________________
भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत
[३४६
और उत्तम रत्नालकार पढ़ने । यद्यपि उसने शीलरुपी अलंकार धारण किया था; तो भी व्यवहार सँभालने के लिए उसने दूसरे अलंकार स्वीकार किए। उस समय रूपसंपत्तिसे सुशोभित सुंदरीके सामने स्त्रीरत्न मुभद्रा दासी के समान लगती थी । शीन द्वारा यह सुंदर वाला, जंगम-चलती फिरती-कल्पलताकी तरह, याचकोंको जितनी (धन-दौलत) ये मांगते धे देती थी। हसिनी जैसे कमलिनीपर बैठती है वैसेहो वह कपूरकी रजके समान सफेद वस्त्रोंसे सुशोभित हो एक शिबिका (पालकी ) में बैठी। हाथियों, घुड़सवारों, यादों और रथोंसे पृथ्वीको ढकते हुए महाराज भरत, मरुदेवीकी तरह सुंदरीके पीछे पीछे चले । उसके दोनों तरफ चामर दुल रहे थे, मस्तकपर सफेद छत्र शोभता था और चारण-भाट, उसने संयमको जो दृढ़ श्राश्रय दिया था उसकी तारीफ करते थे। भाभियाँ दीक्षाके उत्सबके मांगलिक गीत गाती थीं और उत्तम स्त्रियाँ पद-पदपर लवण उतारती थीं। इस तरह साथ चलनेवाले अनेक पूर्ण पात्रोंसे शोभती, वह प्रभुके चरणोंसे पवित्र बनी हुई अष्टापद पर्वतकी भूमिपर पहुँची। चंद्रसहित उदयाचलकी तरह, प्रभु जिसपर विराजमान है. ऐसे पर्वतको देख भरत तथा सुंदरी बहुत खुश हुए। स्वर्ग
और मोक्षमें जानेकी मानों सीढ़ी हो ऐसे विशाल शिलाभों वाले उस पर्वतपर वे दोनों चढ़े और संसारसे डरे हुए लोगोंके लिए शरणके समान, चार दरवाजों वाले और छोटी बनाई हुई जंबूद्वीपकी जगति (कोट) हो ऐसे, समवसरणके पास पहुंचे। उन्होंने उत्तरद्वारसे समवसरणमें यथाविधि प्रवेश किया। फिर हर्प और विनयसे भपने शरीरको उच्छ्वसित (चिंतामुक्त) तथा