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श्री अजितनाथ-चरित्र
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में जा, जिनेंद्र और जिनमाताको तीन प्रदक्षिणा दे, हाथ जोड़, इस तरह कहने लगीं,-(१६२-१७७) - "सर्व षियों में श्रेष्ठ, उदर में रत्नको धारण करनेवाली,
और जगतमें दीपकके समान पुत्र को जन्म देनेवाली हे जग'न्माता ! हम आपको नमस्कार करते हैं। श्राप जगतमें धन्य हैं ! पवित्र है ! उत्तम हैं ! इस मनुष्यलोकमें आपका जन्म सफल है। कारण, पुरुषोंमें रत्नरूप, दयाके समुद्र,तीन लोकमें वंदनीय, तीन लोकके स्वामी, धर्मचक्रवर्ती, जगतगुरु, जगतबंधु, विश्वपर कृपा करनेवाले और इस अवसर्पिणीमें जन्मे हुए दूसरे तीर्थकरकी आप जननी हैं। हे माता! हम अधोलोकमें रहनेवाली दिशाकुमारियाँ हैं और तीर्थंकरका जन्मोत्सव करनेके लिए यहाँ आईं हैं। आप हमसे भयभीत न हों।"
यों कह, प्रणाम कर, वे ईशान दिशाकी तरफ गई और __उन्होंने वैक्रिय-समुद्धातके द्वारा, अपनी शक्तिरूपी संपत्तिसे,
क्षणभरमें संवर्तक नामकी वायुको उत्पन्न किया। सर्व ऋतुओंके पुष्पोंकी सर्वस्व सुगंधको वहन करनेवाले सुखकारी, मृदु, शीतल और तिरछा बहनेवाले उस पवनने सूतिकागृहकी चारों तरफ एक योजन तक तृणादि दूर कर भूमितलको साफ किया। फिर वे कुमारिकाएँ भगवान और उनकी माताके समीप गीत .गाती हुई हर्पसहित खड़ी रहीं। (१७८-१८७)
फिर ऊर्द्धरुचकमें स्थितिवाली, नंदनवनके कूटपर रहनेवाली और दिव्य अलंकारोंको धारण करनेवाली मेघंकरा, · मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, वारिपेणा
और बलाहका नामक आठ दिशाकुमारियाँ, पहलेके अनुसारही
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