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____६१६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २ सर्ग ३.
श्राधे जेवर पहनकर और प्राधे छोड़कर चली श्राई थी, कई भगवानक निष्क्रमणकी वान सुनकर जैसे खड़ी थी बसही दौड़ पड़ी थी, कहयोन बेणियों में फूलोकी श्राधी मालाएँ बाँधी थीं, कहयोंके ललाटोपराध निलकाय,कई घरकं काम अधुरे योदकर चली आई थीं,ऋहयान नित्यकर्म अधूरे छोईथे और कहयों बाइन खड़े थे, फिर भी वे पैदलही चल पड़ी थी। यूथपतिके चागे नरफ फिरनेवाले छोटे साथियोंकी तरह नगरजन कमी प्रमुके आगे, कमी पीछ और. कमी दोनों तरफ श्रा श्राकर बड़े होने थे। कई प्रमुक दर्शन अच्छी नहस करने के लिए अपने घरोंकी छनोपर चढ़नथे,कह दीवारोंपर चढ़त थे, कई हवेलियोंकी छनोपर, चढ्न थे, कई मंचकं अगले मागपर चढ़त थे, कई गढ़के कंगूरोपर चढ़न थे, कई वृक्षांक ऊपरी भाग तक चढ़े थे
और कई हाथियों होदापर खड़े हो रहे थे। श्रागत श्रानंदित त्रियों में कई अपने कपड़ों पलं चमरोंकी तरह डुला रही थी, कई मानो पृथ्वी में धर्मवीज बोती ही एमे धाणीसे प्रमुको वघा रही थी,कई अग्निकी तरह सात शिवाओंवाली भारतियाँ उनार रही थी, कई मानो मूर्तिमान यश हो ऐसे पूर्ण पात्रोंको प्रमुक पागे रख रही थीं, कई मंगलनिधानके समान पूगा झुमा. को घारगा कर रही थी, कई संध्याके बादतांक समान बत्रास श्राकाशको अवतीर्ण (श्राच्यादित ) कर रही थीं, कई नाच करती थी, कई मंगलगीन गानी थी और कई प्रसन्न होकर मुंदर हास्य करती थीं । ( २१५-२३०)
उस समय इधर उधर दौड़ते हुए, मानो गगड़कि समूह घासे, भक्तियान विद्याधरी, देवों और मुरीसे श्राकाश भर.