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श्री अजितनाथ-चरित्र
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(मति, श्रुति और अवधिज्ञान ) के धारी अजितनाथ स्वामी अपने श्राप विचारने लगे,"आज तक मेरे प्रायः, वास्तविक भोगफल, कर्म भोगे जा चुके हैं; अब मुझे, घरमें रहकर, अपने स्वकार्य (आत्मकार्य) से विमुख नहीं होना चाहिए । कारणमुझे इस देशकी रक्षा करनी चाहिए, मुझे इस शहरको संभालना चाहिए, मुझे ये गाँव आबाद करने चाहिए, मुझे इन लोगोंका पालन करना चाहिए, मुझे हाथी बढ़ाने चाहिए, मुझे घोड़ोंकी देखभाल करनी चाहिए, मुझे इन नौकरोंका भरगा-पोपण करना चाहिए, इन याचकोंको संतुष्ट करना चाहिए, इन सेवकोंका पोपण करना चाहिए, इन शरणागतोंकी रक्षा करनी चाहिए, इन पंडितोंका मान करना चाहिए इन मित्रोंका सत्कार करना चाहिए, इन मंत्रियोंपर अनुग्रह करना चाहिए, इन बंधुओंका उद्धार करना चाहिए, इन नियोंको खुश करना चाहिए और इन पुत्रोंका लालन-पालन करना चाहिए-ऐसे परकायों में लगा हुश्रा प्राणी अपने सारे मनुष्य-जीवनको निप्पल खो देता है; इन सब कामों में व्यस्त प्राणी युक्त-अयुगका विचार नहीं करता; मूर्खतासे पशुकी तरह अनेक तरहके पाप करता है। मोहमें फंसा हुआ पुरुप जब मौतके मार्गपर आगे बढ़ता तय जिनके लिए उसने पाप किए थे उनमें से एक भी उसका साथ नहीं देता। वे सब यहीं रहते हैं। उनकी बात छोड़ो, मगर उसका यह शरीर भी, एक कदम भी उसके साथ नहीं पलना। अफसोस ! फिर भी यह यात्मा इम हप्न शरीर के लिए व्यर्थ हो पापकर्म करता ६। इस संसारमें प्राणी अमलादी जन्मता, अमे.लाही मरता है और भयांतरने पौधे हा कामाका फल अफेलादो भोगना है।