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भरत चाय का पत्तांत
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स्तुति करते हैं उनके लिए यह भय प्रतिम होता है, तय जो थापकी सेवा-भक्ति करते हैं, आपका ध्यान करते है, उनकी तो घातही क्या कही जा सकती है ? (७७७-७८४ )
इस तरह भगवानकी स्तुति कर उनको नमस्कार कर भर. तेश्वर ईशान कोनमें अपने योग्य स्थानपर बैठा। फिर सुंदरी भगवान वृषभध्वजको वंदना कर, हाथ जोड़ गद्गद् अक्षरोंवाली वाणी में योली, "हे जगत्पति ! इतने काल तक मैं आपको मनसे देखती थी; मगर आज बड़े पुण्यसे और भाग्योदयसे आपके प्रत्यक्ष दर्शन हुए हैं। इस मृगतृष्णाके समान मिथ्या सुखवाले संसाररूपी मरदेशम (रेतीले प्रदेशमें ) अमृतके सरोवरके समान आप लोगोंको, उनके पुण्यसेही, प्राप्त हुए हैं । हे जगन्नाथ ! आप ममतारहित है, तो भी लोगोंपर आप वात्सल्य (प्रीति ) रखते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इस महान दुःखके समुद्रसे उनका उद्धार क्यों करते ? हे प्रभो ! मेरी बहन ब्राझी, मेरे भतीजे और उनके पुत्र, ये सभी आपके मार्गका अनुसरण कर कृतार्थ हुए है। भरतके आग्रहसे मैंने अबतक व्रत ग्रहण न किया इससे में खुदही ठगी गई हूँ। हे विश्वतारक ! अब मुझ दीनका निस्तार कीजिए ! निस्तार कीजिए ! सारे घरको प्रकाशित करनेवाला दीपक क्या घड़ेको प्रकाशित नहीं करता ? फरताही है। इसलिए हे विश्वकी रक्षा करनेमें वत्सल, आप प्रसन्न हूजिए और मुझे संसार समुद्रको पार करनेमें जहाजके समान दीक्षा दीजिए।" (७८५-७६३)
सुंदरीके ऐसे वचन सुन "हे वत्से तू धन्य है !" कहकर सामायिक सूत्रोचार पूर्वक प्रभुने उसको दीक्षा दी। फिर उसे