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श्री अजितनाथ-चरित्र
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पहनो। हे शरीरो! तुम्हें अब कोचकी फलीके स्पर्शकी तरह अंगरागोंकी जरूरत नहीं है।"
अंत:पुरकी त्रियोंके इस तरह, करुण स्वरमें रोनेसे, बंधुकी तरह सारे वन भी प्रतिध्वनिके साथ गेने लगे। (१०-२३)
सेनापति, सामंत, राजा और मंडलेश्वर इत्यादि सभी शोक, लज्जा, क्रोध और शंकादिसे रोते हुए विचित्र प्रकारसे घोलने लगे। "हे स्वामीपुत्रो ! हम नहीं जानते कि तुम कहाँ गए हो? इसलिए तुम बताओ जिससे हम भी स्वामीकीश्राज्ञामें तत्पर होनेसे तुम्हारे पीछे पावें। अथवा क्या तुम्हें अंतर्धान होनेकी विद्या प्राप्त हुई है ? अगर ऐसा हो तो उसका उपयोग नहीं करना चाहिए, कारण उससे तुम्हारे सेवकोंको दुःख होता है। तुम नष्ट हुएहो मगर तुम्हारे विना अगर हम जाएँगे तो हमारा मुख ऋषिहत्या करनेवालोंकी तरह सगर राजा कैसे देखेंगे ? यदि तुम्हारे बिना जाएँगे तो लोग भी हमारी दिल्लगी करेंगे। हे हृदयो ! अब तुम पानीसे भरे कच्चे घड़ोंकी तरह तत्कालही फूट जाओ। हे नागकुमार ! तू भी खड़ा रह । हमारे स्वामीको जो अष्टापदकी रक्षा करने में व्यग्र थे-कपटसे कुत्तेकी तरह जलाकर अब तू कहाँ जाएगा? हे तलवारो! हे धनुषो! हे शक्तियो! हे गदाभो ! तुम युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। हे नाग ! तू भागकर कहाँ जाएगा ? ये स्वामीपुत्र हमें यहाँ छोड़कर चले गए। हा ! हा ! उन्हें छोड़कर लौटनेसे हमें भी स्वामी जल्दीही छोड़ देंगे। यदि हम वहाँ नहीं भी जाएंगे और यही जीवित रहेंगे तो यह सुनकर हमारे स्वामी लज्जित होंगे या हमें दंड देंगे।"
इस तरह नाना प्रकारसे रोनेके पाद सब इक होकर