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श्री अजितनाथ-चरित्र
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स्वामी! अब तुम्हारे बिना नंदनवनसे फूल लाकर मेरे केशोंको कौन सजाएगा ? तुम्हारे साथ एक आसन पर बैठकर आकाशमें फिरते हुए अब मैं किसके साथ सुखसे वल्लकी वीणा बजाऊँगी ? कौन वीणाकी तरह मुझे अपनी गोदमें बिठाएगा? शय्यामें अस्त व्यस्त हुए मेरे केशोंको कौन सीधे करेगा ? प्रौढ़ स्नेहकी लीलासे मैं किसपर कोप करूँगी ? अशोक वृक्षकी तरह मेरा पदप्रहार किसके हर्षके लिए होगा ? हे प्रिय ! गुच्छरूप कौमुदीकी तरह गोशीर्षचंदनके रससे मेरा अंगराग कौन करेगा ? सैरंध्री दासीकी तरह मेरे गालोपर, ग्रीवापर, ललाटपर और स्तनकुंभोंपर पत्ररचना कौन करेगा ? गुस्सेका बहाना बनाकर बैठी हुई मुझे क्रीड़ा करने के लिए, राजमैनाकी तरह, कौन बुलाएगा ? जब मैं नींदका बहाना करके सो जाती थी तब तुम मुझे, हे प्रिया ! हे प्रिया! हे देवी! हे देवी ! इत्यादि मधुर वाणीसे जगाते थे; अब कौन जगाएगा? आत्माके लिए विडं. बनाके समान अब विलंब क्यों करूँ? इसलिए हे नाथ ! महामार्गके हे महान पथिक ! मैं भी आपके पीछे आती हूँ।"
(४३२-४४२) इस तरह विलाप करती और अपने प्राणनाथके मार्गका अनुसरण करनेकी इच्छावाली उस स्त्रीने हाथ जोड़कर राजासे वाहनकी तरह आग माँगी। राजाने उससे कहा, "हे पवित्र इच्छावाली पुत्री ! तू पतिकी स्थितिको अच्छी तरह जाने वगैर यह क्या कहती है ? कारण, राक्षसोंकी और विद्याधरोंकी ऐसी माया भी होती है, इसलिए थोड़ी देर राह देख । फिर आत्मसाधन करना तो तेरे हाथहीमें है।" (४४३-४४५)