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___७५२ 1 त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ६.
तरह मेरे ये प्रधान पुरुप भी, कुमारोंके बिना अकेले इस दिशामें यहाँ आए हैं। मगर वनमें विचरते केसरीसिंहकी तरह पृथ्वीपर इच्छापूर्वक भ्रमण करते हुए मेरे कुमारोंका नाश कैसे संभव हो सकता है ? महारत्न जिनके साथ हैं और जो अपने पराक्रमसे भी अजेय हैं ऐसे अस्खलित शक्तिवाले कुमारोंको कौन मार सकता है ?" - फिर उसने पूछा, "यह बात क्या है ?"
तव अमात्यादिने नागकुमारोंके इंद्र ज्वलनप्रमका सारा हाल कह सुनाया। उस हालको सुनकर वज्जताड़ितकी तरह, भूमिको भी कँपाता हुआ वह, मूञ्छित होकर जमीनपर गिर पड़ा। कुमारोंकी माताएँ भी मूच्छित होकर जमीन पर गिर पड़ीं। कारण
"पितुर्मातुश्च तुल्यं हि दुःखं सुतवियोगजं ।"
[पुत्रके वियोगका दुःख माता और पिता दोनोंको समानही होता है।] उस समय समुद्रके तटपर खड़ेके अंदर गिरे हुए। जलजंतुओं की तरह अन्य लोगोंका महाप्रानंदन भी राजमंदिर में होने लगा, मंत्री वगैरा राजकुमारोंकी मौतकी साक्षीरूपा अपनी आत्माकी निंदा करते हुए करुण स्वरमें रोने लगे। स्वामीकी उस हालतको देखने में मानो असमर्थ हों ऐसे,छडीदार भी हाथोंसे मुँह ढंक कर ऊँची आवाजमें हाय-तोवा करने लगे आत्मरक्षक अपने प्राणप्रिय हथियारोंकात्याग करते हुए हवासे टूटकर गिरे हुए वृक्षोंकी तरह पृथ्वीपर गिरकर लोटने और विलाप करने लगे; दावानलम पड़े हुए तीतर पक्षीकी तरह कंचुकी अपने कंचुक फाड़ फाड़कर रोने लगे और चिरकालके