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१७८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग,
जलते हुए कंपरहित दीपककी शिस्त्राने समान प्रभुकी छिद्ररहित और सरल अंगुलियाँ चरणरूपी कमलके समान मालूम होती थीं। उन अंगुलियोंके नीचे नंद्यावर्त (जीके जैसी रेखाओं) के चिह्न शोभते थे। उनका जो प्रतिबिंब भूमिपर पड़ता था वह धर्मप्रतिष्ठाका हेतुरूप होता था। जगत्पतिकी हरेक उँगलीके पर्वमें अधोवापियाँ(गहरे खड़ों सहित जौके चिह्न थे। वे ऐसे मालूम होते थे मानों वे जगतकी लक्ष्मीके साथ प्रभुका व्याह होनेवाला है इसलिए बोए गए हैं। पृथु (मोटी) और गोलाकार एड़ी ऐसी शोमती थी, मानों वह चरणकमलका कंद (बचा) हो। नाखत अंगूठे और अंगुलीरूपी सों के फनोंपर मणिके समान शोभते थे। चरणोंके गृह (माफ न दिखनेवाले ) गुल्फ (टखने) सोनेके कमलकी कलिकी कर्णिका (गाँठ ) के गोलक (बड़ा) की शोमाका विस्तार करते थे । प्रमुके दोनों पैरोंके तलुबेके ऊपरके भाग कलाएकी पीठकी तरह क्रमसे उन्नत, नसें न दिखें ऐसे, रोमरहित ओर स्निग्य क्रांतिवाले थे। गोरी पिंडलियाँ, अस्थि-कृघिरमें छिप जानेसे, पुष्ट, गोल और हिरणोंकी पिंडलियोंकी शोमाका भी निरस्कार करनेवाली थीं। वुटने मांससे भरे हुए और गोल थे। वे रईसे मरेडएगोल तकिये के अन्दर डाले हुए श्राइनके समान लगते थे। बाँव कोमल, क्रमसे (मोटाईम ) चढ़ती हुई और निग्य थीं। वे केलेके खमके विलासको धारण करती थीं। मुष्क (अंडकोश) हाथीकी तरह गूढ़ व समस्थितिवाले थे; कारण,
१-चैत्यकी प्रतिष्ठा नंद्यावर्तनी यत्रा होती है.वैनेही यहाँ मी उसे धर्मकला प्रतिष्ठाका चिह ममनना चाहिए।