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श्री अजितनाथ-चरित्र
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विद्याधरी मेरी प्रिया है । एक विद्याधरके साथ मेरी शत्रुता हुई है। उस स्त्रीलंपट दुरात्माने इस स्त्रीका छल कपटसे इसी तरह हरण किया था जिस तरह राहु चंद्रमाकी सुधाको हरण करता है; मगर मैं अपनी इस प्राणप्रियाको वापस ले आया हूँ। कारण,
"नारीपरिभवं राजन् सहते पशवोपि न ।" [हे राजा! पशु भी नारीका अपमान नहीं सह सकते हैं।] हे राजा ! पृथ्वीको धारण करनेसे तेरे प्रचंड भुजदंड सार्थक हुए हैं; गरीबोंकी गरीबी मिटानेसे तेरी सम्पत्ति सफल हुई है; भयभीतोंको अभयदान देनेसे तेरा पराक्रम कृतार्थ हुआ है, विद्वानोंके संशय मिटानेसे तेरी विद्वत्ता अमोघ हुई है। विश्वके काँटे निकालनेसे तेरा शास्त्रकौशल्य सफल हुआ है। इनके सिवा तुम्हारे दूसरे गुण भी अनेक प्रकारके परोपकारोंसे कृतार्थ हुए हैं। इसी तरह तुम परस्त्रीको बहिनके समान समझते हो, यह बात भी शिश्वमें विख्यात है। अब मुझपर उपकार करनेसे तुम्हारे ये सभी गुण विशिष्ट फलवाले होंगे। यह प्रिया मेरे साथ है, मैं इससे बँध गया हूँ, इसलिए छल-कपटवाले शत्रुओंसे मैं युद्ध नहीं कर सकता । मैं हस्तिसेना, अश्वसेना, रथसेना या पैदलसेनाकी सहायता नहीं चाहता; मात्र तुम्हारी आत्माकी सहायता चाहता हूँ। और वह यह कि तुम धरोहरकी तरह मेरी स्त्रीकी रक्षा करो। कारण, तुम परस्त्रीके सहोदर हो। कई दूसरोंकी रक्षा करने में समर्थ होते हैं, मगर वे परस्त्रीगामी होते हैं, और कई परस्त्रीगामी नहीं होते, मगर दूसरोंकी रक्षा करने में अस. मर्थ होते हैं । हे राजा ! तुम न परस्त्रीगामी हो और न दूसरों.