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श्री अजितनाथ चरित्र
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- मंत्रियोंने कहा, "हे कुमार ! आप स्वभावसे ही विवेकी हैं। आपका कथन यद्यपि योग्य है तथापि, पिताने जो आज्ञा दी है उसे आपको स्वीकार करनाही चाहिए । कारण,
"गुर्वाज्ञाकरणं सर्वगुणेभ्यो ह्यतिरिच्यते ।" .. [गुरुकी आज्ञा माननेका गुण दूसरे सभी गुणोंसे श्रेष्ठ है। 1 आपके पिताने भी उनके पिताका वचन माना था। यह यात हम जानते हैं। जिसकी आज्ञा पालनीही चाहिए ऐसा, पिताके सिवा इस लोकमें दूसरा कौन है ?" ( १६३-१६५)
. पिताके तथा मंत्रियोंके वचन सुनकर राजकुमारने सर झुका लिया और गद्गद् वाणीमें कहा, "मुझे स्वामीकी आज्ञा अंगीकार है। उस समय राजा अपनी आज्ञा माननेवाले पुत्रसे इसतरह खुश हुआ, जिस तरह चंद्रमासे कुमुद और मेघसे मोर प्रसन्न होता है । इसतरह प्रसन्न बनेहुए राजाने अभिषेक करने योग्य अपने कुमारको निज हाथोंसे सिंहासनपर बैठाया । फिर उनकी आज्ञासे सेवक लोग, मेघकी तरह तीर्थों के पवित्र जल लाए। मंगलवाद्य बजने लगे और राजाने तीर्थजलसे कुमारके मस्तकपर अभिषेक किया। उस समय दूसरे सामंत राजा भी आकर अभिषेक करने लगे और भक्तिभावसे नवीन उगे हुए सूरजकी तरह उसे नमस्कार करने लगे। पिताकी आज्ञासे उसने सफेद वस्त्र धारण किए। उनसे वह ऐसा शोभने लगा,जैसे शरद ऋतुके सफेद बादलोंसे पर्वत शोभता है। फिर वारांगनाओंने आकर, चंद्रिकाके पूरके समान गोशीर्ष चंदनका, उसके सारे शरीरपर लेप किया। उसने मोतियों के आभूषण धारण
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