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२१६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. संर्ग २.
मूर्ख मनुष्यकी पर्ववेला ( पर्वका समय ) पैरोंको पवित्र करनेमेंही बीत जाती है वैसेही कुछ काम ऐसे होते हैं जिनका समय विचार करने में बीत जाता है (और काम विगढ़ जाता है) फिर भी हे पिताजी! अबसे, प्राणोंपर संकट आनेपर भी, कोई ऐसा काम न करूँगा जिससे आप लन्नाका अनुभव करें।
और आपने अशोकदत्तके बारे में कहा, मगर मैं न तो उसके दोपोंसे दूषित हूँ और न उसके गुणोंसे गुणीही हूँ। सदाका सहवास,एकसाथ धूलमें खेलना, बार बार मिलना, समान जाति, समान विद्या, समान शील, समान वय और परोक्षम भी उपकारिता और सुखदुःखमें हिस्सा लेना-आदि कारणोंसे मेरी उसके साथ मित्रता हुई है। मुझे इसमें कोई कपट नहीं दिखता । उसके संबंध आपको किसीने मठी बातें कही है। कारण
"......"खलाः सर्वकपाः खलु ।" . [दुष्टलोग दूसरोंको दुखी करनेवालेही होते हैं।] यदि वह मायावी होगा तो भी वह मेरा क्या नुकसान कर सकेगा ? कारण"एकत्र विनिवेपेऽपि काचः काचो मणिर्मणिः ।।"
[एक साथ रखें रहनेपर भी काच काचही रहेगा और मणि मगिही रहेगा।] (४२-५८)
सागरचंद्र इस तरह कहकर चुप रहा तब सेठ बोला,"पुत्र! यद्यपि तुम बुद्धिमान हो तो भी मुझे कहनाही पड़ता है। कारण
___......"दलेक्षा हि पराशयाः।"