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. श्री अजितनाथ-चरित्र
पर सवार सूर्य के पुत्र रेवंतके जैसे जान पड़ते थे, और कई सूर्यादि ग्रहोंकी तरह रथोंमें सवार थे। सभीने मुकुट पहने थे इसलिए वे इंद्रोंके समान जान पड़ते थे। उनकी छातियोंपर हार लटक रहे थे इनसे वे नदियों के प्रवाहोंवाले पर्वत जान पड़ते थे। उनके हाथों में विविध प्रकारके हथियार थे उनसे वे पृथ्वीपर आए हुए आयुधधारी देवता मालूम होते थे। उनके मस्तकोंपर छत्र थे इनसे वे वृक्षोंके चिह्नोंवाले व्यतर जान पड़ते थे। आत्मरक्षकोंसे घिरे हुए वे-किनारेसे घिरे हुए समुद्रके समान दिखते थे। ऊँचे हाथ कर करके चारण-भाट उनकी स्तुति करते थे। घोड़े अपने तेज खुरोंसे पृथ्वीको खोदते थे। बाजोंकी आवाजोंसे सारी पृथ्वी बहरीसी हो रही थी। बहुत उड़ी हुई धराकी धूलिसे सभी दिशाएँ अंधीसी हो रही थीं।
(७५-८०) " . विचित्र उद्यानों में मानो उद्यान देवता हों, पर्वतोंके शिखरोंपर मानो मनोहर पर्वतोंके अधिष्ठायक देवता हों, और नदियोंके किनारोंपर मानो नदीपुत्र हों ऐसे वे स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करते हुए इस भरतभूमिमें सभी स्थानोंपर फिरने लगे। गाँवोंमें, खानों में, नगरोंमें और द्रोणमुखों और किसानोंकी झोंपड़ियों में भी वे विद्याधरोंकी तरह जिनपूजा करते थे। बहुत भोग भोगते, बहुत धन देते, मित्रोंको खुश करते, शत्रुओंका नाश करते, रस्तोंमें चिह्न बनाने में अपना कौशल बताते, फिरते और गिरते हुए शस्त्रोंको पकड़ लेने में अपनी निपुणता दिखाते, शस्त्रों व शस्त्रियोंकी विचित्र प्रकारकी और विनोदपूर्ण कथाएँ अपने समान अायुवाले राजाओंसे करते,वाहनोंपर सवार उस अष्टापद