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४.] त्रिषष्टि शलाका पुष-चरित्रः पर्व १. सग १.
इस नन्ह पुत्रको गजगही देकर शनयन्द्र राजाने श्राचार्यके पास थाकर शमसाम्राज्य (चारित्र) ग्रहण किया-दीक्षा ली। उसने मार त्रिपयों को छोड़कर मारनप तीन रब (अन्य दर्शन, बान और चाचित्र) ग्रहण किपा (राज्यवैभव छोड़कर दीना देने पर भी) उस समनामात्र कायम रह ! उस जिनेन्द्रियनकायोंकी उमीन उखाड़ दिया जिस तरह नदीना पूरकिनारोककृतको उचाइ देता है। वह शनिशान्ती महात्मा मनको यात्मन्वन्यदीनकर, वागीको नियममें रख और शरीरको नियमित (गुम प्रवृत्रियोंमें ) लगा, दु:सह परीसह सहन करने लगा। भावना (मैत्री, कनया, प्रमोद
और माध्यन्य भावनाओं) से जिननी वानवतनि बढी है ऐसा शनवल गार्षि, इस नन्ह श्रमंद ( कमी न बनवान्ल) यानंद में रहने लगा मानों वह मोहमदी है । ध्यान और तपमें लीन रखकर उस महात्मानं लीनामात्र (वलमें समयका अध खयाल नहीं रहना इस तरह) प्रायु परीकी और स्वर्गमें देवताओंका स्थान पाया। (२७.२७)
महावन्त राजा या अपने बलवान विद्याधरोंकी सहायतासे इन्द्रकी तरह पृथ्वीका अन्लंड शासन (राय) करने लगा। ईम जैसे ऋमलिना खंडाने क्रीडा करता है वही वह भी रमनियाँक चाय वीत्री श्रानंदसे कीडा करने लगा। उसके शहरमें सदा नंगीत होना था, उसी प्रतिध्वनि वैताध्य पर्वतसे उनी थी, वह ऐसी जान पड़ती थी मानो वैताध्यकी गुफ्यम् संगीता अनुकरण कर रही है। श्रागपी और दोनों बगलामें वह स्त्रिबाट विग हुया मानान भर्तिमान शृङ्गाररसकी