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५२८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १.
राज्य नहीं चाहता; कारण, यदि सरोवर जलसे भरा हो, मगर उसमें कमल न होतो यह भँवरोंके लिए किस कामका है ? हाय ! अाज देव मेरे लिए प्रतिकूल हुआ है। मेरा दुर्भाग्य श्राज प्रकट हुआ है। इसी लिए पत्थरके टुकड़ेकी तरह मेरा त्याग करके पिताजी मुझे इस तरहकी आज्ञा कर रहे हैं। मैं किसी भी तरह इस पृथ्वीको ग्रहण नहीं करूंगा। और इस तरह गुरुजनोंकी
आज्ञा उल्लंघन करनेका जो अपराध होगा उसके लिए प्रायश्चित करूँगा।" (१८०-१५)
पुत्रकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली,मगर सत्त्व और स्नेहपूर्ण वाणी सुनकर राजादुखी भी हुआ व प्रसन्न भी हुआ । वह वोला, "तू मेरा पुत्र है, साथही समर्थ, विद्वान और विवेकी भी है, फिर भी स्नेहमूल अज्ञानके कारण वे-सोचे इस तरह क्यों बोल रहा है ? कुलीन पुत्रोंके लिए गुरुजनोंकी आज्ञा विचार करने लायक नहीं होती ( मानने लायकद्दी होती है); तव मेरा कथन तो युक्तिसंगत है, इसलिए तु विचार करके भी इसको स्त्रीकार कर। नत्र पुत्र योग्य होता है तब वह पिताका बोझा उठाताही है; सिंहनी अपने पुत्रके कुछ बड़ा होतेही निर्भय होकर मुखसे सोती है। हे वत्ल ! तेरी इच्छाके बगैर भी में मोक्षकी प्राप्तिके लिए इस पृथ्वीका त्याग कर दूंगा। में तेरा बंधा हुआ नहीं है, तब तुमे इस बिलखती हुई पृथ्वीका स्वीकार तो करनाही पड़ेगा; मगर साथही मेरी आज्ञाका उल्लंघन करनेके पापका भार भी उठाना पड़ेगा। इसलिए हे पुत्र ! मुममें भक्ति रखनेवाले तुझे विचार करकं या बगैर विचार किएही मुझ सुखी बनानेवाली, मेरी यह बात माननीही पड़ेगी।" .
(१८६-१६२)
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सुमा