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श्री अजितनाथ-चरित्र
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बनाऊँगा ( यानी वह मारा जाएगा और उसकी स्त्री विधवा होगी)। हे राजा ! तुम यहाँ बैठे हो, इतनेहीमें मैं केसरीसिंहकी तरह उछलकर अपना पराक्रम बताऊँगा। तुम आज्ञा दो ताकि मैं गरुड़की तरह स्वच्छंद रीतिसे क्षणभरमें आकाशमें चला जाऊँ।" (४०४-४११) ___ राजाने कहा, "हे सुभट विद्याधर ! तू स्वेच्छासे जा और तेरी स्त्री पिताके घरकी तरह यहाँ मेरे घरमें भले रहे।"
(४१२) फिर तत्कालही वह पुरुष पक्षीकी तरह आकाशमें उड़ा और दो पंखोंकी तरह तीक्ष्ण और चमकती हुई तलवार और दंडफलंकको फैलाता हुआ अदृश्य हो गया। राजाने उसकी स्त्रीको अपनी पुत्रीकी तरह आश्वासन दिया, इससे वह अपने मनको स्वस्थ करके वहाँ बैठी। अपने स्थानमें बैठे हुए राजाने, मेघगर्जनाकी तरह आकाशमें सिंहनाद सुने। चमकती हुई बिजलीकी कड़कड़ाहटके समान तलवारों और ढालोंकी अनोखी
वाजें सुनाई देने लगीं। "यह में हूँ! यह में हूँ ! नहीं ! नहीं! ठहर ! ठहर ! मरनेको तैयार हो!" इस तरहके शब्द आकाशसे आने लगे। राजा सभामें बैठे हुए सभ्यों सहित, अचरजमें पड़कर बहुत समय तक, ग्रहणकी वेलाकी तरह, ऊँचा मुंह करके आकाशकी तरफ देखता रहा। उसी समय राजाके निकट, रत्नकंकणसे शोभित, एक हाथ आकर पड़ा। आकाशसे गिरे हुए उस हाथको पहचाननेके लिए विद्याधरी आगे आकर देखने लगी। फिर वह बोली, मेरे गालका तकिया, मेरे कानका आभू. पण और मेरे कंठका हार यह मेरे प्रिय पतिहीका हाथ है।"
(४१३-४२१)