________________
२
त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र, पर्व १. सर्ग १.
आदिमं पृथिवीनाथ-मादिम. निष्परिग्रहम् ।
आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥३॥ [जो पृथ्चीके प्रथम नाथ हैं, परिग्रहका त्याग करने वाले प्रथम (साधु) हैं, और प्रथम तीर्थंकर हैं, उन ऋषभ स्वामीकी हम स्तुति करते हैं।
अहतमजितं विश्व-कमलाकरभास्करम् । अम्लान-केवलादर्श-संक्रांत-जगतं स्तुवे ॥४॥ [जो इस जगतरूपी कमलके सरोवरके लिए सूर्यके समान हैं, जिन्होंने अपने निर्मल केवलज्ञानरूपी दर्पणमे तीनों लोकोंको प्रतिबिंबित किया है (अर्थात् तीनों लोकोंकी बातें उनको इस तरह मालूम हो जाती है, जिस तरह भाइनेमें अपना-सामने खड़े रहनेवाले का-संपूर्ण आकार मालूम हो जाता है), उन अहंत यजितकी (अजितनाथ तीर्थकरकी) में स्तुति करता हूँ।
विश्वमव्य-जनाराम-कुल्या तुल्या जयंति ताः । देशना समये वाचः, श्रीसंभवजगत्पतेः ॥५॥
जगतके स्वामी श्रीसंभवनाथ (तीर्थकर) के वचन-जो देशनाके (उपदेशके) समय बोले जाते हैं, और जो भव्य-जीव रुपी बगीचेको सींचनेमें (पानी पिलानेमें) जलधाराके समान है, वे वचन-सदा यशस्वी होते हैं।]
अनेकांत-मतांमाधि-समुल्लासन-चंद्रमाः । . दयादमंदमानंद, भगवानभिनंदनः ॥६॥ [अनेकांत (स्याहाद्मतरूपीसमुद्रको उल्लसित (मानंदित) करनेम चंद्रमाके समान श्रीअभिनंदन भगवान बद्रुत यानंद दे।