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श्री अजितनाथ-चरित्र
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निधियोंके अधिष्ठायक नौ हजार देवताओंको,-इन सभी देवोंको साधारण मनुष्योंकी तरह जीत लिया है । हे तेजस्त्री ! आपने अंतरंग शत्रुके षट्वर्गकी तरह इस छह खंड पृथ्वीको अपने भापही पराजित किया है। अब आपकी भुजाओंके पराक्रमके योग्य कोई भी ऐसा काम बाकी नहीं रहा कि जिसे हम पूरा करं यह बता: सकें कि हम आपके पुत्र है। अब तो आपके जीते हुए सर्व भूतलपर स्वच्छंदतापूर्वक विचरण करनेहीमें हमारा, आपके पुत्र होना सफल हो; यही हमारी इच्छा है। हम चाहते हैं कि आपकी कृपासे हम घरके आँगनकी तरह सारी भूमिमें हाथीकी तरह स्वच्छंदतापूर्वक विहार करें।" पुत्रोंकी यह माँग उसने स्वीकार की। कारण"महत्सु याश्चान्यस्यापि न मुधा किं पुनस्तकाम् ॥"
[महान पुरुपोंसे की गई दूसरोंकी प्रार्थना भी जब व्यर्थ नहीं होती तब अपने पुत्रोंकी प्रार्थना तो होही कैसे सकती है ?]
(५१-६१) फिर उन्होंने, पिताको प्रणाम कर अपने निवासस्थानपर आ, प्रयाणमंगलसूचक इंदुभि बजवाए। उस समय, प्रयाणके समयही, ऐसे अशुभ उत्पात और अशुभ शकुन होने लगे कि जिनसे धीरपुरुष भी भयभीत हो जाएँ। बड़े सर्पकुलसे आकुल रसातलके द्वारकी तरह सूर्यका मंडल सैकड़ों केतु नामक ताराओंसे भाकुल हुआ,चंद्रमंडलके मध्यमें छिद्र दिखने लगा, इससे वह नवीन उत्कीर्ण दाँतके ताटकर के समान जान पड़ता था;
१-छिदे पा खुदे हुए।२-कानका एक श्राभूपण ।