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६०६] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-परित्र: पर्व २. सर्ग३.
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पुरुपची स्त्री उसके वशमें रहती है। सूर्य जैसे अपनी तेज किराये सरोवरके जलको खींचता है वैसेही, उन्होंने अपने प्रयल प्रतापसे राजाओंकी लक्ष्मीको श्रापित किया था। उनके आँगनकी भूमि, राजाओं द्वारा भेट किए गार हाथियों के मदललसे सदा पंफिल (कीचड़वाली) रहती थी। उन महाराजके, चतुराईपूर्ण चालासं चलते, घोड़ोंसे दिशाओंका, वाह्यानी (घोड़ोंके लिए बनी हुई सड़की) भूमिकी तरह संक्रमण (प्रवेश) होता था। [अर्थात उनके घोड़े सभी दिशाओंमें सरलतासे जा सकते थे; सभी दिशाओंमें रहनेवाले उनके अधीन थे। समुद्र की तरंगोंकी जैसे कोई गिनती नहीं कर सकता है वैसही, उनकी सेनाके प्यादे और रथादिकी गणना करने में कोई समर्थ नहीं था । गजारोही, अधारोही (घुड़सवार), रथी और पंदलसेनासभी अपनी भुजाओंके बलम मुशोभित उन महाराजके लिएकेवल साधनमात्र थे। उनके पास ऐसा ऐश्वर्य या दो भी उनके मनमें थोडासा अभिमान भी न था; अतुल भुजबल रखते हुए मी गर्व उनको छूकर नहीं गया था: अनुपम रूपवान होते हुए भी वे अपने शरीरको मुंदर नहीं सममतं यः विपुल लाम होत हुए भी उनमें उन्माद नहीं आता था और दूसरे भी उन्मत्त बनानवाल अनेक कारणोंक दोन हुए भी उनके मनमें मद न था। वे इन सबको, अनित्य जानते थे इसलिए, तृणक समान सममते थे। इस तरह रायका पालन करते हुए अजितनाथ महाराजन झुमारावस्थासे प्रारंम करके तिरपन लाख पूर्वका समय मुखसे विताया ।(१०१-१२०) .. एक बार सभी विसर्जन कर एकांतमें बैठे हुए, तीन ज्ञान