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७७४ 1 त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६.
वह इस तरह कह रही थी और मृगीकी तरह देख रही थी, उसी समय हाथका निश्चय करानेहीके लिए हो ऐसे एक पैर पृथ्वीपर पड़ा । परोंमें पहननेके कड़ेवाले उस चरणको देख, पहचान, अश्रुपात करती हुई, वह कमलवदना फिरसे कहने लगी, "अरे ! यह तो मेरे पतिहीका वह पैर है जिसे मैंने अनेक बार अपने हाथोंसे मला है, धोया है, पोंछा है और विलेपन किया है।" वह इस तरह कह रही थी उसी समय पवन द्वारा झकझोर कर गिराई हुई वृक्षकी हालकी तरह आकाशसे दूसरा साथ गिरा । रत्नोंक भुजवंद और कंकणवाले उस हाथको देखकर धारायंत्रकी पुनलीकी तरह आँसू गिराती हुई वह स्त्री बोली, "अफसोस ! यह तो मेरे पतिका वही चतुर हाथ है जो कंघीसे मेरे बालमि माँग निकालता था और विचित्र पत्रलतिकाकी लीलालिपि लिखता था।" यों कहकर वह खड़ीही थी कि 'आकाशसे दूसरा पैर भी गिरा। तब वह फिरसे कहने लगी, "हाय ! यह मेरे पतिका वही चरण है कि जिसे मैं अपने हाथोंसे दवाती थी और अपनी गोदरूपी शय्या मुलाती थी।" तभी एक धड़ और एक मस्तक, स्त्रीके दिलको दहलाते और पृथ्वीको कपाते, लमीन पर गिरा।" (४२२-४३१) ।
तब वह स्त्री रोरोकर कहने लगी, "हाय ! उस चलिए बलवान शत्रुने मेरे पतिको मार डाला। अरे ! मैं गरीब मारी गई। यह मेरे पतिहीका कमलके समान मुख है कि जिसे मैन परमनीतिके साथ मुडलांसे सजाया था। हाय ! यह मेरे पतिहीका यह विशाल हृदय है कि जिसके अंदर और बाहर केवल मेराही निवास था। है नाथ ! अब मैं अनाथ हो गई हूँ। हे