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५३०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष- चरित्रः पर्व २. सर्ग १.
फिर वे ऐसे जान पड़तं थे, मानों श्राकाशसे तारोंको लाकर धागोंमें पिरोकर, आभूपण बनाए गए हैं। राजाने मानो अपना महाप्रचंड प्रताप हो ऐसा, माणिक्योंके तेनसे चमकता हुआ मुकुट उसके मस्तकपर रखा; और क्षण-मात्रहीमें मानो यश प्रकट हुआ हो ऐसा, निर्मल छत्र उसके मस्तकके ऊपर रखा गया। दोनों तरफ वारांगनाएँ मानो राज्यसंपत्ति रूपी लताके पुष्पोंको सूचित करते हों ऐसे चमर डुलाने लगी। फिर महाराजाने अपने हाथोंसे उसके ललाटमें, उदयाचलकी चूलिकापर रहे हुए चंद्रके समान, चंदनका तिलक किया । इसतरह रानाने कुमारको बड़े अानंदसे राज्यगहीपर विठाकरलक्ष्मीकी रक्षाका मानो मंत्र हो ऐसा यह उपदेश दिया, (१६६-२०६)
"हे वत्स! अव तू पृथ्वीका आधार हुआहै। तेरा प्राधार कोई नहीं है, इसलिए प्रमाद छोड़कर अपने प्रात्मासे उसको धारण करना । अाधार शिथिल होनेसे आधेय (जिसे आधार दिया जाता है वह) भ्रष्ट होता है, इसलिए विषयोंके अतिसेवनसे होनेवाली शिथिलतासे तू अपनी रक्षा करना । कारण,-.
"यौवनं विमत्रो रूपं स्वाम्यमेकैकमप्यतः । प्रमादकारणं विद्धि बुद्धिमत्कार्यसिद्धिमित् ॥"
[यौवन, धन, रूप और स्वामीपन, इनमें एक एक भी प्रमादके कारण हैं और बुद्धिमानकी कार्यसिद्धिका नाश करने वाले हैं, यह समझना । ] कुलपरंपरासे आई होनेपर भी दुराराध्य (कठिनतासे प्रसन्न होनेवाली) और छिद्र ढूँढनेवाली यह लक्ष्मी राक्षसीकी तरह, प्रमादी पुरुषोंको दगा देती है। बहुत