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सागरचंद्रका वृत्तांत ..
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हे प्रिय पुत्र ! अपने कुलपरंपरासे आए हुए योग्य व्यवहार करनेवाले बनकर तुम्हें धनकी तरह गुणको भी गुप्त रखना चाहिए। और जो स्वभावसेही कपटी हों उन दुर्जनोंको संगति छोड़ देना चाहिए । कारण
'सोऽलर्कविषवतकालेनापि यात्येव विक्रियाम् ।"
[वह ( दुर्जनकी संगति ) पागल कुत्तेके जहरकी तरह समय पाकर विकृत होती है-नुकसान पहुँचाती है ।] हे वत्स ! तेरा मित्र अशोकदत्त अधिक परिचयसे तुझे इसी तरह दूषित करेगा जिस तरह कोढ़का रोग, फैलनेसे, शरीरको दूषित करता है । यह मायावी वेश्याकी तरह सदा मनमें जुदा, वचनमें जुदा
और काममें जुदा होता है ।" (३३-४१) . सेठ इस तरह आदर सहित उपदेश करके चुप रहा, तब सागरचंद्र मनमें सोचने लगा, "पिताजी ऐसा उपदेश करते हैं, इससे जान पड़ता है कि प्रियदर्शनाके संबंधकी बात इनको मालूम होगई है। और पिताजीको यह मेरा मित्र अशोकदत्त संगति करने लायक नहीं मालूम होता है। ऐसे ( उपदेश देनेवाले ) गुरुजन भाग्यहीनोंकेही नहीं होते। ठीक है, इनकी इच्छा पूरी हो ।" इस तरह थोड़ी देर सोचकर सागरचंद्र विनय सहित नम्रवाणीमें बोला, “पिताजी, आपकी आज्ञाके अनुसार मुझे चलनाही चाहिए। कारण, मैं आपका पुत्र हूँ । जिस कामको करनेसे गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लंघन होता है उस कामको नहीं करना चाहिए। मगर कई बार दैवयोगसे, अकस्मात ऐसा काम आ पड़ता है कि जिसके लिए, विचार करनेमें थोड़ासा समय भी नहीं खोया जासकता। जैसे किसी