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श्री अजितनाथ चरित्र
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गया । आत्माको धन्य मानती हुई चौसठ इंद्रोंकी नाटयसेना स्वामी के सामने अनेक तरहके नाटक करने लगी । सगर राजाके अनुजीवी (सेवक ) नाचनेवाले देवोंकी स्पर्द्धासे विचित्र पात्रों द्वारा जगह जगह पर नाटक करने लगे और अयोध्या नगरीके मंडनरूप गंधर्वराज व रमणीगण विश्वकी दृष्टिको बाँधने वाले प्रेक्षणीय (देखने योग्य ) प्रयोग (खेल) करने लगे । उस समय
काश और पृथ्वीपर होनेवाले नाटय संगीतके स्वरोंसे, पृथ्वी और आकाशके मध्यभागको भरदे ऐसी, महाध्वनि उत्पन्न हुई । वहाँ ( भीड़ में) फिरते हुए अनेक राजाओं, सामंतों और साहूकारों के गलेमें पड़े हुए हारोंके टूटनेसे जमीनपर मोती बिखर गए । इससे वह जमीन मोतियोंके कंकरोंवाली हो गई । स्वर्ग और पृथ्वीके मदमत्त हाथियों के मदजलसे राजमार्ग पंकिल (कीचड़वाले ) हो गए। प्रभुके पास एकत्रित सभी सुरों, असुरों और मनुष्योंसे तीन लोक, एक अधिपति की सत्ता में होनेसे, एक लोकके समान शोभने लगा । ( २३१-२३६ )
ज्ञानवान प्रभु यद्यपि नि:स्पृह थे तथापि, लोगोंकी प्रसनता के लिए, उनके मंगलोपचारको पद पदपर स्वीकार करते थे । इसी तरह एक साथ चलते हुए देवताओं और मनुष्योंपर समान कृपादृष्टिसे एकसा अनुग्रह करते थे । इस तरह, सुरों, असुरों और मनुष्योंने जिनका उत्सव किया था वे प्रभु अनुक्रमसेः सहसाम्रवन नामके उद्यान में पहुँचे । उस उद्यानके चारों तरफ फूलोंकी सुगंध से उन्मत्त बने हुए भौंरोंकी पंक्तियोंसे जिसका अंदरूनी भाग दुःसंचार था ऐसी सघन केतकीके वृक्षोंकी बाड़ बनी हुई थीं; मानो बेगारी हों इस तरह नगर के बड़े बड़े