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___५२४ | त्रियष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २ सर्ग १.
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लककी विशेषतासे जैसे गाय कामधेनु के समान होती है वैसेही तुम्हारे समान मनुष्योंके द्वारा ग्रहण की हुई दीक्षा तीर्थकरपद' तक्रके फलको देती हैं। तुम्हारी इच्छा पूर्ण करनेके लिए हम यही रहेंगे। कारण, मुनि भव्यजनोंके उपकारके लिएही विचरण करते हैं।" नव, प्राचार्य महाराजकी वाणी सुनकर राजाओंमें सूर्यके समान वह राजा उनको प्रणाम करके खड़ा हुआ। •कारण............"निश्चिते कार्य नालसंति मनस्विनः ।"
[मनस्त्री पुरुप निश्चित कार्यमें आलस्य नहीं करते।] यद्यपि राजाका चित्त आचार्यके चरणकमलोंमें लगा हुआ था तो भी वह, जैसे कोई जबर्दस्ती दुर्भगा बीके पास जाता है वैसेही, अपने महल में गया। वहाँ उसने सिंहासनपर बैठ अपने राज्यरूपी भवनकं स्तंभ समान मंत्रियोंको बुलाया और उनसे कहा, (१३६-१४५)
हे मंत्रियो ! आम्नायसे (परंपरासे) जैसे इस राज्यरूपी घरमं हम राजा है बसेही, स्वामीक हितके लिए एक महानत. वाले तुम मंत्री हो। तुम्हारे मंत्रबलसही मैंने पृथ्वी जीती है। इसमें हमारी भुजाओंके बलका उपक्रम (तैयारी) तो निमित्तमात्र है। भूमिका भार जैसे धनवात, घनोदधि और तनुवातने धारण कर रखा है सही तुमने मेरे राज्यका भार धारण कर रखा है। मैं तो देवताकी तरह प्रमादी होकर, रातदिन विषयोमही विविध क्रीड़ायोंके रसमेही लीन रहा हूँ। रातके समय जैसे दीपकसे खड्डा दिखाई देता है वैसेही, अनंत भवामि दुख देनवाला यह प्रमाद, गुरुकी कृपारूपी दीपकसे मुझे दिखाई दिया