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३४८] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४.
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नाही योग्य है। मांस, विष्टा, मूत्र, मल, पमीना और रोगोंसे भरे हुए इस शरीरको सजाना घरकी मोरी सजाने के समान है। हे बहिन ! तुम धन्य हो कि इस शरीरसे मोक्षरूपी फल दनवाला वन ग्रहण करना चाहती हो। चतुर लोग लवणसमुद्रमेंसे भी रत्न ग्रहण करते हैं।" प्रसन्नचिन्न महाराजाने या कहकर मुंदरीको दीक्षाकी यात्रा दी। तपसे दुबली मुंदरी यह सुनकर अति प्रसन्न हुह, वह मानों पुष्ट हो ऐसी उत्साहामा जानपड़ी। (७१७-७५३)
उसी अरसे में जगनरूपी मारकं लिए मेष समान भगवान ऋपमदेव विहार करत हए अष्टापद गिरिपर पाए। वहीं उनका समवसरण हुथा। रत्न, सोने और चाँदीके द्वितीय पर्वतके समान उस पर्वत पर देवताओंन समवसरगणकी रचना की। और उसमें बैठकर. प्रभु देशना न लगे। गिरिपालकॉन तत्कालही लाकरभरतपतिको इसकी सूचना दी। मेदिनीपतिको (जमीन मालिकको) यह मुनकर इननी बुशी हुई जितनी खुशी उसको छ:वंड पृथ्वी जीतनपर भी नहीं हुई थी। स्त्रामीक अानकी खबर देनवाले नौकरीको उसने साढ़े बारह करोड़ सोनयाँका इनाम दिया और मुंदरीम कहा, "तुम्हार मनोरयोंकी मूर्तिमान सिद्धि हाँ पसे, जगद्गुरु विहार करते हुए यहाँ श्राप है।" फिर दामियोंकी तरह अंत:पुरकी त्रियांसमुदरीका निष्कमगा• मिपंक' ऋगया। मुंदरीन स्नान करके पवित्र विलेपन किया। फिर मानों दूसरा विन्तयन क्रिया हो एसे पल्लंवाल मचल बन्न
.१-घर छोड़कर जी बनने लिए, जानेमे पहन किया जानवाला स्नानादि ऋत्या
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