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श्री अजितनाथ-चरित्र
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है। वह निर्दोष नगर उद्यानों और नदियों वगैरासे बहुत सुंदर मालूम होता है। उसमें अश्वभद्र नामका एक गाँव है। वह बड़ेबड़े सरोवरों, कूओं, वापिकाओं और विचित्र आरामोंसे (बगी. चोंसें ) सुंदर और पृथ्वीका तिलक जान पड़ता है। मैं, उस गाँवका रहनेवाला, वेदाध्ययनमें तत्पर, शुद्ध ब्रह्माकुलमें जन्मा हुआ, एक अग्निहोत्री ब्राह्मण हूँ। एक बार मैं अपना प्राणप्रिय पुत्र, उसकी. माताको सोंप, विशेष विद्या पढ़नेके लिए दूसरे गाँव गया । एक दिन पढ़ते पढ़ते, बिनाही कारण, मुझे पढ़नेमें स्वाभाविक अरुचि हो आई; उस समय यह सोचकर कि, यह बड़ा अपशकुन हुआ है, मैं व्याकुल हो उठा। उस अपशकुनसे डरकर मैं, जातिवंत घोड़ा जैसे पूर्वाश्रित मंदुरा (घुड़शाल) में आता है वैसेही, अपने गाँव वापस आया। दूरसे मैंने अपने घरको शोभाहीन देखा। मैं सोचने लगा कि इसका कारण क्या है ? उसी समय मेरी दाहिनी आँख तेजीसे फड़कने लगी और एक कौश्रा सूखे वृक्षकी डालपर बैठकर कठोर वाणी में काँव ! काँव !! करने लगा। इन अपशकुनोंसे मेरा हृदय, वाण लगा हो ऐसे, बिंध गया। मेरा मन खीज उठा । मैं चुगलखोर भादमीकी तरह घरमें घुसा। मुझे आते देखकर मेरी स्त्री-जिसके केश इधर उधर फैल रहे थे- 'हा पुत्र ! हा पुत्र ! चिल्लाती हुई • जमीन पर लोट गई। उसकी दशा देखकर मुझे निश्चय हो गया कि मेरा पुत्र मर गया है। मैं भी ( शोकके वेगसे ) प्राणरहित मनुष्यकी तरह पृथ्वीपर गिर पड़ा। जब मेरी मूर्छा दूर हुई तब मैं करुण कंठसे विलाप करता हुआ घरमें चारों तरफ देखने लगा। मुझे मेरा यह पुत्र घरमें मरा पड़ा दिखाई दिया। इसको