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सागरचंद्रका वृत्तांत .
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द्वारके बीचमें रखा। उनमें आग और नमक थे, इससे (नमकके जलनेसे) तड़-तड़की आवाज आ रही थी। एक स्त्री, पूर्णिमाकी रात्रि जैसे चंद्रमाको धारण करती है वैसे, चाँदीका थाल उठाकर प्रभुके आगे खड़ी रही। उसमें दुर्वा वगैरा मांगलिक पदार्थ थे। एक स्त्री कसूंबी वस्त्र पहनकर, पाँच पखुड़ियोंवाली-मथनी-जोप्रत्यक्ष मंगलके समान जान पड़ती थी-लेकर अर्घ्य देनेके लिए खड़ी हुई । "हे अर्घ्य देनेवाली ! अर्घ्य देने योग्य इन दूल्हेको अर्घ्य दे; थोड़ा मक्खन छींट, समुद्रमेंसे जैसे अमृत उछालते हैं वैसे थालमेंसे दही लेकर उछाल " "हे सुंदरी ! नंदनवनमेंसे लाए हुए चंदनका रस तैयार कर ।" "भद्रशाल वनकी जमीनमें से लाई हुई दुर्वा आनंदसे ले आ" जिनपर, एकत्रित लोगोंके नेत्रोंकी श्रेणीका बना हुआ जंगम-हिलता हुआ तोरण है और जो तीनों लोकों में उत्तम हैं ऐसे वर तोरणद्वार पर खड़े हुए हैं। उनका शरीर उत्तरीय वस्त्र के अंतरपटसे ढका है, इससे वे गंगा नदीकी तरंगोंमें ढके हुए जवान राजहंसके समान मालूम होते हैं। "हे सुंदरी! हवासे फूल खिर रहे हैं और चंदन सूखने लग रहा है, इसलिए वरको अब अधिक समय तक दरवाजेपर रोककर न रख ।" इस तरह बीच बीचमें बोलती हुई देवांगनाएँ धवल-मंगल गान कर रही थीं। उस समय उस ( कतूंवल वस्त्र धारण करके अर्घ देनेके लिए खड़ी हुई) स्त्रीने अर्घ देने योग्य वरको अर्घ अर्पण किया। शोभायमान लाल होठोंवाली उस देवीने, धवल मंगलकी तरह शन्द करते हुए कंकणवाले हाथोंसे तीनलोकके स्वामीके ललाटको तीन बार मथनीसे स्पर्श किया। फिर प्रभुने अपनी बाई पादुका द्वारा हिमकर्परकी लीलासे