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७७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष २. सर्ग ६.
की रक्षा करनेमेही असमर्थ हो । इसीलिए मैंने दूरसे आकर भी तुमसे प्रार्थना की है। यदि तुम मेरी प्रियारूपी धरोहरको स्वीकार करोगे तो फिर, यद्यपि समय बलवान है तथापि, यह समझ ही लेना चाहिए कि शत्रु मारा जाएगा।" (३८७-३६६)
उसके वचन सुनकर हास्यरूपी चंद्रिकासे जिसका मुखचंद्र उल्लसित हो उठा है ऐसा वह उदार और चरित्रवान राजाबोला, "हे भद्र ! जैसे कल्पवृक्षसे केवल पत्ते माँगना, समुद्रसे सिर्फ पानी माँगना, कामधेनुसे केवल दूध माँगना; रोहिणाद्रिसे पत्थर माँगना, कुवेरके भंडारीसे अन्न माँगना और मेघसे मात्र छाया माँगना (अशोभनीय है) वैसेही तुमने, दूरसे श्राकर, मुमसे यह क्या माँगा ? तुम मुझे अपने शत्रको वताओ, ताकि मैंही उसे मार डालूँ और तुम निःशंक होकर संसारका सुख भोगो।"
(४००-४०३) __ राजाके घाणीरूपी अमृतके प्रवाहसे उसकी श्रवणेंद्रिय भर उठी । वह इर्पित हुआ और राजासे इस तरह कहने लगा, "सोना, चाँदी, रत्न, पिता, माता, पुत्र और जो कुछ हो । थोड़ेसे विश्वाससे भी दूसरेको सौंपे जा सकते हैं, मगर अपनी प्यारी स्त्री बहुत बड़े विश्वस्त को भी नहीं सौंपी जा सकती। हे राजा ! ऐसे विश्वासका स्थान तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं है। कारण, चंदनका स्थान एक मलयाचल पर्वतही है। आप मेरी प्रियाको धरोहरकी तरह स्वीकार कीजिए, इससे में यही मानूंगा कि श्रापहीने मेरे शत्रुको मारा है। हे राजा ! तुमने मेरी बीकी धरोहर स्वीकार की है, इससे मुझे बड़ा आश्वासन मिला है। अब में इसी वक्त अपने शत्रको विश्वस्त भार्यावाला