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५४८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग २.
पर तोरण रचे हुए थे। बारीक तारोंवाले, पचरंगी, अखंड दिव्य वोंका, संध्यामेघसे श्राकाशकी तरह, चारोंतरफ उल्लोच . (चंदोवा) बंधा हुआ था। उसके चारों तरफ, स्थापित यष्टियों (खंभों) के समान, सोनेकी धूपदानियोंमेंसेधएकी घटाएँ निकल रही थीं। उस घरमें, दोनों तरफ ऊँची, वीचके भागमें जरा नीची, इसकी रोमलताकी रूईसे भरी हुई, तकियोंसे सुशोभित और उज्ज्वल चद्दरेवाली मुंदर शय्या थी । उसपर विजयादेवी, गंगाके तीरपर बैठी हुई हंसिनीके समान शोभती थीं। उन्ह इंद्रोंने देखा । उन्होंने, अपना परिचय दे, देवीको नमस्कार कर, तीर्थकरके जन्मकी सूचना देनेवाला सपनोंका फल बताया। फिर सौधर्मेंद्रने कुवेरको श्राज्ञा दी "जिस तरह ऋपभदेवके राज्यके आदिमें तुमने रत्नादिसे इस नगरीको पूर्ण किया था वैसेही; वसंत मास जैसे नए पल्लवादिसे उद्यानको नया वना देता है वैसेही, नए घरों वगैरासे इस नगरीको नया बनाओ और मेघ जैसे जलसे पृथ्वीको पूर्ण करता है वैसेही, सोना, धन, धान्य और वनोंसे इस नगरीको चारों तरफसे भर दो।
यों कह शक्र और दूसरे इंद्र नंदीश्वरद्वीप गए। वहाँ उन्होंने शाश्वत जिन-प्रतिमाओंका अष्टाहिका उत्सव किया। फिर वहाँसे वे अपने स्थानोंपर गए। कुबेर भी इंद्रकी आज्ञानुसार विनीता नगरीको बना अपनी अलकापुरीमें गया ।मानो मेरुपर्वतके शिखर हों ऐसे ऊँचे सोनेके ढेरोंसे, मानो घेतान्य पर्वतके शिखर हों ऐसी चाँदीकी राशियोंसे. मानो रत्नाकरक सर्वस्व हों ऐसे रत्नोंके समूहोंसे, मानो जगतके हर्षे हों ऐसे सबह तरह के धान्योंसे, मानो सभी कल्पवृक्षोंसे लाए गए हों