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. श्री अजितनाथ-चरित्र
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की शिविकामें आरूढ़ हुए । उस शिविकाको पहले नरोने, फिर विद्याधरोंने और फिर देवताओंने उठाया.इससे वह श्राफाशमें भ्रमण करते हुए ग्रहोंका भ्रम कराने लगी। ऊपर उठाई हुई,
और जिसमें जरासा भी धक्का नहीं लगता था ऐसे चलती हुई, वह शियिका समुद्रमें चलते हुए जहाजके समान शोभती थी। शिविका आगे चली तब उसमें सिंहासन पर विराजमान प्रभु पर ईशानेंद्र और सौधर्मेंद्र चमर डुलाने लगे। दूल्हा जैसे दुलहिनका पाणिग्रहण करनेको उत्सुक होता है वैसेही, दीक्षा ग्रहण करने को उत्सुक बने हुए जगतपति वनिता नगरीके मध्य मार्गपर चलने लगे। उस समय चलनेसे जिनके कानों के आभूपण हिल रहे थे,छाती के हार मूल रहे थे, और यस फल. फड़ कर रहे थे ऐसे शिविका उठानेवाले पुरुप चलते-फिरते कल्पवृक्षके समान जान पड़ते थे। ( १६६-२१४)
उस समय नगरकी स्त्रियाँ भक्तिसे पवित्र मनवाली होकर प्रभुको देखने आई। उनमेंसे कई अपनी सहेलियों के पीछे छोड़ पाई थी , कइयों के छातीपर लटकते, हार टूट रहे थे, फागों के कंधोंसे उत्तरीय वन खिसक रहे थे, कई अपने घरोंके दरवाजे पद किए बगैर चली खाई थी और फई परदेशसे आए हुए मेहमानोंको पर बिठा आई थीं, फई परपर तत्कालके जन्ने हुए पुत्र का जन्मोत्सव मनाना छोड़कर, दौर पाई थीं, कागोंका सत्कालही लग्नमुहूर्त था, परंतु उसकी उपेक्षा करके खा गई थी, फई स्नान करनेको जाती हुई नाम फरमा बोलकर इधर, पली आई थी, फई भोजन फर हुए पाचही में भागमा फरक भाई भी, फस्यों सा शरीर पटनला माशा,