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६१.] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३.
लेनेकी तो बातही क्या है ? में गव्य, पुत्र, कलत्र, मित्र और सारा परिवार छोड़ सकता हूँ, मगर अापके चरणोंकी सेवाका त्याग नहीं कर सकता। हे नाथ ! जैसे श्राप राजा बने ये तत्र मैं युवराज हुआ था वैसेही अव श्राप व्रतधारी होंगे तब मैं
आपका शिष्य बनूंगा। रातदिन गुरुके घरणकी उपासनामें तत्पर रहनेवाले शिष्यके लिए भिक्षा माँगना साम्राज्य ( का उपभोग करने ) से भी अधिक (सुखदाता) है। मैं अज्ञानी हूँ तो भी, जैसे गवालेका बालक गायकी पूंछ पकड़ कर नदीको पार कर जाता हे वसेही, में भी श्रापके चरणकमलाका सहारा लेकर संसार-सागरको पार करुंगा। मैं आपके साथ दीक्षा लूँगा, आपके साथ विहार करूँगा, आपके साथ दुःसह परिषद सहूँगा और श्रापके साथही उपसर्ग भी सहूँगा; मगर मैं यहाँ कदापि नहीं रहूँगा; इसलिए, हे जगद्गुरो ! श्राप प्रसन्न हुजिए.'
(१४३-१५५) इस तरह जिसने सेवा करनेकी प्रतिक्षा ली है ऐसे सगरफुमारसे अजितनाथ स्वामी अमृतके समान मधुर वाणीमें कहने लगे, "हे वत्स ! संयम ग्रहण करनेका तुम्हारा यह
आग्रह योग्य है; मगर अबतक तुम्हारा भोगफलकर्म क्षय नहीं हुया है, इसलिए तुम मेरीही तरह भोगफलकर्मको भोगकर. योग्य समयपर मोचका साधक व्रत ग्रहण करना। हे युवराज! क्रमसे श्राप हुए इस राज्यको तुम स्वीकार करो और में संयमरूपी साम्राज्यको ग्रहण काँगा।" (१५६-२५६) . प्रमुकी यह बात सुनकर सगरफुमार मनमें सोचने लगे, "मुझे, एफ तरफ प्रमुफे वियोगका भय और दूसरी तरफ इन