________________
३५.
त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग ४. .
-
संकुचित करते हुए प्रभुको तीन प्रदक्षिणा दे, पंचांगसे भूमिको स्पर्श कर, नमस्कार किया। उस समय, ऐसा मालूम होता था
मानों ये भूतलमें गए हुए रत्न है जो प्रमुके विंबको देखना - चाहत है। फिर चक्रवतीन भक्तिसं पवित्र बनी हुई वारणा द्वारा प्रथम धर्मचक्री (तीर्थकर) की स्तुति करना प्रारंभ किया,--
(७५४-७७६) हे प्रमो! अमन-न होनेवाले गुणोंको भी ऋहनेवाले लोग दूसरे लोगोंकी न्तुनि कर सकते हैं, मगर मैं तो आपके जो गुण हैं उनको कहनमें भी असमर्थ हूँ, इससे मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ ? तो भी, जैसे दरिद्र श्रादमी भी जब वह लक्ष्मीवानके पास जाता है तब उसे कुछ भेट करता है ऐसेही, हे जगन्नाथ ! मैं भी आपकी स्तुति कलंगा। हे प्रभो! जैसे चाँदक्री किरणोंसे शेफाली जानिके वृक्षोंके पुष्प गल जाते हैं, ऐसेही, तुन्दारे चरणों के दर्शन मात्रसे मनुष्यों के अन्य जन्मामें किए छाए पाप नष्ट हो जाते हैं। हे प्रभो! सन्निपात रोग असाध्य (जिसकी कोई दवा नहीं ऐसा होता है परंतु यापकी अमृतरसके समान श्रीपचपी वाणी महामाहलमा सन्निपात बरको मिटा देती है। हे नाथ! वर्षाके जलकी तरह चक्रवर्ती और गरीव दोनॉपर समान भाव रखनेवाली श्रापकी दृष्टि, प्रीति. संपत्तिका एक कारणरूप होती है। स्वामी! कर कर्मरूपी घरफके गोलेको पिघला देनेनं सूर्यके समान श्राप हमारे सांक पुण्योदयसेही पृथ्वीपर विचरण करते हैं। हे प्रभो ! व्याकरणमें व्याप्त सक्षा मूत्रके जैली उत्पाद, व्यय और प्रौव्यमय, आपकी कही हुई त्रिपदी जयनी वर्तती है। हे भगवान! जो आपकी