भोजन करते हैं। प्राय: देवता सवेदनावालही होते हैं। कमी असवेंदना होती है तो उसकी स्थिति अंतर्मुहूनहीकी होती है। मुहर्चक बाद असवेदना नहीं रहती है। देवियोंकी उत्पत्ति ईशान देवलोक १-दो जन्मक बाद मान बानेवाले ।२-एकही जन्म के बाद मोन नानवाल । ३-सात श्वासोश्वाम काज । ४-अमन्यात (एक मुंबल्या विशेष वाँकी श्रायुधाल। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३. तकही होती है। अच्युत देवलोक तकके देवता गमनागमन करते हैं। (१७५-७८ ) ___"न्योत्तिष्क देवों तक तापम होने हैं। ब्रह्मदेवलोक तक चरक' और परित्राजकों की उत्पत्ति है। सहस्रार देवलोक तक तियंत्रांकी उत्पत्ति है। अच्यून देवलोक तक श्रावक्रांकी उत्पत्ति है। मिण्याइष्टि होते हुए भी जनलिंगी बनकर यथार्थरुपसे समाचारी पालनेवालोंकी उत्पत्ति अंनिम |वयक तक है। पूर्ण चौदह पूर्वधारी मुनियोंकी उत्पत्ति ब्रह्मलोकके सद्धिसिद्धि विमान तक है। सद् बनवाले साधुओंकी और श्रावकोंकी उत्पत्ति नयन्यतासे ( यानी कम से कम ) सौधर्म देवलोकमें है । भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी और ईशान देवलोक तक देवताओंके लिए अपने भवनमें बसनेवाली देवियों के साथ विषय संबंधी अंगसेवा है। वे संक्लिष्ट (दुग्यदाया) कर्मवाल और तीन वैगग्यवाल होनेसे मनुष्योंकी तरह काममोगमें लीन रहते हैं, और देवांगनाओं के सभी अंगांसे संबंध रखनेवाली प्रीति प्राप्त करते हैं। उनके बाद दो देवलोकांक देव स्वर्श मात्रसे, दो देवलाकोंके देव रूप देखनेस, दो देवलोकांक देव शब्द सुननसे और श्रानन इत्यादि चार देवलोकोंक देव मनमें कंवल विचार करनेहीसे विषय धारण करनेवाले होते हैं। इस तरह विषयरसका विचारसही पान करनेवाल देवताओंसे अनंत सुख पानेवाले देवताग्रेवयकादिम है कि जिन मन विषयक विचारोंसे सर्वथा रहित है। (७८-७६) १-अध्ययन के लिए घन करनेवाले।२-सन्यासी॥३-लेनधर्मक अनुसार बताए गए, सदाचाग । Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६७१ __"इस तरह अधोलोक,तिर्यगलोक और ऊर्ध्वलोकसे विभाजित: समग्र लोकके मध्य भागमें चौदह राजलोक प्रमाण ऊर्ध्वअधों लंबी त्रस नाड़ी है; और लंबाई चौड़ाई में एक राजलोक प्रमाण है । इस त्रस नाड़ी में स्थावर और त्रस दोनों तरह के जीव हैं और इससे बाहर केवल स्थावरही हैं। कुल विस्तार इस तरह है-नीचे सातलोक प्रमाण, मध्यमें तिर्यगलोकमें एक राजलोक प्रमाण, ब्रह्मदेवलोकमें पांच राजलोक प्रमाण और अंतमें सिद्धशिला तक एक राजलोक प्रमाण है। अच्छी तरह प्रतिष्ठित हुई आकृतित्राले इस लोकको न किसीने बनाया है और न किसीने धारणही किया है। वह स्वयंसिद्ध है और आश्रयरहित आकाशमें टिका हुआ है। (७६७-८००) ___ अशुभ ध्यानको रोकनेका कारण ऐसे इस सारे लोकका अथवा उसके जुदा जुदा विभागोंका जो बुद्धिमान विचार करता है उसको धर्मध्यानसे संबंध रखनेवाली क्षायोपशमकादि भावकी प्राप्ति होती है और पीत लेश्या, पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्या अनुक्रमसे शुद्ध शुद्धतर शुद्धतम होती हैं। अधिक वैराग्यके संगसे तरंगित धर्मध्यानके द्वाराप्राणियोंको स्वयही समझ सके ऐसा ( स्वसंवेद्य ) अतींद्रिय सुख उत्पन्न होता है। जो योगी निःसंग (यानी नि:स्वार्थ) होकर धर्मध्यानके द्वारा इस शरीरको छोड़ते हैं वे वेयकादि स्वर्गों में उत्तम देवता होते हैं। वहाँ वे महा महिमावाले, सौभाग्य युक्त, शरद ऋतुके चंद्रके समान प्रभावशाली और पुष्पमालाओं तथा वखालंकारोंसे विभूषित शरीरको प्राप्त करते हैं। विशिष्ट वीर्य बोधाढ्य (यानी असा. मान्य ज्ञान व शक्तिके धारक ), कामाति ज्वर रहित (यानी Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग ३. जिनको काम पीड़ा नहीं सताती ऐसे ) और अंतराय रहित अतुल्य सुखका चिरकाल तक सेवन करनेवाले होते हैं । इच्छानुसार मिले हुए सब अयों से मनोहर मुम्वरूप अमृतका उपभोग विघ्नरहित करते रहनेमें उन्हें यह भी पता नहीं लगता कि उनकी आयु कैसे बीतती जा रही है ? ऐसे दिव्य भोग भोगनेके वाद अंतमें वे च्यवकर मनुष्यलोकमें उत्तम शरीरधारी मनुष्य जन्मते हैं। मनुष्यलोकमें भी वे दिव्य वंशमें उत्पन्न होते हैं; उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं; वे नित्य उत्सव मनाते हैं और मनको आनंद देनेवाले विविध प्रकारके भोगोंका उपभोग करते हैं। फिर विवेकका याश्रय ले, सभी भोगोंका त्याग कर शुभध्यान द्वारा वे सभी कमाँका नाशकर अव्ययपद (यानी मोक्ष) पातं हैं।" (८०१-८१०) इस तरह सब जीवोंके हितकारी श्री अजितनाथ प्रभुने तीन जगतरूपीकुमुद्दों को आनंदित करनेवाली कौमुदीरूपी धर्मदेशना दी। स्वामीकी देशना सुनकर हजारोंनर-नारियोंने ज्ञान पाया और मोक्षकी मातारूप दीक्षा ग्रहण की। (८६१-८१२) उस समय सगर चक्रवर्ती के पिता वसुमित्रने-जो तबतक भाव यति बनकर घरहीमें रहते थे-भी प्रमुके पाससे दीक्षा ग्रहण की। फिर अजितनाथ स्वामीने गणधरनामकर्मवाले औरअच्छी बुद्धिवाले सिंहलेन इत्यादि पंचानवे मुनियों को, व्याकरणके प्रत्याहारोंके समान उत्पत्ति, विगम' और ध्रौव्यरूप त्रिपदी सुनाई। रेखायोंके श्राधारसे जैसे चित्र बनाया जाता है वेसेही, १-व्याकरण में 'अच ग्रादि प्रत्यय । -विनाश । ३-स्थिति। Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. श्री अजितनाथ-चरित्र । ६७३ त्रिपदीके आधारसे गणधरोंने चौदह पूर्व सहित द्वादशांगीकी रचना की। फिर इंद्र अपनी जगह से उठ, चूर्णसे (यानी वासक्षेपसे) पूर्ण थालको ले, देवताओंके समूहके साथ, स्वामीके चरणकमलोंके पास आ खड़ा हुआ । जगतपति अजितनाथ स्वामीने खड़े होकर गणधरोंके मस्तकपर वासक्षेप डाला और अनुक्रमसे सूत्रसे, अर्थसे व उन दोनोंसे इसी तरह द्रन्यसे, गुणसे,पर्यायसे और नयसे अनुयोगकी अनुज्ञा तथा गणकी'. अनुज्ञा दी। उसके बाद देवोंने, मनुष्योंने और त्रियोंने दुंदुभि. की ध्वनिके साथ गणधरोंपर वासक्षेप डाला। फिर गणधर भी हाथ जोड़कर अमृतके निर्भरकी जैसी प्रभकी वाणी सुननेको तत्पर हुए । इसलिए पूर्वकी सरफ मुखवाले सिंहासनपर बैठकर प्रभुने उनको अनुशिष्टिमय देशना दी। प्रथम पौरुषी (पहर) के समाप्त होनेपर भगवानने धर्मदेशना पूरी की। उस समय सगेर राजाके द्वारा तैयार कराया हुआ और बड़े थाल में रखा हुआ चार प्रस्थ' प्रमाणका 'घलि' पूर्व द्वारसे समवसरणमें लाया गया। (८११-८२३३).: . .: __ . यह बलि शुद्ध और कमलके समान सुगंधीवाले चावलों १-तीर्थकर, कुमकर, चक्रवर्ती इत्यादिका अधिकार जिसमें बताया गया है उस दृष्टिवादका एक विभाग ! २-आदेश, श्राशा। ३-गच्छ या समान क्रियाएँ करनेवाले साधुनोंका समुदाय । ४-उपदेशोंसे पूर्ण। ५-प्रस्थ शब्दका अर्थ 'सेर दिया गया है। मगर जान पड़ता है कि उस जमानेका 'सेर वजन, इस जमानेके सेरसे . बहुत अधिक होगा। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ३. का, अच्छी तरहसे बनाया गया था। देवताओंके द्वारा डाली गई गंधमुष्टियोंसे' उसकी सुगंध फैल रही थी। श्रेष्ट पुरुपोंने उसको उठाया था, साथमें चलते हुए नगारोंकी आवाजोंसे दिशाओंके मुख प्रतिध्वनित हो रहे थे। स्त्रियाँ गीत गाती हुई उसके पीछे चल रही थीं और भौरांसे जैसे कमलकोश घिर जाता है वैसेही नगरके लोगोंसे वह घिरा हुआ था। फिर उन सय लोगोंने प्रभुकी प्रदक्षिणा करके, देवताओंने जैसे पुष्पवृष्टि की थी वैसेही, बलि प्रभुके सामने उछाला । श्राधा भाग ऊपरहीसे, जमीनमें न गिरने देकर देवताओंने ले लिया । पृथ्वीपर गिरे हुए भागमेंसे आधा भाग सगर राजाने लिया और बाकी बचा हुआ भाग दूसरे लोगोंने लिया। उस वलिके प्रभावसे पुराने रोग नष्ट होते हैं और छह महीने तक नवीन रोग नहीं होते । (८२४-८३०) मोक्षमार्गके नेता प्रभु सिंहासनसे उठ उत्सर द्वारके मार्गसे निकले और मध्यगढ़क वीच ईशान दिशामें बनाए हुए देवछदपर उन्होंने विश्राम लिया। फिर सगर राजाके धनवाए हुए सिंहासनपर बैठकर सिंहसेन नामके मुख्य गणधर धर्मदेशना देने लगे। भगवानके स्थान के प्रभावसे गणधरने जिन्होंने पूछां उनको उनके असंख्य भव बता दिए । प्रभुकी सभामें संदेहोंका नाश करनेवाले गणधरोंको किसीने-सिवा कंवलियोंकेछद्मस्थ' नहीं समझा। गुरुके श्रमका नाश, दोनोंका समान विश्वास और गुरुशिष्यका क्रम-ये गुण गणधरकी देशनाक है। दूसरी पौरुपी समाप्त हुई तब गणधरने देशनासे इसी तरह १-मटियाँ भर भरकर डाली गई सुगंधियोंसे। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र . [ ६७५ विराम लिया जैसे पथिक चलनेसे विराम लेता है । देशना समाप्त होने पर सभी देवता प्रभुको प्रणाम करके अपने अपने स्थानोंको जाने के लिए रवाना हुए। मार्गमें उन्होंने नंदीश्वर द्वीप पर जाकर अंजनाचलदिकके ऊपर शाश्वत अहंतकी प्रतिमाओंका अट्ठाई महोत्सव किया। फिर यों बोलते हुए कि हमें ऐसी यात्रा करनेका बार वार अवसर मिले" वे अपने अपने स्थानों पर जैसे आए वैसेही गए । (८३१-८४०) सगर चक्रवर्ती भी भगवानको नमस्कार कर लक्ष्मीके संकेतस्थानरूप अपनी अयोध्या नगरीमें गया।महायक्ष नामका चतुर्मुख यक्ष अजितनाथके तीर्थका अधिष्ठायक हुआ । उसका वर्ण श्याम और वाहन हाथी था। उसकी दाहिनी तरफके चार हाथोंमें वरदा, मुद्गर, अक्षसूत्रर और पाशिन' थे और बाई तरफके चार हाथों में वीजोरा, अभय, अंकुश और शक्ति थे। प्रभुके शासनकी अजितबला नामकी चार हाथोंवाली देवी अधिष्ठायिका हुई । उसका वर्ण सोनेके जैसा है। उसके दाहिने हाथोंमें वरद तथा पाशिन है और बाएँ हाथों में बीजोरा तथा अंकुश हैं। वह लोहासनपर बैठी है । (८४१-८४६) चौंतीस अतिशयोंसे सुशोभित भगवान सिंहसेनादि गणपरों सहित पृथ्वीमें विहार करने लगे। प्रत्येक गाँव, शहर और करमें विहार करते हुए और भव्य प्राणियोंको उपदेश देते हुए कृपासागर प्रभु एक वार कोशांबी नगरीके समीप पहुँचे। कोशांबीके ईशान कोणमें एक योजनमात्रके क्षेत्र में देवताओंने -सूर्य पुष्प । २-रुद्राक्षको माला। ३-फांसा Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३, पहलेके समानही प्रमुके लिए समवसरणकी रचना की। इसमें अशोकवृनके नीचे, सिंहासनपर विराजमान जगत्पतिने मुर, असुर और मनुष्योंकी पर्षदा देशना देना प्रारंभ किया। उसी समय एक ब्राझणकी जोड़ी पाई और तीन नगतके गुरुको प्रदक्षिणा देकर यथायोग्य स्थान पर बैठी। सम्यक्त्वका माहात्म्य देशनाके अंतमें उस नोड़ीमसे ब्राह्मण खड़ा हुआ और उसने हाथ जोड़कर प्रमुसे पूछा, "हे भगवान् ! यह ऐसा कैसे प्रमुने नवाब दिया, "यह सम्यक्त्र की महिमा है । वही समी अनयाँको रोकनेकाीरसमी कायाँको सिद्धिकाएक प्रबल कारण है। सम्यक्त्वसे सभी तरहके बैर इसी तरह शांत हो जाते हैं जिस तरह वर्षासे दवाग्नि शांत हो जाती है; सभी व्याधियाँ इस तरह नष्ट हो जाती हैं जिस तरह गरुड़ते स नष्ट हो जाते हैं। दुष्कर्म ऐसे गल जाते हैं जैसे सूर्यसे बरफ गल जाता है; क्षणवारमें मनोवांछित कार्य ऐसे सिद्ध होते हैं जैसे चिंतामणिसे सिद्ध होते हैं। श्रेष्ट हार्थी जैसे पानी के प्रवाहको बाँधता है वैसेही देवश्रायुका बंध होता है; और महापराक्रमी मंत्रकी तरह देवता आकर हाजिर होते हैं। अपर कही हुई बातें तो सन्यक्त्वका एक अल्ल फल है। इसका महाफल तो तीयकर. पद और सिद्धिपद (मोक्षपद) की प्राप्ति है। (८४७-२५७) प्रमुछा नवाब सुनकर विप्र हर्पित हुआ और हाथ जोड़'कर बोला, "हे भगवान ! यह ऐसाही है। सर्वज्ञकी वाणी अभी अन्यथा नहीं होती"निप्र मौन हो रहा व मुख्य गण. Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-धरित्र [ ७५ धरने, जो स्वयं इस बातचीतका अभिप्राय समझ गए थे तो भी, सारी पर्षदाको ज्ञान करानेके अभिप्रायसे जगद्गुरुसे पूछा, "हे भगवान ! इस ब्राह्मणने आपसे क्या पूछा १ और आपने क्या उत्तर दिया ? इस सांकेतिक बातचीतको साफ साफ सममाइए।" (५८-८६०) ___ प्रभुने कहा, "इस शहरके पास शालिग्राम नामका एक अग्रहार' है। वहां दामोदर नामका एक मुख्य ब्राह्मण रहता था। उसके सोमा नामकी स्त्री थी। उस दंपतिके शुद्धभट नामका पुत्र हुआ। वह सिद्धभट नामके किसी ब्राह्मणकी सुलक्षणा नामक कम्यासे ब्याहा गया। शुद्धभट और सुलक्षणा दोनों जवान हुए। और अपने वैभवके अनुसार यथोचित भोग भोगने लगे। कालक्रमसे उनके माता-पिताका देहांत हुआ। उनकी पैतृक संपत्ति भी समाप्त हो गई इसलिए वे कभी कभी रातको निराहार रहने लगे। कहा है "निर्धनस्य सुमिक्षेपि दुर्भिक्षं पारिपार्धिकम् ।" [ निर्धन मनुष्यके पास सुकालमें भी दुकाल रहता है। शुद्धभट कभी उस नगरके राजमार्गमें विदेशसे आए हुए कार्पिट' की तरह पुराने वस्त्रका टुकड़ा पहन कर फिरता था; कई बार चातक पक्षीकी तरह प्यासा रहता था और कई बार पिशाधकी तरह उसका शरीर मलसे मलिन रहता था। इस स्थितिमें वह अपने साथियोंसे लज्जित होकर, अपनी स्त्रीको भी कहे वगैर दूर विदेश चला गया। उसकी स्त्रीने कुछ दिनोंके बाद वनपात १-दानमें मिली हुई जमीनपर बसा हुश्रा गाँव।२-भिखारी। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. OM की नरह लोगोंको कहते मुना कि तेरा पति विदेश चला गया है। वनरक और अर्थक नष्ट होनेसे और पति परदेश चन्ने जानसे अपने प्रापकोदलजमा मानती हई मुलक्षणा दलमें दिन विनाने लगी । वयाँ ऋतु आई और कोई विपुला' नामकी साध्वी उसके घरचातुर्मास रहने अभिप्रायसे आई । मुलक्षणाने साध्वीको रहने के लिए जगह दी और वह हमेशा उनके मुख से धर्मदेशना सुनने लगीजैसे नीठी चीजके संबंधसे लट्टी चीजका बट्टापन नाता रहता है सही, साध्वी धर्मोपदेशसे मुलनपाका मिथ्यात्व जाता रहा। कृष्णपक्षका उल्लंघन करके रात्रि से निर्मलताको प्राप्त होती है, वैसेही वह निर्मल सन्य व पाई। वैद्य जैसे शरीरमें उत्पन्न होनेवान्ने रोगोंको जानता है वैसेही वह नीब-अजीव आदि पदायाँको यथास्थित जानने लगी जैसे समुद्र लायन लिए मुसाफिर योग्य जहाजमें सवार होता है. वैसही संमारसे पार लगाने में समर्थ जैनधर्मको उसने अंगीकार किया। उसे विषयों विरक्ति हो गई, उसकी कृपाएँ उपशांत हुई और अविच्छिन्न जन्म-मरणकी श्रेणीसे वह व्याकुल हो उठी। रसपूर्ण ऋयाले जागरूक मनुष्य जैसे रात बिताता है, वैसेही उसने मावीकी सेवा सुऋषा करते हुए वर्षाकाल बिनाया । उसको अणुन ग्रहण कराकर साध्वी विहार कर दूसरी जगह चली गई। कहा है. "क्षेत्रे प्रावृपऊवं न तिष्ठत्येकप्रसंयताः ।" [संयमी साधु वाचनु समाप्त होने पर एक त्यानपर नहीं रहा । ] (८६१-८०) शुदमदमी परदेशसे बहतसा धन कमाकर नियाके प्रेमसे Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... श्री अजितनाथ-चरित्र [६७६ खिंचकर, कबूतरकी तरह वापस आया। उसने आकर पूछा, "हे प्रिये ! कमलिनी जैसे हिमको नहीं सह सकती। वैसेही तूने- जो पहले थोडासा वियोग भी नहीं सह सकती थी मेरे दीर्घकालके वियोगको कैसे सहन किया ?" (८८१-८८२) , सुलक्षणाने जवाब दिया, "हे जीवितेश्वर ! मरुस्थल में जैसे हंसी, थोड़े पानी में जैसे मछली, राहुके मुँहमें जैसे चंद्रलेखा और दावानलमें जैसे हरिणी महा संकटमें फंस जाती है वैसेही तुम्हारे वियोगसे मैं भी मौतके दरवाजे तक पहुंच चुकी थी; उसी समय अंधकारमें दीपकके समान, समुद्रमें जहाजके समान, मरुस्थलमें वपोके समान और अंधेपनमें नजरके समान, दयाके भंडारके समान एक 'विपुल' नामकी साध्वी यहाँ आई। उनके दर्शनसे तुम्हारे विरहसे आया हुआ मेरा सारा दुःख जाता रहा और मुझे मनुष्य जन्मके फलस्वरूप सम्यक्त्व प्राप्त हुआ।" (८८३-८८७) शुद्धभटने पूछा, “हे भट्टिनी ! तुम मनुष्य जन्मका फल सम्यक्त्व कहती हो, वह क्या चीज है ?" वह बोली, "हे आर्यपुत्र । वह अपने प्रिय मनुष्यको कहने लायक है, और आप मुझे प्राणोंसे भी प्रिय हैं इसलिए कहती हूँ। सुनिए "देवमें देवपनकी बुद्धि, गुरुमें गुरुपनकी बुद्धि और शुद्ध धर्ममें धर्मबुद्धि रखना सम्यक्त्व कहलाता है। अदेवमें देवबुद्धि, अगुरुमें गुरुबुद्धि और अधर्ममें धर्मबुद्धि रखना लिपर्यास 'भाव होनेसे मिथ्यात्व कहलाता है। सर्वज्ञ, रागादिक दोषोंको जीतनेवाले, तीन लोक-पूजित Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ३. और यथायोग्य अर्थ बतानेवाले अहंत परमेश्वर देव हैं। उन देवकाही ध्यान करना, उन्हींकी उपासना करना, उन्हीं की शरण. में जाना और यदि ज्ञान हो तो उन्हीं के शासनका प्रतिपादन करना चाहिए। जो देव स्त्री, शस्त्र और अक्षसूत्रादि रागादि शेषोंके चिंहोंसे अंकित है और जो कृपा या दंड देने में तत्पर हैं वे देव कमी मुक्ति देने में समर्थ नहीं हो सकते । नाटक, अट्टहास और संगीत वगैरा उपाधियोंसे जो त्रिसन्धुलर बने हुए हैं वे देवता शरणमें आए हुए प्राणियोंको मोक्षम कैसे लेजा सकते है ?" (८८-८५) महावतोंको धारण करनेवाले, धैर्यधारी भिक्षा मात्रहीसे जीवननिर्वाह करनेवाले और सदा सामायिकमें रहनेवाले जो धर्मोपदेशक होते हैं वे गुरु कहलाते हैं। सभी चीजें चाहनेवाने, समी तरहका मोलन करनेवाले,परिग्रहधारी, अब्रह्मचारी और मिथ्या उपदेश देनेवाने गुरू नहीं हो सकते । जो गुरु खुद ही परिग्रह और प्रारंभमें मग्न रहते हैं, वे दूसरोंको कैसे तार सकते हैं ? जो खुद दरिद्री होता है, वह दूसरोंको कैसे धनवान बना सकता है ? (२६-३८) "दुर्गतिमें पढ़ते हुए प्राणियोंको जो धारण करता है उसे धर्म कहते है । सयज्ञका बताया हुआ संयम वगैरा दस प्रकार. का धर्म मुक्तिका कारण होता है। जो वचन अपौरुषेय है वह असंभव है, इसलिए वह प्रमाण मान्य नहीं होता; कारण,प्रमाणता तो प्राप्त पुरुपके आधीन होती है। मियादृष्टि मनु १-प्रतिकूल भाव 12-चंबन्न। ३-सममामि। ४-al पुरपका काया नहीं है।५-सच्चे देय।। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-धरित्र [६८१ · · व्योंके माने हुए और हिंसादि दोपोंसे कलुषित बने हुए नाम.मात्रके धर्मको यदि धर्मकी तरह जाना-माना जाए तो वह संसारमें परिभ्रमण करनेका. कारण होता है। यदि रागी देव, . देव माना जाए,अब्रह्मचारी गुरु माना जाए और दयाहीन धर्म,धर्म माना.जाए तो खेदके साथ यह कहना पड़ेगा कि जगतका नाश हो गया है ( यानी जगतके प्राणी दुर्गतिमें जाएँगे।) सम्यक्त्व शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकता, इन पाँच बातोंसे अच्छी तरह पहचाना जाता है। स्थिरता, प्रभावना, भक्ति, जिनशासनमें कुशलता और तीर्थसेवा, ये पाँच बातें सम्यक्त्वकी भूषण कहलाती हैं। शंका, आकांक्षा, विचि. कित्सा, मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा और उनका परिचय, ये पाँच बातें सम्यक्त्वको दूषित करती हैं।" (VEE-६०५) ये बातें सुनकर ब्राह्मणने कहा, "हे खी, तू भाग्यवती है। कारण, तूने निधानकी तरह सम्यक्त्व प्राप्त किया है। इस तरह कहते-सोचते शुद्धभट भी तत्कालही सम्यक्त्व पाया। "धर्मे धर्मोपदेष्टारः साक्षिमा शुमात्मनाम् ।" . [शुभआत्माओंके लिए धर्मप्राप्रिमें धर्मोपदेशक साक्षीमात्र होते हैं। सम्यक्त्वके उपदेशसे वे दोनों श्रावक हुए। "स्वर्णास्थाता सिद्धरसात् सीसकापुणी अपि।" सिद्धरससे शीशा और लोहा दोनों स्वर्ण होते हैं। उस __: समय उस अग्रहारमें साधुओंका संसर्ग नहीं होता था इसलिए लोग श्रावकधर्मका त्याग करके मिथ्यादृष्टि हो गए थे; इमलिए .. लोग उन दोनोंकी यह कहकर निंदा करने लगे कि ये दोनों . . .. . . . . . . Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. दुर्बुद्धि, कुलक्रमागत धमको छोड़कर श्रावक हो गए हैं। इस निदाकी पुन्छ परवाह न कर वे श्रावकधर्ममें निश्चल रहे। समयपर उस विप्र-दंपत्ति के गृहस्थाश्रम-वृक्षके फलस्वरूप एक पुत्र उत्पन्न हुआ। (१०६-१११) एक बार शिशिर ऋतुमें शुद्धमट अपने पुत्र को लेकर ब्राह्मणोंकी समासे घिरी हुई धर्मअग्निटिकाके पास गया। तब सभी ब्राह्मण क्रोधसे एक स्वरमें बोल उठे, "तू श्रावक है; यहासे दूर हो ! दूर हो !" इस तरह चांड'लकी तरह उसका तिरस्कार किया गया। वे सभी धर्म अग्निटिकाको अच्छी तरह घेर कर चंठ गए। "..." द्विजातयो जातिधर्मस्तेपा हि मत्सरः ।" [मत्सर करना ब्राह्मणोंका जातिधर्म है।] उनके ऐसे वचनोंसे दुग्नी और क्रुद्ध होकर शुद्धभटने उस समाके सामने प्रतिज्ञा की,-'यदि जिनका कहा हुया धर्म संसार-समुद्रसे तारनेवाला न हो, यदि सर्वज्ञ तीर्थकर अहंन आप्त-देव न हों, बान-दर्शन-चारित्रही यदि मोक्षमार्गन हो और जगतमें यदि ऐसा सम्यक्त्व न हो तो यह मेरा पुत्र जल जाए; और मेन जो कुछ कहा है वह यदि सत्य है तो यह जलती हुई आग मेरे पुत्र के लिए जलके समान शीतल हो जाए।" यों कहकर क्रोधसे, मानो दूसरी श्राग हो इस तरह, उस साहसी ब्राह्मणने अपने पुत्रको जलती आगमें डाल दिया । उस समय, "अरं इस अनार्य ब्राह्मणने अपने पुत्रकोजला दिया।". १-धर्म अंगठी! Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६३ इस तरह क्रोधपूर्वक कहते हुए ब्राह्मणोंकी पर्पदाने उसका बहुत तिरस्कार किया। उधर वहाँ कोई सम्यग्दर्शनवाली देवी रहती थी। उसने चालकको भ्रमरकी तरह कमल के अंदर झेल लिया और ज्वाला ओंके जालसे विकराल बने हुए उस अग्निकी दाहशक्तिको हर लिया; ऐसेही उसके लड़केको मानो चित्रस्थ हो ऐसा बना दिया। उस देवीने पूर्व मनुष्य-भवमें संयमकी विराधना की थी इससे वह मरकर व्यंतरी हुई थी। उसने किन्हीं केवलीसे पूछा था,-"मुझे बोधिलाभ-सम्यक्त्वप्राप्ति कय होगी ?" केवलीने कहा था, "हे अनघे! तू सुलभबोधि होगी; मगर तुझे सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए सम्यक्त्वकी भावनामें अच्छी तरह उद्योगी रहना होगा।" इस वचनको वह हारकी तरह हृदयपर धारण किए फिरती थी। इसीलिए सम्यक्त्वका माहात्म्य बढ़ाने के लिए उसने ब्राह्मणके पुत्रकी रक्षा की थी। इस तरह जैनधर्मके प्रभावको प्रत्यक्ष देखकर ब्राह्मणोंकी आँखें विस्मयसे विस्फारित हो गई। वे ब्राह्मण जन्मसे लगाकर अष्टपूर्वी हुए अर्थात उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी ऐसी बात उस दिन देखी ।)शुद्धभटने घर जाकर अपनी स्त्रीसे यह बात कही और सम्यक्त्वके प्रभावके प्रत्यक्ष अनुभवसे उस ब्राह्मणको आनंद हुआ। विपुला साध्वीके गाढ संपर्कसे विवेक. घाली बनी हुई ब्राहाणी, "अहो ! धिक्कार है ! तुमने यह क्या किया ? सम्यक्त्वका भक्त कोई देवता पासही था इसीलिए तुम्हारा मुख उस्त्रल हुआ, मगर यह तुम्हारे क्रोधकी चंचलता है; यदि उस समय सम्यक्त्वकी महिमा प्रकट करनेवाला कोई Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ त्रिषष्टि शलामा पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. - यतावही आसपासम न होता. तो तुम्हारा पुत्र जल जाता और लोग जैनधर्मकी निंदा करते। यदि ऐसा होता तो भी जैनधर्म अप्रमाणित न होता । ऐसे प्रसंगोंपर जो लोग यह कहें कि "जैनधर्म अप्रमाण है." उनको विशेष पापी समझना चाहिए। मगा-तुमने तो ऐसा काम किया है जैसा मूर्ख मनुष्य मी नहीं करता। इसलिए हेयायपुत्र! फिर कमी एसा काम न करना।" यों कहकर वह स्त्री अपने पतिको मम्यक्त्व में स्थिर करने के लिए, यहां हमारे पास लाई है। यही सोचकर इस ब्राह्मणने हमसे प्रश्न किया था और हमने उत्तर दिया था, "यह सम्यक्त्वकाही प्रभाव है।" भगवानके ये बचन सुनकर अनेक प्राणी प्रतिबोध पाए और धममें स्थिर हुए. शुद्धभटने मट्टिनी सहित भगवानसे दीक्षा ली, और अनुकमसे उन दोनोंको केयलझान हुआ। (११२-१३६) जगतपर अनुग्रह करनेम नल्लीन और चक्रसे चक्रीकी तरह आगे चलते हुए धर्मचक्रसे मुशोभित भगवान अजितम्वामी . देशना समाप्त कर उस स्थानसे रवाना हुए और पृथ्वीपर ... विहार करने लगे। (६३७) आचार्य श्री हेमचंद्रविरचित त्रिपटिशलाका पुरुप चरित्र महाकाव्यके दूसरे पर्वमें अजितस्वामीका दीक्षा-केवल . वर्णन नामका तीसरा सर्ग समाप्त हुआ। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम् चाँया सगरका दिग्विजयी होना और चक्रवर्तीपद पाना उधर सगर राजाके शवमंदिरमें सुदर्शन नामक चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। उस चक्रकी धारा स्वर्णमय थी, उसके बारे लोहितात रत्नके थे और विचित्र माणिक्यकी घंटिकाओंके समूहसे वह शोभता था। वह चक्र नंदीघोष सहित था।निर्मल मोतियोंसे सुंदर लगता था। उसकी नाभि वनरत्नमय थी। वह घुघरियोंकी श्रेणीसे मनोहर मालूम होता था और सभी ऋतुओंके फूलोंसे अर्चित था। उसपर चंदनका लेप लगा हुआ था। एक हजार देवताओंसे वह अधिष्ठित था और आकाशमें अधर ठहरा हुआ था। मानो सूर्यका मंडल हो, ऐसी ज्वालाओंकी पक्तियोंसे विकराल ऐसे उस चक्रको प्रकट होते देख शवागारके अधिकारीने उसे नमस्कार किया। फिर विचित्र पुष्पमालाओंसे उसे पूजकर खुशी खुशी उसनेसगर राजाको इसके समाचार सुनाए। यह सुनकर गुरु के दर्शनकी तरह सगर राजाने सिंहासन, पादपीठ और पादुकाका तत्कालही त्याग किया।मनही मन चक्ररत्नका ध्यान घर,कुछ कदम उसकी तरफ चल सगर राजाने उसको नमस्कार किया। कहा है, ......"देवतीयंती यदखाण्यत्रजीविनः।" [अखजीवी लोगोंके लिए उनके भन देवके समान होते Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सर्ग ४. हैं। फिर सिंहामनगर बैठकर उसने अपने शरीरपर जिनने श्राभूपग थे वे सभी, उनार उतारकर चक्ररत्नके उत्पन्न होने के समाचार देनेवालेको देहिए। फिर वह पवित्र जलसे मंगलस्नान कर, दिव्य वस्त्राभूषण पहन,पैदलही चक्ररत्नकी पूजा करने को रवाना हुआ। कारण, "पादचारेणोपस्थानं पूजातोप्यतिरिच्यते ।" [ पैदल चलकर सामने जाना पूजासे भी अधिक है। किंकरोंकी तरह दौड़ते और गिरते-पड़ते रुकते राजा लोग सन्मानसे उसके पीछे चले। कई सेवक पूजाकी सामग्री लेकर, चुलाए नहीं गए थे तो भी, उनके पीछे पीछे चले। कारण,"स्त्राधिकारप्रमादित्वं भीतये ह्यधिकारिणाम् ।" [ अधिकारियोंको अपने अधिकारका प्रमाद भयभीत बनाता है।] देवसे जैसे विमान चमकता है वैसेही दिञ्च चक्रसे चमकत हुए शवागार में सगर पहुंचा। राजाने गगनरत्नके (सूर्यके) समान चकरत्नको देखतेही, पाँच अंगासहित पृथ्वीका स्पर्श कर, प्रणाम किया। हाथमें रोमहन्त (मोरपंखकी पीछी) लेकर, महावत जैसे सोकर उठे हुए हाथीका मार्जन करता है वैसेही, सगरने चक्रका मार्जन किया; और जलके कुंभ भरकर लानेवाले पुरुषोंके पाससे जल-ले लेकर. देवप्रतिमाकी तरह, चक्ररत्नको स्नान कराया। उसपर, उसे अंगीकार करने के लिए लगाए हुए अपने हाथकी शोभाके जैसा, चंदनका तिलक किया। विचित्र फूलों की मालासे, जयलक्ष्मीके पुष्पगृह जैसी, चक्ररत्न. की पूजा की और फिर गंध और वासक्षेप, प्रतिष्टाके समय देव. Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [६५७ प्रतिमापर जैसे प्राचार्य क्षेपन करते हैं वैसेही, उसने चक्रपर क्षेपन किया-डाला। देवोंके योग्य महामुल्यवान वस्त्रालंकारोंसे राजाने, अपने शरीरकी तरह, चक्ररत्नको सजाया। आठों दिशाओंकी जयलक्ष्मीका आकर्षण करनेके लिए, अभिचार! मंडल हों ऐसे, आठ मंगल, चक्र के सामने चित्रित किए । उसके पास, वसंतकी तरह अच्छी लुगंधवाले, पंचवर्णी फूलोंका ढेर लगाया । उसके सामने कपूर और चंदनका धूप किया। उसके धुएँसे ऐसा जान पड़ा मानो राजा कस्तूरीका विलेपन करता है। फिर सगरने चक्रको तीन प्रदक्षिणा दे, जरा पीछे हट, जय. लक्ष्मीको पैदा करने के लिए समुद्ररूप चक्ररत्नको पुनः प्रणाम किया, और नये प्रतिष्ठित देवके लिए किया जाता है वैसा चक्ररत्नका अष्टाहिका महोत्सव किया। नगर-सीमाकी देवीकी तरह नगरके सभी लागोंने भी बड़ी धूमधामसे चक्रका पूजा-महोत्सव किया। (१-२७) __फिर दिग्यात्राका विचार चक्ररत्नने प्रकट किया हो वैसे उत्सुक होकर राजा अपने महल में गया और ऐरावत हाथी जैसे गंगामें स्नान करता है वैसेही उसने स्नानगृहमें जाकर पवित्र जलसे स्नान किया। फिर रत्नस्तंभकी तरह, दिव्य वनसे अपने शरीरको साफ कर, राजाने उजले दिव्यवस्त्र धारण किए। गंधकारिकाएँ आकर, चंद्रिकाका रस बनाया हुआ हो ऐसे १-बुरे काम के लिए मंत्र प्रयोग करना । तंत्रके अनुसार प्रकारके अभिचार होते हैं-मारण, मोहन, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और वशीकरण । यहाँ वशीकरण अर्थ है। २-रलोका पना स्तंभ। ३-इतर चंदन श्रादि लगानेवाली। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ]. त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. निर्मल गोशीर्षचंदनके रससे राजाका अंगराग करने लगींशरीरपर चंदनका लेप लगाने लगी। फिर राजाने अपने अंगके संगसे अलंकारोंको अलंकृत किया। "प्रयांति धुत्तमस्थाने भूषणान्यपि भूष्यताम्" [उत्तम स्थानको पाकर आभूपण भी अधिक सुशोभित होते हैं ।] (२८-३२) फिर मंगलमुहूर्तमें, पुरोहितोंने जिसका मंगल किया है ऐसा, राजा खङ्गरत्न हाथमें ले दिग्यात्रा करनेके लिए गजरत्नपर सवार हुआ। सेनापति अश्वरत्नपर सवार हो हाथमें दंडरत्न ले राजाके आगे चला । सर्व उपद्रवरूप नीहारको' को नष्ट करनेमें दिनरत्न' के समान पुरोहितरत्न राजाके साथ चला । भोजन दानमें समर्थ और जगह जगह सेनाके लिए घरोंकी-डेरे तंबुओंकी व्यवस्था करनेवाला गृहीरत्न, मानो जंगम चित्ररस नामका कल्पवृक्ष हो ऐसे, सगर राजाके साथ चला। तत्कालही नगर आदिकी रचना करने में समर्थ, पराक्रमी विश्वकर्माके जैसा वर्द्धकी रत्नभी राजाके साथ चला। चक्रवर्तीके कर-स्पर्शसे फैलने वाले छत्ररत्न और चर्मरत्न, अनुकूल,पवनके स्पर्शसे बादल चलत है ऐसे, साथ चले। अंधकारका नाश करनेमें समर्थ मणिरत्न और कांकिणीरत्न, जंबूद्वीपका लघुरूप धारण किए हुए दो सूर्य हों ऐसे, साथ चले। बहुत दासियाँ जिसके साथ है . ऐसा अंत:पुर (यानी सागरकी रानियां) स्त्रीराज्यसे आया हो . ऐसे, चक्रीकी छायाकी तरह उसके साथ चला। दिशाओंको १--कोहरा । २-सूरज। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अजितनाथ चरित्र [६८ प्रकाशित करता था इससे दूरहीसे दिग्विजयका स्वीकार करता हुआ चक्ररत्न, चक्रवर्तीफे प्रतापकी तरह पूर्वकी तरफ मुख करके आगे चला। पुष्करावर्त मेघकी घटाके जैसे प्रयाण वाजित्रों के शब्दसे दिग्गजोंके कान खड़े करता, चक्रके साथ चलते हुए अश्वोंके खुरोंसे उड़ती हुईधूलिसे संपुट पुटकी तरह द्यावाभूमि को एक करता, रथों और हाथियोंपर फर्राती हुई ध्वजाओंके अग्रभागमें बनाए हुए पाठीन जातिके मगरादिसे मानो आकाशरूपी महासमुद्रको जलजंतुमय बनाता हो ऐसे दिखता; सात तरफसे.भरते हुए मदजलकी धारावृष्टिसे सुशोभित हाथियोंकी घटाके समूहसे दुर्दिन दिखाता, उत्साहसे उछलते होनेसे, मानो स्वर्गमें चढ़नेकी इच्छा रखते हों ऐसे करोड़ों प्यादोंसे पृथ्वीको चारों तरफसे ढकता, सेनापतिकी तरह आगे चलते, असा प्रतापवाले और सर्वत्र अकुंठित शक्तिवाले चक्ररत्नसे सुशोभित; सेनानीके धारण किए हुए दंडरत्न द्वारा, हलसे खेतकी जमीनकी तरह, विषम-ऊबड़ खाबड़ भूमिको एकसी बनाता और हर रोज एक एक योजनके चलनेसे भद्रद्वीपकी तरह लीलासे रस्तेको समाप्त करता, इंद्रके समान वह चक्री कई दिनोंके बाद पूर्व दिशामें आई हुई गंगानदीके ललाटपर तिलकके समान मगध देशमें पहुँचा । (३३-५०) वहाँ सगर चक्रीकी आज्ञासे वर्द्धकी रत्नने, अयोध्याकी छोटी बहन हो ऐसी, छावनी बनाई। आकाश तक ऊँची और १-दोनों हाथोंके पंजीको जोड़कर बनाए हुए संपुटकी तरह। २-श्रा काश और पृथ्वीको। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.} त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. बड़ी बड़ी अनेक इस्तिशालाओस, बड़ी बड़ी गुफाओं के समान हजारों अश्वशालाओस, विमानके समान हवेलियोंस, मेवकी घटाके समान मंडपोंस, मानों माँमें ढालकर बनाई गई हों ऐसी समान प्राकृनिवाली दुकानोंस और अंगाटक-चौराहे वगैरा की रचनासे राजमार्गकी स्थिनिको बनाती हुई वह छावनी शोभती थी। उसका विस्तार नौ योजन और उसकी लंबाई बारह योजन थी। (५१-५३) वहाँ पोपयशाला गजान मगधतीर्थ कुमारदेवका मनमें ध्यान करकं अष्टम तप किया और सर्व वेषभूषा त्याग, दर्भकी चढाईका श्राश्रय ले, शत्ररहित हो, ब्रह्मचर्य पालते और जागते हुए उसने तीन दिन बिताए ! अष्टम तप पूर्ण हुआ तब राजाने पोषधगृहसे निकलकर पवित्र जलसे स्नान किया। फिर राना रथपर सवार हुश्रा । ग्थ पांडुवर्णकी ध्वजाआंसे ढका हुआ था। वह, अनेक तरहक हथियारोंसे ढका होनेके कारण फेन और जलजंतुीवाल समुद्रक जैसा जान पड़ता था। उसके चारों नरफ चार दिव्य घंटे लगे हुए थे, उनसे वह ऐसा शोभता था जैसे चार चंद्र और सूर्यासे मेरु पर्वत शोमता है । इंद्रके उचैःश्रवा नामक घोड़कि जैसे ऊँची गर्दनवांत घोई उसमें जुते हुए थे। (५४-६०) चतुरंगिनी-हाथी, घोड़े, रथ और प्यादांकी-सेनास, वह चार प्रकारकी-साम, दाम, दंड और भेदवाली-नीतिके समान शोभता था। उसके सरपर एक छत्र था और दोनों तरफ दो चवर थे। ये तीनों उसकी तीनों लोकमें व्याप्त यशरूपी बलक तीन अंकरके समान मालूम होते थे। गनाका रथ पहियोंकी Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री अजितनाथ-चरित्र [६६१ नाभि जितने गहरे जल तक समुद्र में पहुंचा। राजा हाथमें धनुष लिए रथमें बैठा था। जयलक्ष्मीरूपी नाटिकाके नाँदीके समान धनुषकी डोरी उसने बजाई और भंडारमेंसे जैसे रत्न निकालते हैं पैसेही उसने भाथेमेंसे तीर निकाला। फिर धातकीखंडके मध्यमें रहे हुए इष्वाकार पर्वतके जैसे उस बाणको धनुषके साथ जोड़ा। अपने नामसे अंकित और कानके आभूषणपन को प्राप्त उस सोनेके तीक्ष्ण बाणको राजाने कान तक खींचा और उसे मगधतीर्थके अधिपतिकी तरफ चलाया। वह आकाशमें उड़ते हुए गरुड़की तरह पंखोंसे सनसनाता निमिषमात्रमें बारह योजन समुद्र लाँधकर मगधतीर्थकुमारदेवकी सभामें पड़ा। श्राकाशसे गिरनेवाली बिजलीकी तरह, उस बाणको गिरते देख, वह देव गुस्सा हुआ ! उसकी भ्रकुटियाँ चढ़ गई। इससे वह भयंकर मालूम होने लगा। फिर थोड़ा विचार कर, खुद उठ उसने उस बाणको हाथमें लिया। उस पर उसे सगर चक्रवर्तीका नाम दिखाई दिया। हाथमें बाण लिए हुए वह अपने सिंहासनपर बैठा और गंभीर गिरासे वह सभामें इस तरह कहने लगा- (६१-७१) ___"जंबूद्वीपके भरत क्षेत्रमें इस समय सगर नामक दूसरे चक्रवर्ती उत्पन्न हुए हैं। भूतकालके, भविष्यकालके और वर्तमान कालके मगधपतियोंका यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे चक्रवर्तियोंको भेट दें।” (७२-७३) फिर भेटकी वस्तुएँ ले नौकरके समान आचरण करता हुआ वह मगधपति विनय सहित सगर चक्रीके सामने आया। उसने आकाशमें रहकर वक्रीका फेंका हुआ वाण, हार, बाजू Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. बंध, करणाभरण, भुजबंध श्रादि आभूपण, बंप और देवदून्यवन राजाको भेट किए ! जिस तरह वार्तिक रसेंद्र देता है (यानी वैद्य जैसे पारा देता है वैसेही ) उसने राजाको मगवतीर्थका जल मेट किया। फिर पद्माकोशके समान हाय लोड़के उसने चक्रवर्तीसे कहा, "इस भरत क्षेत्रकी पूर्व दिशाके प्राँत मागमें, श्रापके एक सामंतकी तरह, में रहता हूँ।" (७१-5) __ चक्रवर्तीन उसे अपना नौकर स्वीकार किया और एक दुर्गपालकी तरह सत्कार करके विदा किया । फिर उगते हुए सूरजकी तरह अपने दजसे दिशाओंको भरते हुए सगर चक्रवर्ती समुद्रसे बाहर निकला और अपनी छावनी में आया। राजाओंमें गजेंद्र के समान उन महाराजन स्नान और देवपूंना फरकं परिवार सहित पारणा किया और वहाँ मागवतीर्थके अधिपनिका अष्टाद्विका उत्सव क्रिया । कारण "स्वामिदत्तमाहात्म्याः खलु सेवकाः ।" [ सेवकोंका माहाल्य-सम्मान स्वामी ही बढ़ाते हैं।] (७-२) उसके बाद सर्व दिग्विजयोंकी लक्ष्मियोंको अर्पण करने में जामिन समान चक्ररत्न दक्षिण दिशाकी तरफ चला । अपनी सेनास पत्रत सहित पृथ्वीको चलायमान करता हुआ चक्रवती दक्षिण और पश्चिम दिशा मध्य मार्गसे चक्रके पीछे चला। समी दिशाओंको विलय करनेकी बढ़ प्रतिज्ञावाला सगर राला मागमें कई राजाश्रीको, वृक्षोंको जैसे पवन उरलाइता है वैसे, गनदियाँस उठाता, कइयों को शालिक पांघकी तरह पुनः राजगद्दीपर बिठाना, कइयोंको कीर्तिम्भ होगसे, नये राजा . . . . Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र बनाता, घेतकी जातिके पेड़ोंको नदीका पूर झुकाता है वैसे कइयोंको, अपने सामने सर झुकवा कर छोड़ता, कइयोंकी उँगलियोंको कटवाता, कइयोंके पाससे रत्नोंका देड ग्रहण करता, कइयोंसे हाथी घोड़े छुड़ाता, और कइयोंको छत्रहीन बनाता हुआ क्रमसे दक्षिण समुद्रके किनारे आपहुँचा । वहाँ हाथीसे उतरकर क्षणभरमें तैयार हुई छावनीके अंदर एक जगहमें उसने इस तरह निवास किया जिस तरह इंद्र विमानमें निवास करता है। (८३-८६) वहाँसे चक्री पौषधशालामें गया और अष्टमतप कर पौपध ले वरदाम नामके वहाँके अधिष्ठायक देवका ध्यान करने लगा। अष्टम भक्तके अंतमें पोषध व्रत पार कर, सूर्यमंडलमेंसे लाया गया हो ऐसे रथमें बैठा । जैसे मथानी छास विलोनेकी मथनी में प्रवेश करती है वैसेही उसने रथकी नाभि तक समुद्रके जलमें प्रवेश किया। फिर उसने धनुषपर चिल्ला चढ़ाकर उसकी आवाज की। बाससे घबराए हुए और कान मुकाए हुए जलचरोंने भयभीत होकर वह आवाज सुनी। सपेरा जैसे विलमेंसे सर्पको पकड़ता है वैसेही उसने एक अतिशय भयंकर वारण भाथेमेंसे निकाला । उसे चिल्लेपर चढ़ाकर किसी सूचना देनेके लिए आए हुए सेवककी तरह अपने कानके पास तक खींचकर इंद्र जैसे पर्वतपर वज्ञ डालता है वैसे, वरदामपतिके स्थानकी तरफ चला दिया। अपनी सभामें बैठे हुए वरदाम कुमार देवके आगे जाकर वाण ऐसे पड़ा जैसे किसीने मुद्गरका आघात किया हो। (१०-६७) - "इस भसमयमें कालने किसका खाता देखा है ?" कहते Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. - - हुए वरदामपतिने उठकर वाणको हाथमें लिया; उसपर सगर राजाका नाम देखकर वह इस तरह शांत हो गया जिस तरह नागदमनी दवाको देखकर सर्प शांत हो जाता है। उसने अपनी सभाके लोगोंसे कहा, "जंबृद्वीपके भरत क्षेत्रमें सगर नामक दूसरे चक्रवर्ती उत्पन्न हुए हैं। घर आए हुए देवकी तरह विचित्र वोंसे और महा मूल्यवान रत्नालंकारोंसे यह चक्रवर्ती मेरे लिए पूजने लायक है।" (६८-१००) वह भेटें ले, तत्कालही रथमें बैठे हुए चक्रवर्तीके पास आकर अंतरीक्षमें खड़ा रहा और भंडारीकीतरह उसने रत्नोंका मुकुट, मोतियोंकी मालाएँ, बाजूबंद और कड़े इत्यादि चक्रीको भेंट किए। बाण भी वापस दिया और कहा, "आजसे इंद्रपुरीकं समान अपने देशमें भी, मैं आपका आज्ञाकारी बनकर वरदामतीर्थके अधिकारीकी तरह रहूँगा।" (१०१-१०४) कृतज्ञ चक्रवर्तीने उनसे भेट ले, उसका कथन स्वीकार कर, उसे सम्मान सहित विदा किया। (१०५) जलबाजियोंको (जलके घोड़ोंको ) देखकर जिसके स्थके घोड़े हिनहिना रहे हैं वह चक्रवर्ती चक्रके मार्गका अनुसरण करते हुए वापस लौटा और अपनी छावनी में आया। फिर उसने स्नान तथा जिनपूजा करके अष्ठम तपका पारणा किया। फिर वरदामकुमारका बड़ा अष्टाह्निका उत्सव किया। कारण ........"भक्तेष्वीशा हि प्रतिपत्तिदा।" [ईश अपने भक्तोंका सम्मान बढ़ानेवाले होते हैं। (१०६-१०८) Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६५ वहाँसे चक्ररत्नके मार्गसे वे पृथ्वीपति सेनाको रजसे सूरजको ढकते हुए पश्चिम दिशाकी तरफ चले । गरुड़ जैसे दूसरे देशके पक्षियोंको उड़ाता है वैसेही वे द्राविड देशके राजाओंको भगाते, सूर्य जैसे उल्लु ओंको अंधा बनाता है वैसेही वे आंध्रके राजाओंको अंधा बनाते, तीन तरहके चिह्नोंसे ( यानी बात, पित्त और कफके विकारसे ) जैसे प्राण नष्ट होते हैं वैसेही, वे कलिंग देशके राजाओंके राजचिह्नोंको छुड़ाते, दर्भके विस्लरमें रहे हों वैसे, विदर्भदेशके राजाओंको निःसत्व बनाते, कपड़ेवाला जैसे स्वदेशका त्याग करता है वैसेही, महाराष्ट्र देशके राजाओंसे उनके देशका त्याग कराते, वाणोंसे जैसे घोड़े अंकित किए जाते हैं वैसेही, अपने वाणोंसे कोकण देशके राजाओंको अंकित करते, तपस्वियोंकी तरह लाट देशके राजाओंको ललाटपर अंजलि रखनेवाला वनाते, बड़े कछुओंकी तरह कच्छ देशके सभी राजाओंको चारों तरफसे संकोच कराते और कर सोरठ देशके राजाओंको, देशकी तरह अपने वशमें करते, वे क्रमसे पश्चिम समुद्रके किनारेपर आए । ( १०६-११४) वहाँ छावनी डाल प्रभास तीर्थ के अधिष्ठायक देवको हृदयमें धारण कर, अष्टम तप कर, उन्होंने पौपधशालामें पौषध ग्रहण किया। अष्टमके अंतमें सूर्यकी तरह बड़े रथपर सवार हो, चक्रीने रथकी नाभि तक समुद्र में प्रवेश किया। फिर उसने चिल्ला चढ़ाकर वाणके-- प्रयाणके कल्याणकारी, जयवाजिनके शब्दके जैसी, धनुपकी टंकार की और प्रभास तीर्थके देवके निवासस्थानकी तरफ, संदेश पहुँचानेवाले दूतके जैसा अपने नागसे अंकित बागा चलाया। पक्षी जैसे पीपल पर गिरता है Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्ष २. सर्ग ४. वैसेही वह वागा बारह योननपर स्थित प्रभासदेवकी समान आकर गिरा। बुद्धिमानौम श्रेष्ठ प्रभासदेवने बाणको देखा और उसपर खिले हुए सगर चक्रवर्तीके नामके अक्षर पढें । तत्काल ही प्रभासपति, सगरके वारणके साथ अनेक तरहकी भेटें लेकर इस तरह चक्रीके सामने चला जैसे घर पाए हुए गुरु-अतिथिके सामने गृहस्थ जाते हैं, और उसने आकाशमें रहकर मुकुटमणि, कंठभूषण, कड़े, कटिसूत्र, बाजूबंद और वाण चक्रवर्तीको भेट किए, तथा नम्रतापूर्वक अयोध्यापतिसे कहा, "हे चक्रवर्ती महाराज ! आजसे मैं अपने स्थानमें आपका आज्ञाकारी होकर. रहँगा।” (११५-१२३) तब चक्रवर्तीने भेट स्वीकार कर आदर सहित उससे बातचीत की और एक नौकरकी तरह उसे विदा किया। फिर वहाँसे चक्रवर्ती वापस छावनी में आया और स्नान तथा जिनपूजा कर उसने अपने परिवारके साथ बैठकर अष्टमभक्तका पारणा किया। आनंदित चक्रीने वरदामपतिकी तरह प्रभासपतिका भी वहाँ अष्टाह्निका महोत्सव किया। (१२४--१२६) वहाँसे चक्रके पीछे, प्रतीपगामी (यानी पीछे लौटनेवाले) समुद्रकी तरह चक्री अपनी सेनाके साथ सिंधुके दक्षिण किनारे। से पूर्वकी तरफ चला ! रस्तेमें सिंधु देवीके मंदिरफे पास उसने आकाशमें तुरतके उतरे हुए गंधर्व नगरके जैसी, अपनी छावनी डाली और सिंधुदेवीका मनमें स्मरण कर श्रष्टम तप किया। इससे सिंधुदेवीका रत्नासन कंपित हुश्रा। देवीने अवधिज्ञानसे जाना कि चक्री पाया है। तत्कालही वह भक्तिपरायण देवी भेट लेकर सामने आई। उसने श्राकाशमें रहकर निधिके जैसे एक Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গী ঋলিলনাগ-বিম্ব [६६७ हजार आठ रत्नके कुंभ, मणिरत्नोंसे विचित्र दो भद्रासन, बाजूबंद, कड़े वगैरा रत्नोंके आभूषण और देवदूष्य वस्त्र चक्रवर्तीको भेट किए। फिर वह बोली, "हे नरदेव ! तुम्हारे देशमें रहनेवाली मैं तुम्हारी दासीकी तरह आचरण करूँगी। मुझे आज्ञा दीजिए।" अमृतके चूटकी जैसी वाणीसे देवीकासत्कार करके चक्रीने उसे विदा किया और फिर पारणा कर पहलेहीकी तरह (अर्थात जैसे पहलेबाले देवताओंका किया था वैसे) सिंधुदेवीका अष्टाह्निका उत्सव किया । कारण___ "महात्मनां महीनामुत्सवा हि पदे पदे ॥" [महान ऋद्धिवाले महात्माओंके लिए पद पदपर उत्सव होते हैं।] (१२७-१३५) अपनी बंधनशालासे जैसे हाथी निकलता है वैसेही, लक्ष्मीके धामरूप, आयुधशालासे निकलकर चक्र वहाँसे उत्तर पूर्वके मध्यमें चला । उसके पीछे चलते हुए कई दिनोंके बाद चक्रवर्ती वैताव्य महागिरिकी दक्षिण दिशा में पहुँचा और विद्याधरके नगरके जैसी छावनी डालकर, उसने वैतान्यकुमारका मनमें स्मरण कर अष्टमतप किया। अष्टमतप पूरा हुआ तब वैतादयाद्रिकुमार देवका श्रासन काँपा। अबधिज्ञानसे उसने जाना कि भरतार्द्धकी सीमापर चक्रवर्ती पाया है। उसने सगरके पास श्रा, आकाशमें रह, दिव्यरत्न, वीरासन, भद्रासन और देवदूष्य वस्त्र भेट किए। फिर प्रसन्न होकर उसने स्वस्तिवाचककी तरह आशीर्वाद दिया, "चिर जीरो! बहुत सुख पाओ! और चिरकाल तक विजयी बनो।" चकवीने अपने Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८] त्रिषष्टि शलाका पुस्य-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. प्रियबंधुकं समान उससे सम्मानके साथ बातचीत की और तब उसे विदा दे अष्टमनपका पारगणा किया तथा अपने प्रसादरूपी प्रासादमें स्त्रणकलशकं समान उसका अष्टाह्निकाउत्सव क्रिया। (१३६-१४४) फिर चक्रके पीछे चलकर चक्री तमिस्रा गुफाके पास पहुँचा और वहाँ छावनी डालकर सिंहकी तरह रहा । वहाँ उसने कृतमाल देवका स्मरण करकं अष्टमतप किया। महान पुरुष भी "... "कृत्यं महांतो न त्यजति हि ।" [महान पुरुष जो काम करने योग्य होता है उसको नहीं छोड़ते हैं।] अष्टम तपका फल फला; कृतमाल देवताका श्रासन __ काँपा। कहा है कि "तादृशामाभियोगे हि कंपते पर्वता अपि ।" [वैसे (पराक्रमी) पुरुप जब उद्योग करते हैं तब पर्वत __ भी काँप उठते हैं 1] कृतमाल देवन अवधिज्ञानसे चक्रीका आना जाना और वह स्वामीके पास आतें है वैसे श्राकाशमें आकर खड़ा रहा। उसने त्रियोंके योग्य चौदह तिलक दिए और अच्छे, बंग, वन्त्र, गंधचूर्ण, माला इत्यादि चीजें चक्रीको भेट की और "हे देव आपकी जय हो जय हो।" कहकर चक्रवर्तीकी सेवा स्वीकार की। ___"सेवनीयाचक्रिणो हि देवैरपि नरैरिव ।" मनुष्योंकी नग्ह देवताकि लिए भी चक्रवर्ती संवा करने योग्य होते हैं। चक्रवर्तीन तह सहित बातचीत करके Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र दर उसे विदा किया और अष्टमभक्तके अंतमें परिवार सहित पारणा किया। वहाँ सगर राजाने आदरपूर्वक कृतमालदेवका अष्टाह्निका उत्सव किया। कारण यह कृत्य देवताओंके लिए प्रीतिदायक होता है। (१४४-१५२) अष्टाह्निका उत्सव पूरा हुआतब चक्रवतीने पश्चिम दिशाके सिंधु निष्कुटको जीतने जानेकी सेनापति रत्नको आज्ञा की। सेनापतिने सर झुकाकर पुष्पमालाकी तरह यह आज्ञा स्वीकार की। फिर वह हस्तिरत्नपर सवार होकर चतुरंगिणी सेना सहित सिंधुके प्रवाहके निकट आया। वह अपने उग्र तेजसे भारतवर्ष में ऐसा प्रसिद्ध था मानो वह इंद्र था या सूरज था । वह सभी तरहके म्लेच्छ लोगोंकी भाषाएँ और लिपियाँ जानता था। वह सरस्वतीके पुत्र के समान सुंदर भाषण करता था। भारतमें जितने देश हैं उनमें और जलस्थल में जितने किले हैं उनमें जाने-आनेके मागोंको वह जानता था। मानो शरीरधारी धनुर्वेद हो ऐसे सभी तरहके हथियार चलाने में वह दक्ष था। उसने स्नान करके प्रायश्चित्त और कौतुकमंगल किया। शुक्लपक्षमें जैसे कम नक्षत्र दिखते हैं वैसे उसने बहुत ही कम मणियोंके आभूषण पहने थे। इंद्रधनुष सहित मेघकी तरह धीर सेनापतिने धनुष और परवालेके विस्तारवाले समुद्रकी तरह चर्मरत्न धारण किया। उसने दंडरत्न ऊँचा किया था इससे वह ऐसा शोभने लगा जैसे पुंडरीक कमलसे सरोवर शोभता है। दोनों तरफ डुलते हुए चमरोंसे वह ऐसा शोभता था मानो उसने शरीरपर चंदनके तिलक-छापे लगाए हों और बाजोंकी आवाजसे वह आकाशको ऐसे गुंजा रहा था जैसे मेघ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७..] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. गर्जना करके गुंजाता है। इस तरह तैयार होकर सेनापति सिंधुनदीके प्रवाह के पास आया। उसने हाथसे चर्मरत्नको स्पर्श . किया, इससे वह बढ़कर जहाजसी प्राकृतिवाला बन गया। उसमें सेनासहित सवार होकर सेनापति सिंधुनदी उतरा।लोहेके ग्→टेसे जैसे उन्मत्त हाथी छूटता है वैसेही, महावलवान सेनापति सिंधुके प्रवाहको पार कर सेनासहित चारों तरफ फैल गया। उसने सिंहल जातिके, वर्वर जातिके, टंकण जातिके और दूसरे म्लेच्छ जातियोंके एवं यवनोंके द्वीपॉपर आक्रमण किया। कालमुख, जोनक और ताठ्यपर्वतके मूलमें रही हुई अनेक म्लेच्छ जातियोंसे उसने स्वच्छंदता सहित देह लिया। सभी देशोंमें श्रेष्ठ कच्छदेशको, बड़े बैलकी तरह, उस सेनापतिने वशमें कर लिया। वहाँसे लौट, सभी म्लेच्छोंको जीत, वहाँफी समतल भूमिमें, जलक्रीड़ा करके निकले हुए हाथीकी तरह, उसने मुकाम किया । म्लेच्छ लोगोंके मंडपों, नगरों और गाँवोंके अधिपति तत्कालही वहाँ ऐसे खिंचकर आये जैसे पाश (जाल) में फंसे हुए प्राणी विंचकर पाते हैं । तरह तरहके आभूपण, रत्न, वस्त्र, सोना, चाँदी, घोड़े, हाथी, रथ और दूसरे भी अनेक उत्तम पदार्थ-जो उनके पास थे-लाकर उन्होंने इस तरह सेनापतिको भेट कर दिए जिस तरह किसीकी रखी हुई धरोहर वापस लाकर सौंपते हैं। फिर उन्होंने सेनापतिसे कहा, "हम आपके वशमें, कर देनेवाले नौकरोंकी तरह रहेंगे।" (१५४-१७३) ___ उनसे भेटें स्वीकार कर, उनको विदा दे, सेनापति रत्न चर्मरत्नसे सिंधु पार हुआ। और चक्रवर्तीके पास श्राफर उसे Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७०१ सारी चीजें भेट कर दी। कहा है,. "कृष्टाश्चेष्टय इवायोति शक्त्या शक्तिमतां श्रियः॥" [बलवानोंको उनकीशक्तिके द्वाराही लक्ष्मी दासीकी तरह मिल जाती है। ] नदियाँ जैसे समुद्रसे मिलने आती हैं इसी तरह दूर दूरसे आकर राजा जिनकी सेवा करते हैं ऐसा चक्रवर्ती बहुत दिनों तक छावनी डालकर वहींरहा । (१७४-१७६) एकबार उन्होंने तमिस्रा गुफाके दक्षिण द्वारके किवाड़ खोलनेकी दडरत्नरूपी कुंजीको धारण करनेवाले, सेनापतिको आज्ञा दी। उसने तमिस्रा गुफाके पास जा, उसके अधिष्ठायक कृतमालदेवका मनमें ध्यान कर अष्टमतप किया। कारण, ..........."प्रायस्तपोग्राह्या हि देवताः ॥" । देवता प्रायः तपसे ग्राह्य (ग्रहण करने लायक, प्रसन्न करने लायक ) होते हैं। अष्टमतपके अंतमें वह स्नानविलेपन कर, शुद्ध वस्त्र पहन, धूपदानी हाथमें ले, देवताके सामने जाते हैं वैसे, गुफाके सामने गया। गुफाको देखतेही उसने प्रणाम किया और हाथमें दंडरत्न लेकर वह द्वारपर द्वारपालकी तरह खड़ा रहा। फिर वहाँ अष्टाह्निका उत्सव कर,अष्टमांगलिक चित्रित करसेनापतिने दंडरत्नसे गुफाके द्वारपर आघात किया। इससे कड़ड़ शब्द करते हुए सूखी हुई फलीके संपुटकी तरह, उसके किवाड़ खुल गए । कड़ड़ शब्दकी आवाजसे किवाड़ोंके खुलनेकी बात चक्रवर्तीने जान ली थी,तो भी पुनरुक्तिकी तरह सेनापतिने जाकर वह बात चक्रीसे निवेदन की। चक्रवर्ती हस्तिरत्नपर सवार हो, चतुरंगिणी सेना सहित, मानो वह एक दिग्पाल Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. हो वैसे, गुफाके पास पहुँचा। उसने हस्तिरत्नके दाहिने कुंभस्थलपर, दीवटपर दीपककी तरह, प्रकाशमान मणिरत्न रखा। फिर अस्खलित गतिवाले केसरीसिंहकी तरह, चक्रवर्तीने चक्रके पीछे पचास योजन विस्तारवाली तमिस्रागुफामें प्रवेश किया और उस गुफाकी दोनों तरफकी दीवारोंपर, गोमूत्रिकाके आकारके पाँच सौ धनुप विस्तारवाले और अंधकारका नाश करनेवाले कांकणीरत्नके उनचास मंडल. एक एक योजनके अंतरसे वनाए । [खुला हुआगुफाका द्वार और कांकणीरत्नके बने हुए मंडल जब तक चक्री जीवित रहता है तबतक वैसेही रहते हैं। वे मंडल मानुपोत्तरके चारों तरफकी चाँद सूरजकी श्रेणीका अनुसरण करनेवाले थे, इसलिए उनसे सारी गुफामें प्रकाश हो रहा था। फिर चक्री गुफाकी पूर्व दिशाकी दीवारसे निकलकर पश्चिम दीवारके मध्यमें जाती हुई उन्मग्ना और निमग्ना नामकी, समुद्रमें जानेवाली दो नदियोंके पास आया। उन्मग्ना नदी में डाली हुई शिला भी तैरती है और निमग्ना नामकी नदी में डाली हुई तूंवी भी डूब जाती है। वर्द्धकीरत्नने तत्कालही उनपर एक पुल बनाया और चक्रवर्ती सारी सेना सहित, घरके एक जलप्रवाहकी तरह उन नदियोंको पार कर गया। क्रमशः वह तमिन्नाके उत्तर द्वारपर पहुँचा; इसके द्वार तत्कालही अपने आप कमल के कोशकी तरह खुल गए। हाथीपर बैठा हुआ चक्रवर्ती, सूर्य जैसे वादलोंमेंसे निकलता है वैसे, सपरिवार गुफासे बाहर निकला । (१७७-१६५) दुखकारक है पतन जिनका ऐसे और भुसबलके मदसे . उद्धत बने हुए आपात जातिके भील लोगोंने सागरकी तरह Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७०३ आते हुए सगर चक्रवर्तीको देखा। अपने अस्त्रोंके प्रकाशसे चक्री सूर्यके तिरस्कारका कारण बनायाः पृथ्वीकी रज खेचरकी स्त्रियोंकी दृष्टियोंको विशेष निमेष देता था, (यानी रजसे उनकी आँखें मुंद जाती थीं) अपनी सेना के भारसे पृथ्वीको कपाता था और उसके तुमुल शब्दसे स्वर्ग और पृथ्वीको बहरा बनाता था। वह असमयमें मानो परदेसे बाहर निकला हो, मानो आकाशसे नीचे उतरा हो, मानो पातालसे बाहर आया हो ऐसा मालूम होता था। वह अगणित सेनासे गहन और आगे चलते हुए चकसे भयंकर जान पड़ता था। ऐसे चक्रीको आते देखकर वे तत्कालही क्रोध व दिल्लगीके साथ आपसमें इस तरह वातचीत करने लगे। ( १६६-२००) "हे पराक्रमी पुरुषो! अप्रार्थितकी' प्रार्थना करनेवाला; लक्ष्मी, लज्जा, बुद्धि और कीर्तिसे वर्जितः सुलक्षण रहित अपने आत्माको वीर माननेवाला और अभिमानसे अंध बना हुआ यह कौन आया है ? अरे! यह कैसे अफसोसकी बात है, कि यह भैंसा केसरीसिके अधिष्ठित स्थानमें (यानी सिंहकी गुफामें) घुसता है!" ( २०१-२०२) फिर वे महा पराक्रमी म्लेच्छ राजा, इस तरहसे, चकवर्तीके अगले भागकी सेनाको सताने लगे, जिस तरह असुर इंद्रको . सताते हैं। थोड़ीही देरमें सेनाके अगले भागके हाथी भाग गए, घोड़े नष्ट हो गए, रथों की धुरियाँ टूट गई और सारीसेना परा वर्तनभावको प्राप्त हुई ( अर्थात छिन्न भिन्न हो गई)। भील ___ लोगोंके द्वारा सेना नष्ट की गई है यह बात जानकर चकवर्तीका -~जिसके पानेकी कोई प्रार्थना नर्दी करता, यानी मौत। - Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७०४ त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. सेनापति, गुस्सा होकर सूर्यकी तरह, अश्वरत्नपर सवार हुआ और वह महापराक्रमी सेनापति नए उगे हुए घूमकेतुके जैसे खगरत्नको खींचकर, हरेक न्लेच्छपर आक्रमण करने लगा। जैसे हाथी वृक्षोंका नाश करता है वैसेही, उसने कइयोंको नष्ट कर दिया, कइयोंको मल दिया और कइयोंको भूमिपर सुला दिया । (२०३-२०७) सेनापतिके द्वारा खदेड़े हुए किरात कमजोर होकर, पवनके द्वारा उड़ाई हुई लईकी तरह, बहुत योजन तक भाग गए। वे दूर सिंधु नदी के किनारे इकट्ठे हुए और रेतीके विस्तार बनाकर वलहीन वहाँ बैठे। उन्होंने अत्यंत नाराज होकर अपने कुल. देवता मेघकुमार और नागकुमारके उद्देश्यसे अष्टम भक्त तप किया। तपके अंतमें उन देवताओंके आसन काँपे। उन्होंने अवधिज्ञानसे, सामने देखते हैं ऐसे, किरात लोगोंकी दुर्दशा देखी । कृपासे पिताकी तरह उनकी दुर्दशासे दुःखी होकर मेघकुमारदेव उनके पास आए और आकाशमें रहकर कहने लगे, हे वत्सो! तुम किस हेतुसे इस हालतमे हो ? हमें यह बात तत्काल बताओ, जिससे हम उसका प्रतिकार करें। (२०८-२१३) किरातोंने कहा, "हमारा देश ऐसा है जिसमें कोईआदमी. बहुत कठिनवासे प्रवेश कर सकता है, उसीमें किसीने, समुद्रम वडवानलीकी तरह प्रवेश किया है। उससे हारकर हम आपकी शरणमें आए हैं। आप ऐसा कीजिए, जिससे जो पाया है वह वापस चला जाए और फिर कभी लौटकर न आए।" - देवना बोले, "जैसे पतिंगा अग्निको नहीं जानता वेसेही, Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अजितनाथ-चरित्र [७०५ .तुम इससे अजान हो। यह महा पराक्रमी सगर नामका चक्रवर्ती है । इसे सुर या असुर कोई भी नहीं जीत सकता है। उसकी शक्ति इंद्रके समान है। वह शस्त्र, अग्नि, मंत्र, जहर, अल और तंत्रविद्या-सबके लिए अगोचर है ( यानी किसीका उसपर असर नहीं होता है।) कोई वजकी तरह उसको भी हानि नहीं पहुंचा सकता है। तो भी तुम्हारे अति आग्रहसे हम उसको तकलीफ देनेकी कोशिश करेंगे। हमारी कोशिशका परिणाम इतनाही होगा जितना मच्छरके उपद्रवसे हाथीको होता है।" ( २१४-२१६) - फिर वे मेषकुमार देवता वहाँसे अदृश्य हो गए । उन्होंने चक्रवर्तीकी सेनामें दुर्दिन प्रकट किया। उन्होंने घने अंधकारसे दिशाओंको इस तरह भर दिया कि कोई किसीको ऐसे नहीं देख सकता था जैसे जन्मांध मनुष्य किसीको नहीं देख सकता है। फिर उन्होंने छावनीपर सात दिन-रात, आँधी और तूफान सहित मूसलाधार पानी बरसाया। प्रलयकालके समान उन आँधीपानीको देखकर चक्रवर्तीने अपने हस्त-कमलसे चर्मरत्नको स्पर्श किया। तत्कालही वह छावनीके जितना फैल गया और तिरछा होकर जलपर तैरने लगा। चक्रवर्ती सेना सहित उसपर जहाजकी तरह सवार हो गए, फिर उन्होंने छत्ररत्नको स्पर्श किया। इससे वह भी चर्मरत्नकी तरह फैल गया और सारी छावनीपर बादलकी तरह छा गया। फिर चक्रीने छत्रके डंडेपर प्रकाशके लिए मणिरत्न रखा। इस तरह रत्नप्रभा पृथ्वीके अंदर जैसे असुर और व्यंतरोंका समूह रहता है वैसेही,चर्म Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ७.६], त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २ सर्ग ४. . रत्न और छत्ररत्नके अंदर चक्रवर्ती, सारी फौज सहित सुखसे रहने लगा। गृहाधिप रत्न अनाज, शाक-पान और फलादिक, सवेरे बोकर शामके वक्त सबको देने लगा। कारण, उस रत्नका माहात्म्यही ऐला है। मेघनुमार अवंड चारासे इसी तरह वरसते रहे जिन तरह दुष्ट लोगोंकी दुष्ट वाणी वरसती है। (२२०-२२६) एक दिन मगर चक्रवर्ती कोप सहित सोचने लगा, "वे कौन है जो मुझेसतानका काम कर रहे हैं?" उसके पास रहनेवाले सोलह हजार देवनाओंने यह बात जानी। वे कवच पहन, अन्न-शब धारण कर, नेयकुमारों के पास गए और कहने लगे, "हे अल्पबुद्धि नीचो! क्या तुम नहीं जानते कि यह चक्रवर्ती देवताओंके लिए भी अजेय है। अवमी अगर तुम अपनी मलाई चाहते हो तो यहाँस चले जाओ, अन्यथा कलेके माइकी तरह लंड खंड कर दिए जाओगे।" ___उनकी बातें सुनकर भयकुमार देववर्षा बंद कर जलमें मछलीकी तरह छिप गए और आपात जातिके किरातोंके पास जाकर बोने, "चक्रवर्तीको हम नहीं जीत सकते।" यह सुन किरात भयभीत हो,त्रियोंकी तरह बन्न धारण कर रत्नोंकी मेट ते, मगर राजाकी शरणमें गए। वहाँ वे आधीन हो, चक्रवर्तीके चरणों में गिर, हाथ जोड़ कहने लगे, "हम अज्ञान और दुर्मद है इसीलिए हमने, अष्टापद पशु मेघपर छलांग मारता है । श्रापको सताना चाहा। हे प्रमो! आप हमें हमारे अविचारी कामके लिए क्षमा कीजिए। हम आजसे आपकी यात्रा पालेंगे; आपके सामंत, प्यादे या संबक बनकर रहेंगे। हमारी स्थिति अय आपके हाथमें है। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्री अजितनाथ-चरित्र ... [७०७ - ..."प्रणिपातावसानो हि कोपाटोपो महात्मनाम् ।" [महात्माओंका कोप प्रणिपात.पर्यंत ही होता है। चक्रवर्तीने भेटें स्वीकार की और कहा, “उत्तर भरतार्द्धके सामंतोंकी तरह तुम भी कर भरो और मेरे सेवक बनकर रहो।" ( उनके स्वीकार करनेपर) उनको सम्मान सहित चक्रीने विदा किया, और अपने सेनापतिको सिंधुका पश्चिम भाग जीतनेकी आज्ञा की। . .. उसने पूर्व भागकी तरहही चर्मरत्नसे सिंधु नदी पार कर, हिमवंत पर्वत और लवण समुद्रकी मर्यादामें रहे हुए, सिंधुके पश्चिमाभागको.जीत लिया। प्रचंड पराक्रमी वह दंडपति-सेनापति म्लेच्छ लोगोंसे दंड लेकर जलसे भरे हुए. मेघकी तरह, संगरं.चक्रीके पास आया। विविध प्रकारके भोग भोगते,अनेक राजाओंसे पूजित चक्रवर्ती बहुत दिनों तक वहीं रहे। . it... 'नास्ति विदेशः कोऽपि दोष्मसाम् ॥" [पराक्रमी पुरुषों के लिए कोई स्थान विदेश नहीं है।] (२३०-२४५) एक चार, प्रीष्मऋतुके सूर्यबिंयकी तरह, चक्ररत्न श्रायुधशालासे निकला और पूर्वके मध्यमार्गसे चला। चक्रके पीछे पीछे महाराजा क्षुद्रहिमालयके दक्षिणनित्यके निकट पाए भौर वहीं पड़ाव डालकर हे। उन्होंने क्षुद्र हिमालय नामके देवका स्मरण कर अष्टमतप किया और वे पौषधशालामें पौषधव्रत ग्रहण करके बैठे। तीन दिनके पौषधके अंतमें ये रथमें बैठकर · । '१:-पर्वतकी दाहिनी तरफकी दाल । . . . . . Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पव २. सग ४. हिमालय पर्वतके निकट गएं। उन्होंने रथके अगले भागसे पर्वतको इस तरह तीन चार टक्कर लगाई जिस तरह हाथी दाँतोंसे प्रहार करता है। चक्रीने वहाँ रथके घोड़ोंको कामं रख, धनुपपर चिल्ला चढ़ा, उसमें अपने नामका वाण. रख, उसे चलाया। वह वाण, एक कोसकी दूरीपर हो ऐसे, बहत्तर योजन पर स्थित, शुद्धहिमालय देवके आगे जाकर गिरा। पाएको गिरते देख देव क्षणभरके लिए गुस्सा हुआ; मगर वाणके ऊपर लिखे हुए अक्षर पढ़कर वह तत्कालही शांत हो गया। फिर गोशीपचंदन, सब तरहकी दवाइयों, पद्महदका जल, देवदूष्य वन, वारण, रत्नोंके अलंकार और कल्पवृक्षके फूलोंकी मालाएँ वगैरा पदार्थ उसने श्राकाशमें रहकर सगर चक्रवर्तीके भेट किए; सेवा करना स्वीकार किया और "चक्रीकी जय हो!" शब्द पुकारे। (२४६-२५४) ___ उसको विदा कर चक्री अपने रथको लौटा ऋपभकूट पर्वत पर गया। वहाँ भी उस पर्वतके तीन बार रथके अगले भागकी टक्कर लगाई और अश्वोंको नियममें रख उसने उस पर्वतके पूर्व भागपर कांकिणी रत्नसे ये अक्षर लिखे, "इस अवसपिणीमें मैं दूसरा चक्रवर्ती हुआ हूँ।" वहाँसे रथको लोटा, अपनी छावनीमें आ, उसने अष्टमतपका पारणा किया। फिर जिसकी, दिग्विजयकी प्रतिज्ञा पूरी हुई है उस सगर राजाने बढ़ी धूमधामसे हिमाचलकुमारका अष्टाह्निका उत्सव किया। (२५५-२५८) वहाँसे चक्रके पीछे चलते चफ्री उत्तर-पूर्वके मार्गसे होते हुए सुखपूर्वक गंगादेवीके सम्मुख आए । वहाँ गंगाके निकट Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७६ छावनी डाली और गंगादेवीके उद्देश्यसे अष्टमभक्ततप किया। गंगादेवी भी, सिंधुदेवीकी तरह अष्टमतपके अंतमें, आसन कॉपनेसे, चक्रवर्तीको श्राया जान, आकाशमें आकर खड़ी रही। उसने महाराजाको रत्नोंके एक हजार आठ कुंभ, स्वर्ण-माणिक्य आदि द्रव्य और रत्नोंके दो सिंहासन भेट किए । सगर राजाने गंगादेवीको विदा कर अष्टमतपका.पारण किया और आनंदके साथ देवीकी कृपाके लिए उसका अष्टाह्निका उत्सव किया। (२५६-२६३) . वहाँसे चक्रके बताए हुए मार्गसे चक्री दक्षिण दिशामें खंडप्रपाता गुफाकी तरफ चला। वहाँ पहुँच खंडप्रपाताके पास छावनी डाल, नाट्यमाल देवका स्मरण कर उसने अष्टमतप किया । अष्टमतपके अंतमें नाट्यमाल देव अपने श्रासनकपसे, चक्रवर्तीका आना जान, ग्रामपतिकी तरह भेट ले, उसके पास आया। उसने तरह तरहके अलकार चक्रवर्तीके भेट किए और मंडलेश्वर राजाकी तरह नम्र होकर उसकी सेवा स्वीकार की। चक्रीने उसको विदा करके, पारणा करने के बाद हर्पसे उसका अष्टाह्निका.उत्सव किया। यह मानो उपकारका बदला था। __. (२६४-२६८) . उसके बाद चक्रवर्तीकी आज्ञासे सेनापति आधी सेना लेकर गया और सिंधुके भागकी तरहही गंगाका पूर्व भाग भी जीत आया । (२६६) .. फिर सगर चक्रीने वैताव्यपवतकी दोनों श्रेणियों के विद्याघरोंको पर्वतके राजाओंकी तरहही, शीघ्रतासे जीत लिया। उन्होंने रत्नोंके अलकार, वस्त्र, हाथी और घोड़े चक्रीके भेट Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. किए और उसकी सेवा स्वीकार की। महाराजा भरतने विद्याधरोंको, सत्कार सहित विदा किया। "तुष्यंति हि महीयांसः सेवामन्या गिरापि हि ।" . - [बड़े आदमी, मैं आपका सेवक हूँ यह बात सुनकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।] (२७०-२७२) · चक्रीकी आज्ञासे सेनापतिने तमिस्रा गुफाकी तरहही अष्टमतप वगैरा करके खंडप्रपाता गुफाका द्वार खोला। फिर सगर राजाने हाथीपर सवार हो, मेरु पर्वतके शिखरपर सूर्य रहता है वैसे हाथीके दाहिने कुंभस्थलपर मरिण रख, उस गुफामें प्रवेश किया। पहले की तरहही उस गुफाकी दोनों तरफ कांकिणी रत्नके मंडल वनाए और पूर्वकी तरहही उन्मग्ना और निमग्ना नामक नदियोंको पार किया। गुफाके मध्यमसे सगर राजा उस गुफाके अपने आप खुले हुए, दक्षिण द्वारमेंसे, नदीके प्रवाह की तरह बाहर निकले । (२७३-२७६) । ... .. फिर गंगाके पश्चिम किनारेपर छावनी डाली। वहाँ नवनिधियोंका ध्यान करके अष्टमतप किया। तपके अंतमें नैसर्प, पांडु, पिंगल, सर्वरत्नक, महापद्म, काल, महाकाल,मानव, और शंख इन नौ नामोंकी नवनिधियों चकवर्तीके निकट प्रकट हुई 2 हिंदूधर्ममें इन नौ निधियों के नाम ये हैं,-महापद्म पद्म, शंख,मकर; कच्छप, मुकुंद, कुंद, नीज वखर्व । ये चौ.कुवेरके खजानकि नाम. वताए गए हैं। श्रीमद हेमचंद्राचार्यने भी 'अभिधान चिंतामणि. के दूसरे कांहके:१०७ श्लोकमें यही निधियाँ दी है, मगर इस श्लोककी टीकाके अंतमें लिखा है, "नेन समये तु नैसर्पाद्या निधयः, यदवोचाम Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...:. . श्री अजितनाथ-चरित्रः . . [७११ इनमेंसे हरेक निधिके हजार हजार देवता सानिध्यकारी होते हैं. अर्थात साथमें रहते हैं। उन्होंने चक्रीसे कहा, "हे महाभाग ! हम गंगाके मुंहके पास मगध तीर्थमें रहती है। वहाँसे तुम्हारे भाग्यसे तुम्हारे वशमें होकर यहाँ, तुम्हारे पास आई हैं। अब इच्छानुसार हमारा उपभोग करो या दे दो। शायद क्षीर समुद्रका क्षय हो जाए, मगर हमारा क्षय कभी नहीं होगा। हे देवा नौ हजार सेवकोंसे रक्षित, वारह योजनके विस्तारवाले, और नौ योजनकी चौड़ाईवाले आठ चक्रोंपर स्थित हम तुम्हारी सेविकाओंकी तरह पृथ्वीमें तुम्हारे साथ चलेंगी।" (२७७-२८३) . . उनका कहना स्वीकार कर चक्रीने पारण किया और आतिथेय की तरह उनका अष्टाहिकामहोत्सव किया। . ....... सगर राजाकी आज्ञासे नदीकी पूर्व दिशामें रहा हुआ दूसरा निष्कुट भी एक गाँवकी तरह सेनापतिने जीत लिया। गंगा और सिंधु नदीकी दोनों बाजुओंके चार निष्कुटोंसे और उसके मध्यके दो खंडोंसे यह भरतक्षेत्र पटखंड कहलाता है। उसे सगर चक्रीने बत्तीस हजार बरसमें धीरे धीरे आरामसे जीत लिया। कहा है, - "अनुत्सुकानां शक्ताना लीलापूर्वाःप्रवृत्तयः ।।" . . शक्तिमान पुरुपोंकी प्रवृत्ति उत्सुकता रहित लीलापूर्वक. विपशिलांकापुरुषचरिते। जैन शास्त्रों में नैसदि निधियाँ हैं। जिनका उल्लेख त्रिपरिशलाका पुरुष चरित्रमें है। ] संस्कृतमें निथि · शब्द पुल्लिंग है। ... ... ... : १-मेहमानवाजी-अतिथि सत्कार.! . . . . .... . . . . . - Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ४. ही होती है। ] ( २८४-२८७) महाराजा सगर चक्रवर्ती चौदह रत्नोंके स्वामी थे, नौ निधियोंके ईश्वर थे, बत्तीस हजार राजा उनकी सेवा करते थे, बत्तीस हजार राजपुत्रियाँ और दूसरी बत्तीस हजार स्त्रियों-ऐसे कुल चौसठ हजार खियाँ-उनके अंतःपुरमें थीं ( यानी उनके चौसठ हजार पत्नियाँ थीं)। वे बत्तीस हजार देशोंके स्वामी थे, बहत्तर हजार बड़े बड़े नगरोंपर उनकी सत्ता थी, निन्यानवे हजार द्रोणमुखों के वे स्वामी थे, अड़तालीस हजार प्रत्तनों'. के वे अधिकारीथे, चौबीस हजार कर्वटों और मंडवोंके वे अधिपति थे; वे चौदह हजार संवाधकोंके स्वामी थे, सोलह हजार खेटकों के रक्षक थे, इक्कीस हजार आकरों५ के नियंता थे, उनचास कुराज्योंके नायक थे, छप्पन अंतरोदकों के पालक थे, छियानवे करोड़ गाँवोंके स्वामी थे, छियानवे करोड़ प्यादे, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख घोड़े और चौरासी लाख रथोंसे पृथ्वीमंडलको आच्छादित करते थे। इस तरह महान ऋद्धियोंवाले चक्रवर्ती चक्ररत्नका अनुसरण करके, द्वीपांतरोंसे जहाज वापस आता है वैसेही, वापस लौटे। (२८८-२६७) ग्रामपति, दुर्गपाल और मंडलेश्वर मार्गमें उनकी दूजके चंद्रमाकी तरह, उचित भक्ति करते थे। बधाई देनेवाले पुरुषोंकी तरह, आकाशमें उड़ती हुई धूलि दूरहीसे उनके आनेकी सूचना देती थी। मानो स्पर्द्धासे फैलती हों ऐसे, घोड़ोंके हिनहिनाने. .१-चार सौ गांवोंके बीच में जो मुख्य ग्राम होता है उसे द्रोणमुख कहते हैं । २-कसबा । ३-आठ सौ ग्रामोंका मुख्य ग्राम । ४-खेडा । ५-खान । ६-द्वीप । Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :. : . श्री अजितनाथ-चरित्र [७१३ की, हाथियों के चिंघाड़नेकी, चारणोंके आशीर्वादोंकी और बाजों की आवाजें दिशाओंको बहरा बनाती हैं। इस तरह हमेशा एक एक योजना चलते. पारामसे मुसाफिरी करते. सगर राजा प्रिय पत्नीके पास जाते हैं वैसे, अयोध्या नगरीके पास श्रा पहुँचे । पराक्रमके पर्वत समान राजाने विनीता नगरीके निकट समुद्रके समान पड़ाव डाला । (२६८-३०२) एक दिन सभी कलाओंके भंडार सगर चक्री अश्वकीड़ाके लिए एक तूफानी और विपरीत शिक्षावाले घोड़ेपर चढ़े। वहाँ उत्तरोत्तर धारामें वे उस चतुर घोड़ेको फिराने लगे। क्रमशः उन्होंने घोड़ेको पाँचवीं धारामें फेरा, तब मानो भूत लगा हो ऐसे, लगाम वगैराकी कुछ परवाह न कर, घोड़ेने आकाशमें छलांग मारी। मानो अश्वरूपी राक्षस हो ऐसे, कालके वेगसे शीघ्र उड़कर वह सगर राजाको किसी बड़े जंगलमें ले गया। क्रोधसे लगाम खींचकर तथा अपनी राँगसे दबाकर चक्रीने घोड़ेको खड़ा किया और कूदकर वह उससे उतर पड़ा। थककर घबराया हुआ घोड़ा भी जमीनपर गिर पड़ा। चक्री वहाँसे पैदलही रवाना हुआ। थोड़ी दूर चलनेपर आगे उसे एक बड़ा सरोवर दिखाई दिया। वह सूर्यकिरणोंकी गरमीसे,,पृथ्वीपर गिरी हुई चंद्रिकाके समान मालूम होता था। सगर चक्रीने वनके हाथीकी. तरह, थकान मिटानेके लिए उस सरोवरमें स्नान किया और स्वादिष्ट, स्वच्छ और कमलकी सुगंधसे सुगंधित, शीतल जलका पान किया। वह सरोवरसे निकलकर किनारे बैठा तब जलदेवीके समान एक युवती उसे दिखाई दी। वह नवीन खिले हुए कमलके समान मुखवाली और नील Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ४. कमलके समान लोचनवाली थी। उसके शरीरपर सुंदरताका जल तरंगित हो रहा था, चक्रवाक पक्षीके जोड़ेके समान दो स्तनोंसे और फूले हुए स्वर्णकमलके जैसे हाथ-पैरोंसे वह बहुतही सुंदर मालूम होती थी। शरीरचारिणी सरोवरकी लक्ष्मीक समान उस बीको देखकर चक्री इस तरह विचार करने लगा-अहा ! क्या यह अप्सरा है ! व्यंतरी है ! नागकन्या है ! या विद्याधरी है ! कारण, सामान्य स्त्री इस तरहकी नहीं होती। अमृतकी वृष्टिके सहोदरके समान इसका दर्शन हृदयको जैसा आनंद देता है वैसा सरोवरका जल भी नहीं देता। (३०३-३१५-) उसी समय कमलपत्रके समान आँखोंवाली स्त्रीने भी, पूर्ण अनुरागके साथ, चक्रीको देखा । तत्काल (ही उसकी दशा) कुम्हलाई हुई कमलिनीके जैसी, कामदेवसे घबराई हुई सी हो गई। इससे उसकी सखियाँ, जैसे-तैसे उसे उसके निवासस्थानपर ले गई। सगर राजा भी कामातुर हो धीरे धीरे-सरोवर. के किनारेपर टहलने लगे। उस समय किसी कंचुकी' ने सगरके सामने आकर हाथ जोड़े और कहा, "हे स्वामी.! इस भरतक्षेत्रके वैताव्यपर्वतमें संपत्तियोंका प्रिय ऐसा गगनवल्लभ नामका नगर है। वहाँ सुलोचन नामका एक प्रसिद्ध विद्याधरपति था। वह ऐसे रहता था जैसे अलकापुरी में कुवेरका भंडारी रहता है। उसके एक सहस्रनयन नामका नीतिवान पुत्र है और विश्वकी स्त्रियोंमें शिरोमणि ऐसी एक सुकेशा नामकी कन्या है। वह जन्मी तब किसी ज्योतिपीने बताया था, कि यह लड़की चक्र १-अंत:पुरकी रक्षा करनेवाला । २–कुवेरकी नगरी।। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र - वर्तीकी पट्टरानी और स्त्रीरत्म होगी । रथनुपुरके राजा पूर्णमेघने उसके साथ व्याह करनेकी इच्छा कई बार प्रकट की; मगर उसके पिताने पूर्णमेघकी बात नहीं मानी। तब जबर्दस्ती लड़कीको ले जाने की इच्छासे पूर्णमेघ, गर्जना करता हश्रा, युद्ध करने के लिए आया । दीर्घभुजावाले पूर्णमेघने बहुत समय तक युद्ध 'करके अंतमें सुलोचनको कभी न टूटनेवाली निद्रामें सुला दिया। तब सहस्रनयन धनकी तरह अपनी बहनको लेकर यहाँ चला आया। वह अब सपरिवार यहीं रहता है। हे महात्मन ! सरोवरमें क्रीड़ा करती हुई उस सुकेशाने आज तुमको देखा है और जबसे तुमको देखा है तभीसे कामदेवने उसे वेदनामय विकारकी सजा दी है। गरमीसे पीड़ित हो ऐसे, उसके सारे शरीरमें पसीना आता है; डरी हो ऐसे उसका शरीर काँपता है, रोगिणी हों ऐसे उसके शरीरका रंग बदल गया है, शोकमें डूबी हो ऐसे उसकी आँखोंसे आँसू गिर रहे हैं और मानो योगिनी हो ऐसे वह किसी ध्यानमें लीन रहती है। हे जगतत्राता ! तुम्हारे दर्शनसे क्षणभरहीमें उसकी अवस्था विचित्र प्रकारकी हो गई है। इसलिए वह मरण-शरण ले इसके पहलेही आप आकर उसकी रक्षा करें।" (३१६-३३०) इस तरह अंतःपुराध्यक्षा स्त्री कह रही थी, उसी समय सहस्रनयन भी आकाशमार्गसे वहाँ पाया और उसने चक्रीको नमस्कार किया।वह सगर चक्रीको आदर सहित अपने निवासस्थान पर ले गया और वहाँ स्त्रीरत्न अपनी बहिन सुदेशनाका दान करके उसने चक्रीको संतुष्ट किया । फिर सहस्रनयन और चक्री विमानपर सवार होकर वैतादय पर्वतपर स्थित गगन Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. वल्लभ नगर गए। वहाँ चक्रीने सहस्रनयनको उसके पिताके राज्यपर बिठाकर, विद्याधरोंका अधिपति बनाया। (३३१-३३४) फिर इंद्रके समान पराक्रमी सगर चक्री, स्त्रीरत्नको लेकर अयोध्या अपनी छावनी में आया। वहाँ उसने विनीता नगरीके उद्देश्यसे अष्टमतप किया और विधिके अनुसार, पौषधशालामें जाकर, पौपधनत ग्रहण किया। अष्टमतपके अंतमें उसने पौषध. शालासे निकलकर अपने परिवारके साथ पारणा किया। उसके बाद उसने वासकसज्जा' नायिकाके जैसी अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। वहाँ स्थान स्थानपर तोरण बंधे हुए थे, उनसे वह भ्रकुटीवाली स्त्रीसी मालूम होती थी; दुकानोंकी शोभाके लिए वधी हुई और पवनसे उड़ती हुई पताकाओंसे वह मानो नाचनेके लिए हाथ ऊँचे कर रही हो ऐसी जान पड़ती थी। धूपदानियोंसे धुआँ निकल निकलकर उसकी पंक्तियाँ वन रही थीं, उनसे ऐसा मालूम होता था, मानो उसने अपने शरीरपर पत्रवल्लियाँ बनाई हो; हरेक मंडपपर रत्नोंकी पात्रिकाएँ सनाई हुई थीं, उनसे मानो वह नेत्रका विस्तारवाली हो ऐसी मालूम होती थी; विचित्र प्रकारकी कीगई मंच-रचनाओंसे मानो वहाँ बहुत अच्छी शय्या विछी हो ऐसी मालूम होती थी, और विमानोंकी घुघरियोंकी आवाजसे मानो मंगलगान करती हो ऐसी जान पड़ती थी। क्रमसे नगरमें चलते हुए चक्रवर्ती, इंद्र जैसे.अपने विमानमें आता है वैसे, ऊँचे तोरणवाले, उड़ती हुई पताकाओं १-जब पतिके आनेका समय होता है तब.अंगारादिकसे तैयार होकर, उसकी राह देखनेवाली स्त्री।२-कटोरियाँ । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र ७१७ - वाले और जहाँ चारण-भाट मांगलिक गीत गारहे है ऐसे अपने घरके आँगनमें पहुंचे। फिर महाराजाने, सदा अपने साथ रहनेवाले सोलह हजार देवताओंको, बत्तीस हजार राजाओंको, सेनानी, पुरोहित, गृहपति और वर्द्धकी नामके इन चार महारत्नोंको, तीन सौ साठ रसोइयोंको, श्रेणीप्रश्रेणियोंको, दुर्गपालोंको, सेठोंको, सार्थवाहोंको और दूसरे सभी राजाओंको अपने अपने स्थानोंपर जानेकी आज्ञा दी। फिर उसने अंत:पुरके परिवार और स्त्रीरत्न सहित, सत्पुरुपोंके मनके जैसे, विशाल और उज्ज्वल मंदिरमें प्रवेश किया। वहाँ स्नानगृहमें स्नान और देवालयमें देवपूजा कर राजाने भोजनगृहमें जाकर भोजन किया। फिर साम्राज्य लक्ष्मीरूपी लताके फलोंके समान संगीत, और नाटक वगैराके विनोदोंसे चक्री क्रीड़ा करने लगा। (३३५-३४८) ' ' एक दिन देवता आकर सगर राजासे कहने लगे, "हे राजा! तुमने इस भरत क्षेत्रको वशमें किया है इससे, इंद्र जैसे अहंतका जन्माभिषेक उत्सव करते हैं वैसेही, हम तुम्हारा चक्रवर्तीपदका अभिपेकोत्सव करेंगे। यह सुनकर चक्रवर्तीने, लीलासे जरा भ्रकुटी झुकाकर, उनको आज्ञा दी। . "महात्मानः प्रणविनां प्रणयं खंडयंति न।" . [महात्मा लोग स्नेहीजनोंके स्नेहका खंडन नहीं करते हैं। फिर आभियोगिक देवोंने, नगरके ईशान कोणमें अभिषेकके लिए एक रत्नमंडित मंडप बनाया। वे समुद्रों, तीथां, नदियों और द्रहोंका पवित्र जल तथा पर्वतोंसे दिव्य औषधे लाए । जय Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग४. -- पूरी तैयारी हो गई तब चक्री अंन:पुर तथा बीरत्न सहित, रत्नाचलकी गुफाक सनान उस रत्नमंडपमें दाखिल हुया । वहाँ उन्होंने सिंहासन सहित मणिमय स्नानपीठकी, अग्निहोत्री जैसे अग्निकी प्रदक्षिणा करता है वैस, प्रदक्षिणा की और अंत:पुर महिन पूर्व तरफकी सोपानपंक्तिसं उस पीठपर चढ़ जिसका मुँह पूर्वकी तरफ है गेले, सिंहासनको अलंकृत किया । बत्तीस हजार राजा मी, हंस नैस क्रमलखंडपर चढ़त है बैंस, उत्तर तरफकी सीदियोक पन्ने पर चढ़, सामानिक देव जैसे इंद्रके सामने बैठन है वैसे, नगर राजाके सामने हाथ जोड़ दृष्टि रख, अपने अपने वासनापरवठा सनापति,गृहपति,पुरोहित और बर्द्धक्रीरत्न इसी तरह संठ,सार्थवाह और अन्य अनेक मनुष्य, श्राकाशमें जैसे तारे होते हैं बस, दक्षिण तरफ सोपानास ऊपर चढ़ लानपाठयर अपने अपने आसनोंपर बैठे। फिर शुभ दिन, बार, नक्षत्र, करगा, योग, चंद्र श्रीर समीग्रहो बलवाले लग्नमें देयों इत्यादिन सोन, चाँदीक, रत्नोंक और जिन मुखोंपर कमल रह हुए है ऐसे कलशांस, मगर राजाको चक्रवर्तीपदका अभिघेक किया; चित्रकार जैसे रँगनकी दीवारको साफ करते हैं वैसे, उन्होंने देवदूष्य बन्नसे कोमलताकें साथ राजाके शरीरको पोंछा; फिर मलयाचल के सुगंधित चंदनादिकसे, चंद्रिकाके द्वारा श्राकाशकी तरह, उन्होंने राजाके अंगपर विलपन किया, दिव्य और अति मुबिवाल पूलांकी माला, अपने दृढ़ अनुरागकी तरह, रानाको पहनाई, और चुद लापट्टए देवदूष्यवऔर रत्नालंकार चक्राको पहनाए। तब महाराजाने मेघध्वनिके समान वागीम अपने नगरके अध्यक्षको पावादी, नगरमें हिंढोरा पिटवा Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७१६ दो कि इस नगरमें बारह बरस तक चुंगी नहीं ली जाएगी, कोई सुभट इसमें प्रवेश न करेगा, किसीको सजा नहीं दी जाएगी और हमेशा उत्सव होता रहेगा।" नगरके अध्यक्षने, अपने आदमियोंको हाथीपर बिठाकर, सारे नगरमें राजाज्ञाकी घोपणा करा दी। इस तरह स्वर्गनगरीके विलास वैभवको चुरानेके व्रतवाली (अर्थात उसके जैसी) विनीता नगरीमें छह खंड पृथ्वीके स्वामी महाराजा सगरका चक्रवर्तीपदाभिषेक सूचित करनेवाला उत्सव बारह वर्ष तक हरेक दुकानमें, हरेक मकानमें और हरेक रस्में होता रहा (३४६-३७०) .: आचार्य श्री हेमचंद्र विरचित त्रिषष्टिशलाका...... पुरुष चरित्र महाकाव्यके दूसरे पर्वमें सगरका दिग्विजय व चक्रवर्तीपदाभिषेक वर्णन नामका चौथा सर्ग समाप्त हुआ। - 卐 Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Crs TEद सम् पाँच सगरपुत्रोंका नाश एक वार देवताओंसे निरंतर सेवित, भगवान श्री अजितनाथ स्वामी साकेत नगरके उद्यानमें आकर समोसरे। इंद्रादिक देव और सगरादि राजा यथायोग्य स्थानोंपर बैठे। तव प्रभु धर्मदेशना देने लगे। उस समय पिताके वधका स्मरण करके क्रोधित सहस्रनयनने, वैताठ्य पर्वतपर गरुड़ जैसे सर्पको मारता है वैसेही, अपने शत्रु पूर्णमेघको मार डाला। इसका पुत्र धनवाहन वहाँसे भागकर शरण पाने की इच्छासे समवसरणमें आया। वह भगवानको तीन प्रदक्षिणा देकर, मुसाफिर जैसे वृक्षके नीचे बैठता है वैसे, प्रभुके चरणोंके पास बैठा। उसके पीछेही हाथमें हथियार लिए सहस्रनयन यह बोलता हुआ आया कि, "मैं उसे पातालसे भी खींचकर, स्वर्गसे भी तानकर, वलवानकी शरणमेंसे भी बाहर निकालकर मारूंगा।" वहाँ उसने धनवाहनको समवसरणमें बैठे देखा। प्रभुके प्रतापसे तत्कालही उसका क्रोध शांत हो गया। वह हथियार त्याग, प्रभुको तीन प्रदक्षिणा दे, योग्य स्थानपर बैठा । तब सगर चक्रीने भगवानसे पूछा, "हे प्रभो! पूर्णमेघ और सुलोचनके बैरका कारण क्या है ?" (१-६) __ भगवान बोले, 'पहले सूर्यपुर नगर में भगवान नामका एक करोड़पति वणिक रहता था। एक बार वह सेठ अपना Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र [७२१ - सारा द्रव्य अपने पुत्र हरिदासको सौंपकर व्यापारके लिए देशांतर गया। वह बारह बरसतक परदेशमें रह, बहुतसा धन जमा कर, वापस आया और रातको नगरके बाहर ठहरा। रातके समय अपने सब परिवारको छोड़कर अकेला अपने घर गया। कारण1 : ....''उत्कंठा हि बलीयसी।" [उत्कंठा बलवान होती है। उसके पुत्र हरिदासने उसे चोर समझकर तलबारके घाट उतार दिया। ......"विमर्शः क्वाल्पमेधसां।" [अल्पवुद्धि लोगोंको विचार नहीं होता। अपने मारनेवालेको पहचानकर, तत्कालही, उसके लिए, मनमें द्वेषभाव जन्मे और इसी में वह मर गया। पीछेसे हरिदासने अपने पिताको पहचाना। अजानमें किए गए अपने इस अयोग्य कार्यके लिए उसे बहुत दुःख हुआ और पश्चाताप करते हुए उसने अपने पिताकी दाह-क्रिया की। कुछ कालके बाद हरिदास भी मरा । उन दोनोंने कई दुःखदायक भवोंमें भ्रमण किया। अंतमें किसी सुकृतके योगसे भावन सेठका जीव पूर्णमेघ हुआ और हरिदासका जीव सुलोचन हुआ । इस तरह हे राजन ! पूर्णमेघ और सुलोचनका प्राणांतिक बैर पूर्वभवसेही सिद्ध है और इस भवमें तो प्रसंग आने से हुआ है।" ( १०-१६) सगर राजाने फिरसे पूछा, "इन दोनोंके पुत्रों में आपसी बैरका कारण क्या है ? और इस सहस्रनयनके लिए मेरे मनमें प्रेमकी भावना क्यों जागी ?" Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ५. स्वामीने कहा, "कई भव पहले तुम रंभक नामके सन्यासी थे। उस समय तुम्हारे शशि और आवली नामके दो शिष्य थे। उनमें से आवली नामका शिष्य बहुत नम्र होनेसे तुमको अति प्रिय था। उसने एकवार गाय खरीदनेका सौदा किया, तभी कठोर हृदयवाला शशि वीच में पड़ा। उसने,गायके मालिकको बहकाकर गाय खरीद ली। इससे दोनोंकी आपसमें लड़ाई हुई। खूब केशाकेशी, मुक्कममुक्का और लीलट्ठा हुई । अंतमें शशिने प्रावलीको मार डाला। चिरकाल तक भवभ्रमण करते हुए शशि यह मेघवाहन हुआ और आवली यह सहस्रनयन हुआ । यही इनके बैरका कारण है।दानके प्रभावसे अच्छी गतियोंमें भ्रमण कर रंभकका जीव-तुम चक्रवर्ती हुए हो। सहस्रनयनके लिए तुम्हारा स्नेह पूर्व भवोंसेही चला आ रहा है। (२०-२६) उस समय वहाँ समवसरणमें भीम नामका राक्षसपति बैठा था। उसने वेगसे उठकर मेघवाहनको गले लगाया और कहा, "पुष्करवर द्वीपके भरत क्षेत्रमें, वैताढ्य पर्वतपर कांचनपुर नामके नगरमें पूर्वभवमें मैं विद्युइंष्ट्र नामका राजा था । उस भवमें नू मेरा रतिवल्लभ नामका पुत्र था। हे वत्स ! तू मुझे बहुत प्रिय था। अच्छा हुआ कि आज तू मुझे दिखाई दिया। इस समय भी तू मेरा पुत्रही है, इसलिए मेरी सेना और दूसरा जो कुछ मेरा है उसे ग्रहण कर। और लवण समुद्रमें देवताओंके लिए भी दुर्जय,सात सौ योजनका सर्व दिशाओंमें विस्तारवाला.. राक्षसद्वीप नामका सर्व द्वीपोंमें शिरोमणि एक द्वीप है। उसके मध्यमें पृथ्वीकी नाभिमें मेरुपर्वतके जैसा त्रिकूट नामका पर्वत Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [७२३ है। वह बड़ी ऋद्धिवाला पर्वत वलयाकार है । वह नौ योजन ऊँचा, पचास योजन विस्तारवाला और बड़ाही दुर्गम है। उसपर मैंने सोनेका गढ़ और सोनेकेही घरों और तोरणोंवाली लका नामकी नगरी बसाई है। वहाँसे छह योजन नीचे पृथ्वीमें, शुद्ध स्फटिक रत्नके गढ़वाली,नाना प्रकारके रत्नमय घरोंवाली और सवा सौ योजन लंबी-चौड़ी पाताललंका नामकी बहुतही प्राचीन और दुर्गम नगरी है। यह भी मेरीही मालिकीकी है । हे वत्स! तू इन नगरियोंको स्वीकार कर और उनका राजा हो। इन तीर्थंकर भगवान के दर्शनोंका फल तुझे आजही मिले।" (२७-३७) यों कहकर उस राक्षसपतिने नौ माणिकोंका बनाया हुआ एक बड़ा हार तथा राक्षसी विद्या उसे दी। धनवाहन भी तत्कालही भगवानको नमस्कार कर राक्षसद्वीपमें गया और वहाँ दोनों लंकाओंका राजा बना। राक्षसद्वीपके राज्यसे और राक्षसीविद्यासे उस धनवाहनका वंश तभीसे राक्षसवंश कहलाया। (३८-४०) ___. फिर वहाँसे सर्वज्ञ दूसरी तरफ विहार कर गए और सुरेंद्र तथा सगरादि भी अपने अपने स्थानोंको गए। (४१) ___ अब राजा सगर चौसठ हजार स्त्रियोंके साथ रतिसागरमें निमग्न हो, इंद्रकी तरह क्रीड़ा करने लगा। उसे अंतःपुरके संभोगसे (अर्थात खीरत्नके सिवा अन्य जो स्त्रियाँ थीं उनके साथ संभोग करनेसे) जो ग्लानि हुई थी वह, स्त्रीरत्नके संभोग. से इसी तरह जाती रही जिस तरह मुसाफिरकी थकान, दक्षिण दिशाके पपनसे जाती रहती है। इस तरह हमेशा विषय-सुख Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — ७२४ } त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २, सर्ग ५. भोगते हुए, सगरके जन्दुकुमार वगैरा साठ हजार पुत्र हुए। उद्यानपालिकाओंके द्वारा पाले हुए वृक्ष, जैसे बढ़ते हैं वैसेही, धाय-माताओंके द्वारा पाले-पोसे गए वे लड़के भी फ्रमसे बड़े हुए। वे चंद्रमाकी तरह धीरे धीरे सारी कलाएँ ग्रहण कर, शरीरकी लक्ष्मीरूपी लताके उपवनरूप यौवनवयको प्राप्त हुए। वे दूसरोंको अपनी अनविद्याकी कुशलता बताने लगे और न्यूनाधिक जाननेकी इच्छासे दूसरोंका शस्त्रकौशल देखने लगे। कलाएँ जाननेवाले वेदुर्दम तूफानी घोड़ोंको भी नचानेकी क्रीड़ामें, घोड़ोंको समुद्रके आवर्तकी लीलासे फिराकर सीधे कर देते थे। देवताओंकी शक्तिको भी लाँघ जानेवाले वे, पेड़के पत्तेको भी अपने कंघोंपर नहीं सहनेवाले, उन्मत्त हाथियोंको भी, उनके कंघोंपर चढ़कर, वशमें कर लेते थे। मदसे शब्द करते हुए, हाथी जैसे विंध्य अटवीमें क्रीड़ा करते हैं वैसेही सफल शक्तिवाने, वे अपनी उम्रवाले लड़कोंके साथ उद्यानादिमें स्वच्छंदतापूर्वक खेलते कूदते थे। (४२-५०) ... एक दिन बलवान राजकुमारोंने राजसभामें बैठे हुए चक्र. ... वीसे प्रार्थना की, "हे पिताजी! आपने पूर्व दिशाके आभूषण रूप मगधपति देवको, दक्षिण दिशाके तिलक वरदामपति देव-. ..को, पश्चिम दिशाके मुकुट प्रभासपतिको, पृथ्वीकी दोनों तरफ स्थित दो भुजाओंके समान गंगा और सिंधु देवीको, भरतक्षेत्र रूपी कमलकी कर्णिकाके समान वैतादयादिकुमार देवको तमिस्रा गुफाके अधिपति क्षेत्रपाल सहश कुमारपाल देवको, और भरत क्षेत्रकी मर्यादाभूमिके स्तंभरूप हिमाचलकुमार देवको, खंड: प्रपाता गुफाके अघिष्ायक नाट्यमाल देवको, नैसर्प वगैरा नव: Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७२५ निधियोंके अधिष्ठायक नौ हजार देवताओंको,-इन सभी देवोंको साधारण मनुष्योंकी तरह जीत लिया है । हे तेजस्त्री ! आपने अंतरंग शत्रुके षट्वर्गकी तरह इस छह खंड पृथ्वीको अपने भापही पराजित किया है। अब आपकी भुजाओंके पराक्रमके योग्य कोई भी ऐसा काम बाकी नहीं रहा कि जिसे हम पूरा करं यह बता: सकें कि हम आपके पुत्र है। अब तो आपके जीते हुए सर्व भूतलपर स्वच्छंदतापूर्वक विचरण करनेहीमें हमारा, आपके पुत्र होना सफल हो; यही हमारी इच्छा है। हम चाहते हैं कि आपकी कृपासे हम घरके आँगनकी तरह सारी भूमिमें हाथीकी तरह स्वच्छंदतापूर्वक विहार करें।" पुत्रोंकी यह माँग उसने स्वीकार की। कारण"महत्सु याश्चान्यस्यापि न मुधा किं पुनस्तकाम् ॥" [महान पुरुपोंसे की गई दूसरोंकी प्रार्थना भी जब व्यर्थ नहीं होती तब अपने पुत्रोंकी प्रार्थना तो होही कैसे सकती है ?] (५१-६१) फिर उन्होंने, पिताको प्रणाम कर अपने निवासस्थानपर आ, प्रयाणमंगलसूचक इंदुभि बजवाए। उस समय, प्रयाणके समयही, ऐसे अशुभ उत्पात और अशुभ शकुन होने लगे कि जिनसे धीरपुरुष भी भयभीत हो जाएँ। बड़े सर्पकुलसे आकुल रसातलके द्वारकी तरह सूर्यका मंडल सैकड़ों केतु नामक ताराओंसे भाकुल हुआ,चंद्रमंडलके मध्यमें छिद्र दिखने लगा, इससे वह नवीन उत्कीर्ण दाँतके ताटकर के समान जान पड़ता था; १-छिदे पा खुदे हुए।२-कानका एक श्राभूपण । Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ५. वायुसे जैसे लता कौंपती है वैसेही पृथ्वी काँपने लगी; शिला. ओंके टुकड़ोंके समान बड़े बड़े ओले गिरने लगे; सूखे हुए बदलोंके चूर्णके समान रजोवृष्टि होने लगी; गुस्सा हुए शत्रुके जैसी महा भयंकर वायु चलने लगी; अकल्याणकारिणी स्थारिने दाहिनी तरफ खड़ी होकर बोलने लगी, उल्लू मानो इनकी पर्दा करते हों ऐसे क्रोध करने लगे; मानो उच्च प्रकारसे कालचक्रके साथ कीड़ा करती हों ऐसी चील मंडलाकार होकर, आकाशमें उड़ने लगीं; गरमियोंके दिनोंमें जैसे नदियाँ जलहीन हो जाती है ऐसेही सुगंधित मदवाले हाथी मदहीन हो गए और विलोमसे जैसे भयंकर सर्प निकलते हैं ऐसेही, हिनहिनाते हुए घोड़ोंके मुखोंमसे धुआँ निकलने लगा। इन अपशकुनोंकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की। कारण "तत्-ज्ञानामपि हि नृणां प्रमाणं भवितव्यता।" - [उन-उत्पात होनेकी बात बतानेवाले अपशकुनोंको जाननेवाले मनुष्योंके लिए भवितव्यही प्रमाण होता है। उन्होंने लान करके प्रायश्चित्त कोतुक-मंगलादि किया; फिर वे चक्र. वर्तीकी सारी सेनाके साथ वहाँसे रवाना हुए। महाराजा सगरने बीरत्नके सिवा सभी रत्न पुत्रोंके साथ रवाना किए। कारण "...."आत्मैव हि सुतत्वभाक् ॥" [अपना आत्मा है वही पुत्र है।] (६२-७४) - सभी पुत्र यहाँसे रवाना हुए । उनमेंसे कई उत्तम हाथियोंपर बैठे हुए थे वे दिपालके समान मान्नुम होते थे; कई घोड़ों Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अजितनाथ-चरित्र पर सवार सूर्य के पुत्र रेवंतके जैसे जान पड़ते थे, और कई सूर्यादि ग्रहोंकी तरह रथोंमें सवार थे। सभीने मुकुट पहने थे इसलिए वे इंद्रोंके समान जान पड़ते थे। उनकी छातियोंपर हार लटक रहे थे इनसे वे नदियों के प्रवाहोंवाले पर्वत जान पड़ते थे। उनके हाथों में विविध प्रकारके हथियार थे उनसे वे पृथ्वीपर आए हुए आयुधधारी देवता मालूम होते थे। उनके मस्तकोंपर छत्र थे इनसे वे वृक्षोंके चिह्नोंवाले व्यतर जान पड़ते थे। आत्मरक्षकोंसे घिरे हुए वे-किनारेसे घिरे हुए समुद्रके समान दिखते थे। ऊँचे हाथ कर करके चारण-भाट उनकी स्तुति करते थे। घोड़े अपने तेज खुरोंसे पृथ्वीको खोदते थे। बाजोंकी आवाजोंसे सारी पृथ्वी बहरीसी हो रही थी। बहुत उड़ी हुई धराकी धूलिसे सभी दिशाएँ अंधीसी हो रही थीं। (७५-८०) " . विचित्र उद्यानों में मानो उद्यान देवता हों, पर्वतोंके शिखरोंपर मानो मनोहर पर्वतोंके अधिष्ठायक देवता हों, और नदियोंके किनारोंपर मानो नदीपुत्र हों ऐसे वे स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करते हुए इस भरतभूमिमें सभी स्थानोंपर फिरने लगे। गाँवोंमें, खानों में, नगरोंमें और द्रोणमुखों और किसानोंकी झोंपड़ियों में भी वे विद्याधरोंकी तरह जिनपूजा करते थे। बहुत भोग भोगते, बहुत धन देते, मित्रोंको खुश करते, शत्रुओंका नाश करते, रस्तोंमें चिह्न बनाने में अपना कौशल बताते, फिरते और गिरते हुए शस्त्रोंको पकड़ लेने में अपनी निपुणता दिखाते, शस्त्रों व शस्त्रियोंकी विचित्र प्रकारकी और विनोदपूर्ण कथाएँ अपने समान अायुवाले राजाओंसे करते,वाहनोंपर सवार उस अष्टापद Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ५. पर्वतके पास था पहुँचे, जिसमें ऐसी दवाइयाँ हैं कि जिनको देखने मात्रहीसे भूख-प्यास मिट जाती है और जो पुण्यसंपत्तिका स्थानरूप है । (८१-८७) ___ वह अष्टापद पर्वत, बड़े सरोवरोंसे देवताओंके अमृतरसका भंडार हो ऐसा मालूम होता था; सघन और पीले वृक्षोंसे वह श्यामरंगी संध्याके बादलोंवाला हो ऐसा लगता था; पासके समुद्रसे बड़े पंखोंबालासा लगता था; झरनोंसे मरते जलप्रवाहसे ऐसा मालूम होता था मानो उसपर पताकाओंके चिह्न हैं। उसपर विद्याधरोंके बिलासगृह थे, उनसे ऐसा मालूम होता था मानो वह नवीन वैताध्य पर्वत है, हर्पित मयूरों के मधुर स्वरोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो वह गायन कर रहा है। उसपर '. अनेक विद्याधरियाँ रहती थीं, उनसे वह पुतलियोंवाले चैत्यसा जान पड़ता था; चारों तरफ गिरे हुए रत्नोंसे ऐसा प्रतीत होता था मानो वह रत्नमणियोंसे बना हुया पृथ्वीका मुकुट हो और वहाँके चैत्योंकी वंदना करनेके लिए हमेशा आनेवाले चारण श्रमणादिकोंसे वह पर्वत नंदीश्वर द्वीपसा मालूम होता था। (८८-२) कुमारोंने उस पर्वतको-जो स्फटिक रत्नमय है और जिसमें सदा उत्सव होते रहते हैं-देखकर सुवृद्धि वगैरा अपने अमात्योंसे पूछा, "वैमानिक देवोंके स्वर्गके क्रीडापर्वतोंमेंसे मानो एक यहाँ पृथ्वीपर उतरा हो ऐसा, यह कौनसा पर्वत है ? और उसपर, आकाश तक ऊँचा तथा हिमालय पर्वतपर रहे हुए शावत चैत्यके जैसा यह जो चैत्य है, इसको किसने बनवाया है ?" (६३-६५) . Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र मंत्रियोंने जवाब दिया,"पहले ऋषभदेव भगवान हुए हैं। वे भारतमें धर्मतीर्थके आदिकर्ता थे और तुम्हारे पूर्वज थे। उनका पुत्र भरत निन्यानवेभाइयोंमें सबसे बड़ा था। उसने छह खंड पृथ्वी जीती थी और सभीसे अपनी आज्ञा मनवाई थी। इंद्रके लिए जैसे मेरुपर्वत है वैसेही, चक्रीके लिए आश्चयाँका स्थानभूत यह अष्टापद नामका क्रीड़ागिरि था। इस अष्टापद पर्वतपर ऋषभदेव भगवान, दस हजार साधुओंके साथ, मोक्ष गए हैं। ऋषभ स्वामीके निर्वाणके बाद भरत राजाने यहाँपर रत्नमय पाषाणोंका सिंहनिषद्या नामका चैत्य बनवाया था। उसमें उसने ऋषभ स्वामी और उनके बाद होनेवाले तेईस तीर्थकरोंके निर्दोष रत्नोंके बिंब बनवाए हैं। हरेक विंब अपने अपने देहप्रमाण, संस्थान, वर्ण और चिह्नवाले हैं। उसने उनकी प्रतिष्ठा इस चैत्यमें, चारण मुनियोंसे कराई है। उसने अपने बाहुबली इत्यादि निन्यानवे भाइयोंकी चरणपादुकाएँ और मूर्तियाँ भी यहीं स्थापित कराई है। यहाँ भगवान ऋषभदेवका समवसरण हा था। उस समय उन्होंने भविष्यमें होनेवाले तीर्थंकरों, चक्रवर्तीयों, वासुदेवों, प्रतिवासुदेवों और बलभद्रोंका वर्णन किया था। इस पर्वतके चारोंतरफ भरतने आठ पाठ सोपान बनाए थे। इसलिए इसका नाम अष्टापदगिरि है।" (६६-१०५) यह हाल सुनकर कुमारोंको हर्षहुआ । उस पर्वतको अपने पूर्वजोंका जान वे अपने परिवार सहित उसपर चढ़े और सिंहनिषद्या चैत्यमें गए। दूरसे, दर्शन होतेही, उन्होंने हर्प सहित आदितीर्थकरको प्रणाम किया। अजित स्वामीके और दूसरे Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० । त्रिषष्टि शलाका युझप-चरित्रः पत्र २. सगं ५. तीर्थकर िविवोंको भी उन्होंने समान श्रद्धा साथ नमस्कार किया। कारण, गर्मश्रावक थे। मंत्री श्राकर्षित करके मँगवाया हो गसे,तत्कालही श्राप दृग, शुद्ध गंधोदकसं,कुमारोंने जिनविवोंको स्नान करवाया । उस समय कई कलशोंको पानीस भरत थे, कई ट्रेन थे, कई प्रमुपर डन्तत थे, कई बाली हुओंको ठा ले जाने थ; कई स्नात्रविधि बोल रहे थे, कई त्रामर दुला रहे थे, कई स्वरकी धूपदानियाँ उठात थे, कई धूपदानियोंमें उत्तम धूप डालन यं और कई ऊंचे स्वरसं शंत्रादि बाजे बजाने थे। उस समय वेगस गिरत हुए ग्नानकं गंधोदकसे अशापद पर्वत दुगने मरनावान्ता हो गया था। फिर उन्होंन कोमल, कोरे और देवदृश्य बत्रोंक समान बत्रोंस, नौहरीकी तरह, भगवानके रत्नविवोंको पांछा, उन भक्तिवानाने दासीकी तरह, अपनी इच्छा, विवापर गोशीपचंदन रसस विलपन किया और विचित्र पुष्पांकी मालाओस, तथा दिव्यवन्त्रों तथा मनोहर खनालंकारोंसे विवॉकी पूजा की व इंद्रकल्पकी विडंबना करनबात स्वामी विवॉछ सामने, पट्टांपर चावलोंक अष्ट मांगलिक बनाए। उन्होंने मुरविव समान देदीप्यमान भारनियों में कपूर रचकर, पूना बाद भारती की। और हाथ जोड़ शस्तपस बंदना कर, ऋयमन्त्रामी बगंगकी इस तरह न्तुति की, (१०७-११६) ह भगवान ! इस अपार और घोर संसाररूपी समुद्रमें श्राप जहाजक समान है और मानक कारणभून हैं। आप हम पवित्र बनाइए। न्याहादरूपी महलका निर्माण करनम नयाँ. - .:-गर्म पापती श्रावक थे। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७३१ और प्रमाणोंसे, सूत्रधारपनको धारण करनेवाले हे प्रभो ! हम आपको नमस्कार करते हैं। योजन तक फैलती हुई वाणीरूपी धारासे, सर्व जगतरूपी बागको हराभरा करनेवाले है जिन । हम आपको प्रणाम करते हैं। हम सामान्य जीवनवालोंने भी, आपके दर्शनसे पाँचवें आरेके जीवनवालोंकासा परम फल पाया है । गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और मुक्ति रूप पाँच पाँच कल्याणकोंसे नारकियोंको भी सुख देनेवाले हे स्वामी ! हम आपको वंदना करते हैं। मेघ, वायु, चंद्र और सूर्यकी तरह समदृष्टि रखनेवाले हे भगवान! आप हमारे लिए कल्याणका कारण बनें । धन्य है, अष्टापदपर रहनेवाले पक्षी भी कि जो प्रतिदिन आपके दर्शन करते हैं। बहुत देर तक हम आपके दर्शन और पूजन करते रहे हैं। इससे हमारा जीवन धन्य और कृतार्थ हुआ है । ( १२०-१२७) . इस तरह स्तुति कर, पुनः अहँतको नमस्कार कर सगरपुत्र सानंद.मंदिरसे बाहर निकले। फिर उन्होंने भरत चक्रीके भ्राताओंके पवित्र स्तूपोंकी वंदना की। बादमें कुछ सोचकर सगरके बड़े पुत्र जहुकुमारने अपने छोटे भाइयोंसे कहा, "मेरा खयाल है कि इस अष्टापदके जैसा दूसरा कोई उत्तम स्थान नहीं है। इसलिए हम भी यहाँ इसी चैत्यके जैसा दूसरा चैत्य बनवाएँ । अहो ! यद्यपि भरत चक्रवर्तीने भरतक्षेत्र छोड़ दिया है तो भी वह इस पर्वतपर-जो कि भरतक्षेत्रमें सारभूत हैचैत्यके बहाने अब भी अधिकारारूढ़ है।" कुछ ठहरकर फिर बोला, "नवीन चैत्य बनानेकी अपेक्षा, भविष्यमें जिसके लोप होने की संभावना है, इस चैत्यकी यदि हम रक्षा करें तो समझा Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष १. सर्ग ५. जाएगा कि यह चैत्य हमनेही बनवाया है। कारण जय दुःपम काल पाएगा तब लोग अर्थलोलुप, सत्वहीन और कृत्याकृत्यविचारहीन होंगे। इसलिए नए धर्मस्थान धनवानेकी अपेक्षा पुराने धर्मस्थानोंकी रक्षा करना ही अधिक अच्छा होगा।" (१२८-१३४) यह सुनकर सभी छोटे भाइयोंने इस चैत्यकी रक्षाकेलिए उसके चारों तरफ खाई खोदने के लिए दंडरत्न उठाया। फिर मानो तीव्र तेजसे सूर्य हो ऐसे जह अपने भाइयों के साथ नगर. की तरह अष्टापदके चारों तरफ खाई बनानेके लिए दंडरत्नसे पृथ्वी खोदने लगा। उनकी आज्ञासे दंडरत्नने हजार योजन गहरी खाई खोदी । उससे वहाँ नागकुमारोंके मंदिर अपने मंदिरोंके टूटनेसे, समुद्रका मथन करनेसे जैसे जलजन्तु क्षुब्ध होते हैं वैसे, सारा नागलोक क्षुब्ध हो उठा । मानो परचक्र आया हो, मानो आग लगी हो या मानो महावात उत्पन्न हुमा हो ऐसे नागकुमार इधर उधर दु:खी हो डोलने लगे। अपने नांगलोकको इस तरह आकुल देख नागकुमारोंका राजा ज्वलन. प्रभ क्रोधसे अग्निकी तरह जलने लगा। पृथ्वीको खुदा देख ये क्या है ? यह सोचता हुआ वह शीघ्रतासे बाहर निकला और सगरचक्रीके पुत्रोंके पास आया। चढ़ती हुई तरंगोवाले समुद्रकी तरह चढ़ी हुई भ्रकुठिसे वह भयंकर लगता था। ऊँची ज्वालाओंवाली श्रागकी तरह कोपसे उसके ओंठ फड़क रहे थे। तपे हुए लोहेके तोमरोंकी श्रेणीके जैसी लाल दृष्टि वह डालता था, वनाग्निकी धोकनीके समान अपनी नासिकाको फुलाता था और यमराजकी तरह क्रुद्ध और प्रलयकालके सूर्यकी तरह Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भी अजितनाथ-चरित्र [७३३ जिसके सामने न देखा जा सके ऐसा वह नागपति सगरपुत्रोंसे ... कहने लगा-(१३५-१४४) __ "अरे! तुम अपनेको पराक्रमी माननेवाले और दुर्मद हो ? तुमने भील लोगोंको जैसे किला मिलता है वैसे दंडरत्न मिलनेसे यह क्या करना शुरू किया है ? हे अविचारपूर्वक काम करनेवालो! तुमने भवनपतियों के शाश्वत भवनोंको यह कैसी हानि पहुंचाई है ? अजितस्वामीके भाईके पुत्र होकर भी ..तुमने पिशाचोंकी तरह यह दारुण कर्म करना कैसे शुरू किया है" (१४५-१४७) तब जहुने कहा, "हे नागराज ! हमारे द्वारा आपके स्थान गिरे है इससे पीड़ित होकर आप जो कुछ कहते हैं वह योग्य है, मगर हम देडरत्नपालोंने आपके स्थान द्वटें इस बुद्धिसे यह पृथ्वी नहीं खोदी है। हमने तो इस अष्टापद पर्वतकी रक्षाके लिए चारों तरफ खाई बनानेको यह पृथ्वी खोदी है। हमारे वंशके मलपुरुष भरत चक्रवर्तीने रत्नमय चैत्य और सभी तीर्थकरोंकी रत्नमय सुंदर प्रतिमाएँ वनवाई हैं। भविष्यमें, कालके दोषसे, लोग इनको हानि पहुँचाएँगे इस शंकासे हमने यह काम किया है। आपके स्थान तो बहुत दूर है, यह जानकर हमारे मनमें उनके टूटने की शंका नहीं हुई थी। मगर ऐसा होनेमें • हमें इस दंबरलकी अमोघ शक्तिकाही अपराध मालूम होता है। इसलिए अहंतकी भक्तिके वश होकर हमने विना विचारे मो काम किया है उसके लिए भाप हमें क्षमा करें। अब फिरसे हम ऐसा नहीं करेंगे।" (१४८-१५४) इस तरह विनयपूर्वक नहुकुमारों द्वारा कही गई बात Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व ३. सर्ग ५. मुनकर नागराज शांत हुश्रा । कहा है कि"..."सामवागंभः कोपाग्नेः शमनं सताम् ।" [सत्पुरुषोंकी कोपाग्निको शांत करनेमें समतापूर्ण वाणी जलके समान होती है । "अब फिरसे ऐसा न करना" कहकर नागपति इसी तरह नागलोकमें चला गया जिस तरह सिंह गुफामें चला जाता है । (१५५-१५६) नागराजके जानेके वाद जहने अपने छोटे भाइयोंसे कहा, हमने अष्टापदके चारों तरफ खाई तोबनाई पर पातालके समान गहरी खाई जलके बिना इसी तरह नहीं शोभती जिस तरह मनुष्यकी बड़ी आकृति भी बुद्धिके विना नहीं शोभती है। और यह फिर कभी वापिस मिट्टीसे भर भी सकती है। कारण कि काल पाकर बड़े बड़े खड्डे भी थलके समान हो जाते हैं इसलिए इस खाईको वहुत जलसे अवश्य भर देनी चाहिए । मगर यह काम ऊँची तरंगोंवाली गंगाके विना पूरा न हो सकेगा।" यह: सुनकर उसके भाइयोंने कहा, "आप कहते हैं वह ठीक है।" तव जत्ने मानो दूसरा यमदण्ड हो ऐसा दएडरत्न हाथमें लिया। उसने दण्डरत्नसे गंगाके किनारेको इसी तरह तोड़ दिया जैसे इंद्रवज्ञसे पर्वतके शिखरको तोड़ देता है। किनारेके टूटनेसे . गंगा उसी मार्गसे चली। कारण,....."नीयते यत्र तत्रांभोः गच्छत्यजुपुमानिव ।" [सरल पुरुपोंकी तरह जल यहाँ ले जाया जाता है वहीं जाता है..] उस समम गंगा नदी अपनी उछलती हुई ऊँची ऊँची तरंगोंसे ऐसी मालम होती थी मानो इसने पर्वतोंके Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७३५ - शिखरोंको ऊँचा उठाया है और किनारेपर पानीके टकरानेसे होनेवाले शब्दों द्वारा ऐसी मालूम होती थी मानो वह जोरसे बाजे बजा रही है। इस तरह अपने जलके वेगसे दंडके द्वारा बनाए गए पृथ्वीके मार्गको दुगना चौड़ा करती हुई गंगा अष्टापदगिरिके चारोंओर बनाई गई खाईके पास आई और उसमें इसी तरह गिरी जैसे समुद्र में गिरती है । पातालके समान भयंकर हजारयोजन गहरी खाईको पूरने में वह प्रवृत्त हुई। जहसे अष्टापद पर्वतकी खाई पूरनेके लिए गंगाको लाया था इसलिए उसका नाम जाह्नवी कहलाया । बहुत पानीसे खाई पूरी भर गई तव अल नागकुमारोंके मकानों में धारायंत्रकी तरह घुसा। बिलोंकी तरह नागकुमारोंके मंदिर जलसे भर गए । इससे हरेक दिशामें नागकुमार ब्याकुल हुए; फुकार करने लगे और दुःखी हुए। नागलोककी व्याकुलतासे सर्पराज ( नागकुमारोंका इंद्र ज्वलनप्रभ) बहुत गुस्सा हुआ। अंकुश मारे हुए हाथीकी तरह उसकी प्राकृति भयंकर हो गई। वह बोला, "सगरके पुत्र पिताके वैभवसे दुर्मद हो गए हैं, इसलिए ये क्षमा करने योग्य नहीं है। ये गधेकी तरह दंड देनेके लायक है। हमारे भवनोंको नष्ट करनेका इनका एक अपराध मैंने क्षमा कर दिया था; इनको उसके लिए कोई सजा नहीं दी थी। इसीलिए इन्होंने फिरसे यह अपराध किया है। इसलिए अब मैं इनको इसी तरह सजा देंगा जिस तरह रक्षकलोग चोरोंको सजा देते हैं।" इस तरह अति कोपसे भयंकर बोलता, असमयमें कालाग्निके समान अत्यंत दीप्तिसे दारुण दिखता, और बड़वानल जैसे समुद्रको सुखा देने की इच्छा करता है वैसे, जगतको जला Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६] प्रियष्टि शाखाका पुरुष-परित्रः पर्व २. सगं ५. देनकी इच्छा करता का पृथ्वी से बाहर निकल और वसानलनी नरह ऊँची चालायओंवाला बह नागराज नागकुमारोंके साथ रसानन निकलकर ग वहाँ भाया । क्रिष्टिविय. सपाँच गाजाने कोपा दृष्टिले नगरपुत्रों को देखा। इससे प्रागडम यास पनजान है, वही व जलकर गल हो गए। उस समय लोगों में पहला भयंकर हाहाकार हया कि तो श्राचाय और पृथ्वीको भर देना था। कारण, "लोक ज्यादनुकंपाय मानसामपि निग्रहः।" अपराधियांची मुजा मिलनपरभी लोगां दिलाम तो दया स्पन्न होती ही है। इस तरह नागकुमार मगर राजाके माठ हजार पुत्रोंकी मातबाट तार इसी तरह वापिसरला. नुसनं चला गया, जिस तरह मानगो मुरज बनाना है। श्री हेमचंद्राचार्य विरचित त्रिपष्टिशलाका पुनपचरित्र काव्यक मरे पर्वका सगरपुत्रों का नाश नामका पाँचत्रा सर्ग समास दुबा। 덇 Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्ग छटा अजित स्वामी और सगरके दीक्षा व निर्वाणका वृत्तांत उस समय चक्रीकी सेनामें योद्धाओंका ऐसा कोलाहल होने लगा जैसा जलाशयके खाली होनेपर जलजंतुओंका होता है। मानो किम्पाक फल (जहरी कुचला) खाया हो, मानो जहर पिया हो अथवा मानो सर्पने काटा हो ऐसे कई मूर्छावश होकर पृथ्वीपर गिर पड़े कई नारियलकी तरह अपना सर पछाड़ने लगे; कई मानो छातीने गुनाह किया हो ऐसे उसे बारबार पीटने लगे; कई मानो दासीकी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ हो, पैर पसार, बैठे रहे; कई वानरकी तरह कूदने के लिए शिखरपर चढ़े कई अपना पेट चीरनेकी इच्छासे यमराज जी जिह्वाके समान छुरियाँ म्यानसे बाहर निकालने लगे; कई फाँसी लगाने. के लिए, पहले क्रीड़ा करने के लिए जैसे झूले बाँधे जाते थे वैसे, अपने उत्तरीय वन वृक्षोंकी शाखाओंपर बाँधने लगे; कई खेतोमेंसे अंकुर चुनते हैं वैसे मस्तकपरसे केस चुनने लगे; कई पसीनेकी बूंदोंकी तरह शरीरपरके वस्त्रोंको फेंकने लगे; कई पुरानी भीतोंको आधार देने के लिए रखे हुए खंभोंकी तरह कपोलपर हाथ रखें चिंता करने लगे और कई अपने वनोंको भी अच्छी तरह रखे बगैर पागल श्रादमीकी तरह शिथिल अंग होकर पृथ्वीपर लोटने लगे। (१-६) उस समय अंत:पुरकी स्त्रियों के हृदयको मथनेवाले, जुदा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. वर्ग ६. जुदा प्रकारके ऐसे विलाप होने लगे जैसे आकाशमें टिटिहरीके होते हैं। "हे देव ! हमारे प्राणेशके प्राण लेकर और हमारे प्राणोंको यहाँ रखकर तूने यह अर्धदग्धपन कैसे किया ? हे पृथ्वीदेवी ! तुम फट जाओ और हमें जगह दो; कारण आकाशमेंसे गिरे हुओंका सहारा भी तुम्ही हो। हे देव ! चंदनगोहकी तरह आज तू हमपर अकस्मात निर्दय होकर बिजली गिरा। हे प्राणो ! तुम्हारे मार्ग सरल हों। तुम इच्छानुसार अब यहाँसे चले जाओ और इस शरीरको किराएकी झोंपड़ीकी तरह छोड़ दो। सर्व दुखोंको मिटानेवाली हे महानिद्रा ! तू आ । हे गंगा! तू उछलकर हमको जलमृत्यु दे। हे दावानल ! तू इस पर्वतके जंगलमें प्रकट हो कि जिससे तेरी मददके द्वारा हम पतिकी गतिको पाएँ। हे केशपाशो! तुम अव पुष्पोंकी मालाओंके साथकी मित्रता छोड़ दो। हे आँखो! तुम अव काजलको जलाजलि दो। हे कपोलो! तुम अब पत्ररेखाके साथ संबंध छोड़ दो। हे ओंठो ! अब तुम अलताकी संगतिकी श्रद्धा त्याग दो। हे कानो! तुम अब गाना सुनने की इच्छाको दूर करो, साथही रत्नकर्णिकाओंका भी त्याग करो। हे कंठो !अवकठियाँ पहननेकी उत्कंठा मत रखो। हे स्तनो! आजसे तुम्हें कमलोंके लिए जैसे श्रोसकी बूंदोंका हार होता है वैसेही, अश्रुविन्दुओंका हार धारण करना होगा। हे हृदय ! तुम तत्काल पके हुए फूटकी तरह दो भागोंमें बँट जाओ। हे भुजाओ! अब तुम कंकण और वाजूबंधोंके भारसे मुक्त हुए। हे नितंबो ! तुम भी प्रातःकालका चंद्रमा जैसे कांतिका त्याग करता है वैसेही कंदोरोंका त्याग करों। हे चरणो ! तुम अनाथकी तरह अव आभूषण मत Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७३६ पहनो। हे शरीरो! तुम्हें अब कोचकी फलीके स्पर्शकी तरह अंगरागोंकी जरूरत नहीं है।" अंत:पुरकी त्रियोंके इस तरह, करुण स्वरमें रोनेसे, बंधुकी तरह सारे वन भी प्रतिध्वनिके साथ गेने लगे। (१०-२३) सेनापति, सामंत, राजा और मंडलेश्वर इत्यादि सभी शोक, लज्जा, क्रोध और शंकादिसे रोते हुए विचित्र प्रकारसे घोलने लगे। "हे स्वामीपुत्रो ! हम नहीं जानते कि तुम कहाँ गए हो? इसलिए तुम बताओ जिससे हम भी स्वामीकीश्राज्ञामें तत्पर होनेसे तुम्हारे पीछे पावें। अथवा क्या तुम्हें अंतर्धान होनेकी विद्या प्राप्त हुई है ? अगर ऐसा हो तो उसका उपयोग नहीं करना चाहिए, कारण उससे तुम्हारे सेवकोंको दुःख होता है। तुम नष्ट हुएहो मगर तुम्हारे विना अगर हम जाएँगे तो हमारा मुख ऋषिहत्या करनेवालोंकी तरह सगर राजा कैसे देखेंगे ? यदि तुम्हारे बिना जाएँगे तो लोग भी हमारी दिल्लगी करेंगे। हे हृदयो ! अब तुम पानीसे भरे कच्चे घड़ोंकी तरह तत्कालही फूट जाओ। हे नागकुमार ! तू भी खड़ा रह । हमारे स्वामीको जो अष्टापदकी रक्षा करने में व्यग्र थे-कपटसे कुत्तेकी तरह जलाकर अब तू कहाँ जाएगा? हे तलवारो! हे धनुषो! हे शक्तियो! हे गदाभो ! तुम युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। हे नाग ! तू भागकर कहाँ जाएगा ? ये स्वामीपुत्र हमें यहाँ छोड़कर चले गए। हा ! हा ! उन्हें छोड़कर लौटनेसे हमें भी स्वामी जल्दीही छोड़ देंगे। यदि हम वहाँ नहीं भी जाएंगे और यही जीवित रहेंगे तो यह सुनकर हमारे स्वामी लज्जित होंगे या हमें दंड देंगे।" इस तरह नाना प्रकारसे रोनेके पाद सब इक होकर Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ z-j त्रिषष्टि शनाका पुत्रपन्चरित्र: पर्व २. सर्ग६. और अपना स्वाभाविकच धारण कर इन प्रचार सोचने लगे, जैसे प्रथम नियमसे वादळे नियमबलवान होते है बसेही कर्म सबसे ज्यादा बलवान होते हैं। उनसे अधिक बलवान दूसरा कोई नहीं है। जिसका प्रतिकार असंमत्र है ऐसे चर्यक्रे लिए प्रयत्न करनेची इच्छा रखना व्यर्थ है। कारण, यह इच्छा अाकाशको मारनेकी और हवाको पकडनी इच्छाले समान है। अब रोनसे क्या फायना ? इसलिए इन बाथी, घोड़े, वगैरा सारी सन्पत्तिबाहर रखनेवालनी तरह वापस ले जाकर महाराजचो माप हैं। इस बाद जैया चाहें वैसा व्यवहार हमारे साथ करें। (२४-३७) इस तरह विचारकर सवतःपुरको साथ ले दीन मुन्न किए अयोच्याची तरतखाना हए। उनमें उत्साह नहीं था। उनमुन्द्र मलिन और नत्राने ज्योति न थी। वे सोकर उठ हो म माम होने थे। बार बार चलकर अयोध्याके पास पहुँच सत्रएकत्र होकर पृथ्वीपर बैठे। उनका चित्त ऐलालपूर्ण था नानो किसी ने उन्हें बध्यशिलापर बिठाया हो। वे आपसमें इस तरह वानबीन करने लगे, "पहले राजाने हमको भक्त, बहुअनु ( अविज्ञानी), अनुभवी और बलवान सुमनावर बढ़ आदरके साथ अपने पुत्रों साथ भेजा था उन अलारोंके बिना हम अपने स्त्रानीक पार कैचे जाग? और नासिकारहित पुरुषकी तरह अपना मुन्ट में दिखाएं? अथवा अकस्मात वचपात मान उनकपुत्रांचनची वान उनसे कैसे करें? इससे हम वहाँ जाना ही नचाहिम हमारे लिए तो सर्व दुनियाँको शरण देनेवाली मौत प्राप्त करना ही योग्य है ।वान ने हमसे जो भाशा Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ७४१ की थी वह पूरी नहीं हुई। इससे (बेकार) प्राणीकी तरह जीनेसे क्या फायदा है ? शायद पुत्रोंकी हृदयद्रावक मौत सुनकर चक्र. वर्तीके प्राणपखेरू उड़ जाएंगे। इससे यह अच्छा है कि हम उनसे पहलेही प्राण त्याग दें।" इस तरह जब वे मरनेका निर्णय कर रहे थे तब कोई गेरुवावस्त्रधारी ब्राह्मण वहाँ आया। (३८-४७) वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कमलके समान हाथ ऊँचा करके जीवन देनेवाली वाणीमें, श्रात्महत्या नहीं करनेकी बात समझाता हुआ बोला, "हे किंकर्तव्यमूढ़ बने हुए पुरुषों ! तुम अस्वस्थचित्त क्यों हो रहे हो ? तुम उन खरगोशोंके समान हो रहे हो जो शिकारीको आते देखकर ही गिर पड़ते हैं। तुम्हारे स्वामीके एक हजार पुत्र, युगलियोंकी तरह मर गए हैं, मगर उसके लिए अब दुःख करनेसे क्या लाभ है ? एक साथ जन्मे हुए भी कई बार वे अलग अलग स्थानोंपर अलग अलग वक्तपर मरते है और कई जुदा जुदा स्थानोंमें जन्मे हुए भी कई वार एकही समय एक स्थानपर मरते है ! एक साथ बहुत भी मरते हैं और कम भी मरते हैं। कारण,मौत तो सबके साथ है ही । जैसे सैकड़ों प्रयत्न करनेपर भी प्राणीका स्वभाव नहीं बदला जा सकता, वैसेही चाहे जितना प्रयत्न किया जाय, मगर मौत नहीं टाली जा सकती। अगर मौत टाली जा सकती होती, तो इंद्रों और चक्रवर्तियों आदिने आज तक इसका प्रयत्न क्यों नहीं किया ? क्यों उन्होंने खुदको और अपने स्वजनोंको मौतके पंजेसे नहीं छुड़ाया ? आकाशसे गिरता हुआ वन हाथमें पकड़ा जा सकता है; उद्धांत बना हुआ समुद्र पाल बाँधकर रोका जा सकता है; Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. महाभयंकर प्रलयकालकी आग जलसे बुझाई जा सकती है। प्रलयकालके उत्पातसे तीव्र बना हुआ पवन मंद किया जा सकता है; गिरता हुआ पर्वत सहारा लगाकर रोका जा सकता है मगर मौत सैकड़ों प्रयत्न करके भी नहीं रोकी जा सकती। इसलिए तुम यह सोच सोचकर दुख न करो कि स्वामीके द्वारा हमें सौंपे गए, स्वामीके पुत्र, इस दुनियासे चल बसे हैं । शोकमें डूबते हुए तुम्हारे स्वामीको हाथ पकड़नेकी तरह, मैं उपदेशप्रद वचन कहकर, पकड़ रक्यूँगा।" (४८-५६) इस तरह सयको धीरज बँधा, उस ब्राह्मणने रस्तेमें पड़े हुए किसी अनाथ मुर्दैको उठाकर विनीता नगरीमें प्रवेश किया; और सगरचक्रीके राजगृहके आँगनमें जा ऊँचा हाथ कर, उप स्वरमें इस तरह कहना प्रारंभ किया, "हे न्यायी चक्रवर्ती ! हे अखंड मुजपराक्रमी राजा! तुम्हारे इस राज्यम अब्रह्मण्यकर्म हुआ है-अत्याचार हुआ है। स्वर्गमें इंद्रकी तरह आप इस भरत क्षेत्रमें रक्षक हैं, तो भी मैं लुट गया हूँ।" (६०-६३) ऐसी अश्रुतपूर्व बात सुनकर, सगर चक्रीके हृदयने अनुभव किया, मानो उस ब्राह्मणका दुख उसमें फैल गया है । उसने द्वारपालसे कहा, "यह कौन है ? इसको किसने लूटा है ? यह कहाँसे आया है ? आदि सारी बातें उससे पूछकर मुझे पता या उसे यहीं बुला ला" द्वारपालने तत्कालही आकर उससे पूछा; मगर वह तो द्वारपालकी बात सुनता ही न हो ऐसे चिल्लाता ही रहा। तब फिरसे द्वारपालने कहा, "हे ब्राह्मण ! तू दुःखसे बहरा हो गया है या स्वाभाविक रूपसे ही बहरा है? ये अजित. Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७४३ नाथ स्वामीके भाई दीन व अनाथकी रक्षा करनेवाले और शरणार्थीको शरण देनेवाले हैं। वे स्वयंसहोदरकी तरह, तुम्हारी पुकार सुनकर, आदर सहित पूछते हैं कि तुमको किसने लूटा है ? तुम कौन हो? और कहाँसे आए हो ? हमें सारी बातें कहो या खुद आकर महाराजको अपने दुःखका इसी तरह कारण बताओ जिस तरह रोगी वैद्यको अपने रोगका कारण बताता है।" (६४-७०) प्रतिहारकी बातें सुनकर ब्राह्मणने धीरे धीरे सभागृहमें प्रवेश किया। उसकी आँखें इस तरह मुंद रही थीं जिस तरह ओससे द्रहके कमल मुंदते हैं; उसका मुख ऐसे मलिन हो रहा था जैसे हेमंत ऋतुमें आधी रातका चाँद मलिन होता है, उसके सुंदर केश रीछकी तरह बिखर रहे थे और वृद्ध वानरकी तरह उसके कपोलोंमें खड़े पड़ रहे थे। (७१-७३) ___ दयालु चक्रवर्तीने ब्राह्मणसे पूछा, "क्या किसीने तुम्हारा सोना ले लिया है? या तुम्हारे वस्त्र और अलंकार छीन लिए है ? या किसी विश्वासघातकने तुम्हारी धरोहर दवा ली है ? या किसी गाँवके रक्षकने तुमको सताया है ? या किसी चुंगीके अधिकारीने तुम्हारा सारामालछीनकर तुम्हें संकट में डाला है ? या तुम्हारे किसी हिस्सेदारने तुम्हारा हिस्सा नहीं दिया है ? या किसीने तुम्हारी स्त्रीका हरण किया है ? या किसी बलवान शत्रुने तुमपर आक्रमण किया है ? या किसी भयंकर आधि या व्याधिने तमको पीडित कर रक्खा है ? या ब्राह्मण जातिके लिए जन्महीसे सुलभ ऐसी दरिद्रताने तुम्हें हैरान कर रखा है ? हे प्राह्मण ! तुम्हें जो दुग्व हो वह मुझसे कहो।" (७४-७६) Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४४४] त्रिषष्टि शलाका पुस्य-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. राजाकी बार्ने सुनकर ब्राह्मण नटकी तरह आँसू गिराता हुआ हाथ जोड़कर बोला, "हे. राजा ! जैसे स्वर्ग इंद्रके न्याय और पराक्रमसे शोभता है वैसेही यह भरतकी छह खंड पृथ्वी आपसे राजन्वनी हो रही है। इसमें कोई क्रिसीका स्वर्ण-रत्नादिक ने नहीं सकता है। धनिक लोग दो गाँवोंके बीचके रस्तेपर भी निश्चित होकर घरकी तरह सो सकते हैं। अपने उत्तम कुलकी तरह कोई किसीकी धरोहरका उच्छेद नहीं करता। गाँवोंके रतक अपनी संतानों के समान लोगोंकी रक्षा करते हैं। अधिक धन मिलता हो तो भी चुंगीके अधिकारी, अपराधके प्रमाण दंडकी तरह योग्य कर वसूल करते हैं। उत्तम सिद्धांत ग्रहण करनेवाले शिष्य जैसे पुन: गुमके साथ विवाद नहीं करते हैं वैसेही, हिम्सेदार लोग हिस्सा दे लेकर फिर कमी झगड़ा नहीं करते। तुम्हारे राज्यमें सभी लोगन्यायी हैं, इसलिए वे परस्त्री. को, अपनी बहिन, कन्या, पुत्रवधू या माताके समान समझते हैं।जैसे प्रतियोंके उपायोंमें बैरवाणी नहीं होती वैसेही, तुम्हारे राज्योंमें भी वैरवाणी नहीं है। जैसे जलमें ताप नहीं होता वैसेही, तुम्हारी संतुष्ट प्रनामें आधि-व्याधि नहीं है। चोमासेमें तृषाकी तरह सारी पृथ्वी औषधिमय होनेसे उसमें बसनेवाले लोगोमें किसी तरहकी व्याधि नहीं है। और आपसाक्षात कल्पवृक्ष हैं इसलिए किसीको गरीबीका दुःख नहीं है । इसके सित्रा यद्यपि यह संसार दुःखकी खानके समान है तथापि मुझे किसी तरहका दुःख नहीं है। हाँ, मगर मुझ गरीवपर एक यह दुःस्त्र श्रा पड़ा है। (८०-८६) इस पृथ्वीमें, स्वर्गके जैसा, अर्थती नामका एक बड़ा देश Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७४५ है। वह निर्दोष नगर उद्यानों और नदियों वगैरासे बहुत सुंदर मालूम होता है। उसमें अश्वभद्र नामका एक गाँव है। वह बड़ेबड़े सरोवरों, कूओं, वापिकाओं और विचित्र आरामोंसे (बगी. चोंसें ) सुंदर और पृथ्वीका तिलक जान पड़ता है। मैं, उस गाँवका रहनेवाला, वेदाध्ययनमें तत्पर, शुद्ध ब्रह्माकुलमें जन्मा हुआ, एक अग्निहोत्री ब्राह्मण हूँ। एक बार मैं अपना प्राणप्रिय पुत्र, उसकी. माताको सोंप, विशेष विद्या पढ़नेके लिए दूसरे गाँव गया । एक दिन पढ़ते पढ़ते, बिनाही कारण, मुझे पढ़नेमें स्वाभाविक अरुचि हो आई; उस समय यह सोचकर कि, यह बड़ा अपशकुन हुआ है, मैं व्याकुल हो उठा। उस अपशकुनसे डरकर मैं, जातिवंत घोड़ा जैसे पूर्वाश्रित मंदुरा (घुड़शाल) में आता है वैसेही, अपने गाँव वापस आया। दूरसे मैंने अपने घरको शोभाहीन देखा। मैं सोचने लगा कि इसका कारण क्या है ? उसी समय मेरी दाहिनी आँख तेजीसे फड़कने लगी और एक कौश्रा सूखे वृक्षकी डालपर बैठकर कठोर वाणी में काँव ! काँव !! करने लगा। इन अपशकुनोंसे मेरा हृदय, वाण लगा हो ऐसे, बिंध गया। मेरा मन खीज उठा । मैं चुगलखोर भादमीकी तरह घरमें घुसा। मुझे आते देखकर मेरी स्त्री-जिसके केश इधर उधर फैल रहे थे- 'हा पुत्र ! हा पुत्र ! चिल्लाती हुई • जमीन पर लोट गई। उसकी दशा देखकर मुझे निश्चय हो गया कि मेरा पुत्र मर गया है। मैं भी ( शोकके वेगसे ) प्राणरहित मनुष्यकी तरह पृथ्वीपर गिर पड़ा। जब मेरी मूर्छा दूर हुई तब मैं करुण कंठसे विलाप करता हुआ घरमें चारों तरफ देखने लगा। मुझे मेरा यह पुत्र घरमें मरा पड़ा दिखाई दिया। इसको Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ७४६ ] शिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. सांपने काटा था। मैं खाना-पीना छोड़कर रात भर, जागता हुआ शोकमग्न अवस्था में बैठा रहा । उस समय मेरी कुलदेवीन आकर मुझसे कहा, "हं वत्स ! नू पुत्रशोकसे इतना न्याफुल क्यों हो रहा है ? अगर तू मेरी बात मानेगा तो मैं तेरे पुत्रको जीवित कर दूँगी" (६०-१०३) तब मैंने हाथ जोड़कर कहा, "हे देवी! मुझे आपकी आज्ञा स्वीकार है। कारण "पुत्रार्थ शोऋविधुरैः किं वा न प्रतिपद्यते ।" [पुत्रशोकसे दुखी पुरुष (अगर पुत्रके जीनेकी आशा हो तो ) क्या स्वीकार नहीं करते ? अर्थात सब कुछ स्वीकार करते हैं।] फिर देवीने कहा, "जिसके घरमें आज तक कोई न मरा हो उसके घरसे तू शीघ्र जाकर मांगलिक अग्नि ले आ।" (१०४-१०५) तबसे मैं पुत्रको लिलानेके लोभसे हरेक घरमें पूछता हुआ और बालककी तरह हँसीका पात्र बना हुआभ्रांतिसे भटक रहा हूँ। जिस घर में जाकर मैंने पूछा है उसी घरवालेने अपने घरमें असंख्य आदमियोंके मरनेकी बात कही है। अबतक एक भी घर ऐसा नहीं मिला जिसमें आज तक कोई मरा न हो। इससे श्राशाहीन होकर मैंन, मरं हुए की तरह, नष्टद्धि होकर, दीन वाणीमें सारी बातें देवीसे कहीं । (१०६-१०८) कुलदेवीन कहा, "यदि एक भी घर पूर्ण मंगलमय नहीं है नो मैं तुम्हारा अमंगल कैसे मिटा सकती हूँ ?" (१०६) Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र - [७४७ - देवीकी बात सुनकर तोत्र ( बाँसकी लकड़ी) की तरह हरेक गाँव और हरेक शहरमें फिरता हा मैं यहाँ आया है। हे राजन् ! आप सारी पृथ्वीके रक्षक हैं; बलवानोंके नेता हैं। आपके समान दूसरा कोई नहीं है। वैतान्य पर्वतके दुर्गपर स्थित दोनों श्रेणियोंमें रहनेवाले विद्याधर भी आपकी आज्ञाको, मालाकी तरह मस्तकपर धारण करते हैं; देवता भी सेवककी तरह आपकी आज्ञा मानते हैं। नवनिधियाँ भी हमेशा आपको इच्छित पदार्थ देती हैं। दीन लोगोंको आश्रय देना आपका सदाका व्रत है । मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप मेरे लिए कहींसे मंगलाग्नि मँगवा दीलिए; जिससे देवी मेरे पुत्रको जिंदा करदे। मैं पुत्रके मरनेसे अत्यंत दुखी हूँ।" ( ११०-११५) राजा संसारके दुखोंको जानते थे, तो भी वे करुणावश ब्राह्मणके दुखोंसे दुखी हुए। कुछ क्षणों के बाद कुछ सोचकर कहने लगे, "हे भाई! इस पृथ्वीमें पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुकी तरह सभी घरोंमें हमारा घर बहुत उत्कृष्ट है। परंतु इस घरमें भी तीन अगतके लिए मानने योग्य शासनवाले, तीर्थंकरोंमें प्रथम और राजाओं में भी प्रथम, और लाख योजन ऊँचे मेरुपर्वतको डडेके समान बना (उसके सहारे) अपनी भुजाओंसे इस पृथ्वीको छत्रके समान बनाने में समर्थ और चौसठ इंद्रोंके मुकुटोंसे जिनके चरणकमलोंकी नखपंक्तियाँ चमक उठी थीं ऐसे ऋपभस्वामी भी कालके योगसे मृत्युको प्राप्त हुए। उनके प्रथम पुत्र भरतराजा भो-जो चक्रवर्तियों में प्रथम थे, सुरासुर सभी आनंदसे जिसकी आज्ञा मानते थे और जो सौधर्मेद्रके प्राधे श्रासनपर अठते धे-आयुष्य समाप्त होनेपर इस नर-पर्यायको छोड़कर चले Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] त्रिषष्टि शनाफा घुमय-चग्निः पर्व २. सर्ग ६. - गए। इनके छोटे भाई श्रावली मी-जी भुजपराक्रमवामि स्वयंभूगमगा समुद्री नरह धुरीगा कहलात थे और दीक्षा ग्रहण करने के बाद (ध्यानमग्न होनेपर.) मैंग, हाथी और अष्टापद आदि पशुमानिनके शरीरमे अपना शरीर खुजात ना मी जो अपित वनरकी तरह एक वर्ष तक प्रतिमायारी रहे थे-पायु समान होनेपर एक नगा लिए भी अधिक न जी सके । मात चक्रवर्तीके पराक्रमी पुत्र श्रादित्ययशा हुए हैं। उनका पराक्रम श्रादित्य (सूर्यन ) क्रम नहीं था। उनके पुत्र महायशा हम उनका यशोगान दिगदिगाम होता था और व पराक्रमियाम शिरोमगि थे। उनका पुत्र अनिवल हुश्राः इंद्रकी तरह उसका शासन अायट पृथ्वीपर था। उसका पुत्र बलमद हुश्रा, वह अनम जगतको वश करनेवाला थोर ननसे सूर्य समान था। उसका पुत्र बलवीय हवा; बह महापराक्रमी, शौर्य व धेयपारियों में मुस्थ्य और राजाओं में श्रगुश्रा था। उसका पुत्र कीर्तिवीर्य था: बह कीर्ति और बीस प्रयान था; बह ऐसाही उज्ज्वल था जैप एक दीपक, दूसरा दीपक होता है। उसका पुत्र वनवीर्य हुश्राः यह साथियों में गंधहस्तिकी तरह और श्रायुधम बमडकी नाह मुन्थ्य एवं जिसमें पराक्रमको कोई रोक नहीं सकना या पराक्रमी था। उसका पुत्र इंडवीर्य हुश्रा बहमानो दुमरा यमराज हो या अड शक्तिवाला और सरह सुनदंडवाला था। समीदक्षिण भरता के स्वामी, महापामामी और ईदक द्वारा दिए गए भगवान मुटको घारगा बरनवान थे। इसी नरह अपने लोकोत्तर, पराक्रमसे थे देत्रों और भमुरीस भी न जीने जा सकते थे। भी देवयोगस Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७४४ इसी घरमें जन्मे थे, तो भी मरण-शरण हुए हैं। उनके बाद भी महान पराक्रमी असंख्य राना हुए हैं और वे सभी मरे हैं। कारण ..........."कालो हि दुरतिक्रमः।" [काल निश्चयही दुरतिक्रम है-अलंध्य है। ] हे ब्राह्मण ! मौत चुगलखोरकी तरह सबको हानि पहुँचानेवाली है, आगकी तरह सबको खानेवाली है व जलकी तरह सबको भेदनेवाली है। मेरे घरमें भी मेरे कोई भी पूर्वज मौतसे नहीं बचे, तब दूसरों के घरकी तो बात ही क्या है ? इससे देवीने कहा वैसा मंगलघर कहाँ मिलेगा ? इससे अगर तेरा एक पुत्र मरा है तो इसमें न कोई बात आश्चर्यकी है न अनुचित ही। हे ब्राह्मण ! जो मौत सबके लिए सामान्य है उसके लिए तू क्यों शोक करता है ? बालक हो, बूढ़ा हो, दरिद्र हो या चक्रवर्ती हो, मौत सबके लिए समान है। संसारका ऐसाही स्वभाव है कि • इसमें, नदीकी तरंगोंकी तरह, या शरदऋतुके बादलोंकी तरह, कोई चीज स्थिर नहीं रहती। फिर इस संसारमें माता, पिता, भाई, पुत्र, बहिन और पुत्रवधू वगैरा जो संबंध हैं वे पारमार्थिक नहीं हैं । गाँवकी धर्मशालामें जैसे मुसाफिर जुदी जुदी दिशाओंसे आकर एकत्र मिलते हैं वैसेही, कोई कहींसे और कोई कहींसे इस संसारमें आकर एक घरमें इकट्ठे होते हैं। उनमेंसे फिर सभी अपने अपने कर्मों के परिणामोंके अनुसार जुदा जुदा रस्तोंसे चले जाते हैं । इसके लिए कौन सुबुद्धि मनुष्य लेशमात्र भी शोक करता है? हे द्विजोत्तम ! इससे तुम मोहका मिह जो शोक है उसका त्याग करो, धीरज रखो भार ६ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० ] त्रिषष्टि शलाका पुनप-चरित्रः पर्ष ३. सर्ग ६. - - - महासत्व ! तुम अपने प्रात्मामें विवेक धागा करो।" (११६-१४५) प्राह्मणने कहा, हे गाला ! मैं प्राणियोंक संसारके स्वरूपको अच्छी तरह जानता हूँ मगर पुत्र शोकसे श्रान भूल गया हूँ। कारण-जब तक मनुष्यको इष्टवियोगका अनुभव नहीं होता तब तक सभी सबकुछ जानते हैं और धीरज रखते हैं। हे स्वामिन ! हमेशा, अइतकं अादेशम्पी अमृतपानसे जिनका चित्त निमस्त हुया है से, तुम्हार समान, धीरनधारी और वियेकी पुरुप घिरलेही होते हैं। हे विवेकी ! श्रापने मुझ मोहमें फंसनेवालेको उपदेश दिया, यह बहुत उत्तम किया; मगर, यह विवेक तुम्हें, अपनी यात्माक लिए भी धारण कर लेना चाहिए । कष्ट होनेपर मोहादिक द्वारा नाश होती हुइ यह श्रात्मा रक्षणीय है। कारण, हथियार. इसलिए धारण किए जाते हैं, फिच संकटक समय काममें यावे; मगर उनका उपयोगहर. समय नहीं होता। यह काल रंक और चक्रवर्ती सबके लिए समान है। यह किसी के भी ग्राण और पुत्र ले लाते नहीं डरता। जिस घरमें थोई पुत्र होते है उसमें थोड़ मरने हैं और जिसमें अधिक होते हैं, उसमें अधिक मरत है, मगर पीड़ा दोनोंको इसी तरह समान होती है जिस तरह कीड़ेपर व हाथीपर थोड़ा और अधिक प्रहार होनसे उनको होती है। जैसे मैं अपने एक पुत्रका नाश होनसे शोक नहीं कींगा सेही, तुम भी अपने सभी पुत्रांका नाश होनपर भी शोकन करना । हे राजा! मुजपराक्रमसे मुशोभित तुम्हारे साठ हजार पुत्र कालरोगसे एक साथ मृत्युको पाप हैं।” (१४६-१५५) Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७५१ उसी समय कुमारोंके साथ गए हए सामंत, अमात्य.सेनापति वगैरा और जो कुमारॉकी हाजिरीमें रहनेवाले नौकर थे वे सभी-जो वहाँ पासहीमें खड़े थे-उत्तरीय वस्त्रोंसे मुंह ढंके लज्जासे सर झुकाए, दावानलसे जले हुए वृक्षोंकी तरह दुःखसे विवर्ण शरीरवाले, पिशाच और किन्नरोंकी तरह अत्यंत शून्य मनवाले, लुटे हुए कृपणों की तरह दीन और आँसूभरी आँखोंवाले, मानो साँपोंने काटा हो ऐसे कदम कदम पर गिलं गिरूँ करते, मानो संकेत किया हो ऐसे, सभी एक साथ सभामें आए और राजाको प्रणाम कर, मानो जमीनमें धंस जाना चाहते हों ऐसे, सर झुकाए अपने अपने योग्य आसनोंपर बैठे। (१५६-१६०) ऊपर जिसका उल्लेख हो चुका है ऐसी, ब्राह्मणकी वाणी सुनकर तथा विना महावतके हाथियोंकी तरह, आदमियोंको आया देखकर उसकी आँखें इस तरह स्थिर हो गई मानो घे चित्रलिखित हों, निद्रावश हों, स्तंभित हो या शून्य हो । राजा अधैर्यवश मूञ्छित हो गया। जब उसकी मूर्छा गई तथ ब्राह्मणने उसे पोध देने के लिए फिरसे कहा, "हे राजा ! विश्वकी मोहनिद्राका नाश करनेके लिए सूर्यके समान ऋषभदेवके तुम वंशज हो और अजितनाथ स्वामीके तुम भाई हो; फिर भी तुम सामान्य मनुष्यकी तरह मोहके वशमें पड़कर उन दोनों महात्माओंको क्यों कलंकित करते हो ?" ( १६१-१६५) राजाने सोचा."gस प्राणने अपने पुत्रकी मौतके यहाने, मेरे पुत्रोंके नाशरूपी नाटककी प्रस्तावना सुनाई थी। यह बाह्मण साफ तौरसे मेरे पुत्रों की मौतकी बात कह रहा है। इसी Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७५२ 1 त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. तरह मेरे ये प्रधान पुरुप भी, कुमारोंके बिना अकेले इस दिशामें यहाँ आए हैं। मगर वनमें विचरते केसरीसिंहकी तरह पृथ्वीपर इच्छापूर्वक भ्रमण करते हुए मेरे कुमारोंका नाश कैसे संभव हो सकता है ? महारत्न जिनके साथ हैं और जो अपने पराक्रमसे भी अजेय हैं ऐसे अस्खलित शक्तिवाले कुमारोंको कौन मार सकता है ?" - फिर उसने पूछा, "यह बात क्या है ?" तव अमात्यादिने नागकुमारोंके इंद्र ज्वलनप्रमका सारा हाल कह सुनाया। उस हालको सुनकर वज्जताड़ितकी तरह, भूमिको भी कँपाता हुआ वह, मूञ्छित होकर जमीनपर गिर पड़ा। कुमारोंकी माताएँ भी मूच्छित होकर जमीन पर गिर पड़ीं। कारण "पितुर्मातुश्च तुल्यं हि दुःखं सुतवियोगजं ।" [पुत्रके वियोगका दुःख माता और पिता दोनोंको समानही होता है।] उस समय समुद्रके तटपर खड़ेके अंदर गिरे हुए। जलजंतुओं की तरह अन्य लोगोंका महाप्रानंदन भी राजमंदिर में होने लगा, मंत्री वगैरा राजकुमारोंकी मौतकी साक्षीरूपा अपनी आत्माकी निंदा करते हुए करुण स्वरमें रोने लगे। स्वामीकी उस हालतको देखने में मानो असमर्थ हों ऐसे,छडीदार भी हाथोंसे मुँह ढंक कर ऊँची आवाजमें हाय-तोवा करने लगे आत्मरक्षक अपने प्राणप्रिय हथियारोंकात्याग करते हुए हवासे टूटकर गिरे हुए वृक्षोंकी तरह पृथ्वीपर गिरकर लोटने और विलाप करने लगे; दावानलम पड़े हुए तीतर पक्षीकी तरह कंचुकी अपने कंचुक फाड़ फाड़कर रोने लगे और चिरकालके Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्रः [७५३ बाद आए हुए शत्रुकी तरह छाती कूटते हुए दास दासी 'हम मारे गए' कहते हुए क्रोध करने लगे। (१६६-१७८) फिर पंखोंकी हवासे और पानी छिड़कनेसे राजा और रानी दुःखशल्यको टालनेवाली संज्ञा पाने लगे ( अर्थात उनकी वेहोशी जाती रही।) जिनके वस्त्र, आँसुओंके साथ बहते हुए काजलसे मलिन हो गए थे। जिनके गाल और नेत्र, फैली हुई केशरूपी लतासे ढंक गए थे, जिनके छातीपर लटकते हुए हारोंकी लड़ियों, हाथोंसे छाती पीटनेके कारण, टूट रही थीं; पृथ्वीपर बहुत लोटनेसे जिनके कंकणोंके मोती फूट रहे थे वे इतने दीर्घनिःश्वास डाल रही थीं मानो वे शोकाग्निका धुआँ थे और जिनके कंठ और अधरदल सूख गए थे-ऐसी रानियाँ अत्यंत रुदन करने लगीं। (१७६-१५२) चक्रवर्ती सगर भी उस समय धीरज, लाज और विवेक. को छोड़, रानियोंकी तरह शोकसे व्याकुल हो इस तरह विलाप करने लगा, "हे कुमारो! तुम कहाँ हो ? तुम भ्रमण करना छोड़ो। अब तुम्हारे लिए राज्य करनेका और मेरे लिए व्रत ग्रहण करनेका अवसर है। इस ब्राह्मणने सत्यही कहा है, 'दूसरे कोई तुमसे नहीं कहते कि चोरके समान छलिया भाग्यके द्वारा तुम लूटे गए हो। हे देव ! तू कहाँ है ? हे अधम नागराज ज्वलनप्रभ ! तू कहाँ है ? क्षत्रियों के लिए अयोग्य ऐसा आचरण करके अब तू कहाँ जाएगा? हे सेनापति तेरेभुजवलकी प्रचंडता कहाँ गई ? हे पुरोहितरत्न ! तेरा क्षेमकरपन कहाँ गया ? हे वर्द्धकी रत्न ! तेरी दुर्गरचनाकी कुशलना क्यागल गई थी ? हे Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i७५४] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग है. गृहीरत्न! तेरी संजीवनी श्रीपधियाँ क्या न कहीं भूल गया था ? हे गजरत्न! उस समय तुझे क्या गजनिमीलिका' हुई थी ? हे अश्वरत्न ! उस समय क्या तुझे शूलने सताया था ? हे चक्र ! हे दंड ! हे खड्ग ! उस समय तुम क्या छिप गए थे ? हे मणि और काँकिणी रत्न ! क्या तुम भी उस समय दिनके चंद्रमाकी तरह तेजहीन हो गए थे? हे छत्ररत्न ! हे चर्मरत्न ! तुम क्या बाजेके चमड़ेकी तरह फट गए थे ? हे नवनिधियो! क्या तुमको पृथ्वीने निगल लिया था। अरे! तुम सबके भरोसे मैंने कमारोंको शंकाहीन होकर भेजा था। खेलते हुए राजकुमारोंकी उस अधम नागसे तुमने रक्षा क्यों न की? अथवा सर्वनाश हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ? शायद इस ज्वलनप्रभका, उसके वैश सहित नाश कर डाल; मगर इससे क्या मेरे कुमार पुन: नीवित होंगे? ऋषभस्वामीकं वंशमें श्राज तक कोई इस तरह नहीं मरा। इं पुत्रो! तुम इस लज्जाजनक मृत्युको कसे प्राप्त हुए? मेरे सभी पूर्वज अपनी श्रायु पूरी करके ही मरनेवाले हुए है। उन्दोंने अंतमें दीक्षा ग्रहण कर स्वर्ग या मोन पाया है। हे पुत्रो! जैसे जंगलमें उगे हुए वृक्षोंके दोहद पूरे नहीं होते हैं वैसेही तुम्हारी स्वेच्छा विहारकी इच्छा अबतक पूरी नहीं हुई थी। उदयमें पाया हुआ पूर्ण चाँद राहुसे असा गया; फजे-फूले वृक्षों को हाथीने तोड़ डाला; किनारेपर पहुँचे हुए जहाजके, तटके पर्वनने, टुकड़े कर दिए आकाशमें पाए हुए नवीन मेघको हवाने छिन्न-भिन्न कर दिया, पके हुए धानका खेत दावानलमें भस्म - - -एक रोग जिससे रायीकी आँखें बंद हो जाती है, न देखनेकाबहाना। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [७५ हो गया। इसी तरह धर्म,अर्थ व कामके योग्य बने हुए तुम नष्ट हो गए।हे पुत्रो !कृपण धनाध्यके घर आए हुए याचकों की तरह मेरे घर आकर तुम अकृतार्थ अवस्थामेंही यहाँसे चले गए। यह कितने दुःखकी बात है ? हे पुत्रो! उद्यानादि बिना चंद्रिकाकी तरह, श्राज चक्रादि रत्न और नवनिधियों तुम्हारे बिना मेरे किस कामके हैं ? प्राणप्रिय पुत्रों के विना यह छह खंड भरत क्षेत्रका राज्य मेरे लिए व्यर्थ है।” (१८३-२०२) इस तरह विलाप करते हुए सगर राजाको समझानेके लिए उस ब्राह्मण श्रावकने अमृत के समान मधुर वाणीमें फिरसे कहा, "हे राजा! तुम्हारे वंशने पृथ्वीकी रक्षाकी तरह ज्ञान भी अधिः कारमें पाया है (यानी ज्ञान भी विरासतमें मिला है।) इसलिए दूसरा कोई तुमको वोध दे, यह व्यर्थकी बात है। जगतकी मोहनिद्रा नष्ट कराने के लिए सूर्य के समान अजितनाथ स्वामी जिस. के भाई हों उसे दूसरेसे उपदेश मिले,यह बात क्या लज्जाजनक नहीं है ? जब दूसरे यह जानने हैं कि यह संसार असार है तब तुमेको तो यह बात अवश्य मालूम होनी ही चाहिए क्योंकि तुम तो जन्महीसे सर्वज्ञके सेवक हो। हे राजा! पिता,माता,जाया, पुत्र और मित्र ये सब संसारमें सपने के समान हैं। जो सबेरे दिखता है वह मध्याह्नमें नहीं दिखता और जो मध्याहमें दिखता है वह रातमें नहीं दिखाई देता। इस तरह इस संसारमें सभी पदार्थ अनित्य हैं। तुम स्वयही तत्त्ववेत्ता हो, इसलिए धीरज धरो। कारण, सूर्य दुनियाको प्रकाशित करता है, परंतु सूरजको प्रकाशित करनेवाला कोई नहीं होता।" (२०३-२०६) . लवण समुद्र जैसे मणियों और लवणसे व्याप्त होता है। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. पक्षकी मध्यरात्रि जैसे अंधकार और प्रकाशसे व्याप्त होती है; हिमाचल पर्वत जैसे दिव्य औषधियों और हिमसे व्याप्त होता है वैसे उस ब्राह्मणके उपदेशको और पुत्रोंकी मृत्युके समाचारको सुनकर सगर राजा उपदेश और मोहसे व्याप्त हो गया। उस राजाके हृदयमें जैसा स्वाभाविक महान धैर्य था वैसाही मोह पुत्रों की मृत्युके समाचारसे आया था। एक म्यानमें दो तलवारोंकी तरह और एक खंभेमें दो हाथियोंकी तरह राजाके दिलमें बोध और मोह एक साथ उत्पन्न हुए। तब राजाको समझानेके लिए सुबुद्धि नामका बुद्धिमान मुख्य प्रधान अमृतक जैसी वाणीमें बोला, "शायद समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे, शायद पवंतसमूह कपित हो,शायद पृथ्वी चपल हो उठे, शायद वज जर्जर हो जाए,मगर अापके समान महात्मा महान दुःखोंके आने पर भी, जरासे भी नहीं घबराते। इस संसारमें क्षणभर पहले दिखाई देनेवाले और क्षणभरके बाद नष्ट होनेवाले सर्व कुटुंया. दिको जानकर विवेको पुरुष उनमें मोह.नहीं करते हैं। इसके संबंधमें एक कथा कहता हूँ। आप ध्यान देकर सुनिए। (२१८-२१६) . इस जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रके किसी नगरमें एक राजा था। वह जैनधर्मरूपी सरोवर में हसके समान था, सदाचाररूपी मार्गका मुसाफिर था, प्रजारूपी मयूरोंके लिए मेघ था, मर्यादाका पालन करनेमें सागर था, सभी तरहके व्यसनरूपी तृपके लिए अग्नि था, दयारूपी वेलके लिए आश्रयदाता वृक्ष था, कीर्ति। रूपी नदीके उद्गमके लिए पर्वतके समान था और शीलरूपी. रनोंका रोहणाचल पर्वत था। वह एक बार सुखसे अपनी सभा Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . श्री अजितनाथ-चरित्र (५७ में बैठा था, उस समय छड़ीदारने श्राकर विनती की, "कोई पुरुष आया है । उसके हाथमें फूलोंकी माला है। कोई कलाकार जान पड़ता है। वह आपसे कुछ निवेदन करनेके हेतु आपके दर्शन करना चाहता है। वह पंडित है कवि है, गंधर्व है, नटं है, नीतिवेत्ता है, अवविद्याका जाननेवाला है या इंद्रजालिक है सो कुछ मालूम नहीं होता, मगर आकृतिसे वह कोई गुणवान मालूम होता है। कहा जाता है कि जहाँ र दर कृति होती है यहाँ गुण भी होता है।" ( २२०-२२६) - राजाने आज्ञा दी, "उसको तुरन्त यहाँ वुलालाओ कि जिससे वह अपने मनकी बात कहे।" । राजाकी आज्ञासे छड़ीदारने उसे सभामें जाने दिया। उसने राजाकी सभामें इस तरह प्रवेश किया जिस तरह बुध सूर्यके मंडलमें प्रवेश करता है। खाली हाथ राजाके दर्शन न करने चाहिए' यह सोचकर उसने मालीकी तरह एक फूलोंकी माला राजाके भेट की। फिर छड़ीदारके बताए हुए स्थानमें मासन देनेवालोंने उसे एक श्रासन बताया। वह हाथ जोड़कर उसपर बैठा । (२२७-२३०) फिर जरा आँखें विस्फारित कर, हास्यसे ओंठोंको फैला राजाने कृपापूर्वक उससे पूछा, "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रं इन चार वर्षों में से तुम किस वर्णके हो ? अंबष्ठ और मागध वगैरा देशोंमेंसे तुम किस देशके हो ? श्रोत्रिय हो ? पौराणिक हो ? स्मात हो ? जोपी हो? तीन विद्याएँ जाननेवाले हो ? धनुषाचार्य हो १. ढाल तलवारके उपयोगमें होशियार हो? तुम्हें माला चलानेका अभ्यास है ? तुम शल्य जातिके शस्त्रोंमें कुशन हो ? Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८] त्रिषष्टि शलाफा पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग. तुम गदायुद्ध जानते हो? तुम दंडयुद्ध में पंडित हो ? तुम शक्ति चलानेमें विशेष सशक्त हो? मूसलशस्त्रमें कुशल हो ? हलशबमें अधिक चतुरहो ? चक्र चलानेमें पराक्रमी हो ? छुरीयुद्धमें निपुण हो? वायुयुद्धमें चतुर हो? अश्वविद्याके जानकार हो ? हाथीकी शिक्षामें समर्थ हो ? व्यूहरचनाके जाननेवाले प्राचार्य हो?व्यूहरचनाको तोड़ने में कुशल हो ? रथादिककी रचना जानते हो? रथोंको चला सकते हो ? सोना चाँदी वगैरा धातुओंको गढ़ना जानते हो ? चैत्य,प्रासाद और हवेली वगैरा चुनने में निपुण हो? विचित्र यंत्रों और किलों वगैराकी रचनामें चतुर हो? किसी सांयात्रिक' के कुमार हो ? किसी सार्थवाहके सुत हो ? सुनार हो? मणिकार हो? वीणामें प्रवीण हो? वेणु बजानेमें निपुण हो ? ढोल बजानेमें चतुर हो ? तबला बनाने में उस्ताद हो ? वाणीके अभिनेता हो ? गायनशिक्षक हो ? सूत्रधार हो ? नटोंके नायक हो ?भाटहो ? नृत्याचार्य हो ?संशप्तकर हो ? चारण हो ? सभी तरहकी लिपियोंके जानकार हो। चित्रकार हो? मिट्टीका काम करनेवाले हो ? या किसी दूसरी तरहके कारीगर हो? नदी, द्रह या समुद्र तैरनेकी क्या कभी तुमने कोशिश की है ? या माया, इंद्रजाल अथवा दूसरे किसी कपटप्रयोगमें चतुर हो ?" . ( २३१-२४५) इस तरह श्रादरके साथ राजाने उससे.पूछा, तब वह नमस्कार कर विनय सहित इस तरह बोला, "हे राना, जैसे जलका: आधार समुद्र और तेजका आधार सूर्य है, उसी तरह -जलमार्गसे व्यापार करनेवाला । २-युद्धसे परामुख न होने की प्रतिज्ञा करनेवाला युद्ध। Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [.७५६ सभी पात्रोंके (यानी सब तरहके आदमियोंके)आप आधार हैं। मैं वेदादि शाओंको जाननेवालोंका सहाध्यायी हूँ; धनुर्वेदादि जाननेवालोंका मानो मैं आचार्य हूँ, उनसे अधिक जानता हूँ; सभी कारीगरोंमें मानो मैं प्रत्यक्ष विश्वकर्मा हूँ; गायन इत्यादि कलाओं में मानो पुरुषके रूपमें मैं साक्षात सरस्वती हूँ; रत्नादिकके व्यवहार में मानो मैं जौहरियोंका पितातुल्य हूँ; वाचालतासे मैं चारण-भाटोंके उपाध्याय जैसा हूँ; और नदी वगैरा तैरनेकी कला तो मेरे बाएँ हाथका खेल है। मगर इस समय तो इंद्रजालका प्रयोग करनेके लिए मैं आपके पास आया हूँ। मैं तत्कालही आपको उद्यानोंकी एक पंक्ति वता सकता हूँ और उसमें वसंतादि ऋतुओंका परिवर्तन करनेमें भी मैं समर्थ हूँ। आकाशमें गंधर्व नगरका संगीत प्रकट कर सकता हूँ। क्षणभरमें मैं अदृश्य,दृश्य तथा अंतर्धान हो सकता हूँ। मैं कटहलकी तरह खैरके अंगारे खा सकता हूँ तपे हुए लोहे के तोमरको सुपारीकी तरह चबा सकता हूँ; मैं जलचरका, स्थलचरका या खेचरका रूप एक तरहसे या अनेक तरहसे परकी इच्छाके अनुसार धारण कर सकता हूँ; मैं दूरसे भी इच्छित पदार्थ ला सकता हूँ पदार्थों के रंगोंको तत्काल ही बदल सकता हूँ; और दूसरे अनेक अचरज पैदा करनेराले काम बतानेका कौशल मुझमें है। इसलिए हे राजन् ! आप मेरे इस कलाभ्यासको, देखकर उसे सफल बनाइए।" (२४६-२५७) इस तरह उसके, गर्जना करके स्थिर हुए मेघकी तरह, प्रतिज्ञा करके, चुप होनेपर राजाने कहा, "हे कलाविन्द पुरुष ! जैसे कोई चूहा पकड़नेको पहाड़ खोदता है, मछलिया वगैरा Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्य २. सर्ग ६. पकड़ने के लिए सरोवर मुखाना है, लकड़ी के लिए आम्रवन जाता है, मुही भर चुन लिए चंद्रकांतमगि जलाता है, घावपर पट्टी बाँधने के लिए देवदूष्य वख फाड़ता है और खीलीके लिए बढ़ा देवालय तोड़ता है, वैसेही म्फटिकके समान शुद्ध और 'परमार्थ प्राप्त करनेकी योग्यनावाले अपने श्रात्माको तुमने अपविद्या प्राप्त करने में मलिन बनाया है। संनिपातके रोगीकी तरह तुम्हारी इम अपविद्याको देखनेवालेकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है। तुम याचक हो इमलिए इच्छानुसार धन माँग लो। हमारे कुलमें किसीकी (योग्य) श्राशाका भंग नहीं किया जाता।" (२५८-२६४) इस तरह राजाकी कठोर बातें सुनकर सदाका मानी पुरुष अपने क्रोधको छिपाता हुया बोला, "क्या मैं अंधा हूँ ? बहरा हूँ ? लूला हूँ ? लँगड़ा हूँ १ नपुंसक हूँ ? या और किसी तरहसे दयापात्र हूँ कि जिससे में अपने गुण बताए बगैर ही, अचः रजमें डाले वगैरही,कल्पवृक्षके समान आपसे दान ग्रहण करूँ ?, श्रापको मेरा नमस्कार है। मैं यहाँसे कहीं दूसरी जगह जाऊँ गा।" यों कहकर वह खड़ा हुआ । 'मुझपर कृपणताका दोष आएगा' इस मयसे राजाने उसे श्रादमी भेजकर ठहरनेको कहा, मगर वह न ठहरा । सभागृहसे निकल गया। सेवकोंने रासाकी शरम यह कहकर मिटाई कि स्वामीने द्रव्य देना चाहा था तो भी उसने क्रोधके मारे नहीं लिया। इसमें स्वामीकां क्या दोष है ? (२६५-२७०) . वही पुरुष एक बार फिर ब्राक्षणका वेष धारण कर हाथमें भेट ले राजाके द्वारपर. या खड़ा था। द्वारपालने रानाको Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अजिमनाथ-घरिन [७६१ उसके श्रानेकी खबर दी। द्वारपर आए हुए मनुष्यकी ग्यवर राजाको देना तो द्वारपालका कर्त्तव्यही है। राजाकी आज्ञासे, सत्कार संबंधी कार्यों के अधिकारी पुरुपके साथ, छड़ीदारने दरबारमें उसका प्रवेश कराया। वह राजाके सामने खड़ा हो, ऊँचा हाथ कर आशीर्वादात्मक आर्यवेदोंके मंत्र, पदक्रमसे थोला । मंत्र बोलनेके बाद वह छड़ीदारके बताए हुए आसनपर बैठा। राजाकी कृपापूर्ण आँखें उसको देखने लगीं। राजाने पूछा, "तुम कौन हो ? और क्यों आए हो ?" (२७१-२७६) तब वह, ब्राह्मणोंका अग्रेसर वोला, "हे राजन् ! मैं नैमित्तिक (ज्योतिपी) हूँ; साक्षात ज्ञानके अवतार जैसे गुरुकी उपासना करके मैंने यह विद्या प्राप्त की है। आठ अधिकरणी ग्रंथ, फलादेशके ग्रंथ, जातक तथा गणितके ग्रंथ अपने नामकी तरह मुझे याद है । हे राजा ! मैं तपःसिद्ध मुनिको तरह भूत, भविष्य और वर्तमानकी बातें ठीक ठीक बता सकता हूँ।" है तब राजाने कहा, "हे प्रिय ! वर्तमान समयमें तत्कालही जी नवीन वात होनेवाली हो वह बताओ। कारण,-दूसरेको तुरंत अपने ज्ञानका विश्वास करा देनाही ज्ञानका फल है।" (२७६-२८०) तब ब्राह्मणने कहा, "आजसे सातवें दिन समुद्र सारे संसारको जलमय बनाकर प्रलय कर देगा।" (२८१) यह सुनकर राजाके मनमें विस्मय और क्षोभ एक साथ उत्पन्न हुए; इसलिए उसने दूसरे ज्योतिपियोंकी तरफ देखा। राजाकी भ्रकुटिके संकेतसे पूछे गए और ब्राह्मणकी उस दुर्घट (असंभव ) वातसे क्रुद्ध बने हुए वे ज्योतिपी उपहासके साथ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ ] निषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. - व समुद्र जंबूद्वीप भी (हे ब्राह्मण कहने लगे, "हे स्वामी ! जान पड़ता है कि यह कोई नया ज्योतिषी हुआ है, या इसके ज्योतिष शास्त्र ही नए बने हुए हैं, कि जिनके प्रमाणसे यह श्रवणके लिए दुखदाई वचन कहता है कि जगत जलमय हो जाएगा। परंतु क्या ग्रह, नक्षत्र और तारे भी नए हुए हैं कि जिनकी वक्रगतिके आधारपर यह ज्योतिषी ऐसी बात कहता है ! जो ज्योतिपशास्त्र है वे सभी सर्वज्ञके शिष्य गणधरकी रची हुई द्वादशांगीके आधार पर ही बने हुए हैं। उनके अनुसार विचार करनेसे ऐसा अनुमान नहीं होता। ये सूर्यादिक ग्रहों-जो उस शास्त्रके साथ संबंध रखते हैं-के अनुमानसे भी हम ऐसा नहीं मानते । लवण समुद्र जंबूद्वीपमें है वह किसी समय भी (हे ब्राह्मण !) तुम्हारी तरह मोदाका त्याग नहीं करता। शायद आकाशसे या जमीनसे एक नया समुद्र उठे और वह इस विश्वको जलमय करे तो भले करे। यह कोई दुःसाहसी है ! पिशाचका साधक है ! मत्त है ! उन्मत्त है ! स्वभावसे ही वातपीड़ित हैं ! अथवा असमयमै शाख पदा है ! या इसे मिरगीका रोग है कि जिससे उच्छृखल होकर, अनुचित बातें करता है ! आप मेरुकी तरह स्थिर हैं और पृथ्वीकी तरह सब कुछ सहन करनेवाले हैं,इसीलिए दुष्ट लोग स्वच्छदता पूर्वक ऐसी बातें कर सकते हैं। ऐसी बात किसी साधारण आदमीके सामने भी नहीं कही जा सकती है, तो फिर कोप या कृपा दिखानेकी शक्ति रखनेवाले आपके सामने तो कही ही कैसे जा सकती है ? ऐसे दुर्वचन बोलनेवाला वक्ता धीर है ? या जो ऐसे वचन सुनकर गुस्से नहीं होता वह श्रोता धीर है ? यदि इन वचनोंपर स्वामीको श्रद्धा हो तो भले रखें। कारण, त्याग नहीं कर Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .श्री अजितनाथ-चरित्र [७६३ इस समय तो यह वचन प्रमाणके. विना भी स्वीकार करना पड़ता है। शायद पर्वत उड़ें, आकाशमें फूल उगें, आग ठंडी हो, वध्याके पुत्र जन्मे, गधेके सींग उग आवें, पत्थर पानीपर तैरने लगे और नारकीको वेदना न हो; मगर इसकी वाणी कदापि सच नहीं हो सकती।" (२८१-२६८) .. अपनी राजसभाके ज्योतिपियोंकी बातें सुनकर योग्यअयोग्यका ज्ञान रखनेवाले राजाने कौतुक सहित नए ज्योतिपी. की तरफ देखा। वह ज्योतिषी उपहासपूर्ण वाणीमें, मानो प्रवचनने प्रेरणा की हो ऐसे, गर्वसहित बोला, हे राजा ! आपकी सभाके मंत्री क्या मस्खरे हैं ? या वसंतऋतुमें विनोद करानेवाले हैं ? या ग्रामपंडित है ? हे प्रभो! आपकी सभामें यदि ऐसे सभासद होंगे तो चतुराई निराश्रित होकर नष्ट हो जाएगी। अहो ! श्राप विश्वमें चतुर है; आपका इन मुग्ध-मूर्ख लोगोंके साथ बातचीत करना इसी तरह अशोभनीय है जिस तरह सियारके साथ केसरीसिंहका बातचीत करना । यदि ये लोग आपके कुलक्रमागत नौकर हों तो इन अल्पबुद्धि लोगोंका, त्रियोंकी तरह पोपण होना चाहिए; ये लोग आपकी सभामें बैठने योग्य इसी तरह नहीं है जिस तरह स्वर्ण और माणिक्य. से बनाए गए मुकुट में कांचके टुकड़े विठाने योग्य नहीं होते। ये लोग शाखोंके रहस्यको जरासा भी नहीं समझते; ये तोतेकी तरह मात्र पाठ पढ़कर अभिमानी हुए हैं। मिथ्या गाल फुलानेवाले और गधेकी पूंछ पकड़कर रखनेवाले लोगोंकी यह वाणी है मगर जो रहस्य-अर्थको जानते हैं वे तो सोच-विचार कर ही बोलते हैं। शायद सार्थवाहका पुतला ऊँटपर विठानेसे देशांतरों Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष , सर्ग. में फिर श्राचे, मगर इससे क्या यह कहा जा सकता है कि यह मार्गका जानकार है ? जिमने कभी पानी में पैर न रहना हो । ऐसा मनुष्य सगेवर या नदीमें, नूंचे बांधकर तैर ले, इससे ज्या यह कहा जाएगा कि उसे तैरना पाता है ? इसी तरह ये लोग गुरकी वासिं शास्त्र पढ़े है, मगर उसके रहम्याथेको जरासा भी नहीं जानते । यदिइन दुर्बुद्धि लोगोंको मेरी बातका विश्वास न हो तो विश्वास दिलानवान्त सात दिन क्या बहुत दूर है ? हे राजेंद्र ! महासमुद्र अपनी उत्ताल तरंगांस चदि जगतको बलमय बनाकर मेरी वाणीको सत्य बना देगा तो ये ल्योतिषग्रंथोंको जाननेवाने तुम्हारे सभासद च्या पर्वतोंको पक्षीकी तरह उड़ते हुए बताएँगे ? क्या वृनकी नग्ह श्राकाशपुष्प बताएंगे? क्या अग्निको जलकी तरह शीतल बताये क्या बंध्याके धेनुकी तरह पुत्र जन्माएँग ? क्या मैंसेकी तरह गयेको सींगबान्ता बताएँगे ? क्या पत्थरोको जहाजोंकी तरह सरोवराम नैराग ? और नारकियोंको बेदनारहिन करेंगे ? या इस तरह असमंजस माय बोलतं हम ये मुन्न लोग सवनमापित शास्त्रों. को अन्यथा बनाएँगे ? ई. राजा ! मैं मात दिन तक तुन्हा नौकरोंके अधिकारमें रहगा। कारण-जो मिथ्यामापी होता है वह ऐसी हालतमें नहीं रह सकता। यदि मेरी बात सातवें दिन सत्र न हो तो चोरकी तरह चांडालोस मुम, सजा दिलवाइए। (२६-३१८) राजाने कहा, "इस बाझपकी बात संदिग्ध, अनिष्ट या असंमत्र हो अथवा नच हो तो भी सात दिन तुम सयका संदेह मिट जाएगा और उसके बाद सत्यासत्यकी विवेचना Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र होगी।" फिर उसने ब्राह्मणको, धरोहरकी तरह, अपने अंगरक्षकोंको सौंपा और सभा विसर्जन की। उस समय नगरके लोग तरह तरहकी बातें करने लगे।-"अहो ! आजसे सातवें दिन महान कौतुक देखने को मिलेगा।" "अफसोस ! उन्मत्तकी तरह बोलनेवाला यह ब्राह्मण सातवें दिन मारा जाएगा।" "शायद युगांतर होनेवाला है अन्यथा अपनी जान देनेको कोन इस तरह बोलेगा ?" ब्राह्मण सोचने लगा, मैं सातवें दिन सव. को अंचरजकी वात बताऊँगा। उत्सुकताकी अधिकतासे दुखी होते हुए ब्राह्मणने बड़ी कठिनतासे सात दिन विताए । संशय मिटानेको उत्सुक बने हुए राजाने भी बार वार गिनकर छह दिन छह महीने की तरह बिताए। सातवें दिन राजा चंद्रशाला (छत) पर बैठकर ब्राह्मणसे कहने लगा, "हे विप्र, आज तेरे वचनकी और जीवनकी अवधि पूर्ण हुई। कारण, तूने कहा था कि सातवें दिन प्रलयके लिए समुद्र उछलेगा, मगर अवतक तो कहीं ज्वारका नाम भी नहीं दिखाई देता। तूने सबका अलय वताया था, इसलिए सभी तेरे बैरी हुए हैं। यदि तेरी यात झूठी होगी तो वे सभी तुझे दंड दिलानेका प्रयत्न करेंगे। मगर 'तू एक जंतुमात्र ! तुझे सजा करनेसे मुझे क्या लाभ होगा ? इससे अब भी तू यहाँसे चला जा। जान पड़ता है, तूने यह बात उन्मत्त दशामें कही है।" ( ३१६-३२६) फिर राजाने अपने रक्षकोंको आज्ञा दी-"इस विचारे गरीवको छोड़ हो । यह भले सुखसे यहाँसे चला जाए।" उस समय, जिसके अोठोंपर हँसी खेल रही है ऐसा, वह ब्राह्मण बोला, " महात्माओंके लिए यह योग्य है कि वे सबपर दया Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग रखें । हे राजा! जबतक मेरी की हुई प्रतिज्ञा झूठी नहीं होती तयतक में दयापात्र नहीं हूँ। जब मेरी प्रतिज्ञा मिथ्या होगी, तब श्राप मेरा वध करानेमें समर्थ हैं। और जब मैं वधके योग्य हो जाऊँ तब यदि आप मुझे छोड़ देंगे तो श्राप दयालु कहा लाएँगे। मुझे आपने छोड़ दिया है तो भी मैं यहाँसे नहीं जाऊँगा और कैदीकी तरह ही रहूँगा। अब मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण होनेमें थोड़ाही समय है। थोड़ी देरके लिए धीरज रखिए और यहीं बैठे हुए यमराजके अगले सैनिकों के समान उछलते हुए समुद्रकी तरंगों को देम्बिए। आपको सभाके इन व्योतिपियोंको थोड़ी देरके लिए साक्षी बनाइए। कारण, क्षणभरके बाद आप, में और ये कोई नहीं रहेंगे।" यो कद्दकर वह विप्र मौन हुा । क्षणभरके बाद मौतकी गर्जनाके समान कोई अव्यक्त शब्द सुनाई दिया। अचानक हुई उस पीड़ाकारी ध्वनिको सुनकर वनके मृगोंकी तरह सबने अपने कान खड़े किए। उस समय वह ब्राह्मण कुछ सर उठाकर, मुख श्रासनसे उठकर और मुछ ओंठोंको टेढ़ा कर इस तरह कहने लगा, "हे राजा! आकाश और पृथ्वीको भर देनेवाली, सागरकी ध्वनिको सुनिए। यह आपकी विदाईको सूचित करनेवाले मंमा (दुग्गी) की आवाजके समान है । जिसका अंशमात्र जल ग्रहण कर पुष्करावादिमेघ सारी पृथ्वीकोडुबा देते हैं वही समुद्र मर्यादा छोड़कर बेरोक इस पृथ्वीको डुबाता आ रहा है। उसे देखिए। यह समुद्र खडॉको भर रहा है, वृक्षोंको मथ रहा है, स्थलोंको ढक रहा है और पर्वतोंको आच्छादित कर रहा है। अहो ! बह बड़ाही दुर्वार है। जोरकी हवा चल रही हो,तो Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७६७ उसका उपाय घरमें घुस जाना है और अग्निको बुझानेका उपाय जल है परंतु उछलते हुए समुद्रको रोकनेका कोई उपाय नहीं है।" ब्राह्मण यों कह रहा था, उसी समय देखतेही देखते मृगतृष्णाके जलकी तरह दूरसे चारों तरफ फैलता हुआ जल प्रकट हुआ। (३३०-३४५) - कसाई जैसे उसपर विश्वास करनेवालेका नाश करता है वैसेही, समुद्रने विश्वका संहार किया है। इस तरह हाहाकार ध्वनि हुई। लोग ऋद्ध होकर बोलने और ऊँचे सर कर-करके देखने लगे। फिर वह ब्राह्मण राजाके पास आया और उँगलीसे बताकर करकी तरह कहने लगा, "देखिए, वह डूब गया। यह डूब गया। अंधकारके समान समुद्रके जलसे पर्वत शिखर तक ढक गये। ये सारे वन ऐसे मालूम हो रहे हैं, मानो उन्हें जलने उखाड़ दिया है और इसीसे ये सारे वृक्ष अनेक तरहके जलजंतुओंके समान तैरते हुए मालूम होते हैं। थोड़ी देरमें यह समुद्र अपने जलसे गाँवों, खानों और नगरों इत्यादिका नाश करेगा। अहो! इस भवितव्यताको धिक्कार है। चुगलखोर आदमी जैसे सद्गुणोंको ढक देते हैं वैसेही, उच्छृखल समुद्रके जलने नगरके घाहरके बगीचोंको ढक दिया है। हे राजन ! समुद्र जल इस तरह किले के चारों तरफ क्यारोंकी तरह फैल गया है और उछल उछलकर टकरा रहा है। अब यह फैलता हुआ जल इस फिलेको लांघ रहा है। वह ऐसा मालूम होता है मानो बलवान घोड़ा सवार सहित उसे लांघ रहा हो। देखिए, इस समुद्र के प्रचंड जलसे सारे मंदिर व महल व नगर कुडकी तरह भर रहे हैं। हे गजा! अब यह घुड़सवारोंकी सेनाकी तरह Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ } त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. दौड़ता हुआ आपके घरके दरवाजेपर शब्द करता आ रहा है। हे पृथ्वीपति ! जलमें डूबे हुए नगरका मानो अब शेष भाग हो ऐसा यह आपका महल बंदरके समान मालूम होता है। आपकी महरवानीसे उन्मत्त बने हुए राजसेवक जैसे आपके महलोंके जीनोंपर चढ़ते हैं वैसेही, यह पानी बरोक आपके महलोंके जीनांपर चढ़ रहा है। आपके महलोंकी पहली मंजिल इब गई, दमरी इव रही है और अब तीसरी मंजिल भी डूबने लगी है। अहो! क्षणभरमें देखते ही देखते चौथी, पाँचवीं और छठी मंजिलें भी समुद्र के जलसे भर गई। विषके वेगकी तरह चारों तरफसे इन घरके अासपास जलका जोर बढ़ रहा है अव शरीरमें मस्तकी वरद्द केवल छत ही वाकी रही है। है राजा! यह प्रलय हो गया। मन जिस तरह पहले कहा था वैसाही हुआ है। उस वक्त जो मुकार हँस रहे थे वे आपकी सभामें बैठनेवाले व्योतिषी अब कहाँ गए ? (३४६-३६१) ___ तब विश्व-संहारके शोकसं राजाने पानी में कूदने के लिए खड़े होकर कमर कसी और यह बंदरकी तरह उछलकर की गया । क्षणभरके बाद राजाने अपने आपको पहले की ही तरह सिंहासनपर बैठा पाया, और क्षणमात्रमही नमुद्रका जल ग मालूम नहीं चला गया। राजाको श्रॉन्में आश्चर्यस फैल गई और उसने देखा कि वृक्ष, पर्वत, किला और सारी दुनिया जैसे थे वैसेही मौजूद हैं। (३६२-३६५) अब वह लादूगर ढोलक बाँधकर अपने हाथोंसे बजाते हए इस तरह कहने लग "आरंममें इंद्रजालका प्रयोग करने वाले और आदिमें इंद्रजालकी कलाका सर्जन करनेवाले संवर Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . . श्री अजितनाथ-चरित्र . [७६६ नामक इंद्रके चरणकमलोंमें मैं प्रणाम करता हूँ।" अपने सिंहा. सनपर बैठे हुए राजाने आश्चर्यके साथ ब्राह्मणसे पूछा, "यह क्या है ?? तब ब्राह्मणने जवाब दिया, "पहले आपको सभी कलाओंके जानकार और गुणग्राही समझकर मैं आपके पास भाया था, उस समय आपने मेरा यह कहकर तिरस्कार किया था कि इंद्रजाल मतिको भ्रष्ट करता है । इसीलिए उस समय आपने मुझे धन देना चाहा था, तो भी मैंने नहीं लिया और मैं चला गया था। गुणवानको गुण प्राप्त करनेमें जो श्रम होता है वह बहुतसा धन मिलनेसे सार्थक नहीं होता। गुणीके गुणकी जानकारीसेहीवह सार्थक होता है। इसीलिए आज मैंने, कपटसे ज्योतिषी बनकर भी, आपको अपनी इंद्रजाल-विद्या बताई है। आप प्रसन्न हूजिए ! मैंने आपके सभासदोंका तिरस्कार किया और बहुत समय तक आपको मोहमें फंसा रखा, उसकी उपेक्षा कीजिए। कारण,-तत्त्वदृष्टिसे तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है।" (३६६-३७३) , यों कहकर वह इंद्रजालिक मौन रहा। तब परमार्थका जानकार राजा अमृतके समान मधुर वाणीमें बोला,"हे विप्र! तूंने राजाका और राजाके सभासदोंका तिरस्कार किया है। इस बातका अपने मनमें कुछ डर न रखना। कारण,-तू तो मेरा महान उपकार करनेवाला हुआ है । हे विप्र! तूने मुझे इंद्रजाल दिखाकर यह बता दिया है, कि यह संसार इंद्रजालके समानही असार है। जैसे तूने जल प्रकट किया था और वह देखतेही देखते नष्ट हो चुका था वैसेही, इस संसारके सारे पदार्थ भी प्रकट ४६ . Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४] त्रिवष्टि शलाका पुन्प-चरित्रः पर्व २. सगं ६ होकर नष्ट हो जानवाल हैं। अहोगसे संसारसे श्रवक्या स्नेह करना ?" इस नरह मराजाने, संसारक बहुत दोष विप्रको बनाकर कार्य किया और बादमें दीक्षा ले ली । (३४2-३४८) __ यह क्या कर वृद्धि प्रयान बोना, ६ प्रभो ! उस साजाने ऋहा वैसे यह संसार जालके समान है। यह बात हम निश्चितन्य मानते हैं, मगर आप दो सब कुछ जानते हैं, क्योंकि श्राप अब शुलमें चंद्रमाके समान हैं।" (३५ ) रियनिक सनान वृद्धिमान दुसरा मंत्रीशोक राज्यको दूर करनेवाली बाण में नृपोटस ऋहने लगा, "पहन इसी भन्न क्षेत्र में एक नगर था। उसमें विवेक बोग गुणोंकी वानके भमान पक राजा था। एक बार वह समाने बैठा था तब छड़ीदाने श्राफर कहा, एक पुन्ध बाहर, श्राकर खड़ा है और वह अपन श्रापकानाचा प्रवासन निपुण बताता है। शुद्ध वृद्धि बाल गजानं उसे दरबार में पानी श्रादा नहीं दी। कारण, "न मायिनामृजूनां चाज शाश्रतवैरिवत् । ऋपटी मनुष्य और सरल मनुष्य आपस में, शाश्वनस्वानाविक शत्रुओं की तरह मित्रता नहीं होती।] इन्कार कर ने बह अटी खिन्न होकर वापस गया। कुछ दिनों बाद बह, शामयी देवनाची तरह व्य अदनकर श्राफाश-मार्ग राजनमाने श्राया। महायान ततयार और भाला थे और सायमें पटनीधी। राजाने उनसे पूछा, "लोन है? चहन्द्री कौन है? और यहाँ किस लिए पाया है?" (३८-३६) उसने उत्तर दिया, "ह गजन ! मैं विद्यावर हूँ। यह Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७७१ विद्याधरी मेरी प्रिया है । एक विद्याधरके साथ मेरी शत्रुता हुई है। उस स्त्रीलंपट दुरात्माने इस स्त्रीका छल कपटसे इसी तरह हरण किया था जिस तरह राहु चंद्रमाकी सुधाको हरण करता है; मगर मैं अपनी इस प्राणप्रियाको वापस ले आया हूँ। कारण, "नारीपरिभवं राजन् सहते पशवोपि न ।" [हे राजा! पशु भी नारीका अपमान नहीं सह सकते हैं।] हे राजा ! पृथ्वीको धारण करनेसे तेरे प्रचंड भुजदंड सार्थक हुए हैं; गरीबोंकी गरीबी मिटानेसे तेरी सम्पत्ति सफल हुई है; भयभीतोंको अभयदान देनेसे तेरा पराक्रम कृतार्थ हुआ है, विद्वानोंके संशय मिटानेसे तेरी विद्वत्ता अमोघ हुई है। विश्वके काँटे निकालनेसे तेरा शास्त्रकौशल्य सफल हुआ है। इनके सिवा तुम्हारे दूसरे गुण भी अनेक प्रकारके परोपकारोंसे कृतार्थ हुए हैं। इसी तरह तुम परस्त्रीको बहिनके समान समझते हो, यह बात भी शिश्वमें विख्यात है। अब मुझपर उपकार करनेसे तुम्हारे ये सभी गुण विशिष्ट फलवाले होंगे। यह प्रिया मेरे साथ है, मैं इससे बँध गया हूँ, इसलिए छल-कपटवाले शत्रुओंसे मैं युद्ध नहीं कर सकता । मैं हस्तिसेना, अश्वसेना, रथसेना या पैदलसेनाकी सहायता नहीं चाहता; मात्र तुम्हारी आत्माकी सहायता चाहता हूँ। और वह यह कि तुम धरोहरकी तरह मेरी स्त्रीकी रक्षा करो। कारण, तुम परस्त्रीके सहोदर हो। कई दूसरोंकी रक्षा करने में समर्थ होते हैं, मगर वे परस्त्रीगामी होते हैं, और कई परस्त्रीगामी नहीं होते, मगर दूसरोंकी रक्षा करने में अस. मर्थ होते हैं । हे राजा ! तुम न परस्त्रीगामी हो और न दूसरों. Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ६. की रक्षा करनेमेही असमर्थ हो । इसीलिए मैंने दूरसे आकर भी तुमसे प्रार्थना की है। यदि तुम मेरी प्रियारूपी धरोहरको स्वीकार करोगे तो फिर, यद्यपि समय बलवान है तथापि, यह समझ ही लेना चाहिए कि शत्रु मारा जाएगा।" (३८७-३६६) उसके वचन सुनकर हास्यरूपी चंद्रिकासे जिसका मुखचंद्र उल्लसित हो उठा है ऐसा वह उदार और चरित्रवान राजाबोला, "हे भद्र ! जैसे कल्पवृक्षसे केवल पत्ते माँगना, समुद्रसे सिर्फ पानी माँगना, कामधेनुसे केवल दूध माँगना; रोहिणाद्रिसे पत्थर माँगना, कुवेरके भंडारीसे अन्न माँगना और मेघसे मात्र छाया माँगना (अशोभनीय है) वैसेही तुमने, दूरसे श्राकर, मुमसे यह क्या माँगा ? तुम मुझे अपने शत्रको वताओ, ताकि मैंही उसे मार डालूँ और तुम निःशंक होकर संसारका सुख भोगो।" (४००-४०३) __ राजाके घाणीरूपी अमृतके प्रवाहसे उसकी श्रवणेंद्रिय भर उठी । वह इर्पित हुआ और राजासे इस तरह कहने लगा, "सोना, चाँदी, रत्न, पिता, माता, पुत्र और जो कुछ हो । थोड़ेसे विश्वाससे भी दूसरेको सौंपे जा सकते हैं, मगर अपनी प्यारी स्त्री बहुत बड़े विश्वस्त को भी नहीं सौंपी जा सकती। हे राजा ! ऐसे विश्वासका स्थान तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं है। कारण, चंदनका स्थान एक मलयाचल पर्वतही है। आप मेरी प्रियाको धरोहरकी तरह स्वीकार कीजिए, इससे में यही मानूंगा कि श्रापहीने मेरे शत्रुको मारा है। हे राजा ! तुमने मेरी बीकी धरोहर स्वीकार की है, इससे मुझे बड़ा आश्वासन मिला है। अब में इसी वक्त अपने शत्रको विश्वस्त भार्यावाला Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७७३ बनाऊँगा ( यानी वह मारा जाएगा और उसकी स्त्री विधवा होगी)। हे राजा ! तुम यहाँ बैठे हो, इतनेहीमें मैं केसरीसिंहकी तरह उछलकर अपना पराक्रम बताऊँगा। तुम आज्ञा दो ताकि मैं गरुड़की तरह स्वच्छंद रीतिसे क्षणभरमें आकाशमें चला जाऊँ।" (४०४-४११) ___ राजाने कहा, "हे सुभट विद्याधर ! तू स्वेच्छासे जा और तेरी स्त्री पिताके घरकी तरह यहाँ मेरे घरमें भले रहे।" (४१२) फिर तत्कालही वह पुरुष पक्षीकी तरह आकाशमें उड़ा और दो पंखोंकी तरह तीक्ष्ण और चमकती हुई तलवार और दंडफलंकको फैलाता हुआ अदृश्य हो गया। राजाने उसकी स्त्रीको अपनी पुत्रीकी तरह आश्वासन दिया, इससे वह अपने मनको स्वस्थ करके वहाँ बैठी। अपने स्थानमें बैठे हुए राजाने, मेघगर्जनाकी तरह आकाशमें सिंहनाद सुने। चमकती हुई बिजलीकी कड़कड़ाहटके समान तलवारों और ढालोंकी अनोखी वाजें सुनाई देने लगीं। "यह में हूँ! यह में हूँ ! नहीं ! नहीं! ठहर ! ठहर ! मरनेको तैयार हो!" इस तरहके शब्द आकाशसे आने लगे। राजा सभामें बैठे हुए सभ्यों सहित, अचरजमें पड़कर बहुत समय तक, ग्रहणकी वेलाकी तरह, ऊँचा मुंह करके आकाशकी तरफ देखता रहा। उसी समय राजाके निकट, रत्नकंकणसे शोभित, एक हाथ आकर पड़ा। आकाशसे गिरे हुए उस हाथको पहचाननेके लिए विद्याधरी आगे आकर देखने लगी। फिर वह बोली, मेरे गालका तकिया, मेरे कानका आभू. पण और मेरे कंठका हार यह मेरे प्रिय पतिहीका हाथ है।" (४१३-४२१) Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ 1 त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. वह इस तरह कह रही थी और मृगीकी तरह देख रही थी, उसी समय हाथका निश्चय करानेहीके लिए हो ऐसे एक पैर पृथ्वीपर पड़ा । परोंमें पहननेके कड़ेवाले उस चरणको देख, पहचान, अश्रुपात करती हुई, वह कमलवदना फिरसे कहने लगी, "अरे ! यह तो मेरे पतिहीका वह पैर है जिसे मैंने अनेक बार अपने हाथोंसे मला है, धोया है, पोंछा है और विलेपन किया है।" वह इस तरह कह रही थी उसी समय पवन द्वारा झकझोर कर गिराई हुई वृक्षकी हालकी तरह आकाशसे दूसरा साथ गिरा । रत्नोंक भुजवंद और कंकणवाले उस हाथको देखकर धारायंत्रकी पुनलीकी तरह आँसू गिराती हुई वह स्त्री बोली, "अफसोस ! यह तो मेरे पतिका वही चतुर हाथ है जो कंघीसे मेरे बालमि माँग निकालता था और विचित्र पत्रलतिकाकी लीलालिपि लिखता था।" यों कहकर वह खड़ीही थी कि 'आकाशसे दूसरा पैर भी गिरा। तब वह फिरसे कहने लगी, "हाय ! यह मेरे पतिका वही चरण है कि जिसे मैं अपने हाथोंसे दवाती थी और अपनी गोदरूपी शय्या मुलाती थी।" तभी एक धड़ और एक मस्तक, स्त्रीके दिलको दहलाते और पृथ्वीको कपाते, लमीन पर गिरा।" (४२२-४३१) । तब वह स्त्री रोरोकर कहने लगी, "हाय ! उस चलिए बलवान शत्रुने मेरे पतिको मार डाला। अरे ! मैं गरीब मारी गई। यह मेरे पतिहीका कमलके समान मुख है कि जिसे मैन परमनीतिके साथ मुडलांसे सजाया था। हाय ! यह मेरे पतिहीका यह विशाल हृदय है कि जिसके अंदर और बाहर केवल मेराही निवास था। है नाथ ! अब मैं अनाथ हो गई हूँ। हे Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७७५ स्वामी! अब तुम्हारे बिना नंदनवनसे फूल लाकर मेरे केशोंको कौन सजाएगा ? तुम्हारे साथ एक आसन पर बैठकर आकाशमें फिरते हुए अब मैं किसके साथ सुखसे वल्लकी वीणा बजाऊँगी ? कौन वीणाकी तरह मुझे अपनी गोदमें बिठाएगा? शय्यामें अस्त व्यस्त हुए मेरे केशोंको कौन सीधे करेगा ? प्रौढ़ स्नेहकी लीलासे मैं किसपर कोप करूँगी ? अशोक वृक्षकी तरह मेरा पदप्रहार किसके हर्षके लिए होगा ? हे प्रिय ! गुच्छरूप कौमुदीकी तरह गोशीर्षचंदनके रससे मेरा अंगराग कौन करेगा ? सैरंध्री दासीकी तरह मेरे गालोपर, ग्रीवापर, ललाटपर और स्तनकुंभोंपर पत्ररचना कौन करेगा ? गुस्सेका बहाना बनाकर बैठी हुई मुझे क्रीड़ा करने के लिए, राजमैनाकी तरह, कौन बुलाएगा ? जब मैं नींदका बहाना करके सो जाती थी तब तुम मुझे, हे प्रिया ! हे प्रिया! हे देवी! हे देवी ! इत्यादि मधुर वाणीसे जगाते थे; अब कौन जगाएगा? आत्माके लिए विडं. बनाके समान अब विलंब क्यों करूँ? इसलिए हे नाथ ! महामार्गके हे महान पथिक ! मैं भी आपके पीछे आती हूँ।" (४३२-४४२) इस तरह विलाप करती और अपने प्राणनाथके मार्गका अनुसरण करनेकी इच्छावाली उस स्त्रीने हाथ जोड़कर राजासे वाहनकी तरह आग माँगी। राजाने उससे कहा, "हे पवित्र इच्छावाली पुत्री ! तू पतिकी स्थितिको अच्छी तरह जाने वगैर यह क्या कहती है ? कारण, राक्षसोंकी और विद्याधरोंकी ऐसी माया भी होती है, इसलिए थोड़ी देर राह देख । फिर आत्मसाधन करना तो तेरे हाथहीमें है।" (४४३-४४५) Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग६. फिरसे उसने राजासे कहा, "यह साक्षात मेरा पतिही है। यह युद्धमें कटकर मरा हुआ दिखाई दे रहा है। संध्या सूर्यके साथही उदय होती है और सूर्यके साथही अस्त भी होती है वैसेही पतित्रता नारी भी पतिके साथ जीती है और पतिके साथही मरती भी है। मैं जीवित रहकर अपने पिता और पिताके निर्मल कुलोंमें कलंक क्यों लगाऊँ ? में आपकी धर्मपुत्री हूँ। उसे पति बिना भी जीवित देखकर हे पिता! तुम कुलस्त्रीके धर्मके जानकार होकर भी लजाते क्यों नहीं हो ? जैसे चाँद के बिना चाँदनी नहीं रहती और बादलोंके बिना बिजली नहीं रहती वैसेही पतिके विना रहना मेरे लिए उचित नहीं है। इसलिए तुम सेवकोंको आज्ञा देकर मेरे लिए काठ मँगवायो (और चिता चुनवायो) कि जिसकी भागों में पति के शरीर के साथ, जलकी तरह प्रवेश कल" (४४६-४५१ ) उसकी, आग्रहके साथ कही हुई बात सुनकर दयालु राजा शोकसे गद्गद हुई वाणी में बोला, "हे पुत्री! तू थोड़ी देर धीरज धर । तुमे पतंगकी तरह जलकर मरना योग्य नहीं है। छोटासा कामभी बिना विचार करना उचित नहीं होता।" (४५२-४५३). राजाकी बात सुनकर वह नारी नाराज हुई और बोली, "अरे !तुम अब भी मुझे रोककर रखना चाहते हो!इससे मालूम होता है कि तुम पिता नहीं हो; तुम परस्त्री-सहोदरके नामसे प्रसिद्ध हो; यह प्रसिद्धि, दुनियाकं विश्वासके लिए ही है, परमायके लिए नहीं है। यदि तुम सचमुचद्दी. धर्मात्मा पिता हो तो तत्कालही अपनी पुत्रीको, अग्निमार्ग द्वारा अपने पतिके Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७७७ - साथ जाते देखो।" (४५४-४५६ ) लाचार होकर राजाने उसको, उसकी इच्छा पूर्ण करनेकी आज्ञा दी और कहा, "हे पुत्री ! अब मैं तुझे नहीं रोकूँगा। तू अपने सतीव्रतको पवित्र कर " तब उस स्त्रीने प्रसन्नतापूर्वक, राजाके मँगवाए हुए रथमें, अपने पतिके शरीरको बड़े आदरके साथ खुदही रखा और आप अंगपर अंगराग लगा,सफेद कपड़े पहन, केशोंमें फूल गूंथ पहले की तरहही पतिके पास बैठी। सर झुकाए शोकमें मग्न राजा रथके पीछे चला । नगरके लोग अचरजके साथ देखने लगे। इस तरह वह स्त्री नदीपर पहुंची। क्षणभरमें सेवक लोग चंदनकी लकड़ियाँ लाए और मानो मृत्युदेवकी शय्या हो ऐसी चिता रची। फिर पिताकी तरह राजाने उस स्त्रीको धन दिया । वह धन उसने कल्पलताकी तरह याचकोंमें बाँट दिया, जलसे अंजली भरके, दक्षिणावर्त ज्वालावाली अग्निकी प्रदक्षिणा की और सतीके सत् धर्मका पालन करके, पति के शरीरके साथ घरकी तरह चिताकी आगमें इच्छापूर्वक प्रवेश किया। बहुतसे घीकी धाराओंसे सींची हुई आग, ज्वालाओंसे आकाशको प्रकाशित करती हुई अधिकाधिक जलने लगी। विद्याधरकाशरीर, वह स्त्री और सारी लकड़ियाँ, समुद्रमें जाता हुआ जल जैसे लवणमय हो जाता है वैसेही, जलकर राख हो गए। तब राजा उसे निवापांजलि' दे, शोकसे व्याकुल हो अपने महल में आया। (४५६-४६७) - ज्योंही शोकाकुल राजा सभामें बैठा त्योंही तलवार आर भाला हाथों में लिए वह पुरुप आकाशसे नीचे उतरा। राजा और १-जलाने के बाद की एक क्रियाविशेष। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ws ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. सभासदोंने अचरजके साथ उसकी तरफ देखा वह कपटी विद्याघर राजाके पास गया और बोला, "हे परस्त्री और परधनकी इच्छा न रखनेवाले राजा ! तुम्हारी सद्भाग्यसे वृद्धि होती है। मैंने जुआरीकी तरह जैसे अपने शत्रुको जीता वह सुनाता हूँ; सुनिए। हे आश्रय लेने योग्य ! मैं अपनी स्त्रीको आपकी शरणमें रखकर जब आकाशमें, पत्रनकी तरह उड़ा, तब वहाँ मैंने अमिमानके साथ मेरे सामने आते हुए उस दुष्ट विद्याधरको, सर्पको जैसे नकुल देखता है वैसे देखा । फिर हम दोनों दुर्जय चलोंकी तरह गर्जना करने लगे और आपसमें एक दूसरेको लड़ाईके लिए ललकारने लगे,"अच्छा हुआ कि आज मैंने तुझे देखा है। हे भुजबलका गर्व करनेवाले ! तू पहले प्रहार कर कि जिससे मैं अपनीभुजाओंका और देवताओंका कौतुक पूर्ण करूँ। अन्यथा हथियार छोड़कर रंक जैसे भोजन ग्रहण करता है वैसे दसों उँगलियाँ दाँतोंके बीच में लेकर जीने की इच्छासे निःशक होकर चला जा।" इस तरह हम आपसमें कहते सुनते, ढालतलवाररूपी पंखोंको फैलात मुगाँकी तरह लड़ने लगे। चारीप्रचार' में चतुर रंगाचार्यकी' तरह हम एक दूसरेके प्रहारसे बचते हुए आकाशमें फिरने लगे। तलवाररूपी सींगोंसे मेंडोंकी तरह एक दूसरेपर प्रहार करते आगे बढ़ने और पीछे हटने लगे। क्षणभरमें हे राजा ! तुम्हें बधाई देनेवाला ही वैसे, मैंने उसका बायाँ हाथ काटकर यहाँ जमीनपर डाल दिया, उसके बाद आपको आनंदित करनेके लिए उसका एक पर केलेके खंभेकी तरह लीलासे काटकर पृथ्वीपर गिरा दिया। फिर हे. ५-नृत्यमें कुछ चेशएँ। २-सूत्रधार । Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . श्री अजितनाथ-चरित्र ७७६ राजा ! मैंने कमलनालकी तरह उसका दाहिना हाथ भी काट कर पृथ्वीपर पटक दिया। उसके बाद पेड़के तनेकी तरह उसका दूसरा पर भी तलवारसे छेदकर तुम्हारे सामने गिरा दिया। फिर उसके सर और धड़कोअलग अलग करके यहाँ डाल दिया। इस तरह भरत खंडकी तरह उसके छह खंड कर दिए । अपनी पुत्रीकी तरह मेरी स्त्रीरूपी धरोहरकी रक्षा करनेवाले आपही वास्तवमें उस शत्रुको मारनेवाले हैं; मैं तो केवल कारण हूँ। आपकी सहायताके बिना वह शत्र मुझसे न मारा जाता। जलती हुई आग भी हवाकी मददके बिना घास नहीं जला सकती है। आज तक मैं स्त्री या नपुंसकके समान था । आज आपने मुझे शत्रुको मारनेका पौरुष दिया है। आपही मेरे पिता, माता, गुरु या देवता हैं। आपके समान उपकारी बननेके योग्य कोई दूसरा नहीं है। आपके समान उपकारी पुरुषोंके प्रभावहीसे विश्वको सूर्य प्रकाश देता है, चाँद प्रसन्न करता है, वो समय पर जल देती है, और भूमि दवाइयाँ उगाकर देती है; समुद्र 'अपनी मर्यादामें रहता है और पृथ्वी स्थिर रहती है । आप मेरी स्त्री-जिसे मैंने धरोहरकी तरह आपके पास रखा था-मुझे सौंपिए जिससे हे राजा ! मैं अपनी क्रीड़ा-भूमिको जाऊँ । शत्रुको मारकर निष्कंटक बना हुआ मैं, अब वैताब्य पर्वतपर और जंबूद्वीपकी जगतीपरके जालकटकादिमें, आपकी कृपास प्रिया सहित आनंद करूँगा। (४६८-४६१) राजा चिंता, लज्जा, निराशा और विस्मयसे आक्रांत हुआ और उससे कहने लगा, "हे भद्र ! तुम अपनी स्त्रीको धरोहरकी तरह रखकर गए; फिर हमने आकाश Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ० त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रः पर्व २ सर्ग ६. " में तलवारोंकी और भालों की आवाजें सुनीं । बादमें क्रमसे हाथ, पैर, धड़ और मस्तक जमीनपर गिरे। तुम्हारी पत्नीने हमें निश्चयपूर्वक कहा कि ये मेरे पति हैं । फिर उसने अपने पतिके साथ चलने की इच्छा प्रकट की । पुत्रप्रेमसे हमने उसे कई बार रोका तो वह दूसरे लोगों के समानही मेरी कल्पना करने लगी; मैं जब उसके धाग्रहसे लाचार हो गया तब वह नहीं पर गई और लोगोंके सामने, शरीर के कटे वचत्रोंके साथ, चिनापर चढ़ गई। मैं इसी समय उसको निवापथंजली अर्पण करके घ्याया हूँ व उसके शोक उदास बैठा हूँ । अब तुम आए हो। यह क्या बात है ! वे अंग तुम्हारे नहीं थे या उस समय छाए थे वे तुम नहीं हो ? हमारा मन संशय में गिर गया | मगर इस विषय से हम - जिनके सुख अज्ञानसे मुद्रित हो गए हैं-अधिक क्या कह सकते हैं । (२६२-२६६ ) " E यह सुनकर बनावटी क्रोध बनाना हुआ वह पुरुष बोला, "हे राजा ! यह कैसी दुःखकी बात है। मैंने मनुष्यों कहने तुमको परस्त्री-सहोदर समझा था; सगर वह बात सिख्या थी । तुम्हारी उस प्रमिस मैंने अपनी प्रियाको धरोहरके तौर पर तुम्हें सौंपा था; मगर तुम्हारे चारणसे, कोमल दिखता हुआ कमल राम लोहेका निकलना है वैसेही, तुम मालूम होते हो। जो काम मेरे दुराचारी शत्रने किया था वही काम अफसोस है, कि अब तुमने किया है। इससे व तुम दोनोंमें क्या अंतर माना जाए ! है राजा ! यदि तुम परस्त्रीपर मोड़ करनेवाले नहीं हो और लोकापवादसे डरते हो तो मेरी स्त्री मुझे सौंप दो। उसको छिपा रखना योग्य नहीं है। जो Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७८१ तुम्हारे समान पवित्र पुरुष भी अपवित्र बनेंगे तो फिर काले साँपकी तरह विश्वासपात्र कौन रह जाएगा ?" ( ५०१-५०४) तब राजाने कहा, "हे पुरुष ! तेरे प्रत्येक अंगको पहचान कर तेरी प्रियाने अग्निमें प्रवेश किया है। इसमें कोई संशय नहीं है । नगरके और देशके सभी लोग इस बातके साक्षी है, आकाशमें रहे हुए जगच्चक्षु सूर्यदेव भी इसके साक्षी है, चार लोकपाल, ग्रह, नक्षत्र, तारे, भगवती पृथ्वी और जगतके पिता धर्म भी इसके साक्षी हैं। इसलिए ऐसे कठोर वचन बोलना अनुचित है । इन सबमें से किसीको भी तुम प्रमाण मान लो।" (५०५-५०८) राजाकी बात सुनकर बनावटी क्रोध बतानेवाले उस पुरुपने कठोर वाणीमें कहा, "जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण हो वहाँ दूसरे प्रमाणकी वातही क्या है ? तुम्हारे पीछे कौन बैठी है सो देखो। तुम्हारा कथन तो बगलमें चोरीका माल छिपाकर शपथ लेने के समान है। राजाने पीछे मुड़कर देखा तो वहाँ उसे वह स्त्री दिखाई दी। इससे वह यह सोचकर कि मैं परदाराके दोपसे दूषित हुआ हूँ इस तरह म्लान हो गया जैसे तापसे पुष्प म्लान होता है। निर्दोष राजाको दोषकी शंकासे खिन्न देख वह पुरुष हाथ जोड़कर कहने लगा, "हे राजन् ! क्या आपको याद है कि बहुत दिनों तक अभ्यास करके मैं अपनी मायाके प्रयोगकी चतुराई बतानेकी प्रार्थना करने के लिए आपके पास आया था; मगर उस समय आपने मुझे दरवाजेसेही लौटा दिया था। आप मेधकी तरह सारे विश्वपर कृपा करनेवाले हैं; परंतु भाग्यदोपसे मेरी इच्छा पूर्ण नहीं हुई। तब कुछ दिनके बाद रूप Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सगं ६, बदल, कपट नाटकके द्वारा मुझे अपनी कला आपको दिखानी पड़ी। अब मैं कृतार्थ हुआ। आप मुझपर प्रसन्न हूलिए | अपना गुण, चाहे किसी तरहसे क्यों न हो, महान पुरुषोंको दिखाना चाहिए; अन्यथा गुण पानेके लिए जो मेहनत की जाती है वह सफल कैसे हो सकती है ? आज मेरी मेहनत सफल हुई । अब श्राक्षा दीलिए; में जाऊँगा । श्रापको अपना गुण बताकर अन्य स्थानोंके लिए अब मैं महँगा हो गया हूँ।" राजाने उसे बहुतसा धन देकर विदा किया । (५०-५१६ ) फिर राना सोचने लगा, "जैसा उसका मायाप्रयोग था ऐसाही यह संसार है। कारण, ये दिखाई देनेवाली सारी चीजें पानीके बुबुदेकी तरह देखतेही नाश हो जानेवाली हैं।" इस तरह अनेक प्रकारसे संसारकी असारताका विचार कर, विरक्त हो, गन्य छोड़, राजाने दीक्षा ग्रहण की।" इस तरहकी कथा कहकर दूसरा मंत्री बोला, "हे प्रभो! यह संसार, मेरी कही हुई मायाप्रयोगकी कथाके समान है। उसमें श्राप शोक न कर श्रात्मस्वार्थकी सिद्धिके लिए प्रयत्न करें। (५३०-५२२) - इस तरह उन दोनों मंत्रियोंके वचन सुनकर, महाप्राणके स्थानमें जैसे महाप्राण प्राता है वैसेही, चक्रीके मनमें वैराग्य उत्पन्न हुया । मगर राजाने तत्त्वसे श्रेष्ट बागीके द्वारा कहा, "तुमने मुझे ये बहुत अच्छी बातें कहीं है । प्राणी अपने अपने कमों के अनुसारही जीते हैं और मरते हैं। बालक, युवा या वृद्ध इस तरह, वयका इसमें कोई प्रमाण नहीं है। बंधु श्रादिका मिलन सपने के समान है, लक्ष्मी साथीके कान जैसी चंचल है, Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७८३ यौवनलक्ष्मी पर्वतसे निकलती हुई नदीके समान बह जानेवाली है और जीवन घासके पत्तेपर रही हुई बूंदके समान है। यौवन जबतक मरुभूमिकी तरह चला नहीं गया है; राक्षसीकी तरह जीवनका अंत करनेवाली वृद्धावस्था जबतक आई नहीं है, सन्निपातकी तरह जबतक इंद्रियाँ विकल नहीं हुई हैं और वेश्याकी तरह सब कुछ लेकर लक्ष्मी जबतक चली नहीं गई है तबतक स्वयमेव इन सबको छोड़कर दीक्षा ग्रहण करनेके उपायसे लभ्य-स्वार्थसाधनके लिए प्रयत्न करना चाहिए। जो पुरुष इस असार शरीरसे मोक्ष प्राप्त करता है, वह मानो काँचके टुकड़ेसे मणि, काले कौएसे मोर, कमल-नालकी मालासे रत्नहार, खराब अन्नसे खीर, छाससे दूध और गधेसे घोड़ा खरीदता है।" (५२३-५३२) सगर राजा यूँ कह रहा था तब उसके द्वारपर, अष्टापद के निकट रहनेवाले, अनेक लोग पाए और वे उच्च स्वरमें पुकारने लगे, "हमारी रक्षा कीजिए ! रक्षा कीजिए !" सगरने द्वारपोलसे उन्हें बुलावाया और पूछा, "क्या हुआ है ?" तब उन ग्रामीणोंने एक स्वर में कहा, "अष्टापद पर्वतके चारों तरफ घनाई गई खाईको पूरनेके लिए, आपके पुत्र दंडरत्नसे गंगा नदी लाए थे। उस गंगा नदीने पातालके समान दुप्पूर खाईको भी क्षणभरमें पूरं दिया और अब वह कुलटा स्त्री जैसे दोनों फुलोंकी मर्यादांका उल्लंघन करती है वैसेही, दोनों कूलोंको-किनारोंको लाँघ रही है और अष्टापदके निकटके गाँवों, आकरों और नगरोंको डुबोकर समुद्रकी तरह फैल रही है। हमारे लिए तो प्रलयकाल इसी समय आ गया है। बताइए कि हम कहाँ जाफर Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. रहें, जहाँ कोई उपद्रव न हो। ( ५३३-५३६) तब सगर चक्रीने अपने पात्र भगीरथको बुलाकर वात्स. ल्ययुक्त वाणीमें कहा, "हे वत्स! अष्टापढ़के चारों तरफकी खाई को पुरकर गंगा नदी उन्मत्त स्त्रीकी तरह इस समय गाँवोंमें फिर रही है। उसे दंडरत्न द्वारा खींचकर पूर्व सागरमें डाल दो। कारण,-जबतक जलको मार्ग नहीं बताया जाता तबतक वह अंधकी तरह उन्मागपर भटकता है। असामान्य वाहुपराक्रम, भुवनोत्तर ऐश्वर्य, महान हस्तित्रल, विश्व विख्यात अश्ववल, महापराक्रमी प्यादोंका बल, बड़ा रथवल और अति उत्कट प्रताप, निस्सीम कौशल और देवी आयुध संपत्ति, ये सब जैसे शत्रुओंके गर्वका हरण करते हैं वैसही, लान पड़ता है कि इनका अभिमान हमें भी हानि पहुँचाता है । हे पुत्र ! अभिमान सभी दोषोंका अग्रणी है, आपत्तिका स्थान है, संपत्तिका नाशक है, अपकीर्तिका कती है, वंशका संहारक है, सर्व सुखोंका हर्ता है, परलोक पहुँचानेवाला है और अपने शरीरहीसे जन्मा हुआ, शत्र है। ऐसा अभिमान जब सन्मार्गपर चलनेवाले सामान्य लोगोंके लिए भी त्यान्य है, तब मेरे पौत्रके लिए तो वह खास तोरसे छोड़ने लायक ही है। ई पौत्र! तुमे विनीत होकर गुणकी पात्रता प्राप्त करनी चाहिए । विनयी वननसे अशक्त मनुष्यको भी उत्कृष्ट गुणकी प्रानि होती है और शचिवान पुरुषक लिए ती यदि विनय गुण हो तो वह सोने और सुगंधके मेलसा या निष्कलंक चंद्रमाके समान होता है। सुर, अमुर और नागादिकका तुम्हें यथायोग्य क्षेत्रमें और मुखकारक कार्यमै उपचार करना चाहिए। उपचारके योग्य कार्यमें उपचार करना दोष Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...., श्री अजितनाथ-चरित्र . [७८५ - कारक नहीं है; परंतु पित्त प्रकृतिवालेके लिए आतपका उपचार करना दोषकारक है । ऋषभस्वामीके पुत्र भरत चक्रीने योग्य उपचारसे देवों और दैत्योंको वशमें किया था। वे शक्तिवान थे तो भी उन्होंने देवादिकमें करने योग्य उपचार बताया है । इससे तुमको भी कुलाचारके.समान वर्ताव करना चाहिए।" . .. (५३३-५५४) ... महाभाग भगीरथने पितामहकी आज्ञा आदर सहित स्वीकार की। .:. "निसर्गेण विनीतस्य शिक्षा सद्भित्तिचित्रवत् ।" [जो स्वभावहीसे विनीत हैं उनको उपदेश देना अच्छी दीवारपर चित्र निकालने के समान है। ] फिर सगरने भगीरथको अपने प्रतापके समान सामर्थ्यवान दंडरत्न अर्पण कर, उसके मस्तकको (ललाटको) चूम, विदा किया। भगीरथ चक्रीके चरणकमलमें प्रणाम कर दंडरत्न सहित, बिजली सहित मेघ१ की तरह, वहाँसे रवाना हो गया। (५५५-५५७) । चक्रीकी दी हुई सेनासे और उस देशके लोगोंसे परिवा,रितभगीरथ,प्रकीर्ण देवताओं और सामानिक देवताओंसे परिपारित, इंद्र के समान शोभता था। क्रमशः वह अष्टापद पर्वतके निकट पहुँचा। वहाँ उसने उस पर्वतको, समुद्र द्वारा वेष्टित त्रिकूटाद्रिकी तरह, मंदाकिनीसे घिरा हुआ देखा विधिक जानकार भगीरथने ज्वलनप्रभके उद्देश्यसे अष्टम तप किया। अष्टम तपके समाप्त होनेपर नागकुमारोंका पति ज्वलनप्रभ प्रसन्न होकर भगीरथके पास आया। भगीरथने गंध, धूप और पुष्पों द्वारा Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७८६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. अनेक तरहसे उसका पूजा उपचार किया। प्रसन्न होकर नागकुमारोंके स्वामीने पूछा, "मैं तुम्हारा क्या उपकार करूँ ?" तब मेघके समान गंभीर वाणीवाला भगीरथ ज्वलनप्रम इंद्रसे कहने लगा, "यह गंगानदी श्रष्टापदकी लाईको पूरकर अब भूस्वी नागिनकी तरह बेरोक चारों तरफ फैल रही है, मकानोंको उखाड़ रही है, वृक्षोंको श्वंस कर रही है,सभी खड़ा और टेकरियोंको समान बना रही है, किलोंको तोड़ रही है, महलोंको गिरा रही है, हवेलियोंको गिरा रही है और मकानोंको बरबाद कर रही है। पिशाचिनीकी तरह उन्मत्त होकर देशका नाश करनेवाली इस गंगाको, दंडरनके द्वारा खींचकर, यदि आप आना दे तो, मैं पूर्व समुद्रमें मिला दूं।" (५५८-५६७ ) - प्रसन्न हुप चलनप्रमने कहा, "तुम अपनी इच्छानुसार काम करो और वह निर्विघ्न पूरा हो । तुम मेरी आज्ञासे काम करोगे इसलिए इस मरतक्षेत्रमें रहनेवाले मेरंआज्ञापालक साँपोंसे तुमको कोई तकलीफ न होगी। यों कहकर नागेंद्र रसातलमें अपने स्थानपर चला गया। फिर भगीरथने अष्टम भक्तके अंतमें। पारणा क्रिया । (५६८-५७०) उसके बाद वैरिणीकी तरह पृथ्वीको भेदनेवाली और' स्वैरिणीकी तरह स्वच्छंदतापूर्वक विचरण करनेवाली गंगाको । त्रींचने के लिए भगीरथने दंडरत्न ग्रहण किया। प्रचंड मुनवलवाले भगीरथने गर्जना करती हुई उस नदीको, जैसे संदसीसे माला खींची जाती है वैसेही, दंडरत्नसे स्त्रींचा । फिर कुरुदेशके मध्यभागमें, इस्तिनापुरके दक्षिणम, कौशलदेशके पश्चिममें, प्रयागके उत्तरम, काशीके दक्षिणमें, विध्याचलके दक्षिणमें और Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अजितनाथ-चरित्र [ ७८७ अंग तथा मगधदेशके उत्तरमें होकर, बवंडर जैसे तृणको उड़ाता है वैसे मार्गमें आती हुई नदियोंको खींचनेवाली उस नदीको ले जाकर उसने पूर्व समुद्रमें उतारा। तबसे वह स्थान गंगासागरके नामसे प्रसिद्ध हुआ। और भगीरथने खींचकर समुद्रमें डाला इससे गंगा भगीरथीके नामसे भी पहचानी जाने लगी। मार्गमें गंगाके चलनेसे जहाँ जहाँ नागोंके घर टूट जाते थे वहाँ वहाँ भगीरथ नागदेवोंको बलिदान चढ़ाता था। जले हुए सगरपुत्रोंकी अस्थियोंको गंगाके प्रवाहने पूर्व सागरमें पहुंचाया, यह देखकर भगीरथने विचार किया, “यह बहुत अच्छा हुआ कि मेरे पिता. की और काकाओंकी अस्थियोंको गंगाने समुद्रमें ले जा डाला। यदि ऐसा न होता तो ये अस्थियाँ गीध आदि पक्षियोंकी चोंचों और पंजोंमें जाकर, पवनके द्वारा उड़ाए हुए फूलोंकी तरह, न मालूम किस अपवित्र स्थानमें गिरती।" वह यह सोच रहा था तब जलकी आफतसे बचे हुए लोगोंने 'तुम लोकरंजक हो !(तुम लोगोंके कल्याणकर्ता हो!) यों कह कह कर बहुत देर तक उसकी प्रशंसा की। उस समय उसने अपने पितरोंकी अस्थियाँ जलमें डाली थीं इसलिए लोग अवतक भी मृतककी अस्थियोंको जलमें डालते हैं। कारण ......"सोऽध्वा यो महदाश्रितः।" [महापुरुष जो प्रवृत्ति करते हैं, वही लोगोंके लिए माग होती है।) (५७१-५८२) . भगीरथ उस स्थानसे रथमें बैठकर वापस लौटा। अपने रथकी चालसे काँसीके तालकी तरह, पृथ्वीसे शब्द कराता, जब वह चला आ रहा था तव, रस्तेमें कल्पवृक्षके समान स्थिर Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७८८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. खड़े हुए एक केवली भगवानको उसने देखा । उन्हें देखकर वह आनंदपूर्ण हृदयके साथ अपने रथसे, इस तरह नीचे उतरा जिस तरह उदयगिरिसे सूर्य उतरता है या आकाशसे गरुद्ध उतरता है। उस चतुर और भक्त भगीरथने, पास पहुंचतेही भक्ति सहित उन केवली भगवानकी वंदना की और तीन प्रदक्षिणा दी। पश्चात फिरसे उसने बंदना कर, योग्य स्थानपर बैठ, पूछा, "हे भगवन ! मेरे पिता और काका किस कर्मके कारण एक साथ (ललकर) मर" त्रिकालकी बातें जाननेवाले और करुणारसके सागर वे केवली भगवान मधुरवाणीमें इस तरह कहने लगे, "हे राजपुत्र ! बहुत लक्ष्मीवाले, मानो कुवेरकी लक्ष्मीके वे आश्रय हों ऐसे, पावकोंसे पूर्ण एक संघ पहले तीर्थयात्राके लिए निकला था। संध्याको वह संघ, मार्गसे थोड़ी दूर पासहीम एक गाँव देखकर उसमें गया। वह रातको किसी कुम्हारके घरके पास उतरा। उस धनवान संघको देखकर गाँवके सभी लोग खुश हुए और धनुप व तलवारें लेकर लूटनेको तैयार हो गए। मगर पापका भय रखनेवाले उस कुम्हारने खुशामद भरे और अमृत के समान हितकारी वचन कहकर गाँवके लोगोंको इस कामसे रोका । उस कुम्हारके आग्रहसे गाँवके लोगोंने संघको इसी तरह छोड़ दिया जिस तरह मिला हुआ पात्र छोड़ देते हैं। उस गाँवके सभी लोग चोर थे। इस लिए वहाँके रानाने एक बार उस गाँवको इसी तरह जला दिया जिस तरह पर-राज्यके (शत्रुके) गाँवको जला देते हैं। उस दिन वह कुम्हार किसीके बुलानेसे दूसरे गाँव गया हुआ था, इसलिए उस आगसे वह अकेलाही बच गया। कहा है कि Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७८९ ...."सर्वत्र कुशलं सताम् ।" - [ सतपुरुषोंका सब जगह कल्याणही होता है।] फिर कालके योगसे मरकर वह कुम्हार विराट देशमें, मानो दूसरा कुवेर भंडारी हो ऐसा वणिक हुआ । गाँवके दूसरे लोग भी मर कर विराट देशमें साधारण मनुष्य हुए। कारण, एकसे काम करनेवालोंको एकसा स्थानही मिलता है । कुम्हारका जीव मरकर फिरसे उसी देशका राजा हुआ। वहाँसे भी मरकर वह परम ऋद्धिवाला देवता हुआ । वहाँसे आकर तुम भगीरथ हुए हो और वे ग्रामवासी भ्रमण करते करते तुम्हारे पिताजन्हुकुमार वगैरा हुए। उन्होंने केवल मनहीसे संघको हानि पहुँचाई थी इसलिए वे सभी एकसाथ जलकर राख हो गए। इसमें ज्वलनप्रभ नागराज तो निमित्तमात्रही है। हे महाशय ! तुमने उस समय गाँवको बुरा काम करनेसे रोकनेका शुभकर्म किया था इसलिए, तुम गाँव जला था उस समय भी नहीं जले और इस समय भी नहीं जले" (५८३-६०१) • इस तरह केवलज्ञानीसे पूर्वभव सुनकर विवेकका सागर भगीरथ संसारसे अतिशय उदासीन हुआ, मगर उस समय उसने यह सोचकर दीक्षा नहीं ली कि यदि मैं दीक्षा लूँगा तो फोड़े पर फोड़ेकी तरह मेरे पितामहको दुःखपर दुःख होगा। वह केवलीकी चरण-चंदना कर, रथपर सवार हो, वापस अयोध्या पाया । (६०२-६०४) आज्ञानुसार काम करके आए हुए और प्रणाम करते हुए पौत्रका सगर राजाने वार वार मस्तक सूंघा, हाथ उसकी पीठ पर रक्खा और स्नेहपूर्ण गौरवके साथ कहा, "हे वत्स ! तू Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. बालक होते हुए भी बल और बुद्धिसे स्थविर पुरुषोंका अग्रणी है, इसलिए अब तू यह न कहकर कि मैं अभी बालक हूँ, हमारे इस राज्यभारको ग्रहण कर जिससे हम भाररहित होकर संसारसागरको तैरनेका प्रयत्न करें ।यह संसार यद्यपि स्वयंभूरमण समुद्रकी तरह दुस्तर है, तो भी मेरे पूर्वज उसको तैरे है, इसीलिए मुझे भी श्रद्धा है। उनके पुत्र भी राज्यभार ग्रहण करते थे। उन्हींका बताया हुआ यह मार्ग है। उसी पर तू भी चल और इस पृथ्वीको धारण कर ।" (६०५-६०६) भगीरथ पितामहको प्रणाम करके बोला, "हे पिताजी ! यह उचितही है, कि आप संसार सागरसे तारनेवाली दीक्षा लेना चाहते हैं, परंतु मैं भी व्रत ग्रहण करनेको उत्सुक हूँ, इसलिए राज्यदानके प्रसादसे मुझे निराश न कीजिए।" (६१०-६११) __ तव चक्रवर्तीने कहा, "हे वत्स ! व्रत ग्रहण करना हमारे कुलके योग्य ही है; परंतु उससे भी अधिक योग्य गुरुजनोंकी आज्ञापालनका व्रत है। इसलिए हे महद्वाशय ! समय आनेपर, जब तुम्हारे कवचधारी पुत्र हो तब उसे राज्यभार सौंपकर तुम, भी मेरी तरह व्रत ग्रहण करना।" यह सुनकर भगीरथ गुरुआज्ञा भंग होनेके डरसे डरा और उस भवभीरुका मन विचलित हो उठा, इससे बहुत देर तक वह चुप रहा। तब सगर चक्रीने भगीरथका परम आनंदके साथ, राज्याभिषेक किया । (६१२-६१५) उसी समय उद्यानपालकोंने आकर चक्रीको प्रभु अजितनायके उद्यानमें आकर, समोसरनेकी वधाई दी। पौत्रके राज्याभिपेकसे और प्रभुके आगमनसमाचारसे चक्रीको अति अधिक Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७६१ आनंद हुआ। महलमें होते हुए भी उसने उठकर प्रभुको नमस्कार किया और सामनेही हों इस तरह शक्रस्तवसे प्रभुकी स्तुति की। स्वामीके आनेके समाचार सुनानेवाले उद्यानपालोंको चक्रीने साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ इनाममें दी। फिर भगीरथ व सामंतोंसे परिवारित सगर बड़े ठाठके साथ समवसरणके समीप गया। वहाँ समवसरणमें उत्तर द्वारके मार्गसे प्रवेशकर वह मानने लगा मानो उसकी आत्माने सिद्धक्षेत्र में प्रवेश किया है। पश्चात चक्री धर्मचक्री तीर्थंकरकी प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर इस तरह स्तुति करने लगा। (६१६-६२२) . . . "मेरे प्रसादसे आपका प्रसाद या आपके प्रसादसे मेरा इन अन्योन्याश्रयोंकाभेद कीजिए और मुझपर प्रसन्न होइए। हे स्वामी ! आपकी रूपलक्ष्मीको देखने में सहस्राक्ष इंद्र असमर्थ है और आपके गुणों का वर्णन करनेमें सहस्रजिह्वा शेष लाचार है। हे नाथ ! आप अनुत्तर विमानके देवोंके संशयोंको भी मिटाते , हैं, इससे अधिक और कौनसा गुण स्तुत्य हो सकता है ? आपमें भानंद सुख भोगकी भी शक्ति है और इसके त्यागकी भी शक्ति है। इन परस्पर विरुद्ध वातोंपर अश्रद्धालु लोग कैसे श्रद्धा कर 'सकते हैं ? हे नाथ ! आप सब प्राणियोंके साथ उपेक्षाभाव रखते हैं और साथही सबके कल्याणकर्ता भी हैं। यह बात सही है; परंतु गलतसी मालूम होती है। हे भगवंत ! आपके समान परस्पर विरोधी यातें किसी दूसरेमें नहीं है। आपमें परम त्यागीपन भी है और परम चक्रवर्तीपन भी है। ये दोनों एक साथ हैं। जिनके कल्याण-पों में नारकी जीव भी सुख पाते हैं उनके पवित्र चरित्रका वर्णन करनेकी शक्ति किसमें Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६. है ? हे प्रभो! आपका शम अद्भुत है, आपका रूप अद्भुत है और सब प्राणियोंपरकी श्रापकी दया भी अद्भुत है। ऐसे सथ प्रकार की अद्भुतताके. भंडार आपको हम नमस्कार करते हैं।" (६२३.६३०) इस तरह जगन्नाथकी स्तुति कर, योग्य स्थानपर बैठ, सगरने अमृतके प्रवाहसी धर्मदेशना सुनी। देशनाके अंतमें सगर राजा बार बार प्रभुको नमस्कार कर, हाथ जोड़, गद्गद स्वरमें बोला; "हे तीर्थेश, यद्यपि आपके लिए न कोई अपना है और न कोई पराया है; तथापि अज्ञानवश मैं आपको अपने भाईकी तरह पहचानता हूँ। हे नाथ ! जब आप दुस्तर संसारसागरसे सारे जगतको तारते हैं तो उसमें मुम इवते हुए की उपेक्षा आप क्यों करते हैं ? हे जगत्पति ! अनेक.क्लेशोंसे भरें हुए. इस संसाररूपी खडेमें गिरनेसे आप मुझे बचाइए ! बयाइए.! प्रसन्न होकर मुझे दीक्षा दीजिए। हे स्वामी! मैने संसारके सुखोंमें पड़कर, मूर्ख और अविवेकी वालककी तरह अपना । जीवन निष्फल खोया है।" इस तरह कद, हाथ जोड़कर खड़े। हुए सगर राजाको भगवानने दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा दी। . (६३१-६३७) . . तब भगीरथने उठ, नमस्कार कर, प्रार्थनाएँ पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षके समान भगवानसे इस तरह प्रार्थना की, "हे पूज्य पाद ! श्राप मेरे पितामहको दीक्षा देंगे,मगर जबतक में निष्क्रमणोत्सव-न करूँ तब तक प्रतीक्षा कीजिए। यद्यपि मुमुक्षुओंको उत्सवादिकी कोई आवश्यकता नहीं है तथापि मेरे भाग्रहको "-मनोनिग्रह, निर्विकारी भाव । - Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .:. : .. श्री अजितनाथ-चरित्र [ ७६३ . . पितामह भी स्वीकार करेंगे।" . सगर राजा दीक्षा लेनेको बहुत उत्सुक थे, तो भी पौत्रके आग्रहसे जगदगुरुको प्रणाम कर, वापस अपने नगरमें गए । फिर इंद्र जिस तरह तीर्थंकरोंका दीक्षाभिषेक करता है वैसे, भगीरथने संगर राजाको सिंहासनपर बिठाकर उसका दीक्षाभिषेक किया, गंधकाषायी वस्त्रसे शरीर पोंछा और गोशीर्षचंदनका विलेप किया। उसके बाद सगर राजाने मांगलिक दो दिव्य वस्त्र धारण किए और गुणोंसे अलंकृत होते हुए भी देवताओंके द्वारा दिए गए अलंकारोंसे अपने शरीरको अलंकृत किया । फिर याचकोंको इच्छानुसारधन देकर उज्ज्वल छत्र और चमर सहित वह शिबिकामें बैठा। नगरके लोगोंने हरेक घर, हरेक, दुकान और हरेक मार्ग बंदनवारों, सोरणों और मंडपोंसे सजाया। मार्गमें चलते हुए जंगह जगहपर देशके और नगरके लोगोंने पूर्णपात्रादि द्वारा उनके अनेक मंगल किए । सगर बारबार देखे जाते थे और पूजे जाते थे, बारंबार उनकी स्तुति की जाती थी और उनका अनुसरण किया जाता था। इस तरह आकाशमें जैसे चंद्रमा चलता है वैसेही, सगर अयोध्याके मध्यमार्गसे धीरे धीरे चलते हुए, मनुष्योंकी भीड़से जगह जगह रुकते हुए, आगे बढ़ रहे थे। भगीरथ, सामंत, अमात्य, परिवार और अनेक विद्याधर उनके पीछे चल रहे थे। इस तरह सगर चक्री क्रमसे प्रभुके पास पहुंचे। वहाँ भगवानको प्रदक्षिणा दे,प्रणाम कर, भगीरथके द्वारा लाए हुए यतिवेपको उसने अंगीकार किया। फिर सारे संघके सामने स्वामीकी वाचनासे, उच्च प्रकारसे, सामायिकका उच्चारण करते हुए सगरने चार महानत Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ } त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. रूप दीक्षा ग्रहण की ! जो सामंत और मंत्री जलकुमार श्रादिके साथ गए थे उन्होंने भी संसारसे विरक्त होकर सगर राजाके साथ दीक्षा ले ली। उसके बाद धर्मसारथि प्रभुने चक्रवर्ती मुनिके मनरूपी कुमुद के लिए चंद्रिकाके समान अनुशिष्टिमय(आज्ञामय) धर्मदेशना दी।प्रथम पौरुपी समाप्त हुई तब प्रभुने देशना समाप्त कर, उठकरके देवच्छंदको अलंकृत किया, फिर प्रभुकी चरणपीठिकापर बैठकर मुख्य गणधरने प्रभुकेप्रभावसे सभी संशयोंको छेदनेवाली देशना प्रभुके समानही दी। दूसरी पौरुषी समाप्त होनेपर, जैसे वर्षाका बरसना बंद होता है वैसेही, गणघरने भी देशना बंद की प्रभु विहार करनेके लिए वहाँसे विदा हुए और भगीरथादि राना और देवता अपने अपने स्थानोंको गए । (६३८-६५८) : - स्वामीके साथ विहार करते हुए सगर मुनिने मूलाक्षरों (स्वर-व्यंजनों) की तरह लीलामात्रम द्वादशांगीका अध्ययन किया। वे हमेशा प्रमाद रहित होकर, पांच समिति और तीन, गुप्तिरूपी आठ चारित्र-माताओंकी अच्छी तरहसे आराधना करते थे। हमेशा भगवानके चरणोंकी सेवा करनेसे होनेवाले हर्षके कारण, उनको होनेवाले परिसहोंके क्लेशोंका जरासा खयाल भी नहीं आता था। मैं तीन लोकके चक्री तीर्थकरका भाई हूँ और मैं खुद भी चक्रवर्ती हूँ ऐसा अभिमान न रखते हुए दूसरे मुनियोंके साथवे विनयका व्यवहार करते थे। पीछेसे दीक्षा ग्रहण करनेपर भी वे राजर्षि तप और अध्ययनसे पुराने दीक्षित मुनियोंसे भी अधिक (मान्य)हो गए थे। क्रमशः.वातिकमां के नष्ट होनेसे उनको इस तरह केवलज्ञान उत्पन्न हुआ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र [७६५ जैसे दुर्दिनके चीतनेसे सूर्य उदय होता है । ( ६५६-६६४) - केवलज्ञान उत्पन्न होने के समयसे पृथ्वीपर विहार करते हुए अजितनाथ स्वामीके पचानवे गणधर, एक लाख मुनि, तीन लाख तीस हजार साध्वियाँ, साढ़े तीन सौ चौदह पूर्वधर, एक हजार चार सौ मनःपर्ययज्ञानी, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, बाइस हजार केवली, बारह हजार चौरासी वादी, वीस हजार चार सौ वैक्रियलब्धिवाले, दो लाख अठानवे हजार श्रावक और पाँच लाख पैंतालीस हजार श्राविकाएँ-इतना परि. वार हुआ। (६६५-६७०) दीक्षाकल्याणकसे एक पूर्वाग कम एक लाख पूर्व बीतनेपर अपना निर्वाण-समय निकट जान प्रभु संमेद शिखरपर गए। उनकी बहत्तर लाख पूर्वकी आयु समाप्त हुई, तब उन्होंने एक हजार श्रमणोंके साथ पादपोपगमन अनशन व्रत ग्रहण किया। उस समय सभी इंद्रोंके आसन पवनसे हिलाए हुए उद्यानके , वृक्षोंकी शाखाओंकी तरह हिल उठे। उन्होंने अवधिज्ञानसे प्रभुके निर्वाणका समयजाना। इससे वे भीसमेदशिखरपर्वतपर आए । वहाँ उन्होंने देवताओं सहित प्रभुको प्रदक्षिणा दी और 'शिष्यकी तरह सेवा करते हुए वे पासमें बैठे। जब पादपोपगमन अनशनका एक महीना वीता तव चैत सुदी ५ के दिन, चंद्रमा मार्गशीर्ष नक्षत्रमें आया उस समय, पर्यकासनमें विराजमान प्रभु बादरकाययोगरूप रथमें बैठे थे और रथमें जुड़े हुए दो घोड़ोंकी सरह बादर मनोयोग और वचनयोग रहे थे। उन्होंने सूक्ष्म काययोगमें रहकर, दीपकसे जैसे अंधकारका समूह सकता है वैसेही, बादर काययोगका रोध किया और Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] निषष्टि शलाका पुरुष-चस्त्रि: पर्व २. मर्ग६. सूक्ष्म काययोगमें रहते हुए बाहर मनोयोग और वचनयोगको मी रोका। फिर मूक्ष्म मनोयोग और वचनयोगमें स्थित होकर मुन्ननिय नामक शुक्लन्यानच तीमग पाया प्राप्त किया। पश्चात शुक्लब्यानले चौधे पाये, शैतशीकरम, मात्र पाँच नवु अनर चारण हो मुन्न इनने समय तक रहे। वहाँ शेष कमदय हुए और अतंन चतुष्टय सिइया । इससे वे परमास्मा प्रमुऋनुगतिमें लोकायको प्राप्त हुए-मोजम गए। (६०१-६५२) प्रमु कौमारावस्या अठारह लान्त्र पूर्व, राज्य स्थितिमें एक पूर्वाग सहिन निप्पन लान्त्र पूर्व, छमस्यावन्यामें बारह बरस, और केवलबानावस्था में एक पूर्वाग और बारह वयं कम लन पूर्व रहे । सब मिलाकर बहतर लान्त्र पूर्वकी श्रायु मोगर ऋषमप्रमुळे निवागमें पचास लाख करोड़ सागरोपमके बाद अजितनाय प्रभु मोन गए। उन माय दुसरं एक हजार मुनि मी-जिनने पादपोपगमन अनशन वन ग्रहण क्रिया या केवल । झान प्राप्त कर, नीनों योगांको रोक, मोनपढ़ पाया मगर मुनि-, ने भी, केवली समुद्यात करनगमरमें अनुपी' की तरह, स्वामी प्रान किए हुए पदको प्रान क्रिया यानी मोन गए। उमममय प्रमुक मोचल्याएको, कमी छन्त्रका मुंह नहीं देवनंबान नारकियाँको मी, नयनर लिए मुत्र हुश्रा। फिर शोकमाहित इंद्रन दिव्यजनमें ज्वानी अंगको स्नान करावां और गोगीर्य चंदन के रससे उसपर तप किया। इसी -पीट, चननवादा। Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ चरित्र - [ ७६७ 1 तरह उसे हंसों के चित्रवाले वस्त्र पहनाएं और विचित्र दिव्य भूप से प्रभुके शरीरका श्रंगार किया । देवने दूसरे मुनियोंके शरीरों को स्नान, अंगराग, नेपथ्य' और आच्छादन किया। फिर इंद्र स्वामी के शरीर को शिविकामें रखकर गोशीपचंदनकी काष्ठमय चितामें ले गया । देवता मुनियों के शरीरोंको, दूसरी शिबिका में रखकर, गोशीपचंदनके काष्ठकी रची हुई दूसरी चितापर ले गए। अग्निकुमार देवने चितामें आग पैदा की, वायुकुमार देवने श्रागको अधिक भड़काया और इंद्रकी आज्ञासे अनेक देवताओं ने सैकड़ों भार कपूर व कस्तूरी और सैफड़ों घड़े घी चिताओं में डाले । अस्थिके सिवा जय प्रभुकी सब धातुएँ जल गई तब मेघकुमार देवोंने जल वरसाकर चिताओं को शांत किया । प्रभुकी ऊपरकी, दाहिनी और वाई दोनों डाढ़ें शक्र और ईशानेंद्र ग्रहण की और नीचेकी दोनों डाढ़े चमर और बलि इंद्रने ग्रहण कीं । दूसरे इंद्रोंने प्रभुके दाँत ग्रहण किए और देवोंने भक्तिसे दूसरी अस्थियाँ लीं। दूसरे स्तूप- रचना ' वगैरहके जो काम वहाँ करने थे उन्हें विधिके अनुसार करके, इंद्रोंने देवताओं सहित, नंदीश्वर द्वीप जाकर बड़े ठाट-बाटके 'साथ, शाश्वत श्रहंतोंका श्रष्टाहिका उत्सव किया। फिर सभी देवेंद्र अपने अपने स्थानोंपर गए। वहाँ उनने अपनी अपनी सुधर्मा नामकी सभाओं के मध्य भागके, माणवक स्तंभोंमें, वज्ञमय गोलाकार डिब्बों में प्रभुकी डाढ़े रखीं और वे उनकी, शाश्वत प्रतिमाओं की तरह, उत्तम गंध, धूप और पुष्पोंसे, १ - नेपथ्य करना वस्त्राभूषण पहनाना । २–ग्राट हजार तोलेका एक भार । Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. निरंतर पूजा करने लगे। इसीके प्रभावसे इंद्रोंके लिए हमेशा अव्याहत और अद्वितीय विजय-मंगल वर्तता है। (६८७-७०१) पोंसे परिपूर्ण मनोहर सरोवरकी तरह, अंदर स्थित सगरके चरित्रसे मनोरम, यह अजितनाथ स्वामीका चरित्र, श्रोताओंके लिए इस लोक और परलोकके सुखका विस्तार करे। ( ७०२) आचार्य श्री हेमचंद्र विरचित त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित्र नामक महाकाव्यके द्वितीय पर्वमें, अजितस्वामी व सगरचक्रीके दीक्षा और निर्वाण वर्णन नामका, छठा सर्ग समाप्त हुआ। Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिणियाँ १-करण सत्तरी .४२ पिंडविशुद्धि-साधु नीचे लिखे गये ४२ दोष टालकर आहार-पानी लें। १-धातृपिंड (गृहस्थके बालकोंको खिलाकर आहार लेना), २-दूतीपिंड (विदेशके समाचार बताकर गोचरी लेना), ३निमित्तपिंड (ज्योतिषकी बातें बताकर गोचरीलेना),४-आजीवपिंड (अपनी पहली दशा बताकर गोचरी लेना),५-वनीपकपिंड (जैनेतरके पाससे उसका गुरु बनकर गोचरी लेना), ६-चिकित्सा पिंड (चिकित्सा करके गोचरी लेना), ७-क्रोधपिंड (डराकर गोचरी लेना), -मानपिंड (अपनेको उच्च जाति या कुलका बताकर गोचरी लेना), 8-मायापिंड (वेप बदलकर गोचरी लेना), १०-लोभपिंड ( जहाँ स्वादिष्ट भोजन मिलता हो वहाँ पारबार गोचरीकोजाना), ११-पूर्वस्तवपिंड (पुराने सम्बन्धका परिचय देकर गोचरी लेना), १२-संस्तवपिंड (सम्बन्धी के गुण बखानकर गोचरी लेना), १३-विद्यापिंड (बच्चे पढ़ाकर गोचरी लेना), १४-मन्त्रपिंड (यन्त्र मन्त्र बताकर गोचरी लेना), १५चूर्णयोगपिंड (वास-क्षेप इत्यादि देकर गोचरी लेना), १६-मूलकर्मपिंड (गर्भ रहने के उपाय बताकर गोचरी लेना)। [ये सोलह तरहके दोष साधुको अपने ही कारणसे लगते हैं। ] Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र -- १७. साधुके लिए वना आहार लेना, १८-ौदेशिक (अमुक मुनिके लिए वना आहार लेना), १६-पूतिकर्म (सदोष अन्नमें मिला निर्दोष अन्न लेना), २०-मिश्र आहार (साधु तथा गृहस्थ के लिए बना आहार लेना), २१-स्थापना (साधुके लिए रखा हुआ आहार लेना), २२-प्राभृतिक (साधुके निमित्तसे, समयसे पहले या बादमें, बनाया हुआ आहार लेना), २३-प्रकाशकरण (अँधेरेमें से उजेलेमें लाना), २४-क्रीत (खरीदा हुआ आहार लेना), २५-उद्यतक ( उधार लाया हुआ आहार लेना), २६परिवर्तित (बदलेमें आया हुआ आहार लेना), २७-अभ्याहृत -(सामने लाया हुआ आहार लेना), २८-पदभिन्न (मुहर तोड़कर निकाला हुआ आहार लेना), २६-मालापहृत (ऊपरसे लाकर दिया हुआ आहार लेना), ३०-अछेद्म (जबरदस्ती दूसरेसे छीनकर लाया हुआ आहार लेना), ३१-अनिसृष्ट ( अनेक आदमियोंके लिए बनी हुई रसोईमें से दूसरोंकी आज्ञा लिए बगैर एक आदमी आहार दे वह लेना), ३२-अध्यवपूर्वक (साधुको आते जानकर गृहस्थका उनके लिए अधिक भोजन बनाना और साधुका उसे ग्रहण करना) : [ये १७ से ३२ तकके दोष गृहस्थकी तरफसे होते हैं। इनको उद्गम दोष कहते हैं।] .. ३३-शंकित (अशुद्ध होनेकी शंका होने पर भी आहार लेना), ३४-मृक्षित (अशुद्ध वस्तु लगे हुए हाथसे आहार लेना), ३५.निक्षिप्त (सचित्त वस्तुमें गिरी हुई अचित्त वस्तु निकालकर रखी हो वह लेना), ३६-पिहित (सचित्त वस्तुसे ढकी हुई अचित्त वस्तु लेना), ३७-सहन (एकसे दूसरे बर्तनमें डालकर Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ [३ दी हुई वस्तु लेना), ३८-दायक ( देनेवालेका मन देनेकी तरफ न हो वह वस्तु लेना), ३६-मिश्र (सचित्तमें मिली हुई अचित्त वस्तु लेना), ४०-अपरिणत (अचित्त हुए वगैर वस्तु लेना), ४१-लिप्त (यूँ क वगैरह लगे हाथसे मिलनेवाली वस्तु लेना), ४२-उज्झित (रस टपकती हुई वस्तु लेना) [३३ से ४२ तकके दस दोष देने और लेनेवाले दोनों के मिलनेसे होते हैं। .५ समिति-(देखो पेज २८) - १२ भावना या अनुप्रेक्षा- १. अनित्य (संसारकी चीजें अनित्य हैं-इसलिये उनमें मोह नहीं करना चाहिये) २. अशरण ( सिवा धर्म के दूसरा कोई आश्रय मनुष्यके लिए नहीं है) ३. संसार ( संसार सुख-दुखका स्थान और कष्टमय है ) ४. एकत्व (जीव अकेला ही जन्मता और मरता है) ५. अन्यत्व(परिवार, धनसम्पत्ति और शरीर सभी पर हैं) ६. अशुचि .(यह शरीर अशुचि है) ७. आस्रव (इन्द्रियासक्ति अनिष्टहै). संवर (उत्तम विचार करना) ६. निर्जरा (उदय में आए हुएं कमों को समभाव से सहना और तप के द्वारा सत्ता में रहे हुए कर्मों को नाश करने की भावना ) १०. लोकानुप्रेक्षा (संसार के स्वरूप का विचार करना) ११. वोधिदुर्लभ (सम्य. ज्ञान और शुद्ध चारित्र का प्राप्त होना दुर्लभ है) १२. धर्मस्वाख्यातत्त्व (सबका कल्याण करने वाले धर्म का सत्पुरुषों ने उपदेश दिया है । यह सौभाग्य की बात है) ५. पाँचों इन्द्रियों का निरोधः-(स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण) Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] __ त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र १. पडिलेहण या प्रतिलेखन-(हरेक चीज को ध्यानपूर्वक देखना) ३. गुप्ति-(मन-वचन-काय गुप्ति, देखो पेज ) १. अभिग्रह या प्रतिज्ञा. २. मुनि प्रतिमा-(देखो टिप्पणियों में प्रतिमा' शब्द) इस प्रकार कुल ७० हुए. दूसरी तरह से भी करण सत्तरी गिनी जाती है। बयालीस दोष रहित-आहार, उपाश्रय, वखारपात्र की गवेषणा। ५-समिति, १२ भावना, १२ मुनि प्रतिमा,५ इन्द्रिय निरोध, २५ तरह से पढिन्तहण, ३ गुनि, ४ अभिग्रह (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से) [प्रयोजन के अनुसार व्यवहार में लाना, हर रोज न लाना 'करण' कहलाता है।] २-कमठ और धरणेन्द्रपाश्वनाथ जी प्रथम भव में सहमति नाम से प्रसिद्ध थे। कमठ उनका भाई था। इसकी दुश्चरित्रता के कारण यह दंडित हुआ । इसका कारण वह मममूति को समझ इनसे बैर रखने लगा 1 पाश्वनाथ जी के दसवें भव में कमठ कठ नाम का पंचाग्नि तप करने वाला तपस्वी हुआ। एक बार गृहस्थावस्था में पाश्वनाथ नी तपस्त्री की धूनी पर गए । वहाँ लक्कड़ जल रहे थे। उनमें से एक लकड़ी की पोल में एक साँप जल रहा था। पार्श्वनाथ जी ने यह बात अपने अवधिज्ञान से नानी। इन्होंने कठ से कहा, "तुम यह कैसा तप करते हो कि जिसमें - Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ जीवित सर्प जल रहा है ?"-कमठ ने विरोध किया। पार्श्वनाथ जी ने अपने नौकरके द्वारा धूनी में से एक लक्कड़ निकलवाया। उसमें से तड़पता हुआ साँप निकला । पाश्वनाथ जी ने उसे नवकार मंत्र सुनाया । साँप मरकर धरण नाम का इन्द्र हुआ। इससे कठ का बड़ा अपमान हुआ। कठ भी मरकर मेघ. माली नाम का देव हुआ। पार्श्वनाथ जी ने दीक्षा ली। वे एक दिन ध्यान में थे। मेघमाली ने उन्हें देखा । वह पूर्व का वैर याद कर उन पर मूसलधार पानी बरसाने लगा। उनके चारों तरफ पानी भर गया। वे गले तक डूब गए । धरणेन्द्र को यह बात मालूम हुई। उसने आकर पार्श्वनाथ जी को एक सोने के कमल पर चढ़ा लिया और उन पर फनकी छाया कर दी। फिर उसने मेघमाली को धमकाया। वह डरकर पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में पड़ा। इस तरह कमठ ने प्रभु के शरीर को सताया और धरणेन्द्र ने प्रभु के शरीर की रक्षा की, परन्तु पार्श्वनाथ जी न कमठ से नाराज हुए और न धरणेन्द्र पर प्रसन्न हुए। उनके मन में दोनों के लिए समान भाव थे। ३-वहत्तर कलाएँ ये कलाएँ भगवान आदिनाथने अपने बड़े पुत्र भरतको सिखलाई थीं १. लेख-लिखनेकी कलाः सब तरहकी लिपियों में लिख सकना खोदकर, सीकर, चुनकर, छेदकर, भेदकर, जलाकर और संक्रमण करके एक दूसरेमें मिलाकर अक्षर बनाना मालिक-नौकर, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी,शत्रु-मित्र वगै. रहके साथ पत्रव्यवहारकी शैली,और लिपिके गुण दोपका ज्ञान, २. गणित, ३. रूप-मिट्टी, पत्थर, सोना, मणि, वन और Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रियष्टि शलाका पुनय-चरित्र चित्रादिन र चानी आदि बनाना, 2. नाव्य-अभिनयवाज़ा और अभिनय विना का नाच, ५. गीत, ३. वादित्र, ७, स्वरगत-संगीतके मान वगैचा बान,.पुष्कररात-मृदंग वारहवज्ञानका बान, समतालायन वगैरहके तालकाबान, १०, जून-जुश्रा, ११. जनवाद-गक तहका जूत्रा, १३. पाशकपासा, १३. अष्टापन-चापड़, १२. पुरःशान्य-शीन कवित्व, १५. निका-मिली हुई चीजोंको अलग करनेकी विद्या, १६. अन्न-विवि-पाकत्रिया-मोजन बनानंचा बान, १७. पानविधि-पानी मात्र नेत्री और सगुण-दोय जाननेत्री विद्या, १८, बन्छ विधि-बन्न पहननेकी विद्या, १६. विजेपन विधि, २०.शयनविधि-पलंग, गहा, तक्रिया वगैरह प्रमाण का और केस मोना चाहिए इसच्चा ज्ञान, २१. बाया-बाया छंदके भेद-प्रमेदोंका ज्ञान, २२. प्रहलिका-पहेली समस्या [२३. सागधिचा, २2. गाया, २२. गीति, २६. मोक-गरा में भेद-प्रमदांचा बान, २७. हिरण्ययुक्ति-चाँदी क्रीन नसेनबर किन क्रिस जगह पहनने चाहिए इसका वान,' स. स्वाति-मानक कोन कोनडे जेवर किन किन नगी पहनने चाहिए इसका ज्ञान, २६. गायुति-स्नान, मंजन वगैरह ग वनानकाद्वान,३०. यामरण विधि, ३१. तुकणी प्रतिकर्म-युवतीक कण बगैग बढ़ाना झान, [३२. बी, ३२. पुन्य, ३२.य, ३५.गन, ३३. गाय, ३७. डुक्कर-सूत्रा, २८. छत्र, ३६. ईट, 29, अनि, ११. मणि, ४२, काकपासन-इन ग्यारह मानुनिक शान्त्र बनाए हुए लचगों काद्वान, ४. वान्नुत्रिया-वह विद्या जिससे इमारवंसे मन्वन्ध रखने वाली सभी त्रातांक द्वान होता है, 22. कंबा Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ वारमान-सेनाके परिमाणका ज्ञान, ४५. नगरमान-शहर के परिमाणका ज्ञान, ४६. व्यूह-सेनाकी रचनाका ज्ञान, ४७. प्रतिव्यूह-प्रतिद्वन्द्वी शत्रुकी व्यूहरचनाका ज्ञान, ४८. चार-ग्रहोंकी गति वगैरहका ज्ञान, ४६. पडियार-प्रतिचारग्रहोंकी गति वगैराका ज्ञान अथवा प्रतिकार-रोगीके उपचार का ज्ञान, [५०. चक्रव्यूह, ५१. गरुड व्यूह, ५२. शकटव्यूहवगैरा. व्यूहोंकी रचनाका ज्ञान,] ५३. युद्ध, ५४. नियुद्धमलयुद्ध ५५, युद्धातियुद्ध-बड़ी लड़ाई ५६.१ष्टियुद्ध ५७. मुष्टियुद्ध ५८. बाहु युद्ध ५६. लतायुद्ध-लता की तरह प्रतिद्वन्दी से लिपटकर किया जाने वाला युद्ध, ६०. ईश वस्त्र-बाणों और अलोंका ज्ञान, ६१. सहप्रवाद-असि युद्धकी विद्या ६२. धनुर्वेद, ६३. हिरण्यपाक-चाँदी बनानेका कीमिया ६४. स्वर्णपाक-सोना बनाने का कोमिया-रसायण, ६५. सूत्रखेल-टूटी हुई या जली हुई रस्सियोंको बताना कि ये टूटी हुई या जली हुई नहीं हैं अथवा रस्सियोंको खींचकर किया जाने वाला पुतलियोंका खेल, ६६. वन खेल-फटा हुआ या 'छोटा कपड़ा इस तरह पहनना कि वह फटा या छोटा न दिखाई दे, ६७. नालिका खेल * -एक तरहका जूआ, ६८. पत्र * सूत्रक्रीड़ाकी व्याख्या करते हुए वात्स्यायनकी टीकामें लिखा है-"नालिकासंचारनालादिसूत्राणां अन्यथा अन्यथा दर्शनम् ।" अर्थात् नलीमें डाले हुए सूतके तंतुओंका दूसरी दूसरी तरह दिखाई देना। इससे ऐसा जान पड़ता है कि शायद नालिका खेलका अर्थ सूत्रकोडासे मिलता जुलताही हो। और यह शब्द सूत्र खेल और वाल खेलको पंक्तिमें ही है । इससे भी यह अर्थ अधिक मुसंगत मालूम होता है। Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र च्छेद्य-पत्तोंके थोकमें अमुक संग्न्यातकके पत्तोंको छेदनेकी कला, ६. कटच्छेद्य-बीच में अन्तरवाली और एकही पंक्तिमें रक्खी हुई वस्तुओंको क्रमवार छेदनका बान, ७२. सलीब-मरी हुई धातुओंको सहज रूपमें लानेका ज्ञान, ७१. निर्जीव-चातुओंको मारनेका ज्ञान, ७२, शकुनरुत-शकुनों और श्रावालोंका ज्ञान । इस तरह बहत्तर कलाओंका उल्लेख समवायांग सूत्रके बहत्तरत्रं समवायमें और राजप्रश्नीयमें बढ़प्रतिनकी शिक्षाके प्रकरणमें कुछ परिवर्तनके साथ पाना है। कामसूत्रके विद्या समुहेश प्रकरणमें ६४ कलाओं और उनका विवरण दिया हुआ है। इन चौसठ कलाओंमें ऊपर बताई हुई वहत्तर कलाएं समा जाती है। विवरण इस प्रकार है:-- नमूत्रकी कौनसी मालाएँ उसमें कम मूत्र समाती है १-गीत ५. गीत ७. स्वरगत २-वाय ६. वादिन ८. पुष्करगत ६.८ समताल ३-नृत्य १. नाव्य ४-मानेख्य ५-विशेषकच्छेद्य[इसको पत्र- ३. रुप पत्रच्छेद्य इसकी व्याख्या च्छेद्य भी कहा है। तिलक वगैरह के लिए पत्तोंकी विशेषकच्छेद्यकी व्याख्या अनेक तरहकी श्राकृतियाँ के अनुसार भी हो सकती बनानकी कला] Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - टिप्पणियाँ - ६-तंडुल कुसुमवलिविकार [अनेक रंगों के चावलों वगैरहसे तरह तरहके साथिए इत्यादि बनाना] ७-पुष्पास्तरण [इसे पुष्पशयन २०. शयनविधि भी कहते हैं] ८-दशन वसनांगराग (दाँत, | ३१. तरुणी प्रतिकर्म (2) कपड़े और शरीर रँगना] | १६. विलेपन २०. वनविधि ६-मणिभूमि कम सोने-बैठने ' के लिए मणि वगैरहसे जमीन बाँधना] १०-शयन रचन २०. शयन विधि ११-उदकवाद्य जलतरंग] ६. वादित्र १२-उदकाघात [पानीकी पिच कारियोंसे खेलना] • १३-चित्रयोग [जादू-टोना] .१४.माल्यग्रथन [मालाएँ पूँथना) • १५-शेखरका पीड योजन[फूलों, ३०. आभरण विधि द्वाराशेखरक मापीड़ यानी सरके गहने गूंथना] १६-नेपथ्यप्रयोग १८. वनविधि १७ -कर्णपत्रभंग [दाँत,शंखादि| ३०. पाभरण विधि ___ के कानोंके जेवर बनाना]] १८-धयुक्ति २६. चूर्णयुक्ति १६-भूपएयोजन | ३०. आभरण विधि Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुय-चरित्र २०-इन्द्रजाल २१-कौचुमारयोग [कुचुमारके, बनाए हुए सौभाग्य,बाजी. करगा वगैरह उपाय २२-इन्तलाघव [हायकी चालाकी ६८. पत्रच्छेश्च ६६ कटच्छेद्य २३-विचित्र शाक-प-भक्ष्य १६ अन्नविधि विकार क्रिया २४-पानकरसगगासव योजन | ७. पानविधि २५-सूचीबान कम दर्जीका काम] २६-सूत्रक्रीवा ६५. मूत्र खेल ३७. नलिकाखेल २७-बीगाडमरक वाद्य ६. वादिन २८-ग्रहलिका [पहन्ती] २२. प्रहेलिका २६-प्रतिमाला [अंतऋड़ी] ३०-दुवाचकयोग कठिन उचा__ण वाले शब्दोंको बोलन। की कला ३१-पुस्तक वाचन ३२-नाटकाट्यायिक दर्शन ३३-काव्य समस्यापूर्ति ३१-पत्रिका बवान विकल्प चिन, सरकंडा वगैरह से पलंग, कुर्सी वगैरह बुनन की क्रिया] २५-ततक्रम ३६-नना [सुतारका काम] Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ [ ११ ३७-वास्तुविद्या ४३. वास्तुविद्या ४५. नगरमान ३८-सायरत्न परीक्षा ४१. मणिलक्षण ४२. कांकणी लक्षण २७. हिरण्ययुक्ति? २८. सुवर्णयुक्ति ? ३६-धातुवाद ६३. हिरण्यपाक ६४. सुवर्ण पाक ७०, सजीव ७१. निर्जीव ४०-मणिरागाकर ज्ञान (मणियोंकी खानोंका और मणियाँ रँगने का काम] ४१-वृक्षायुर्वेद[वनस्पतिकी दवा करनेकी विद्या ४२-मेपफुकुटलावक युद्ध-विधि ५३. युद्ध ? मेढों, मुर्गों और लवोंकी लड़ाईकी विधि का ज्ञान] ४३-शुकसारिका प्रलापन सोसा • मैनाको चोलना सिखाना] | • ४४-उत्सादन, संवाहन और केशमार्जन कौशल [हाथ-पैर दवाने, मालिश करने और बालोंको मलनेकी कला ४५-अक्षर मुष्टिका कथन ४६-म्लेच्छित कलाविकल्प [सां केतिक भाषाका प्रयोग ४७-देशभापा विज्ञान Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___१२] त्रिपष्टि शलाका पुन्प-चरित्र - ४८-पुष्पशकटिका [फूलोंके न्या ने, पालखियाँ वगैरा बनाने की कला ४६-निमित्तज्ञान [७२, शकुनमत (३२ से ४२ तक ५०-यंत्र मातृका [ सजीव या की कलायें) ४८. चार निर्जीव यंत्रोंकी रचना] १. प्रतिचार] ५१-वारणमातृका स्मरणशक्ति याद रखने की कला; ५२-संपाच्य [ कोई आदमी कविता बोलता हो उसके साथही दूसरा आदमीजिसे वह कविता न पाती हो-भी एकाध अगला शब्द सुनकर वह ऋविता बोल सके ऐसीकला जैनशाखों में इसको पदानुसारिणी बुद्धि कहते हैं। ५३. मानसी कान्यक्रियापन, उत्पल वगरहकी आकृतिवाले श्लोकोंमें खाली जगहों को भरना] ५४-अभिधानकोश [शब्दकोश कान्नान ५५-छंदोविज्ञान २१. पायो २३. मागघिका २४. गाथा २५. गीति २६. श्लोक - - Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . टिप्पणियाँ [१३ ५६-क्रियाकल्प काव्य-अलंकार) १४. पुर:काव्य-शीघ्र कवित्व ५७--छलितक योग [ रूपांतर | . . करके ठगनेकी कला] ५८- वखगोपन ५E--द्यूतविशेष. . | [१० वें से १४ वे तक ६०-आकर्प क्रीड़ा [पासोंका | १२. पाशक खेल ] ६१-बालक्रीडन [बालकोंके लिए गुड़िया वगैरह बनानेकी कला] ६२-चैनयिकी [ अपनेको व दूसरेको शिक्षित बनानेकी तथा हाथी वगैरह पशुओं को शिक्षित बनानेकी कला] ६३--वैजयिकी [विजय पानेकी [४६. व्यूह ४७. प्रतिव्यूह • कला) ५०. चक्रव्यूह ५१. गरुड व्यूह ५.२. शकट व्यूह ५३. युद्ध ५४. नियुद्ध ५५. युद्धातियुद्ध ५६. दृष्टि युद्ध५७. मुष्टियुद्ध ५८.बाहु युद्ध ५६. लतायुद्ध ६०. इ. ६४-व्यामिकी [ व्यायामसे । प्वन६१. सम्प्रवाद, ६२. संबन्ध रखनेवाली कला]| धनुर्वेद,४४. स्कंधावारमान] जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिकी टीकामें स्त्रीकी ६४ कलाकि नाम आगे लिखे अनुसार हैं - - Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र १. नृत्य, २-औचित्य, ३-चित्र, ४-वादित्र, ५-मंत्र, ६-तंत्र, ७-ज्ञान, ८-विज्ञान, ६-दंभ, १०-जलस्तम्भ,११-गीतमान, १२-तालमान, १३-मेघवृष्टि, १४-फलाकृष्टि, १५-आरा. मरोपण, १६-आकारगोपन, १७-धर्मविचार, १८-शकुनसार, १६-क्रियाकल्प, २०-संस्कृनजल्प, २१-प्रासादनीति, २२-धर्मनीति, २३-वर्णिकावृद्धि, २४-स्वर्णसिद्धि, २५-सुरभितैलकरण, २६-लीलासंचरण, २७ -हयगजपरीक्षा, २८-पुरुषत्रीलक्षण, २६-हेमरत्न भेद, ३०-अष्टापदलिपिपरिच्छेद, ३१-तत्कालबुद्धि, ३२-वास्तुसिद्धि, ३३-काम विक्रिया, ३४-वैद्यकक्रिया, ३५-कुंभ भ्रम, ३६-सारीश्रम, ३७ अंजनयोग, ३८ चूर्गयोग, ३६-हस्तलाघव, ४ -वचनपाटव, ४१-भोज्यविधि, ४२-वाणिज्यविधि, ४३ मुखमंडन, ४४-शालीखंडन, ४५-कथाकथन, ४६-पुष्पग्रंथन, ४७-वक्रोक्ति, ४८-काव्यशक्ति, ४६-रफार-- विधिवेश, ५०-सर्वभापा विशेप,५१-अभिधानज्ञान, ५२-भूपरणपरिधान, ५३-भृत्योपचार, ५४-गृहाचार, ५५-व्याकरण, ५६-परनिराकरण, ५७-रंधन, ५८-केशवन्धन, ५६-वीणानाद, ६०-वितंडावाद, ६१-अंकविचार, ६२-लोकव्यवहार, ६३-अंत्याक्षरिका, ६४-प्रभप्रहेलिका । - प्राचीन समयमें इन सभी कलाओंके शान थे। वाराहसंहिता, भरतका नाट्यशाच, वात्स्यायनका कामसूत्र, चरक तथा सुश्रतकी संहितायें, नलका पाकदर्पण, पालकाप्यका इस्त्यायुर्वेद, नीलकंठकी मातंगलीला, श्रीकुमारका शिल्परत्न, रुद्रदेवका श्यनिक शास्त्र, मयमत और संगीतरत्नाकर वगैरह ग्रंय तो अब भी प्राप्त हो सकते हैं। ये कलायें पहले सत्रसे कंठस्थ कराई जाती थीं, पीछे उनका अर्थ बताया जाता था। और उसके बाद उनकी Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - टिप्पणियाँ . . प्रयोगात्म शिक्षा दी जाती थी। इसमें खास ध्यान देनेकी बात यह है कि पुराने लोग शिक्षा देते समय उन उन विषयोंके प्रयोगोंको भूलते नहीं थे। और इन कलाओं की योजना इस तरह की गई थी कि जिससे मनुष्योंकी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का विकास समान रूपसे होता था। इससे यह भी मालूम होता है कि पुराने जमानेमें केवल एकांगी-मात्र मानसिक-ज्ञानही नहीं दिया जाता था। ... .[अध्यापक वेचरदासजी द्वारा अनुवादित 'भगवान महावीरनी धर्मकथाओ' नामक पुस्तकसे। ४. काल कालका व्यवहार मनुष्य-लोकमें ही होता है । घड़ी, दिन, रात वगैरा भेद सूरज और चाँद आदिकी गतिके आधार __ पर होता है। - जम्बूद्वीप थालीकी तरह गोल है । लवण समुद्र उसे कड़े 'की तरह लपेटे हुए है। इसी तरह लवणसमुद्रको धातकीखंड "और धातकीखंडको कालोदधि समुद्र और इसको पुष्कराई घेरे • हुए हैं। यही मनुष्यलोक है। इसमें ढाई द्वीप आर दो समुद्र हैं। इसे ढाई द्वीप भी कहते हैं और यह समयक्षेत्र के नामसे भी पहचाना जाता है। मनुष्यलोकमें कुल १३२ चाँद और सूरज है। (जंबूद्वीपमें दो दो, लवणसमुद्र में चार चार, धातकी खंडमें चारह बारह, कालोदधि समुद्र में बयालीस बयालीस, और पुष्कराद्ध में यहत्तर वहत्तर । प्रत्येक चाँदके परिवार में बीस नक्षत्र, अठासी ग्रह और छासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोटा-कोटि तारे है] Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्र कालके चार भेद हैं-१-प्रमाणकाल, २-यथायुनिवृत्तिकाल : ३-मरणकाल और ४-श्रद्धाकाल । १-प्रमाणकाल दो तरह का है-दिन प्रमाणकाल और रात्रि प्रमाणकाल । चार पौरुषी-पहरका दिन होता है और चार पहरकी रात होती है। दिन या रातकी पहर अधिकसे अधिक साढे चार महर्त की और कमसे कम तीन पहरकी होती है। जब पहर घटती-बढ़ती है तब वह मुहूर्तके एक सौ वाईसवें भाग जितनी घटती या बढ़ती है। जब दिन बड़ा होता है तब वह अठारह मुहूर्तका होता है और रात छोटी यानी बारह मुहूर्तकी होती है; जब रात बड़ी होती है तब वह अठारह मुहूर्तकी होती है और दिन छोटा यानी बारह मुहूर्तका होता है। __ आपाढ़ मास की पूर्णिमाको, दिन अठारह मुहूर्तका और रात बारह मुहूर्तकी होती है। पोप महीनेकी पूर्णिमाको रात अठारह मुहूर्तकी और दिन बारह मुहूर्तका होता है। चैत्री पूर्णिमा और आश्विनी पूर्णिमाको दिन-रात समान यानी पन्द्रह- . पन्द्रह मुहूर्तके होते हैं। . २-यथायुनिवृत्ति काल-देव, मनुष्यादि जीवों ने जैसी आयु बाँधी हो उसके अनुसार उसका पालन करना। ३-मरणकाल-जीवका एक शरीरसे अलग होने का समय । ४-अद्धाकाल-यह सूर्यके उदय और अस्त होनेसे मापा जाता है । यह अनेक तरहका है । कालके छोटेसे छोटे अविभाज्य भाग को समय कहते हैं। ऐसे असंख्य समयोंकी एक प्रावलिका होती है। Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ [१७ । .२५६ आवलिकाका एक क्षुल्लक भव; १७ से अधिक क्षुल्लक भवका एक श्वासोश्वास; व्याधिरहित एक प्राणीका एक श्वासो. श्वास एक प्राण; ७ प्राणका एक स्तोक; ७ स्तोकका एक लव; ७७ लवका एक मुहूर्त (३७७३ श्वासोश्वासका एक मुहूर्त); ३० मुहूर्तका एक दिन-रात; १५ दिन रातका एक 'पक्ष'; दो पक्षका एक मास; दो मासकी एक ऋतु; तीन ऋतुका एक अयन; दोअयनका एक वर्ष; १२ वर्षका एक जुग; ८४ लाख वर्षका एक पूर्वाग; चौरासी लाख पूर्वागका एक पूर्व । इसी तरह त्रुटितांगत्रुटित; अडडांग-अडड; अववांग-अवव; हू हूआंग, हू हू श्र; उत्पलांग, उत्पलपद्मांग, पद्मा नलिनांग, नलिन; अर्थनिउरांग, अर्थनिउर; अयुतांग, अयुत; प्रयुतांग, प्रयुत; नयुतांग, नयुत; चूलिकांग, चूलिका; शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्पप्रहेलिका। यहाँ तक संख्यावाचक शब्द हैं। इसके बाद संख्यासे नहीं; परन्तु उपमासे ही काल जाना जा सकता है। इसे औपमिक काल कहते हैं। यह दो तरहका है:-एक पल्योपम और दूसरा सागरोपम। . १. पल्योपम-जिसका फिर भाग न हो सके वह परमाणु अनन्त परमाणुओंके समागमसे एक उच्छलक्षणशक्षिणका; इन 'आठकी एक लणक्षिणका; इन पाठका एक ऊर्ध्वरेणु; इन आठका एक त्रसरेणु, इन पाठका एक रथरेणु;आठ रथरेणुका देवकुरु और उत्तरकुरुकेमनुष्योंके, एक बालका अग्रभाग होता है; ऐसे पाठका, हरिव और रम्यक मनुप्योंके, एक बालका अप भाग ऐसे पाठका, हेगवत और ऐरावत के मनुष्योंकि, एक -- - Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुनय-चरित्र बालका अग्र भाग; ऐसे आठका, पूर्व विदेहके मनुष्योंके, एक वालमा अग्र भाग ऐसे पाठकी एक लिना (लीक); अाठ लिना की एक यूका (ज) ाठ काका एक यवमध्य; आठ यवमध्याचा एक अंगुलः [छ: अंगुलका एक पाद, बारह अंगुलका एक बालिश्त, चोवीस अंगुलका एक हाथ, ४८ अंगुलकी एक कुति; ६६ अंगुलका एक दंड (धनुष्य युग, नालिका, अन अयवा मुसल) होता है। ऐसे २००० दंड या धनुषका एक कोस और ऐसे चार कोसका एक योजन होता है। ऐसा एक योजन आयाम-विष्कम (लम्बाई चौड़ाई) वाला, एक योजन ऊँचाई वाला और सविशेष नीन योजन परिधिवाला एक पल्य अर्थान खड़ा हो; उसमें एक दिन उगे, दो दिनके उगे, तीन दिनके उंगे और अधिक अधिक साठ दिनके टोहए करोड़ों वालोंके अगले मागासे वह बड़ा मुंह तक ठसाठस भरा हो; जिर उस पल्य यानी बई मेंस ली ली बरसके बाद एक एक बालाग्र निकाला जाए, फिर जितने बरसाने वह वा बिलकुल खाली हो जाए चने वर्षाको एक पल्योपन कहते हैं। ऐसे कोटाकोटि पल्योरमको १० गुणा करनेसे निवने बरस पाते हैं उतने बरसों का एक सागरोपन होता है। बीस कोटाकोटि सागरोपमा एक कालचक्र गिना जाता है। (देस्रो पेज १२२-१२३) [मगवनी नगन ६ उद्देशक से] ५-चरण सत्तरी ___५. महानद-अहिंसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। १०. यतिवर्म-जमा, मात्र, पात्र, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, श्राचिन्य, ब्रह्मचर्य । (इसे उत्तमधर्म भी कहते हैं।) Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . टिप्पणियाँ [१६ ...... १७. संयम-पाँच इन्द्रियोंका निग्रह, पाँच अवतोंका त्याग, चार कषायोंका जय, और मन-वचन-कायकी विरति । १०. वैयावृत्त्य- आचार्य, उपाध्याय, तपस्त्री, शैक्ष (शिक्षण-प्राप्तिका उम्मीदवार-नवदीक्षित), ग्लान (रोगी). गण (एक साथ पढ़नेवाले भिन्न भिन्न आचार्यों के शिष्योंका समूह), कुल (एक ही दीक्षाचार्यका शिष्य-परिवार) संघ, साधु, समनोज्ञ (समानशील)। [इन दस तरहके सेव्योंकी सेवा करना।] ... ब्रह्मचर्य-गुप्ति-१-उस स्थानमें न रहना जहाँ स्त्री, पशु या नपुसक हो। २-स्त्रीके साथ रागभावसे बातचीत न करना। ३-जिस आसनपर स्त्री वैठी हो उस पर पुरुप और · पुरुष बैठा हो उसपर स्त्री दो घड़ी तक न बैठें। ४-रागभावसे .. पुरुष स्त्रीके और स्त्री पुरुपके अंगोपांग न देखें। ५-जहाँ स्त्री पुरुष सोते हों या कामभोगकी बातें करते हों और उसके बीच में .. एक ही दीवार हो तो साधु वहाँ न ठहरे। ६-पहले भोगे हुए भोगोंको याद न करे । ७-पुष्टिकारक भोजन न करे। -नीरस . आहार भी अधिक न ले। -शरीरको न सिंगारे।[ इनसे ' शीलकी रक्षा होती है।] '.... ३. तीनरत्न-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ।। .१२. तप-६ बाह्य तप-अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति रस त्याग, विविक्तशया-संलीनता यानी ऐसे एकान्त . स्थानमें रहना जहाँ कोई बाधा न हो, कायक्लेश । ६-अभ्यंतर तप-प्रायश्चित्त, विनय,वैयावृत्त्य,स्वाध्याय, व्युत्सर्ग-अभिमान और ममताका त्याग करना, और ध्यान ।] १. कपायजय-कोच, गान, माया, लोग। (सुल ७०) Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र [नित्यक आचरणको चरण कहते हैं। साधु उपर लिखी वाते सदा आचरणमें लाते हैं।] ६-ध्यान उत्तम संहननबालेका किसी एक विषयमें अन्त:करणाकी वृत्तिका स्थापन करना, ध्यान है। यह अन्तमुहर्त तक रहता है। मनके संकल्प-विकल्पोंको छोड़नेको भी ध्यान कहते हैं। ध्यानफ्रे चार भेद है -प्रात, रौद्र, धर्म और शुक्ल । १.आतच्यान-अनिका अर्थ हुन्न है, इससे जो मनम भाव उत्पन्न होता है उसे 'बात कहते हैं। दुःख चार तरहसे उत्पन्न होता है-अप्रिय वस्तु मिलनेस, प्रिय वस्तुके चले जाने से,रोगसे, अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करने के संकल्पस; इसीसे इसके चार भेद किए गए हैं। १-अनिष्टसंयोग; २-इष्टवियोग; ३रोगचिंता; और निदान आध्यान | आतंथ्यानके चार लक्षण हैं-जोरसे रोना, दीनता, चुपचाप ऑस गिराना और वार बार दुःखपूर्ण वचन बोलना। २. सैद्रव्यान-जिसका चित्त ऋर होता है उसे 'मुद्र, कहते हैं और ऐसे प्रात्माका जो चिंतन होता है, उसे 'रोद, कहते हैं। यह करता चार नरहसे उत्पन्न होती है-हिंसासे, मुठसे चोरीस, मिली हुई चीजोंकी रक्षा करनेके ग्यालसे। इसी. से इसके चार भेद किए गए हैं। १-हिंसानुबन्धी; २-अनृतानुन्धी, ३-स्तंयानुबंधी धार.?-विषयसंरक्षणानुबंधी रोद्रध्यान। गद्रध्यानक चार लक्षण है। हिमाके विचार करना; हिंसाके काम करना; हिमादि धर्मके काम धर्मबुद्धिसे करना और गरा तक पापांका प्रायश्चित्त नहीं करना । Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ - - - - - - I -- W - - ३. धर्मध्यान-देखो पेज ६३६ से ६७२ । धर्मध्यानके चार लक्षण हैं-जिनोपदेशमें रुचि; स्वभावसे ही तत्वमें रुचि, शाखाभ्याससे तत्लमें रुचि और बारह अंग-ग्रंथोंके सविस्तर अवगाहनकी कवि। धर्मध्यानके चार आलंबन है- वाचना (अध्ययन); प्रतिप्रच्छना; पुनरावर्तन और धर्मकथा। धर्मध्यानकी चार भावनाएँ हैं-एकत्व भावना; अनित्य भावना; अशरण भावना और संसार भावना। . . १. शुक्लध्यान-इसके चार भेद है-- . (क) पृथक्त्व वितर्क सविचार-पृथक्त्व-विविध पर्यायें। वितक-अंगशास्त्र या तज्ञान । विचार-संक्रमण । सविचारसंक्रमण सहित ] इसमें श्रुतज्ञानका अवलंबन लेकर किसी भी एक द्रव्यमें उसके पर्यायोंका विविध दृष्टियोंसे चिंतन किया जाता है; श्रुतज्ञानके सहारे ही एक अर्थ परसे दूसरे अर्थ पर, अर्थ परसे शब्द पर, शब्द परसे अर्थ पर तथा एक योग परसे , दूसरे योग पर वार बार संचार करना पड़ता है। , (ख) एकत्व वितर्क अविचार-[अविचार-संक्रमण रहित] इसमें श्रुतज्ञानका अवलंयन होनेपर भी द्रव्यकी एकही पर्याय पर स्थिर हुआ जाता है; तथा शब्द अर्थके चिंतनका या मनवाणी-कायाके व्यापारोंमें कोई परिवर्तन नहीं किया जाता। [क, और ख, में से 'क' भेदप्रधान है और 'ख' अभेद-- प्रधान । 'क' का अभ्यास होने परही 'ख' की योग्यता प्राप्त होती है। 'ख' में मनकी चंचलता जाती रहती है, और अंतमें ज्ञानके सकल आवरण हट जानेसे केवलज्ञान की प्रप्ति होती है । केवलज्ञान प्राप्त आत्मा 'सर्वज्ञ' कहलाता है। ] Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] त्रियष्ट्रि शलाका पुन्य-चरित्र (ग) सूक्ष्मनिया प्रतिपाती-इसमें मन-वचनके व्यापारोंको सर्वथा रोककर और, शरीरके म्यूल व्यापारोंको रोककर, सूक्ष्म व्यापारका आश्रय लिया जाता है। इसमें केवल श्वासोश्वास चलता रहता है। इसमेंसे पतन नहीं होता। (घ) समृच्छिन्न क्रियानिवृत्ति-इसमें शरीरकी श्वासोश्वास प्रादि क्रिया भी बन्द होकर आत्मप्रदेश सर्वथा निष्कम्प हो जाते हैं। इसके प्रभावसे पानव और बंबका निरोध होता है; काँका नाश होता है और मोक्ष मिलता है। ___' और 'घ शुक्लध्यानों में श्रुतका अवलम्बन नहीं होता, इससे इन्हें अनालंबन' भी कहते हैं। शुक्लब्यानके चार लक्षण है:-क्षमा, निरहना, आर्जव-सरलता और मार्दव-मानका त्याग। -शुक्लथ्यानके चार आलंबन है:-अन्यथा-निर्भयता, मोहका प्रभाव, विवेक-शरीर व यात्माकी भिन्नताका ज्ञान, और व्युत्सर्ग त्याग:-शुक्लचानकी चार भावनाएं हैं:-संसार के अनंत वृत्तिपनका विचार, वन्तुधों में प्रतिक्षण होनेवाले परि.. वर्ननका विचार, संसारकी अशुमताका विचार, और हिंसादिसे। स्पन्न होनेवाले अनयाका विचार । ___ व्युत्सर्ग-त्याग दो नरहका होता है-द्रव्ययुत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग । द्रव्यव्युत्सर्ग चार तरहका होता है:-गणन्युत्सर्ग, शरीरव्युत्मार्ग, उपंधि (साधन सामग्री) व्युत्सगं, और आहारपानी व्युत्सर्ग । भावव्युत्सर्ग तीन तरहका होता है:-ऋपायव्युत्सर्ग (क्रोध-मान-माया-लोभका त्याग), संसार व्युत्सर्ग(नारकी, नियंच, मनुष्य और देवके संसारका त्याग), कर्मव्युत्सर्ग (वातावरणादि पाठों कर्मों का त्याग देखों पेज ६३६) । Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ [२३ - - - ७-प्रतिमा · श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाएँ ।-१-दर्शनप्रतिमा [सम्यक्त्व का एक महीने तक निरविचार पालन करना २-व्रतप्रतिमा(स्वीकार किये हुये अणुव्रतोंका दो महीने तक निरतिचारपालन करना) ३-सामायिक प्रतिमा (तीन महीने तक सामायिकका निरतिचार पालना) ४-पौषधप्रतिमा (चार मास तक . आठम, चौदस, अमावस और पूनमके दिन पूर्णरूपसे पौषध लेना) ५-कायोत्सर्ग प्रतिमा (पाँच महीने तक स्थिर रहकर जिन भगवानका ध्यान करना, स्नान न करना, रातको भोजर न करना, दिनमें सर्वथा ब्रह्मचर्य पालना, रातमें मर्यादित ब्रह पर्य पालना, अपने दोषोंका निरीक्षण करना और लाँग खुत रखना) ६-ब्रह्मचर्य प्रतिमा (छः महीने तक श्रृंगार और मांसंगका त्याग करना) ७-सचित्त आहारवर्जन प्रतिमा (सत महीने तक सचित्त वस्तु न खाना) --स्वयं आरम्भ वनप्रतिमा (थाठ महीने तक स्वयं कोई ऐसा काम न करना जिस से पापात्रव हो)-भृतक प्रेप्यारंभ वर्जन प्रतिमा (नौ महीने तक नौकरों या अन्य लोगोंके द्वारा भी कोई ऐसा काम न कराना जिसस पापात्रव हो) १०-उद्दिष्ट भक्त वर्जन प्रतिमा (दस महीने तक अपने उद्देशसे बनाया हुआ भोजन न करना, सिर मुंडा हुआ रखना या सिर्फ चोटी रखना) ११-श्रमणभूत प्रतिमा (ग्यारह महीने तक साधुके समान आचरण रखना) नई प्रतिमा धारण करने पर भी पहले की प्रतिमाएँ चाल, रखी जाती हैं। [अध्यापक बेचरदासजी दोपी द्वारा अनुवादित भगवान महा. वोरना दस उपासको' नामक गुजराती पुस्तकसे अनुवादित । ] Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] त्रिषष्टि शन्ताका पुमय-चरित्र प्रतिमा-माधुयोंकी बारह प्रनिमायें । १ली प्रतिमा (गच्छसे बाहर निश्चल, अलग रह, एक महीने तक अन्न और पानी की एकदत्ती के द्वारा ही जीवन-निबाह करना। दत्ती अर्थात दान देने वाला सब भोजन या पानी देता हो तब भोजन या पानीकी एक धार हो और उस एक बार में जिनुना यावे उतना ही लेना। चार टूटने के बाद अब न लेना। दूसरी प्रतिमा (दो महीने तक अन्न या पानीको दो दत्ती लेना।) तीसरी, चौथी पाँचवीं, छठी और सातवी प्रतिमाओं में क्रमसे नीन, चार, पाँच छ: और सात दचित्रों अनुक्रमसे तीन, चार, पाँच, छ: और सात महीनों तक ली जाती है। बी प्रतिमा (सान दिन रात तंक एक दिन उपवास और एक दिन थायबिल करना, उपवास चौविहार करना, गाँव के बाहर रहना, चित या करवट लेटकर सोना, तथा उर्दू बैंठकर जो संवा सो सहन करना। वीप्रतिमा (मान रातदिन उसी तरह अवास और प्रायविल करना उन्ह बैठना और टट्टी लकड़ी की तरह सोना!) १०वी प्रतिमा (उतने ही रातदिन, उसी तरह प्रवास व आयंबिल करना,' गोद्रोहनामन या वीरासनमें रहना नया संकुचित होकर बैठना) ११वी प्रतिमा इस प्रतिमा छळ यानी छ समयका भोजना छोड़ना-दो चौवियाहार उपवास और अगले व पिछले दिन एकामन] करना नया एक दिनरात गाँव बाहर हाय लम्वे करके खड़े टुप. ध्यान करना ।) १२ वी प्रतिमा (इसमें अहम यानी चबिहार तीन उपवास और अगले व पिछले दिन एकासन और एक गत नदी किनारे किसी कगार पर खड़े होकर जान्ने न्यकाप बगैर ध्यान करना होता है।) सुचना-दन सायप्रतिमान हकसानु नहीं पाद लम्ता Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ [२५ लगभग दस पूर्वका धारक साधु ही इनको स्वीकार कर सकता है और पाल सकता है।] - (श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल द्वारा सम्पादित, गुजराती भगवतीसारके पेज १७९-८० से अनुवादित) ८-भ० ऋषभदेवजीके १०० पुत्रों व २ पत्रियोंके नाम माता सुमंगलाकी कोखसे जन्मे हुए-पुत्री १ ब्राह्मी और ६६ पुत्र-१ भरत । २ शंख । ३ विश्वकर्मा । ४ विमल । ५ सुलक्षण । ६ अमल । ७ चित्रांग। ८ ख्यातकीर्ति । ६ वरदत्त। १० सागर । ११ यशोधर । १२ अमर । १३ रथवर । १४ कामदेव । १५ध्रुव । १६ वत्सनंद । १७ सुर । १८ कामदेव । १६ ध्रुव। २० वत्सनंद । २१ सुर । २२ सुवृन्द । २३ कुरु । २४ अंग। २५ बंग। २६ कौशल । २७ वीर । २८ कलिंग । २६ मागध । ३० विदेह । ३१ संगम । ३२ दशार्ण । ३३ गंभीर । ३४ वसु वर्मा । ३५ सुवर्मा । ३६ राष्ट्र। ३७ सौराष्ट्र । ३८ वुद्धिकर। - ३६ विविधकर । ४० सुयशा । ४१ यशःकीति । ४२ यशस्कर । ४३ कीर्तिकर । ४४ सुरण। ४५ ब्रह्मसेन । ४६ विक्रांत । ४७ ) नरोत्तम । ४८ पुरुपोत्तम । ४६ चन्द्रसेन । ५० महासेन । ५१ नमसेन । ५२ भानु । ५३ सुकांत । ५४ पुष्पयुत । ५५ श्रीधर । ५६ दुर्दश। ५७ सुसुमार। ५८ दुर्जय । ५६ अजयमान । ६० सुंधर्मा । ६१ धर्मसेन । ६२ आनंदन । ६३ आनन्द । ६४ नंद। ६५ अपराजित । ६६ विश्वसेन । ६७ हरिपेण । ६८ जयविजय ६६ विजय। ७. विजयंत । ७१ प्रभाकर । ७२ अरिदमन । ७३ मान । ७४ महाबाहु । ७५ दीर्घबाहु । ७६ मेघ । ७७ सुघोप। ७८ विश्व । ७६ वराह । ८० सुसेन । ८१ सेनापति । ८२ कुंजर. Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र - बल । ८३ जयदेव 1८४ नागदत्त । ८५ काश्यप। ८६वल । ८७ वीर |८९ शुभमति । ८६ सुमति । १० पद्मनाम । ६१ सिंह। ६२ सुजाति । ६३ संजय। १४ सुनाम । ६५ मरुदेव । ६६ चित्तहर । १७ सरवर । १८ढरथ | १६ प्रभंजन। माता सुनंदासे जन्मे–१ पुत्र बाहुबली। १ पुत्री सुंदरी। ९-लिपियाँ भगवान आदिनाथने अपनी ज्येष्ठपुत्री ब्राह्मीको नीचे लिखी १८ लिपियाँ सिखाई थीं १-ब्राह्मी, २-जवणाणिया (यवनानी ?) ३-दोसापुरिया, ४-खरोष्ठी, ५-पुक्खरसारिया (पुष्करसारिका), ६-भोगवइया, ७-पहराइया, ८-अंतक खरिया, 8-अक्खर पुट्ठिया, १०-वेणइया, ११-निएडइया. १२-अंकलिवि. १३-गणितलिवि. १५गांधर्वलिवि, १५-आयंसलिवि,१६-माहेश्वरी, १७-दोमीलिवि, १८-पोलिंदी। __ पन्नवणासूत्र में लिखा है कि ये अठारहों लिपियाँ ब्राह्मी, लिपिके अन्तर्गतही गिनी जाती थीं। विशेषावश्यककी टीकामें । इन लिपियों के नाम भिन्न हैं। वे ये हैं. .. १-हंस लिपि, २-यक्षो लिपि, ३-भूत लिपि, ५-राक्षसी । लिपि, ५-उड्डी लिपि, ६.यवनीलिपि, ७-तुरुक्की लिपि, ८कीरीलिपि, ६-द्रविडीलिपि, १०-सिंधवीयलिपि, ११-मालवीनीलिपि, १२-नटी लिपि, १३--नागरी लिपि, १४-लाट लिपि, १५.-पारसी लिपि, १६--अनिमित्ती लिपि, १७. चाणक्य लिपि, १८-मूलदेवी लिपि। ... [अध्यापक वेचरदासजी द्वारा अनुवादित गुजराती 'महावीरनी धर्मकथाओ' नामक पुस्तक से।] Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - टिप्पणियाँ [२७ . . १०-शीलांगके १८००० भेद . . . १० यतिधर्म क्षमा मार्दव आर्जव मुक्ति | तप संयम | सत्य शौच (अकिंच- ब्रह्मचर्य नत्व - १० स्थावरादि पृथ्वी अप् | तेज वायु वनस्पति दो ई० ती० ई० चा०ई०पाई अजीव - - - . . .५ स्थावर १ ५ इन्द्रियाँ ४ संज्ञाएँ आहार | भय | मैथुन परिग्रह चक्षु- घ्राणे रसने स्पर्श'द्रिय इन्द्रिय द्रिय द्रिय द्रिय निग्रह! निग्रह निग्रह निग्रह निग्रह संज्ञा संज्ञा । संज्ञा । संज्ञा १४० ५०० ५०० १०० १.१००/१०० ५०० ३ करण - - मन वचन योग योग काययोग करना कराना अनुमोदन देना २०६० २०७० २००० ६००० ६००० ६००० - Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरय-चरित्र मुनि-क्षमावान, पृश्वीकाय-संरक्षक, श्रोत्रंद्रियको वशम करनेवाला. आहारसंज्ञा-रहित, मनसे (पापव्यापार ) न करें। इसी तरह मुनि मार्दव-युक्त, पृथ्वीकाय-संरक्षक, श्रोत्रेन्द्रियको वशमें करनेवाला, आहारसंज्ञा-रहित, मनसे (पापन्यापार)न करे। इसी तरह अतिधर्मके दूसरे पाठ भेद गिननेसे कुल १० भेद होते हैं। इन १० भेदोंको पृथ्वीकायकी तरह ही अपकाय आदि मिलानेसे १०x१०-१०० मेद हुप। ये सो भेट श्रोत्रंद्रिय आदि ५ इन्द्रियोंके संयोगसे (१००४५)=५०० मेद हुए। ये पाँच सौ भेद आहार आदि४ संज्ञाओंके संयोगसे (५००x४)=२००० भेद हगाये दो हजार भेद मन धादि३ योगोंके संयोगसे (२०:०४३) =६००० भेद हए । और ये छः हजार भेद न करना आदि ३ करणोंके संयोगसे (ER:0x३) १८००० भेद हुए। इस तरह शीलांगके अठारह हजार मेद होते हैं। ३ करण, ३ योग, ४ संज्ञाएँ, ५ इन्द्रियाँ और १० पृथ्वीकाय यादि (५. स्थावर.१ त्रस और १ अजीव) और १० यति धर्मः इन सबको अापसमें गुरगनसे १८००० होते हैं। ये ही शीलांग अठारह हजार भेद है। गुणाकार-(Ex-ex2-३६५=१८०x१०%D१८००x१०%१८०००) "जोए करणे सन्ना, इन्द्रिय मोमाई समाधम्म य । सोलंग-सहस्साणं, अटारस-सहन्स रिगष्फत्ती " ( दशावकालिक नियुक्ति गाथा १७७ ) ११-अंगमदेवकृत उपसर्ग महावीर स्वामी अन तप सहित पदाला नामक गाँवके पोलास नामक चत्यमें एक शिला पर गतमें ध्यानमग्न थे। उस Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ [२६ समय धर्मेन्द्रने अपनी सभामें महावीर प्रभुके धैर्यकी प्रशंसा की। सभामें संगम नामका एक देव था। उसने भगवानको धैर्य से डिगानेका निश्चय किया। वह ध्यानमग्न प्रभुके पास आया। उसने प्रभुपर एक रातमें २० तरहके उपसर्ग किए। उनमें से अठारह शरीरको पीड़ा पहुँचानेवाले थे और दो शरीरको शांति देनेवाले थे। मगर प्रभु ध्यानसे चलित नहीं हुए। जब वहाँसे प्रभुने विहार किया, तब भी संगम छः महीने तक लगातार प्रभुके शरीर को पीड़ा पहुँचाता रहा; मगर प्रभु नहीं घबराए । अन्तमें वह हारकर प्रभुसे क्षमा माँगकर चला गया। "इसने कितने बुरे कर्म बाँधे हैं। यह विचारकर प्रभुकी आँखों में करुणाके कण आ गए। १२-भगवान ऋषभदेवजी आर अजितनाथजीसे सम्बन्ध रखनेवाली मुख्य मुख्य बातें। ऋषभदेवजी अजितनाथजी १. च्यवनतिथि आपाढ़ वदी ४ | वैशाख सुदी १३ २. किस विमानसे सवोर्थसिद्धि | विजयविमान ३. जन्मनगरी विनीता अयोध्या ४. जन्मतिथि चैत्र वदी, माघ सुदी ८ ५. पिताका नाम नाभिकुलकर जितशत्रु ६. माताका नाम मरुदेवी विजया ७. जन्मनक्षत्र उत्तरापाढा रोहिणी ८. जन्मराशि धन ६. लक्षनाग वृषभ हस्ति - मुख्य बातें - | वृष Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० त्रिपष्टिशलाका पुरुष-चरित्र मुख्य बात | ऋषभदेवली | अजितनाथजी । १०.शरीरमान ५० धनुष ४५० वनुष ११. आयुमान र लक्ष पूर्व ७२ लन पूर्व १२. शरीरका वर्ण सुवर्ण वर्ण सुवर्ण वर्ण १३. पदवी राजपदवी राजपदवी १४. विवाहित या अवि-विवाह हुआ विवाह हुआ वाहित १५ किवनोंके माय दीना ४००० साधु १२००० साधु १६. दीक्षानगरी विनीता अयोध्या २७. दीज्ञातप दो उपवास दो उपवास १८. प्रथम पारनेमें क्या | इरस परमान्न क्षीर ___ आहार मिला १६. पारनेका न्यान यांसके घर ब्रह्मदचके घर २०. कितने दिन एक वर्ष के बाद दो दिन के बाद बाद पारपा २१. दीनातिथि चैत्र वदी ८ माघ सुदी २२. नत्यनाल | १०० वर्ष १२ वर्ष २३. ज्ञान प्राप्ति स्थान पुस्मिताल अयोध्या २४.बानदप तीन उपवान दो उपवास २५. दीनान वट वृक्ष साल वृक्ष २६.ज्ञाननिधि फाल्गुन वदी १२ पाप वदी ११ २७. गणघरसंख्या रू. साधुआंकी संख्या 28000 १००००० २६. साध्वियांची संख्या ३३०००० . Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ [ ३१ - २०४०० १२४०० ६४०० २२००० ३०. वैकियलब्धिवंत | २०६०० ३१, वादियों की संख्या | १२६५० ३२. अवधिज्ञानियोंकीसँ६००० ३३. केवली संख्या 1 २०००० ३४. मनःपर्यव संख्या १२७५० ३५. चौदह पूर्वी संख्या । ३६. श्रावक संख्या ३५०००० ३७ श्राविका संख्या ५५४००० ३८. शासनयक्षनाम .. | गोमुखयत ३६. शासनयक्षिणी चक्रेश्वरी ४०. प्रथम गणधरनाम | पुंडरीक ४१. प्रथम आयोनाम ४२. मोक्षस्थान अष्टापद ४३. मोक्षतिथि माघ वदी १३ . ४४. मोक्षसलेषणा ६ उपवास ४५. मोक्षासन पद्मासन ४६. अंतरमान १२५५० ३७२० २६८००० ५४५००० महायत अजितवला सिंहसेन फाल्गु सम्मेदशिखर चैत्र सुदी ५ १ मास कायोत्सर्ग ५० लाख कोटि सागर मानव गण सर्प योनि १००० तीन भव नकुल योनि ४७. गणनाम मानव गण ४८. योनि नाम ४६. मोक्ष परिवार १०००० ५०. सम्यक्त्वके बाद । तेरह भव भवसंख्या ५१. कुल नाम इक्ष्वाकु कुल ५२. गर्भकालमान इक्ष्वाकु कुल माह.२५ दिन नौ माह चार दिन - Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगना (शब्दोंके आगे जो संख्याएँ दीगई हैं, वे पुस्तकके पेजोको है ) अन्तर्वीप ६६१ अष्टापद-४४२, ४६६ अक्षय तृतीया २४० आत्माके शत्रु ३६५ अग्निहोत्रं ब्राह्मण ४८९ आक्षाविचय (धर्मव्यान) ६३७ अजितनाथजीका परिवार ७६५ आदित्य पीठ २४४ अणुव्रत ३०,२७३ आर्यदेश व जातियाँ ६५६-६० अतिचार भूलसे व्रतोंमें दोप आयुर्वेदके अंग ८६ आरे १२२ अतिथि संविभाग २७४ इन्द्र चौसठ १४४-१५८, . अतिशय ३४ (सहलातातिशय ५६४-५७८ ४) १७५, (घातिकर्मक्षयजा- उत्तर गुण-३ गुणवत, व४ तातिशय ११ इन्द्रकीप्रार्थना शिक्षात्रत में) ६३१-३२, (देवकृताति- ऊर्ध्वलोक ६६६ शय १६ सगरकी प्रार्थनामें) ऋषभदेवजीका परिवार ४८१ ६३४-३६ ऐरावत (ण) २५० अनार्य जातियाँ और देश ६६० कला-देखो 'परिशिष्टः (क) अपाय (धर्मध्यान) ६३८ कर्म आठ ६३६ अभयदान २४ कल्पवृक्ष ३५, १२३ अवग्रह ४५४ कल्याणक १३६, ५५४ अष्टमंगल-स्वस्तिक, श्रीवत्स, काल-देखो परिशिष्ट (ख) नंद्यावर्त, बर्द्धमान, मद्रासन, कालोदधि समुद्र ६५७ कलश, मत्स्ययुगल, दर्पण. कुलकर १२५--१३२ (युगलियों (दे० पे० ५५२) के राना) Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कोश कोश [३३ . - - .. गंगा ४३७-७८६ .... . चक्रवर्ती ४६७ गणि पिटक-शास्त्र । ये शास्त्र चौदह रत्न ३४३, ६८८ . द्वादशांगी. या बारह अंगोंके चौदह राज लोक ६४१ . . नाम पहचाने जाते हैं। उनके जंबू द्वीप ६४६ नाम ये हैं-१-आचारांग, जन्मकल्याणक १३६, ५५४ २- सूत्रकृतांग, ३- स्थानांग, जातिस्वभाव ८८ ४- समवायांग, ५- भगवती जीव २५ (व्याख्या प्रज्ञप्ति), ६-ज्ञाता ज्ञान २६७, ६३६, ६४० धर्मकथा, ७-उपासकदशा,८- ज्ञानकल्याणक २५०-६४० . अंतकृद्दशा, ६-अनुत्तरोपपा- ज्ञानदान २४ तिक,१०-प्रश्नव्याकरण, ११- ज्योतिष्क मंडल ६४६. : विपाकसूत्र और १२ दृष्टिवाद। तप (बारह तरह का) ३१ इन्हींको प्रवचन' भी कहते हैं। तापसोंकी उत्पत्ति २२३ . गति ६८ ... तीन रत्न ६१६ गणधरोंकी स्थापना २७६,६७३ तीर्थ (चतुर्विध संघ) २७४ गुणव्रत तीन ३०, २७३. तीर्थकर ४६१ । गुणस्थान ६२७ त्रिपदी २७६ • गुप्ति २८,५३६ दान (तीन तरहका) २३, २४ गृहस्थ (केवली) ५०७ दिक्कुमारियों छप्पन १४०, गोमूत्रिका विधान ८७ दीक्षाकल्याणक २१३, ६१२ ग्रोप्मवर्णन १६ दीव्य (पाँच) २४० . पातिकर्म ६५ देयशुद्ध ६ घुणाक्षरन्याय ४१६ देशविरति ३० चरित्र २७१ देशावकाशिक २७४ गौरव २८ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र द्वंद्वयुद्ध ४१३ .. पल्योपम (देखो टि नं.४).... द्वादशांगी (देखो पीछे 'गणि पादपोपगमन ४९१ .. . पिटक') पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, ध्यान-देखो टिप्पणी नं०६ मोन) - धर्म (चार प्रकारके) २४ पुष्करार्द्ध ६३२ . धर्मचक्र २४८ पूर्व-प्राचीन चौदह जैन. शास्त्र धर्मव्यान ६३६ [उत्पाद, अग्रायणीय, वीयं धर्मोपग्रह दान २७ प्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, घातकी खंड ६५६ नानप्रवाद, सत्यप्रवाद, नय-१. एक ही वस्तु के विषय आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, में भिन्न भिन्न दृष्टिविंदाओंसे प्रत्याख्यान-प्रवाद, विद्या संपन्न होने वाले भिन्न प्रवाद, कल्याणक, प्राणामिन्न अंमिप्रायोंको 'नया वाय, क्रियाविशाल, लोककहते हैं। २. जिस ज्ञान बिंदुसार] . में उद्देश्य और विधेय रूप पौषध व्रत अष्टमी, चतुर्दशी, से वस्तु भासित होती है पूर्णिमा या दूसरी किसी । उसको उस वानको-नय भी तिथि के दिन उपवास, कहते हैं। कर,शरीर विभूयाका.त्याग, नरकावास ६४२ कर धर्मजागरणमें तत्पर निधि ३३१,७१० निर्वाणकल्याणक ४८६६ प्रतिमा देटि नं. ७ नीति १३१, २०३ अतिवासुदेव १७३ परिव्राजक ४३५ परिसह, ५३७ पाप्ति २५ वाचका-बान बलदेव ४७२. बलि Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोश [३५ ब्राह्मणों की उत्पत्ति ४५६ युगशमिला न्याय ५१६ बीस स्थानक १०६ . . रत्नत्रय २६ भगवान ऋषभदेवकी संतान राक्षसवंश ७२३ (दे० टि००) रुचक प्रदेश ६४२ भगीरथ ७४० लन्धि १०० भवनपति देवं ६४४ लवण समुद्र ६५४ भावना ३२, ४०, ६३२ लिपि (दे० टि० न०६) मंगला १७४ लेश्या ६७१ मतः४२ . वर्षावर्णन १७ मत्स्यगलागलन्याय २१३ वसंतवर्णन २०६ मनुष्यलोक ६५६. . वार्षिक दान २१५, ६१२ महाव्रत-यतिधर्म २७२ । वासुदेव ४६६ मांगलिक अग्नि ७४६ विनीता नगरी १६८ माधुकरी ६३, २५३ विपाकविचय (धर्मध्यान) मानुषोत्तर पर्वत ६५८ ६३६ ' मिथ्यात्व ६७६ विवाहप्रथा २०४ • मूलगुण--पाँच महावत या वृक्षदोहद २६५, ६३७ . अणुव्रत व्यंतर ६४५ मेरुपर्वत ६४८ व्रत २७२ म्लेच्छ ६६० शत्रुजय ४७६ यक्षकर्दम-केसर, . अगर, शाश्वत जिनपिंय ४६१ चंदन, कपूर और कस्तूरी शिक्षाबत ३०, २७४ का समभाग मिश्रण। शील ३० यज्ञोपवीत ४५८ शीलांग १८ हजार(दे०दि.१०) युगलिया ३४ शुक्ल ध्यान (दे० टिन०६) Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र - - -- ६४१ माविका (प्रथम)२७५ सामायिक २७४ संलेखना ४७६ सिंहनिषद्या ४६० संस्थानविचय (धर्माध्यान) सिद्धशिला ६६६ सुनंदा १५२ सगर और उसकी संतान सुमद्रा ३२६२७ . ७२४ स्त्रीमुक्ति २५६ सच्चेदेव-न-बम भक समवसरण २५२, ६२६ स्वप्न (तीर्थकरोंकी माताओं समिति पाँच रस,५३५ के)१२३, ५४४(चक्र वर्तियों १ समुद्रोंक पानीका स्वाद ६५ की माताओं) सन्यरत्व २६८, ६५ स्वप्नोंका फल १३६, ५५० सर्वविरति ३१ स्वयंसिद्ध ६०८ सांवत्सरिक दान २१५,६१२ हिमकर्पर-बरफका वर्तन Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ": शुद्धि-पत्र . पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २७ १६. हा हो ... १६: आर .. और अद्धत ३६ ...5 . . पक्त पर्वत ३८ ११ . कुऐं ४७ ...१५.. वगैरही वगैरही १२वीं पंक्ति के आगे पाँचवाँ भव । ६... पाँचवाँ छठा ५५ १: छठा ८५ ७... सातवाँ आठवाँ ८५ ११. आठवाँ १.. नवाँ दसवाँ १०.. दसवाँ ग्यारहवाँ इसमें टिप्पणी नं० २ है उसे ६६वें पृष्ठकी और ६६३ पृष्ठकी को ६५ वें पृष्ठकी टिप्पणी न०२ समझे १२५ १३ वीं पंक्तिके आगे .. 'प्रथम कुलकर: १३२ १७ सवा पांचसौ . .. सवा पांच सौ धनुष २०. अपने आपने . . १६० १६. भक्ति से भक्तिसे १६३ : ४ . लइ लड्डू १६३ १४. टपकरी टपकती सातवाँ FREE FELA E F A * * * : ४ ' नयाँ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्र ३८] २०४ २३६ किए २७२ २७४ कमासे कमांसे जिवाला चिह्नवाला किया धर्मसेमें धर्मम (दून, पंचमी, अष्टमी, (अष्टमी, चतुर्दशी, . एकादशी और चतु०) पूर्णिमा और प्रमा०) आसमान असमान वद्धकी प्रकाशमें आकाशमें तरंगे दंडके वर्द्धकी २८४ २८६ २६० २०० तरंगें दडके वाण वारण दह तीर्थ २६१ २६१ २६३ तीथ सप सप पूर्ण २२५ कीमती ३०२ कीमता समर्थ और. ३.३ . ११ समय श्रार हायक हायक सूर्यके १७ ... 30 सूयके ३०६ ३०४ बगीचेको प्रेतराजाओंको चलाता था बगीचके प्रेतराजको चलता था ३१२ ३१४ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र [३६ ३१६ । १३ ३१६ . १५ ३२० . २० . ३३१ । ३३३ . ७ ३३६ २४ ३३६ १७ ३५३६ कुलदेवताका . कापे तिस्कार विरोधा नैसर्प .. अप्सराओंसे नरमुड सात अपने मारनेवाली सुबेश सुवेश शौयवान तरंगोंकेसे भाथोंसे करके कुलदेवीका काँपे तिरस्कार विरोधी नैसर्ग अप्सराओंके नरमुंड साथ आपके मारनेवाला १. ३६२ ३६३ सुवेग सुवेग शौर्यवान 4 तरंगोंसे ३६६ ४०८ । ४०६ ४१४ १५ जसे dar ~ ४४० ४४६ भाथों में करने जैसे चंद्र ऋषभदेवजी चाँदीका गए आधाकर्मी माहना निर्वाण चद्र' ऋषभदेवज चाँदीकी उए भाधाकमी महान निर्माण हदरका ४५३ ४५८ Lus » १८१ ४६४ हदयका Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] त्रिषष्ठि शलाका पुरुष-चरित्र . x . ४६८ ::१६. सिद्धाथा : . सिद्धार्थी ५०३ ११.. साथ साथ लेकर , साथ लेकर ५०६ .८... स्त्रण ककड़ा स्वर्ण कंकड़ो : स्वर्ण कंकणों ५०८ .१५.. विश्वपर विश्व पर . ५०६१ आचार्य x x x ५१७, १८ पीनेमें ... पीने ५२३ .. .. अधकूपमें अंधकूपमें . ५२४ १६ वैसे ही ५२७ ११.. वस्तुओंका वस्तुओंको ५२७.. .. २२ जिसको निससे ५२८ १२ . चे-सोचे वेसोचे ५३१ ३... जली चली ५४२ . .१६ .. आचार्य xx ५५४ .११.. तरक तरह ५६४८ : बठा था बैठा था ५६५ अपना अपने साँथियोंसे साथियोंसे . ५६६ ॐजाई ऊँचाई ५६२ ..:२० सक्ष्मीने लक्ष्मीने ५६३१८. श्राचार्य xxx ५६४ ३ प्रमुकी प्रभुका ६०८ . . ससारसमुद्र संसार समुद्र ६२७ पाए पाएको नरकावासा नरक्रावास ६४५ १६ गातरति गीतरति ५६८ ६४३ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र [४१ ६४६ २३ वण पचास याजन. उन ८ ६५४ ६५४ ६६० ६६१ ६६३ ६६६ पचास योजन उनमेंसे दरजी अंतर्वीप पर्यकासन चौतीस स्वों में विपुला ६७१ दरजा अतरद्वीप पर्यकासन चौतास स्वर्गामें विपुल धम बिस्तार यहाँ बहुश्रत दिशा छोड़ हो धर्म ६८२ ७०४. ७३४ ७४० For future" ~ MP3 विस्तर जहाँ बहुश्रुत दशा छोड़ दो थोड़ी छड़ीदार ने और • ७६५ ... २२ थोड़ी छड़ीदाने ৩০ प्रार २२ ७७७ ७७ २० हो ७८४ ७६७ २१ २० माग मार्ग Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे प्रकाशन १--श्री सूत्रकृतामसूत्रम भाग १ (सटीक) ४-०-० २-श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् भाग २ (सटीक) ३-०-० ३-श्री पंचप्रतिक्रमणसूत्र सार्थ (गुजराती) . विवेचनसहित, पृष्ठ ६४० २-०-० ४-नामांकित नागरिक, शेठ मोतीशाह .. (गुजराती). २-८-० Jainism in Gujarat : (1100 A.D. 10 1600 A. D.) 6-0-0 ६-श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (पञ्चदशं गोशालकाख्यं शतकम् ) अभयदेवसूरि-विरचित वृत्तिसहित २-५-० ७~-Bhagavatisutram. Gosalamatam (XV Sataka. Text with the Sanskrit Gloss ' By Abhayadevasuri and two Appendices) 2-8-0 -Uttaradhyayanasutram. The First Mulasutra of the Jain Canon: Complete Text only Edited By Pu. D. Vadekar & N. V. Vaidya. 2-०-० श्री गोडीजी महारान जैनमंदिर और धार्मिक-विभागोंके ट्रस्टी, नं० १२, पायधुनी, बंबई-३ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- _