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३१४ ] त्रिषष्टिशक्षाका पुरुष- चरित्रः पर्व १. सर्ग ४
थे; उसकी जाँघें सोलह अंगुलकी थीं, उसके घुटने चार अंगुल - • के थे और उसके खुर चार अंगुल ऊँच थे। उसका मध्यभाग गोलाकार और झुका हुआ था; उसकी पीठ विशाल, जरा झुकी दुई और खुशी पैदा करनेवाली थी; उसके रोम रेशमके सूतके समान कोमल थे; उसके शरीर में श्रेष्ठ बारह श्रावर्त (मँवरियाँ) थे; उसमें सभी अच्छे लक्षण थे और उसकी कांति अच्छी तरहसे जवानी में आए हुए तोते के पंखोंसी हरी थी । उसको कभी चाबुक लगा न था; वह हमेशा सवारकी इच्छा के अनुसार चलाता था । रत्न और स्वर्णमय लगामके बहाने, लक्ष्मीने अपने दोनों हाथ उसके गज्ञेमें डाले हों, ऐसा जान पड़ता था । उसपर सोनेकी माला खनन आवाज कर रही थी, इससे मालूम होता था कि मधुरध्वनिवाले मधुकरोंसे सेवित कमलीको मालासे वह पूजा गया है । उसका मुख ऐसा मालूम होता था मानों यह पाँचरंगी मणियोंसे मिले हुए सोने के गहनोंकी किरणों द्वारा पताकाओं के चिह्नोंसे अंकित है। मंगलके नारेसे मंडित प्रकाशकी तरह सोनेके कमलका उसके ललाटपर तिलक था और उसके पहने हुए चामरोंके आभूषणोंसे बह ऐसा शोभता था मानों उसने दूसरे कान धारण किए हैं। बहू, चक्रवर्ती के पुण्यसे विकराए हुए, सूर्यके श्रवा नामक घोड़ेसा सुशोभित होरहा था। उसके पैर टेढ़े गिरते थे इससे वह खेलता हुश्रासा जान पड़ता था। उसमें एक क्षण सौ योजन लॉध लानेकी शक्ति थी; इससे वह साक्षात गरुड़ या पवन मालूम होना था। वह कीचड़, जल, पत्थर-कंकर और खाले विग्रम : महास्थलको स्थानको और पहाड़, गुफा वगैरा दुर्गम स्थल