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भरत-याहुमलीफा वृत्तांत
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तक राज्याभिषेक चला। उसमें अपने भाइयोंको न आते देख उन्होंने सबके पास दूत भेजे; कारण,-'उत्कंठा वलवान होती है। मगर वे न जाने क्या सोचकर, भरत महाराजके पास न आए और पिताजीके पास चले गए। वहीं उन्होंने दीक्षा ले ली। श्रव चे मोह-ममता रहित हो गए हैं। उनके लिए न कोई अपना है और न कोई पराया है, इसलिए उनसे महाराज भरतकी भाईसे प्रेम करनेकी इच्छा पूर्ण नहीं होती, अत: यदि आपके मनमें बंधुताका प्रेम हो तो आप वहाँ चलिए और महाराजके हृदयको प्रसन्न कीजिए । आपके बड़े भाई चिरकालके बाद घर लौटे हैं. तो भी आप बैठे हुए है ( उनसे मिलनेको नहीं गए), इससे मैं कल्पना करता हूँ कि आपका हृदय वनसे भो कठोर है। आप बड़े भाईकी अवज्ञा करते हैं, इससे जान पड़ता है कि आप निर्भीकसे भी निर्भीक है । नीतिमें कहा है कि__ "शूरैरपि वर्तितव्यं गुरौ हि समयैरिव ।"
[शूर-वीरोंको भी चाहिए कि वे गुरुजनोंसे डरते रहें।] एक तरफ जगतको जीतनेवाला हो और दूसरी तरफ गुरुकी विनय करनेवाला हो,तो उनमेंसे किसकी प्रशंसा करनी चाहिए ? इसका विचार करनेकी पर्पदा (सभा) के लिए आवश्यकता नहीं है। कारण,-गुरुकी विनय करनेवालाही प्रशंसा करनेके योग्य होता है। आपकी ऐसी अविनय, सबकुछ सहनेवाले, महाराज सहन करेंगे; मगर पिशुन (निंदक ) लोगोंको बेरोक मौका मिलेगा; आपकी अविनयका प्रकाश करनेवाले, पिशुन लोगोंकी वाणीरूपी छाछके छींटे धीरे धीरे महाराजाके दूधके समान दिलको दूपित करेंगे। स्वामीके संबंधमें अपना छोटासा छिद्र हो,