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६८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३.
वह पापकर्म करके लिस द्रव्यको कमाता है उसे उसके सगेसंबंधी इकट्ठे होकर भोगते है और वह अकेला नरकमें पड़ा हुआ पापक्रमांका फल-दुःख भोगता है,दुःखरूपी दावानल से भयंकर घने हुए संसाररूपी महावन में, यह कर्म के वश होकर अफेलाही मटकता है। संसारसे संबंध रखने वाले दुःखसे छुटकारा पानेपर उमसे जो सुख होता है उसे भी वही भोगता है, उसमें भी कोई उसका हिम्सेदार नहीं होता। जैसे समुद्रमें पड़े हुए प्राणियोंअसे जो अपनेहायों, पैरों,बुद्धि और मनका उपयोग नहीं करता वह समुद्रमें डूब जाता है और जो उपयोग करता है वह तैर लाता है वैसेही, जो धन और देहादिक परिग्रहसे विमुख होकर उनका सदुपयोग करता है और निज आत्मस्वरूपमें लीन होता. है वह समारसमुद्रको तैर जाता है। (१२१-१३७ )
संसारसे जिनका मन उदास हो गया है ऐसे अजितनाथ स्वामीको इस तरहकी चिंता करतं देख सारस्वतादिक लोकांतिक देवता उनके पास आए और कहने लगे, "हे भगवन! आप स्वयंयुद्ध' है इसलिए हम आपको बोष देने योग्य नहीं है, तो भी हम इतना निवेदन करना चाहते हैं कि, अव धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति प्रारंभ कीजिए।" ( १३८-१३६)
इस तरह विनती और प्रमुके चरणों में वंदना करके वे अपने ब्रह्मलोकमें इसी तरह चले गए जिस तरह पक्षी संध्याक समय अपने घोंसलोंमें चले जाते हैं। अपने विचारों के अनुकूल
१-निनको बिना किसीक उपदेशक ज्ञान-वैराग्य होता है उन्हें मर्यबुद्ध कहते हैं।