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७२६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ५.
वायुसे जैसे लता कौंपती है वैसेही पृथ्वी काँपने लगी; शिला.
ओंके टुकड़ोंके समान बड़े बड़े ओले गिरने लगे; सूखे हुए बदलोंके चूर्णके समान रजोवृष्टि होने लगी; गुस्सा हुए शत्रुके जैसी महा भयंकर वायु चलने लगी; अकल्याणकारिणी स्थारिने दाहिनी तरफ खड़ी होकर बोलने लगी, उल्लू मानो इनकी पर्दा करते हों ऐसे क्रोध करने लगे; मानो उच्च प्रकारसे कालचक्रके साथ कीड़ा करती हों ऐसी चील मंडलाकार होकर, आकाशमें उड़ने लगीं; गरमियोंके दिनोंमें जैसे नदियाँ जलहीन हो जाती है ऐसेही सुगंधित मदवाले हाथी मदहीन हो गए और विलोमसे जैसे भयंकर सर्प निकलते हैं ऐसेही, हिनहिनाते हुए घोड़ोंके मुखोंमसे धुआँ निकलने लगा। इन अपशकुनोंकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की। कारण
"तत्-ज्ञानामपि हि नृणां प्रमाणं भवितव्यता।" - [उन-उत्पात होनेकी बात बतानेवाले अपशकुनोंको जाननेवाले मनुष्योंके लिए भवितव्यही प्रमाण होता है। उन्होंने लान करके प्रायश्चित्त कोतुक-मंगलादि किया; फिर वे चक्र. वर्तीकी सारी सेनाके साथ वहाँसे रवाना हुए। महाराजा सगरने बीरत्नके सिवा सभी रत्न पुत्रोंके साथ रवाना किए। कारण
"...."आत्मैव हि सुतत्वभाक् ॥" [अपना आत्मा है वही पुत्र है।] (६२-७४) - सभी पुत्र यहाँसे रवाना हुए । उनमेंसे कई उत्तम हाथियोंपर बैठे हुए थे वे दिपालके समान मान्नुम होते थे; कई घोड़ों