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: श्री अजितनाथ-चरित्र
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तरह कदम रखता हुआ वहाँ आया। साधारण प्यादेकी तरह उसने भक्तिभावसे राजाको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर वह उचित स्थानपर बैठा। अमृतरसके समान सारदृष्टिसे मानो सिंचित करते हों ऐसे आनंद सहित कुमारको देखते हुए राजा बोला,-( १७१-१७४) । - "हे वत्स! अपने वंशके पहलेके राजा, दयाबुद्धिसे लोभ रहित होकर वनमें अकेली रही हुई गायकी तरह इस पृथ्वीका पालन करते थे। जब उनके पुत्र समर्थ होते थे तब वे उनपर इसी तरह पृथ्वीको पालनेका भार रख देते थे जैसे बैलपर धुरा खींचनेकां रखा जाता है और खुद तीनों लोकोंमें रही हुई वस्तु
ओंका, अनित्य समझ, उनका त्याग कर शाश्वतपद (मोक्ष) के लिए तैयार होतेथे, अपने कोई पूर्वज इतने समय तक गृहवासमें नहीं रहे जितने समय तक मैं रहा हूँ। यह मेरा कितना बड़ा प्रमाद है । हे पुत्र ! अव तू इस राज्यभारको ग्रहण कर तू मेरा भार लेलेगा तब मैं व्रत ग्रहणकर, संसारसमुद्रको पार करूँगा।"
(१७४-१७६) - राजाकी बात सुनकर कुमार इसी तरह कुम्हला गया जैसे कमल हिमसे कुम्हलाता है। वह अपने नेत्रकमलोंमें पानी भर कर बोला, "हे देव ! मेरा ऐसा कौनसा अपराध हुआ है कि जिससे आप मुझपर इस तरह नाराज हुए हैं; आप अपने आत्माके प्रतिबिंबको-आपके प्यादेके समान पुत्रको इस तरहकी आज्ञा करते हैं ? अथवा इस पृथ्वीने कोई ऐसा अपराध किया है कि जिसको आप इसको-जिसका अबतक आप पालन करते थे तिनकेकी तरह छोड़ रहे हैं। आप पूज्य पिताके विना मैं यह